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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir %3 -गुरुवाणी जैसे लाभ होगा लोभ भी बढेगा, उसको शक्ति मिलेगी. हमने कभी यह विचार नहीं किया कि अन्तर्दशा में राम का राज्य चल रहा है या रावण का. आज तक हमारी अन्तर्दशा में लोभ का ही साम्राज्य है. जैसा मन कहता है वैसा ही मुझे करना पड़ता है. जैसे वह नचाता है, वैसे ही नाचना पड़ता है. हमारी हालत मदारी के बन्दर की तरह बहुत बुरी है, लोभ नचाता है, पाप कराता है, झूठ बुलवाता है. चोरी तो कराता है. अधर्म के रास्ते में वही ले जाता है. दुराचार के रास्ते में वही ले जाता है. पाप का जन्म स्थान लोभ में ही है. काशी से एक पंडित पढकर आ रहे थे. रास्ते में सेठ मफतलाल का घर मिला. वे प्रतीक्षा में थे, कोई महापुरुष आ जाएं. ब्राहमण पुरुष आ जाएं और उनकी उचित भक्ति करके भोजन करूँ. उनका नियम था. उसी रास्ते से पंडित जी आए. बडे शुद्ध कर्मकाण्डी पंडित थे. जब पंडित जी मिले तो मफतलाल ने कहा - "आप कहां से आए?" "काशी से आ रहा हूँ." "क्या अध्ययन किया?" “षट् दर्शन का आचार्य हूँ. वेदान्त का आचार्य हूँ." "बहुत अच्छा. मेरे घर को पावन करो." आए, बैठाए. परन्तु बडे कर्मकाण्डी ब्राह्मण थे. हाथ से पकाकर के खाना उनका आचार था. दोपहर का समय था. स्नान, संध्या करके सीधा सामान निकाल करके रख दिया. "भोजन की सारी सामग्री तैयार है. परन्तु आप बहुत दूर से आए हैं. बहुत थक चुके है. आपका चेहरा आपकी थकावट बतला रही है. अगर आप कृपा करें तो मैं घरवाली से कहूं, आपकी सब रसोई तैयार कर दें." “मैं भ्रष्ट बन जाऊं? दूसरों के हाथ का आहार यदि मैं करूं. तो मैं भ्रष्ट बन जाऊँगा." _"मैंने ऐसा एक संकल्प किया है कि अगर कोई ब्राह्मण पुरुष मेरे हाथ का भोजन ग्रहण करें, कुछ सोना-मोहर उनकी दक्षिणा में दूं." पंडित जी समझ गए कि यहां कुछ मिलने वाला है. पंडित जी ने कहा "अच्छा. पहले कुछ धर्म चर्चा होने दो उसके बाद सन्ध्या काल में भोजन करेंगे. मुझे भोजन की चिन्ता नहीं पहले भजन कर लें." धर्मकथा चली. मफतलाल ने प्रश्न किया - “पंडित जी. मैंने बहुत सारे पंडितों से धर्मकथा सुनी, बहत पंडितों का मैंने परिचय किया. मुझे एक वस्तु का परिचय नहीं मिला, पाप के बाप का नाम नही मिला. ये मुझे जानना है." पंडित जी ने कहा - “यह तो किसी वेद में नहीं, पुराण में नहीं मिला. गीता में नहीं. यह तो नाम मैंने भी कभी सुना या पढा नहीं." न - 449 For Private And Personal Use Only
SR No.008711
Book TitleGuruvani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmasagarsuri
PublisherAshtmangal Foundation
Publication Year1996
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size20 MB
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