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-गुरुवाणी
सोऽयमनुष्ठातृमेदात् द्विविधो।
गृहस्थधर्मो यतिर्धश्चेति ॥ उस महापुरुष ने धार्मिक जीवन का परिचय तीन प्रकार से दिया. गृहस्थ जीवन के लिए दो प्रकार के जीवन का प्रावधान किया एवं साधु के लिए एक तीसरे प्रकार के अलग जीवन का प्रावधान किया. इसकी विवेचना करते हुए उन्होंने कहा
तत्र च गृहस्थधर्मोऽयि द्विविधः
सामान्यतो विशेषतश्चेति ॥ गृहस्थ जीवन का परिचय दो प्रकार से दिया. सामान्य और विशेष तौर पर. गृहस्थ जीवन का दूसरा प्रकार विशेष साधना के द्वारा, व्रत और अनुष्ठान के द्वारा, नियम और अनुशासन के द्वारा. वह जीवन किस प्रकार का होना चाहिए? वहां तक पहुंचने के रास्ते कौन से हैं? परन्तु सर्वप्रथम सामान्य प्रकार से जीवन का जो परिचय दिया वह जीवन निम्न सूत्र से प्रारम्भ होता है:
__ न्यायोपातहि वित्तमुभय हितायेति इस सूत्र के द्वारा सर्वप्रथम जीवन के अन्दर उस धार्मिक दृष्टिकोण का परिचय दिया कि बिना उपार्जन के जीवन का निर्वाह संभव नहीं, परिवार का भरण-पोषण सम्भव नहीं. गृहस्थ जीवन के लिए उपार्जन उसका नैतिक धर्म है. परिवार का भरण-पोषण करना, उनकी सेवा करना उसका नैतिक कर्त्तव्य है और उस कर्त्तव्य को धार्मिक मर्यादा में लिया गया है, परन्तु उपार्जन कैसे किया जाये? क्योंकि जीवन का व्यवहार यहीं से प्रारम्भ होता है.
'न्यायोपात्तं हि वित्तम्' यह तथ्य स्पष्ट कर दिया कि जिस किसी भी द्रव्य को आप व्यापार, नौकरी मजदूरी या अन्य किसी पुरुषार्थ से अर्जित करें, उसके तौर-तरीके न्यायसंगत और प्रामाणिक हों. उसमें आपकी हृदयेच्छा ऐसी हो कि मनसा-वाचा-कर्मणा कोई शोषण और प्रपीडन न हो.
आपका अन्तःकरण पूर्णतः शुद्ध हो. इसी मंगल भावना के साथ आप अपनी सारी नेक-हृदय की विशुद्धता के साथ सभी व्यापारों में प्रवृत्त हों. आप भगवान से यह प्रार्थना करें कि आपकी बुद्धि सदैव निर्मल बनी रहे और आप ठगी, चतुराई, कूटनीति, अथवा अन्य आधुनिक बुद्धिचातुर्य से धनार्जन हेतु अपनी मानसिकता को विकृत न करें. मन, वाणी और कर्म से किसी को आहत न करें, न ही किसी को अन्य पीडा पहुँचाएँ या उसका अपनी चतुरता से शोषण करें, क्योंकि किसी भी गलत तरीके से अर्जित द्रव्य आपका अन्ततः विनाश करेगा. अस्तु, आपके लेशमात्र चूक जाने से यदि पाप का प्रवेश हो गया तो वही एक दिन विशाल रूप धारण कर लेगा और पाप का विशाल द्वार खुल जाएगा.
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