Book Title: Agam aur Tripitak Ek Anushilan Part 1
Author(s): Nagrajmuni
Publisher: Concept Publishing Company
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम और त्रिपिटक [ক 3নুহলিন खण्ड:१ इतिहास और परम्परा राष्ट्रसन्त मुनिश्रीनगराजजीडी.लिट. 2010_05 Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Anuvrat Paramarshaka Muni Nagarajaji has shown me the pageproofs of the first volume of his work entitled "Agama Aura Triipitaka : Eka Anus ilana." The subject is one of great interest and importance. From what I have seen and what the Muni has told me about his plan for the entire work, his method of handling the material, his attitude towards his subject and his approach to his task, I expect the completed study to contain the vast amount of new and independent scholarship. As far as my own information goes, this is the first attempt by an adherent to either of the great faiths being treated to compare them in a thorough way. What is even more promising in my view is that the Muni speaks of both Jainism and Buddhism in a manner that promises objectivity in his study as well as exactitude and balanced judgement. -Dr. W.Norman Brown Professor Emeritus of Sanskrit, University of Pennsylvania, U.S.A. Bombay. February 8,1969 Rs. 300 $ 60 TUSE my w alaallinnaorg Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन ____ 2010_05 Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2010_05 Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अागम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन (खण्ड-१ : इतिहास और परम्परा) लेखक: राष्ट्रसन्त मुनिश्री नगराजजी डी० लिट ब्रह्मर्षि, योग शिरोमणि, सद्भावना रत्न भूमिका : डॉ. ए. एन० उपाध्ये, एम० ए०, डी० लिट० __ डीन, कलासंकाय, कोल्हापुर विश्वविद्यालय (अध्यक्ष : अखिल भारतीय प्राच्यविद्या सम्मेलन, अलीगढ़, १९६७) एक अवलोकन: डॉ० पं० सुखलालजी संघवी, डी० लिट्० भूतपूर्व प्राध्यापक, बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय सम्पादक: मुनि श्री महेन्द्रकुमारजी 'प्रथम' मुनि श्री महेन्द्रकुमारजी 'द्वितीय', बी० एस-सी० (ऑनर्स) प्रकाशक: कॉन्सेप्ट पब्लिशिंग कम्पनी एच-१३, बाली नगर, नई दिल्ली-११००१५ ____ 2010_05 Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशक : नौरंग राय कॉन्सेप्ट पब्लिशिंग कम्पनी एच-१३, बाली नगर नई दिल्ली- ११००१५ ( भारत ) प्रूफ - संशोधन व साज-सज्जा रामचन्द्र सारस्वत प्रथम संस्करण : ३१ मार्च १९६६ द्वितीय संशोधित संस्करण : जून १६८७ मूल्य : ३०० रुपये मुद्रक : शुक्ला प्रिंटिंग सर्विस, मौजपुर, दिल्ली- ५३ 2010_05 Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ĀGAMA AUR TRIPITAKA: EKA ANUSILANA (A Critical Study of the Jaina and the Buddhist Canonical Literature) (VOLUME 1: HISTORY & TRADIT By RASHTRASANT MUNI SHRI NAGRAJJI, D. Litt. Brahmrishi, Yog Shiromani, Sadbhavna Ratna Preface by Dr. A. N. Upadhye, M.A., D. Litt., Dean, Faculty of Arts, University of Kolhapur and Chairman : All India Oriental Conference, Aligarh, 1967 A Review by Dr. Pt. Sukhalalji, D. Litt. Formerly Professor of Jaina Philosophy, Banaras Hindu University Edited by Muni Shri Mahendra Kumarji Pratham” Muni Shri Mahendra Kumarji “Dviteeya”, B. Sc. (Hons.) Published by CONCEPT PUBLISHING COMPANY H-13, Bali Nagar New Delhi-110015 2010_05 Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2010_05 Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Foreword Muni Shri Nagarajaji is a well-known author. He possesses a first hand knowledge of Jainism and of the Jaina way of life. He has a scholarly temper and an earnest desire to widen the horizon of his studies and the boundaries of his knowledge. He passionately pursues the Anuvrata ideology with a view to making it intelligible to others, in comparison with modern ideas as well as in the back-ground of Jainism. He is one of those few authors who have tried to study Jain concepts in the light of modern science. Shri Nagarajaji's present work Agama aur Tripitaka: Eka Anusilana (in Hindi) is, as indicated by its title, an exhaustive study of the Agama, also known as Ganipitaka, of the Jainas and the Tripitaka of the Buddhists, putting together some common topics on which our attention is being focussed, Buddha and Mahavira have been great contemporaries; and, as the Tripitaka reveals, there were other teachers in that as such as Purna Kasyapa, Makkhali Gosala, Ajitakesa Kambala, Prakudha Katyayana and Samjaya belattha Putra. The Jain canon also gives a few details about them. Gosala was a remarkable saint of that age; but, unluckily, his doctrines have not come down to us by themselves. We do not possess any scriptures of the Ajivaka system: all that we know about it is from the Jaina and Buddhist sources. Muni Shri Nagarajaji gives exhaustive details about these teachers and their tenets. It is well-known that there is plenty of disparate evidence and conflicting traditional information as well as a plethora of controversy amongst scholars about the dates of the Nirvana of Buddha and Mahavira. Shri Nagarajaji has surveyed, in this respect, all the accessible material and different traditions, specifying dully the sources etc., and his conclusion that Mahavira attained Nirvana in 527 B.C. and Buddha in 502 B.C. seems to be quite consistent in itself. Then he presents the lives of Mahavira and Buddha in their various aspects and 2010_05 Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ viii आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [mus : in exhaustive details. Biographies of their eminent pupils are succinctly given and quite welcome light is shed on contemporary kings like Srenika Bimbisara, Kunika, Chandra Pradyota, Prasenajit, Chetaka and others. He has significantly reviewed important topics, doctrinal as well as moral, connected with Jainism and Buddhism as available in the canons. In fine, this work has become a veritable respositary of useful information on Mahavira and Buddha, their times and doctrines. The appendix gives some useful extracts from the Tripitaka for ready reference. Muni Shri Nagarajaji has earned our gratitude by presenting his study in such a through manner. Our thanks are also due to publishers who have neatly brought out this volume. Dhavala Kolhapur-1 16-11-67 A. N. Upadhye (Dean, Faculty of Arts, University of Kolhapur) 2010_05 Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकीय राष्ट्रसंत मुनिश्री नगराजजी डी. लिट. अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति के संत एवं साहित्यकार हैं। उनका जीवनदर्शन यही है कि सब धर्म मेरे हैं तथा मैं सब धर्मों का हूँ। यह आदर्श उनकी अपनी धारणा तक ही सीमित नहीं है। प्रायः सभी धर्मों के लोग उन्हें अपना ही धर्म गुरु समझते हैं तथा वे सब धर्मों को अपना ही धर्म समझते हैं। ' यही कारण है कि उन्हें एक जैन गुरु होते हुए भी डी. लिट. ब्रह्मर्षि, योग शिरोमणि, राष्ट्रसंत, आदि गौरव पूर्ण उपाधियां विभिन्न वर्गों व क्षेत्रों से मिली हैं। कहना चाहिए कि वे एक मुक्त चिन्तंक हैं तथा सम्प्रदाय व पंथ की संकीर्ण गलियों से पार होकर धर्म, इतिहास व दर्शन के मुक्त आयतन में पहुंच चुके हैं । हमारी कॉन्सप्ट पब्लिशिंग कम्पनी का सौभाग्य है कि हमें उनके इस गौरव पूर्ण ग्रंथ के प्रकाशन का सौभाग्य मिल रहा है। मुनिश्री की इस महती कृपा के लिए उनके हम परम आभारी हैं । मुनिश्री के पचास से अधिक ग्रंथ अब तक प्रकाशित हो चुके हैं, जिनकी साहित्यिक जगत् में अप्रतिम गरिमा है। मुनिश्री के आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन खण्ड एक का प्रकाशन कर हम अपने आप को गौरवान्वित मानते हैं। कॉन्सप्ट पब्लिशिंग कम्पनी अंग्रेजी मुख्यतः जो ग्रंथों का ही प्रकाशन करती है और अपनी लाइन में उसका अपना कीर्तिमान है। धार्मिक व सांस्कृतिक ग्रंथों का प्रकाशन हम मुख्यतः सेवा भावना से ही करते हैं। वह हमारा व्यवसाय का तथा उससे लाभ अर्जित करने का विषय नहीं होता। हमारा लक्ष्य है, जीवन में स्वार्थ के साथ परमार्थ का भी कुछ सधता रहे। अस्तु, इस दृष्टि से ही हमने इस ग्रंथ का मूल्य व्यावसायिक स्तर का नहीं रखा है। निवेदक १ जून १९८७ दिल्ली नौरंग राय संचालक, कॉन्सेप्ट पब्लिशिंग कम्पनी 2010_05 Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2010_05 Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना-द्वितीय संस्करण “आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन" ग्रंथ का प्रथम संस्करण सन् १९६६ में हुआ था । ग्रंथ काफी पठनीय व चर्चनीय रहा। उस पर डी. लिट्० की मानद उपाधि भी मिल चुकी थी । अनेक विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रम में भी वह निर्धारित हो चुका था; अतः वह संस्करण कुछ ही समय में अप्राप्य हो गया। हमारी संघीय व सामाजिक स्थितियों के परिवर्तन से उसके दूसरे संस्करण के प्रकाशन पर ध्यान नहीं दिया गया। प्रत्युत् द्वितीय खण्ड के प्रकाशन और तृतीय खण्ड के लेखन पर विशेषतः ध्यान दिया गया । उक्त अवधि में दोनों खण्ड लिख भी लिए गए तथा द्वितीय खण्ड प्रकाशित होकर स्व० प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी द्वारा विमोचित भी हो गया। अस्तु, इससे प्रथम खण्ड के द्वितीय संस्करण की मांग सर्व साधारण में और बढ़ गई। संयोग की बात है कि ३० दिसम्बर १९८६ को अभी-अभी प्रथम खण्ड के अंग्रेजी संस्करण का विमोचन राष्ट्रपति ज्ञानी जैलसिंह जी के हाथों हुआ है और तत्काल ही अब प्रथम खण्ड का द्वितीय हिन्दी संस्करण पाठकों के हाथों में आ रहा है। यह संस्करण मुनिश्री महेन्द्र कुमारजी 'प्रथम' व 'द्वितीय' द्वारा संपादक की हैसियत से संशोधित व संवर्धित भी है। प्रथम संस्करण की अपेक्षा इसमें पाठकों को परिमाजित सामग्री व नवीन सामग्री भी कुछ पढ़ने व जानने को मिलेगी। अभिनिष्क्रमण के पश्चात् भी मेरा साहित्य कार्य अबाध गति से चल रहा है, उसका मुख्य श्रेय 'श्रमणरत्न' अग्रगण्य मुनिश्री मानमलजी को है। वे समष्टि का समस्त दायित्व भली-भांति निभा रहे हैं; अतः मैं अपने साहित्य कार्य के लिए बहुत कुछ मुक्त रह जाता हूँ। । प्रस्तुत संस्करण के प्रकाशन का दायित्व कॉन्सेप्ट पब्लिशिंग कम्पनी के संचालक श्री नौरंग राय जी ने उठाया है। उनकी कार्य-निष्ठा व वचन-बद्धता विलक्षण है। वे जिस कार्य को उठा लेते हैं, उसे हो गया ही समझा जा सकता है। ये वे ही नौरंग रायजी हैं, जिन्होंने केवल तीन सप्ताह में अभिधान राजेन्द्र शब्दकोष के सात विशाल खण्ड पुनर्मुद्रित करा के एक कीर्तिमान स्थापित कर दिया था। मेरे प्रस्तुत ग्रंथ के लिए भी उन्होंने बीड़ा उठाया, यह मेरे लिए प्रसन्नता एवं गर्व की बात है। उनके लिए सहस्रशः आशीर्वाद मेरे हृदय में स्वतः प्रस्फुटित हो रहे हैं। ६ मार्च, १९८७ दिल्ली मुनि नगराज ____ 2010_05 2010_05 Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2010_05 Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका मुनि श्री नगराजजी एक सुविख्यात लेखक हैं। जैन दर्शन और जैन आचार का उनका अपना मौलिक ज्ञान है । उनकी विद्वता स्वभाव-सिद्ध है। उनमें अपने अध्ययन और ज्ञान के क्षितिज को विस्तृत करने की प्रबल उत्कण्ठा है। जैन दर्शन की पृष्ठभूमि में व आधुनिक विचार-प्रणालियों के सन्दर्भ में अणुव्रत-जीवन-दर्शन को जन-जन के लिए बुद्धिगम्य बनाने के लिए वे उत्कट रूप से प्रयत्नशील हैं। आप उन विरल लेखकों में से एक हैं, जिन्होंने जैन विचार का आधुनिक विज्ञान के आलोक में अध्ययन किया है। जैसे कि शीर्षक से सूचित होता है, मुनि श्री नगराजजी का प्रस्तुत ग्रन्थ “आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन" जैन आगमों अर्थात् गणिपिटकों तथा बौद्ध त्रिपिटकों के एक सर्वाङ्गीण अध्ययन के रूप में है । इसमें दोनों परम्पराओं के समान विषयों की तुलना के द्वारा हमारा ध्यान केन्द्रित किया गया है। बुद्ध और महावीर दो महान् समसामयिक व्यक्ति थे । उस युग में पूरण काश्यप, मक्खली गोशाल, अजित केशकम्बली, प्रक्रुध कात्यायन, संजय वेलट्ठिपुत्र ; ये अन्य भी धर्मप्रवर्तक थे, ऐसा त्रिपिटक बताते हैं। जैन शास्त्र भी उनके विषय में कुछ अवगति देते हैं । गोशालक उस युग के एक उल्लेखनीय धर्मनायक थे। किन्तु, दुर्भाग्य से उनकी मान्यताएँ प्रत्यक्षतः हमारे तक नहीं पहुंच रही हैं। वर्तमान युग में आजीवक सम्प्रदाय का कोई भी धर्म-शास्त्र उपलब्ध नहीं है। इस सम्बन्ध में हम जो कुछ जानते हैं, वह जैन और बौद्ध शास्त्रों पर ही आधारित है। मुनि श्री नगराजजी इन धर्मप्रवर्तकों तथा उनके सिद्धान्तों के विषय में परिपूर्ण जानकारी देते हैं। यह एक सुविदित तथ्य है कि महावीर और बुद्ध के निर्वाण-काल के विषय में बहुत सारे परस्पर विरोधी प्रमाण उपलब्ध होते हैं तथा इस विषय में अनेक विवादपूर्ण पारस्परिक मान्यताएँ प्रचलित हैं। विद्वानों में भी इस विषय पर अत्यधिक मतभेद है। मुनि श्री नगराजजी ने इस सम्बन्ध में उपलब्ध समग्र सामग्री का एवं विभिन्न परम्पराओं का सर्वेक्षण किया है। उन्होंने इनके मूलभूत उद्गम आदि के विषय में भी यथोचित रूप से स्पष्टता की है। उनका निर्णय है कि महावीर ५२७ ई० पू० में तथा बुद्ध ५०२ ई० पू० में निर्वाण-प्राप्त हुए थे। प्रस्तुत निर्णय अपने आप में सब प्रकार संगत लगता है। आगे उन्होंने महावीर और बुद्ध के जीवन-सम्बन्धी विभिन्न पहलुओं पर विस्तृत एवं सर्वाङ्गीण प्रकाश डाला है। तदनन्तर दोनों के प्रमुख शिष्य-शिष्याओं की संक्षिप्त जीवनी दी गई है। इसके बाद महावीर और बुद्ध के समकालीन राजा; जैसे श्रेणिक बिम्बिसार, कूणिक, चण्डप्रद्योत, प्रसेनजित्, चेटक आदि पर बहुत ही श्लाघनीय प्रकाश डाला गया है । अगले प्रकरणों में शास्त्रों में उपलब्ध ____ 2010_05 Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ xiv आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड : १ होने वाले जैन धर्म और बौद्ध धर्म से सम्बन्धित सिद्धान्त-विषयक एवं आचार-विषयक महत्त्वपूर्ण प्रश्नों पर अत्यन्त सारगर्भित समीक्षा की गई है। थोड़े में कहा जा सकता है कि यह ग्रन्थ महावीर और बुद्ध एवं उनके युग व सिद्धान्तों की उपयोगी सूचनाओं का वस्तुतः ही एक भरा-पूरा भण्डार है। ग्रन्थ के परिशिष्ट में त्रिपिटकों के कुछ पाठ तात्कालिक सुलभता की दृष्टि से दिये गये हैं। ____ मुनि श्री नगराजजी ने अपने अध्ययन को इस प्रकार परिपूर्ण रूप में प्रस्तुत कर हमें कृतज्ञ किया है । ग्रन्थ की स्वच्छता व शालीनता के लिए प्रकाशक भी हमारी बधाई के पात्र हैं। धवला कोल्हापुर-१ १६-११-१९६७ ए० एन० उपाध्ये (अध्यक्ष, कला-संकाय, कोल्हापुर विश्वविद्यालय) 2010_05 Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक अवलोकन मुनि श्री नगराजजी द्वारा लिखित 'आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन' ग्रन्थ का श्रवण कर मैं बहुत प्रभावित हुआ हूँ। मुनि श्री ने त्रिपिटक-साहित्य के जितने अवतरणों का अवलोकन व संकलन किया है, वह बहुत श्रमसाध्य एवं अपूर्व है। ग्रन्थ बहुत ही महत्त्वपूर्ण एवं उपयोगी बन पाया है। ग्रन्थ में चचित अनेक पहलुओं पर स्वतंत्र निबन्ध लिखे जा सकते हैं, ऐसा मैंने मुनि श्री को सुझाया भी है। जैन और बौद्ध परम्परा का तुलनात्मक अनुशीलन एक व्यापक विषय है। इस दिशा में विभिन्न लेखकों द्वारा पहले भी स्फुट रूप से लिखा जाता रहा है। मुनि श्री ने तीन खण्डों की परिकल्पना से इस कार्य को उठाया है, यह अपने-आप में प्रथम है। इस ग्रन्थ का पारायण मेरे समक्ष लगभग तीन सप्ताह चला। इस सन्दर्भ में मुनि श्री नगराजजी एवं मुनि श्री महेन्द्रकुमार जी 'द्वितीय' से सम्बन्धित पहलुओं पर विस्तृत चर्चा भी होती रही । मैं उनके मूल-स्पर्शी अध्ययन एवं तटस्थ चिन्तन से भी प्रसन्न हुआ। 'इतिहास और परम्परा' खण्ड के श्रवण से मेरे मन में जिन विचारों का उद्भव हुआ तथा जो धारणाएँ बनीं, वे संक्षेप में इस प्रकार हैं भारतीय संस्कृति की ब्राह्मण और श्रमण; इन दो धाराओं में अनेकविध भिन्नता दृष्टिगोचर होती है। ब्राह्मण संस्कृति में जहाँ हिंसामय यज्ञ आदि क्रियाकाण्ड, भाषा-शुद्धि, मंत्र-शुद्धि आदि को प्रधानता दी गई है, वहां ये सभी पहलू श्रमण-संस्कृति में गौण रहे हैं। जैन और बौद्ध-श्रमण-संस्कृति की इन दोनों धाराओं में इस दृष्टि से बहुत अभिन्नता पाई जाती है। इन दोनों में वेदों की अपौरुषेयता को चुनौती दी गई है तथा जातिवाद की तात्त्विकता अमान्य रही है। मुख्यतः प्रधानता संयम, ध्यान आदि को दी गई है। गृहस्थ उपासकों की दृष्टि मी संयम की ओर अधिक रही है। ऐसे अनेक पहलू है जो इन दोनों श्रमणधाराओं में समान रहे हैं ___ महावीर (निगण्ठ नातपुत्त) और बुद्ध के अतिरिक्त पूरण कस्सप, अजित केशकम्बल, संजय वेलट्रिपुत्त, मक्खली गोशालक व प्रकुध कच्चायन के नाम उस युग के श्रमण-नायकों के रूप में उपलब्ध होते हैं । बौद्धों के पालि-त्रिपिटकों में इनके परिचय एवं उनकी मान्यताओं के सम्बन्ध से विस्तृत ब्यौरा मिलता है। पर दुर्भाग्यवश आज हमें बुद्ध व निगण्ठ नातपुत्त को छोड़कर अन्य किसी श्रमण-नायक का संघ व साहित्य उपलब्ध नहीं होता है । बौद्ध ग्रन्थों में जो समुल्लेख निगण्ठ नातपुत्त व उनके शिष्यों से सम्बन्धित मिलते हैं, उनसे यह स्पष्ट हो जाता है कि महावीर बुद्ध के युग में एक प्रतिष्ठित तीर्थङ्कर के रूप में थे व उनका निर्गन्थ-संघ भी वृहत् एवं सक्रिय था। 2010_05 Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ xvi आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड : १ समग्र-बौद्ध-साहित्य में ऐसे इक्कावन समुल्लेख प्राप्त होते हैं, जिनमें बत्तीस तो मूल त्रिपिटकों के हैं, मज्झिम निकाय में दश, दोघ निकाय में चार, अंगुत्तर निकाय व संयत्त निकाय में सात-सात, सुत्त निपात में दो एवं विनय पिटक में दो संदर्भ प्र हैं। इन समल्लेखों में विविध विषयों पर बुद्ध व निग्रंथों के बीच की चर्चाएँ, घटनाएँ व उल्लेख हैं। कुछ सन्दर्भो में आचार-विषयक चर्चा की गई है, जिनमें मुख्य रूप से निर्ग्रन्थों के चातुर्याम संवर का विषय है। प्राणातिपात, मृषावाद, चौर्य व अब्रह्मचर्य की निवृत्ति रूप चार याम बताये गये हैं तथा कहीं-कहीं कच्चे वारि व पापों की निवृत्ति के चार याम बताये गये हैं। एक सन्दर्भ में भाषा विवेक की चर्चा है, जिसमें दूसरों को अप्रिय लगे ऐसे वचन बुद्ध बोल सकते हैं या नहीं-यह प्रश्न उठाया गया है। मांसाहार की चर्चा में निर्ग्रन्थों द्वारा उद्दिष्ट मांस की निन्दा की गई है। एक प्रसंग में साधु के आचार व बाह्य वेष के सम्बन्ध में चर्चा है। भिक्षु के द्वारा प्रातिहार्य (दिव्य-शक्ति) का प्रदर्शन अकल्प्य बताने का प्रसंग भिक्ष के आचार-विषयक पहल पर प्रकाश डालता है। श्रावकों के आचार-विचार की चर्चा में उपोसथ-सम्बन्धी विवरण महत्त्वपूर्ण है। कुछ सन्दर्भ तत्त्व-चर्चा परक हैं। निर्ग्रन्थों की तपस्या और कर्मवाद' की चर्चा अनेक स्थलों पर की गई है, जिसमें तपस्या से कर्म-निर्जरा व दुख-नाश के सिद्धान्त की समीक्षा की गई है । दीर्घ तपस्वी निम्रन्थ व गृहपति उपालि के साथ बुद्ध की मनोदण्ड, वचनदण्ड १. प्रस्तुत ग्रन्थ के 'त्रिपिटक साहित्य में निगण्ठ व निगण्ठ नातपुत्त' प्रकरण में संगृहित किये गये है। दृष्टव्य, पृ० ३५४.४४८ । २. (क) संयुत्त निकाय, नाना तित्थिय सुत्त (प्रस्तुत ग्रन्थ के उक्त प्रकरण में प्रसंग संख्या ३१)। (ख) संयुत्त निकाय, कुल सुत्त (प्र० सं० ६)। (ग) अंगुत्तर निकाय, पंचक निपात (प्र० सं० ३६)। (घ) मज्झिम निकाय, उपालि सुत (प्र० सं० २)। ३. दीघ निकाय, सामञफल सुत्त (प्र० सं० २२)। - ४. मज्झिम निकाय, अभयराजकुमार सुत्त (प्र० सं० ३)। ५. विनय पिटक. महावग्ग, भैषज्य खन्धक (प्र० सं०१)। ६. संयुक्त निकाय, जटिल सुत्त (प्र० सं० ३३)। ७. विनय पिटक, चूलवग्ग, खुद्द कवत्थु खन्धक (प्र० सं० १८)। ८. अंगुत्तर निकाय, तिक निपात, (प्र० सं० २७)। ६. (क) मज्झिम निकाय, चूल दुक्खक्खन्ध सुत (प्र० सं०५)। (ख) अंगुत्तर निकाय, तिक निपात (प्र० सं० १०)। (ग) मज्झिम निकाय, देवदह सुत्त (प्र० सं०४) । (घ) अंगुत्तर निकाय, चतुक्क निपात (प्र० सं० १२)। (ङ) अंगुत्तर निकाय, चतुक्क निपात (प्र० सं० ३८)। १०. (क) मज्झिम निकाय, देवदह सुत्त (प्र० सं०४)। (ख) अंगुत्तर निकाय, चतुक्क निपात (प्र० सं० १२)। ____ 2010_05 Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा] एक अवलोकन xvii और कायदण्ड के सम्बन्ध से चर्चा होती है ।' तपस्या से निर्जरा का विधान जैन परिभाषा की दृष्टि से भी यथार्थ हुआ है। दण्ड, वेदनीय कर्म आदि शब्द-प्रयोग जैन सिद्धान्त में भी प्रयुक्त होते रहे हैं । आश्रव, अभिजाति (लेश्या)३, लोक की सान्तता-अनन्तता, अवितर्कअविचार समाधि (ध्यान), क्रियावाद-अक्रियवाद, पात्र-अपात्र दान आदि विषयों की चर्चा तत्वज्ञान की दृष्टि से जैन दृष्टिकोण के अभिमत को प्रस्तुत करती है। जैनों के सर्वज्ञता-वाद का अनेक स्थलों पर स्पष्ट उल्लेख व समीक्षा प्राप्त होती है। निगण्ठ नातपुत्त के व्यक्तित्व की समीक्षा करने वाले कुछ समुल्लेख मिलते हैं, जिनमें बुद्ध की तुलना में उनको न्यून बताने का प्रयत्न किया गया है। महावीर के भिक्षु-संघ व श्रावक-संघ की स्थिति का चित्रण कुछ एक प्रकरणों में किया गया है । नालन्दा में दुर्भिक्ष के समय महावीर अपने बृहत् भिक्षु-संध सहित वहाँ ठहरे हुए थे, ऐसा उल्लेख मिलता है। महावीर के निर्वाण के पश्चात् संघ में हुए कलह या फूट का । कुछ प्रकरणों में पाया जाता है। महावीर के श्रावक-संघ की अपेक्षा बुद्ध का संघ उनके प्रति अधिक आश्वस्त था, ऐसा भी बताने का प्रयत्न किया गया है।