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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir -गुरुवाणी धर्मफल देशना विधि फलप्रधान आरम्भः, इति सल्लोकनीतितः / संक्षेपादुक्तमस्येदं, व्यासतः पुनरुच्यते // 37 // सत्पुरुषों की नीति फलप्रधान कार्य आरंभ करने की है। अतः धर्म का यह फल है ऐसा संक्षेप में पहले बताया है उसे विस्तार से अब कहते हैं. प्रवृत्त्यङ्गमदः श्रेष्ठ, सत्त्वानां प्रायशश्च यत् / आदौ सर्वत्र तद् युक्तमभिधातुमिदं पुनः // 38 // सब कार्यो में प्राणियों की प्रवृत्ति होने का कारण प्रायः उसका फल है अतः उसे कहना श्रेष्ठ है अतः प्रारंभ में संक्षेप से और अब विस्तार से कहना युक्त है. विशिष्टं देवसौख्यं, यच्छिवसौख्यं च यत्परम् धर्मकल्पद्रुमस्येदं, फलमाहुर्मनीषिणः // 36 // देव सम्बन्धी महान सुख तथा मोक्षरूपी उत्कृष्ट सुख धर्मरूपी कल्पवृक्ष के फल है, ऐसा बहुत बुद्विमान पुरुष कहते है. इत्युक्तो धर्मः, सांप्रतमस्य फलमनुवर्णयिष्यामः // 1 // (444) इस प्रकार गृहस्थ धर्म व यतिधर्म कहा अब उसके फल का वर्णन करते हैं. द्विविधं फलम्-अनन्तर-परम्परभेदादिति // 2 // (445) अनन्तर व परंपरा भेद से फल दो प्रकार का है. तत्रानन्तरफलमुपप्लवहास इति // 3 // (446) उसका अनन्तर फल तो रागादि उपद्रव का नाश हो जाना है. G 659 For Private And Personal Use Only
SR No.008711
Book TitleGuruvani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmasagarsuri
PublisherAshtmangal Foundation
Publication Year1996
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size20 MB
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