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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir -गुरुवाणी - "पंडित जी आप जरा विचार करना और आपके ख्याल में आए तो बतलाना, मुझे बड़ी प्रसन्नता होगी, अगर यह जानकारी मिल जाये." कथा वार्ता हई. पंडित जी के भोजन की तैयारी शुरू हुई. पंडित जी को तो सोना-मोहर दिख रहे थे. "उन्होंने कहा तुम गृहस्थ हो, संसारी हो, आज तक मैंने कभी यह पाप किया नहीं, दूसरों के हाथ का भोजन नहीं किया. मैं तो स्वपाकी हूँ. एक बात का ख्याल रखना, यदि किसी कारण वश में भोजन करता हूँ तो यह बात अपने तक ही रखना." “पंडित जी उसके लिए आप निश्चित रहें, मेरा पेट बहुत बड़ा है. इस कुएं में जो बात डाल दी वह कभी निकलने वाली नहीं. सारी भोजन की सामग्री तैयार हो गई. थाली में मेवा मिष्ठान रख दिया. कहा - “पंडित जी यदि आप मेरे हाथ से भोजन करें. मैं ही आपको खिलाऊं तो मुझे बडी प्रसन्नता होगी." पंडित जी ने कहा - " क्या बात करते हो? मेरे हाथ पांव को क्या लकवा मार गया है." "नहीं-नहीं, पंडित जी, मेरे भाव इतने बढ़ रहे हैं कि ऐसे सुन्दर आचार सम्पन्न ब्राह्मण की मैं सेवा भक्ति करूं. अपने हाथ से भोजन दूं." "तुम्हारे हाथ का किया हुआ भोजन मुझे भ्रष्ट कर देगा." __ “पंडित जी उसकी चिन्ता न करें, मेरा पेट कुआं है इसमें डाल दूंगा, बात कभी बाहर भी नहीं आएगी." एकएक कदम वह अपने विचार से नीचे गिरते चले गए. नहीं खाने जैसा आहार उन्होंने ग्रहण कर लिया. अपने नियम के विरुद्ध उन्होनें कार्य किया. पंडित जी ज्ञानी होकर भी भूल गए, जिस पाप को मेरी आत्मा स्वयं देख रही हो. सन्त ज्ञानी पुरुष जिस पाप को देख रहे है. मैं किससे छिपाऊंगा. __पंडित जी भोजन करने बैठे. एक लड्डू मफतलाल ने मुंह में डाल दिया, बड़े आराम से पंडित जी ने खा लिया, सामने दक्षिणा दिख रही थी. मफतलाल ने कहा - "मैं हाथ से भोजन कराऊं, तो, इक्कावन सोने की मोहर दूंगा." प्रलोभन ऐसा था, सारा पाप गोप हो गया कौन देखता है और - हां पर मफतलाल से विश्वास भी प्राप्त कर लिया कि ये बात बाहर नहीं जायेगी. __दो - चार लड्डू मफतलाल ने खिलाए, खिलाने के बाद मफतलाल ने एक तमाचा पंडित जी के गाल पर लगाया, पंडित जी काशी से पढ़ कर के आए थे, व्यावहारिक ज्ञान प्राप्त किया था, “आत्मा का ज्ञान तो मैं आप को दे रहा हूँ, मैंने आपसे प्रश्न किया था, पाप का बाप कौन? पंडित जी समझ गए यह लोभ." पंडित जी को एक तमाचे में ब्रह्म ज्ञान हो गया. मैं आचार से भ्रष्ट बना, अपने विचारों से पतित बना. नियम के विरुद्ध मैंने कार्य किया. जो पाप किया यह मेरी आत्मा के लिए कितना खतरनाक है. आज तक हमारे हृदय में लोभ का, रावण का साम्राज्य है. सीता 450 For Private And Personal Use Only
SR No.008711
Book TitleGuruvani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmasagarsuri
PublisherAshtmangal Foundation
Publication Year1996
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size20 MB
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