१२ इस प्रकार बौद्ध त्रिपिटकों में जैन आचार, तत्त्वज्ञान, महावीर का व्यक्तित्व, उनकी संघीय स्थिति आदि का एक बृहत् ब्योरा प्रस्तुत हुआ है, जो ऐतिहासिक दृष्टि से एवं शोध व समीक्षा की दृष्टि से बहुत महत्व का है। ऐतिहासिक सामग्री की दृष्टि से जिस प्रकार बौद्ध त्रिपिटक तात्कालीन राजाओं का विवरण प्रस्तुत करते हैं, उसी प्रकार जैन आगम भी करते हैं । श्रेणिक बिम्बिसार. अजातशत्रु १. मज्झिम निकाय, उपालि सुत्त (प्र० सं० २)। २. अंगुतर निकाय, वप्प सुत्त (प्र० सं० १२)। ३. अंगुत्तर निकाय, छक्क निपात (प्र० सं० २८)। ४. अंगुत्तर निकाय, नवक निपात (प्र० सं० ११) । ५. संयुत्त निकाय, गामणी संयुत्त (प्र० सं०८)। ६. विनय पिटक, महावग्ग (प्र० सं० १)। ७. मज्झिम निकाय, चूल सच्चक सुत्त (प्र० सं० २६) । ८. (क) मज्झिम निकाय, सन्दक सुत्त (प्र० सं० ३०)। (ख) मज्झिम निकाय, चूल सकुलुदायि सुत्त (प्र० सं० १३)। (ग) अंगुत्तर निकाय, तिक निपात (प्र० सं० १०) ६. (क) सुत्त निपात, घम्मिक सुत्त (प्र० सं० ३४)। (ख) दीघ निकाय, महापरिनिव्वाण सुत्त (प्र० सं० २५)। (ग) संयुत्त निकाय, दहर सुत्त (प्र० सं० २४)। (घ) सुत्त निपात, सभिय सुत्त (प्र० सं० २३)। १०. संयुत्त निकाय, गामणी संयुक्त (प्र० सं० ७)। ११. (क) मज्झिम निकाय, सामगाम सुत्त (प्र० सं० १४)। (ख) दीध निकाय, पासादिक सुत (प्र० सं० १५)। (ग) दीघ निकाय, संगीतिपर्याय सुत्त (प्र० सं० १६)। १२. मज्झिम निकाय, महासकुलुदायि सुत्त (प्र० सं० २६) । ____ 2010_05 Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ xviii आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड १ कणिक, चण्ड प्रद्योत, वत्सराज उदयन, सिन्धु सौबीर के राजा उद्रायण आदि राजाओं के सम्बन्ध से दोनों धर्म-शास्त्रों में अपने-अपने ढंग से ब्यौरा प्रस्तुत किया गया है। इनमें से कुछ जैन धर्म के तो कुछ बौद्ध धर्म के अनुयायी थे तथा कुछ दोनों धर्मों के प्रति सहानुभूति रखने वाले थे। मुनिश्री नगराजजी ने प्रस्तुत ग्रन्थ में इस विषय की भी समालोचना की है। जैन और बौद्ध शास्त्रों में जब तात्कालीन राजनैतिक व सामाजिक स्थिति का सामान रूप से चित्रण उपलब्ध होता है तथा बौद्ध त्रिपिटक निर्ग्रन्थों के विषय में मुक्त रूप से सामग्री प्रस्तुत करते हैं तो एक जिज्ञासा होती है-जैन आगमों में बुद्ध और बौद्ध संघ के विषय में क्या कुछ सामग्री उपलब्ध होती है ? महावीर और बुद्ध दोनों समसामयिक युगपुरुष थे, यह एक निर्विवाद विषय है। फिर भी जैन आगमों में बुद्ध का नामोल्लेख तथा बुद्ध व बौद्ध भिक्षुओं से सम्बन्धित कोई घटना-प्रसंग उपलब्ध नहीं होता केवल सूयगडांग के कुछ एक पद्य बौद्ध मान्यताओं का संकेत देते हैं। वहाँ एक गाथा में बौद्धों को खणजोइणो बताया गया है तथा उसी गाथा में बौद्धों द्वारा पाँच स्कन्धों के निरुपण की चर्चा हैं। उससे अगली गाथा में भी बौद्धों के चार धातुओं का नामोल्लेख है । सूयगडांग की अन्य कुछ गाथाएँ भी इस ओर संकेत करती हैं। पर अंग-साहित्य का जो अंश निश्चित रूप से बहुत प्राचीन है, उसमें बोद्धों के उल्लेख का सर्वथा अभाव है; जबकि जैसे बताया गया-बौद्ध त्रिपिटकों में महावीर व उनके भिक्षओं से सम्बन्धित नाना घटना-प्रसंग उपलब्ध होते हैं । वे समग्र समुल्लेख महावीर व उनके भिक्षु-संघ की न्यूनता तथा बुद्ध व बौद्ध भिक्षु-संघ की श्रेष्ठता व्यक्त करने वाले हैं। प्रश्न होता है-जैन आगमों में बुद्ध की चर्चा क्यों नहीं मिलती तथा बौद्ध त्रिपिटकों में महावीर की चर्चा बहुलता से क्यों मिलती है ? क्या इसका कारण यह है कि महावीर व जैन भिक्ष अन्तम ख थे; वे आलोचनात्मक व खण्डनात्मक चर्चाओं से क्यों रस लेते व उन्हें क्यों महत्त्व देते ? यह यथार्थ है कि महावीर व जैन भिक्षु अपेक्षाकृत अधिक अन्तम ख थे और अपेक्षाकृत कम ही वे ऐसी चर्चाओं में उतरते । इसका तात्पर्य यह नहीं कि जैन आगमों में ऐसी चर्चा का सर्वथा अभाव है । महावीर के प्रतिद्वन्द्वी धर्मनायक गोशालक की चर्चा वहाँ प्रचुर मात्रा में मिलती है। गोशालक को कुसित बतलाने में वहां कोई कसर नहीं रखी गई है। महावीर के विरोधी शिष्य जमाली की भी विस्तृत चर्चा आगमों में है। विविध तापसों एवं उनकी अज्ञानपूर्ण तपस्याओं का विस्तृत विवेचन भी वहाँ मिलता है। महावीर और बुद्ध के विहार व वर्षावासों के समान क्षेत्र व समान ग्राम थे तथा अनुयायियों के समान गृह भी थे; फिर भी बुद्ध एवं बौद्ध भिक्षु ही आगमों में अचचित रहे, यह एक महत्त्व का प्रश्न बन जाता है। इसका बुद्धिगम्य कारण यही हो सकता है कि महावी र बुद्ध से ज्येष्ठ थे। उन्होंने बुद्ध १. पंच खंधे वयंतेगे, बाला उ खणजोइणो। अण्णो अण्णण्णो णेवाहु हेउयं च अहेउयं ।। सूयगडाँग, श्रुतस्कन्ध १, अध्ययन १, श्लोक १७ । २. पुढवी आऊ तेऊ य, तहा वाऊ य एगओ। चत्तारि धाऊणो रूवं एवमासु आवरे ।। -सूयगडांग, श्रुतस्कन्द १, अ० १, श्लोक १८ । ३. सूयगडांग सूत्र, श्रु० २, अ० ६, श्लोक २६-३०; देखें प्रस्तुत ग्रन्थ, पृ० ६-१२ । 2010_05 Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा ] एक अवलोकन xix से पूर्व ही दीक्षा ग्रहण की, कैवल्य-लाभ किया एवं धर्मोपदेश दिया। उनका प्रभाव समाज में फैल चुका था । तब बुद्ध ने धर्मोपदेश प्रारम्भ किया । बुद्ध तरुण थे, उन्हें अपना प्रभाव समाज में फैलाना था । उनके प्रतिद्वन्द्वियों में बलवान् प्रतिद्वन्द्वी महावीर थे; अतः वे तथा उनके भिक्षु पुनः पुनः महावीर को न्यून बताकर स्वयं को आगे लाने का प्रयत्न करते । ' ब्रह्मसूत्र के भाष्य में शंकराचार्य ने भी तो वैसा ही किया है । उन्होंने सांख्य मत को प्रधान मल्ल मानकर उसकी विस्तृत समीक्षा की है और अन्य अण्वादिकारणवादों का निरसन उसके अन्तर्गत ही मान लिया है ।' महावीर का प्रभाव समाज में इतना जम चुका था कि नवोदित धर्मनायक बुद्ध से उन्हें कोई खतरा नहीं लगता था । इसलिए वे उन्हें नगण्य समझ कर उनकी उपेक्षा करते । गोशालक ने महावीर के साथ ही साधना की थी। महावीर से दो वर्ष पूर्व ही गोशालक अपने-आप को जिन, सर्वज्ञ व केवली घोषित कर चुके थे । गोशालक का धर्मसंघ भी महावीर से बड़ा था, ऐसा माना जाता है। इस स्थिति में महावीर के लिए अपने संघ की सुरक्षा व विकास की दृष्टि से गोशालक की हेयता का वर्णन करना स्वाभाविक ही हो गया था । कुल मिलाकर यह यथार्थ लगता है कि महावीर के अभ्युदय में गोशालक बाधा रूप थे; अत: उन्हें पुन: पुन: उनकी चर्चा करनी पड़ती और बौद्ध संघ के विकास में महावीर बाघा रूप थे; अतः बुद्ध को पुनः पुनः महावीर की चर्चा करनी पड़ती । जमाली महावीर के संघ से ही पृथक् हुए थे; उनके द्वारा महावीर का संघ कुछ टूटा था; और भी टूट सकता था। इसलिए उनकी चर्चाएँ महावीर को करनी पड़ती थीं । महावीर की वर्तमानता में तापसों का भी अधिक प्रभाव था । बाह्य तप पर अधिक बल देते; महावीर उसको यथार्थं नहीं समझते। इसी तरह यदि बुद्ध महावीर के पूर्वकालीन व समबल होते तो अवश्य ही महावीर को उन प्रश्नों का उत्तर देना पड़ता, जो बुद्ध द्वारा महावीर व उनके संघ एवं सिद्धान्तों के सम्बन्ध में उपस्थित किये गये थे । महावीर और बुद्ध, दोनों ही श्रमण संस्कृति के धर्मनायक होने के नाते एक-दूसरे के बहुत निकट भी थे। निकट के धर्म-संघों में ही पारस्परिक आलोचना - प्रत्यालोचना अधिक होती है । पर यहाँ आलोचना एक ओर से ही हुई है । जैन आगमों का मौन महावीर की ज्येष्ठता और पूर्वकालिक प्रभावशीलता ही व्यक्त करता है । १. बुद्ध ने स्वयं पहले जैन तप का अभ्यास किया था। पर, वे उसमें सफल नहीं हुए । (सम्बन्धित विवेचन के लिए देखें, प्रस्तुत ग्रन्थ का प्रथम प्रकरण) । २. सर्वव्याखानाधिकरणम् । सू० २८ । ऐतेन सर्वे व्याख्याता व्याख्याताः ।। २८ ।। १.४.२८ 'ईक्षते र्ना शब्दम् (१.१.५ ) इत्यारभ्य प्रधानकारणवाद सूत्रैरेव पुनः पुनराशंक्य निराकृतः...... देवलप्रभृतिभिश्च कैश्चिद्धर्मसूत्रकारैः स्वग्रन्थेष्वाश्रितः, तेन तत्प्रतिषेधे एव यत्नोऽतीव कृतो नाण्वादिकारणवादप्रतिषेधे । तेऽपि तु ब्रह्मकारणवादपक्षस्य प्रतिपक्षत्वात्प्रतिषेद्धव्याः । अतः प्रधानमल्लनि बर्हणन्यायेनातिदिशति —— एतेन प्रधानकारणवादप्रतिषेधन्यायकलापेन सर्वेऽवादिकारणवादा अपि प्रतिषिद्धतया वेदितव्याः । —ब्रह्मसूत्र, शांकरभाष्य, प्र० मोतीलाल बनारसीदास, १९६४, पृ० १३६ । 2010_05 Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ xx आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन खण्ड : १ त्रिपिटकों के कतिपय सम्मुलेख भी बुद्ध को तरुण और महावीर को ज्येष्ठ व्यक्त करते हैं । सुत्त निपात के अनुसार सभिय भिक्षु सोचता है "पूरण कस्सप, मक्खलि गोशाल, अजित केशकम्बल, पकुध कच्चायन, संजय वेलट्ठिपुत्त और निगण्ठ नातपुत्त जैसे जीर्ण, वृद्ध, वयस्क, उत्तरावस्था को प्राप्त, वयोतीत, स्थविर, अनुभवी, चिर प्रनजित, संघी, गणी, गणाचार्य, प्रसिद्ध, यशस्वी, तीर्थङ्कर, बहुजन-सम्मानित श्रमण-ब्राह्मण भी मेरे प्रश्नों का उत्तर न दे सके, न दे सकने पर कोप, द्वेष व अप्रसन्नता व्यक्त करते हैं और मुझ से ही इनका उत्तर पूछते हैं। श्रमण गौतम क्या मेरे इन प्रश्नों का उत्तर दे सकेंगे ? वे तो आयु में कनिष्ठ और प्रव्रज्या में नीवन हैं। फिर भी श्रमण युवक होता हुआ भी महद्धिक और तेजस्वी होता है; अतः श्रमण गौतम से भी मैं इन प्रश्नों को पूछ् ।"१ संयुत्त निकाय के दहर सुत्त के अनुसार राजा प्रसेनजित् बुद्ध से कहता है-"पूरण कस्सप यावत निगण्ठ नातपुत्त भी अनुत्तर सम्यग;सम्बोधि का अधिकारपूर्वक कथन नहीं करते तो आप अल्पवयस्क व सद्यः प्रवजित होते हुए भी यह दावा कैसे कर सकते हैं?" दीघ निकाय के सामञफल सुत्त के अनुसार भी अजातशत्रु के मंत्रीगण महावीर प्रति छः धर्मनायकों को चिर प्रव्रजित, अध्वगत व वयस्क बताते हैं। इसी प्रकार त्रिपिटक-साहित्य में ऐसे तीन प्रसंग उपलब्ध होते हैं, जो महावीर को बुद्ध से पूर्व-निर्वाण-प्राप्त सूचित करते हैं। महावीर की ज्येष्ठता के विषय में वे भी अनूठे प्रमाण माने जा सकते हैं। दीघ निकाय के पासादिक सत्त व मज्झिम निकाय के सामगाम सुत्त के अनुसार भिक्षु चुन्द समणुद्देश पावा चातुर्मास बिताकर आता है और सामगाम में बुद्ध व मानन्द को सम्वाद सुनाता है-''अभी-अभी पावा में निगण्ठ नातपुत्त काल कर गया है। निगण्ठों में उत्तराधिकार के प्रश्न पर भीषण विग्रह हो रहा है ।"४ दोघ निकाय के संगीति पर्याय सत्त के अनुसार सारिपुत्त पावा में इसी उदन्त का उल्लेख कर भिक्षु-संघ को एकता का उपदेश देते हैं। त्रिपिटक-साहित्य के तीन प्रसंग जब महावीर के पूर्व-निर्वाण की बात कहते हैं और त्रिपिटक-साहित्य में व आगम-साहित्य में इनका कोई विरोधी समुल्लेख नहीं है तब इस स्थिति में उक्त तीनों सम्मुल्लेख स्वतः निर्विवाद रह जाते हैं । सम्भव यह भी हो जाता है कि ये उल्लेख त्रिपिटक-साहित्य में पीछे से जोड़े गये हों । सम्भव सब कुछ हो सकता है, पर उस सम्भावना के लिए जब तक कोई ठोस आधार न हो, तब तक उनकी सत्यता में सन्देह करने का कोई आधार नहीं बनता। १. देखें, प्रस्तुत ग्रन्थ, पृ०४०३-४०५। २. देखें, वही, पृ० ४०१-४०२। ३. देखें, वही, पृ० ३६६ । • ३६०-३६२। ५. जैन परम्परा की चिर प्रचलित धारणा के अनुसार पावा गंगा के दक्षिण में राजगह के समीप मानी जाती रही है। त्रिपिटक-साहित्य की सूचनाओं से तथा अन्य ऐतिहासिक गवेषणाओं से उक्त धारणा अयथार्थ सिद्ध हो चुकी है । वस्तुतः महावीर की निर्वाण भूमि (पावा) बौद्ध-शास्त्रों में उल्लिखित वही पावा है, जो गंगा के उत्तर में कुशीनारा के समीप बताई गई है (देखें, प्रस्तुत ग्रन्थ, पृ० ४७-४८) । ____ 2010_05 Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा ] एक अवलोकन xxi । उत्तरकालिक बौद्ध साहित्य ( अटुकथा आदि) में भी निगण्ठ व निगण्ठ नातपुत्त के विषय में विविध चर्चाएँ हैं । बुद्ध की श्रेष्ठता और महावीर की अश्रेष्ठता बताने का तो उनका हार्द है ही, परन्तु निम्नस्तर के आपेक्ष व मनगढन्त घटना-प्रसंगों से भी चर्चाएँ भरी-पूरी हैं । जैन उत्तरकालिक साहित्य - नियुक्ति, भाष्य, चूर्णि आदि - गन्थों में भी बुद्ध की अवगणना सूचक उल्लेख नहीं मिलते। यह जैन साधकों व बौद्ध साधकों के मानसिक धरातल के अन्तर का सूचक है । जैन साधक सम्प्रदाय-चिन्ता से भी अधिक आत्म-कल्याण को महत्त्व देते रहे हैं । ईस्वी सन् के आरम्भ से जब चर्चा युग का आरम्भ हुआ, तब तो जैन साधक भी बौद्धों के विषय में उसी धरातल से बोलने व लिखने लगे । उत्तरवर्ती टीका - साहित्य व कथासाहित्य इस बात की स्पष्ट सूचना देते हैं । इन्हीं पहलुओं पर मुनि श्री नगराजजी ने अपने ग्रन्थ में विस्तार से चर्चा की है । गवेषकों व जिज्ञासुओं के लिए वह माननीय है । ३-१२-६८ अनेकान्त विहार अहमदाबाद 2010_05 - पण्डित सुखलाल संघवी Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2010_05 Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना भेद और अभेद दृष्टि-धर्म हैं । जहाँ जिसे खोजेंगे, वहाँ उसे पा जायेंगे । जैन और बुद्ध परम्पराएँ परस्पर भेद-बहुल भी हैं और अभेद-बहुल भी। दृष्टि की उभयमुखता से ही हम यथार्थ को पा सकते हैं। प्रस्तुत ग्रन्थ के लेखन में यथार्थ दर्शन का उद्देश्य ही आधारभूत रहा है। भेद और अभेद के ख्यापन की व्यामोहकता से बचे रहने का यथेष्ट ध्यान बरता गया समन्वय की वर्णमाला में सोचने तथा समन्वय की पगडंडियों पर चलने-चलाने में जीवन का सहज विश्वास रहा है। साहित्य भी उसका अपवाद कैसे बनता ? "आचार्य भिक्ष भौर महात्मा गांधी", "जैन दर्शन और आधुनिक विज्ञाम", "अहिंसा-पर्यवेक्षण" आदि मेरे चितन्न ग्रन्थों की श्रृंखला में ही "आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन" ग्रन्थ बन गया। तुलनापरक-ग्रन्थ ही लिखू, ऐसी योजना मैंने कभी नहीं बनाई । जीवन की सहज रुचि से ही यह फलित हुआ है। विचारित सुन्दरम् की अपेक्षा सहज सुन्दरम् सदैव विशिष्ट होता है। प्रतिपादनात्मक साहित्य अश्रेष्ठ नहीं होता, पर वह बहुत श्रेष्ठ भी नहीं कहा जा सकता। जैन या बौद्ध किसी परम्परा पर विभिन्न भाषाओं में विभिन्न ग्रन्थ वर्तमान हैं ही। उन्हें हम अपनी भाषा व अपने क्रम से लिख कर कोई नया सृजन नहीं करते। पीढ़ियों तक वही पिष्टपेषण चलता रहता है । तुलनापरक व शोधपरक साहित्य में नवीन दृष्टि तथा नवीन स्थापनाएं होती हैं। अध्येता उसमें बहुत कुछ अनवगत व अनधीत पाता है । ज्ञान की धारा बहुमुखी होती है व आगे बढ़ती है। मेरे इस दिशा में विशेषतः प्रवृत्त होने में यह भी एक आधारभूत बात रही है। अध्ययन-काल से ही मन में यह संस्कार जम रहा था, महावीर और बुद्ध पर तुलनात्मक रूप से कुछ लिखा जाये तो बहुत ही रोचक, उपयोगी व अपूर्व बन सकता है । यदा-कदा स्फुट लेख इस सम्बन्ध में लिखता भी रहा। विगत ५-६ वर्षों से तो अन्य प्रवृत्तियों से विलग हो केवल इस ओर ही व्यवस्थित रूप से लग गया। मंजिल की ओर बढ़ते हुए मैंने पाया, मेरे से पूर्व अन्य अनेक लोग इसी राह पर चले हैं। कोई दो डग, कोई दस डग । उनकी मंजिल दूसरी थी, उनकी राह दूसरी थी, पर सामीप्य व संक्रमण के क्षणों में दोनों राहें एक हुई हैं। मेरे लिए उन सब के विरल व विकीर्ण पद-चिह्न भी प्रेरक व दिग्सूचक बने। डॉ० ल्यूमैन ने इसी सन्दर्भ में “महावीर और बुद्ध" नाम से एक लघु पुस्तिका लिखी है। डॉ. जेकोबी ने अपने द्वारा अनूदित आयारांग, अत्तराभवणाणि आगमों की भूमिका में तुलनापरक नाना पहलुओं का संस्पर्श किया है। डॉ० शान्टियर ने 2010_05 Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ xxiv आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड : १ अपने द्वारा सम्पादित उत्तराज्झयणाणि की भूमिका में तथा अपने स्फुट लेखों में तुलनापरक चर्चाएं की हैं। डॉ. हर्नले ने अपने द्वारा सम्पादित व अनूदित उवासगदसाओ में भी इसी विषय को छुआ है। डॉ० शूबिंग ने जैन-धर्म पर लिखे गये अपने शोध-ग्रन्थ' में यत्र-तत्र इस ओर संकेत किया है। डॉ. बाशम ने आजीवक सम्प्रदाय पर लिखे अपने शोध-ग्रन्थ में महावीर बुद्ध और गोशालक के सम्बन्धों व मान्यताओं पर अपने ढंग से प्रकाश डाला है। भारतीय विद्वानों में पं० सुखलालजी ने अपने स्फुट लेखों में अनेक तुलनापरक पहलू उभारे हैं। पं० बेचरदास दोषी ने भगवती के सम्पादन में तथा पं० दलसुख मालवणिया ने ठाणाग-समवायांग के अनुवाद में अनेक स्थलों पर तुलनापरक टिप्पण देकर विषय को खोला है। इसी प्रकार पं० राहुल सांकृत्यायन, धर्मानन्द कौसम्बी, डॉ० बी० सी० ला, डॉ० नथमल टांटिया, डॉ. जगदीशचन्द्र जैन, डॉ. गोविन्दचन्द्र पाण्डे, डॉ० गुलाबचन्द्र चौधरी, डॉ० भरतसिंह उपाध्याय प्रभृति अनेक विद्वानों ने यत्र-तत्र तुलनात्मक रूप से लिखा है । इनमें से अधिकाँश ने इसे शोधकार्य की महत्त्वपूर्ण एवं उपयोगी दिशा मानकर इस पर स्वतंत्र एवं सर्वाङ्गीण कार्य अपेक्षित बताया है। ____ इन सबसे मुझे लगा, मैं अनजाने ही में किसी भयावने जंगल में तो नहीं चल पड़ा हूँ, जिसमें न राज-मार्ग है, न पगडंडियाँ और आगे कोई मंजिल । मैं जिस ओर चला हूँ, वह कोई बड़ी मंजिल है और जिस पर चला हूँ, वह अनेकों की जानी-बूझी राह है। __ मैंने समग्र कार्य को तीन खण्डों में बाँटा है। प्रथम इतिहास और परम्परा खण्ड, द्वितीय साहित्य और शिक्षापद खण्ड, तृतीय दर्शन और मान्यता खण्ड । यह इतिहास और परम्परा खण्ड सम्पन्न हुआ है। भगवान महावीर की पच्चीसवीं निर्वाण-शताब्दी तक तीनों खण्डों का प्रणयन कर सकू, ऐसा मेरा अभिप्रेत है। ग्रन्थ की भाषा को मैंने साहित्यिक व दार्शनिक "लहजे" से बचाया है। इतिहास व शोध का सम्बन्ध तथ्य-प्रतिपादन से होता है। उनकी अपनी एक स्वतन्त्र शैली है। उसमें आलंकारिता व गूढ़ता का कोई स्थान नहीं होता। शब्दों की शालीनता व भावों की स्पष्टता ही उसका मानदण्ड होती है । शोध-साहित्य में मुख्यतः संक्षेप की शैली अपनाई जाती है । मैंने विस्तार की शैली अपनाई है। संक्षेप की शैली शोध-विद्वानों तथा उनमें भी विषय-सम्बद्ध विद्वानों के उपयोग की रह जाती है। मेरा आशय रहा है, शोध-विद्वानों के साथ-साथ सर्व साधारण के लिए भी प्रन्थ की उपयोगिता रह सके। ग्रन्थ का प्रत्येक प्रकरण अपने आप में परिपूर्ण एवं स्वतंत्र निबन्ध भी रह सके, ऐसा ध्यान रखा गया है। यही कारण है, ग्रन्थ के अनेक प्रकरणों का शोध-पत्रिकाओं, अभिनन्दन ग्रन्थों तथा प्राच्य सम्मेलनों में यथावत उपयोग होता रहा है। काल-गणना से सम्बन्धित प्रकरण पृथक् पुस्तकाकार भी प्रकाशित हो रहा है । १. The Doctrines of the Jaina's (Motilal Banarasidas, Delhi, 1960) २. The History and Doctrines of the Ajivikas, (Lucac and Co. London, 1957) ____ 2010_05 Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा प्रस्तावना XXV प्रतिपादनात्मक पौष्ठव अग्रिम प्रकरणों की अपेक्षा प्राक्तन प्रकरणों में कुछ दुर्बल रहा है, ऐसा मुझे प्रतीत होता है। बड़े ग्रन्थ के आरम्भ और अन्त में यह अन्तर रहना अस्वाभाविक भी नहीं है। महामहिम आचार्य श्री तुलसी मेरे निर्यामक रहे हैं । जीवन की नाव आवत्तों से बचकर, ज्वारों को लाँधकर जो मंजिलें पार कर रही है, उसमें निर्यामक का कौशल एक अप्रतिम हेतु है ही। प्रथम खण्ड की सम्पन्नता भी एक बड़ी मंजिल का तय होना ही है । आचार्यप्रवर ने तेरापंथ साधु-संघ में साहित्य की अनेक धाराओं का सूत्रपात किया है, जिसमें एक धारा यह तुलनात्मक अनुशीलन एवं शोध-साहित्य की है। ग्रन्थ की सम्पन्नता के साथ-साथ एक ऐतिहासिक मूल्य का प्रसंग बना । महाप्राज्ञ पण्डित सुखलालजी के समक्ष ग्रन्थ का आद्योपान्त पारायण हुआ। वार्धक्य और व्यस्तता की अवगणना कर पण्डितजी ने ग्रन्थ-श्रवण में उल्लेखनीय रस लिया। इस सम्बन्ध में उन्होंने तलनात्मक चर्चा एवं तटस्थ अन्वेषण के अनेक आयाम सझाए। इस तीन सप्ताह के चिन्तन. मनन व ग्रन्थ-समीक्षण में मेरे लिए सर्वाधिक सन्तोष की बात यह बनी कि महावीर की ज्येष्ठता के विषय में पण्डितजी ने सुदृढ़ सहमति व्यक्ति की एवं 'एक अवलोकन' लिखा। अपनी ८८ वर्ष की आयु में इतना आयास उठाकर पण्डितजी ने ग्रन्थ को और मुझे भारवान् बनाया है। सूक्ष्मदर्शी पण्डित बेचरदासजी ने ग्रन्थ-अवलोकन के सन्दर्भ में सुझाया, सूयगडांग की 'पुत्तं पिया समारम्भ..." गाथा भगवान् बुद्ध के 'सूकरमद्दव' आहार की ओर संकेत करती है,ऐसा प्रतीत होता है। जैन आगमों में बुद्ध व बौद्ध धर्म से सम्बन्धित कोई घटना-प्रसंग नहीं है-इस मान्यता में यह गाथा अपवाद बन सकती है। पण्डित बेचरदासजी का मानना है कि इस गाथा में बोधाभाव से पुति शब्द के बदले पुत्त शब्द किसी युग से प्रचलित हो गया है । संस्कृत में पोत्रिन शब्द सूकर का वाची है । ३ प्राकृत में द्वितीया विभक्ति के एकवचन में उसका पुत्ति रूप बन जाता है। पण्डित बेचरदासजी के इस अनुमान का थोड़ा-सा समर्थन' सुयगडांग चूणि भी करती है। चूर्णिकार ने इस गाथा में "पुत्र' शब्द की व्याख्या में “शूकरं वा छगलं वा" भी किया है। पर बुद्ध के सूकरमद्दव आहार का कोई संकेत वहां नहीं है। इसी गाथा के उदाहरण में लावक पक्षी को मारकर भिक्षु को देने की एक अन्य कथा दी गई है। १. पुत्तं पिया समारब्भ आहारेज्ज असंजए। मुंजमाणो य मेहावी कम्मुणा नो विलप्पइ । -सूयगडाँग, श्रु०१, अ०१, उ० २, श्लोक २८ । २. प्रस्तुत ग्रन्थ, पृ० ८६ ।। ३. वराहः सूकरो घृष्टिः कोलः पोत्री किरिः किटिः। -अमरकोश, द्वितीय काण्ड, सिंहादिवर्ग, श्लोक २। वराहः क्रोड-पोत्रिणी। -अभिधान चिन्तामणि, तृतीय काण्ड, श्लोक १८० । ४. सूयगडाँग चूणि, पृ० ५० प्र० ऋषभदेवजी केशरीमलजी श्वे० संस्था, रतलाम । ____ 2010_05 Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [ खण्ड: १ प्रस्तुत गाथा का पदच्छेद चूर्णि में जिनदासगणि ने 'पुत्रम् अपि तावत् सपारभ्य " किया है; टीका में शीलंकाचार्य ने पुत्रं पिता समारभ्य" किया है। कुछ एक विद्वान् चूर्णि के पदच्छेद को संगत मानने लगे हैं। उनकी दृष्टि में विशेष परिस्थिति में भी पिता पुत्र का वध करें' यह बात असामान्य है । प्रस्तुत गाथा के चूर्णिकृत पदच्छेद में भी पुत्रम् अपि तो रह ही जाता है । इस स्थिति में चूर्णि और टीका के पदच्छेद का अर्थ पुत्रवध के रूप में एक ही रह जाता है। पिता या माता तो अध्याहार से आ ही जाते हैं । xxvi 'पिता के द्वारा पुत्रवध' की बात वर्तमान युग में नितान्त असामान्य ही है। पर, प्राचीन ग्रन्थों में तथाप्रकार का उल्लेख अनेक स्थलों पर उपलब्ध होता है । तेलोवाद जातक (बालोवाद जातक, सं० २४६ ) ' के अनुसार भिक्षु उद्दिष्ट माँस के आहार से पापलिप्त होता है' इस बात का उत्तर देते हुए बोधिसत्त्व कहते हैं : पुत्तवारं पि चे हन्त्वा देति वानं असञ्जतो । भुञ्जमानोऽपि सप्पञ्जो न पापमुपलिम्पति ॥ यहाँ स्पष्ट रूप से पुत्र और स्त्री का वध कर भिक्षु को दान देने की बात कही है। यह गाथा पिता के द्वारा पुत्रवध के अर्थ की निर्विवाद पुष्टि करती है । सूयगडांग की उक्त गाथा के साथ इसका भावसाम्य व शब्दसाभ्य भी है। चुल्ल पउम जातक के अनुसार किसी एक भव में बोधिसत्त्व और उनके छः भाई अपनी सात पत्नियों सहित अरण्य पार करते हैं । मार्ग में प्रतिदिन एक-एक पत्नी का वध कर उसके माँस से क्षुधा शान्त करते हैं । 3 जैन आगम नायधम्मकहाओ में बताया है-- धन्ना सार्थवाह और उसके पुत्रों ने परस्पर स्वयं को मारकर अन्य सबको जीवित रहने की बात कही । अन्त में उन्होंने अपनी पुत्री तथा बहिन मृत सुषमा के मांस व रक्त से क्षुधा तृषा शान्त की और वे अरण्य पार कर राजगृह पहुँचे । उनके इस उपक्रम में आरवाद, देहोपचय आदि का उद्देश्य नहीं था । उनका लक्ष्य केवल अरण्य पार कर राजगृह पहुंचने का था । महावीर ने इस कथा वस्तु के उदाहरण से बताया- ' इसी प्रकार साधु भी वर्ण, रूप, बल या विषय के लिए नहीं, किन्तु मोक्ष प्राप्ति के लिए आहार करते हैं । ५ १. देखें, प्रस्तुत ग्रन्थ, पृ० ४३५ । २. जातक संख्या १६३ । ३. इस कथानक का अग्रिम भाग 'जितशत्रु राजा और सुकुमाला रानी' की प्रसिद्ध जैन कथा के समान ही है । ४. पूर्ण वृत्तान्त के लिए द्रष्टव्य, श्रुतस्कन्ध १, अध्याय १८ । ५. घणेणं सत्थवाहेणं नो वण्णहेउं वा नो रूवहेडं वा नो बलहेडं वा नो विसयहेउं वा सुसुमाए दारियाए मंससोणिए आहारिए नन्नत्थ एगाए रायगिहं संपावणट्टयाए एवामेव समणाउसो ! जो अहं निग्गंथों वा निग्गंथी वा इमस्स ओरालियस रीरस्स वंतासवस्स पित्तासवस्स सुक्का वस्स सोणियासवस्स जाव अवस्सविप्पजहियव्वस्स नो वण्णहेउं वा नो रूवहेउ वा नो बलहेउ वा नो विसयहेउ वा आहारं आहारेइ नन्नत्थ एगाए सिद्धिगमणसंपावणट्टयाए । --णायघम्मकहाओ, सं० एन० वी० वैद्य, पृ० २१४ । 2010_05 Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा ] xxvii संयुक्त निकाय के पुत्तमं ससुत्त' के अनुसार - एक दम्पती अपने इकलौते पुत्र को मारकर उसके मांस से क्षुधा शान्त कर अरण्य पार करते हैं । उन्होंने वह आहार दर्प, मद, मण्डन विभूषा के लिए नहीं, अपितु अरण्य पार करने के लिए किया । बुद्ध ने इस कथा प्रसंग के सन्दर्भ में कहा - " भिक्षुओ ! आर्यश्रावक भी ऐसे ही दर्प, मद आदि के लिए आहार नहीं करते, किन्तु भव- कान्तार से पार होने के लिए करते हैं ।' ११२ मनुस्मृति त' में कहा गया है प्रस्तावता जीवितात्ययमापन्नो योऽन्नमत्ति यतस्ततः । आकाशमिव पङ्केन न स पापेन लिप्यते ॥ अजीर्गत: सुतं हन्तुमुपासर्पबुभुक्षितः । न चालिप्यत पापेन क्षुत्प्रतीकारमाचरन् ॥ यहां अजीर्गत ऋषि के पुत्रवध करने की और पाप से लिप्त न होने की बात कही गई है । इन सब समुल्लेखों व प्रसंगों से यह स्पष्ट झलकता है कि किसी युग में पिता के द्वारा स्थितिवश पुत्रवध होने की एक सामान्य धारणा रही है और वही धारणा जैन, बौद्ध व वैदिक परम्परा में खण्डन या मण्डन के प्रसंग से दुहराई जाती रही है । इस स्थिति में पुत्तं पिया समारब्भ का पदच्छेद ही अधिक यथार्थ रह जाता है । सूयगडांग में बौद्ध मान्यता के परिचय - प्रसंग से यह गाथा कही गई है । अग्रिम गाथाओं में इस मान्यता का निराकरण किया गया है । विश्रुत विद्वान् डा० ए० एन० उपाध्ये ने ग्रन्थ का आद्योपान्त पारायण किया व काल गणना के तथ्यों पर सहमति व्यक्त की, यह भी मेरे आत्मतोष का विषय बना । प्रस्तुत खण्ड में विभिन्न भाषाओं के लगभग ३०० ग्रन्थ उद्धरण रूप में प्रयुक्त हुए हैं। इससे भी अधिक विषय - सम्बद्ध ग्रन्थों का अवलोकन करना पड़ा है । मैं उनके रचयिताओं के I १. निदान वग्ग, निदान संयुक्त, २।१२/६३ ॥ २. "तं किं मञ्ञथ, भिक्खवे, अपि नु तो दवाय वा आहारं आहारेय्यु, मदाय वा आहारं आहारेय्यु, मण्डनाय वा आहारं आहारेय्युं, विभूसनाय वा आहारं आहारेय्युं" ति ? "नो हेतं, अन्ते ।" "ननु ते, भिक्खवे, यावदेव कन्तारस्स नित्थरणत्थाय आहारं आहारेय्यु" ति ? "एवं, भन्ते" " एवमेव वाहं, भिक्खवे, कबलीकारो आहारो दट्ठब्बो ति वदामि । कबलीकारे, भिक्खवे, आहारे परिञ्ञाते पञ्चकामगुणिको रागो परिज्ञातो होति । पञ्चकामगुणि रागे परित्राते जस्थित संयोजनं येन संयोजनेन संयुत्ते अरियसावको पुन इमं लोकं आगच्छेय्य । " 2010_05 - संयुत्तनिकाय पालि, सं० भिक्खु जगदीसकस्सपो, पृ० ८४ | ३. अध्याय १०, श्लोक १०४, १०५ ४. यह कथा बहवृच ब्राह्मण में अजीर्गत के आख्यान में स्पष्ट रूप से मिलती है । Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ xxviii आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन खण्ड : १ प्रति स्वयं को कृतज्ञ अनुभव करता हूँ। अनेक रचयिताओं के मन्तव्य का मैंने निराकरण भी किया है । उसमें भी मेरा अध्यवसाय विचार-समीक्षा का ही रहा है, साम्प्रदायिक खण्डनमण्डन का नहीं । आशा है, सम्बन्धित विद्वान उसे इसी सन्दर्भ में देखेंगे। मुनि महेन्द्रकुमारजी 'प्रथम' और मुनि महेन्द्रकुमारजी 'द्वितीय' ने प्रस्तुत ग्रन्थ का सम्पादन किया है । सम्पादन कितना श्रम-साध्य व मेघापरक हुआ है, यह तो जैन पारिभाषिक शब्दकोश, बौद्ध पारिभाषिक शब्दकोश आदि परिशिष्ट स्वयं बोल रहे हैं। ग्रन्थ के साथ उनका लगाव केवल सम्पादन तक ही नहीं रहा है, रूपरेखा-निर्माण से ग्रन्थ की सम्पन्नता तक चिन्तन, मनन, अध्ययन, अन्वेषण आदि सभी कार्यों में वे हाथ बटाते रहे हैं। इस कार्य में परोक्ष सहयोग मुनि मानमलजी (बीदासर) का है। वे मेरी अन्य अपेक्षाओं के पू पूरक हैं । जीवन की कोई भी अपेक्षा अन्य अपेक्षाओं से नितान्त निरपेक्ष नहीं हुआ करती। विद्यमान खण्ड से सम्बन्धित अन्तिम पंक्तियाँ आज मैं धरती और सागर के संगमबिन्दु पर लिख रहा हूँ। अभिलाषा है, आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन ग्रन्थ भी जैन और बौद्ध संस्कृतियों का संगम-बिन्दु बने । मुनि नगराज अणुव्रत सभागार ८८, मेरिन ड्राइव बम्बई-2 ६ फरवरी, १९६६ ____ 2010_05 Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्पादकीय आगम और त्रिपिटक एक अनुशीलन ग्रन्थ का यह "इतिहास और परम्परा" खण्ड भाव, भाषा और शैली की दृष्टि से बहुत ही मौलिक है। प्रत्येक प्रकरण कोई नवीन स्थापना करता है या किसी अनवगत तथ्य को प्रकट करता है । विचार-समीक्षा लगभग सभी प्रकरणों का मुख्य अंग | विवादात्मक पहलुओं को अपनी शालीन समालोचना के साथ मुनि श्री नगराजजी ने किसी आधारभूत तथ्य तक पहुँचाया है । समग्र खण्ड १८ प्रकरणों में विभक्त है । प्रथम प्रकरण में बुद्ध की साधना पर निर्ग्रन्थ-साधना का कितना प्रभाव रहा है, इस विषय में कुछ एक मौलिक आधार प्रस्तुत किये गये हैं । दूसरे प्रकरण में पूरण काश्यप, प्रक्रुध कात्यायन, अजित केशकम्बली और सञ्जय वैलट्ठपुत्त; इन चार धर्मनायकों के जीवन-परिचय तथा उनकी मान्यताओं का शोधपूर्ण ब्यौरा प्रस्तुत किया गया है, जिसमें अनेक अचर्चित पहलु सामने आये हैं । तीसरा प्रकरण गोशालक और आजीवक सम्प्रदाय पर एक संक्षिप्त शोध-निबन्ध ही बन गया है । गोशालक का जीवन एवं उनका अभिमत, जैन व बौद्ध धर्म-संघों से उनका सम्बन्ध तथा आजीवक मत की मान्यताओं का आलोचनात्मक विवेचन प्रस्तुत प्रकरण में किया गया है। डॉ० बाशम, डॉ० बरुआ आदि की कुछ धारणाओं का निराकरण भी इसमें किया गया है । उल्लेखनीय बात यह है कि मुनि श्री ने अपनी समीक्षा में गोशालक व आजीवक मत को हेयता को ही नहीं उभारा है, अपितु महावीर के द्वारा की गई आजीवक मत की प्रशंसा का भी यथोचित दिग्दर्शन कराया है । जैन और बौद्ध परम्परा में गोशालक मुख्यतया या एक निद्य पात्र के रूप में ही प्रस्तुत किये गए हैं; पर मुनि श्री ने उन्हें एक समसामयिक धर्मनायक के रूप में देखा है और अपनी भाषा में उन्होंने सर्वत्र उनके लिए बहुवचन का ही प्रयोग किया है । चौथा प्रकरण काल-निर्णय का है। महावीर और बुद्ध का जीवन-वृत्त इतिहास के क्षेत्र में जितना सुस्पष्ट हुआ है, उतना ही उनका तिथि क्रम धुंधला व विवादास्पद रहा है । बुद्धनिर्वाण की बीसों तिथियाँ विद्वज्जगत् में अब तक मानी जाती रही हैं। उनका कालमान ई० पू० ७ वीं शताब्दी से ई० पू० ४ थी शताब्दी तक का है। प्रस्तुत प्रकरण में आगम, त्रिपिटक व सर्वमान्य ऐतिहासिक तथ्यों की संगति से उनके तिथि क्रम का एवं उनकी समसामयिकता का निर्णय किया गया है। इसके साथ-साथ शिशुनाग वंश से चन्द्रगुप्त मौर्य तक की ऐतिहासिक काल-गणना को भी सुसंगत रूप दिया गया है । 2010_05 Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड : १ काल-गणना के इस समीक्षात्मक प्रकरण में महावीर को ज्येष्ठता के विषय में मुनिश्री ने दहर सुत्त तथा समिय सुत्त के दो अपूर्व और अकाट्य प्रमाण दे दिये हैं । ये प्रमाण एतद् विषयक चर्चा में प्रथम बार ही प्रयुक्त हुए हैं। प्रमाण अपने आप में इतने स्पष्ट हैं कि दोनों युग-पुरुषों के काल-क्रम सम्बन्धी विवाद सदा के लिए समाप्त हो जाता है । XXX पाँचवें प्रकरण में दोनों ही युग-पुरुषों की पूर्वजन्म विषयक समानता का विवरण दिया गया है। मरीचि तापस के विषय में प्रथम तीर्थंकर ऋषभ घोषणा करते हैं कि यह अन्तिम तीर्थंकर महावीर होगा । सुमेध तापस के विषय में प्रथम बुद्ध दीपंकर घोषणा करते हैं—यह अन्तिम बुद्ध गौतम होगा । इस अनूठी समानता का परिचय सम्भवतः विज्जगत् को सर्वप्रथम ही मिलेगा । प्रकरण में जन्म से प्रव्रज्या तक की विविध समान धारणाओं का ब्यौरा दिया गया है, जो युगपत् रूप से सर्वप्रथम ही साहित्यिक क्षेत्र में आई हैं । अगले तीन प्रकरणों में क्रमश: साधना, परिषह और तितिक्षा, कैवल्य और बोधि युगपत् रूप से प्रस्तुत किये गये हैं । अनूठी समानताएँ सामने आई हैं । दसवें प्रकरण में दोनों धर्म-संघों की दीक्षाओं का विवरण प्रस्तुत किया गया है । बढ़ी चढ़ी संख्याओं पर समीक्षा भी की गई है। परिव्राजकों व तापसों के दीक्षित होने का वर्णन दोनों ही परम्पराओं में बहुलता से मिलता है। महावीर के धर्म-संघ में कोडिन्न, दिन्न, सेवालये तीन तापस अपने पाँच सो शिष्यों सहित दीक्षित होते हैं । बुद्ध के धर्म संघ में उरुवेल काश्यप, नन्दी काश्यप, गया काश्यप- - ये तीन प्ररिव्राजक अपने सहस्र शिष्यों सहित दीक्षित होते हैं । ग्यारहवें प्रकरण में महावीर और बुद्ध के निकटतम अन्तेवासियों का बहुत ही रोचक एवं ज्ञानवर्धक परिचय दिया गया है । समान घटनाओं को खोला भी गया है। उदाहरणार्थ“गौतम महावीर - निर्वाण के पश्चात् व्याकुल हुये । आनन्द (बुद्ध) निर्वाण से पूर्व ही एक ओर जाकर दीवाल की खूँटी पकड़ कर रोने लगे; जब कि उन्हें बुद्ध के द्वारा उसी दिन निर्वाण होने की सूचना मिल चुकी थी। महावीर निर्वाण के पश्चात् गौतम उसी रात को केवली हो गये ! बुद्ध-निर्वाण के पश्चात् प्रथम बौद्ध संगीति में जाने से पूर्व आनन्द भी अर्हत् हो गये । गौतम की तरह इनको भी अर्हतु न होने की आत्म-ग्लानि हुई । " बारहवें प्रकरण में प्रमुख उपासक उपासिकाओं के जीवन-वृत्त व घटना-प्रसंग दिये गये हैं । 'श्रमणोपासक' व 'श्रावक शब्द दोनों ही परम्पराओं में एकार्थवाची हैं । तेरहवें प्रकरण में दोनों के दो प्रमुख विरोधी शिष्यों का वर्णन है । दोनों ही शिष्यों ने अपने-अपने शास्ता को मारने का प्रयत्न किया; दोनों ही प्रभावशाली थे; दोनों के ही पास लब्धि - बल था; दोनों को ही अन्त समय में आत्मग्लानि हुई। दोनों के ही घटना-प्रसंग बहुत विकट एवं समान हैं । चौदहवें "अनुयायी राजा' प्रकरण में श्रेणिक बिम्बिसार, अजातशत्रु कूणिक, अभयकुमार, उद्रायण, उदयन, चण्डप्रद्योत प्रसेनजित् चेटक, विड्ड्म आदि राजाओं का दोनों परम्पराओं से सम्मत परिचय प्रस्तुत किया गया है । उक्त राजाओं में अधिकांश को दोनों ही परम्पराएँ अपना-अपना अनुयायी मानती हैं । यथार्थ में वे किस परम्परा के अनुयायी थे, यह पा लेना एक जटिल प्रश्न था । मुनि श्री ने एक तटस्थ पर्यवेक्षण एवं प्रामाणिक समीक्षा से यह 2010_05 Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा सम्पादकीय xxxi निर्णायक रूप से बताया है कि कौन राजा यथार्थ में किस परम्परा का अनुयायी था। इस प्रश्न पर इतनी विस्तृत एवं आधारपूर्ण समीक्षा साहित्य के क्षेत्र में सचमुच ही एक नई देन है। पन्द्रहवाँ “परिनिर्वाण" प्रकरण कितना सरस व समीक्षापूर्ण है, इसका परिचय हमें उसके प्रथम परिच्छेद से ही मिल जाता है। वहां बताया गया है- 'महावीर का परिनिर्वाण 'पावा' में और बुद्ध का परिनिर्वाण 'कुसिनारा' में हुआ। दोनों क्षेत्रों की दूरी के विषय में दीघनिकाय-अट्टकथा (सुमंगल विलासिनी) बताती है-"पावानगरतो तीणि गावुतानि कुसिनारानगरं" अर्थात् पावानगर से तीन गव्यूत (तीन कोस) कुसिनारा था। बुद्ध पावा से मध्याह्न में विहार कर सायंकाल कुसिनारा पहुँचते हैं। वे रुग्ण थे, असक्त थे। विश्राम लेलेकर वहाँ पहुँचे। इससे भी प्रतीत होता है कि पावा से कुसिनारा बहुत ही निकट था। कपिलवस्तु (लुम्बिनी) और वैशाली (क्षत्रिय-कुण्डपुर) के बीच २५० मील की दूरी मानी जाती है। जन्म की २५० मील की क्षेत्रीय दूरी निर्वाण में केवल ६ ही मील की रह गई। कहना चाहिए, साधना से जो निकट थे, वे क्षेत्र से भी निकट हो गये।" सोलहवें प्रकरण में महावीर और बुद्ध के विहार-क्षेत्रों की समयसारिका प्रस्तुत की गई है। उससे यह भी जाना जा सकता है कि दोनों के कौन-कौन से वर्षावास एक साथ एक ही नगर में हुए। सतरहवें सुविस्तृत प्रकरण में भगवान महावीर व जैन परम्परा से सम्बन्धित वे संदर्भ संग्रहीत हैं, जो बौद्ध साहित्य में उल्लिखित हैं। डॉ० जेकोबी ने "जैन सूत्रों" की भूमिका में इस प्रकार के ११ संदर्भ संगृहीत किये थे। उन्होंने इसे तब तक की उपलब्ध सामग्री का समग्र संकलन माना था। मुनि श्री ने प्रस्तुत प्रकरण में ५१ संदर्भ संग्रहित कर दिये हैं। मल त्रिपिटकों के संदर्भ तो समग्र रूप से इसमें हैं ही तथा अट्ठकथाओं व इतर ग्रन्थों के भी उपलब्ध संदर्भ इसमें ले लिये गये हैं । शोध-विद्वानों के लिए यह एक अपूर्व संग्रह बन गया है। प्रत्येक संदर्भ पर समीक्षात्मक टिप्पण भी लिखे गये हैं। कुछ टिप्पण इतने विस्तृत हैं कि वे समीक्षात्मक लेख ही बन गये हैं । छः अभिजातियों का निरूपण पूरण कस्सप के नाम से भी मिलता है और गोशालक के नाम से भी। मुनि श्री ने इस गुत्थी को तार-तार कर खोल दिया है। उनका निष्कर्ष है- छः अभिजातियाँ मूलत: गोशालक द्वारा ही प्रतिपादित हुई हैं। अभिजातियों के विषय में अर्थ-भेद भी एक पहेली बन रहा था । प्रस्तुत प्रकरण में उसे भी समाहित कर दिया गया है । छः लेश्याओं के साथ छः अभिजातियों की संक्षिप्त तुलना भी कर दी गई है। अठारहवाँ प्रकरण 'आचार-ग्रन्थ और आचार-संहिता" का है। इसमें जैन-आगम निशीथ और विनयपिटक की समानता को खोला गया है तथा उनके रचना-काल, रचयिताओं एवं भाषा-साम्य पर विचार किया गया है। जैन और बौद्ध भिक्षु-भिक्षुणियों के आचारनियमों का सुन्दर व सरस विवरण दिया गया है। दोनों धर्म-संघों की दीक्षा-प्रणाली एवं प्रायश्चित्त-विधि पर भी समीक्षा की गई है। इस प्रकार उक्त अठारह प्रकरणों में मूल ग्रन्थ सम्पन्न होता है । ____ 2010_05 Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ xxxii आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड : १ मुनि श्री की अब तक विभिन्न विषयों पर २५ पुस्तके प्रकाशित हो चुकी हैं। साहित्यजगत् में उनका प्रचुर-समादर हुआ है। प्रस्तुत ग्रन्थ शोध व तुलनात्मक अध्ययन के क्षेत्र में मुनि श्री का अनूठा अनुदान सिद्ध होगा, ऐसी आशा है । इस महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ के सम्पादन का दायित्व हम दोनों ने अपने ऊपर लिया और इस दिशा में कुछ कर पाये, यह कोई आभार की बात नहीं है। मुनि श्री नगराज जी के सान्निध्य से जो कुछ और जितना हमने सीखा व पाया, यह अणुरूप से उसका प्रतिदान भी हो सका, तो हम अपने को कृतकृत्य समझेंगे। मुनि महेन्द्रकुमार 'प्रथम' मुनि महेन्द्रकुमार 'द्वितीय' 2010_05 Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रमांक १. महावीर और बुद्ध (Mahavira and Buddha ) एक या दो? बुद्ध की साधना पर निर्ग्रन्थ-प्रभाव २ २. समसामयिक धर्मनायक (Contemporary Religious Teachers) ४.१६ त्रिपिटकों में १. पूरण कस्सप : अक्रियवादी ४ २. मक्खलीगोशाल : नियतिवादी ५ ३. अजित केसकम्बली : उच्छेदवादी ५ ४. पकुध कच्चायन : अन्योन्यवादी ५ ५. संजय वेलट्टिपुत्त : विक्षेपवादी ५ . ६. निगण्ठ नातपुत्त : चातुर्याम संवरवादी आगमों में आर्द्रक मुनि बौद्ध भिक्षु वेदवादी ब्राह्मण आत्माद्वैतवादी हस्ती तापस जीवन-परिचय १. पूरण कस्सप २. पकुध कच्चायन ३. अजित केसकम्बली ४. संजय वेलट्ठिपुत्त ३. गोशालक (Gosalaka) १७-४० मागमों में गोशालक का पूर्ववृत्त गोशालक का प्रथम सम्पर्क x09 94०4 Mr" ~ ~ ~ १५ Wis ____ 2010_05 Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ xxxiv आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड : १ वैश्यायन बाल तपस्वी तेजोलेश्या की प्राप्ति गोशालक और आनन्द प्रवृत्त-परिहार का सिद्धान्त तेजोलेश्या का प्रयोग आठ चरम गोशालक का पश्चात्ताप गोशालक की मृत्यु कुण्डकोलिक और आजीवक देव शकडाल पुत्र अन्य प्रसंग दिगम्बर-परम्परा में त्रिपिटकों में सबसे बुरा अवलोकन पूज्यता और उसका हेतु नाम और कर्म जैन और आजीवकों में सामीप्य गुरु कौन ? आजीवक अब्रह्मचारी ४१-११८ ४. काल-निर्णय (Chronology) डा० जेकोबी प्रथम समीक्षा महावीर का निर्वाण-काल बुद्ध का निर्वाण-काल डा० जेकोबी की दूसरी समीक्षा अन्तिम लेख डॉ० जेकोबी के लेख का सार महावीर का निर्वाण किस पावा में? ४७ तात्कालिक स्थितियों के सम्बन्ध में आगम-त्रिपिटक महावीर की निर्वाण-तिथि पटक ____ 2010_05 Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा] विषयानुक्रमांक XXXV बुद्ध की निर्वाण-तिथि असंगतियां पं० सुखलालजी व अन्य विद्वान् डॉ० शान्टियर FRW. डॉ० के० पी० जायसवाल महावीर-निर्वाण और विक्रमादित्य धर्मानन्द कोसम्बी डॉ० हर्नले x xxx मुनि कल्याण विजयजी महावीर अधेड़-बुद्ध युवा उत्तरकालिक ग्रन्थों में असंगतियाँ श्री विजयेन्द्र सूरि श्री श्रीचन्द रामपुरिया डॉ० शान्तिलाल शाह rrrr इतिहासकारों की दृष्टि में अनुसंधान और निष्कर्ष सर्वाङ्गीण दृष्टि निर्वाण-प्रसंग महावीर की ज्येष्ठता समय-विचार महावीर का तिथि-क्रम काल-गणना दीपवंश-महावंश की असंगतियां काल-गणना पर पुनर्विचार बुद्ध-निर्वाण-काल : परम्परागत तिथियाँ १०३ इतिहासकारों का अभिमत महावीर और बुद्ध की समसामयिकता १०६ बुद्ध निर्वाण काल १०८ Wc4. MM १०४ निष्कर्ष की पुष्टि में १०६ १. तिब्बती परम्परा २. चीनी तुर्किस्तान का तिथिक्रम १०६ ११० ____ 2010_05 Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Xxxvi आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड : १ ३. अशोक के शिलालेख ४. बर्मी परम्परा ११० ११७ ५. पूर्व भव (The Previous Births) ११६-१२४ मरीचि तापस ११६ ११६ ११६ विचारों में शिथिलता त्रिदण्डी कपिल भावी तीर्थङ्कर कौन ? कुल का अहं १२० १२० १२१ सुमेष तापस १२१ बीस निमित्त दस पारमिताएँ १२३ १२३ १२५-१५० १२७ १२८ १२८ س س ६. जन्म और प्रव्रज्या ( Birth and Renunciation) भगवान् महावीर देवानन्दा की कुक्षि में गर्भ-संहरण स्वप्न-फल मातृ-प्रेम दोहद जन्मोत्सव बाल्य जीवन बल अध्ययन विवाह अभिनिष्क्रमण अभिग्रह س س س MMMMMMMMMov سه س १३५ भगवान् बुद्ध १३६ १३६ १३७ १३६ पाँच महाविलोकन स्वप्न दर्शन जन्म कालदेवल तापस भविष्य-प्रश्न एक चमत्कार १४० १४१ १४२ ____ 2010_05 Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा विषयानुक्रमांक Xxxvii शिल्प-प्रदर्शन चार पूर्व लक्षण पुत्र-जन्म गृह-त्याग प्रव्रज्या-ग्रहण १४३ १४४ १४६ १४७ १४६ ७. साधना (Exertions for the Achievement of Goal) कैवल्य-साधना १५१-१५६ १५२ सम्बोधि-साधना १५५ १५७ स्वप्न महावीर के स्वप्न बुद्ध के स्वप्न १५८ १५८ १६०-१६६ १६० १६२ १६२ ८. परिषह और तितिक्षा (Hardships and Forbearance) चण्डकौशिक-उद्बोधन चण्डनाग-विजय देव-परिषह संगमदेव मार देव-पुत्र अवलोकन E. May it atfe (Omniscience and Enlightenment) कैवल्य बोधि १७०-१७३ १७१ १७२ १७४-२१७ अवलोकन १०. भिक्ष-संघ और उसका विस्तार (Order of Establishment and Expansion of monistic order) निर्ग्रन्थ दीक्षाएँ ग्यारह गणधर चन्दनबाला मेघकुमार नन्दीसेन ऋषभदत्त-देवानन्दा जमालि-प्रियदर्शना जयन्ती १७६ १७६ १७८ १८० १८१ १८३ १८४ १८५ ____ 2010_05 Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ xxxviii आगमन और त्रिपिटक एक अनुशीलन बौद्ध उपसम्पदाएँ 2010_05 काश्यप स्कन्दक परिव्राजक श्रमण केशीकुमार शालिभद्र और धन्य राजर्षि उदायन पन्द्रह सौ तीन तापस राजा दशार्णभद्र पंजवर्गीय भिक्षु यश और अन्य चौवन कुमार भद्रवर्गीय एक हजार परिव्राजक सारिपुत्त और मौग्गल्लान आनन्द उपालि महाकाच्चायन दस सहस्र नागरिक, नन्द व राहुल छः शाक्यकुमार और उपालि ११. पारिपाश्विक भिक्षु भिक्षुणियां (Disciple - Monks and Nuns) २१८-२३१ गौतम चन्दनबाला सारिपुत्त मौग्गल्लान महाकाश्यप गौतमी भिक्षुओं में अग्रगण्य भिक्षुणिओं में अग्रगण्य काकन्दी के धन्य मेघकुमार शालिभद्र स्कन्दक [ खण्ड : १ १८७ १८७ १६० १६४ १६७ १६६ १६६ २०१ २०१ २०३ २०५ २०५ २०७ २०६ २११ २१५. २१८ २१६ २१६ २२० २२२ २२३ २२३ २२३ २२४ २२७ २२८ २२६ २३० २३० Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा ] विषयानुक्रमांक १२. प्रमुख उपासक उपासिकाएँ (Chief Lay-followers) गृहपति आनन्द सुलसा गृहपति अनाथपिण्डिक विशाखा मृगार माता 2010_05 निर्ग्रन्थ प्रवचन में रुचि निर्ग्रन्थ धर्म का ग्रहण २३२ प्रमुख जैन उपासक प्रमुख बौद्ध उपासक उपासिकाएँ २३३ अभिग्रह गृहभार से मुक्ति प्रतिमा ग्रहण गौतम और अवधिज्ञान पुत्र का अभाव परीक्षा अभाव की पूर्ति महावीर द्वारा प्रशंसा अम्बड़ द्वारा परीक्षा प्रथम सम्पर्क श्रावस्ती का निमन्त्रण जेतवन निर्माण और दान मृत्यु- शय्या पर दिव्य बल महापुण्य पुरुष का प्रेषण विशाखा का चयन विशाखा का विवाह दस शिक्षाएँ दहेज श्वसुरालय में निर्ग्रन्थों से घृणा श्रेष्ठी का रोष xxxix २३२-२६० २३५ २३६ २६६ २३७ २३८ २३८ २३६ २३६ २४० २४० २४१ २४२ २४२ २४३ २४३ २४४ २४५ २४६ २४६ २४७ २४७ २४८ २४६ २५० २५० २५१ २५१ २५२ Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ xl जमालि आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन interest area शिक्षाओं का स्पष्टीकरण मृगार निथ-संघ से बुद्ध-संघ की ओर त्रिपिटक साहित्य में 2010_05 मृगार-माता पूर्वाराम निर्माण शास्ता का प्रस्थान सखी का गलीचा १३. विरोधी शिष्य (Defiant Disciples) देवदत्त प्रासाद का उत्सव भिक्षुओं द्वारा नग्न ही स्नान आठ वर वर से उपलब्धि १४. अनुयायी राजा ( Royal Follower) श्रेणिक-बिम्बिसार अजातशत्रु पर प्रभाव देव द्वारा सूचना मौद्गल्यायन द्वारा पुष्टि प्रकाशनीय कर्म नालागिरि हाथी संघ-भेद की योजना प्रथम सम्पर्क २६२ २६२ २६३ २६३ २६३ अजातशत्रु को पितृ-हत्या की प्रेरणा २६४ बुद्ध हत्या का षड्यन्त्र २६५ देवदत्त द्वारा प्रयत्न २६६ २६६ २६७ पाँच सौ भिक्षुओं द्वारा शलाका-ग्रहण २६८ सारिपुत्र और मौद्गल्यायन द्वारा प्रयत्न धर्म-चक्षु का लाभ उपोसथ का आरम्भ [ खण्ड : १ २५२ २५४ २५४ २५५ २५६ २५७ २५७ २५७ २५८ २५६ २६१-२७० २६८ २६६ २७१-३२७ २७१ २७१ २७४ २७४ २७५ Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा] विषयानुक्रमांक xli सैनिकों को दीक्षा-निषेध पक्कुसाति-प्रतिबोध मृत्यु के बाद २७५ २७६ २७७ आगम साहित्य में २७७ महावीर के सम्पर्क में राजकुमारों की दीक्षा नरक-गमन और तीर्थङ्कर पद राजर्षि प्रसन्नचन्द्र के विषय में २७६ २७६ २८० जैन या बोद्ध? २८० नाम-चर्चा W भिभिसार आदि बिम्बिसार श्रेणिक पिता का नाम रानियाँ राजपुत्र २८४ २८४ २८५ २८६ ४८७ अजातशत्रु कूणिक २८७ २६१ २६४ महावीर के आगमन का सन्देश २८८ महावीर का चम्पा-आगमन २८६ महावीर का उपदेश २६० जैन या बौद्ध ? दोहद और जन्म २६४ श्रेणिक का पुत्र-प्रेम पिता को कारावास २६५ पिता का वध २६५ अनुताप २६६ जीवन-प्रसंग : एक समीक्षा २६६ मातृ-परिचय नाम-भेद २६८ २६७ २६६ महाशिलाकंटक-युद्ध और वज्जी-विजय महाशिलाकंटक संग्राम इन्द्र की सहायता ३०० ३०२ ____ 2010_05 Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ xlii आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड : १ वैशाली प्राकार-भंग ३०२ बौद्ध-परम्परा-वज्जियों से शत्रुता ३०३ वज्जियों में भेद समीक्षा ३०५ रानियां और पुत्र ३०६ मृत्यु ३०६ पूर्वभव ३०७ ० ० ० ० अभयकुमार ३०८ ३०८ ३०६ जन्म प्रवृत्ति और व्यक्तित्व बौद्ध प्रव्रज्या जैन प्रव्रज्या उपसंहार m m ~ m ~ उद्रायण चण्ड-प्रद्योत युद्ध-प्रियता किस धर्म का अनुयायी ? ३१७ उदयन ३१८ आगमों में त्रिपिटकों में समीक्षा ३१८ ३१६ प्रसेनजित ३२० ३२० ३२२ बुद्ध का अनुयायी बुद्ध में अनुरक्ति के कारण विड्डम जैन आगमों में m m mr m ३२२ ३२४ चेटक ३२४ परिवार वैशाली-गणतंत्र जितशत्रु, सिंह और चेटक जीवन-परिचय ३२५ ३२५ ३२६ ३२६ ____ 2010_05 Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा विषयानुक्रमांक xliii अन्य राजा ३२६ - १५. परिनिर्वाण (Parinirvana-Emancipation) ३२८-३४५ महावीर ३३० اللي اس अन्तिम वर्षावास अन्तिम देशना व निर्वाण ३३२ प्रश्न चर्चाएँ शक्र द्वारा आयु-वृद्धि की प्रार्थना ३३४ गौतम को कैवल्य निर्वाण-कल्याणक ३३६ दीपमालोत्सव 1 GGG GMRK अन्तिम वर्षावास आनन्द की भूल मार द्वारा निवेदन भूकम्प अन्तिम यात्रा आलार-कालाम के शिष्य की भेंट ककुत्था नदी पर कुसिनारा में आनन्द के प्रश्न आनन्द का रुदन कूसिनारा ही क्यों? अन्तिम आदेश निर्वाण-गमन महाकाश्यप का आगमन धातु-विभाजन ३३७ ३३८ ३३८ ३३६ ३४० ३४० ३४१ ३४१ ३४२ ३४२ ३४३ ३४४ ३४४ १६. विहार और वषावास (Tours and Halts of Rainy Season) ३४६-३५३ १७. त्रिपिटकों में निगण्ठ व निगण्ठ नातपुत्त (Nigantha and Nigantha Nataputta (Mahavira in Tripitakas) 348-885 ३५४ साम्प्रदायिक संकीर्णता (Odium Eheologicum) ____ 2010_05 Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ xliv आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड : १ प्रसंगों को समग्रता वर्गीकरण व भाषा ३५५ ३५६ चर्चा-प्रसंग ३५६ ३५६ ३५६ ३६० ३६७ ३६८ ३६६ ३७० ३७४ ३७४ १. सिंह सेनापति समीक्षा २. गृहपति उपालि समीक्षा ३. अभय राजकुमार समीक्षा ४. कर्म-चर्चा समीक्षा ५. निर्ग्रन्थों का तप समीक्षा ६. असिबन्धक पुत्र ग्रामणी समीक्षा ७. नालन्दा में दुर्भिक्ष समीक्षा ८. चित्र गृहपति समीक्षा ६. कौतूहलशाला सुत्त समीक्षा ३७६ ३७६ ३७८ ३७८ ३८० ३८० ० mmm ३८१ ३८१ ३८२ ३८२ ३८३ ३८४ ३८४ १० अभय लिच्छवी समीक्षा ११. लोक सान्त-अनन्त समीक्षा १२. वप्प जैन श्रावक समीक्षा १३. सकुल उदायी समीक्षा ३८५ ३८८ ३०६ ३६० اس घटना-प्रसंग १४. निर्वाण-संवाद-१ ३६० ____ 2010_05 Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा ] उल्लेख-प्रसंग 2010_05 विषयानुक्रमांक १५. निर्वाण - संवाद - २ ३६१ १६. निर्वाण चर्चा ३६१ १७. निगण्ठ नातपुत्त की मृत्यु का कारण ३६२ समीक्षा ३६२ १८. दिव्य शक्ति- प्रदर्शन समीक्षा १६. छः बुद्ध समीक्षा २०. मृगार श्रेष्ठी समीक्षा २१. गरहदिन्न और सिरिगुत्त समीक्षा २२. श्रामण्यफल समीक्षा २३. बुद्ध: घर्माचार्यों में कनिष्ठ समीक्षा २४. सभय परिव्राजक समीक्षा २५. सुभद्र परिव्राजक समीक्षा २६. राजगृह में सातों धर्म-नायक समीक्षा २७. निगष्ठ उपोसथ समीक्षा २८. छ: अभिजातियों में निग्रन्थ समीक्षा अर्थ-भेद छः लेश्याएं बौद्ध अभिजातियाँ ३६३ ३६४ ३६४ ३६५ ३६५ ३६७ ३६७ ३६७ ३६८ ३६८ ४०१ ४०१ ४०२ ४०२ ४०४ ४०४ ४०५ ४०६ ४०७ ४०७ ४१० ४१२ ४१२ ४१४ ४१६ ४१७ xlv Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ xl vi आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड : १ ४१८ ४१६ २६. सच्चक निगण्ठपुत्र समीक्षा ३०. अनाश्वासिक ब्रह्मचर्य-वास समीक्षा ३१. विभिन्न मतों के देव समीक्षा ४२० ४२१ ४२१ ४२२ ४२२ ४२३ ४२३ ४२४ ४२४ ४२४ ३२. पिंगलकोच्छ ब्राह्मण समीक्षा ३३. जटिलसुत्त समीक्षा ३४. धम्मिक उपासक समीक्षा ३५. महाबोधिकुमार समीक्षा ३६. मयूर और काक समीक्षा ३७. मांसाहार-चर्चा समीक्षा ४२४ ३ ४३२ ४३४ ४३४ ४३५ ३८. चार प्रकार के लोग समीक्षा ४३६ ४३७ mr m ३६. निर्गन्थों के पांच दोष समीक्षा ४०. वस्त्रधारी निग्रंथ समीक्षा o ४३६ ४१. मौद्गल्यायन का वध समीक्षा ४४० ४४० ४२. मिलिन्द प्रश्न समीक्षा ४४१ ४३. लंका में निर्ग्रन्थ समीक्षा ४४२ ____ 2010_05 Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा विषयानुक्रमांक xlvii ४४२ ४४३ ४४३ ४४४ ४४४ ४४४ ४४५ ४४. वैशाली में महामारी समीक्षा ४५. नमो बुद्धस्स, नमो अरहन्तानं समीक्षा ४६. निर्ग्रन्थों को दान समीक्षा ४७. नालक परिव्राजक समीक्षा ४८. जिन-श्रावकों के साथ समीक्षा ४६. भद्रा कुण्डलकेशा समीक्षा ५०. ज्योतिर्विद् निगण्ठ समीक्षा ५१. धूलि-धूसरित निगण्ठ ४४५ ४४६ ४४६ ४४७ ४४७ ४४८ ४४८ १८. प्राचार-प्रन्थ और आचार-संहिता (Code and Books of Discipline) ४४६-४७१ णिसीह ४४६ रचना-काल और रचयिता णिसीह शब्द का अभिप्राय मूल और विस्तार ४४६ ४५१ ४५२ ४५२ विनय पिटक ऐतिहासिक-वृष्टि भाषा-विचार ४५५ विषय-समीक्षा ४५८ निशीथ के अब्रह्मचर्य-सम्बन्धी प्रायश्चित्त-विधान ४५८ ४६१ ४६४ विनय पिटक के अब्रह्मचर्य-सम्बन्धी प्रायश्चित्त-विधान प्रायश्चित्त-विधि आचार-पक्ष दीक्षा-प्रसंग धर्म-संघ में स्त्रियों का स्थान ४६६ ४६८ ४७० ____ 2010_05 Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८७ ४६० ५०० xlviii आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन खण्ड:१ परिशिष्ट-१ (Appendix-1) त्रिपिटकों में निगण्ठ व निगण्ठ नातपुत्त : मूल पालि (Pali Texts of the Tripitakas referring to Nigantha and Nigantha Nataputta) १. सिंह सेनापति ४७५ २. गृहपति उपालि ४७८ ३. अभय राजकुमार ४. कर्म-चर्चा ५. निर्ग्रन्थों का तप ४६५ ६. असिबन्धक पुत्र ग्रामणी ४६८ ७. नालन्दा में दुर्भिक्ष ८. चित्रगृहपति ५०१ ६. कुतूहलशाला ५०३ १०. अभयलिच्छवी ५०४ ११. लोक सान्त-अनन्त ५०५ १२. वप्प-जैन श्रावक ५०५ १३. सकुल उदायी ५०७ १४. निर्वाण-संवाद (१) १५. निर्वाण-संवाद (२) १६, निर्वाण-चर्चा ५१० १७. निगण्ठ नातपुत्त की मृत्यु का कारण ५१२ १८. दिव्यशक्ति प्रदर्शन ५१२ २२. श्रामण्य फल ५१४ २३. बुद्ध ! धर्माचार्यों में कनिष्ठ ५१६ २४. सभिय परिव्राजक २५. सुभद्र परिव्राजक ५२३ २६. राजगृह में सातों धर्मनायक ५२५ २७. निगण्ठ उपोसथ ५२७ २८. छः अभिजातियों में निर्ग्रन्थ ५२८ २६. सच्चक निगण्ठपुत्र ५२९ ३०. अनाश्वासिक ब्रह्मचर्यवास ५३० ५०८ ५०६ ५२१ ____ 2010_05 Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा वषयानुक्रमांक xlix ५३२ ५३४ ५३५ ५३६ ३१. विभिन्न मतों के देव ३२. पिंगल कोच्छ ब्राह्मण ३३. जटिल सुत्त ३४. घम्मिक सुत्त ३५. महाबोधि कुमार ३६. मयूर और काक ३७. मांसाहार चर्चा ३८. चार प्रकार के लोग ३६. निर्ग्रन्थों के पाँच दोष ४२. मिलिन्द प्रश्न ५४२ ५४२ ५४२ ५४३ परिशिष्ट-२ (Appendix-II) ५४७ जैन पारिभाषिक शब्द-कोश (Technical Terms of the Jains) परिशिष्ट-३ (Appendix-III) बौद्ध पारिभाषिक शब्द-कोश (Technical Terms of the Buddhists) परिशिष्ट-४ (Appendix-IV) प्रयुक्त-अन्य सूची ६०१ (Bibliography) शब्दानुक्रम (Index) ६२१ लेखक की अन्य कृतियाँ (List of the works by the same author) ६८८ ____ 2010_05 Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2010_05 Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन खण्ड एक इतिहास और परम्परा 2010_05 Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2010_05 Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर और बुद्ध एक या दो? भगवान् महावीर और गौतम बुद्ध एक ही काल और एक ही देश में उत्पन्न हुए थे। दोनों ही क्षत्रिय राजकुमार थे। दोनों ने ही युवावस्था में गृह-त्याग किया था, दोनों के एक-एक पत्नी' और एक-एक सन्तान थी । जैन और बौद्ध ग्रंथों के अनुसार सुदीर्घ साधना के पश्चात् दोनों को हा बोधि-लाभ हुआ और उसके अनुसार दोनों का ही मार्ग-विस्तार हुआ। दोनों के ही अनुयायी श्रमण, भिक्षु और श्रावक कहलाये। दोनों के ही परिनिर्वाण पर मल्लवी, लिच्छवी उपासक राजा विद्यमान थे। अस्तु, भगवान् महावीर और गौतम बुद्ध के जीवन की ये असाधारण समानताएं हैं, जो सहसा किसी एक विचारक को सोचने के लिये प्रेरित करती हैं-क्या महावीर और बुद्ध इन दो नामों में पहचाने जाने वाला कोई एक ही तो महापुरुष नहीं है ? यही तो कारण है, कई पश्चिमी विद्वान् मानने लगे कि बुद्ध और महावीर एक ही व्यक्ति हैं; क्योंकि जैन और बौद्ध परम्परा की मान्यताओं में अनेकविध समानता है। ___ इतिहास के क्षेत्र में कुछ दिनों तक कुहासा-सा छाया रहा। किंतु, अनेकानेक प्रमाणों से अब यह सिद्ध हो चुका है कि महावीर और बुद्ध, इन दो नामों से पहचाने जाने वाले दो पुरुष ही हैं। फिर भी उक्त समानताएं इतनी ज्वलन्त हैं कि इनकी ओर दृष्टिपात करने वाले विद्वान्, महावीर और बुद्ध एक ही थे, यह तथ्य समय-समय पर दुहराते ही जाते हैं। सन् १९६२ में लंका के प्रमुख विद्वान् डॉ. जयसूर्य राजगृह-यात्रा पर आये थे। वहां उन्होंने महावीर और बुद्ध के जीवन की उक्त समानताओं का ब्यौरा देते हुये पत्र-प्रतिनिधियों को बताया- "मेरे विचार में भगवान् महावीर और गौतम बुद्ध कदाचित् ही दो पृथक् व्यक्ति १. दिगम्बर परम्परा भगवान् महावीर को कुमारावस्था में ही प्रवजित मानतो है। श्वेताम्बर परम्परा के प्राचीन ग्रंथ चउपण्णमहापुरिस चरियं (पृ० २७२; सं० ५० अमृतलाल मोहनलाल भोजक, प्राकृत टैक्स सोसायटी, अहमदाबाद, १९६१) में आचार्य शीलांक ने उल्लेख किया है-संपत्तो य जोव्वणं । तस्साणुहावगुणगणाणुराया य राइणो समागयां णियय धूयाओ घेत्तूण । पणमियाऔ भयवओ। तात्पर्य, अनेक कन्याओं के साथ महावीर का पाणिग्रहण हुआ। पर, वर्तमान में समस्त श्वेताम्बर परम्पराएं इस सम्बन्ध में एकमत ही हैं कि महावीर के एक ही पत्नी थी। 2010_05 Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड : १ रहे हैं। सम्भव है, इतिहासकार इस सम्बन्ध में निश्चित् खोज करने में असमर्थ ही रहे हों।" समय-समय पर कुछ लोग इस तथ्य को भले ही दुहराते रहें, इतिहास बहुत स्पष्ट हो चुका है। यह कोई नई खोज न कहलाकर अब बीते युग की रट मात्र रह गई है। जब मैंने जैन धर्म और बौद्ध धर्म का अनुशीलन आरम्भ किया, सहसा मुझे भी लगा, सहावीर और बुद्ध एक ही व्यक्ति हो सकते हैं, पर, ज्यों-ज्यों विषय की गहराई में पहुंचा, उक्त धारणा स्वतः विलीन हो गई। बुद्ध की साधना पर निर्ग्रन्थ-प्रभाव भगवान् महावीर गौतम बुद्ध से ज्येष्ठ थे। भगवान् बुद्ध ने जब अपना धर्म-प्रचार प्रारम्भ किया था, तब भगवान् महावीर प्रचार की दिशा में बहुत कुछ कर चुके थे। भगवान् बुद्ध के एक जीवन-प्रसंग से यह भी पता चलता है कि वे अपनी साधनावस्था में पार्श्व-परम्परा या महावीर-परम्परा से किसी रूप में सम्बद्ध अवश्य रहे हैं । अपने प्रमुख शिष्य सारिपुत्त से वे कहते हैं - "सारिपुत्त ! बोधि-प्राप्ति से पूर्व मैं दाढ़ी-मूछों का लुंचन करता था। मैं खड़ा रह कर तपस्या करता था। उकडू बैठकर तपस्या करता था। मैं नंगा रहता था। लौकिक आचारों का पालन नहीं करता था। हथेली पर भिक्षा लेकर खाता था।.......... बैठे हुये स्थान पर आकर दिये हुये अन्न को, अपने लिये तैयार किये हुये अन्न को और निमंत्रण को मी स्वीकार नहीं करता था। गर्भिणी व स्तन-पान कराने वाली स्त्री से भिक्षा नहीं लेता था।" यह समस्त आचार जैन साधुओं का है। कुछ स्थविर-कल्पिक साधुओं का और कुछ जिन-ल्पिक साधुओं का । इससे प्रतीत होता है कि गौतम बुद्ध पार्श्वनाथ-परम्परा के किसी श्रमण-संघ में दीक्षित हुये और वहाँ से उन्होंने बहुत कुछ सद्ज्ञान प्राप्त किया। जैन शास्त्रों व प्राचीन ग्रन्थों में भगवान बुद्ध की जीवन-गाथा विशेषतः उपलब्ध नहीं होती है। दिगम्बर-परम्परा के देवसेनाचार्य (8वीं शती) कृत दर्शनसार में गौतम बुद्ध द्वारा प्रारम्भ में जैन दीक्षा ग्रहण करने का आशय मिलता है। उसमें बताया गया है-“जैन श्रमण पिहिताश्रव ने सरयू नदी के तट पर पलाश नामक ग्राम श्री पार्श्वनाथ के संघ में उन्हें दीक्षा दी और उनका नाम मुनि बुद्धिकीर्ति रखा । कुछ समय पश्चात् वे मत्स्य-मांस खाने लगे और रक्त वस्त्र पहिनकर अपने नवीन धर्म का उपदेश करने लगे।" यह उल्लेख अपने आप १. हिन्दुस्तान, नई दिल्ली, ३१ मार्च, '६२ । २. मज्झिम निकाय, महासिंहनाद सुत्त, १११।२; धर्मानन्द कोसम्बी, भगवान् बुद्ध, पृ०६८-६९। ३. सिरिपासणाहतित्थे सरयूतीरे पलासणयरत्थो । पिहियासवस्स सिस्सो महासुदी बुड्ढकित्तिमुणी । तिमिपूरणासणेहिं अहिगयपवज्जाओ परिब्भट्ठो । रत्तंबरं धरित्ता पवट्टिय तेण एयंतं ।। मंसस्स णत्थि जीवो जहा फले दहिय-दुद्ध -सक्करए । तम्हा तं बंछित्ता तं भक्खंतो ण पाविट्ठो ॥ -देवसेनाचार्य, दर्शनसार, श्लोक ६-८ पं० नाथूराम प्रेमी द्वारा सम्पादित, जैन ग्रंथ रत्नाकर कार्यालय, बम्बई, १९२० । ____ 2010_05 Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा] महावीर और बुद्ध में कोई बहुत बड़ा ऐतिहासिक महत्व नहीं रखता, फिर भी, तथाप्रकार के समुल्लेखों के साथ अपना एक स्थान अवश्य बना लेता है। पं० सुखलालजी ने चार तीर्थकर में व बौद्ध विद्वान् श्री धर्मानन्द कोसम्बी ने पार्श्वनाथ का चातुर्याम धर्म में यही धारणा व्यक्त की है कि भगवान् बुद्ध ने पार्श्वनाथ की परम्परा को अवश्य स्वीकार किया था, भले ही ऐसा थोड़े समय के लिये हुआ हो। वहीं उन्होंने केश-लुंचन आदि की साधनाएं कीं और 'चातुर्याम' का मर्म पाया। सुप्रसिद्ध इतिहासकार डा० राधाकुमुद मुकर्जी कहते हैं-“वास्तविक बात यह ज्ञात होती है कि बु कि बद्ध ने पहले आत्मानभव के लिए उस काल में प्रचलित दोनों साधनाओं का अभ्यास किया. आलार और उद्रक के निर्देसानकार ब्राह्मण मार्ग का और तब जैन मार्ग का और बाद में अपने स्वतन्त्र साधना-मार्ग का विकास किया। उन्होंने यह भी माना है ........वे मगध जनपद के सैनिक-सन्निवेश उरुवेला नामक स्थान में गये और वहां नदी और ग्राम के समीप, जहां भिक्षा की सुविधा थी, रहकर उच्चतर ज्ञान के लिये प्रयत्न करने लगे। इस प्रयत्न का रूप उत्तरोत्तर कठोर होता हुआ तप था, जिसका जैन धर्म में उपदेश है, जिसके करने से उनका शरीर अस्थि-पंजर और त्वचामात्र रह गया। उन्होंने श्वास-प्रश्वास और भोजन दोनों का नियमन किया एवं केवल मूंग, कुलथी, मटर और हरेणुका अपने अञ्जलिपुट की मात्रा-भर स्वल्प यूष लेकर निर्वाह करने लगे।"२ श्रीमती राइस डेविड्स का कहना है-"बुद्ध ने अपनी खोज का आरम्भ पाच परिव्राजकों के साथ किया, जो पंचवर्गीय भिक्षु कहलाते थे। उनके नाम थे—आज्ञाकौण्डिन्य, अश्वजित्, वाष्प, महानाम और भद्रिक। उन्होंने नैतिक और मानसिक जीवन में बुद्ध की बहुत प्रकार की सहायता की। उन्होंने तप करना आरम्भ किया, जिसका वैशाली के जैनों में बहुत प्रचार था। वे समकालीन सिद्धान्तों की भी चर्चा करते रहते थे। उन्होंने निर्ग्रन्थों से प्रकृति और कर्म के विषय में, आलार और उद्रक से ध्यान के विषय में एवं सांख्य से संसार विषयक ब्राह्मणेतर विचारों की पद्धति को लिया, जिसकी मथुरा या तक्षशिला में आचार्य कपिल ने सर्वप्रथम शिक्षा दी थी। और भी बहुत-सी बातों का वे पारस्परिक विचार करते थे। इस सामग्री में से गढ़कर गौतम ने अपना नया मार्ग निकाला।"3 श्रीमती राइस डविड्स ने गौतम बुद्ध द्वारा जैन तप-विधि का अभ्यास किये जाने को अन्यत्र भी चर्चाएं की हैं- "बुद्ध पहले गुरु की खोज में वैशाली पहुंचे, वहाँ आलार और उद्रक से उनकी भेंट हुई, फिर बाद में उन्होंने जैन धर्म की तप-विधि का अभ्यास किया।"४ १. डॉ. राधाकुमुद मुकर्जी, हिन्दू सभ्यता, पृ० २३६, डा० वासुदेवशरण अग्रवाल द्वारा ___ अनूदित राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, १६५५ । २. वही, पृ० २३६-४०। ३. Mrs. Rhys Davids, Sakya, p. 123. ४. Mrs. Rhys Davids, Gautama the Man, pp. 22-25. ____ 2010_05 Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समसामयिक धर्म-नायक भगवान् महावीर और गौतम बुद्ध के युग में श्रमणों व ब्राह्मणों का संघर्ष बहुत ज्वलन्त हो चुका था। श्रमण-सम्प्रदाय भी अनेक हो चुके थे। वे ब्राह्मण-परम्परा से लोहा ले रहे थे, तो एक ओर पारस्परिक वाद-विवाद में भी लगे थे, ऐसा आगमों व पिटकों से विदित होता है। त्रिपिटकों में त्रिपिटकों में सात जिनों की चर्चा कई स्थानों पर मिलती है । वे सात जिन थे—पूरण कस्सप, (पूर्ण काश्यप), मक्खली गोशाल, अजित केसकम्बली, पकुध कच्चायन (प्रक्रुध कात्यायन,) संजय बेलठ्ठिपुत्त, निगण्ठ नातपुत्त (निर्ग्रन्थ ज्ञातपुत्त) और गौतम बुद्ध । दीघ निकाय के सामञफल सुत्त में सातों धर्म-नायकों की मान्यता का विवरण मिलता हैं। धर्मानन्द कोसम्बी ने उन मान्यताओं का सार निम्न रूप से उपस्थित किया है : १. पूरण कस्सप : आक्रयवादी पूरण कस्सप अक्रियवाद के समर्थक थे। वे कहते थे-"अगर कोई कुछ करे या कराये, काटे या कटाये, कष्ट दे या दिलाये, शोक करे या कराये, किसी को कुछ दुःख हो या कोई दे, डर लगे या डराये, प्राणियों को मार डाले, चोरी करे, घर में सेंध लगाये, डाका डाले, एक ही मकान पर धावा बोल दे, बटमारी करे, परदारा-गमन करे या असत्य बोले, तो भी उसे पाप नहीं लगता। तीक्ष्ण धार वाले चक्र से यदि कोई इस संसार के पशुओं के मांस का बड़ा ढेर लगा दे, तो भी उसमें बिल्कुल पाप नहीं है। उसमें कोई दोष नहीं है। गंगा नदी के दक्षिणी किनारे पर जाकर यदि कोई मार-पीट करे, काटे या कटवाये, कष्ट दे या दिलाये, तो भी उसमें बिलकुल पाप नहीं है । गंगा नदी के उत्तरी किनारे पर जाकर यदि कोई अनेक दान करे या करवाये, यज्ञ करे या करवाये, तो भी उसमें कोई पुण्य नहीं मिलता । दान, दम संयम और सत्य-भाषण से पण्य की प्राप्ति नहीं होती।" १. भगवान् बुद्ध, पृ० १८१-१८३। 2010_05 Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा ] २. मक्ख लोगोशाल : नियतिवादी मक्खलीगोशाल संसार-शुद्धिवादी या नियतिवादी थे । वे कहते थे— “प्राणी की अपवित्रता के लिए कोई हेतु नहीं होता, कोई कारण नहीं होता। हेतु के बिना, कारण के बिना प्राणी अपवित्र होते हैं । प्राणी की शुद्धि के लिए कोई हेतु नहीं होता, कोई कारण नहीं होता। हेतु के बिना, कारण के बिना प्राणी शुद्ध होते हैं। अपने सामर्थ्य से कुछ नहीं होता । दूसरे के सामर्थ्य से कुछ नहीं होता । पुरुष के सामर्थ्य से कुछ नहीं होता । किसी में बल नहीं है, बीर्य नहीं है, पुरुष-शक्ति नहीं है, पुरुष-पराक्रम नहीं है । सर्वसत्व, सर्वप्राणी, सर्वभूत, सर्वजीव तो अवश, दुर्बल एवं निर्वीर्य हैं । वे निर्यात संगति एवं स्वभाव के कारण परिणत होते हैं ओर छः में से किसी एक अभिजाति (वर्ग) में रह कर सुख-दुःख का उपभोग करते हैं ।" समसामयिक धर्म - नायक ३. अजित केशकम्बली : उच्छेदवादी - अजित केशकम्बली उच्छेदवादी थे । वे कहते थे – “ दान, यज्ञ और होम में कुछ तथ्य नहीं है। अच्छे बुरे कर्मों का फल और परिणाम नहीं होता। इहलोक, परलोक, मातापिता अथवा औपपातिक ( देवता या नरकवासी) प्राणी नहीं हैं। इहलोक और परलोक का अच्छा ज्ञान प्राप्त कर दूसरों को देखने वाले दार्शनिक ओर योग्य मार्ग पर चलने वाले श्रमण-ब्राह्मण इस संसार में नहीं हैं। मनुष्य चार भूतों का बना हुआ है । जब वह मरता है, तब उसके अन्दर की पृथ्वी धातु पृथ्वी में, आपी-धातु जल में, तेजी-धातु तेज में और वायुधातु वायु में जा मिलती है तथा इन्द्रियां आकाश में चली जाती हैं। मृत व्यक्ति को अर्थी पर रख कर चार पुरुष श्मशान में ले जाते हैं। उसके गुण-अवगुणों की चर्चा होती है । उसकी अस्थियां श्वेत हो जाती हैं । उसे दी जाने वाली आहुतियां भस्म रूप बन जाती हैं । दान का झगड़ा मूर्ख लोगों ने खड़ा कर दिया है। जो कोई आस्तिकवाद बताते हैं, उनकी वह बात बिलकुल झूठी और वृथा बकवास होती है । शरीर के भेद के पश्चात् विद्वानों और मूर्खो का उच्छेद होता है, वे नष्ट होते हैं । मृत्यु के अनन्तर उनका कुछ भी शेष नहीं रहता । " ४. पकुध कच्चायन : अन्योन्यवादी 1 पकुध कच्चायन अन्योन्यवादी थे । वे कहते थे - "सात पदार्थ किसी के किये, करवाये, बनाये या बनवाये हुए नहीं हैं, वे तो वन्ध्य, कूटस्थ और नगर द्वार के स्तम्भ की तरह अचल हैं । वे न हिलते हैं, न बदलते हैं। एक-दूसरे को वे नहीं सताते, एक-दूसरे का सुखदुःख उत्पन्न करने में वे असमर्थ हैं । वे हैं - पृथ्वी, अप्, तेज, वायु, सुख, दुःख एवं जीव । इन्हें मारने वाला, मरवाने वाला, सुनने वाला, सुनाने वाला, जानने वाला अथवा इनका वर्णन करने वाला कोई भी नहीं है । जो कोई तीक्ष्ण शस्त्र से किसी का सिर काट डालता है, वह उसका प्राण नहीं लेता। इतना ही समझना चाहिए कि सात पदार्थों के बीच के अवकाश में शस्त्र घुस गया है।" ५. संजय वेलट्ठिपुत्त : विक्षेपवावी संजय वेलट्ठपुत्तविक्षेपवादी थे । वे कहते थे - "यदि कोई मुझे पूछे कि क्या परलोक 2010_05 Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड : १ है और अगर मुझे ऐसा लगे कि परलोक है, तो मैं कहूंगा-हां । परन्तु, मुझे वैसा नहीं लगता। मुझे ऐसा भी नहीं लगता कि परलोक नहीं है। औपपातिक प्राणी है या नहीं, अच्छेबुरे कर्म का फल होता है या नहीं, तथागत मृत्यु के बाद रहता है या नहीं, इनमे से किसी भी बात के विषय में मेरी कोई निश्चित धारणा नहीं है।" ६. निगण्ठ नातपुत्त : चातुर्याम संवरवादी "निगण्ठ नातपुत्त (महावीर) चातुर्याम संवरवादी थे। उनके चार संवर थे : १. निर्ग्रन्थ जल के व्यवहार का वारण करता है, जिससे जल के जीव न मर जायें । २. निर्ग्रन्थ सभी पापों का वारण करता है। ३. निर्ग्रन्थ सभी पापों के वारण करने से धुतपाप हो जाता है। ४. निर्ग्रन्थ सभी पापों के वारण करने में लगा रहता है। इस प्रकार निर्ग्रन्थ चार संवरों से संवृत रहता है, इसीलिए वह निर्ग्रन्थ, गतात्मा (अनिच्छुक), यतात्मा (संयमी) और स्थितात्मा कहलाता है।" छः धर्म-नायकों की उक्त मान्यताएं बौद्ध शास्त्रकारों ने निराकरण-बुद्धि से यहां प्रस्तुत की हैं, इसलिए यह नहीं मान लेना चाहिए कि उक्त धर्म नायकों की मान्यताओं का यह कोई सर्वांशतः प्रामाणिक और पर्याप्त ब्यौरा है। निर्ग्रन्थ ज्ञातपुत्र की उक्त मान्यता के पठन मात्र से ही स्पष्ट होता है कि बौद्ध शास्त्रकारों ने यहां पर्याप्त तटस्थता और पूर्ण जानकारी से काम नहीं लिया है। इसी प्रकार अन्य धर्म-नायकों के सम्बन्ध में भी यही सोचा जा सकता है। किन्तु, कुल मिलाकर यह मान लेने में भी कोई हानि नहीं लगती कि स्थूल रूप से विभिन्न धर्म-नायकों की विभिन्न मान्यताओं का एक अस्पष्ट और अपूर्ण-सा प्रतिबिम्ब इन में अवश्य आया है। जो मान्यताएं आज लुप्त हो चुकी हैं, उनकी जानकारी के लिए ये प्रकरण अवश्य उपयोगी हो जाते हैं। सामञफल सुत्त के इस सारे प्रकरण का अभिप्राय भी अन्य सारे धर्म-नायकों की न्यूनता बतलाकर गौतम बुद्ध की श्रेष्ठता बतलाना है। वह भी इस सन्दर्भ में कि अजातशत्रु (कोणिक) गौतम बुद्ध के पास आता है और श्रामण्य का प्रत्यक्ष फल पूछता है। गौतम बुद्ध द्वारा यह पूछे जाने पर, "राजन् ! यह श्रामण्य-फल क्या अन्य तैथिकों से भी पूछा है ?" अजातशत्र ने कहा- " मैं छहों धर्म-नायकों को यह प्रश्न पूछ चुका हूं। उन्होंने अपनेअपने बतलाये, पर पश्न का यथोचित उत्तर नहीं दिया। भन्ते ! जैसा कि पूछे आम, उत्तर दे कटहल, पूछे कटहल, उत्तर दे आम । मुझे उनके उत्तर से कोई सन्तोष नहीं मिला।" . भगवान् बुद्ध ने अपनी ओर से प्रत्यक्ष श्रामण्य-फल बताते हुए कहा-"राजन् ! आपके अभिप्राय के अनुसार चलने वाला, सेवाभावी, मधुरभाषी और प्रत्येक कार्य में तत्पर आपका एक कर्मकर सोचता है, पुण्य की गति और पुण्य का फल बड़ा अद्भुत और आश्चर्यकारी है। ये मगधराज अजातशत्रु भी मनुष्य हैं और मैं भी मनुष्य ही हूँ। ये पांच प्रकार के कामगुणों का भोग करते हुए देवता की तरह विचरते हैं और मैं इनका दास हूँ; अतः इनकी सेवा करता हूं। मुझे पुण्य-कार्य करना चाहिए। सिर और दाढ़ी मुंडवा कर, काषाय वस्त्र पहिन घर से बेघर हो, प्रवजित हो जाना चाहिए। और उसने वैसा ही किया। शरीर, वचन और मन १. दीध निकाय (हिन्दी अनुवाद), पृ० २१ का सार । ____ 2010_05 Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा ] समसामयिक धर्म - नायक से संवृत होकर वह विहार करने लगा । मात्र भोजन और वस्त्रों में ही सन्तुष्ट रह कर एकान्त में लीन रहने लगा। राजन् ! कोई नागरिक आपको इस घटना से सूचित करे, तो क्या आप चाहेंगे कि वह पुरुष उस साधना से लौट आये और पुनः कर्मकर होकर ही रहे ?" "नहीं भन्ते ! ऐसा नहीं होगा । हम तो उसका अभिवादन करेंगे, प्रत्युत्थान करेंगे, उसकी सेवा करेंगे, उसको आसन देंगे और चीवर, पिण्डपात, शयन आसन, औषधि व पथ्य आदि के लिए उसे निमंत्रण देंगे। उसकी सभी तरह से देख-भाल करेंगे ।" "राजन् ! यदि वह ऐसा ही है तो क्या यह सांदृष्टिक ( प्रत्यक्ष ) श्रामण्य फल नहीं है ?" "अवश्य, भन्ते ! यह सांदृष्टिक श्रामण्य फल ही है ।" श्रागमों में सूयगडांग, ( सुत्रकृतांग ) आगम में भी सामफल सुत्त की तरह समसामयिक अनेक मतवादों का वर्णन मिलता है । वहाँ "कुछ एक ऐसा मानते हैं" की शैली से मुख्यत: लिखा गया है । मतों व मत- प्रवर्तकों के उल्लेख वहां नहीं हैं । इसी आगम के प्रथम श्रुतस्कन्ध, अ० १, उद्देश्य १, गाथा १३ में पूरण कस्सप के अक्रियवाद' की, गाथा १५-१६ में पकुध कच्चायन के अन्योन्यवाद की गाथा ११-१२ में अजित केसकम्बली के उच्छेदवाद की झलक मिलती है । इस आगम में वर्णित अज्ञानवाद में संजय वेलट्ठिपुत्त के विक्षेपवाद की झलक मिलती है । बौद्ध और आजीविकों के तो वहाँ स्पष्ट अभिमत मिलते ही हैं। टीकाकार श्री शीलांकाचार्य ने इन मतों की पहचान बौद्ध, वार्हस्पत्य, चार्वाक, वेदान्त, सांख्य, अदृष्टवाद आजीवक, त्रैराशिक, शैव आदि मतों के रूप में की है । जैन शास्त्रकारों तत्कालीन विभिन्न मतों के क्रियावाद, अक्रियावाद, अज्ञानवाद और वैनयिकवाद के विभागों में बाँटा है । आब्रेक मुनि सुयगडांग का अद्द इज्जणाम ( आवकीयाख्य) अध्ययन भी सामञ्ञफल सुत्त की तरह १. कुव्वं च कारयं चेव, सव्वं कुव्वं न विज्जई । एवं अकारओ अप्पा, एवं ते उ पगमिआ || २. सन्ति पंच महब्भूया, इहमेगेसि आहिया । आयछट्ठो पुणो आहु, आया लोगे य सासए || दुओ ण विणस्संति, नो य उप्पज्जए असे । सव्वेऽवि सव्वा भावा, नियत्ती भाव मागया ॥ ३. पत्ते कसिणे आया, जे बाला जे अ पंडिआ । संति पिच्चा न ते संति, नत्थि सत्तोववाइया ॥ पुणे व पावे वा, नत्थि लोए इतो वरे । सरीरस्स विणासेणं, विणासो होइ देहिणो ॥ 2010_05 Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड : उस समय के विभिन्न मतवादों का सुन्दर संकेत देता है । सूयगडांग नियुक्ति के अनुसार आर्द्रककुमार आर्द्रककुमार पुर के राजकुमार थे। उनके पिता ने एक बार अपने मित्र राजा श्रेणिक के लिए बहुमूल्य उपहार भेजे। उस समय आर्द्रक ने भी अभयकुमार के लिए उपहार भेजे। राजगृह से भी उनके बदले में उपहार आये। आर्द्रककुमार के लिये अभयकुमार की ओर से अर्हत-प्रतिमा उपहार स्वरूप भेजी गई। उसे पाकर आर्द्रककुमार प्रतिबुद्ध हुए। जाति-स्मरण ज्ञान के आधार से उन्होंने दीक्षा ग्रहण की और वहां से भगवान् महावीर की ओर विहार किया। मार्ग में एक-एक कर विभिन्न मतों के अनुयायी मिले । उन्होंने आर्द्रककुमार से धर्म-चर्चाएं की। आर्द्रककुमार मुनि ने भगवान् महावीर के मत का समर्थन करते हुये सभी मतवादों का खण्डन किया । वह सरस चर्चा-प्रसंग इस प्रकार है : गोशालक-आर्द्रक ! मैं तुम्हें महावीर के विगत जीवन की कथा सुनाता हूँ। वह पहले एकान्त विहारी श्रमण था। अब वह भिक्षु-संघ के साथ धर्मोपदेश करने चला है। इस प्रकार उस अस्थिरात्मा ने अपनी आजीविका चलाने का ढोंग रचा है। उसके वर्ततान के आचरण में और विगत के आचरण में स्पष्ट विरोध है। आर्द्रक मुनि-भगवान महावीर का एकान्त-भाव अतीत, वर्तमान और भविष्य-इन तीनों कालों में स्थिर रहने वाला है। राग-द्वेष से रहित वे सहस्रों के बीच में रह कर भी एकान्त-साधना कर रहे हैं। जितेन्द्रिय साधु वाणी के गुण-दोषों को समझता हुआ उपदेश दे, इसमें किंचित् भी दोष नहीं है। जो महाव्रत, अणुव्रत, आश्रव, संवर आदि श्रमण-धर्मों को जान कर, विरक्ति को अपना कर, कर्म-बन्धन से दूर रहता है, उसे मैं श्रमण मानता हूँ। गोशालक-हमारे सिद्धांत के अनुसार कच्चा पानी पीने में, बीजादि धान्य के खाने में, उद्दिष्ट आहार के ग्रहण में तथा स्त्री-संभोग में एकान्त विहारी तपस्वी को कोई पाप नहीं लगता। आईक मुनि-यदि ऐसा है, तो सभी गृहस्थी श्रमण ही हैं; क्योंकि वे ये सभी कार्य करते हैं। कच्चा पानी पीने वाले, बीज धान्य आदि खाने वाले भिक्षु तो केवल पेट भराई के लिए ही भिक्ष बने हैं। संसार का त्याग करके भी ये मोक्ष को पा सकेंगे, ऐसा मैं नहीं मानता। गोशालक-ऐसा कह कर तो तुम सभी मतों का तिरस्कार कर रहे हो । आर्द्रक मुनि-दूसरे मत वाले अपने मत का बखान करते हैं और दूसरों की निन्दा । वे कहते हैं -- तत्त्व हमें ही मिला है, दूसरों को नहीं। मैं तो मिथ्या मान्यताओं का तिरस्कार करता है, किसी व्यक्ति विशेष का नहीं। जो संयमी किसी स्थावर प्राणी को कष्ट देना नहीं चाहते, वे किसी का तिरस्कार कैसे कर सकते हैं ? गोशालक-तुम्हारा श्रमण उद्यान-शालाओं में धर्मशालाओं में इसीलिए नहीं ठहरता कि वहाँ अनेक ताकिक पण्डित, अनेक विज्ञ भिक्षु ठहरते हैं। उसे डर है कि वे मुझे कुछ पूछ बैठे और मैं उनका उत्तर न दे सकूँ। आर्द्रक मुनि-भगवान् महावीर बिना प्रयोजन के कोई कार्य नहीं करते तथा वे १. डा० ज्योतिप्रसाद जैन ने आर्द्र ककुमार को ईरान के ऐतिहासिक सम्राट् कुरुष (ई० पू० ५५८-५३०) का पुत्र माना है। (भारतीय इतिहास : एक दृष्टि, पृ० ६७-६८ भारतीय ज्ञानपीठ, काशी, १९६१) ____ 2010_05 Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा ] समसामयिक धर्म - नायक ह बालक की तरह बिना विचारे भी कोई काम नहीं करते। वे राज-भय से भी धर्मोपदेश नहीं करते ; फिर दूसरें भय की तो बात ही क्या ? वे प्रश्नों का उत्तर देते हैं और नहीं भी देते । वे अपनी सिद्धि के लिए तथा आर्य लोगों के उद्धार के लिये उपदेश करते हैं । वे सर्वज्ञ सुनने वालों के पास जाकर अथवा न जाकर धर्म का उपदेश करते हैं, किन्तु, अनार्य लोग दर्शन से भ्रष्ट होते हैं; इसलिए भगवान् उनके पास नहीं जाते । गोशालक—– जैसे लाभार्थी वणिक् क्रय-विक्रय की वस्तु को लेकर महाजनों से सम्पर्क करता है ; मेरी दृष्टि से तुम्हारा महावीर भी लाभार्थी वणिक् है । आर्द्रक मुनि - महावीर नवीन कर्म नहीं करते । पुराने कर्मों का नाश करते हैं । वे मोक्ष का उदय चाहते है, इस अर्थ में वे लाभार्थी हैं; यह मैं मानता हूँ । वणिक् तो हिंसा, असत्य, अब्रह्म आदि अनेक पाप कर्म करने वाले हैं और उनका लाभ भी चार गति में भ्रमण रूप है । भगवान् महावीर जो लाभ अर्जित कर रहे है, उसकी आदि हैं, पर, अन्त नहीं है । वे पूर्ण अहिंसक, परोपकारक और धर्म- स्थित हैं । उनकी तुलना तुम आत्म-अहित करने वाले वणिक् के साथ कर रहे हो, यह तुम्हारे अज्ञान के अनुरूप ही है । बौद्ध भिक्षु बौद्ध भिक्षु — कोई पुरुष खली के पिण्ड को पुरुष मान कर पकाये अथवा तुम्बे को बालक मान कर पकाये, तो वह हमारे मत के अनुसार भी पुरुष और बालक के वध का ही पाप करता है । इसी प्रकार यदि कोई व्यक्ति पुरुष व बालक को खली व तुम्बा समझ कर भेदित करता है व पकाता है, तो वह पुरुष व बालक के वध करने का पाप उपार्जित नहीं करता। साथ-साथ इतना और कि हमारे मत में वह पक्व मांस पवित्र और बुद्धों के पारणे के योग्य है । अद्र कुमार ! हमारे मत में यह भी माना गया है कि जो व्यक्ति प्रतिदिन दो सहस्र स्नातक' (बोधिसत्त्व) भिक्षुओं को भोजन कराता है, वह देवगति में आरोप्य' नामक सर्वोत्तम देव होता है । 3 १. श्री शीलांकाचार्य, सूत्रकृतांगवृत्ति, श्रु० २, अ० ६, गा० २६, प्र० श्री गोडीजी पार्श्वनाथ जैन देरासरपेढ़ी, बम्बई, १६५० २. दीघ निकाय, महानिदान सुत्त में काम भव, रूप भव, अरूप भव -- बुद्ध ने ये तीन प्रकार के भव बतलाये हैं । अरूप भव का अर्थ निराकार लोक बतलाया है । ३. पिन्नागपिंड़ीमवि विद्ध सूले, केइ पएज्जा पुरिसे इमेत्ति । अलाउयं वावि कुमारएत्ति, स लिप्पती पाणिवण अम्हं || अहवावि विद्धूण मिलक्खु सूले, पिन्नागबुद्धीइ जरंपएज्जा । कुमारगं वादि अलाबुयंति, न लिप्पइ पाणिवेहेण अम्हं ॥ पुरिसं च विद्धूण कुमारगं वा, सूलंमि केई पए जायते । पिन्नाय पिंडं सतिमारुहेत्ता, बुद्धाण तं कप्पति पारणाए । सिणायगाणं तु दुवे सहस्से, जे भोयए यिए भिक्खुयाणं । ते पुन्नखंधं सुमहं जीणित्ता, भवंति आरोप्प महंतसत्ता ॥ - श्री सूत्रकृतांग सूत्रम्, श्रु० २ अ० ६, प्र० महावीर जैन, ज्ञानोदय सोसायटी, राजकोट, १९३८ । 2010_05 Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [ खण्ड : १ आर्द्रककुमार-इस प्रकार प्राण-भूत की हिंसा करना और उसमें पाप का अभाव कहना; संयमी पुरुष के लिए उचित नहीं है। इस प्रकार का जो उपदेश देते हैं और जो सुनते हैं, वे दोनों ही प्रकार के लोग अज्ञान और अकल्याण को प्राप्त करने वाले हैं। जिसे प्रमादरहित होकर संयम और अहिंसा का पालन करना है और जो स्थावर व जगम प्राणियों के स्वरूप को समझता है, क्या वह कभी ऐसी बात कह सकता है, जो तुम कहते हो । बालक को तुम्बा समझ कर और तुम्बे को बालक समझ कर पका ले, क्या यह कोई होने वाली बात है ? जो ऐसा कहते हैं, वे असत्य-भाषी और अनार्य हैं। मन में तो बालक समझना और ऊपर से उसे तुम्बा कहना, क्या यह संयमी पुरुष के लक्षण हैं ? स्थूल और पुष्ट भेड़ को मार कर, उसे अच्छी तरह से काट कर उसके मांस में नमक डाल कर, तेल में तल कर, पिप्पली आदि द्रव्यों से बघार कर तुम्हारे लिये तैयार करते हैं ; उस मांस को तुम खाते हो और यह कहते हो कि हमें पाप नहीं लगता ; यह सब तुम्हारे दुष्ट स्वभाव तथा रस-लंपटता का सूचक है । इस प्रकार का मांस कोई अनजान में भी खाता है, वह पाप करता है; फिर यह कह कर कि हम जान कर नहीं खाते; इसलिए हमें दोष नहीं है, सरासर झूठ नहीं तो क्या है ? प्राणी-मात्र के प्रति दया-भाव रखने वाले, सावद्य दोषों का वर्जन करने वाले नातपुत्त भिक्षु दोष की आशंका से उद्दिष्ट भोजन का ही विवर्जन करते हैं। जो स्थावर और जंगम प्राणियों को थोड़ी भी पीड़ा हो; ऐसा प्रवर्तन नहीं करते हैं, वे ऐसा प्रमाद नहीं कर सकते। संयमी पुरुष का धर्म-पालन इतना सूक्ष्म है । जो व्यक्ति प्रतिदिन दो-दो सहस्र स्तानक भिक्षुओं को भोजन खिलाता है, वह तो पूर्ण असंयमी है । लोही से सने हाथ वाला व्यक्ति इस लोक में भी तिरस्कार का पात्र है, उसक परलोक में उत्तम गति की बात ही कहाँ ? जिस वचन से पाप को उत्तेजन मिलता है, वह वचन कभी नहीं बोलना चाहिए। तथाप्रकार की तत्त्व-शून्य वाणी गुणों से रहित है। दीक्षित कहलाने वाले भिक्षुओं को तो वह कभी बोलनी ही नहीं चाहिए। हे भिक्षुओ! तुमने ही पदार्थ का ज्ञान प्राप्त किया है और जीवों के शुभाशुभकर्म-फल को समझा है ! सम्भवत: इसी विज्ञान से तुम्हारा यश पूर्व व पश्चिम समुद्र तक फैला है और तुमने ही समस्त लोक को हस्तगत पदार्थ की तरह देखा है ! वेदवादी ब्राह्मण - वेदवादी-जो प्रतिदिन दो सहस्र स्नातक ब्राह्मणों को भोजन खिलाता है, वह पुण्य की राशि एकत्रित कर देव-गति में उत्पन्न होता है, ऐसा हमारा वेद-वाक्य है। आर्द्रक मुनि-मार्जार की तरह घर-घर भटकने वाले दो हजार स्नातकों को जो खिलाता है, वह मांसाहारी पक्षियों से परिपूर्ण तथा तीव्र वेदनामय नरक में जाता है । दयाप्रधान धर्म की निन्दा और हिंसा-प्रधान धर्म की प्रशंसा करने वाला मनुष्य एक भी शील रहित ब्राह्मण को खिलाता है, तो वह अन्धकार युक्त नरक में भटकता है। उसे देव-गति कहाँ है ? 2010_05 Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा समसामयिक धर्म-नायक आत्माद्वैतवादी ___ आत्माद्वैतवादी'-आर्द्र कमुनि ! अपने दोनों का धर्म समान है। वह भूत में भी था और भविष्य में भी रहेगा। अपने दोनों धर्मों में आचार-प्रधान शील तथा ज्ञान को महत्त्व दिया गया है। पुनर्जन्म की मान्यता में भी कोई भेद नहीं है। किन्तु, हम एक अव्यक्त, लोकव्यापी, सनातन, अक्षय और अव्यय आत्मा को मानते हैं। वह प्राणीमात्र में व्याप्त है, जैसे-चन्द्र तारिकाओं में। आईक मुनि-यदि ऐसा हो तो फिर ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य व दास; इसी प्रकार कीड़े, पंखी, सर्प, मनुष्य व देव आदि भेद ही नहीं रहेंगे और वे पृथक्-पृथक् सुख-दुःख भोगते हुए इस संसार में भटकेंगे भी क्यों ? परिपूर्ण कैवल्य से लोक को समझे बिना जो दूसरों को धर्मोपदेश करते हैं, वे अपना और दूसरों का नाश करते हैं। परिपूर्ण कैवल्य से लोक-स्वरूप को समझ कर तथा पूर्ण ज्ञान में समाधियुक्त बन कर जो धर्मोपदेश करते हैं, वे स्वयं तर जाते हैं और दूसरों को भी तार लेते हैं। इस प्रकार तिरस्कार-योग्य ज्ञानी आत्माद्वैतवादियों को और सम्पूर्ण ज्ञान, दर्शन, चारित्र्य-युक्त जिनों को अपनी समझ में समान बतला कर हे आयुष्मन् ! तू अपनी ही विपरीतता प्रकट करता है। हस्ती तापस हस्ती तापस-हम एक वर्ष में एक बड़े हाथी को मार कर अपनी आजीविका चलाते हैं। ऐसा हम अन्य समस्त प्राणियों के प्रति अनुकम्पा-बुद्धि रखते हुए करते हैं। आर्द्रक मुनि-एक वर्ष में एक ही प्राणी मारते हो और फिर चाहे अन्य जीवों को नहीं भी मारते, किन्तु, इतने भर से तुम दोष मुक्त नहीं हो जाते । अपने निमित्त एक ही प्राणी का वध करने वाले तुम्हारे में और गृहस्थों में थोड़ा ही अन्तर है। तुम्हारे जैसे आत्म-अहित करने वाले मनुष्य कभी केवल ज्ञानी नहीं हो सकते। तथारूप स्वकल्पित धारणाओं के अनुसरण करने की अपेक्षा, जिस मनुष्य ने ज्ञानी के आज्ञानुसार मोक्ष-मार्ग में मन, वचन, काया से अपने आपको स्थित किया है तथा जिसने दोषों से अपनी आत्मा का संरक्षण किया है और इस संसार-समुद्र को तैरने के साधन प्राप्त किये हैं; वहीं पुरुष दूसरों को धर्मोपदेश दे। ____सामाफल सुत्त की तरह सूयगड़ांग का यह अद्दइज्जणाम अध्ययन पर-मत-निराकरण का है; अत: इसमें भी उसी प्रकार सभी इतर मतों का निरसन किया गया है। प्रकरण की मूल गाथाओं में अधिकांशतः चर्चित मतों के नाम नहीं हैं। व्याख्याकारों ने भावानुगत संज्ञायें दी हैं। गाथा २८ में बुद्धाण तं कप्पति पारणाए का प्रयोग हुआ है। वहाँ अभिप्रेत है; १. टीकाकार श्री शीलांकाचार्य ने(२-६-४६)इसे एकदण्डी कहा है । डा० हरमन जेकोबी ने अपने अंग्रेजी अनुवाद (S.B.E. vol XLV,I. 417 n.) में इसे वेदान्ती कहा है । प्रस्तुत मान्यता को देखते हुए डा० जेकोबी का अर्थ संगत लगता है। टीकाकार ने भी अगली गाथा में यही अर्थ स्वीकार किया है। 2010_05 Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड : १ तथारूप मांस बुद्धों के पारणा के लिए विहित है। टीकाकार ने बुद्ध शब्द को बुद्धों के अर्थ में ही ग्रहण किया है। इसका अर्थ यदि व्यक्तिगत गौतम बुद्ध से नहीं लेते हैं, तो कहा जा सकता है; जैन आगमों में कहीं भी गौतम बुद्ध की नामग्राह चर्चा नहीं है। गाथा २६ में सिणायगाणंस्नातक शब्द का प्रयोग हुआ है। टीकाकार ने उसका अर्थ बोधिसत्त्व किया है। किन्तु, यह हा जा सकता है। अन्यत्र टीकाकार ने भी इसका अर्थ नित्यं स्नायिनो ब्रह्मचारिणः स्नातकाः किया है। बुद्ध शब्द का प्रयोग जैसे बौद्धों की वक्तव्यता में हुआ है। वैसे आर्द्रककुमार ने भी शील-गुणोपपेत जैन मुनि को बुद्ध' कहा है। जीवन-परिचय महावीर और बुद्ध के जीवन-वृत्त तो पर्याप्त रूप में यत्र-तत्र मिल ही रहे हैं; शेष पाँच धर्म-नायकों के प्रामाणिक और पर्याप्त जीवन-वृत्त नहीं मिल रहे हैं। इसका कारण उनके सम्प्रदायों का लोप हो जाना है । आगमों और त्रिपिटकों में किन्हीं-किन्हीं धर्म-नायकों के जीवन-प्रसंग यत्किचित् रूप में मिलते हैं । १. पूरण कस्सप अनुभवों से परिपूर्ण मान कर लोग इन्हें पूर्ण कहते थे; ब्राह्मण थे; इसलिए काश्यप । वे नग्न रहते थे और उनके अस्सी हजार अनुयायी थे। एक बौद्ध किंवदन्ती के अनुसार ये एक प्रतिष्ठित गृहस्थ के पुत्र थे। एक दिन उनके स्वामी ने उन्हें द्वारपाल का काम सौंपा। उन्होंने इसे अपना अपमान समझा। वे विरक्त होकर अरण्य की ओर चल पड़े। मार्ग में चोरों ने इनके कपड़े छीन लिये। तब से वे नग्न ही रहने लगे। एक बार जब वे किसी ग्राम में गये, तो लोगों ने उन्हें पहनने के लिए वस्त्र दिये। उन्होंने यह कह कर वस्त्र लौटा दिये"वस्त्र का प्रयोजन लज्जा-निवारण है और लज्जा का मूल पापमय प्रवृत्ति है। मैं तो पापमय प्रवृत्ति से दूर हूँ; अत: मुझे वस्त्रों का क्या प्रयोजन ?" पूरण कस्सप की निस्पृहता और असंगता देखकर जनता उनकी अनुयायी होने लगी।२ ___ जैन आगम भगवती सूत्र शतक ३, उ० २ में पूरण तापस का विस्तृत वर्णन मिलता है । वह भी भगवान् महावीर का समसायिक था; पर, पूरण कस्सप के साथ उनकी कोई संगति हो, ऐसा नहीं लगता। परण कस्सप के निधन के सम्बन्ध में धम्मपद-अटकथा में एक बहत ही अदभुत तथा अस्वाभाविक-सा उदन्त मिलता है। वहां बताया गया है-राजगृह में तैथिकों व बुद्ध के बीच प्रातिहार्य (दिव्यशक्ति) प्रदर्शन का वातावरण बना। राजा बिम्बिसार के सम्मुख बुद्ध ने घोषणा की-मैं आगामी आषाढ़ पूर्णिमा को श्रावस्ती में प्रातिहार्य-प्रदर्शन करूँगा।" तैर्थिक १. निग्गंथधम्ममि इमं समाहिं, अस्सि सुठिच्चा अणिहे चरेज्जा। ___ बुद्धे मुणी सीलगुणोववेए, अच्चत्थतं (ओ) पाउणती सिलों॥ २. बौद्धपर्व (मराठी), प्र० १०, पृ० १२७; भगवती सूत्र, द्वितीय खण्ड, पृ० ५६, पं० बेचरदास द्वारा अनूदित व संशोधित। ____ 2010_05 Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा ] समसामयिक धर्म - नायक १३ लोग भी उनके प्रातिहार्य को असफल और अपने प्रातिहार्य को सफल करने के लिए उनके साथ हो लिए। शास्ता क्रमशः श्रावस्ती पहुँचे । तैथिक भी वहाँ पहुँचे। उन्होंने अपने भक्तों को सावधान किया । एक लाख कार्षापण एकत्रित किये। खेर के खम्भों से मण्डप बनाया । उसे नीले कमल से आच्छादित किया गया । प्रातिहार्य करने के लिए मिल-जुलकर सभी उस मण्डप में बैठ गये । राजा प्रसेनजित् कौशल शोस्ता के पास आया। उसने कहा - "भन्ते ! तैथिकों ने मण्डप बनाया है । मैं भी तुम्हारा मण्डप बनवाता हूँ ।" "नहीं, महाराज ! हमारा मण्डप बनाने वाला दूसरा है ।" “भन्ते ! मेरे अतिरिक्त यहां दूसरा कौन मण्डप बनायेगा ? " "शक्र देवराज, महाराज ! " "भन्ते ! तो फिर प्रातिहार्य कहाँ करेंगे ?" "गण्ड के आम के नीचे ।" सर्वत्र यह बात विश्रुत हो गई । तैर्थिकों ने अपने भक्तों द्वारा एक योजन तक के आम्र-वृक्षों को उखड़वा दिया। कोई अमोला' भी वहाँ नहीं रहने पाया । शास्ता ने आषाढ़ पूर्णिमा को नगर में प्रवेश किया। राजा के उद्यानपाल गण्ड ने किसी झाड़ी की आड़ में एक बड़े पके आम को देखा। उसके गन्ध व रस के लोभ में मण्डरा हुए कौओं को उसने उड़ाया। हाथ में लेकर राजा को भेंट करने के उद्देश्य से चला । मार्ग में उसने शास्ता को देखा । सहसा उसका विचार उभरा; राजा इस आम को खाकर मुझे आठ या सोलह कार्षापण देगा । मेरे जीवन निर्वाह के लिए वह प्रर्याप्त नहीं होगा । यदि मैं इसे शास्ता को दूं, तो अवश्य ही यह मेरे लिए अमित काल तक हितप्रद होंगा। और वह उस आम को शास्ता के समीप ले गया । शास्ता ने उस आम का रस पिया और गण्ड से कहा-" इस गुठली को मिट्टी हटाकर यहीं रोप दो ।" उसने वैसा ही किया । शास्ता ने उस पर हाथ धोये । देखते-देखते पच्चास हाथ ऊँचा वृक्ष खड़ा हो गया । चारों दिशाओं में चार और एक ऊपर, पच्चास हाथ लम्बी पाँच महाशिखाएँ हो गईं। वृक्ष पुष्प व फलों से लद गया । प्रत्येक डाली पके हुए आमों से झुक गई। पीछे से आने वाले भिक्षु भी उन आमों को खाते हुए आगे बढ़े । राजा ने यह सारा उदन्त सुना। उसे बहुत आश्चर्य हुआ । इसे कोई काट न सके; इस उद्देश्य से उसने वृक्ष के चारों ओर पहरा लगवा दिया । आम्र-वृक्ष उद्यानपाल गण्ड के द्वारा रोपा गया था; अतः गण्डम्ब - रुक्ख ( गण्ड का आम्रवृक्ष) के नाम से प्रसिद्ध हो गया । तैर्थिकों ने भी उसके आम खाये । जूठी गुठलियाँ उस पर फेंकते हुए साश्चर्य कहा - "श्रमण गौतम गण्डम्ब के नीचे प्रातिहार्य करेगा ; यह सुन अमोलों को भी उखाड़ दिया था । यह कहाँ से आ गया ?" तैथिकों को और हतप्रभ करने के लिए इन्द्र ने कुपित होकर वायुदेव को आज्ञा दी - "तैर्थिकों के मण्डप को हवा से उखाड़ कर कूड़े के ढेर पर फेंक दो ।" सूर्यदेव को आज्ञा दी -- "सूर्य मण्डल को स्थिर कर तैथिकों को भीषण ताप दो ।" दोनों ने वैसा ही किया । इन्द्र ने वायुदेव को पुनः आदेश दिया "जोरों से आंधी चलाओ ।" उसने वैसा ही किया । पसीने से तरबतर हो रहे तैथिकों को धूल से ढँक दिया। सभी तांबे की चमड़ी वाले लगने लगे । वर्षा-देव को आदेश दिया - "अब उन पर १. उसी दिन पैदा हुआ आम का अंकुर । 2010_05 Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [ खण्ड : १ बड़ी-बड़ी बूंदें गिराओ ।" उसने भी वैसा ही किया। सभी तैथिकों का शरीर कबरी गाय की तरह हो गया । वे निर्ग्रन्थ लजाते हुए सामने से भाग निकले। पूरण कस्सप के एक किसान भक्त ने भी प्रातिहार्य प्रदर्शन के बारे में सुना। उसके मन में देखने की उत्कण्ठा हुई । उसने बैलों को वहीं छोड़ दिया । प्रातः लाई हुई खिचड़ी का पात्र और जोता' हाथ में लिए वह वहाँ से चल पड़ा । मार्ग में उसने पूरण कस्सप को भागते हुए देखा । उसने कहा- “ भन्ते ! मैं तो आर्यों का प्रातिहार्य देखने जा रहा हूं। आप कहाँ भागे जा रहे हैं ?" पूरण कस्सप ने भागते हुए ही उत्तर दिया- "तुझे प्रातिहार्य से क्या ? यह पात्र और जोता मुझे दे ।" तत्काल उन्होंने हाथ बढ़ाया। किसान ने दोनों वस्तुएं उनके हाथ में थमा दी। पूरण कस्सप उन्हें लेकर नदी के तट पर गये । पात्र को जोते से गले में बांधा । लज्जावश वे कुछ भी न बोल सके 1 नदी की तेज धारा में कूद पड़े और बुलबुला उठाते हुए मर कर अवीचि (नरक) में उत्पन्न हुए । पूरण कस्सप के इस मृत्यु-प्रसंग के विषय में यह कह देना कठिन है कि वह यथार्थता hare भी समीप है। फिर भी बौद्ध कथाओं में ऐसा एक समुल्लेख है; यह हमारी ज्ञान वृद्धि का विषय है । कथानक की असम्बद्धता इससे भी व्यक्त होती कि पूरण कस्सप की चर्चा करते हुए अन्त में निर्ग्रन्थों को भी उसमें लपेट लिया गया है । इसी अट्ठकथा में यह भी बतलाया गया है कि पूरण कस्सप किसी श्रीमन्त के यहां दास था । जन्म से उसका क्रम सौवां था; अत: उसका नाम पूरण पड़ा। पर, यह संगत नहीं है । जो जाति से काश्यप था; वह जन्म से दास कैसे होता ? २ २. पकुध कच्चायन ( प्रक्रुध कात्यायन ) पकुध कच्चायन शीतोदक- परिहारी थे । उष्णोदक ही ग्राह्य मानते थे । 3 ककुद्ध वृक्ष के नीचे पैदा हुए, इसलिए 'पकुद्ध' कहलाये । प्रश्नोपनिषद् ( १-१ ) में इन्हें ऋषि पिप्पलाद का समकालीन और ब्राह्मण बतलाया है। वहां उनका नाम कबन्धी और कात्यायन बताया गया है । कबन्धी और पकुध एक ही शारीरिक दोष (कूब) के वाचक हैं । ५ बौद्ध टीकाकारों ने इन्हें पकुध गोत्री होने से पकुध माना है । पर आचार्य बुद्धघोष ने पकुध उनका व्यक्तिगत नाम और कच्चायन गोत्र माना है । डा० फीयर इन्हें ककुध कहने की भी राय देते हैं। १. जूए की रस्सी, जिससे बैलों की गर्दन बांधी जाती है । २. Gf. G. P. Malalasekera, Dictionary of Pali Proper Names, vol. II, p. 242 n, Luzac and Co; London, 1960. ३. धम्मपद अट्ठ-कथा, १-१४४ । ४. हिन्दू सभ्यता, पृष्ठ २१६ । ५. Barua, Pre-Budhisti Indian Philosophy, p. 281. ६. The book of the Kindred Saying, part I, p. 94 n. ७. धम्मपद अट्ठ-कथा, १-१४४; संयुत्तनिकाय अट्ठ-कथा, १-१०२। ८. The book of the Kindred Saying part I, p. 94 n. 2010_05 Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा] समसाययिक धर्म-नायक ३. अजित केसकम्बली अजित केसकम्बली केशों का बना कम्बल धारण करते थे; इसलिए केसकम्बली कहे जाते थे। श्री एफ० एल० वुडवार्ड की धारणा के अनुसार यह कम्बल मनुष्य के केशों का ही बना होता था । इनकी मान्यता लोकायतिक दर्शन जैसी ही थी। कुछ विद्वानों का यह भी अभिमत बाने लगा है कि नास्तिक दर्शन के आदि प्रवर्तक भारत में यही थे। बृहस्पति ने इनके अभिमतों को ही विकसित रूप दिया हो, ऐसा लगता है। ४. संजय वेलट्टिपुत्त संजय वेलट्टिपुत्त के जीवन-परिचय में कोई प्रामाणिक सामग्री उपलब्ध नहीं है। इनका नाम संजय वेलट्ठिपुत्त ठीक वैसा ही लगता है। जैसे गोशाल मंखलि पुत्र । उस युग में ऐसे नामों की प्रचलित परम्परा थी, जो माता या पिता के नाम से सम्बन्धित होते थे। मगा-पुत्र थावरचा-पुत्र आदि अनेक तत्सम नाम जैन परम्परा में मिलते ही हैं। आचार्य बुद्धघोष ने भी उसे वेलट्ठ का पुत्र माना है। कुछ विद्वान् सारिपुत्त और मौग्गलान के पूर्व आचार्य संजय परिव्राजक को ही संजय वेल ट्ठि-पुत्त मानने लगे हैं। पर, यह यथार्थ नहीं लगता। ऐसा होता, तो बौद्ध पिटकों में कहीं स्पष्ट उल्लेख भी मिलता। पर, बौद्ध पिटक इतना ही कह कर विराम लेते हैं कि सारिपुत्त और मोग्गलान अपने गुरु संजय परिव्राजक को छोड़कर बुद्ध के धर्म-संध में आये । ६ परिव्राजक शब्द यह भी संकेत करता है कि संजय वैदिक संस्कृति से सम्बद्ध थे; जबकि पूरण आदि सभी धर्म-नायक श्रमण-परिवार में गिने जाते हैं। डा. कामताप्रसाद ने संजय वेलट्ठिपुत्त को सारिपुत्त का गुरु और एक जैन भिक्षु प्रमाणित करने का प्रयत्न किया है, पर यह बुद्धिगम्य नहीं लगता। उत्तराध्ययन के संजय और इतर चारण ऋद्धिधर संजय के रूप में वेलट्टि को देखना अति निर्वाह-सा लगता है। केवल नाम-साम्य किसी तथ्य का निर्णायक आधार नहीं बन सकता। डा० जी० पी० मलल सेकर ने डिक्सनरी ऑफ पाली प्रोपर नेम्स में उसे सारिपुत्त और मौग्गलान का गुरु माना है, पर, इसके लिए इन्होंने कोई मौलिक प्रमाण नहीं दिया है। १. The Book of the Gradual Sayings, Vol. I, p. 265 n, Tr. by F. L. __ Woodward. २. Barua, op. cit., p. 288. :. ३. उत्तराध्ययन सूत्र, अ० १६ । ४. ज्ञाताधर्मकथांग सत्र, अ० ५। ५. गोपालदास पटेल, महावीर स्वामी नो संयम धर्म पृ० ३५, प्र० नवजीवन कार्यालय, ___अहमदाबाद, १६३५। ६. विनय पिटक, महावग्ग, महास्कन्धक । ७. भगवान महावीर और महात्मा बुद्ध, पृ० २२-२४, प्र. मूलचन्द किसनदास कापड़िया, सरत, १९२६ । ८. अ० १८। ६. डिक्सनरी ऑफ पाली प्रोपर नेम्स, Vol. II, P. 1000. ____ 2010_05 Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड १ संजय के विक्षेपवाद में विद्वान् स्याद्वाद का प्रागरूप देखते हैं। विक्षेपवाद का ही विकसित रूप स्याद्वाद बताया जाता है, पर, इस धारणा का कोई मौलिक माधार नहीं है।