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-गुरुवाणी
मफतलाल बडा होशियार था. सोचा कि अब तमाशा देखें. अब दोनों नहा धोकर बाहर आये. एक बजे का समय, था भूख जोर की लगी थी. जैसे ही उन्होंने थाली में इधर भूसा, उधर घास देखा तो गुस्सा चढ़ा. क्या हमको ढोर समझ रखा है ? क्या हम घास भूसा खायेंगे?
मफतलाल ने कहा - पंडित कभी झूठ नही बोलते. पंडित तो सत्यवादी होते हैं, आपने कहा ये गधे जैसे हैं. इन्होंने आप के लिए कहा ये बिल्कुल बैल जैसे हैं. अतः स्वाद के लिए मैने यही चीज रखी. क्या कहें ? मफतलाल ने कहा-पंडित जी अभी पंडिताई आई नहीं, केवल डिगरी लेकर के आए हैं. ज्ञान जब तक आचरण में नहीं उतरेगा वहां तक साधुता नहीं आएगी.
जीवन में जब ये चीजें सक्रिय बनती हैं. तब जाकर हमारा जीवन आदर्श प्रधान बनता है. उसने यहां तक स्पष्ट कहा कि इस भयंकर पाप से और रोग से अपनी आत्मा का रक्षण करना , जहां साधुता नजर आ जाए, जहां कोई गुणवान व्यक्ति नजर आ जाए, उसका हमेशा उचित सम्मान करना. पर उचित ध्यान देना.
मेरा आशय था कि यहां जो सूत्र दिया गया, इस सूत्र के बाद इसी के अनुसंधान में उस महान आचार्य ने साधना के क्षेत्र में प्रवेश करने के लिए अपूर्व चिन्तन दिया. जब प्रश्न किया गया कि भगवन्! यह तो मैं तो समझ गया कि कैसे बोलना, किस प्रकार बोलना, भाषा समिति कैसी रखनी, वाणी का व्यापार कैसे करना, और जीवन की बहुत सी बातें इस सूत्र द्वारा मैंने समझने का प्रयास किया, इससे साधना के क्षेत्र में प्रवेश होने के लिए क्या कोई द्वार है कि जहां जाकर साधना से आत्म शान्ति का मैं अनुभव प्राप्त करूँ? इस पर बड़ी सुन्दर बात उन्होंने बतलाई.
“अरिषड्वर्गत्यागेन विरुद्धार्थं प्रतिपत्येन्द्रिय जयति" अपूर्व चिन्तन है इस सूत्र के अन्दर.
"अरिषड् वर्ग त्यागेन" आत्मा अपने शत्रुओ पर विजय प्राप्त करे. छह शत्रु हैं “अरिषड़ वर्ग:" ग्रुप है पूरा छह का जो उसे त्याग करदे, और इन्द्रियों पर विजय प्राप्त कर ले वह व्यक्ति परम सुखी बनता है. यह सुखी बनने का उपाय है.
भगवन्! हमारे वे छह शत्रु कौन से हैं? जो हमें नुकसान पहुंचाते हैं ? हमारी अन्तरात्मा के उन प्रबल शत्रुओं का परिचय, आचार्य भगवन्त ने सूत्र में स्पष्ट रूप से दे दिया.
कामक्रोधमदलोभमानहर्षाः गृहस्थानाम् अन्तरंगो अरिषड् वर्ग:" इसके अन्दर सबसे पहले काम को लिया. विषय, सेक्स यह अन्तरात्मा का सबसे प्रबल शत्रु है. संसार की परम्परा को एनर्जी देने वाला. इस के बाद क्रोध, उसके बाद लोभ, उसके बाद मान, उसके बाद मद, उसके बाद हर्ष, वह हर्ष भी कैसा ? जगत को प्राप्त करने का हर्ष. आत्मा प्राप्त करने में तो चित्त की प्रसन्नता होती है, परन्तु हर्ष एक अगले प्रकार
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