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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir -गुरुवाणी थे. जाकर क्षमावना की, चरणों में गिरा और मस्तक रखा और कहा-भगवन, मेरे अपराध को क्षमा करो. आज महामंगलकारी संवत्सरी पर्व का दिन, कई बार आपके लिए मेरे मन में दुर्भावना आई, आपने मेरे ऊपर महान उपकार किया है. यदि मैं चमड़ी उतार कर जूती बनवा कर आपको पहनाऊं तो भी मैं उपकार मुक्त नहीं बन सकता. भगवन्! मुझे दुर्गति में नहीं जाना है. यह अपराध करके मुझे दुर्गति में नहीं जाना है. आपके लिए मैंने कितनी दुर्भावना रखी है. भगवन हृदय खोलकर के पाप प्रकट कर रहा हूं. आज संवत्सरी का दिन है. आप मुझे क्षमा करें. इतना विनीत शिष्य, विवेक पूर्वक शब्द का परिणाम अन्तर्चेतना जग गई. शिष्य को गले लगा लिया. रोकर के शिष्य से कहा-तूने मुझे बचा लिया, नहीं मैं कहां चला जाता. वृद्ध हो गये थे, अवस्था का परिणाम व्यंतर (निकृष्ट योनि) में गए. हालांकि चरित्र में दूसरे दोष नहीं थे. क्रिया की शिथिलता थी, आहार की वासना थी, जिसके कारण निष्कृट योनि में गए. वही उनके शिष्य 500 जो उनके पास पढ़ते थे, उसी मथुरा नगरी में जब आगे आने लगे. जहां उनका अग्नि संस्कार किया था वहां बहुत बड़ी खाई थी. दुर्गन्ध से भरी हुई खाई थी. पूरे नगर का पानी और गदंगी वहीं जाती थी. उन्होंने जब ज्ञान से देखा कि ये मेरे शिष्य है., भव में मेरे पास ज्ञानाभ्यास करते थे. मैं तो आहार की वासना से ऐसी गंदी जगह पैदा हुआ हूं, आयुष्य कर्म का बन्धन ऐसा है, यहां से अब मैं आ नही सकता, यानि नहीं बदल सकता. इस योनि में अपमृत्यु नहीं होती, आयुष्य पूर्ण भोगना पड़ता है. आराधना साधना से वंचित रहा. कैसी सजा मुझे मिली. इन शिष्यों को मैं सावधान करूं. शिष्य सभी आ रहे थे. अपना विकाराल रूप बनाकर ढाई फुट लम्बी जीभ निकाली, उनको जीभ हिला हिला करके दिखलाया. सब साधु डर गये. मन में बैचेन हो गए, घबरा गए, साथ वहीं खड़े रहे. उनमें एक ज्ञानी पुरूष थे. उन्होंने आकर विवेक पूर्व पूछा- आप कौन है. आपके कहने का आशय क्या है? अचानक मुद्रा दिखाने की जरूरत क्या है? हम तो साधु हैं, मौत से डरने वाले गृहस्थ नहीं. जो हैं आप, सच बतला दीजिये. उन्होंने कहा मैं तुम्हारा गुरू भव का मंगुआचार्य. तुम पांच सौ साथ मेरे पास ज्ञान पढ़ते थे. याद रखो-एक रसना इन्द्रिय का गुलाम बना, उसके कारण यह दशा बनी. इस खाई में से पेट बना. एक जरा से विषय का पोषण किया, उसका यह परिणाम याद रखना, संयमी जीवन में यदि रसेन्द्रिय पर अधिकार नहीं आया, इसी आहार की वासना को लेकर अगर जीवन बरबाद किया. मेरी जैसी दशा होगी. तुम को इसीलिए जीभ दिखाई इससे सावधान रहना. बड़ी खतरनाक है. __ “अक्खान रसनी कम्मान मोहिनी, तवेप्सु अत्मम बभचेरम्” इन्द्रियों में रसेन्द्रिय पर अधिकार प्राप्त करना बहुत मुश्किल है. तपों में ब्रह्मचर्य तप अति दुष्कर है. कर्मों में मोहनीय Tan कर्म जीतना बहुत दुष्कर है. इन्द्रियों में रसेन्द्रिय पर विजय प्राप्त करने के लिए यह प्रयास / 405 For Private And Personal Use Only
SR No.008711
Book TitleGuruvani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmasagarsuri
PublisherAshtmangal Foundation
Publication Year1996
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size20 MB
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