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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गुरुवाणी आवास का विधान - परम कृपालु परमात्मा महावीर ने अपने जीवन की सारी साधना का परिचय अपने प्रवचन के द्वारा प्राणि मात्र का दिया. साधना की उपलब्धि, साधना की सहजता और साधना के सफलता की सारी प्रक्रिया परमात्मा ने अपने प्रवचन द्वारा प्रदान की है. परमात्मा के उसी प्रवचन की परम्परा से उद्धत करके उसी के अनुसार धर्म बिन्दु ग्रंथ के अन्दर उस महान आचार्य ने जीवन का परिचय धर्म के माध्यम से दिया है. __ धार्मिक कहलाना तो सबको पसन्द होता है परन्तु धार्मिक बनना बहुत मुश्किल है. शब्द बड़ा सुन्दर है, बड़ा प्रिय है. परन्तु यह बाहर से आपको कठोर नजर आएगा. धर्म का आचरण जरूर कठोर होगा, जो बहुत जल्दी रुचिकर नहीं होगा. परन्तु उसका आन्तरिक परिणाम कोमलता और करुणा को उत्पन्न करने वाला होता है. कोई व्यक्ति ऐसा नहीं मिलेगा जो इस वस्तु को स्वीकार कर सके. ज्ञानियों ने कहा - संसार में रहना पड़ता है, हमारी मजबूरी है, एक प्रकार का बन्धन है, परन्त कर्म के बंधन से भी भयंकर आपके अन्दर वासना का मानसिक बन्धन है. व्यक्ति मन के बन्धन से बंधा हुआ है. उसे बहाना मिल जाता है, रास्ता मिल जाता है कि मैं क्या करूं? जब-जब धर्म क्रिया का प्रसंग आ जाए. कोई महा मंगलकारी पर्व का प्रसंग आ जाए और आमन्त्रण मिले तो व्यक्ति बहाना निकाल लेता है. महाराज क्या करें? कर्म ही ऐसे हैं कि मेरे से व्रत नहीं होता. क्या बतलाएं? कुछ पाप कर्म हैं. बहुत भावना होती है. इच्छा होती है परन्तु लाचारी है. कुछ कर नहीं सकता. __जब-जब धर्म का आमन्त्रण मिले, धार्मिक क्रिया में प्रवेश करने का मंगल प्रसंग आ जाए तो व्यक्ति बड़ा सरल बहाना निकाल लेता है कर्म का. क्या बतलाएं? मेरे भाग्य में ऐसा है, मेरे कर्म में नहीं है. मेरी लाचारी है. पाप करते समय कभी बहाना नहीं मिलता. दकान में जाकर बैठेगा, सुबह से शाम तक मजदूरी करेगा, वहां यह नहीं सोचता, मेरे भाग्य में होगा, मिल जाएगा, वहां इतना पसीना उतारना. वहां तो बड़ा कठोर परिश्रम करेंगे. संसार के कार्य में प्रबल पुरुषार्थ, परन्तु धर्म कार्य में उदासीनता. संसार में धनोपार्जन करने के लिए पूरा श्रम ये अनादि काल से जीव का एक स्वभाव बन गया. पाप करना पड़ता है, सर्वथा इसका निषेध होना संभव नहीं, सांसारिक कार्य किस प्रकार की भूमिका पर करना, उसका इसमें परिचय दिया गया है. व्यक्ति अगर मूर्च्छित सा बना रहे, पाप की प्रवृति में हमेशा मूर्च्छित सा बना रहे, पाप प्रवृति में यदि उदासीन बन जाए, पाप क्रिया में यदि रुदन आ जाए तो पाप का पश्चात्ताप पुण्य को जन्म देने वाला बनता है. परन्तु होता नहीं है. पाप क्रिया में प्रसन्नता है. जब-जब 507 For Private And Personal Use Only
SR No.008711
Book TitleGuruvani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmasagarsuri
PublisherAshtmangal Foundation
Publication Year1996
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size20 MB
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