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गुरुवाणी:
दधीचि ऋषि ने अपना प्राण दे दिया, देह विसर्जन कर दिया और उनके बतलाये हुए उपाय से, शरीर में से निकली हुई हड्डी के द्वारा बनाए हुए साधन से असुरों का उपद्रव शान्त हो गया. इसीलिए ऋषि-मुनियों ने कहाः
"परोपकाराय सतां विभूतयः" व्यक्ति परोपकार की भावना में सर्वस्व अर्पण कर सकता है. दधीचि ऋषि ने विचार किया, कि मुझे थोड़े समय तक जीना है और मेरे शरीर के द्वारा यदि इनका भला होता हो तो क्यों न शरीर का सदुपयोग कर लिया जाये.
परोपकार की भावना हमेशा मन से जन्म लेती है. और शरीर उस भावना को क्रियात्मक रूप देकर उसकी अभिव्यक्ति करता है. आपके पास पूर्व के प्रारब्ध से, पुण्य से पैसा आ जाए तो उसका उपयोग उसी प्रकार से होता है, जिस प्रकार से आपने अपने मन का निर्माण कर रखा हो. पहले मन को तैयार करना पड़ेगा. मन में इस भावना का निर्माण करना पड़ेगा कि मानव जन्म लेकर के यदि मैंने सेवा नहीं की तो मेरा जन्म सारा निष्फल हो जाएगा. परोपकार की भावना को बड़ी सुन्दर उपमा दी है. सेवा की भावना, अति मूल्यवान भावना है. ऋषि-मुनियों की भाषा में कहा जाय तो उन्होंने कहा है:
"सेवाधर्मो परमगहनो योगिनामप्यगम्यः" यह सेवा धर्म इतना महान और गहन तत्त्व है, जो योगियों को भी इसकी गम्भीरता का आभास नही हो पाता.
"दीनाभ्युद्धरणादरः" इस सूत्र के द्वारा, यह जानकारी प्राप्त करनी है. कि यत्किंचित जो मेरे पास है, उसमें से मैं परोपकार में अर्पण करूंगा. अपने शरीर का उपयोग इस प्रकार के कार्य में करूंगा. मेरे मन में सतत् उस प्रकार की भावना बनी रहे. मेरा हृदय कोमल बना रहे. बरसात के कारण जमीन जब कोमल होती है, उसमें बीज डालिए तो तुरन्त उसमें से अंकुर निकलता है. हृदय जब सद्भावना के द्वारा कोमल बन जाए तो धर्म-बीज का अंकुर तुरन्त वहां उत्पन्न होता है और उसका परिणाम थोड़े से समय में हमारे समक्ष आ जाता है. ___ अतः हृदय की कठोरता निकल जानी चाहिए और उसमें करुणा का आविर्भाव होना चाहिए कि जाते-जाते भी मैं अपने शरीर का सुन्दर से सुन्दर उपयोग करने वाला बनं. आपके शरीर की क्या कीमत है, कुछ भी नहीं. आज जो कुछ भी मूल्य हम ने मान लिया या समझ लिया, वह पैसे को समझ लिया. कवि ने कहा है:
यस्यास्ति वित्तं स नरः कुलीनः,
स एव वक्ता स च दर्शनीयः। कवि ने सब के लिए अन्त में कहा है:
"सर्वे गुणाः कांचनमाश्रयन्ति'
nola
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