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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir -गुरुवाणी धर्म का मर्म - - वीतराग परमात्मा की जगत के जीव मात्र के कल्याण के लिए, किसी एक के लिए नहीं, किसी संप्रदाय के लिए नहीं, किसी व्यक्ति के लिए नहीं परन्तु जगत के जीव मात्र के कल्याण के लिए मंगल देशना रही. सर्वप्रथम परमात्मा के आगत विचारों पर आप ध्यान केन्द्रित करें. परमात्मा महावीर किसी संप्रदाय के नहीं थे. न वे दिगम्बर थे, न श्वेताम्बर, न स्थानकवासी, न तेरा पंथी. परमात्मा परमात्मा थे, परिपूर्ण आत्मा थे. परमात्मा ने जो कुछ भी विचार दर्शन दिया, उस दर्शन के पीछे उनकी मंगल भावना थी, जीवमात्र का कल्याण हो, परमात्मा महावीर ने कभी ऐसा विचार तक भी नहीं किया कि मेरा कल्याण हो, मेरे सम्प्रदाय का कल्याण हो और मुझे सम्मानित करने वालों, मेरे नाम का रटन करने वालों का कल्याण हो, ऐसी विकृत भावना नहीं थी. ___ मेरी साधना जीव मात्र की शान्ति के लिए हो, मेरी साधना से जगत को प्रकाश मिले. मेरी साधना से जगत की पीड़ित आत्माओं को सुख शान्ति मिले, मोक्ष मार्ग का मंगल परिचय मिले और जगत की सभी आत्मा संसार के समस्त दुखों से मुक्त हों. इस मंगल भावना से भगवान महावीर ने देशना दी. __ परमात्मा के विचारों में न कोई सांप्रदायिकता थी, न कोई प्रान्तीयता थी, न कोई वहां व्यक्तिवाद था. वहां तो समष्टि को लेकर जीव मात्र के कल्याण की मंगल कामना थी. इसी कामना को लेकर के प्रभु ने अपने विचार दर्शन दिये, यदि उन विचारों पर चिन्तन किया जाये, विचारों की गहराई में यदि डुबकी लगा ली जाये तो याद रखिये आत्मा परमात्मा बनकर के लौटती है. परमात्मा के विचारों का सागर इतना निर्मल है कि यदि एक बार आत्मा उसमें स्नान करे तो आत्मा निर्मल बनती है, परमात्मा बनती है. परमात्मा के विचारों का चिन्तन वीतरागता की उपलब्धि आपको कराता है, हमने कभी उस तरफ ध्यान दिया ही नहीं. कभी विचार की गहराई में डुबकी लगा कर देखा ही नहीं. साधना के द्वारा कभी स्वानुभूति का अनुभव हमने किया नहीं, परमात्मा के विचार अमृत को पाकर के भी आत्मा का स्पर्श उसके साथ आज तक हुआ नहीं. वाणी तो हम श्रवण करते हैं परन्तु जब हृदय से वाणी का स्पर्श होता है, तब जाकर जीवन का रूपान्तर होता है. कैसी अपूर्व करुणा से परमात्मा के मंगल हृदय से इस वाणी का प्रकाश हुआ है? कैसा वात्सल्य और कैसी करुणा थी उनके एक-2 शब्दों के अन्दर, हमारा दुर्भाग्य परमात्मा की उस वाणी को सापेक्ष दृष्टि से, अनेकान्त दृष्टि से समझने का प्रयास नहीं किया और हम टुकड़ों में बंट गये. न 427 For Private And Personal Use Only
SR No.008711
Book TitleGuruvani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmasagarsuri
PublisherAshtmangal Foundation
Publication Year1996
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size20 MB
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