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गुरुवाणी
सन्त ने पूछा आज श्रावक चन्दूलाल कहां गए. श्राविका पत्नी रसोई कर रही थी. मुनिराज को आहार देकर कहा साहब, वह यहां नहीं हैं. इस समय वे ढेड़वाड़े गए हैं. अरे ! पर वहां कैसे उगरानी के लिए चले गये. अभी दस बजे का समय हुआ है. उस समय अन्दर चन्दूलाल सामायिक कर रहे थे. वे विचार में पड़ गए कि मेरी पत्नी कैसी है. मैं अन्दर बैठा हूं और कहती है ढेड़वाड़े गए. जैसे मुनिराज बाहर निकले और चन्दूलाल गरजे "तेरे में अक्ल नहीं है कि मैं यहां बैठा हूं?"
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वह तो मैं भी जानती हूं कि तुम यहां बैठे हो. पर तुम्हारा मन तो उधर घूम रहा है. दस बार घड़ी उठाकर देखी कि कब टाइम पूरा हो और कब उगरानी में जाऊं. शरीर से यहां सामायिक में बैठे हो और मन में ढेड़वाड़े में घूम रहे हो. यह सामायिक कैसे आत्मा की शुद्धि में उपयोग होगा. उसे कैसे आत्मा स्वीकार करेगी. गम्भीर भावपूर्वक की गयी धर्म साधना ही आत्मा का भोजन है. वही आत्मा के लिए उपयोगी साधन है. परन्तु हमने कभी भी उसका उपयोग उस दृष्टि से नहीं किया. हमने आत्मा की रुचि को बिना समझे और उसकी प्रसन्नता के बिना कार्य किया.
प्रत्येक शिष्टाचार आत्मा को संरक्षण प्रदान करता है. आत्मा तक की यात्रा पूरी करने हेतु इनका व्यवहार अपेक्षित है. इन्हीं आचारों के द्वारा व्यक्ति अपने लक्ष्य को प्राप्त करता है.
मैंने आपसे कहा
"लोकापवादभीरूत्वं"
महान आचार्य ने जगत से कहा कि लोक रुचि देखकर और लोगों का प्रेम संपादन करके जो व्यक्ति धार्मिक कार्य में प्रवेश करता है, वह कार्य कैसा भी हो, परन्तु परोपकार से परिपूर्ण हो. अनेक आत्माओं के हित के लिए हो.
मैं इससे पूर्व यह बता चुका हूँ कि कैसा कार्य होना चाहिए? अपने जीवन में किस प्रकार की उदारता आनी चाहिए ? देने के बाद अन्दर की भावना कैसी होनी चाहिए ? हमारा इतिहास उदारता का एक परिचय देता है.
जैन इतिहास में पच्चीस सौ वर्ष में ऐसा एक भी धनवान व्यक्ति संसार में आज तक पैदा नहीं हुआ जैसे कि शालिभद्र वह इतनी ज़बरदस्त पुण्यशाली आत्मा थी कि प्रतिव दीपावली में उसे याद करते हैं. अपनी पुस्तक में उस पुण्यशाली का हम नाम लिखते हैं.
"धन्नाशाली भद्र की समृद्धि हो जो ऋद्धि हो" परन्तु उसके पास क्या था ? मुनिराज की भक्ति करूं! जैसा कि मैं आपको स्पष्ट कर चुका हूँ कि यदि हमारी भावना विकसित हो जाए तो सारी परेशानियाँ दूर हो जाएं सारे पाप का अन्धकार समाप्त हो जाय. धन एवं पुत्र की प्राप्ति से जकड़े हुए मन का अन्तराय या रुकावट नष्ट हो जाय क्योंकि भावना इतनी प्रबल होती है कि वह अन्तराय की दीवार को तोड़ देती है.
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