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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir %3Dगुरुवाणी जाने कितने लोगों को इसने ठोकर लगाई होगी." अपने प्रति गर्व और अभिमान तथा पत्थर के प्रति तिरस्कार की भावना उस गुलाब में थी. वहां से कोई कलाकार निकला, उसकी नजर उस पत्थर पर पड़ी. अपने विचार को उसने शब्दों का रूप दिया. अति सुन्दर कि वीतराग के विचार को उसने उस पत्थर के माध्यम से प्रकट कर दिया. परमात्मा का अपूर्व सौन्दर्य प्रकट हुआ, दिखाई दिया. महीनों तक उसकी साधना चली. पत्थर ने सहन ही सहन किया, चोट खाता गया, खाता गया. __मैं मन्दिर जा रहा था. मेरे साथ कई साथी आ रहे थे, जूते वाले. सीढ़ियों के पत्थरों ने बड़ा विरोध अनुभव किया कि हमारा यह अपमान क्यों किया जा रहा है? उस मूर्ति के पत्थर में और हम सीढ़ियों के पत्थरों में कोई अन्तर नहीं है. हम एक ही जाति के हैं. एक ही जगह से जन्मे हैं. यहां यह भेद दष्टि क्यों है? सारा जगत उस मूर्ति का सम्मान करता है अपना प्राण देकर के, बलिदान देकर के, मूर्ति का सम्मान करता है. अपना प्राण देकर मूर्ति का रक्षण करता है. हम भी तो पत्थर हैं, हमारे ऊपर रोज जूते उतारे जाते हैं. यह अन्तर क्यों है? मैंने कहा - भाई! वह उसके सहन की साधना का सम्मान है. छह महीने तक उस मूर्ति ने चोटें खाई है. उस पर हथौड़े मारे गये, छेनी लगाई गई, कलाकार ने उसे बार बार घिसा. हर तरह से उसके ऊपर चोट पहुंचाई. समभाव पूर्वक उस पत्थर ने यह सब कुछ सहन कर लिया. सहन की स्वीकृति का परिणाम यह स्वरूप प्रकट हो गया है. परमात्मा का निराकार भी यहाँ आकर साकारता प्राप्त कर गया है. सारा जगत वहाँ जाता है और उनके सहन के सौन्दर्य को नमस्कार करता है. परन्तु तुम्हारे साथ जब ऐसा व्यवहार किया गया. एक हथौड़ी लगाई गई, तुम आवेश में आ गये, कारीगर से कहा यह वेस्टेज है, सीढ़ी में लगा दिया जाये." जो व्यक्ति संवत्सरी प्रतिक्रमण में क्रेक हो गया. गुस्से में आ गया, आवेश में आ गया, उसकी यही दशा होगी, जो सहन करेगा, शब्द की मार को सहन करेगा, वह जगत का सम्मान पात्र बन जाएगा. ____ "वह मूर्ति भी उसी पत्थर में से तैयार हुई, उसी में से गढ़ी गई. आलीशान मन्दिर में जब मूर्ति की प्रतिष्ठा हुई, सारा जगत वहां सम्मान के लिए आया. जो गुलाब बड़े गर्व से अपना अभिमान प्रकट कर रहा था. मेरी सुन्दरता, मेरी खशब कहकर इतरा रहा था, लोग उसे तोडकर लाये और मूर्ति के चरणों में अर्पण कर दिया. गुलाब विचार में डूब गया. कल मैं इस पत्थर का तिरस्कार करता था. मेरे अंहकार का ही परिणाम है. कुदरत ने मुझे सजा दे दी है. इसी के चरणों में आकर मुझे समर्पित होना पड़ा. वर्तमान समय के अन्दर ईगो, एक सर्वव्यापी रोग है. ईगो, मैं बहुत बड़ा हूं. मैं बड़ा महान हूं. मैं बड़ा विद्वान हूं. मैं बड़ा देश सेवक हूं. मैं बड़ा त्यागी हूं. जब तक आप इस Simil न 276 For Private And Personal Use Only
SR No.008711
Book TitleGuruvani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmasagarsuri
PublisherAshtmangal Foundation
Publication Year1996
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size20 MB
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