२ इन मुख्य धर्म और धर्म-नायकों के अतिरिक्त और भी अनेक मतवाद उस युग में प्रचलित थे। जैन परम्परा में वे ३६३ भेद-प्रभेदों में बताये गए हैं तथा बौद्ध परम्परा में केवल ६२ भेदों में।४ अनेक प्रकार के तापसों का वर्णन भी आगम और त्रिपिटक साहित्य में भरपूर मिलता है। १. धर्मानन्द कोसम्बी, भगवान् बुद्ध, पृ० १८७, साहित्य अकादमी, राजकमल पब्लि केशन्स, बम्बई, १६५६ । २. इस धारणा का निराकरण देखें, आचार्य श्री तुलसी अभिनन्दन ग्रन्थ में डा० कामताप्रसाद जैन द्वारा लिखित "श्याद्वाद सिद्धान्त की मौलिकता और उपयोगिता" शीर्षक लेख, अध्याय ४, पृ० ५४-५६ । ३. संकलनात्मक विवरण के लिए देखें, भरत-मुक्ति, पृ० २४६-२४६ । ४. दीध निकाय, ब्रह्मजाल सुत्त, ११ ॥ ____ 2010_05 Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ श्रागमों में मंखलिपुत्र गोशालक का मत आजीवक नाम से चलता था । सम्राट् अशोक के शिलालेखों में भी आजीवक भिक्षुओं को सम्राट् द्वारा गुफा दिए जाने का उल्लेख है ।" वह सम्प्रदाय कब तक चलता रहा, यह ठीक से कह देना कठिन है, पर शिलालेखों आदि से ई०पू० दूसरी शताब्दी तक तो उसका अस्तित्व प्रमाणित होता ही है । आगमों के अनुसार गोशालक का प्रतिद्वंद्वी के रूप में भगवान् महावीर के साथ अधिक सम्बन्ध रहा है गोशालक की मान्यता और उनकी जीवन-चर्या के सम्बन्ध में जैन आगम सुविस्तृत ब्यौरा देते हैं । आगमों में अनेक प्रसंग इस सम्बन्ध से सुलभ हैं । भगवती सूत्र, शतक १५ में गोशालक की विस्तृत जीवन-गाथा बहुत ही रोमांचक और घटनात्मक रूप से मिलती है। वहां बताया गया हैश्रावस्ती नगर के ईशान कोण में कोष्ठक चैत्य था । इसी नगर में आजीवक मत की उपासिका, हालाहला कुम्हारिन रहती थी। उसके पास प्रचुर समृद्धि थी । उसका प्रभाव भी बहुत व्यापक था । वह किसी से भी पराभूत नहीं हो सकती थी। उसने आजीवकों के सिद्धांत हृदयंगम कर रखे थे । उनका अनुराग उसके रग-रग में व्याप्त था । वह कहा करती थी - 'आजीवक मत ही सत्य तथा परमार्थ है; अन्य सब मत व्यर्थ हैं ।' गोशालक एक बार चौबीस वर्ष पूर्व दीक्षित मंखलिपुत्र गोशालक अपने आजीवक संघ से परिवृत्त हालाहला कुम्हारिन के कुम्भकारापण बाजार में ठहरा हुआ था। उसके पास शान, कलंद, कणिकार अछिद्र, अग्निवेश्यायन और गोमायुपुत्र अर्जुन नामक छ: दिशाचर आए। उन्हें आठ प्रकार के निमित्त, गीति-मार्ग तथा नृत्य मार्ग का ज्ञान था । उन्होंने गोशालक का शिष्यत्व स्वीकार किया । १. जनार्दन भट्ट, अशोक के धर्मलेख, पृ० ४०१ से ४०३, पब्लिकेशन्स डिवीजन, दिल्ली, १९५७ । २. चिमनलाल जयचन्द शाह, उत्तर हिन्दुस्तान मां जैन धर्म, पृ० ६४, लोंगमैन्स एन्ड ग्रीन कं० लन्दन, १६३० । 2010_05 ३. 'ये दिशाचर, महावीर के पथभ्रष्ट (पतित) शिष्य थे, ऐसा टीकाकार तथा पार्श्वनाथसंतानीय थे', ऐसा चूर्णिकार कहते हैं । Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड १ गोशालक को अष्टांक निमित्त का कुछ ज्ञान था; अत: वह सभी को लाभ-अलाम, सुख-दुःख और जीवन-मरण के विषय में सत्य-सत्य उत्तर दे सकता था। अपने इस अष्टांग निमित्त के ज्ञान के बल पर ही उसने अपने को श्रावस्ती में जिन न होते हुए भी जिन, केवली न होते हुए भी केवली, सर्वज्ञ न होते हुए भी सर्वज्ञ घोषित करना प्रारम्भ कर दिया। वह कहा करता था--'मैं जिन, केवली और सर्वज्ञ हूं।' उसकी इस घोषणा के फलस्वरूप श्रावस्ती के त्रिकमार्गों चतुष्पथों और राजमार्गों में सर्वत्र यही चर्चा होने लगी। एक दिन श्रमण भगवान् महावीर श्रावस्ती पधारे। जनता धर्म-कथा श्रवणार्थ गई। सभा समाप्त हुई। महावीर के प्रमुख शिष्य गौतम गोत्रीय इन्द्रभूति अनगार भिक्षार्थ नगरी में पधारे। मार्ग में उन्होंने अनेक व्यक्तियों के मुख से गोशालक की उद्घोषणा के सम्बन्ध में सुना । वे भगवान् महावीर के पास आए और उन्होंने गोशालक की घोषणा के सम्बन्ध में पूछा तथा गोशालक का आरम्भ से अन्त तक का इतिवृत्त सुनाने के लिए भी अनुरोध किया। गोशालक का पूर्ववृत्त महावीर बोले- गौतम ! गोशालक की घोषणा मिथ्या है । वह जिन, केवली और सर्वज्ञ नहीं है। मंखलिपुत्र गोशालक का मंखजातीय मंखलि नामक पिता था। मंखलि के भद्रा नामक पत्नी थी। वह सुन्दरी और सुकुमारी थी। एक बार गभिणी हुई। शरवण ग्राम में गोबहुल नामक ब्राह्मण रहता था। वह धनिक तथा ऋग्वेदादि ब्राह्मण-शास्त्रों में निपुण था। गोबहुल के एक गोशाला थी। "एक बार मंखलि भिक्षाचर हाथ में चित्रपट लेकर गर्भवती भद्रा के साथ ग्रामानुग्राम घूमता हुआ शरवण सन्निवेश में आया । उसने गोबहुल की गोशाला में अपना सामान रखा तथा भिक्षार्थ ग्राम में गया। वहां उसने निवास-योग्य स्थान की बहुत खोज की, परन्तु, उसे कोई स्थान न मिला; अतः उसने उसी गोशाला के एक भाग में चातुर्मास व्यतीत करने के लिए निर्णय किया । नव मास साढ़े सात दिवस व्यतीत होने पर मंखलि की धर्मपत्नी भद्रा ने एक सुन्दर व सुकुमार बालक को जन्म दिया। बारहवें दिवस माता-पिता ने गोबहुल की गोशाला में जन्म लेने के कारण शिशु का नाम गोशालक रखा। क्रमश: गोशालक बड़ा हुआ और पढ़लिखकर परिणत मतिवाला हुआ। गोशालक ने भी स्वतन्त्र रूप से चित्रपट हाथ में लेकर अपनी आजीविका चलाना प्रारम्भ कर दिया। गोशालक का प्रथम सम्पर्क "तीस वर्ष तक मैं गहवास में रहा। माता-पिता के दिवंगत होने पर स्वर्णादि का त्याग कर, मात्र एक देवदूष्य वस्त्र धारण कर प्रवजित हुआ। पाक्षिक तप करते हुए मैंने अपना प्रथम चातुर्मास अस्थिग्राम में किया। दूसरे वर्ष मासिक तप करते हुए राजगृह के बाहर नालन्दा की तन्तुवायशाला के एक भाग में यथायोग्य अभिग्रह ग्रहण कर मैंने चातुर्मास किया। उस समय गोशालक भी हाथ में चित्रपट लेकर ग्रामानुग्राम घूमता हुआ तथा भिक्षा के द्वारा अपना निर्वाह करता हुआ उसी तन्तुवायशाला में आया। उसने भिक्षार्थ जाते हुए अन्य स्थान ढूंढ़ने का बहुत प्रयत्न किया, परन्तु, योग्य स्थान न मिला। उसने भी उसी तन्तुवायशाला में चातुर्मास व्यतीत करने का निश्चय किया। मेरे प्रथम मासिक तप के पारणे का ____ 2010_05 Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा ] गोशालक १६ दिन था । मैं मिक्षार्थ राजगृह के उच्च, नीच और मध्यम कुल में घूमता हुआ विजय गाथापति के घर गया । मुझे अपने घर में पाकर विजय गाथापति अत्यन्त हर्षित हुआ। वह अपने आसन से उठा तथा सात-आठ कदम आगे आया । उसने उत्तरीय का उत्तरासंग बनाकर, हाथ जोड़कर मुझे तीन बार प्रदक्षिणापूर्वक वन्दन - नमस्कार किया। उसने मेरा पुष्कल अशन, पान, खादिम, स्वादिम आदि से सत्कार किया । विजय गाथापति ने द्रव्य की शुद्धि से, दायक की शुद्धि से, पात्र की शुद्धि से तथा त्रिविध- त्रिविध करण-शुद्धि से दिए गये दान के कारण देवायुष्य बांधा और अपने संसार भ्रमण को अल्प किया। ऐसा करने से उसके घर स्वर्णादि पाँच दिव्यों की वृष्टि हुई। कुछ ही देर में यह संवाद नगर भर में फैल गया । लोग विजय तथा उसके मनुष्य जन्म को धन्यवाद देने लगे तथा उसके पुण्यशालित्व का अभिनन्दन करने लगे । "मंखलिपुत्र गोशालक ने भी यह संवाद सुना। उसके हृदय में कुतूहल व जिज्ञासा हुई । वह विजय गृहपति के घर आया । उसने वर्षित द्रव्यों की तथा घर से बाहर निकलते हुए मुझे व विजय गृहपति को देखा। वह मन ही मन बहुत हर्षित हुआ । मेरे पास आया और मुझे तीन बार प्रदक्षिणापूर्वक वन्दन- नमस्कार कर बोला- 'भगवन् ! आप मेरे घर्माचार्य हैं तथा मैं आपका शिष्य हूं ।' उस समय मैंने उसकी बात पर ध्यान नहीं दिया ओर मौन रहा । द्वितीय मासिक तप का पारणा आनन्द गृहपति के घर, तृतीय मासिक तप का पारणा सुनन्द के घर और चतुर्थ मासिक तप का पारणा नालन्दा के निकट कोल्लाक ग्राम में बहुल ब्राह्मण के घर हुआ। तीनों ही स्थलों पर उसी तरह तपः- प्रभाव प्रकट हुआ । " तन्तुवायशाला में मुझे न देखकर गोशालक राजगृह में मुझे ढूंढ़ने लगा, परन्तु, उसे कहीं भी पता न लगा । वह पुनः तन्तुवायशाला में आया। उसने अपने वस्त्र, पात्र, जूते तथा चित्रपट ब्राह्मणों को दे दिए और अपनी दाढ़ी व मूंछ का मुण्डन करवाया । वह भी कोल्लाक सन्निवेश की ओर चल पड़ा। वहां उसने जनता द्वारा बहुल के यहां हुई वृष्टि का समाचार सुना। उसके मन में विचार उत्पन्न हुआ - 'मेरे धर्माचार्य और धर्मोपदेशक श्रमण भगवान् महावीर को; जैसी द्युति, तेज, यश, बल, वीर्य, पुरुषाकार - पराक्रम और ऋद्धि प्राप्त है; वैसी अन्य श्रमण-ब्राह्मण को सम्भव नहीं । मेरे धर्माचार्य व धर्मगुरु वही होने चाहिए ।' वह खोजता हुआ कोल्लाक सन्निवेश के बाहर मनोज्ञ भूमि में मेरे पास आया । उसने तीन बार प्रदक्षिणापूर्वक वन्दन- नमस्कार किया तथा मुझे निवेदन करने लगा'भगवन् ! आप मेरे धर्माचार्य हैं और मैं आपका शिष्य हूँ ।' मैंने मंखलिपुत्र गोशालक की यह बात स्वीकार की । उसके साथ प्रणीत भूमि में छः वर्ष पर्यन्त लाभ - अलाभ, दुःख-सुख, सत्कारअसत्कार का अनुभव करता हुआ मैं विहार करता रहा । "एक बार शरत्काल में वृष्टि नहीं हो रही थी । मैं गोशालक के साथ सिद्धार्थ ग्राम कूर्मग्राम की ओर जा रहा था। मार्ग में एक पत्र - पुष्पयुक्त तिल का पौधा मिला। उसको देखकर गोशालक ने पूछा- 'भगवन् ! यह तिल का पौधा फलित होगा या नहीं ? पौधे पर लगे सात फूलों के जीव मरकर कहाँ उत्पन्न होंगे ?' मैंने कहा – 'गोशालक ! यह तिल का पौधा फलित होगा तथा ये सात तिलपुष्प के जीव मरकर इसी पौधे की एक फली में सात तिल होंगे ।' "गोशालक को मेरी बात पर विश्वास नहीं हुआ। मुझे असत्य प्रमाणित करने के उद्देश्य से वह मेरे पास से खिसका और उसने तिल के पौधे को समूल उखाड़ कर एक ओर फेंक 2010_05 Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [ खण्ड १ दिया । हम कूर्मग्राम की ओर आगे बढ़ गए। इसी बीच आकाश में बादल घुमड़ आये और बिजली चमकने लगी । साधारण वर्षा हुई। वह तिल का पौधा मिट्टी में जम गया तथा बद्धमूल हो गया। वे सात तिल पुष्प भी मरकर कथित प्रकार से उसी तिल के पौधे की फली में सात तिल उत्पन्न हुए । वैश्यायन बाल तपस्वी २० ''हम कूमग्राम आए । ग्राम के बाहर वैश्यायन बाल तपस्वी निरन्तर छट्ठ तप के साथ सूर्य के सम्मुख अपने दोनों हाथ ऊँचे कर आतापना ले रहा था । सूर्य के ताप से उसके सिर से जुएँ नीचे गिर रही थीं। वह प्राण, भूत, जीव और सत्व की दया के लिए नीचे गिरी हुई जुओं को पुनः अपने बालों में रख लेता था । गोशालक ने वैश्यायन बाल तपस्वी को देखा । वह मेरे पास से खिसका । उसके पास गया और उससे बोला- 'तू कोई तपस्वी है या जुओं का शय्यातर (स्थान देने वाला ) ?' वैश्यायन बाल तपस्वी ने गोशालक के कथन को आदर नहीं दिया और मौन ही रहा । गोशालक उसी बात को पुनः पुनः दो-तीन बार दुहराता रहा । तपस्वी कुपित हो उठा । अत्यन्त क्रुद्ध होकर वह आतापना-भूमि से नीचे उतरा । सात-आठ कदम पीछे हटा | जोश में आकर उसने गोशालक को भस्म करने के लिए अपनी तपः- उपलब्ध तेजोलेश्या छोड़ दी । उस समय मुझे मंखलिपुत्र गोशालक पर अनुकम्पा आई । वैश्यायन बाल तपस्वी की तेजोलेश्या का प्रतिसंहरण करने के लिए मैंने शीत तेजोलेश्या छोड़ी। मेरी शीत तेजोलेश्या ने उसकी उष्ण तेजोलेश्या का प्रतिघात कर दिया । उस प्रयोग से तपस्वी का वह प्रयोग विफल हो गया । गोशालक को सुरक्षित खड़ा देख कर तापस सारा रहस्य समझ गया । उसने अपनी तेजोलेश्या का प्रत्यावर्तन किया और कुछ क्षणों तक बोलता रहा- 'भगवन ! मैंने आपको जाना, मैंने आपको जाना ।' "गोशालक इस समग्र घटना चक्र से अवगत नहीं था । वह मेरे पास आया और बाला--'यह जुओं का शय्यातर क्या कर रहा था ?' मैंने उसे सारावृत्तान्त बताया। गोशालक भयभीत हुआ और मन में प्रसन्न भी हुआ कि मैं मरते-मरते बच गया । गोशालक ने वन्दननमस्कार कर मुझे पूछा - 'भगवन् ! यह संक्षिप्त और विपुल तेजोलेश्या कैसे प्राप्त की जा सकती है ?' मैंने कहा - ' नाखून सहित बन्द मुट्ठी भर उड़द के बाकलों और एक चुल्लू भर पानी से कोई निरन्तर छठ छठ का तप करे तथा आतापना- भूमि में सूर्य के सम्मुख ऊर्ध्व बाहु होकर आतापना ले, उसे छः मास के पश्चात् संक्षिप्त और विपुल दोनों प्रकार की तेजोलेश्यायें प्राप्त होती हैं ।' गोशालक ने मेरी बात विनयपूर्वक स्वीकार की । तेजोलेश्या की प्राप्ति "एक दिन मैंने गोशालक के साथ कूर्मग्राम से सिद्धार्थग्राम की ओर विहार किया । हम उसी स्थान पर आए, जहाँ वह तिल का पौधा था । गोशालक ने तिलों के सम्बन्ध में पूछा - 'भगवन् ! तिल वृक्ष के सम्बन्ध में आपने मुझे जो कुछ कहा था, वह सब मिथ्या निकला । न वह तिल वृक्ष निष्पन्न हुआ है और न वे सात पुष्प जीव मर कर सात तिल हुए हैं।' मैंने उसे सारी घटना सुनाई और कहा- गोशालक ! तू ने मेरे कथन को असत्य प्रमाणित करने के लिए उस तिल वृक्ष को उखाड़ डाला था, पर, आकस्मिक वृष्टि - योग से वह पुन: मिट्टी में रुप गया और वे सात पुष्प जीव भी इसी तिल वृक्ष की फली में सात तिल 2010_05 Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा ] गोशालक २१ हो गये हैं । मेरा कथन किंचित् भी असत्य नहीं है ।' गोशालक ने मेरी बात पर विश्वास नहीं किया। वह उस तिल वृक्ष के पास गया और उसने वह फली तोड़ी। उसमें सात ही तिल निकले । गोशालक ने सोचा - जिस प्रकार वनस्पति के जीव मरकर पुन: उसी शरीर में उत्पन्न हो जाते हैं, इसी प्रकार सभी जीव मरकर उसी शरीर में उत्पन्न हो सकते हैं । इस प्रकार गोशालक ने अपना 'परिवृत्य परिहार' का एक नया सिद्धान्त बना लिया । गोशालक का ध्यान तेजोलब्धि को प्राप्त करने में लगा था ; अतः वह मुझ से पृथक् हो गया । यथाविधि छः महीनों की तपस्या से उसे संक्षिप्त और विपुल; दोनों तेजोलेश्यायें प्राप्त हुईं। "कुछ दिन बाद गोशालक से वे छः दिशाचर भी आ मिले। तब से वह अपने को जिन न होते हुए भी जिन, केवली न होते हुये भी केवली, सर्वज्ञ न होते हुए भी सर्वज्ञ घोषित कर रहा है ।" गोशालक और आनन्द यह बात श्रावस्ती में फैल गई। सर्वत्र एक ही चर्चा होने लगी- 'गोशालक जिन नहीं, परन्तु जिन प्रलापी है ; श्रमण भगवान् महावीर ऐसा कहते हैं । मंखलिपुत्र गोशालक ने भी अनेक मनुष्यों से बात सुनी। वह अत्यन्त क्रोधित हुआ । क्रोध से जलता हुआ वह आतापना -भूमि से हालाहला कुम्भकारापण में आया और अपने आजीवक संघ के साथ अत्यन्त आमर्ष के साथ बैठा । उस समय श्रमण भगवान् महावीर के स्थविर । शिष्य आनन्द भिक्षार्थ नगर में गए हुए थे । वे सरल व विनीत थे । निरन्तर छट्ठ तप किया करते थे । उच्च नीच व मध्यम कुलों में घूमते हुए वे हालाहला के कुम्भाकारापण से कुछ दूर से गुजरे । गोशालक ने उन्हें देखा और बोला - "आनन्द ! तू इधर आ और मेरा एक दृष्टान्त सुन ।" गोशालक की बात सुन - कर आनन्द उसके पास पहुँचे और गोशालक ने कहना प्रारम्भ किया : "बात बहुत पुरानी है । कुछ लोभी व्यापारी व्यवसाय के निनित्त अनेक प्रकार का किराना और सामान गाड़ियों में भरकर तथा पाथेय का प्रबन्ध कर रवाना हुए। मार्ग में उन्होंने ग्राम-र -रहित, गमनागमन-रहित, निर्जल व सुविस्तीर्ण आटवी में प्रवेश किया । जंगल का कुछ भाग पार करने पर साथ में लिया हुआ पानी समाप्त हो गया । तृषा से पीड़ित व्यापारी परस्पर विचार-विमर्श करने लगे। उनके सामने एक विकट समस्या खड़ी हो गयी । अन्त में वे सभी आटवी में चारों ओर पानी ढूंढ़ने लगे। चलते-चलते वे एक ऐसे घने जंगल में जा पहुँचे, जहाँ एक विशाल वल्मीक था । उसके ऊंचे-ऊंचे चार शिखर थे । उन्होंने एक शिखर को फोड़ा । उन्हें स्वच्छ, उत्तम, पाचक और स्फटिक के सदृश जल प्राप्त हुआ । उन्होंने पानी पिया, बैल आदि वाहनों को पिलाया तथा मार्ग के लिये पानी के बर्तन भर लिये । उन्होंने लोभ से दूसरा शिखर भी फोड़ा। उसमें उन्हें पुष्कल स्वर्ण प्राप्त हुआ। उनका लोभ बढ़ा और मणि रत्नादि की कामना से तीसरा भी फोड़ डाला । उसमें उन्हें मणिरत्न प्राप्त हुए। बहुमूल्य, श्रेष्ठ, महापुरुषों के योग्य तथा महाप्रयोजन युक्त वज्र रत्न की कामना से उन्होंने चतुर्थ शिखर भी फोड़ने का विचार किया। उन व्यापारियों में एक विज्ञ तथा अपने व सबके हित, सुख, पथ्य, अनुकम्पा तथा कल्याण का अभिलाषी वणिक् भी था । वह बोला'हमें चतुर्थं शिखर फोड़ना नहीं चाहिए। यह हमारे लिए कदाचित् दुःख और संकट का कारण भी बन सकता है।' परन्तु, अन्य साथी व्यापारियों ने उनकी बात नहीं मानी और 2010_05 Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन खिण्ड:१ चौथा शिखर भी फोड़ डाला। उसमें एक महाभयंकर, अत्यन्त कृष्णवर्ण दृष्टि-विष सर्प निकला । उसकी क्रोधपूर्ण दृष्टि पड़ते ही सारे व्यापारी सामान सहित जलकर भस्म हो गए। केवल चौथे शिखर को न तोड़ने की सम्मति देने वाला व्यापारी बचा। उसको सर्प ने सामान सहित उसके घर पहुंचाया। आनन्द ! उसी प्रकार तेरे धर्माचार्य और धर्मगुरु श्रमण ज्ञातपुत्र ने श्रेष्ठ अवस्था प्राप्त की है। देव-मनुष्यादि में उनकी कीर्ति तथा प्रशंसा है। पर, यदि वे मेरे सम्बन्ध में कुछ भी कहेंगे, तो अपने तप-तेज से उन व्यापारियों की तरह मैं उन्हें भस्म कर दूंगा । उस हितैषी व्यक्ति की तरह केवल तुझे बचा लूंगा। तू अपने धर्माचार्य के पास जा और मेरी कही हुई बात उन्हें सुना दे।" गोशालक की बात सुनकर आनन्द बहुत भयभीत हुए और उन्होंने श्रमण भगवान् महावीर के पास आकर सारा वृत्त सुनाया। उन्होंने भगवान् महावीर से यह भी पूछा कि क्या गोशालक उन्हें भस्म कर सकता है ? महावीर बोले-"गोशालक अपने तप-तेज से किसी को भी एक प्रहार में कूटाघात (घन के आघात) के सदृश भस्म कर सकता है, परन्तु, अरिहन्त भगवान् को नहीं जला सकता है। उसमें जितना तप-तेज है, उससे अनगार का तप तेज अनन्तगुणित विशिष्ट है ; क्योंकि अनगार क्षमा द्वारा क्रोध का निग्रह करने में समर्थ है। अनगार के तप से स्थविर का तप, क्षमा के कारण अनन्त गुणित विशिष्ट है । स्थविर के तपोबल से अरिहन्त का तपोबल, क्षमा के कारण अनन्त गुणित विशिष्ट है ; अतः उनको कोई जला नहीं सकता, पर, परिताप अवश्य उत्पन्न कर सकता है । अतः तू जा और गौतम आदि श्रमण-निर्ग्रन्थों से यह बात कह"हे आर्यो ! गोशालक के साथ कोई भी धर्म सम्बन्धी प्रतिचोदना--उसके मत से प्रतिकूल वचन, धर्म-सम्बन्धी प्रतिसारणा-उसके मत से प्रतिकूल सिद्धान्त का स्मरण और धर्मसम्बन्धी प्रत्युपचार-तिरस्कार न करें; क्योंकि गोशालक ने श्रमण-निर्ग्रन्थों के साथ म्लेच्छत्व तथा अनार्यत्व ग्रहण किया है।" प्रवृत्त-परिहार का सिद्धान्त आनन्द अनगार गौतम आदि मुनियों को उक्त समाचार दे रहे थे कि गोशालक अपने संघ से परिवृत्त हो कोष्ठक चैत्य में आ पहुँचा। वह भगवान् महावीर से कुछ दूर खड़ा रह कर बोला-"आयुष्मन् काश्यप ! मंखलिपुत्र गोशालक आपका धर्म-सम्बन्धी शिष्य था; आप जो ऐसा कहते हैं, वह ठीक है। परन्तु, आपका वह शिष्य शुद्ध और शुक्ल अभिजाति के साथ मृत्यु प्राप्त कर देव-लोक में देवरूप से उत्पन्न हुआ है। मैं तो कौण्डिन्यायन गोत्रीय उदायी हूँ। गौतमपुत्र अर्जुन के शरीर का परित्याग कर मंखलिपुत्र गोशालक के शरीर में मैंने सातवें प्रवृत्त-परिहार-शरीरान्तर के रूप में प्रवेश किया है। हमारे सिद्धान्त के अनुसार जो कोई मोक्ष गए हैं, जाते हैं और जाएंगे; वे सभी चौरासी लाख महाकल्प (काल-विशेष), सात देव भव, संयूथ निकाय, सात संज्ञीगर्भ (मनुष्य-गर्भवास) और सात प्रवृत्त-परिहार कर; पाँच लाख साठ हजार छः सौ तीन कर्मभेदों का अनुक्रम से क्षय कर मोक्ष गए हैं तथा सिद्धबुद्ध-मुक्त हुए हैं। इसी प्रकार करते आए हैं तथा भविष्य में भी करेंगे। "..'कुमारावस्था में ही मुझे प्रव्रज्या व ब्रह्मचर्य व्रत ग्रहण करने की इच्छा हुई। प्रव्रज्या ली। मैंने सात प्रवृत्त-परिहार किए। उनके नाम इस प्रकार हैं :-ऐणेयक, मल्लराम, मंडिक, रोह, भारद्वाज, गौतमपुत्र अर्जुन, मंखलिपुत्र गोशालक । प्रथम शरीरान्तर-प्रवेश ____ 2010_05 Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा] गोशालक राजगृह के बाहर मंडिकुक्षि चैत्य में अपने कौण्डिन्यायन गोत्रीय उदायन का शरीर-त्याग कर ऐणेयक के शरीर में किया। बाईस वर्ष तक मैं उस शरीर में रहा। द्वितीय शरीरान्तरप्रवेश उद्दण्डपुर नगर के बाहर चन्द्रावतरण चैत्य में ऐणेयक के शरीर का परित्याग कर मल्लराम के शरीर में किया। उस शरीर में मैं इक्कीस वर्ष तक रहा। तृतीय शरीरान्तरप्रवेश चम्पानगरी के बाहर अंग-मंदिर चैत्य में मल्लराम का शरीर त्याग कर मंडिक के देह में किया। उसमें बीस वर्ष तक रहा। चतुर्थ शरीरान्तर प्रवेश वाराणसी नगरी के बाहर काम-महावन चैत्य में मंडिक के देह का त्याग कर रोह के शरीर में किया। उसमें उन्नीस वर्ष अवस्थित रहा। पांचवां शरीरान्तर-प्रवेश आलभिका नगरी के बाहर प्राप्तकाल चैत्य में रोह के देह का परित्याग कर भारद्वाज के शरीर में किया। इसमें अठारह वर्ष स्थित रहा। छट्ठा शरीरान्तर-प्रवेश वैशाली नगरी के बाहर कुंडियायन चैत्य में भारद्वाज का शरीर परित्याग कर गौतमपुत्र अर्जुन के शरीर में किया। उसमें सतरह वर्ष रहा। सातवां शरीरान्तर-प्रवेश इसी श्रावस्ती नगरी में हालाहला कुम्हारिन के कुम्भकारापण में गौतम-पुत्र अर्जुन का शरीर परित्याग कर कर मंखलिपुत्र गोशालक के शरीर को समर्थ, स्थिर, ध्रुव, धारण-योग्य, शीतादि परिषहों को सहन करने योग्य तथा स्थिर संहनन-युक्त समझ, उसमें किया। अतः काश्यप ! मंखलिपुत्र गोशालक को अपना शिष्य कहना, इस अपेक्षा से अनुचित है।" __ महावीर बोले-"गोशालक ! जिस प्रकार कोई चोर ग्रामवासियों से पराभूत होकर भागता हुआ किसी खड्डे, गुफा, दुर्ग, खाई या विषम स्थान के न मिलने पर ऊन, शण, कपास या तृण के अग्रभाग से अपने को ढांकने का प्रयत्न करता है, वह उनसे ढंका नहीं जाता, फिर भी अपने को ढंका हुआ मानता है, छिपा हुआ न होने पर भी छिपा हुआ समझता है, उसी प्रकार तू भी अपने को प्रच्छन्न करने का प्रयत्न कर रहा है और अपने को प्रच्छन्न समझ रहा है। अन्य नहीं होते हुए भी अपने को अन्य बता रहा है, ऐसा न कर। तू ऐसा करने के योग्य नहीं है।" । भगवान् महावीर का उपरोक्त कथन सुन कर गोशालक अत्यन्त क्रोधित हुआ और अनुचित शब्दों के साथ गाली-गलौज करने लगा। वह जोर-जोर से चिल्लाने लगा और अत्यन्त निम्न स्तर पर उतर आया। वह बोला-"तू आज ही नष्ट, विनष्ट व भ्रष्ट होगा, ऐसा लगता है। कदाचित् तू आज जीवित भी नहीं रहेगा। तुझे मेरे द्वारा सुख नहीं मिल सकता।" तेजोलेश्या का प्रयोग - गोशालक की इस बात को सुन कर पूर्वदेशीय सर्वानुभूति अनगार से न रहा गया। वे स्वभाव से भद्र, प्रकृति से सरल व विनीत थे। अपने धर्माचार्य के अनुराग से गोशालक की धमकी की परवाह न कर उठे और उससे जाकर कहने लगे--“गोशालक ! किसी श्रमणब्राह्मण के पास से यदि कोई एक भी आर्य वचन सुन लेता है, तो भी वह उन्हें वन्दन-नमस्कार करता है। उन्हें मंगलरूप, कल्याण रूप व देव-चैत्य की तरह समझता है, पर्युपासना करता है। तेरा तो कहना ही क्या ? भगवान् ने तुझे दीक्षा दी, शिक्षित किया और बहुश्रुत बनाया। फिर भी तू उन्हीं अपने धर्माचार्य के साथ इस तरह की अनार्यता बरत रहा है ? तू वही गोशालक है, इसमें हमें जरा भी सन्देह नहीं है। इस प्रकार का व्यवहार तेरे योग्य ____ 2010_05 Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन खण्ड:१ नहीं है।" सुनते-सुनते गोशालक का चेहरा तमतमा उठा । उसने सर्वानुभूति अनगार को अपनी तेजोलेश्या के एक ही प्रहार से जला कर भस्म कर दिया और पुनः उसी प्रकार अपलाप करने लगा। ___ अयोध्या निवासी सुनक्षत्र अनगार से न रहा गया। वे भी सर्वानुभूति अनगार की तरह उसके पास गए और उसी प्रकार समझाने लगे। गोशालक और क्रोधित हुआ। उसने उन पर भी तेजोलेश्या का प्रहार किया। सुनक्षत्र अनगार तत्काल भगवान् महावीर के पास आए। तीन बार प्रदक्षिणा पूर्वक वन्दन-नमस्कार किया। उन्होंने पांचों महाव्रतों का उच्चारण किया, साधु-सध्वियों से क्षमा-याचना की और आलोचना-प्रतिक्रमणा आदि कर समाधिपूर्वक शरीरोत्सर्ग किया। भगवान महावीर ने भी गोशालक की सर्वानुभूति अनगार की तरह उसी प्रकार समझाया। गोशालक का क्रोधित होना स्वाभाविक था। उसने सात-आठ कदम पीछे हट कर भगवान् महावीर को भस्म करने के लिए तेजोलेश्या का प्रहार किया। जिस प्रकार वातोत्कालिक वायु (रह-रह कर प्रवाहित होने वाली वायु) पर्वत, स्तूप या दिवाल को विनष्ट नहीं कर सकती, उसी प्रकार वह तेजोलेश्या भी विशेष समर्थ नहीं हुई । पुनः पुनः गमनागमन कर प्रदक्षिणापूर्वक आकाश में ऊपर उछली। वहाँ से गिरी और गोशालक के शरीर को जलाती हुई उसके ही शरीर में प्रविष्ट हो गई। अपनी ही तेजोलेश्या से पराभूत गोशालक श्रमण भगवान् महावीर से बोला"कश्यप ! मेरी इस तपोजन्य तेजोलेश्या से पराभूत व पीड़ित होकर तू छः मास की अवधि में व छद्मस्थ अवस्था में ही मृत्यु प्राप्त करेगा।" भगवान महावीर बोले-“गोशालक ! तू ही अपनी तपोजन्य लेश्या से पराभूत होकर तथा पित्तज्वर से पीड़ित हो सात रात्रि के पश्चात् छद्मस्थ अवस्था में ही कालकवलित होगा। मैं तो अभी सोलह वर्ष तक जिन-तीर्थंकर-पर्याय में विचरण करता रहूँगा।" . कुछ ही क्षणों में यह बात श्रावस्ती में फैल गई। नगर के त्रिक मार्गों, चतुष्पथों और राजमार्गों में सर्वत्र एक ही चर्चा होने लगी लोग कहते थे-"श्रावस्ती के बाहर कोष्ठक चैत्य में दो जिन परस्पर आक्षेप-प्रत्याक्षेप कर रहे हैं। इनमें एक कहता हैं-तू पहले मृत्यु प्राप्त होगा और दूसरा कहता है—पहले तू मृत्यु प्राप्त होगा। इनमें कौन सच्चा है और कौन झूठा !” विज्ञ व प्रतिष्ठित व्यक्ति कहते हैं- "श्रमण भगवान महावीर सत्यवादी हैं और मंखलिपुत्र गोशालक मिथ्यावादी।" भगवान् महावीर ने निर्ग्रन्थों को बुलाया और कहा-"जिस प्रकार तृण, काष्ठ, पत्र आदि का ढेर अग्नि से जल जाने के पश्चात् नष्ट हो जाता है, उसी प्रकार गोशालक भी मेरे वध के लिए तेजोलेश्या निकाल कर नष्ट-तेज हो गया है। तुम सहर्ष उसके सामने उसके मत का खण्डन करो, विस्तृत अर्थ पूछो, धर्म-सम्बन्धी प्रतिचोदना करो और प्रश्न, हेतु, व्याकरण और कारण के द्वारा उसे निरुत्तर करो।" निर्ग्रन्थों ने उसको विविध प्रकार के प्रश्नोत्तरों द्वारा निरुत्तर कर दिया। गोशालक अत्यन्त क्रोधित हुआ, परन्तु, वह निर्ग्रन्थों को तनिक भी कष्ट न पहुंचा सका। अनेक आजीवक स्थविर असन्तुष्ट होकर उसके संघ से पृथक् हो गये और भगवान् महावीर के संघ में सम्मिलित होकर साधना-निरत हो गये। 