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:गुरुवाणी
यह सब शिष्टाचार है और एक-एक शिष्टाचार समझने योग्य है. ऐसा कोई कार्य अपने जीवन में नहीं होना चाहिए, जो लोकाचरण के विरुद्ध हो.
“यद्यपि शुद्ध लोक विरुद्ध नाचरणीयम्" ऐसा कोई कार्य नहीं करना जो लोक-व्यवहार में प्रचलित न हो, जो लोक निन्दा का कारण बन जाये, तमाशा बन जाये. शिष्टाचार के अन्तर्गत हमारे यहां सूत्र में कहा जाता है कि प्रतिक्रमण में, लोक विरुद्ध कार्य कभी नहीं करना नहीं तो मानसिक तनाव आएगा. जीवन भय से ग्रस्त रहेगा. मन के अन्दर एक प्रकार से लज्जा का अनुभव होगा.
"दीनाभ्युध्दरणादरः" न-दुखियों की आत्माओं का उद्धार करना. आपकी दृष्टि में यदि कोई गरीब या भूखा इंसान आ जाए या रोग से पीड़ित आत्मा आ जाए और सामर्थ्य या सक्षमता होते हुए भी आपने उसका अगर दर्द दूर नहीं किया, प्रयास नहीं किया तो भगवान की दृष्टि में कहा गया कि वह भी गुनहगार है. वह भी एक प्रकार की हिंसा है.
अतः सामर्थ्य होते हुए किसी आत्मा के दर्द का निवारण करना हिंसा के अन्तर्गत आता है. यह हमारे शिष्टाचार का एक आवश्यक पक्ष है. दूसरी बात, आपको अपनी कृतज्ञता के प्रति सचेत रहना चाहिए कि उसने आपका उपकार किया अतः आप भी यथा सम्भव करें.
"सुदाक्षिण्यं" अन्दर दाक्षिण्या का गुण आना चाहिए. कोई व्यक्ति अगर गलत कर गया तो दाक्षिण्या रखिए, उपेक्षा करिए कि हो गया होगा, इंसान भूल कर ऐसा कर गया. जिस प्रकार चलने वाले को ठोकर लग ही जाती है उसी तरह कार्य करता हुआ व्यक्ति व्यवहार में भूल कर देता है. अपनी दाक्षिण्यता को आप कभी मत भुलाएं.
"सदाचारः प्रकीर्तितः” इस प्रकार सम्यक् आचरण का गृहस्थ पालन करें.
"सर्वत्र निन्दासंत्यागो" निन्दा को त्यागो. यह कैंसर से भी भयानक रोग है. बाजार में आप चाट खाते हैं. उससे भी ज्यादा स्वाद परनिन्दा में आता है. किसी की निन्दा सुनने में, किसी की निन्दा करने में लोगों को बड़ा आनन्द आता है. यह कैंसर जैसा है. सारी साधना में कैंसर उत्पन्न करता है. कमजोर बना देगा. जीभ की सारी पवित्रता चली जाएगी. हज़ार बार राम का नाम लिया, अमृत उत्पन्न किया इस जीभ से, और एक बार परनिन्दा किया तो अमृत में जहर मिला लिया. वह अमृत आत्मा स्वीकार कैसे करेगी. आप किसी के यहां भोजन के लिए जायें और खीर से भरा हुआ तपेला हो, भगोना हो और उस में यदि एक बूंद पायजन (जहर) डाल दें तो आप लेंगे? कभी नहीं. इसी तरह निन्दा आत्मा कभी स्वीकार नहीं करेगी.
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