________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir -गुरुवाणी गृहस्थ विशेष देशना विधि तथा यथोचितं गुणवृद्धिरिति // 62 // (225) यथोचित गुणवृद्धि करनी चाहिये. तथा-सत्त्वादिषु मैत्र्यादियोग इतीति // 63 // (226) सर्व जीवों के प्रति मैत्री आदि चार भावना रखना चाहिये. विशेषतो गृहस्थस्य, धर्म उक्तो जिनोत्तमैः। एवं सद्भावनासारः, परं चारित्रकारण् // 16 // श्री जिन भगवान ने गृहस्थ का विशेष धर्म जो उत्कृष्ट चरित्र को देने वाला है तथा जिसमें सद्भावना मुख्य है वह इस प्रकार कहा है. पदं पदेन मेधाबी, यथा रोहति पर्वतम्। सम्यक् तथैव नियमात्, धीरश्चारित्रपर्वतम्॥१७॥ जैसे बुद्धिमान क्रमशः कदम कदम से पर्वत पर बढ़ जाता है वैसे ही धीर पुरुष चारित्र पर्वत पर क्रमशः अवश्य चढ़ जाता है. स्तोकान् गुणान् समाराध्य, बहूनामपि जायते। यस्मादाराधनायोग्यः; तस्मादादाक्यं मतः // 18 // मनुष्य छोटे या थोड़े गुणों की आराधना से अधिक गुणों की आराधना के योग्य बनता है अतः पहले गृहस्थ के विशेष धर्म का पालन करना चाहिये. 623 For Private And Personal Use Only