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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir -गुरुवाणी - समाज तुम्हारा रक्षक है, समाज की कृपा से अपने जीवन का व्यक्तिगत रक्षण होता है. हमारे आचार सुरक्षित रहते हैं, समाज की दृष्टि से हमारी सुरक्षा छिपी है. समझ कर के चलिए. मैं यह आपसे कह रहा था. परमात्मा के विचारों का यदि हृदय से स्पर्श हो जाये, तब तो जीवन की उदारता प्रकट हो जाये. तब तो अपने हृदय की भावना जगत की सद्भावना के लायक बन जाये. परन्तु स्पर्श आज तक हमारे हृदय में हुआ नहीं. शब्द श्रवण किया गया, परन्तु आत्मा से, हृदय से, उसका स्पर्श आज तक नही हुआ. उसका भी कारण है. अनादि काल के संस्कार हैं, जहां गये वहीं दरिद्र नारायण बन करके गये. अपनी महानता भूलकर के गये. मै परमात्मा हूँ, यह आप के दिमाग से निकल गया. कायर बन कर के गये प्रभु के द्वार पर कमजोर बनकर के गये, दरिद्र बनकर के गये, जगत की याचना लेकर भिखारी बनकर के गये, इसी कारण आज तक आप सम्राट् नहीं बन पाये. मांगना बन्द कर दीजिए, जो मिलेगा मेरे भाग्य में होगा वही मिलेगा, हमारी अन्धश्रद्धा हमारे जीवन का सर्वनाश कर रही है, हमारे गुरुजनों को बदनाम कर रही है, हमारे देवी देवताओं को बदनाम कर रही है. परमात्मा जिनेश्वर के शासन को कलंकित कर रही है, वह कभी भीख नही मांगेगा. महावीर का उपासक महावीर बनने का प्रयास करता है. वह जगत का भिखारी नहीं, कि जहां गया, टोकरी लेकर गया कि कुछ दे दो. . अपनी आदत से हम लाचार. देवी देवताओं के पास जायें, गुरुजनों के पास जायें. जहां गए, दरिद्र बन करके गये. आशीर्वाद दे दूं, आप करोड़पति बन जायें. आप के हाथ में है? कुबेर कोई मेरा नौकर है? मै सर्वज्ञ हूं कि आप के भाग्य को जानलू या समझ लूँ. "एतत् पुण्येन लभ्यते" पूर्व कोई पुण्य कार्य किया हो तो सम्पत्ति मिलती है, नहीं तो विपरीत तो आयेगी ही. सामना आप को करना पड़ेगा परन्तु बहुत सामान्य रूप से मुझे वैसा धन, सम्पत्ति मिल जाये. यह हमारी आदत है, बहुत बार. ऐसा देखा गया, सुना गया. लोग आदत से मजबूर हैं. मफतलाल किसी साधु के पास गया होगा पूछा "महाराज! प्रारब्ध भी कोई चीज है? "हां." "मेरा प्रारब्ध कैसा चल रहा है? आप बतलायेंगे.” विशिष्ट ज्ञानी थे. ज्ञान के प्रकाश में उसके प्रारब्ध को देखकर के कहा-“अरे मफतलाल! तेरा पुण्य इतना बलवान है, इतना प्रबल पुण्य है इस समय पर, बिना कहे, बिना मांगे, तेरे घर पर लक्ष्मी का आगमन हो जाये. ऐसा अपूर्व पुण्य है." __“महाराज! पुरुषार्थ करूँ?" पुरूषार्थ तो भाग्य का निर्माण करने वाला है, मेरा आप से यही कहना था, पुरुषार्थ को कभी गौण न करें. प्रारब्ध का जन्म ही आपके पुरुषार्थन 432 For Private And Personal Use Only
SR No.008711
Book TitleGuruvani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmasagarsuri
PublisherAshtmangal Foundation
Publication Year1996
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size20 MB
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