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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org : गुरुवाणी: बी काइण्ड " दयालु बनने के लिये पैसे की ज़रूरत नहीं, हृदय की ज़रूरत है. देखने में यह एक सामान्य कार्य था. अपने धर्म को हम अपने जीवन में सक्रिय बनायें. यह भी तो धर्म का ही एक प्रकार है. ऐसे दीन-दुःखी की सेवा के द्वारा धर्म को विकसित किया जाता है. भीतरी गुणों का विकास किया जाता है. अपनी भावनाओं को पुष्ट किया जाता है, विचार को आकार दिया जाता है. इन चीज़ों में हम बहुत उपेक्षित हैं और आप यह समझें कि परमात्मा के द्वार पर जाऊं, आरती उतारूं और भगवान प्रसन्न हो जाएं भगवान के यहां जाकर के दर्शन कर लूं और प्रार्थना कर लूं और परमात्मा प्रसन्न हो जाएं • परमात्मा सर्वज्ञ हैं, सर्वदर्शी हैं. आपकी औपचारिकता से वे पूर्ण परिचित . अन्दर की वास्तविकता क्या है, वह परमात्मा से छिपी हुई चीज़ नहीं है. वहां जीवन का सभी पाप प्रगट है. वहां तो आन्तरिक रुदन लेकर के जाना है. हृदय से पश्चाताप ले कर के जाना है. हृदय से रोकर के प्रभु की प्रार्थना करनी है Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भगवन्! तेरे द्वार पर अपराधी बन कर के आया हूं, साहूकार नहीं, सद्बुद्धि की कामना लेकर के आया हूं. भगवन्! तेरी कृपा से वह शक्ति मिले कि ऐसी भावना से मैं बच पाऊं. दुर्विचार का, दुर्भावना का मैं प्रतिकार कर सकूं. वह शक्ति तुम मुझे प्रदान करो. क्या कभी इस प्रकार की प्रार्थना लेकर गए? हमेशा हमारी प्रार्थना में जीवन की दरिद्रता छिपी मिली. ऊपर से परमात्मा को प्रार्थना और अन्दर से भाव यह चले करें शांतिनाथ प्रभु शाता करो; गोल घी कपासीया मोंघा करो। क्या भगवान बाजार भाव की चिन्ता करते हैं या आपका चौखटा देखने के लिए बैठे हैं ? भगवान को रिश्वत देने चले कि अगर यह काम हो जाए तो इतना रुपया आपको दूँ. क्या भगवान् आपके पाप में भागीदार बनने वाले हैं? कैसी अज्ञान दशा. इस अज्ञान दशा से मुझे निकलना है. प्रारब्ध में विश्वास करना है. मेरे कार्य में मुझे विश्वास होना चाहिए. मेरे वर्तमान कार्य से, मेरे प्रारब्ध का निर्माण होगा. अपने कर्म से व्यक्ति अपने प्रारब्ध का निर्माण करता है. परमात्मा साक्षी भाव में है. किसी का भला-बुरा नहीं करता. इंसान स्वयं अपना भला-बुरा करता है. परमात्मा ज्ञाता और द्रष्टा है, निरपेक्ष है, उसे कोई मतलब नहीं. जैसे आप करते हैं, वैसा ही आपको फल मिलेगा. इसीलिए कहा गया है: “स्वयं कर्म करोत्यात्मा, स्वयं तत्फलमश्नुते । " “स्वयं भ्रमति संसारे स्वयं तस्मात् विमुच्यते ॥” 73 For Private And Personal Use Only 同 घ
SR No.008711
Book TitleGuruvani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmasagarsuri
PublisherAshtmangal Foundation
Publication Year1996
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size20 MB
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