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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org - गुरुवाणी भी कार्य जो लोकापवाद का कारण बने उसे नहीं करना चाहिए- 'लोकापवादभीरुत्वं दीनाभ्युद्धरणादरः' करुणामय आचार्य ने जीवन के व्यवहारों और कर्त्तव्यों का बड़ा स्पष्ट विवेचन किया है. दधीचि ऋषि का दृष्टान्त देते हुए उन्होंने जीवन में परोपकार की अनिवार्यता पर प्रकाश डाला 'परोपकाराय सतां विभूतयः' जब तक व्यक्ति में परहित की भावना नहीं उद्दीप्त होती उसका अन्तर्मन निर्मल नहीं बन पाता 'भावना भवनाशिनी' तुलसीदास जी ने भी स्पष्ट कर दिया हैं. "परहित सरिस धरम नहिं भाई. पर पीड़ा सम नहिं अधमाई." अर्थात् किसी भी प्राणी का मन वाणी अथवा कर्म द्वारा किसी भी रूप में कष्ट पहुँचाना या अपने स्वार्थ को ध्यान में रखकर उसका शोषण करना अक्षम्य अपराध है. यही सच्ची अहिंसा की अवधारणा है- 'अहिंसा परमो धर्मः', इसी से अशुभ कर्मों अथवा अन्तराय कर्मों के दूषित विकार को नष्ट करके व्यक्ति जीवन के सच्चे मर्म को पहचानने में सक्षम होता है. Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पूज्य गुरु महाराज जी का उपदेश जीवन की अशा को सर्वथा नष्ट करने के लिए है. एतदर्थ आवश्यकता है कि सर्वप्रथम मन को निर्मल बनाया जाए, तदनन्तर ही धर्म की प्रक्रिया आरम्भ हो सकती है. मन यदि पवित्र होगा तभी हम शान्तिपूर्वक साधना में प्रवृत्त हो पाएंगे और इसलिये हमें मन के सारे संशयों को तिलांजलि देनी होगी. श्रीकृष्ण ने गीता में कहा है- 'संशयात्मा विनश्यति'. एकमनस्थ होकर ही व्यक्ति साधना पथ पर आगे बढ़ सकता है. जीवन की नियमितता, आत्मा का अनुशासन, परमात्मा की आज्ञा का अनुगमन, सदाचार, परोपकार, दान, सत्य भाषण, अहिंसा ये सब साधना पथ और धर्म के सोपान हैं. इनके अनुपालन और आचरण से आत्मा का निर्मल साधना मन अध्यात्म में प्रवृत्त होता है. इस प्रकार सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चरित्र की मोक्ष प्रदान कराती है. निष्कर्षतः अल्प शब्दों में यही कहना समीचीन होगा कि परम श्रद्धेय आचार्य श्री पद्मसागर सूरीश्वरजी महाराज के मृदुल कमल कंठ से निःसृत यह गुरुवाणी पुस्तक रूप में एक अमूल्य रत्न है जिसके अध्ययन से आज का दिग्भ्रान्त और सन्तप्त मनुष्य एक विलक्षण आनन्द की अनुभूति करेगा, उसका जीवन एक आदर्श जीवन बन जाएगा. यही मंगल कामना है. 噩 For Private And Personal Use Only गणिवर्य देवेन्द्रसागर द
SR No.008711
Book TitleGuruvani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmasagarsuri
PublisherAshtmangal Foundation
Publication Year1996
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size20 MB
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