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%3Dगुरुवाणी:
लोग कहते है-प्रार्थना करता हूं परन्तु चित में प्रसन्नता नहीं आती. बिना प्रसन्नता के की हुई प्रार्थना पूरी हुई प्रार्थना नहीं है? वह हृदय से नहीं जन्मी उसका जन्म स्वार्थ से होता है. इसलिए हमारी क्रिया कैसे सफल बने, कब जीवन में सक्रिय बने उस का सुन्दर परिणाम अनुभव में जानने को मिले, उसकी सारी प्रक्रिया उसमें जानने को मिली.
"प्रतिपूर्ण क्रियाचेति कुल धर्मानुपालनम्" क्रियाओं के अन्दर कैसा विवेक होना चाहिए, विवेक के अभाव में यदि आप क्रिया करते हैं तो स्वाद नहीं आयेगा. खीर के, तपेले में, आप चम्मच डाल दीजिये. पूरे परिवार को तो खीर पिलायेगा परन्तु यदि चम्मच से पूछे कि तुझे कुछ स्वाद मिला. सारे परिवार को तृप्त करने वाला क्या जवाब देगा, मुझे कुछ स्वाद नहीं मिला. इस तपेले में.
हमारे जीवन की साधना भी इसी प्रकार का स्वाद बन गई, मन्दिर में, खीर के तपेले में जैसा है, अपूर्व स्वाद जैसा है. परमात्मा की उपासना हम चम्मच की तरह पूरे दिन मन्दिर के स्थान में सारे दिन घूमते हैं. चम्मच की तरह हिलते रहे परन्तु उस मन्दिर से बाहर आप और पूछे, कुछ साधना से स्वाद मिला? नहीं, नहीं महाराज. यह तो ठीक है गतानुगतिक व्यवहार में मां बात करते चली आयी हम भी कर रहे हैं. इस क्रिया में आनन्द नहीं आयेगा. यह औपचारिक क्रिया बन जायेगी. आत्मा कभी स्वीकार नहीं करेगी. भले ही मनोविकार में आपको सन्तोष मिल जाये कि मैं मन्दिर गया, प्रार्थना की, दर्शन किया. इसमें कुछ नहीं मिलता.
प्रार्थना में परमात्मा को पाने की वह प्यास कहां? सबसे पहले प्यास लेकरके परमात्मा के पास जाना है. क्रियाओं में साधना के क्षेत्र में, अन्तर की प्यास चाहिये. वह प्यास उत्पन्न करनी पड़ती है. अभी तक वह दशा नहीं हुई. एक बार यदि क्रिया में रस आ जाता तो बाहर के सारे रस खत्म हो जाते. पूर्व काल के महापुरुषों का जब जीवन दर्शन देखते हैं. ध्यानावस्था में बैठते हैं तो संसार से शून्य बन जाते हैं. __ बहुत बड़ा योगी अपने ध्यान में मग्न था. चीन से कोई व्यक्ति भारतीय योग विद्या को जानने के लिए आया. बडी जिज्ञासा लेकर आया. वहां आकर के योगी को अपना परिचय दिया कि मैं चीन से आ रहा हूं, आपके पास योग के रहस्य को जानने की इच्छा से आया हूं. आप मुझे कुछ बतलायेंगे? योगी ने सर्वप्रथम उसका अन्तर परिणाम कैसा है, इसका परिचय करवाया. उस व्यक्ति ने तो अपना परिचय दार्शनिक दृष्टि से दिया कि मैं इतनी भाषाओं का जानकार हूं. इक्सरसाइज में कोई कमी नहीं रखी, ज्ञान को बहुत पुस्तकें बना दिया परन्तु उसका मतलब क्या? लाइब्रेरी के अन्दर गेट बन्द होता है. अठारह पुराण होता है सारे उपनिषद् होते हैं महाभारत, गीता. सम्पूर्ण महावीर भगवान का आगम उसमें रहता है आलमारी के अन्दर. परन्तु उसका उपयोग क्या वह ज्ञान तो जरूर है, इन्सान भी ऐसा बन जायेगा? जो कि अपने जीवन को लाइब्रेरी बना रखा है.
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