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गुरुवाणी
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उस व्यक्ति की आंखों से आंसू आ गए. अन्तरहृदय से बड़ी करुणा से वे शब्द निकले. इस कुल में, इस जाति में, मेरे भाई होकर, मेरे संबंधी होकर यह विवशता कैसे आई.
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वह चरणों में गिर गया, कहा कि लड़की की शादी का प्रसंग था. पैसा पास में नहीं था और कोई सम्बन्धी देने को तैयार नहीं. ऐसी विवशता में मुझे यह अपराध करना पड़ा. अब आप जो सजा देना चाहें दे दीजिए परन्तु अब जिन्दगी में मैं मर जाऊंगा परन्तु इस प्रकार का पाप नहीं करूंगा, यह संकल्प लेता हूं. सामने वाले व्यक्ति का हृदय परिवर्तन हो गया.
मालिक बुलाकर के जब इतने प्रेम से बात करता है. उस ने यह नहीं कहा कि तुमने चोरी की, तुम बदमाश हो, चले जाओ. मैं तुम्हें पुलिस में दूंगा. कितने प्रेम से उसको समझाने का प्रयास किया, उसकी मजबूरी को समझने का प्रयास किया कि किस कारण इसको यह काम करना पड़ा. मेरा सहधर्मी होकर के यह गलत कार्य कैसे किया इसके इस आपराधिक कृत्य का कहीं मैं तो कारण नहीं हूँ. उस व्यक्ति ने अपनी परिस्थिति बताई. उन्होंने कहा, कोई हर्ज नहीं. आज के बाद कभी ऐसा गलत कार्य मत करना. मैं तुम्हारी पांच रुपया तन्ख्वाह बढ़ाता हूं. अस्सी साल पहले की बात है. दूसरे मुनीम को बुलाकर के कहा मुझे ऐसा लगता है कि इसको रुपये की ज़रूरत है इसलिए इसका 'पांच रुपया महीने बढ़ा दिया जाये, जो आज का पांच सौ रुपए होता है. इस व्यक्ति को गलत करना पड़ा, इसका कारण मैं हूं, मैंने इसका ध्यान नहीं रखा. जो व्यक्ति मुझ पर आश्रित है, मेरे यहां अपना जीवन-निर्वाह करता है और मैंने कभी बैठकर के यह नहीं पूछा कि उसके घर की क्या परिस्थिति है, कितना बड़ा परिवार है, निर्वाह होता है या नहीं. मैंने अपने काम से मतलब रखा. कभी इसके जीवन में झांककर के नहीं देखा. नैतिक दृष्टि से मेरा कर्त्तव्य था. जो व्यक्ति मेरे यहां आश्रित हो, जीवन निर्वाह करता हो, उसकी समस्याओं पर विचार करना भी मेरा कर्तव्य है घर में यदि सुख-दुःख का कार्य आ गया तो मेरा नैतिक कर्त्तव्य है कि मैं उसका भी पालन करूं. आपने कभी ऐसा सोचा ?
अठारह साल पहले मेरा चातुर्मास बम्बई था. अचानक व्याख्यान देकर के जैसे ही मैं ऊपर गया करीब ग्यारह बज गये थे एक बहन मेरे पास आई और कहा कि महाराज ! आप मेरे घर पधारें बड़ी तेज गर्मी थी. व्याख्यान से थक कर के मैं ऊपर गया था. मैंने कहा बहन, गोचरी के समय साधु जाते हैं, आकर ले जाना महाराज गोचरी के लिए नहीं, मुझे दूसरा काम था. क्या ? मेरे पति बहुत बीमार हैं और न जाने कब चले जायें, अन्तिम श्वास गिन रहे हैं. आपके दर्शन की आशा रखते हैं, अगर आप मंगलाचरण सुना सकें? मैंने कहा, अगर ऐसी परिस्थिति है तो लाख काम छोड़ कर के आऊंगा. मैंने पूछा घर कहां है. बोली, एक-डेढ़ किलोमीटर.
मैंने कहा मुझे चलना है. इसके चेहरे से मैं भाप गया कि दर्द से भरी हुई आत्मा है, मात्र वहां आंसू नहीं निकले, उसकी वाणी के अन्दर जो दर्द था, चेहरे पर जो उदासीनता
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