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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गुरुवाणी: धर्मफल विशेष देशना विधि तत्राक्लिष्टमनुत्तरं विषयसौख्यं हीनभावविगमः, उदग्रतरा संपत्, प्रभूतोपकारकरणं, आशयविशुद्धिः, धर्मप्रधानता, अवन्ध्यक्रियात्वमिति॥३॥ (484) उस चरम देह में क्लेशरहित अनुपम विषय सुख मिलता है। हीन भाव का नाश होता है अत्यंत महान संपत्ति प्राप्त होती है. बहत उपकार किया जाता है अतः कारण की शुद्धि या आशय-शुद्धि होती है. धर्म ही प्रधान विषय होता है. तथा सब क्रियायें सफल होती हैं. तथा-विशुद्धयमानाप्रतिपातिचरणावाप्तिः, तत्सात्म्यभावः, भव्यप्रमोदहेतुता, ध्यानसुखयोगः, अतिशयद्धिप्राप्तिरिति // 4 // (485) शुद्ध तथा नाश न होने वाले चारित्र की प्राप्ति होती है. चारित्र के साथ आत्मा की एकता होती है. वह भव्य जनों के लिये हर्ष का कारण होता है. ध्यान के सुख की प्राप्ति होती है और अतिशय ऋद्धि की प्राप्ति होती है. अपूर्वकरणं, क्षपक श्रेणिः, मोहसागरोत्तारः, केवलाभिव्यक्तिः, परमसुखलाभ इति // 5 // (486) उपरोक्त गणों की प्राप्ति के बाद समय आने पर अपूर्वकरण (आठवां गुणस्थान) पाता है. क्षपक श्रेणि चढता है, मोक्षरूपी सागर को तैरता है, केवलज्ञानी होता है और मोक्ष प्राप्त करता है. सदारोग्याप्तेरिति // 6 // (487) निरंतर आरोग्य रहता है भावसनिपातक्षयादिति // 7 // (488) भाव संनिपात का क्षय हो जाने से मनोविकार नष्ट हो जाते हैं. 668 For Private And Personal Use Only
SR No.008711
Book TitleGuruvani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmasagarsuri
PublisherAshtmangal Foundation
Publication Year1996
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size20 MB
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