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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - गुरुवाणी मंगलाचरण की परम्परा तथा अहंकार का विनाश करुणामय आचार्य श्री हरिभद्रसूरि महाराज ने अपनी अद्भुत रचना धर्मबिन्दु के द्वारा अपने चिन्तन को प्रारम्भ करने से पूर्व सर्वप्रथम परमात्मा के उपकार का स्मरण किया. वस्तुतः भारतीय और आर्य संस्कृति की परम्परा में कोई भी मंगल कार्य हम प्रारम्भ करते हैं तो सर्वप्रथम परमात्मा एवं गरुजनों को नमस्कार करने के पश्चात ही उसका श्रीगणेश करते हैं, चाहे वह कार्य लौकिक हो या आध्यात्मिक. आचार्यप्रवर ने जहां जीवन का सुन्दर मार्गदर्शन किया, वहीं उन्होंने सर्वप्रथम परमात्मा को स्मरण करके अपने भावों को अभिव्यक्ति दी कि हे प्रभु! प्रस्तुत रचना में किसी प्रकार से मेरी बौद्धिक विकृति न आये, मेरे द्वारा लोगों को कोई गलत मार्ग-दर्शन न मिले. जो आपने कहा, वही मैं लोगों तक पहुंचाने वाला बनूं. यही इस मंगल सूत्र का आशय है. उन्होंने अपने अन्तर्भाव प्रकट किए, उनके अन्तरंगों से उन शब्दों का आविर्भाव हुआ. अन्तर्भावों की अभिव्यक्ति के लिए शब्द एक माध्यम है जैसा कि उन्होंने कहा - प्रणम्य परमात्मानं, समुद्धृत्य श्रुतार्णवात्। धर्मबिन्दु प्रवक्ष्यामि, तोयबिन्दुमिवोदधेः।। तदन्तर प्रार्थना में उन्होंने ऐसी लघुता प्रकट की कि भगवन् मेरे पास तो कुछ भी नहीं है. यह जो कुछ विद्यमान है, सब तेरी कृपा की ही परिणति है. तेरे कहे हुए शास्त्रों में से, उस शास्त्र के महोदधि में से, मैंने तो एकबिन्दु मात्र प्राप्त किया. अब इस ग्रन्थ के द्वारा जो कुछ भी यहां रखूगा, वह अपने वैदुष्य प्रदर्शन के लिए नहीं, अपितु इसका उद्देश्य संसार के बहत बडे समुदाय को तेरी आप्तवाणी से लाभान्वित कराना है. उन्हीं आत्माओं के उपकार के लिए मैंने इस ग्रन्थ की रचना की. इस रचना का ध्येय कोई अपनी विद्वत्ता को प्रदर्शित करने के लिए नहीं, न ही अभिमान बताने के लिए, और न ही यह दर्शाने के लिए कि मैं कितना जानकार हूँ, परन्तु जो कुछ भी मैंने तेरे साहित्य के समुद्र में से प्राप्त किया, यह तो तेरे वचनों के पयोधि में से एक बिन्दु मात्र है. जगत् के हित के लिए, आत्माओं के कल्याण के लिए, अनेक लोग तेरे प्रवचन से धर्म का अनुपालन करें, आत्म कल्याण करें - इसी आशय से इस ग्रन्थ के माध्यम से मैं लोगों तक परमात्मा की वाणी का सम्प्रेषण कर सकँ. उक्त श्लोक के प्रारम्भ में सर्वप्रथम शब्द का जो प्रयोग किया गया, वह सर्वथा अचिन्त्य है – पहले ही नमस्कार "प्रणम्य परमात्मानं” से अभिप्राय है वह परमात्मा जो परिपूर्ण है, जिनके अन्दर राग और द्वेष का सर्वथा अभाव है, सारी दुनिया जिनको परमात्मा के रूप में स्वीकार करती है, जो पूर्ण है, परमेश्वर है, निरंजन है, निराकार है, ज्योतिस्वरूप SAR URUPAN For Private And Personal Use Only
SR No.008711
Book TitleGuruvani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmasagarsuri
PublisherAshtmangal Foundation
Publication Year1996
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size20 MB
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