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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir -गुरुवाणी का हरण हो चुका है. समता हमारे अन्दर में रही नहीं. शान्ति नाम की कोई चीज हमारी आत्मा में नहीं. कहां तक उसके वियोग में रहेंगे, वियोग का तो दर्द ही पैदा नहीं हुआ. राम के अन्दर सीता के वियोग का दर्द था, तड़प थी, धर्म युद्ध था, उसके शील के रक्षण के लिए, शील को बचाने के लिए. राम को कोई लोभ नहीं था कि रावण को मार कर लंका का मालिक बन जाऊं. वहां तो लक्ष्य था सीता के शील का रक्षण करूं. सीता के सतीत्व के रक्षण के लिए अपना प्राण दे दूं. वह धर्म युद्ध एक सती के सतीत्व के रक्षण के लिए था, दर्द ऐसा था मफतलाल ने सफलता प्राप्त कर ली. हमारे जीवन में इस प्रकार का दर्द अभी तक पैदा ही नहीं हुआ. अन्तर जगत का परिचय यहां पर दिया गया है. अपने अन्तर आत्मा के शत्रु कौन हैं? आज तक बाहर से शत्रु मानकर चले, परन्तु अपनी आत्मा को ही शत्रु मानना है कि सारे कर्म तो मेरे अन्दर विद्यमान हैं. कर्म मात्र आत्मा का शत्रु है. न करने जैसा मेरे द्वारा किया जाता है, फिर नहीं भोगने जैसा मुझे ही भोगना पड़ता है.. सजा मालिक को मिलती है. रेस कोर्स में देखा है, घोड़े दौड़ते हैं, प्राण की बाजी लगा देते हैं, दौड़ने के बाद जब फल आता है उसे कौन ले जाता है. दूसरे देखने वाले. घोड़े को क्या मिलता है. घास और चना. हमारी यह हालत, मजदूरी आत्मा करे, श्रम आत्मा करे, नरक और दुर्गति में सजा आत्मा भोगे. सारे दुख दर्द को सहन करके हमने परिश्रम से संसार उपार्जन किया. मजा मौज लेती हैं, इन्द्रियां जिनका आत्मा के साथ कोई सम्बन्ध नहीं. विषयों का सेवन कर मौज मजा करें सजा आत्मा को मिलेगी मेरा क्या. . सजा भोगने के लिए कोई भी भागीदार मिलेंगे, यह तो जगत का स्वभाव है. ईनाम में सब भागीदार मिलेंगे. पुण्य के उदय काल में सारी दनिया भागीदार मिलेगी. पाप में भागीदार बनने के लिए कोई तैयार नहीं. लॉटरी निकल जाये लाखों रुपया मिल जाये, परिवार में यदि किसी को आप देना चाहें तो दस मिल जायेंगे. सरकार को देना चाहे तो सरकार भी सम्मान करेगी. कोई मना नहीं करेगा. उस पुण्य उदयकाल में सब भागीदार बन जायेंगे. यदि किसी अशुभ कर्म के कारण वर्ष दो वर्ष की सजा मिल जाये कोई भागीदार मिलेगा? यदि आप सजा रिटर्न करने जाएं, सरकार से निवेदन करें, आपको अर्पण करता हूँ, कोई लेने को तैयार है? कोई नहीं. पाप स्वयं को भोगना पडा. उसमें कोई भागीदार नहीं. इन्द्रियां मजा लूटेंगी. सजा आत्मा को भोगनी पड़ेगी. ऐसा कार्य मैं क्यों करूं, जिससे आत्मा अपराधी बने. विवेक की इसीलिए आवश्यकता है और उसे लक्षमण की उपमा दी है. आत्मा, राम है, विवेक लक्ष्मण है, धर्म का अनुराग ही हनुमान है. अन्दर की समता ही सीता है. इच्छा, तृष्णा, लंका नगरी है, लोभ रावण है. उसी के समुन्दर में हम अपना जीवन चला रहे 451 For Private And Personal Use Only
SR No.008711
Book TitleGuruvani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmasagarsuri
PublisherAshtmangal Foundation
Publication Year1996
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size20 MB
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