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- गुरुवाणी
अगर अपने पास शक्ति है, अपने पास साधन है, तो दीन-दुःखी आत्माओं के लिए जरूर सहायता का कार्य करना, उसके योग्य कार्य करना जिसे अपने यहां अनुकंपा कहा गया है. सम्यक दर्शन, सम्यक श्रद्धा का जो मुख्य लक्षण है, उस अनुकंपा का हृदय में अनुकंपन होना चाहिए. दुःखी आत्माओं को देखकर के हृदय दर्द से भर जाये. उनके दर्द का आंसू जब आंख में आने लग जाये, तब समझना कि मैं कुछ दयालु बना. मेरे स्वभाव में कुछ करुणा आयी. मैं परमात्मा के प्रेम के योग्य बना.
ऐसे पुण्य कार्य का मुझे कब अवसर मिले कि दीन आत्माओं की मैं सेवा कर सकू, अनाथों की सेवा करने वाला बनूं, भूखी आत्माओं को भोजन देने वाला बनूं, किसी दुःखी आत्मा के आंसुओं को पोंछ कर के, अपनी प्रसन्नता को मैं प्राप्त करूं, मेरा चित्त प्रसन्न हो जाये. यह मंगल भावना इसी शिष्टाचार के अन्तर्गत यहां दी गई:
धार्मिक कहलाना सबको पसन्द है, परन्तु धार्मिक बनने में बहुत बड़ी समस्या है क्योंकि वह तो आचरण से बना जाता है, शब्दों से नही. किसी व्यक्ति को अगर धार्मिक कहा जाये वह बड़ा खुश होगा. पर यह नहीं मालूम कि धार्मिक बनने में कितनी कठिनाई, कितना बड़ा बलिदान दिया जाता है. कितना बड़ा योगदान उसमें होता है. बहुत सारे ऐसे व्यक्ति आज भी आपको मिलेंगे कि जब-जब ऐसा प्रसंग आता है, तब उन्हें कैसा पेट का दर्द होता है. हमने कभी उस तरफ ध्यान नहीं दिया.
हमारे यहां पाक्षिक प्रतिक्रमण में अपने दोषों के निरीक्षण के लिए अतिचार सूत्र के द्वारा यह विचार किया जाता है, कि भगवान की आज्ञा के विपरीत मैंने कार्य किया और उस अपराध की क्षमायाचना की जाती, प्रति चतुर्दशी के दिन हम बोलते हैं
"दीन-दुःखी सधार्मिकतनी अनुकंपा भक्ति न कीधी" परन्तु हृदय से पूछिए कि कभी झांककर के किसी दीन-दुःखी को देखा. हमारे पास-पड़ोस में कितने व्यक्ति रहते हैं. उनकी क्या स्थिति है हमने यह विचार कभी नहीं किया.
सम्राट कुमारपाल के दरबार में, जब महान् आचार्य कलिकाल सर्वज्ञ हेमचन्द्रसूरि महाराज का आगमन हुआ और उनके शरीर पर जो खेत वाले मजदर पहनते हैं. एकदम मोटा वस्त्र था इतने महान् आचार्य, सुकुमार शरीर, अपूर्व पुण्यशाली आत्मा, प्रतिभासम्पन्न व्यक्ति, बड़े-बड़े राजा-महाराज जिनके चरणों की सेवा करें, ऐसा प्रबल पुण्योदय और उस महान् आचार्य के शरीर पर एकदम मोटा वस्त्र,
राजमहल में आचार्य भगवन्त आए. सम्राट कुमारपाल स्वागत के लिए गए. सम्मानपूर्वक अपने दरबार में बुलाया वस्त्र देखकर के वह शर्मिन्दा हो गया. आचार्य भगवन्त को वन्दना करने के बाद सम्राट ने निवेदन किया कि भगवन्, मेरे जैसा भक्त आपका परम सेवक, आपके चरणों का दास, सारा राज्य मैंने आपके चरणों में अर्पण कर दिया, आपका आदेश शिरोधार्य है. आपके शरीर में यह मोटा वस्त्र देखकर मुझे बड़ी शर्म आ रही है.
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