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गुरुवाणी
सेवा ही मेरी सेवा है. वह सेवा का आदर्श कहां गया? ये हमारे जीवन के बडे प्रश्न हैं.
एक महान् श्रावक जगडू शाह ओसवाल कच्छ का निवासी था. आचार्य भगवन्त ने अपनी दिव्य-दृष्टि से पूर्वाभास कर उसको कहा कि आने वाले वर्ष में इस देश में ऐसा भयंकर दुष्काल पड़ेगा, परोपकारार्थ जितना अनाज का संग्रह कर सको, मंगवाकर कर लो. वह विदेश से भी अनाज मंगाता रहा और संग्रह करता रहा और गोदाम भर दिए.
दुष्काल पड़ा. गुजरात, राजस्थान बहुत सारे मध्य प्रान्त - सब दुष्काल से घिर गये, जगडूशाह ने सभी जगह राजाओं को अपना निवेदन भेज दिया और कहा कि आप जरा भी चिन्ता नहीं करें. जगडूशाह जहां तक जीवित है, वहाँ एक भी प्राणी अनाज के बिना नहीं मर सकता. इतना विशाल संग्रह किया था. एक नया पैसा नहीं लिया और सभी राज्यों को अपनी ओर से अनाज वितरण कर दिया.
आप सोचिए! यह आज से छह-सात सौ वर्ष पहले की घटना है और उस जमाने में, इतनी उदारता उसके जीवन में कि एक भी पैसा नहीं लिया. यह तो परोपकार के लिए है, यह भी नहीं कहा कि जगड़शाह की तरफ से दिया जाता है. प्रजा का है, प्रजा के लिए है, हमारा कुछ भी नहीं. यह तो प्रजा का पैसा है. हमने व्यापार के द्वारा प्रजा से उपार्जन किया और प्रजा के कल्याण के लिए अर्पण है. मेरा कुछ नहीं. कहीं अपना नामो-निशान तक नहीं रखा. सारे देश का दुष्काल केवल एक ही व्यक्ति ने दूर कर दिया यह सोचकर कि मेरे पास यह पड़ा हुआ पैसा किस काम का. परोपकार का ऐसा पुण्य अवसर मिला - मैं क्या मूर्ख हूं कि इस सुअवसर पर चूक जाऊं. इस अवसर का पूरा लाभ मुझे उठाना है.
एक जैन साधक की उदारता, महावीर की कैसी करुणा उसके जीवन में साकार बनी आप देखे. सारा प्रान्त गुजरात का सुबह उठकर के जब राम का नाम लेते हैं तुरन्त ही जगडूशाह को याद करते हैं. ऐसी पुण्यशाली आत्मा का नाम सुबह लिया जाये ताकि ऐसे गुण मेरे अन्दर भी आएं. परोपकार की भावना हमारे अन्दर भी जन्म ले. हमारा जीवन भी ऐसा आदर्श बनना चाहिए कि हमारे जाने के बाद लोगों के हृदय में हमारी स्मृति कायम रहे. हमारी स्मृति प्रजा के दिल और दिमाग के अन्दर स्मारक बन जाये, लोग याद करें और प्रेरणा लें. ऐसा हमारा जीवन होना चाहिए.
प्रसंग आ जाए और यदि आपने उसका सही प्रयोग नहीं किया तो परिणाम क्या आएगा. अपना पेट तो कुत्ता भी भर लेता है, पशु भी अपना पेट भर लेता है. लेकिन मनुष्य के अन्दर वह शक्ति है कि दूसरों का पेट भी भर सकता है.
इस मानव जीवन का इतना मूल्य इसीलिए रखा गया कि वह परोपकार कर सकता है. अपने विचार को सक्रिय बना सकता है और उसे आकार भी दे सकता है. परन्तु पशुओं में यह ताकत नहीं. वह केवल अपना ही पेट भर पाता है.
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