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-गुरुवाणी
संकल्प से आचार की सिद्धि
परम कृपालु आचार्य भगवन्त श्री हरिभद्र सूरि जी ने धर्मबिन्दु ग्रन्थ के द्वारा जीवन का अपूर्व और सुन्दर प्रकार से मार्गदर्शन दिया है. मनुष्य जन्म की प्राप्ति के बाद उसका विकास किस तरह से किया जाए. उसे प्राप्त करने के बाद उस पर आनन्द का अनुभव कैसे प्राप्त किया जाए. जीवन की साधना में सर्वोच्च शिखर तक किस तरह से मैं पहुंच पाऊं? वे सभी उपाय इन सूत्रों के द्वारा इन्होंने बतलाए हैं.
जीवन का व्यवहार यदि आपका सन्दर बन गया है. आपके जीवन के हर व्यापार से यदि लोगों में सदभावना, प्रेम-प्रीति उत्पन्न हो जाए तो उस प्रेम की व्यापकता आपको परमात्मा तक पहुंचा देगी. जितने भी विश्व के अन्दर धर्म हैं, उन सभी धर्मों में आचार को प्रमुखता दी गई है.
आचार से संपन्न व्यक्ति विचारों को बड़ी आसानी से स्वच्छ कर सकता है. विचारों को निर्मल बना सकता है और आत्मा के अनुकूल विचार निर्माण कर सकता है, परन्तु आचार में दृढ़ता आनी चाहिए.
एक बार यदि हमारे अन्दर यह संकल्प आ जाए कि मैं भलों का प्रतिकार करूंगा जो भूल मेरे प्रमाद से हो गए, उसका अन्तर हृदय से पश्चाताप करूंगा. भविष्य में भूल न हो जाये, उसका दृढ़ संकल्प पैदा करूंगा. तो यह संकल्प सिद्धि का कारण बन जाएगा.
हमारे अन्दर सबसे बड़ी समस्या है संकल्प का अभाव. कोन्फीडेन्स क्रियेट नहीं कर पाते. व्यवहार में कई बार हमने दृढ़ निश्चय किया है कि मुझे यह कार्य हर हालत में करना है. परन्तु उस प्रकार की दृढ़ता आध्यात्मिक साधना क्षेत्र में हम कर नहीं पाए. ऋषि मुनियों का यह चिन्तन रहाः
संकल्पात् जायते सिद्धिः जो व्यक्ति संकल्प करता है तो उस कार्य में उसे अवश्य सिद्धि मिलती है. तो कार्य की सफलता के लिए संकल्प अनिवार्य है, आवश्यक है. __ आचार और इसकी दृढ़ता आप संकल्प से प्राप्त कर पाएंगे. बिना संकल्प के कोई व्यक्ति अपने आचार में स्थिर नहीं रह सकेगा.
राग और द्वेष ये दोनों मन के ऐसे अशुद्ध परिणाम हैं. अशुद्ध पर्याय हैं कि वे दोनों तरफ आपको खीचेंगे. या तो आसक्ति आएगी, जिसे हम राग कहते हैं या किसी व्यक्ति के प्रति द्वेष जागत होगा. दोनों में से एक उपस्थित रहेगा. दोनों में से एक जगह आपकी उपस्थिति मिलेगी, या तो राग में या द्वेष में. या तो किसी वस्तु को प्राप्त करने की इच्छा
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