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-गुरुवाणी
बीरबल ने कहा कि हजूर आप तो दानेश्वर हो. रात और दिन आपके हाथ से ऐसे खैरात होते हैं. ऐसा सुन्दर दान-पुण्य होता है. हजूर! दान देते-देते, अशर्फी देते देते हथेली के सारे बाल आपके घिस गए. हजूर! अब मैं क्या कहूं.
अरे तू मुझे क्या बेवकूफ बना रहा है. मेरी हथेली के बाल घिस गये. तेरे बाल कहां गये.
हजूर! मैं तो ब्राह्मण हूं. आपने इतना दान दिया कि लेते-लेते मेरे बाल भी घिस गए. ___ अरे मेरे बाल देते हुए घिसे और तेरे लेते हुए घिसे. ये सभा में सब इतने लोग बैठे हैं. इनके बाल कहां गए?
हजर। आपने इतना ईनाम दान दिया. मैंने लेकर के अपना घर भरा. ये ईर्ष्या में हाथ मलते रहे और इनके भी घिस गये.
समझ गए, आप मेरी बात? ईर्ष्या की आग बड़ी खतरनाक होती है, स्वयं के पुण्य को जलाकर राख कर देती है. कभी भविष्य में ईर्ष्या की आग में अपने गुणों को आप भरम न करें. यदि कोई आत्मा परोपकार करता हो, शुभ कार्य करता हो, तो उसका अनुमोदन करें. यह धर्म का प्राण है. उसका नाश नहीं मेरा नाश हो रहा है. वे दुःखी नहीं, उसे देखकर मैं दुःखी हो रहा हूं. उस आत्मा के दुःख को, दर्द को मैं कैसे दूर करूं? यही हमारा सतत प्रयास होना चाहिए. ___अब इसके पश्चात् धर्म के अन्य पक्षों पर हम आगे प्रकाश डालना चाहेंगे. धर्म कहां से प्रारम्भ होता है तथा मंगलाचरण के द्वारा उसका पूर्व परिचय आपको दिया जा चुका है. इसी पर और गम्भीर चिन्तन प्रस्तुत करेंगे.
सर्वमंगलमांगल्यं, सर्वकल्याणकारणम् प्रधानं सर्वधर्माणां, जैन जयति शासनम्
भगवान महावीर के उद्गार हैं कि प्रेम के द्वारा लाया गया परिवर्तन स्थायी होता है. कोई चाहे जितना भी दुष्ट व कठोर हृदय का व्यक्ति क्यों न हो, प्रेम के आधार पर उसे पिघाला जा सकता है, प्रेम पगडंडी है सामने वाले के हृदय तक पहुँचने की.
CPI
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