2010_05 Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा] गोशालक आठ चरम मंखलिपुत्र गोशालक अपने अभिलषित में असफल होकर कोष्ठक चैत्य के बाहर निकला। वह विक्षिप्त-सा चारों दिशाओं में देखता, गर्म-गर्म दीर्घ उच्छवास-नि:श्वास छोड़ता, अपनी दाढ़ी के बालों को नोंचता, गर्दन को खुजलाता, दोनों हाथों से कभी कडत्कार करता और कभी हिलाता, पांवों को पछाड़ता, 'हाय ! मरा! हाय ! मरा !' चिल्लाता हुआ हालाहला कुम्हारिन के कुम्भकारापण में पहुंचा। वहाँ अपने दाह की शान्ति के लिए कच्चा आम चूसता, मद्यपान करता, बार-बार गीत गाता, बार-बार नाचता और बार-बार हालाहला कुम्हारिन को हाथ जोड़ता हुआ मिट्टी के बर्तन में रहे हुए शीतल जल से अपना गात्र सिंचित करने लगा। __ श्रवण भगवान् महावीर ने निर्ग्रन्थों को आमंत्रित कर कहा-"आर्यो ! मंखलिपुत्र गोशालक ने मेरे वध के लिए जिस तेजोलेश्या का प्रहार किया था, वह १. अंग, २. बंग, ३. मगध, ४. मलय, ५. मालव, ६. अच्छ, ७. वत्स, ८. कौत्स, ६. पाठ, १०. लाट, ११. व्रज, १२. मौलि, १३. काशी, १४. कौशल, १५. अबाध और १६. संभुक्तर – इन सोलह जनपदों की घात करने, वध करने, उच्छेद करने तथा भस्म करने में समर्थ थी। अब वह कुम्भकारापण में कच्चा आम चूसता हुआ, मद्यपान कर रहा है, नाच रहा है तथा बार-बार हाथ जोड़कर ठण्डे पानी से शरीर को सिंचित कर रहा है। अपने इन दोषों को छिपाने के लिए वह आठ चरम (अन्तिम) बातें प्ररूपित कर रहा है-चरम पान, चरम गान, चरम नाट्य, चरम अंजली-कर्म, चरम पुष्कल-संवर्त महामेघ, चरम सेचनक गन्धहस्ती, चरम महाशिला कंटक संग्राम और इस अवसर्पिणी काल में चरम तीर्थंकर के रूप में उसका सिद्ध होना । ठंडे पानी से शरीर सिंचित करने के दोष को छिपाने के लिए वह चार पानक-पेय और चार अपानक-अपेय पानी प्ररूपित कर रहा है। चार पानक इस प्रकार है-१. गाय के पृष्ठ भाग से गिरा हुआ, २. हाथ से उलीचा हुआ, ३. सूर्य ताप से तपा हुआ और ४. शिलाओं से गिरा हुआ। चार अपानक—पीने के लिए नहीं, परन्तु, दाहादि उपशमन के लिए व्यवहार योग्य ; इस प्रकार हैं-१.स्थालपानी-पानी में भींगे हुए शीतल छोटे-बड़े बर्तन । इन्हें हाथ से स्पर्श करें, परन्तु, पानी न पीए । २. त्वचापानी-आम, गुठली और बेर आदि कच्चे फल मुंह मे चबाना, परन्तु, उनका रस न पीना, ३. फली का पानी-उड़द मूंग, मटर आदि की कच्ची फलियाँ मुंह में लेकर चबाना, परन्तु, उनका रस न पीना, ४. शुद्ध पानी - कोई व्यक्ति छः मास तक शुद्ध मेवा-मिष्ठान्न खाए। उन छः महीनों में दो महीने भूमिशयन, दो मास तक पट्ट-शयन और दो मास तक दर्भ-शयन करे, तो छठे मास की अन्तिम रात्रि में महाऋद्धि-सम्पन्न मणिभद्र और पूर्णभद्र नामक देव प्रगट होते हैं। वे अपने शीतल और आर्द्र हाथों का स्पर्श करते हैं । यदि व्यक्ति उस शीतल स्पर्श का अनुमोदन करता है, तो आशीविष प्रगट होता है और अनुमोदन नहीं करता है, तो उसके शरीर से अग्नि समुत्पन्न ज्वालाओं में उसका शरीर भस्म हो जाता है। तदनन्तर वह व्यक्ति सिद्ध, बुद्ध एवं विमुक्त हो जाता है।" उसी नगरी में अयंपुल नामक एक आजीविकोपासक रहता था । एक दिन मध्य रात्रि में कुटुम्ब-चिन्ता करते हुए उसके मन में विचार आया कि हल्ला का आकार कैसा होता है ? वह अपने धर्माचार्य गोशालक से समाधान करने के लिए हालाहला कुम्भकारापण में आया। 2010_05 Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड :१ गोशालक को नाचते, गाते तथा मद्यपान करते देखकर वह अत्यन्त लज्जित हुआ और पुनः लौटने लगा। अन्य आजीवक स्थविरों ने उसे देखा तथा बुलवाया। उन्होंने उसे उपर्युक्त आठ चरम वस्तुओं से परिचित किया तथा कहा- "तुम जाओ और अपने प्रश्न का समाधान करो।" स्थविरों के संकेत से गोशालक ने गुठली एक ओर रख दी तथा अयंपुल से बाला"अयंपुल ! तुम्हें मध्य रात्रि में हल्ला का आकार जानने की इच्छा उत्पन्न हुई, परन्तु, तुम योग्य समाधान नहीं कर पाए ; अत: मेरे पास समाधान के लिए आए थे। मेरी यह स्थिति देखकर तुम लज्जित होकर लौटने लगे, पर यह तुम्हारी भूल है। मेरे हाथ में यह कच्चा आम नहीं, परन्तु, आम की छाल है। इसका पीना निर्वाण-समय में आवश्यक है । नृत्य-गीतादि भी निर्वाण-समय की चरम वस्तुएँ हैं; अतः तू भी वीणा बजा।" गोशालकका पश्चात्ताप अयंपुल अपने प्रश्न का समाधान कर लौट गया। अपना मृत्यु-समय निकट जान कर गोशालक ने आजीवक स्थविरों को बुलाया। उसने कहा--"जब मैं मर जाऊं, मेरी देह को सुगन्धित पानी से नहलाना, सुगन्धित गेरुक वस्त्र से पोंछना, गोशीर्ष चन्दन का विलेपन करना, बहुमूल्य श्वेत वस्त्र पहिनाना तथा सर्वालंकारों से विभूषित करना । एक हजार पुरुषों द्वारा उठाई जा सके, ऐसी शिविका में बैठाकर श्रावस्ती के मध्य में इस प्रकार घोषणा करते हए ले जाना-... 'चौबीसवें चरम तीर्थङ्कर मंखलिपुत्र गोशालक जिन हुए, सिद्ध हुए, विमुक्त हुए तथा सर्व दुःखों से रहित हुए है।' इस प्रकार महोत्सव पूर्वक अन्तिम क्रिया करना।" सातवीं रात्रि व्यतीत होने पर गोशालक का मिथ्यात्व दूर हुआ। उसके मन में विचार उत्पन्न हुआ---"जिन न होते हुए भी मैं अपने को जिन घोषित कर रहा हूं। मैंने श्रमणों का घात किया है और आचार्य से विद्वेश किया है। श्रमण भगवान् महावीर ही सच्चे जिन हैं।" उसने स्थविरों को पुनः बुलाया और उनसे कहा-"स्थविरो! जिन न होते हुए भी मैं अपने को जिन घोषित करता रहा हूं। मैं श्रमण-घाती तथा आचार्य-प्रद्वेषी हूं। श्रमण भगवान् महावीर ही सच्चे जिन हैं। अतः मेरी मृत्यु के पश्चात् मेरे बाएं पाँव में रस्सी बाँध कर मेरे मुँह में तीन बार थूकना तथा श्रावस्ती के राजमार्गों में 'गोशालक जिन नहीं, परन्तु, महावीर ही जिन हैं'; इस प्रकार उद्घोषणा करते हुए, मेरे शरीर को खींचकर ले जाना।" ऐसा करने के लिए उसने स्थविरों को शपथ भी दिलाई। गोशालक की मृत्य ___गोशालक मृत्यु को प्राप्त हुआ। स्थविरों ने कुम्भकारापण के दरवाजे बन्द कर दिए। उन्होंने वहीं आंगन में श्रावस्ती का चित्र बनाया। गोशालक के कथानुसार सब कार्य किए। उसके मुंह में तीन बार थूका तथा मन्द-मन्द स्वर में बोले-'गोशालक ! जिन नहीं, परन्त, श्रवण भगवान महावीर ही जिन हैं।" स्थविरों ने अपनी प्रतिज्ञा पूर्ण कर गोशालक के प्रथम कथनानुसार उसकी पूजा की और धूम-धाम से मृत देह की ससम्मान अन्त्येष्टि की। ___ गौतम स्वामी ने एक दिन भगवान् महावीर से पूछा-"भगवन् ! सर्वानुभूति अनगार, जिन्हें गोशालक ने भस्म कर दिया था, यहाँ से काल-धर्म को प्राप्त कर कहाँ गए हैं ?" भगवान् महावीर ने उत्तर दिया- "गौतम ! सर्वानुभूति अनगार सहस्रार कल्प में अठारह ____ 2010_05 Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा गोशालक २७ सागरोपम की स्थिति में देव रूप से उत्पन्न हुआ है । वह वहाँ से च्युत हो, महाविदेह क्षेत्र में जन्म लेकर सिद्ध, बुद्ध तथा विमुक्त होगा। इसी तरह सुनक्षत्र अनगार भी अच्युत कल्प में बाईस सागरोपम की स्थिति में देव रूप से उत्पन्न हुआ है । वहाँ से च्युत होकर वह भी महाविदेह क्षेत्र में उत्पन्न होगा और वहाँ सर्व कर्म-क्षय कर विमुक्त होगा।" गौतम स्वामी ने फिर पूछा- "भगवन् ! आपका कुशिष्य गोशालक मृत्यु प्राप्त कर कहाँ उत्पन्न हुआ है ?" भगवान् महावीर ने उत्तर दिया- 'वह अच्युत कल्प में बाईस सागरोपम की स्थिति वाला देव हुआ है। वहाँ से च्युत हो, अनेक भव-भवान्तरों में भ्रमण करता रहेगा। अन्त में उसे सम्यग्दृष्टि प्राप्त होगी। दृढ़प्रतिज्ञ मुनि के रूप में केवली होकर सर्व दु:खों का अन्त करेगा। कुण्डकोलिक और आजीवक देव ___ गोशालक की नियतिवादी मान्यता पर कुण्डकोलिक श्रमणोपासक का घटना-प्रसंग बहुत ही सरस और ज्ञानवर्द्धक है । कण्डकोलिक कम्पिलपुर नगर का धनाढ्य गृहपति था। वह भगवान् महावीर का उपासक था। एक दिन मध्याह्न के समय वह अपनी अशोक वाटिका में आया। शिलापट्ट पर आसीन हुआ। अपना उत्तरीय उतारा और एक ओर रख दिया। नामांकित मुद्रिका उतारी और उत्तरीय के पास रख दी। भगवान् महावीर द्वारा बताई गई धर्म-प्रज्ञप्ति का आचरण करने लगा। अकस्मात् एक देव आया। उत्तरीय और मुद्रिका को उठाकर किंकिणीनाद के साथ आकाश में प्रकट हुआ। आकाश में खड़े ही उसने कुण्डकोलिक के साथ चर्चा प्रारम्भ की। देव-“कुण्डकोलिक ! मंखलिपुत्र गोशालक की धर्म-प्रज्ञप्ति प्रशस्त है ; क्योंकि उसमें उत्थान (उत्साह), कर्म, बल, वीर्य, पुरुषाकार, पराक्रम आदि कुछ नहीं हैं। सब स्वभाव नियत हैं। महावीर की धर्म-प्रज्ञप्ति अच्छी नहीं है ; क्योंकि उसमें उत्थान, कर्म आदि सब माने गए हैं और सब स्वभाव अनियत हैं।" कुण्डकोलिक-"देव ! यदि ऐसा है, तो बताओ न, तुम्हें यह देव-ऋद्धि कैसे मिली? तुम्हारे उत्थान, बल आदि इसके कारण हैं या यह नियतिवश ही मिल गई ?" देव-कुण्डकोलिक ! मैं तो मानता हूं, यह देव-ऋद्धि मुझे यों ही नियतिवश मिली, है। इसका कारण कोई पुरुषाकार या पराक्रम नहीं है।" कुण्डकोलिक-"देव ! ऐसा है, तो अन्य सभी को यह देव-ऋद्धि क्यों नहीं मिली, तुम्हें ही क्यों मिली ? तात्पर्य यह कि अपने उत्थान, बल आदि से ही व्यक्ति सब कुछ पाता है। तुम्हारा यह कथन मिथ्या है कि गोशालक की धर्म-प्रज्ञप्ति अच्छी है और महावीर की अच्छी नहीं है।" देव यह सब सुनकर अपने सिद्धान्त में संभ्रान्त हआ और कुण्डकोलिक का उत्तरीय और मुद्रिका यथास्थान रख कर अपने गन्तव्य की ओर चला गया। प्रसंगान्तर से भग १. भगवती सूत्र (हिन्दी अनुवाद) पृ०६२६-६५२ के आधार पर । अनुवादक-मदन कुमार मेहता, प्र० श्रुत-प्रकाशन मन्दिर, कलकत्ता। ___ 2010_05 Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम और त्रिपटिक : एक अनुशीलन [खण्ड : महावीर ने अपने साधुओं के समक्ष कुण्डकोलिक के इस चर्चावाद की प्रशंसा की। शकडालपुत्र शकडालपुत्र भगवान महावीर के प्रमुख दस श्रावकों में से एक था। पहले वह आजीवक मत का अनुयायी था और बाद में महावीर का श्रमणोपासक बना। उवासगदसाओ में इस सम्बन्ध का सारा विवरण उपलब्ध होता है। गोशालक की मान्यता को समझने के लिए भी वह एक मौलिक प्रकरण है। पोलासपुर नगर में शकडाल पुत्र नामक कुम्भकार रहता था। उसके पास तीन करोड़ स्वण मुद्राएं व दस हजार गौएं थीं। उसकी पत्नी का नाम अग्निमित्रा था। भंड-निर्माण का उनके बहुत बड़ा उद्योग था। वह आजीवक सम्प्रदाय के नायक गोशालक का अनुयायी था। एक दिन अशोक वाटिका में वह आजीवक मत के अनुसार व्रत साधना कर रहा था। उस समय एक देवता प्रकट हआ और बोला-“देवानप्रिय ! कल यहाँ 'महामाहण' आने वाला है। वह जिन है और त्रिलोक-पूज्य है। तुम उसे प्रणाम करना और उसकी सेवा करना।" शकडालपुत्र सोचने लगा-"मेरे धर्माचार्य मंखलिपुत्र गोशालक ही 'महामाहण' और त्रिलोक-पूज्य हैं । वे ही कल यहां आएंगे । मैं उनकी सेवा करूंगा।" दूसरे दिन भगवान् महावीर श्रमण-समुदाय के साथ वहाँ पधारे। सहस्रों लोग दर्शन और व्याख्यान सुनने के लिए एकत्रित हुए। शकडालपुत्र के मन में भी कौतूहल और जिज्ञासा उत्पन्न हुई। वह भी भगवान महावीर को वन्दन करने के लिए आया। भगवान् महावीर ने कहा-'कल किसी देव ने आकर किसी 'महामाहण' के आने की जो सूचना तुझे दी थी, वह गोशालक के लिए नहीं थी।" शकडालपुत्र इस रहस्योद्घाटन से बहुत प्रभावित हुआ और उसने अपनी दुकानों में निवास करने के लिए भगवान् महावीर को आमन्त्रित किया । भगवान् वहां आए और रहने लगे। शकडालपुत्र नितान्त नियतिवादी था । एक दिन जब कि मिट्टी के बर्तनों को सुखाने का काम चल रहा था, भगवान् महावीर ने शक डालपुत्र से कहा- "देवानप्रिय ! क्या ये सारे बर्तन बिना प्रयत्न किये ही तैयार हुए हैं ?" ... शकडालपुत्र-'ये प्रयत्न से नहीं बने हैं। जो कुछ होता है, वह नियतिवश ही होता है।" भगवान् - "यदि कोई इन बर्तनों को फोड़ डाले या अग्निमित्रा के साथ सहवास करे तुम क्या करोगे ?" शकडालपुत्र-“मैं उसे शाप दूंगा, उस पर प्रहार करूंगा और उसे मार डालूंगा।" भगवान् -यदि यह तथ्य है-जो कुछ होता है, वह नियति वश ही होता है ; तो ऐसा करने के लिए तुम क्यों उद्यत होते हो ?" शकडालपुत्र को सम्यक् ज्ञान हुआ और उसने अणुव्रत रूप गृहस्थ-धर्म को स्वीकार किया। भगवान महावीर वहां से विहार कर गए। गोशालक शकडालपुत्र को पुनः अपने धर्म में आरूढ़ करने के लिए एक दिन उसके घर आया। शकडालपुत्र ने उसे किचित् भी सम्मान नहीं दिया। गोशालक ने अन्य मार्ग न १. उवासगदसाओ, अ०६ के आधार पर। ____ 2010_05 Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९ इतिहास और परम्परा] गोशालक पाकर भगवान् महावीर की प्रभावशाली स्तुति की। शकडालपुत्र बोला- "हे गोशालक ! तुमने मेरे धर्माचार्य की स्तुति की है, इसलिए मैं तुम्हें अपनी दुकानें रहने के लिए और शय्यासंस्तारक आदि ग्रहण करने के लिए आमंत्रित करता हूँ।" गोशालक दुकानों में रहा। शकडालपुत्र को फिर से अपने सम्प्रदाय में लाने के लिए भगीरथ प्रयत्न किया, पर, उसमें असफल होकर वहाँ से अन्यत्र विहार कर दिया।' अन्य प्रसंग . गोशालक सुदीर्घ अवधि तक भगवान् महावीर के साथ रहा। भगवती आदि आगमों में जहाँ उसका सुविस्तृत वर्णन है, आगमोत्तर ग्रन्थों में भी उस सहवास के अनेक पूरक प्रसंग मिलते हैं। भले ही उन प्रसंगों का महत्व आगमोक्त प्रसंगों जितना न हो, तथापि वे रोचकता ज्ञान-वृद्धि और शोध-सामग्री की दृष्टि से पठनीय और मननीय हैं। एक बार भगवान् महावीर ने कोल्लाग सन्निवेश से सुवर्णखल की ओर विहार किया। गोशालक भी भगवान् के साथ था। मार्ग में कुछ ग्रामीण खीर पका रहे थे । खीर को देख कर गोशालक का मन ललचाया। उसने भगवान महावीर से कहा- "हम कुछ देर यहीं ठहरें। खीर पक कर उतर जाएगी। हम भी खीर से अवश्य लाभान्वित होंगे।" भगवान महावीर ने उत्तर दिया-"इस खीर से हम तो क्या , इसे पकाने वाले भी लाभान्वित नहीं होंगे। यह तो बिना पके ही नष्ट हो जाने वाली है।" भगवान् आगे चले। गोशालक वहीं ठहरा ; यह जानने के लिए कि क्या होता है ? गोशालक ने खीर पकाने वालों को भी इस संभाव्य अनिष्ट से सावधान किया। ग्रामीण पूरे सावधान हो गए ; यह मिट्टी का बर्तन कहीं लुढ़क न जाए, फट न जाए। फिर भी वही हुआ, जो भगवान् महावीर ने कहा था। बर्तन में चावल और दूध मात्रा से अधिक थे। चावल फूले कि बर्तन फटा। सारी खीर मिट्टी और राख में बहने लगी। गोशालक इस घटना से नियतिवाद की ओर झुका । ___ एक बार भगवान महावीर ब्राह्मण गांव में आए। गोशालक भी साथ था। उस गाँव के दो भाग थे : १. नन्दपाटक और २. उपनन्दपाटक । नन्द और उपनन्द दो भाई थे। दोनों के आश्रित भाग उनके अपने-अपने नाम से पुकारे जाते थे। भगवान महावीर भिक्षाचरी के ध्येय से नन्दपाटक में नन्द के घर आये । नन्द ने भगवान् को दधिमिश्रित तण्डुल बहारए। गोशालक उपनन्दपाटक में उपन द के घर भिक्षा के लिये गया। दासी ने बासी भात गोशालक को देने के लिए कड़छी में उठाया। गोशालक ने इसे अपना अपमान समझा और वह, दासी के साथ लड़ने-झगड़ने लगा। पास बैठा उपनन्द यह सब देख-सुन रहा था। गोशालक की हरकत पर उसे भी क्रोध आया। उसने दासी से कहा-यह बासी भात लेता है तो दे, नहीं तो इसके सिर पर डाल । दासी ने वैसा ही कर डाला। गोशालक आग बबूला हो उठा। उसने श्राप दिया-"मेरे गुरु के तप-तेज का कोई प्रभाव हो, तो तुम्हारा यह प्रसाद जल कर भस्म हो जाए।" व्यन्तेर देवों ने महावीर की प्रतिष्ठा बढ़ाने के लिए वह महल भस्म कर १. उवासगदसाओ, अ० ७ के आधार पर। २. आवश्यक नियुक्ति, मलयगिरिवृत्ति, पूर्वभाग, गा० ४७४ पत्र संख्या २७७-१; __ आवश्यक चूर्णि, प्रथम भाग, पत्र २८३ । ___ 2010_05 Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड:१ डाला। एक बार भगवान् महावीर कालाय सन्निवेश में आए। सन्निवेश के बाहर एक खण्डहर था। भगवान् महावीर सायंकाल उसी खण्डहर में ध्यानस्थ हुए। गोशालक भी द्वार के पास वहीं रहा । सन्निवेश के अधिपति का पुत्र सिंह विद्युन्मती दासी को साथ लिये अकस्मात उसी खण्डहर में आया। वह कामेच्छु था। उसने आवाज दी-“कोई यहाँ है ?" भगवान् ध्यानस्थ थे। गोशालक बोला नहीं। उसने पूर्ण विजनता समझ कर वहीं मनोज्ञ काम-क्रीड़ा की। जब वे दोनों वापस जाने लगे, कामातुर गोशालक ने विद्युन्मती का हाथ पकड़ लिया। गोशालक की उस हरकत से सिंह बहुत क्रोधित हुआ और उसने गोशालक की पूरी खबर ली। __ भगवान् महावीर कुमाराक सन्निवेश आये। चम्पकरमणीय उद्यान में ध्यानस्थ हुये। मध्याह्न में गोशालक ने भगवान् से कहा- "भगवन् ! बस्ती में भिक्षा के लिए चलें।" भगवान् ने कहा-"आज मेरा उपवास है। मैं भिक्षा के लिए नहीं जाऊँगा।" गोशालक बस्ती में आया कूपनय नामक एक धनाढ्य कुम्भकार की शाला में पार्श्वनाथपरम्परा के आचार्य मुनिचन्द्र अपने शिष्यों सहित ठहरे हुए थे। गोशालक उन्हें देख कर आश्चर्य-मुग्ध हुआ। उसके मन में आया, ये कैसे साधु हैं, जो रंग-बिरंगे वस्त्र पहनते हैं, पात्र आदि अनेक उपकरण रखते हैं। गोशालक ने पूछा-"आप कौन से साधु हैं ?" उत्तर मिला-निर्ग्रन्थ हैं और पार्श्वनाथ के अनुयायी हैं ?" गोशालक ने पुनः कहा-"यह कैसी निर्ग्रन्थता ? सब कुछ तो संगृहीत पड़ा है ? मेरे गुरु और मैं ही सच्चे निर्ग्रन्थ हैं। तुम सबने तो आजीविका चलाने के लिए ढोंग रच रखा है।" साधुओं ने प्रत्युत्तर में कहा-"जैसा तू है, वैसे ही तेरे धर्माचार्य होंगे ?" । क्रोधित गोशालक ने कहा-"तुम मेरे धर्माचार्य की अवज्ञा करते हो। मैं श्राप देता हूँ कि मेरे गुरु के तप-तेज से तुम्हारा यह उपाश्रय भस्म हो जाए।" गोशालक ने अनेक बार ऐसा कहा, पर, कुछ भी नहीं हुआ। पार्वानुग साधुओं ने कहा-"क्यों व्यर्थ कष्ट करते हो ? न कुछ जलने वाला है और न कुछ मिलने वाला है।" सम्भ्रान्त-सा गोशालक वहां से हट कर भगवान महावीर के पास आया और कहने लगा-"आज परिग्रही साधुओं से विवाद हो गया। मैंने श्राप दिया, पर, उनका उपाश्रय नहीं जला। भगवन् ! ऐसा क्यों ?" भगवान् महावीर ने कहा-“गोशालक ! तुम्हारी धारणा अयथार्थ है। जो वे कर रहे हैं, वह सब विहित है । तुम्हारा श्राप उन पर नहीं चलेगा। एक बार भगवान् महावीर चौराक सन्निवेश आए। गोशालक भी साथ था। गांव में चोरों का बहुत भय था। स्थान-स्थान पर पहरेदार खड़े रहते थे। गांव में जाते ही पहरेदारों १. आवश्यक नियुक्ति, मलयगिरिवृत्ति, पूर्वभाग, गा० ४७५ पत्र संख्या २७७-१-२; ___ आवश्यक चूर्णि, प्रथम भाग। २. आवश्यक नियुक्ति, मलय गिरिवृत्ति, पूर्वभाग, गा० ४७६, पत्र संख्या २७८-१; ___ आवश्यक चूणि, पूर्वभाग, पत्र सं० २८४ । ३. आवश्यक नियुक्ति, मलयगिरिवृत्ति, पूर्वभाग, गा० ४७७, पत्र सं० २७६-१; आवश्यक चूर्णि, पूर्वभाग, पत्र २८५। ___ 2010_05 Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा] गोशालक ३१ ने उन्हें घेर लिया और तरह-तरह के प्रश्न पूछने लगे। महावीर मौन रहे। उन्हें देख कर गोशालक भी मौन रहा। पहरेदार उन्हें गुप्तचर समझ सताने लगे। उसी गांव में उत्पल नैमित्तिक की दो बहिनें सोना और जयन्ती रहती थीं। ये पहले श्रमण-धर्म में दीक्षित रह चुकी थीं। असमर्थता के कारण अब वे परिवाजिकाएँ बन चली थीं। वे पहरेदारों के पास आईं और समझाबुझा कर उन्हें शान्त किया। स्थिति से अवगत होकर पररेदारौं ने भगवान् महावीर से क्षमायाचना की।' एक बार भगवान महावीर कयंगला नगरी में आये। उद्यान के देव-मन्दिर में ठहरे। रात को देवालय के एक कोने में ध्यानस्थ खड़े हो गए। गोशालक भी मन्दिर में एक ओर बैठ गया । माघ का महीना था । आकाश बादलों से घिरा था। नन्ही-नन्ही बून्हें गिर रही थीं। ठण्डी हवा जोरों पर थी। उसी रात मन्दिर में एक धार्मिक उत्सव हो रहा था। गीत और वाद्य के साथ स्त्री-पुरुषों का सहनर्तन भी हो रहा था । शीत से पीड़ित गोशालक को यह सब अच्छा नहीं लगा। वह अपने आप ही बड़बड़ाने लगा-कैसा धर्म है ; स्त्री और पुरुष साथ-साथ नाच रहे हैं। गोशालक का यह सब कहना उपस्थित लोगों को अच्छा नहीं लगा। हाथ पकड़ कर उसे देवालय से बाहर कर दिया। गोशालक बाहर बैठा शीत से कांप रहा था। वह कहता था, कैसा कलियुग आया है, सच कहने वाला ही मारा जाता है । कुछ लोगों को फिर से दया आई। उसे देवालय के अन्दर बुला लिया। वह फिर उनके धर्म की निन्दा करने लगा। युवक उत्तेजित हुए। मारने के लिए दौड़े। वृद्धों ने उन्हें रोका और कहा-'हम लोग बाजे इतने जोर से बजाएं कि इसकी यह बड़बड़ाहट कानों में ही न पड़े।' इस तरह प्रातःकाल हुआ और भगवान् महावीर ने श्रावस्ती की ओर विहार किया। कूपिय सन्निवेश से एक बार भगवान् महावीर ने वैशाली की ओर विहार किया। गोशालक भगवान् के साथ रहते-रहते उनकी कठोर चर्या से ऊब चुका था। उसने भगवान् महावीर से कहा-"अब मैं आपके साथ नहीं चलूंगा। आप मेरा जरा भी ध्यान नहीं रखते। स्थान-स्थान पर लोग मेरी तर्जना करते हैं। आप आँख मूंदकर खड़े रहते हैं। आपके साथ रहने से मुझे मिलता क्या है ; सिवाय कष्ट झेलने के और भूखों मरने के।' महावीर वैशाली की ओर गये । गोशालक राजगृह आया। छह महीने महावीर से पृथक् रहा । गया था सुख पाने, पर, पाया केवल कष्ट-ही-कष्ट । कोई आदर नहीं करते; आदर पूर्वक भिक्षा नहीं देते। कष्टों से घबरा कर पुनः वह भगवान् महावीर को खोजने , लगा। शालीशीर्ष गांव में भगवान् मिले । वह तब से पुनः उनके साथ हो लिया।