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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir -गुरुवाणी: है और सम्पूर्ण शक्ति में जिनकी चेतना है, जिनकी चेतना अनन्त शक्तिमयी है, उस सम्पूर्ण परमपुरुष परमात्मा को मैं नमस्कार करता हूँ ____ आचार्य श्री हरिभद्र सूरि ने किसी प्रकार की कोई साम्प्रदायिक संकीर्णता नहीं बतलाई और न ही किसी प्रकार से उन्होंने अपनी मनोविकृति का परिचय दिया. परन्तु जो निरंजन है, जो आत्मा सर्वथा कर्म से रहित है, निराकार है अर्थात् जिसका कोई आकार नहीं, शरीर नहीं, मन नहीं, कर्म कुछ भी नहीं, ऐसे निराकार परमेश्वर और अनन्त सिद्धमय आत्मा को नमस्कार करके मैं इस ग्रन्थ की रचना कर रहा हूँ, ऐसा कहा. नमस्कार इसीलिए किया जाता है कि यत्किंचित् अहम का अंश अन्दर हो नमस्कार के उपरान्त उसका विसर्जन हो जाय. बोतल के अन्दर यदि कोई गलत चीज हो और आप उसे झुकाएँ तो वह ढल जाती है, निकल जाती है. इस प्रकार मन की बोतल के अन्दर यदि अहंकार का प्रवेश हो गया हो, किसी कारण से यदि ज्ञान में अजीर्ण हो गया हो, मन के अन्दर विकृति आ गई हो तो नमस्कार जैसी क्रिया के द्वारा मन के बोतल में से अपने अहंकार का मैं विसर्जन कर रहा हूँ और भगवन् तेरे स्मरण के द्वारा उस बोतल को मैं पूर्ण कर रहा हूँ ताकि मेरे अन्दर सद्भावना बनी रहे. निष्पक्ष रूप से लोगों को मार्गदर्शन देने वाला बनूं. जैन साधु किसी पक्ष का वकील नहीं होता. किसी सम्प्रदाय की वकालत नहीं करता. जो सत्य है, जो आत्मा है, आत्मा के अन्दर रह रहे जो भी पदार्थ हैं और जो परिपूर्ण परमेश्वर है, वह साधु उन्ही का पक्षधर होता है. यही महान आचार्य हरिभद्रसूरि का कथन है. जिसे उन्होंने इस श्लोक में स्पष्ट कर दिया: न मे पक्षपातो वीरे न द्वेषः कपिलादिषु। युक्तिमद् वचनं यस्य तस्य कार्यः परिग्रहः।। __ऐसी सुन्दर बात उन्होंने लोगों के समक्ष प्रस्तुत कर स्पष्ट कर दिया कि मैं महावीर का वकील नहीं हूँ. महावीर के वचन का बचाव करने वाला नहीं हूँ, किसी के पक्ष का मैं नहीं हूँ. अन्य दर्शनों से, अन्य धर्मों से मेरा कोई अन्तर्द्वष नहीं है. "युक्तिमद् वचनं यस्य तस्य कार्यः परिग्रहः" आचार्यश्री ने यह स्पष्ट कर दिया कि जिनका पक्ष परम सत्य है, जिनके कथन में सत्य है, मैं उनका पक्ष करने वाला हूँ, चाहे वह महावीर ने कहा हो, या राम ने कहा हो या कि वह श्रीकृष्ण का उपदेश हो, जहाँ परम सत्य है एवं आत्मा से संबंधित जो भी बातें हैं मैं उसका सहर्ष अनुमोदन करता हूँ, सत्य का पक्ष लेकर ही मैं चलने वाला हूँ. किसी पक्ष का वकील नहीं, किसी पक्ष का रागी नहीं, मैं तो केवल सत्य का अनुरागी हूँ.. अपनी पवित्रता को प्रकट करने हेतु की गयी सर्वोत्कृष्ट क्रिया - नमस्कार की क्रिया है. दुनिया के प्रत्येक धर्म के अन्दर इस नमस्कार को सर्वप्रथम महत्त्व दिया गया है. यह अत्यन्त रहस्य का विषय है. इसके द्वारा व्यक्ति अपनी पात्रता, अपनी योग्यता का सम्पादन For Private And Personal Use Only
SR No.008711
Book TitleGuruvani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmasagarsuri
PublisherAshtmangal Foundation
Publication Year1996
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size20 MB
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