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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गुरुवाणी - हमारी भारतीय परम्परा में इसका सबसे अधिक महत्व है. अगर सदाचार गया तो सब कुछ गया, बाकी लाश है. सारी साधना प्राण शून्य है. साधना में किसी भी प्रकार की जागृति नहीं मिलेगी. एक संकल्प करना है. पर्युषण में आठ दिन पूर्ण रूप से ब्रह्मचर्य का पालन करूगा. और इस पर्व की मैं आराधना करूंगा. ब्रह्मचर्य पूर्वक सत्यनिष्ठ व्यक्ति यदि आराधना करे, वह आराधना उसके लिए वरदान बन जाये बिना मन्त्रेण सिध्यति. कोई मन्त्र साधना को सिद्ध करने के लिए सर्व प्रथम शर्त हैं. ब्रह्मचर्य पालना उसी ब्रह्मचर्य के लिए तप कराया जाता है ताकि साधना में आत्मा निर्विकारी रहे. सतत चिन्तन के निमित्त उसे दिया जाता है ताकि दूसरे गलत विचार उसमें न आ जायें. काम के बाद दूसरा सबसे खतरनाक शत्रु है, क्रोध, उसका परिचय दिया. क्रोध पर विजय कैसे पाई जाये. ऊपर से नीचे तक सर्व व्यापी साम्राज्य है. साधक आत्माओं के अन्दर भी प्रवेश करता है. सामान्य व्यक्तियों के अन्दर भी चोट पहुंचा देता है. जीवन के हर क्षेत्र में यह आपके साथ चला जाता है और अन्दर रहा हुआ यह शत्रु कभी नहीं प्रकट होता है. आद्य शंकराचार्य काशी गये थे. महान विद्वान पुरुष थे. गंगा स्नान करके विश्वनाथ के मन्दिर जाने वाले थे प्रात: काल ब्रह्म मुहूर्त था एवं अन्धकार में कोई हरिजन रास्ते में गलियों की सफाई कर रहा था. वह झाडू उनके शरीर से स्पर्श कर गया. युवा अवस्था थी. ब्रह्मचारी थे. बडी गर्मी आई, क्रोध में बोले - "किस चण्डाल का स्पर्श मुझे हो गया. मझे फिर स्नान करने जाना होगा" आवेश में आ गये. क्रोध में आ गये. आये भूमि का संस्कार ऐसा. हरिजन ने हाथ जोड़कर के क्षमा याचना की. कहा - "मुझे भी आप क्षमा प्रदान करें. मुझे भी स्नान करने जाना पडेगा." _ शंकराचार्य ने पूछा - “तुझे किस बात का स्नान करना है?" जरा गुस्सा शान्त हुआ. याचना से. उसने कहा - "मुझे महाचाण्डाल का स्पर्श हो गया." शंकराचार्य ने पूछा - “महाचाण्डाल फिर कौन है?" "भगवन्! आपके अन्दर भरा क्रोध महा चाण्डाल है उसका स्पर्श हो गया. मेरी पवित्रता भी गई. मुझे भी गंगा स्नान करने जाना है.” उसी समय शंकराचार्य अपनी भूल स्वीकार कर ली, आज के बाद कभी क्रोध नहीं करूंगा. इतने महान पुरुष तक, इतने महान विद्वान तक, इस क्रोध की पहुंच है, वहां तक यह आक्रमण करता है. क्रोध की ज्वाला में अपनी सारी शक्ति को जलाकर राख बना देता है. यही क्रोध का परिणाम था कि महावीर को इतना कष्ट सहन करना पड़ा. पूर्व भव में ऐसे कर्म उपार्जन करके आये, जिसका परिणाम परमात्मा को भोगना पड़ा. उपसर्ग 487 For Private And Personal Use Only
SR No.008711
Book TitleGuruvani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmasagarsuri
PublisherAshtmangal Foundation
Publication Year1996
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size20 MB
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