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गुरुवाणी:
में कहा गया है, 'अतिथिदेवो भव' अतिथि देव तुल्य है और उनकी भक्ति करना यह हमारा नैतिक धर्म है. वह पुनिया श्रावक प्रतिदिन एक सधार्मिक अतिथि बन्धु को घर पर लाता और ला करके, बहुत भक्तिपूर्वक सुन्दर भोजन दे करके, उसके बाद स्वयं भोजन करता. समस्या यह थी कि वह उपार्जन इतना ही करता था कि दो आदमियों का पेट भरे, क्योंकि तीसरे की कमाई नहीं थी.
एक दिन अपनी पत्नी से कहा कि हमें यह भक्ति की परम्परा तो चालू रखनी ही है. इसके अन्दर कोई कमी नहीं होनी चाहिए, इसमें खामी नहीं रहनी चाहिए. दोनों ने मिल करके, निर्णय किया कि प्रतिदिन एकान्तर उपवास करेंगे और एक धार्मिक बंधु को, अतिथि रूप में घर पर बुलाकर भक्तिपूर्वक भोजन कराएंगे.
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आप विचार कीजिए कि इतना उपार्जन उसके पास में था नहीं, इतना द्रव्य नहीं ऐसी अनुकूलता नहीं कि तीन व्यक्ति भी उसके पास खा सके. ऐसी प्रतिकूलता में भी आनन्द का अनुभव करने वाला, प्रसन्न रहने वाला, अपनी सामायिक के अन्दर चित्त को स्थिर रखने वाला वह ध्यान में ऐसा मग्न बन जाता कि सारी दुनिया को भूल जाता. उसका सामायिक इतना मूल्यवान था कि सारा साम्राज्य भी यदि अर्पण कर दिया जाये तो भी उसका मूल्यांकन नहीं हो सकता. सामायिक अवस्था में उसके ध्यान और चित्त की एकाग्रता इतनी प्रबल थी. वह एक दिन स्वयं उपवास करता और एक दिन उसकी धर्मपत्नी उपवास करती. यह अनुक्रम चलता रहा, एक सधार्मिक बन्धु को बुलाकर भावपूर्वक भक्ति से भोजन देने की उसकी प्रतिबद्धता का जीवन के अंतिम समय तक उसने पालन किया. ज़रा भी उसके अन्दर संसार का प्रलोभन नहीं था क्योंकि उसने प्रलोभन का प्रवेश द्वार ही बंद कर रखा था. भगवान महावीर के समय की यह घटना है, आज तक दुनिया उसको भुला नहीं पाई. याद करती है. परन्तु हम अपनी आदत से ऐसे लाचार हैं, कहीं से मिल जाए एनी हाऊ एनी वे • कोई भी रास्ता हो, गलत हो या सही, उस प्राप्ति में आनन्द का अनुभव लेते हैं. भगवान महावीर की भाषा में कहा गया है:
खणमित्त सुक्खा बहुकाल दुक्खा
क्षणमात्र के सुख के लिए व्यक्ति अपने आनन्दित जीवन को दुखमय बना देता है भौतिक वासना के सुख में आत्मा के आनंद की आप कल्पना भूल जाइए. वह आनंद कभी मिलने वाला नहीं और जो कुछ आप आनन्द प्राप्त कर रहे हैं, वह भविष्य में रुदन का कारण ही बनेगा. वह भविष्य में आत्मा के लिए पीड़ा का कारण बनता है. ऐसा आनन्द नहीं चाहिए जो आज हंसाए और कल रुलाए और भविष्य में सारा जीवन अंधकारमय बन जाए. प्राप्ति तृप्ति का कारण बननी चाहिए. आत्मसंतोष होना चाहिए, परन्तु आज असंतोष की आग में इन्सान जल रहा है. सारी प्रामाणिकता उसकी जल गई है. कवि ने बड़ा सुन्दर कहा किसी ज़माने में चोर चोरी करते थे, परन्तु अंधकार में, रात्रि के समय, एकांत में. आज बौद्धिक कुशलता इतनी व्यापक और सुन्दर बन गई है कि अब चोरी
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