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गुरुवाणी:
साधु अन्दर गए. वह ग्रामीण व्यक्ति अपना सामान लेकर दूसरे की झोंपड़ी में चला गया. मेरे घर अतिथि आएं हैं. साधु-संत आए हैं, उनकी सेवा का आज मुझे लाभ मिलेगा. संध्या की क्रिया प्रतिक्रमण से निवृत्त हो कर महाराज बैठे. वह व्यक्ति वहां आता है और पूछता है -- महाराज मुझे आप धर्म समझाओ कैसी प्यास ले कर के आया था.
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हमारे यहां, आज तक ऐसा एक व्यक्ति नहीं मिला कि जो यह प्रयास लेकर आया हो कि महाराज आप मुझे धर्म समझाइए कहने ज़रूर आए, दुकान नहीं चलती है, पैसा नहीं आता है. महाराज क्या करें, बड़ा धर्मसंकट है, परिवार में क्लेश है. महाराज क्या बताएं इस तरह दुनिया भर की शिकायत लेकर के आएंगे, याचना लेकर के आएंगे, जीवन की दरिद्रता लेकर के आएंगे.
रोज़ मुसीबत आती है तो मैंने भी रास्ता निकाल लिया. मैंने कहा भाई, मैं भी बहुत दुःखी था. संसार छोड़कर के यहां आ गया, आप भी आ जाओ. अपने सुख में आपको भी भागीदार बना दूं. किसी को आना तो है नहीं. सही रास्ते से काम करना नहीं. जब सज़ा मिली है, तो भोगनी नहीं. छटकने की बात करते हैं.
"अवश्यं भाविनो भावाः '
जो भावी भाव है. उसे जगत में कोई टाल ही नहीं सकता. अगर टालने की हिम्मत होती तो राम को वनवास जाने की जरूरत नहीं पड़ती. कृष्ण को युद्ध करने की जरूरत न पड़ती. जुए के अन्दर पाण्डवों की यह दशा नहीं होती. यहां तो आपको कर्म की प्रधानता को मान कर ही चलना पड़ेगा.
वह व्यक्ति धर्म की प्यास लेकर आया था कि महाराज मुझे आप धर्म समझाइए. धर्म क्या है ? महाराज ने कहा सर्वप्रथम जीवन का धर्म वहीं से प्रारम्भ होता है जो दूसरों के लिए जीना सीखे, दूसरों के लिए मरना सीखे. महाराज मैं समझ नहीं पाया, जरा स्पष्ट करिए.
दूसरी आत्माओं को जीवन दान देना जगत् का सबसे बड़ा पुण्य कार्य है. महाभारत के शांतिपर्व में योगेश्वर कृष्ण ने कहा है:
"यो दद्यात् काञ्चनमेरुं सकलांचैव वसुंधराम् । एकस्य जीवितं दद्यात् न च तुल्यं युधिष्ठिर ॥
ये श्रीकृष्ण के शब्द हैं. कहा कि युधिष्ठर याद रखना - सारी पृथ्वी का दान करने वाला कोई दानेश्वर भी आ जाए. शायद कर्ण जैसा कोई दानेश्वर ही पैदा हो जाए. मेरु पर्वत जितना सोने का रोज़ दान करने वाला हो परन्तु एक जीव को बचाने वाला उससे अधिक पुण्य उपार्जित करता है. अभयदान का इतना बड़ा मूल्य है.
किसी आत्मा को जीवन दान देना सर्वश्रेष्ठ धर्म है.
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