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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsur Gyanmandir -गुरुवाणी है. अलग-अलग प्रपंच करके आता हैं. मन में छिप जाता है. घर का शत्रु हैं. घर के चिराग से ही घर में आग लग जाती है. प्रमादी साधु का जीवन जलकर के राख बन जाता है. नेमिनाथ भगवान के जीवन में राजमती जैसी सती, जिस समय पर निसार में साध्वी महाराज के पास दीक्षा लेने जा रही थी, नेमिनाथ भगवान मेरे सर्वस्व हैं. अगर उन्होंने यहां मेरा हाथ नहीं पकड़ा? मेरे मस्तक पर उनका हाथ पड़ेगा. तीर्थंकर परमात्मा थे पूर्ण निर्विकार आत्मा थी. पूर्ण वीतरागी आत्मा थी. जो कार्य नेमिनाथ ने किया, वही कार्य उन्होंने किया. सच्चा वास्तविक आत्मा का प्रेम तो इसे कहा जाता है. संन्यास ले लिया, दीक्षा लेकर साध्वी बन गई. सती शिरोमणि की नेमिनाथ भगवान के हाथ से दीक्षा हई. आशीर्वाद देकर उन्हें चरित्र दिया. अचानक रास्ते में गुफा के अन्दर. बरसात का समय था. बरसात पड़ रही थी. शरीर का कपड़ा भींग गया. तो पतन की दृष्टि से एकान्त देखकर के पहाड़ के अन्दर गई और वस्त्र को सुखा दिया. संयोग से ही रथनेमी पहले से ही अन्दर मौजूद थे. नेमिनाथ भगवान के छोटे भाई वे भी चरित्र लिए थे. बड़े भाई थे. संयम लेकर अपनी साधना में निमग्न थे. कोई ऐसी साधना नहीं थी. परन्तु अचानक राजमती अन्दर आई, प्रकाश में से अन्दर मालूम नहीं पड़ा कि कोई है. वस्त्र लेकर के सुखा दिया. अति सुन्दर, अति रूपवान जैसे ही रथनेमी की दृष्टि गई, विकार का प्रवेश हुआ. यह काम शत्रु तीर्थंकर जैसे महान खानदान में भी घुस गया. मन में विकार भावना आई. राजमती को कुछ मालूम नहीं. जब विकार भावप्रकट हुआ, भोग की भावना से प्रार्थना की. रथनेमि ने कहा-तुम तप करके क्या शरीर सुखा रही हो. यह सुन्दर शरीर तो उपभोग के लिए है. इसका उपभोग करें. जैसे ही उसने शब्द सुना एकदम चमक गई. वस्त्र को लेकर अपने शरीर को छुपा लिया. ___कहा - “रथनेमि! किस कुल में तुम जन्मे हो, नेमिनाथ के तुम भाई हो, ऐसे उत्तम कुल में जन्म लेकर के ऐसी प्रार्थना. ऐसी प्रार्थना तो नीच व्यक्ति भी नहीं करते. इससे तो तुम्हारा मरना ही श्रेष्ठ होगा. उत्तम कुल के सर्प भी विषवमन करके वापिस कभी पीते नहीं. जिस नेमिनाथ भगवन्त ने मुझे वोमिट कर दिया. तुम उसे चाटने आये हो. धिक्कार है. तुम्हें और तुम्हारे जीवन को. तुम मर जाओ." ___शब्द आया, मन्त्र का काम कर गया. रथनेमि लज्जा से झुक गये. घोर पश्चात्ताप हुआ. परमात्मा के पास जाकर के इसकी आलोचना की, आत्माशुद्धि की. इतने महान पुरुषों को भी ललचाये, मान कर जाये. वहां तक भी पहुच जाये और आमन्त्रण करे. फिर हमारे जैसी आत्माओं की क्या स्थिति होगी. आप सोच लीजिये. Oila 469 For Private And Personal Use Only
SR No.008711
Book TitleGuruvani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmasagarsuri
PublisherAshtmangal Foundation
Publication Year1996
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size20 MB
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