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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - गुरुवाणी = 1.0 "नहीं, नहीं, मैं अपवित्र बन जाऊँगा. तुम्हारा लोटा?" उन्होंने कहा "लोटा कोई पाप नही करता, पाप तो विचारों में है. विचारों से पाप हो सकता है. इन्सान है. लोटा तो निष्पाप है, निर्दोष है, चार पांच बार इसे मांजा है, इसे दस बार गंगा में डुबकी लगा कर शुद्ध किया, जब लोटा शुद्ध नहीं बना तो जिन्दगी भर डुबकी लगाते रहो, तुम कैसे शुद्ध बन जाओगे?" क्रियाओं के पीछे रहस्य को हम जानते नही. साधु शरणम् करने लग जाते हैं, पानी तो पी लिया लेकिन तर्पण करने लग जाते हैं, पानी आकाश की तरफ करके तर्पण की क्रिया करने लग गया. बहुत सी जड़ क्रियाओं के पीछे मनोवैज्ञानिक दृष्टि से हम कभी अनुसंधान नही करते. कभी उसकी गहराई में नही जाते. शास्त्रों में शब्द के शरीर को देखा लेकिन प्राणों तक पहुंचने का प्रयास नही किया. उस कथन की आत्मा का स्पर्श ही नहीं हुआ. उसका परिणाम शब्द के शरीर को पकड़ करके चलते हैं. वही सांप्रदायिक दुर्गन्ध पैदा करते हैं क्योंकि आत्मा का स्पर्श तो हुआ नहीं. कहने का आशय क्या था? वहां तक तो हम गये नहीं. तर्पण के पीछे क्या आशय, किस प्रकार की मंगल भावना है, उसे हम जाने नहीं, गतानुगतिक पीछे से चली आई मुझे भी करना. वह तर्पण करने लग गया. नानक ने पूछा “क्या कर रहे हो?" "हमारे पितर आकाश में हैं, उन्हें प्यास लगी है, मैं उन्हें पानी देकर उनकी प्यास बुझा रहा हूँ. तृप्त कर रहा हूँ “बहुत अच्छी बात." नानक भी बड़े होशियार थे, उन्होनें गंगा के किनारे नहा करके हाथ से पानी लेकर किनारे पर डालना शुरू कर दिया. उस व्यक्ति ने पूछा “यह कौन सी क्रिया है? ये कोई तर्पण की क्रिया थोड़ी है." "यहां से तुम डालते हो तो स्वर्ग में तुम्हारे पितरों की प्यास बुझा देता है तो किनारे पर डाला गंगा जल हमारे गांव के खेतों को क्यों नही जायेगा. जब तुम्हारा पानी स्वर्ग में जा सकता है तो हमारा तो गांव सौ मील ही दूर है." यह अन्ध विश्वास है. लोग क्रियाओं के रहस्य को समझ नहीं पाते. इन क्रियाओं में भाव का सम्बन्ध है. क्रियाओं का सम्बन्ध छोटा माना गया. भावों का सम्बन्ध मुख्य माना गया. भावों की उपेक्षा करके कई बार क्रियाओं के शाब्दिक उलझन में पड़ जाते है. ___ शब्द के जंगल में अगर आप चले गये, विचारों की भीड़ में घुस गये तो आत्मा को खोजना बहुत मुश्किल होगा.. 'शब्द जालम् महास्यम् चित्तभ्रमणकारणम्' ये शंकाराचार्य का कथन. शब्द के जाल में फंस जाने वाला स्वयं को निकाल नहीं पायेगा, बहुत बड़ी उलझन है. 437 For Private And Personal Use Only
SR No.008711
Book TitleGuruvani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmasagarsuri
PublisherAshtmangal Foundation
Publication Year1996
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size20 MB
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