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-गुरुवाणी
विकृति आ जाएगी. आपके स्वतंत्र विचार इसमें आ जाएंगें. उससे परमात्मा का विचार गौण बन जाएगा. और आपका विचार मुख्य हो जाएगा और वहीं पर यह साम्प्रदायिक दुर्भावना पैदा हो जाएगी. सारी सद्भावना खत्म हो जायेगी.
मेंढक ने छलांग लगाई कुएँ के अन्दर और कहा इतना! सागर के मेंढक ने कहा - कि तुम नहीं समझ पाये. उसने कहा कि क्या सागर इससे भी बड़ा है. अरे भाई सागर बहुत बड़ा है. उसका कोई माप नहीं, आकार नहीं. कुएं में मेंढक ने बहुत जोर से छलांग लगाई, आधा कुआं पार कर गया और उसने कहा -- तुम्हारा सागर इतना बड़ा है? अरे यार नहीं! पूरी ताकत लगा कर एक छलांग लगाई. पूरा कुआं पार कर गया. इस किनारे से उस किनारे तक चला गया और कहा - इतना बड़ा सागर है? सागर के मेंढक ने कहा कि इस तरह उसका परिचय नहीं दिया जा सकता. उसकी महानता का परिचय मैं शब्दों से नहीं दे सकता. किसी माप से उसको मापा नहीं जा सकता. यह तो तुम मेरे साथ यात्रा में चलो. चलकर देखो तब मालूम पड़ेगा.
कुएँ के मेंढक ने कहा कि मैं मानता ही नहीं. मेरी दुनियां से बड़ा कोई संसार में है ही नहीं. जिन्दगी भर उस कुएँ में रहा, उसे क्या मालूम कि संसार कितना महान् है. हमारी दशा भी यही है. ठीक कुएँ के मेंढक जैसी स्थिति है. बुद्धि हमारी कुएँ जितनी है और हम धर्म का परिचय लेने के लिये निकलते हैं. हमारी आत्मा बहुत व्यापक है, उसकी व्यापकता का परिचय हम अपनी बुद्धि से कैसे कर सकते हैं. बुद्धि तो एकदम सामान्य है. उस महान तत्त्व की जानकारी के अभाव से यदि अन्धविश्वास पैदा करते हैं तो हमारी मुर्खता है. जिन्होंने ज्ञान के प्रकाश में देखा, वह ज्ञानी पुरुष ही जान सकते हैं.
बहुत सी बातें ऐसी हैं. जो तर्क से नहीं समझाई जा सकती. उसे श्रद्धा के द्वारा, ही समझा जा सकता है. पहले साधना कीजिए. उसके बाद उसके स्वाद का अनुभव आएगा और फिर उसके बाद सुगन्ध पैदा होगी. आपको धर्म की व्याख्या बताई. धर्म किसे कहा जाता है? यहां जो धर्मबिन्दु शब्द का प्रयोग किया गया तो इसका बहुत सीधा सा अर्थ है. 'धृ' धातु से 'धर्म' बना है. व्याकरण में 'धृ' का अर्थ धारण करने के लिए प्रयोग करते हैं. आत्मा को दुर्विचार में जाने से रोकें, रक्षण करें, उसका नाम 'धर्म' है.
__ "दुर्गतौ पतनात् प्राणान्धारयति धर्मः" दुर्गति में जाते हुए, दुर्विचार में जाते समय आप अपनी आत्मा का रक्षण करें या रोकें तो उसको धर्म कहते हैं. धर्म कोई सम्प्रदाय नहीं. धर्म आपकी आत्मा में है और भगवान महावीर ने इसे स्पष्ट कहा है
“धम्मो शुद्धस्स चिट्ठई" शुद्ध हृदय के अंदर धर्म निवास करता है. अशुद्ध और गंदे हृदय में कभी धर्म ठहरता ही नहीं है.
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