३ . दिगम्बर-परम्परा में गोशालक-सम्बन्धी उक्त विवेचन श्वेताम्बर आगमों का है। दिगम्बर-परम्परा में १. आवश्यक नियुक्ति, मलयगिरिवृत्ति, पूर्वभाग, गा० ४७७, पत्र सं० २७८-२, २७६-१; आवश्यक चूणि, पूर्व भाग, पत्र २८६ । २. आवश्यक सूत्र नियुक्ति, मलयगिरिवृत्ति, पूर्वभाग, गा० ४७८, पत्र सं० २७६; आवश्यक चूर्णि, पूर्वभाग, पत्र सं० २८७ । ३. आवश्यक चूणि, पूर्वभाग, पत्र सं० २६२ । ____ 2010_05 Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड : १ गोशालक-सम्बन्धी कुछ बातें प्रकारान्तर से मिलती हैं । उसके अनुसार गोशालक पार्श्वनाथ परम्परा के एक मुनि थे। महावीर की परम्परा में आकर वे गणधर पद पर नियुक्त होना चाहते थे। महावीर के समवसरण में जब इनकी नियुक्ति गणधर-पद पर नहीं हुई, तब वे वहां से पृथक् हो गये। श्रावस्ती में आकर वे आजीवक सम्प्रदाय के नेता बने और अपने को तीर्थङ्कर कहने लगे । वे उपदेश भी ऐसा देते-"ज्ञान से मोक्ष नहीं होता, अज्ञान से ही मोक्ष होता है। देव या ईश्वर कोई है ही नहीं ; इसलिए स्वेच्छापूर्वक शून्य का ध्यान करना, चाहिए।" त्रिपिटकों में सबसे बुरा बुद्ध तत्कालीन मतों व मत-प्रवर्तकों में आजीवक संघ और गोशालक को सबसे बुरा समझते थे । सत् पुरुष और असत् पुरुष का वर्णन करते हुए वे कहते हैं : "कोई व्यक्ति ऐसा होता है जो कि बहुत जनों के अलाभ के लिए होता है, बहुत जनों की हानि के लिए होता है, बहुत जनों के दुःख के लिए होता है, वह देवों के लिए भी अलाभकारक और हानिकारक होता है ; जैसे-मक्खली गोशाल। गोशा से अधिक दुर्जन मेरी दृष्टि में कोई नहीं है। जैसे धीवर मछलियों को जाल में फंसाता है, वैसे वह मनुष्यों को अपने जाल में फंसाता है।"२ प्रसंगान्तर से बुद्ध यह भी कहते हैं : "श्रमणधर्मों में सबसे निकृष्ट और जघन्य मत गोशाल का है, ठीक वैसे ही जैसे कि सब प्रकार के वस्त्रों में केश निर्मित कम्बल निकृष्ट होती है। वह कम्बल शीतकाल में शीतल, ग्रीष्मकाल में उष्ण तथा दुर्वर्ण, दुर्गन्ध, दुःस्पर्श वाली होती है। जीवनव्यवहार में ऐसा ही निरुपयोगी गोशाल का नियतिवाद है।" बुद्ध के अनुयायी भी आजीवकों को घणा की दृष्टि से देखते थे। जेतवन में रहते एक बार बुद्ध ने भिक्षुओं को वर्षा-स्नान की आज्ञा दी। भिक्षु वस्त्र-विमुक्त हो स्नान करने लगे। प्रमुख बुद्ध-श्राविका विशाखा की दासी भोजन-काल की सूचना देने आराम में आई। नग्न भिक्षुओं को देख, उसने सोचा, ये आजीवक हैं। विशाखा से जाकर कहा-आराम में शाक्य १. मसयरि-पूरणारिसिणो उप्पण्णो पासणाहतित्थम्मि। सिरिवीर समवसरणे अगहियझुणिणा नियत्तेण ॥ बहिणिग्गएण उत्तं मज्झं एयार सागंधारिस्स। णिग्गइ झूणीण अरहो, णिग्गय विस्सास सीसस्स ॥ ण मुणइ जिणकहिय सुयं संपइ दिक्खाय गहिय गोयमओ। विप्पो वेयब्भासी तम्हा मोक्खं ण णाणाओ। अण्णाणाओ मोक्खं एवं लोयाण पयडमाणो हु। देवो अ णत्थि कोई सुण्णं झाएह इच्छाए । -भावसंग्रह, गाथा १७६ से १७९ २. अंगुत्तर निकाय, १-१८-४:५। ३. टीका ग्रन्थों के अनुसार यह कम्बल मनुष्य के केशों से बनती हैं। ४. The Book of Gradual Sayings, vol. I, p. 265. 2010_05 Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा] गोशालक भिक्षु नहीं हैं, आजीवक' भिक्षु स्नान कर रहे हैं। विशाखा परिस्थिति समझ गई। बुद्ध जब भिक्षु-संघ के साथ उसके घर आए, उसने सारी घटना कह सुनाई और निवेदन किया'भन्ते ! नग्नत्व गहस्पिद और घृणास्पद है।'२ नियतिवाद की तरह गोशालक की एक अन्य मान्यता का नाम संसार-शुद्धिवाद है ; जिसके अनुसार चौदह लाख छासठ सौ प्रमुख योनियां हैं। पांच कर्म (पांच इन्द्रियों के) हैं। तीन कर्म (शरीर, वचन और मन) हैं । एक पूर्ण कर्म (शरीर या वचन की अपेक्षा से) है और एक अर्ध कर्म (मन की अपेक्षा से) है। बासठ मार्ग हैं । बासठ अन्तर कल्प हैं। छः अभिजातियां हैं। आठ पुरुष भूमियां, उनचास सौ व्यवसाय, उनचास सौ परिव्राजक, उनचास सी नाग-आवास, दो हजार इन्द्रियां, तीन हजार नरक, छत्तीस रजोधातु, सात संज्ञी गर्भ, सात असंज्ञी गर्भ, सात निर्ग्रन्थ गर्भ, सात देव, सात मनुष्य, सात पिशाच, सात सरोवर, सात सौ सात गांठ, सात सौ सात प्रताप, सात सौ स्वप्न हैं। चौरासी लाख महाकल्प हैं, जिनमें मूर्ख और पण्डित भ्रमण करते हुए सब दुःखों का अन्त करेंगे। यदि कोई कहे कि इस शील से इस व्रत से, इस तप से अथवा ब्रह्मचर्य से मैं अपरिपक्व कर्म को परिपक्व बनाऊंगा अथवा परिपक्व कर्म के फलों का उपभोग करके उसे नष्ट कर दूंगा, तो वह उससे नहीं हो सकेगा। इस संसार में सुख-दुःख इतने निश्चित हैं कि उन्हें परिमित द्रोणों (मापों) से मापा जा सकता है। उन्हें कम या अधिक नहीं किया जा सकता। जिस प्रकार कोई सूत का गोला फेंकने पर उसके पूरी तरह खुल जाने तक वह आगे बढ़ता जायेगा, उसी प्रकार बुद्धिमानों और मुखों के दुःखों का नाश तभी होगा, जब वे (संसार का) समग्र चक्र पूरा करके आयेंगे।" अवलोकन पूज्यता और उसका हेतु गोशालक के सिद्धान्त व विचार कुछ भी रहे हों, यह तो निर्विवाद ही है कि वे उस समय के एक बहुजन-मान्य और ख्याति-लब्ध धर्म-नायक थे। इनका धर्म-संघ भगवान् महावीर के धर्म-संघ से भी बड़ा था, यह जैन परम्परा भी मानती है।४ महावीर के दस श्रावकों की तरह इनके भी बारह प्रमुख श्रावक थे। बुद्ध का यह कथन भी कि "वह मछलियों की १. आजीव स्यामी प्रति में आजीविक पाठ है। २. अंगुत्तर निकाय अट्ठकथा, १-७-२। 3. Rhys Davids Dialogues of Buddha, Vol. I, pp, 72-3; cf. G.P. Malalasekara, Dictionary of Pali Proper Names, Vol. II, pp. 398-93 दीघ निकाय, १-५३; मज्झिम निकाय, १-२३१, २३८, ४३८, ५१६; संयुत्त निकाय, १.६६, ६८, ३.२११, ४-३६८; अंगुत्तर निकाय, १-३३, २८६, ३.२७६, ३८४; जातक, १-४३६, ५०६ । ४. अनुश्रुति के अनुसार गोशालक के श्रावकों की संख्या ११ लाख ६१ हजार थी, जबकि महावीर के श्रावकों की संख्या १ लाख ५६ हजार थी। (कल्पसूत्र, सू० १३६)। ५. भगवती सूत्र, शतक ८, उद्देशक ५। 2010_05 Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [ खण्ड : १ तरह लोगों को अपने जाल में फंसाता है" गोशालक के प्रभाव को ही व्यक्त करता है। प्रश्न होता है, वे चरित्र-संयम व साधना की दृष्टि से बुद्ध व महावीर जितने ऊंचे नहीं थे, तो आजीवक संघ इतना विस्तृत कैसे हो सका ? इसके सम्भावित कारण हैं- भविष्य सम्भाषण व कठोर तपश्चर्या । महावीर' व बुद्ध के संघ में निमित्त-सम्भाषण वर्जित था । गोशालक व उनके सहचारी इस दिशा में उन्मुक्त थे । पार्श्वनाथ के पार्श्वस्थ भिक्षु मुख्यतया निमित्त सम्भाषण से ही आजीविका चलाते थे । गोशालक को निमित्त सिखलाने वाले भी उन्हीं में से थे और वे ही उनके मुख्य सहचर थे तपश्चर्या भी आजीवक संघ की उत्कट थी । जैनआगम इसका मुक्त समर्थन करते हैं । बौद्ध निकाय भी गोशालक के तपोनिष्ठ होने की सूचना देते हैं । " गवेषकों की सामान्य धारणा भी इसी पक्ष में है । आचार्य नरेन्द्रदेव के अनुसार आजीवक पंचाग्नि तापते थे । उत्कटुक रहते थे । चमगादड़ की भांति हवा में झूलते थे । उनके इस कष्ट तप के कारण ही समाज में इनका मान था । लोग निमित्त, शकुन, स्वप्न आदि का फल इनसे पूछते थे । । बहुत सारी त्रुटियों के रहते हुए भी गोशालक का समाज में आदर पा जाना इसलिए अस्वाभाविक नहीं है कि तप और निमित्त दोनों ही भारतीय समाज के प्रधान आकर्षण सदा से रहे हैं। नाम और कर्म गोशालक के नाम और कर्म (व्यवसाय) के विषय में भी नाना व्याख्याएं मिलती हैं । जैन आगमों की सुदृढ़ और सुनिश्चित धारणा है ही कि गोशालक मंख करने वाले मंखलि नामक व्यक्ति के पुत्र थे । भगवती, उवासगदसाओ आदि आगमों में गोसाले मंखलीपुत्त अर्थात् गोशालक मंखलिपुत्र शब्द का प्रयोग हुआ है । यहां मंखलिपुत्र शब्द को गोशालक के एक परिचायक विशेषण के रूप में व्यवहृत किया गया है। मंख शब्द का अर्थ कहीं चित्रकार® व कहीं चित्र विक्रेता किया गया है, पर, वास्तविकता के निकट टीकाकार अभयदेवसूरि का यही अर्थ लगता है - चित्रफलकं हस्ते गतं यस्य स तथा —- तात्पर्य, जो चित्रपट्टक हाथ में रखकर आजीविका करता है । मंख एक जाति थी और उस जाति के लोग शिव या किसी देव का चित्रपट्ट हाथ में रखकर अपनी आजीविका चलाते थे । डाकोत १. णिसी हज्झयणम्, उ०१३-६६, दसवेयालिअ अ०८ गा० ५० । २. विनय पिटक, चुल्लवग्ग, ५-६-२ । श्लोक ३. आवश्यक पूर्णि, पत्र २७३ ; त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्रम्, पर्व १०, सर्ग ४, १३४-३५; तीर्थंकर महावीर, भा० २, पृ० १०३ । ४. आजीवियाणं चउव्विहे तवे पं० तं०- उग्ग तवे घोर तवे रसणिज्जूहणता जिब्भि दियपडिलीणता । -ठाणांग सूत्र, ५. संयुक्त निकाय १०, नाना तित्थिय सुत्त । ६. बौद्ध धर्म-दर्शन, पृ० ४ । ७. B. C. Law, Indological Studies, Vol. II, p. 254. ८. Dictionary of Pali Proper Names, Vol. II, p. 400. 2010_05 ठा० ४, उ० २, सू० ३०६ । Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा] गोशालक जाति के लोग आज भी 'शनि' देव की मूर्ति या चित्र पास रखकर आजीविका उपार्जित करते हैं। त्रिपिटक परम्परा में इस आजीवक नेता को मक्खलि गोशाल कहा गया है। मक्खलि नाम उसका क्यों पड़ा, इस सम्बन्ध में भी एक विचित्र-सी कथा बौद्ध परम्परा में प्रचलित है; जिसके अनुसार गोशालक दास था। एक बार वह तेल का घड़ा उठाये आगे-आगे चल रहा था और उसका मालिक पीछे-पीछे। आगे फिसलन की भूमि आई। उसके स्वामी ने कहातात ! मा खलि, तात! मा खलि "अरे ! स्खलित मत होना, स्खलित मत होना", पर, गोशालक स्खलित हुआ और तेल भूमि पर वह चला । वह स्वामी के डर से भागने लगा। स्वामी ने उसका वस्त्र पकड़ लिया। वह वस्त्र छोड़कर नंगा ही भाग चला। इस प्रकार वह नग्न साधु हो गया और लोग उसे 'मक्खलि' कहने लगे। यह कथानक बौद्ध परम्परा में भी बहुत उत्तरकालिक है; अतः उसका महत्त्व एक दन्तकथा या एक किंवदन्ती से अधिक नहीं आंका जा सकता। __व्याकरणाचार्य पाणिनि ने इसे मस्करी शब्द माना है। मस्करी शब्द का सामान्य अर्थ परिव्राजक किया है। भाष्यकार पतञ्जलि कहते हैं- “मस्करी वह साधु नहीं है, जो हाथ में मस्कर या बांस की लाठी लेकर चलता है। फिर क्या है ? मस्करी वह है, जो उपदेश देता है, कर्म मत करो। शान्ति का मार्ग ही श्रेयस्कर है। यहां गोशालक का नामग्राह उल्लेख भले ही न हो, पर, पाणिनि और पतञ्जलि का अभिप्राय असंदिग्ध रूप में उसी ओर संकेत करता है । लगता है, 'कर्म मत करो' की व्याख्या तब प्रचलित हुई, जब गोशालक समाज में एक धर्माचार्य के रूप में विख्यात हो चुके थे। हो सकता है, उन्होंने प्रचलित नाम की नवीन व्याख्या दी हो। जैन आगमों का अभिप्राय इस विषय में मौलिक लगता है। वे उसे मंखलि का पुत्र बताने के साथ-साथ गोशाला में उत्पन्न भी कहते हैं, जिसकी पुष्टि पाणिनि गोशालायां जातः गोशालः (४।३।३५) इस व्युत्पत्ति-नियम से करते हैं। आचार्य बुद्धघोष ने भी सामञफलसुत्त की टीका में गोशालक का जन्म गोशाला में हुआ माना है।४ पाणिनि का काल ई०पू० ४८० से ई०पू० ४१० का माना गया है। यदि वे अपने मध्य जीवन में भी व्याकरण की रचना करते हैं, तो उसका समय ई०पू० ४४५ के आसपास का होता है । महावीर का निर्वाण ई०पू० ५२७ में होता है और गोशालक का निधन इससे १६ वर्ष पूर्व अर्थात् ई०पू० ५४३ में होता है। तात्पर्य, गोशालक के शरीरान्त और पाणिनि के रचना-काल में लगभग १०० वर्ष का अन्तर आ जाता है। यह बहुत स्वाभाविक १. आचार्य बुद्ध घोष, धम्मपद अट्ठ कथा; १-१४३; मज्झिम निकाय, अट्ठ कथा; १-४२२ । २. मस्करं मस्करिणौ वेणुपरिव्राजकयोः। -पाणिनि व्याकरण, ६-१-१५४ । ३. न वै मस्करोऽस्यातीति मस्करी परिव्राजकः। किं तहि ? माकृत कर्माणि माकृत कर्माणि, शान्तिर्वः श्रेयसीत्याहातो मस्करी परिव्राजकः ।। --पातञ्जल महाभाष्य ६-१-१५४ । ४. सुमंगल विलासिनी, (दीघ निकाय अट्ठकथा) पृ० १४३-४४ । ५. वासुदेवशरण अग्रवाल, पाणिनिकालीन भारतवर्ष, पृ० ४७६ । ___ 2010_05 Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड:१ है कि किसी भी धर्म या सम्प्रदाय की साधारण व्युत्पत्तियां उसके उत्कर्ष काल में गुरुतामलक नवीन व्याख्याएं ले लेती हैं। सम्प्रदायों के इतिहास में इसके अनेक उदाहरण मिल सकते हैं। गोशालक की श्रमण-परम्परा को त्रिपिटकों में 'आजीवक' तथा आगमों में 'आजीविक' कहा गया है। दोनों ही शब्द एकार्थक से ही हैं । लगता है, प्रतिपक्ष के द्वारा ही यह नामनिर्धारण हुआ है। आजीवक व आजीविक शब्द का अभिप्राय है-आजीविका के लिए ही तपश्चर्या आदि करने वाला ।' आजीवक स्वयं इनका क्या अर्थ करते थे, यह कहीं उल्लिखित नहीं मिलता। हो सकता है, उन्होंने भिक्षाचरी के कठोर नियमों से आजीविका प्राप्त करने के श्लाघार्थ में इसे अपना लिया हो। जैन आगमों की तरह बौद्ध पिटकों में भी उनकी भिक्षाचरी-नियमों के कठोर होने का उल्लेख है । मज्झिमनिकाय के अनुसार उनके बहुत सारे नियम निर्ग्रन्थों के समान और कुछ एक नियम उनसे भी कठोर होते हैं। गोशालक का संसार-शुद्धिवाद आगमों और त्रिपिटकों में बहुत समानता से उपलब्ध होता है, जिसके उल्लेख पूर्ववर्ती सम्बन्धित प्रकरणों में आ चुका है। चौरासी लाख महाकल्प का परिमाण आगमों की सुपष्ट व्याख्या से मिलता है। डा. बाशम' ने इन सारे विषयों पर बहुत विस्तार से लिखा है। जैन और आजीवकों में सामीप्य जैन और आजीवकों के अधिकांश प्रसंग पारस्परिक भर्त्सना के सूचक हैं, वहाँ कुछ एक विवरण दोनों के सामीप्य सूचक भी हैं। उसका कारण दोनों के कुछ एक आचारों की समानता हो सकती है। नग्नत्व दोनों परम्पराओं में मान्य रहा है। दोनों परम्पराओं ने इन विशेषताओं को लेकर ही अन्य धार्मिकों की अपेक्षा एक दूसरे को श्रेष्ठ माना है। जैन आगम बतलाते हैं-तापस ज्योतिष्क तक, कांदर्पिक सौधर्म तक, चरक परिव्राजक ब्रह्मलोक तक, किल्विषिक लातक कल्प तक, तिर्यंच सहस्रार कल्प तक, आजीवक व आभियोगिक अच्युत कल्प तक, दर्शन-भ्रष्ट वेषधारी नवम अवेयक तक जाते हैं। यहां आजीवकों के मरकर १. देखें, भगवती सूत्र वृत्ति, शत० १, उ० २; जैनागम शब्द संग्रह, पृ० १३४; Hoernle, Ajivkas in Encyclopaedia of Religion and Ethics ; E.J. Thomas, Buddha, p. 130. २. महासच्चक सुत्त, १-४-६ । ३. The History and Doctrines of Alivakas. ४. तापस-स्वतः गिरे हुए पत्तों का भोजन करने वाले साधु; कान्दर्पिक-परिहास और कुचेष्टा करने वाले साधु; चरक परिव्राजक--डाका डालकर भिक्षा लेने वाले त्रिदण्डी तापस; कल्विषिक-चतुर्विध संघ तथा ज्ञानादिक के अवगुण बोलने वाले साधु आभियोगिक-विद्या, मन्त्र, वशीकरण आदि अभियोग-कार्य करने वाले साधु; दर्शन-भ्रष्ट-निह्नव। -भगवती सूत्र, शतक १, उ०२। ___ 2010_05 Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा] गोशालके बारहवें स्वर्ग तक पहुंचने का उल्लेख है, जबकि अन्य अधिक से अधिक पांचवें स्वर्ग तक ही रह गये हैं। एक अन्य प्रसंग में आजीवकों की भिक्षाचरी का श्लाघात्मक ब्यौरा देते हुए बताया गया है-"गांवों व नगरों में आजीवक साधु होते हैं। उनमें से कुछ दो घरों के अंतर से, कुछ तीन घरों के अंतर से यावत् सात घरों के अंतर से भिक्षा ग्रहण करते हैं।"१ । भगवती में आजीवक उपासकों के आचार-विचार का श्लाघात्मक ब्यौरा मिलता है। वहां बताया गया है-"वे गोशालक को अरिहन्त देव मानते हैं, माता-पिता की शुश्रूषा करते हैं, गूलर, बड़, बोर, अंजीर व पिलखु–इन पांच प्रकार के फलों का भक्षण नहीं करते, पलाण्डु (प्याज), लहसुन आदि कन्द-मूल का भक्षण नहीं करते, बैलों को निर्वांछन नहीं कराते, उनके नाक-कान का छेदन नहीं कराते व त्रस-प्राणियों की हिंसा हो, ऐसा व्यापार नहीं करते।" गोशालक ने छः अभिजातियों का निरूपण किया तथा विभिन्न प्रकार के प्राणियों व भिक्षुओं को तरतमता से बांटा। कृष्णअभिजाति-कसाई, आखेटक, लुब्धक, मत्स्य-घातक, चोर, लुण्टाक, कारागृहिक और इस प्रकार के अन्य क्रूर कर्मान्तक लोग । नील अभिजाति--कण्टकवृत्तिक भिक्षुक और अन्य कर्मवादी, क्रियावादी लोग। लोहित अभिजाति-एक शाटक (एक वस्त्रधारी) निर्ग्रन्थ । हरिद्रा अभिजाति- श्वेत वस्त्रधारी गृहस्थ व अचेलक (निर्ग्रन्थ) श्रावक । शुक्लअभिजाति-आजीवक और अनुयायी। महाशुक्ल अभिजाति-नन्द वत्स, कृश साँकृत्य और मक्खली गोशाल । यद्यपि इन अभिजातियों का वर्गीकरण एक रूप और सुस्पष्ट नहीं मिल रहा है, तो भी इस बात की सूचना तो सुस्पष्ट है ही कि आजीवकों ने भी अपने से दूसरा स्थान निगण्ठों को ही दिया था; जैसे कि निगण्ठों ने भी अपने से दूसरा स्थान आजीवकों को दिया। गुरु कौन ? इतिहास और शोध के क्षेत्र में तटस्थता आये, यह नितान्त अपेक्षित है। साम्प्रदायिक व्यामोह इस क्षेत्र से दूर रहे, यह भी अनिवार्य अपेक्षित है । पर, तटस्थता और नवीन स्थापना भी भयावह हो जाती है, जब वे एक व्यामोह का रूप ले लेती हैं। गोशालक के सम्बन्ध में १. अभिधान राजेन्द्र, भा॰ २, पृ० ११६ । २. शतक ८, उद्देशक ५। ३. कुछ लोग इन्हें पूरणकस्सप द्वारा अभिहित मानते हैं; पर, वस्तुत: यह गोशालक द्वारा प्रतिपादित होना चाहिए। विशेष विस्तार के लिए देखें, त्रिपिटकों में निगण्ठ व निगण्ठ नातपुत्त' प्रकरण के अंतर्गत 'छ अभिजातियों में निर्ग्रन्थ'। ४. अंगुत्तर निकाय, ६-६-५७; संयुत्त निकाय, २४-७-८ के आधार पर। ५. जैन आगम परिणाम और वर्ण की दृष्टि से प्राणियों को छः लेश्याओं में विभक्त करते हैं। देखें तुलनात्मक अध्ययन के लिए 'त्रिपिटकों में निगण्ड व निगण्ठ नातपुत्त' प्रकरण के अन्तर्गत 'छ अभिजातियों में निर्ग्रन्थ' । 2010_05 Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड : १ विगत वर्षों में गवेषणात्मक प्रवृत्ति बढ़ी है । आजीवक मत और गोशालक पर पश्चिम और पूर्व के विद्वानों ने बहुत कुछ नया भी ढूंढ़ निकाला है। पर, खेद का विषय है कि नवीन स्थापना के व्यामोह में कुछ विद्वान् गोशालक सम्बन्धी इतिहास को मूल से ही औंधे पैर खड़ा कर देना चाह रहे हैं। डा० वेणीमाधव बरुआ कहते हैं-''यह तो कहा ही जा सकता है कि जैन और बौद्ध परम्पराओं से मिलने वाली जानकारी से यह प्रमाणित नहीं हो सकता कि जिस प्रकार जैन गोशालक महावीर के दो ढोंगी शिष्यों में से एक ढोंगी शिष्य बताते हैं; वैसा वह था। प्रत्युत उन जानकारियों से विपरीत ही प्रमाणित होता है, अर्थात् मैं कहना चाहता हूं कि इस विवादग्रस्त प्रश्न पर इतिहासकार प्रयत्नशील होते हैं, तो उन्हें कहना ही होगा कि उन दोनों में एक दूसरे का कोई ऋणी है तो वास्तव में गुरु ही ऋणी है, न कि जैनों द्वारा माना गया उनका ढोंगी शिष्य।"१ डा० बरुआ ने अपनी धारणा की पृष्ठभूमि में यह भी माना है-“महावीर पहले तो पार्श्वनाथ के पंथ में थे, किंतु, एक वर्ष बाद जब वे अचेलक हुए, तब आजीवक पंथ में चले गये।"२ इसके साथ-साथ डा० बरुआ ने इस आधार को ही अपने पक्ष में गिनाया है कि गोशालक भगवान् महावीर से दो वर्ष पूर्व जिनपद प्राप्त कर चुके थे। ३ यद्यपि डा० बरुआ ने यह भी स्वीकार किया है कि ये सब कल्पना के ही महान् प्रयोग हैं ; ४ तो भी उनको उन कल्पनाओं ने किसी-किसी को अवश्य प्रभावित किया है। तदनुसार उल्लेख भी किया जाने लगा है और वह भी द्विगुणित होकर। गोपालदास जीवाभाई पटेल लिखते हैं-"महावीर और गोशालक ६ वर्ष तक एक साथ रहे थे; अतः जैन सूत्रों में गोशालक के विषय में विशेष परिचय मिलना ही चाहिए। भगवती, सूयगडांग, उवासगसाओं आदि सूत्रों में गोशालक के विषय में विस्तृत या संक्षिप्त कुछ उल्लेख मिलते हैं। किन्तु उन सबमें गोशालक को चरित्र-भ्रष्ट तथा महावीर का एक शिष्य ठहराने का इतना अधिक प्रयत्न किया गया लगता है कि सामान्यतया ही उन उल्लेखों को आधारभूत मानने का मन नहीं रह जाता। गोशालक के सिद्धान्त को यथार्थ रूप से रखने का यथाशक्ति प्रयत्न वेणीमाधव बरुआ ने अपने ग्रन्थ५ में किया है ।"६ धर्मानन्द कोसम्बी प्रभृति ने भी इसी प्रकार का आशय व्यक्त किया है। लगता है, इस धारणा के मूल उन्नायक डा० हर्मन जेकोबी रहे हैं । तदनन्तर अनेक लोग इस पर लिखते ही गये। डा० बाशम ने अपने महानिबन्ध आजीवकों का इतिहास और सिद्धान्त में इस विषय पर और भी विस्तार से लिखा है। यह सब इस मनोवृत्ति का सूचक है कि किसी एक पश्चिमी विद्वान् ने लिख दिया, तो अवश्य वह महत्त्वपूर्ण है ही। यह सुविदित है कि गोशालक-सम्बन्धी जो भी तथ्य उपलब्ध हैं, वे जैन और बौद्ध परम्परा से ही सम्बद्ध हैं। उन आधारों पर ही हम गोशालक का समग्र जीवन-वृत्त निर्धारित करते हैं। जैन और बौद्ध १. The Ajivikas, JDL.. vol., II. 1920, pp. 17-18. २. बही, पृ०१८। ३. वही, पृ० १८। ४. वही, पृ० २१। ५. Pre-Buddhistic, Indian Philosophy, pp. 297-318. ६. महावीर स्वामी नो संयम धर्म, (सूत्रकृतांग का गुजराती अनुवाद) पृ० ३४ । ७. S. B.E., vol. XLV, introduction, pp. XXIX to XXXII. ____ 2010_05 Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा] गोशालक परम्पराओं से हटकर यदि हम खोजने बैठे, तो संभवतः हमें गोशालक नामक कोई व्यक्ति ही न मिले। ऐसी स्थिति में एतदविषयक जैन और बौद्ध आधारों को भले ही वे किसी भाव और भाषा में लिखे गए हों, हमें मान्यता देनी ही होती है। कुछ आधारों को हम सहीं मान लें और बिना किसी हेतु के ही कुछ एक को असत्य मान लें; यह ऐतिहासिक पद्धति नहीं हो सकती। वे आधार निर्हेतुक इसलिए भी नहीं माने जा सकते कि जैन और बौद्ध, दो विभिन्न परम्पराओं के उल्लेख इस विषय में एक दूसरे का समर्थन करते हैं। डा० जेकोबी ने भी तो परामर्श दिया है-"अन्य प्रमाणों के अभाव में हमें इन कथाओं के प्रति सजगता रखनी चाहिए।" तथारूप निराधार स्थापनाएं बहुत बार इसलिए भी आगे-से-आगे बढ़ती जाती हैं कि वर्तमान गवेषक मल की अपेक्षा टहनियों का आधार अधिक लेते हैं। प्राकृत व पालि की अनभ्यास दशा में वे आगमों और त्रिपिटकों का सर्वाङ्गीण अवलोकन नहीं कर पाते और अंग्रेजी व हिन्दी प्रबन्धों के एकांगी पुराने उनके सर्वाधिक आधार बन जाते हैं। यह देखकर तो बहुत ही आश्चर्य होता है कि शास्त्र-सुलभ सामान्य तथ्यों के लिए भी विदेशी विद्वानों व उनके ग्रन्थों के प्रमाण दिए जाते हैं। जैन आगमों के एतद्विषयक वर्णनों को केवल आक्षेपात्मक समझ बैठना भूल है। जैन आगम जहां गोशालक व आजीवक मत की निम्नता व्यक्त करते है, वहां वे गोशालक को अच्युत कल्प तक पहुंचाकर, उन्हें मोक्षगामी बतला कर और उनके अनुयायी भिक्षुओं को वहां तक पहुँचने की क्षमता प्रदान कर उन्हें गौरव भी देते हैं। गोशालक के विषय में-वह गोशाला में जन्मा था, वह मंख था, वह आजीवकों का नायक था आदि बातों को हम जैन आगमों के आधार से माने और जैनागमों की इस बात को कि वह महावीर का शिष्य था; निराधार ही हम यों कहें कि वह महावीर का गुरु था, बहुत ही हास्यास्पद होगा। यह तो प्रश्न ही तब पैदा होता, जब जैन आगम उसे शिष्य बतलाते और बौद्ध व आजीविक शास्त्र उसके गुरु होने का उल्लेख करते। स्थिति तो यह है कि महावीर के सम्मुख गोशालक स्वयं स्वीकार करते हैं कि "गोशालक तुम्हारा शिष्य था, पर, मैं वह नहीं हूँ। मैंने तो उस मृत गोशालक के शरीर में प्रवेश पाया है। यह शरीर उस गोशालक का है, पर, आत्मा भिन्न है।" इस प्रकार विरोधी प्रमाण के अभाव में ये कल्पनात्मक प्रयोग नितान्त अर्थ शून्य ही ठहरते हैं। यह प्रसन्नता की बात है कि इस निराधार धारणा के उठते ही अनेक गवेषक विद्वान् इसका निराकरण भी करने लगे हैं। आजीवक अब्रह्मचारी आजीवक भिक्षुओं के अब्रह्म-सेवन का उल्लेख आर्द्रककुमार प्रकरण में आया है, इसे भी कुछ एक लोग नितान्त आक्षेप मानते हैं। केवल जैन आगम ही ऐसा कहते, तो यह १. ilaid, p. XXXIII. २. डा० कामताप्रसाद, वीर; वर्ष ३, अंक १२-१३; चीमनलाल जयचन्द शाह, उत्तर हिन्दुस्तान मां जैन धर्म, पृ० ५८ से ६१, डा० ए० एस० गोपानी Ajivika SectA New Interpretation, भारतीय विद्या, खण्ड २, पृ० २०१-१०; खण्ड ३, पृ०४७-५६। ३. महावीर स्वामी नो संयम धर्म पृ० ३४ । ____ 2010_05 Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४० आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड : १ सोचने का आधार बनता, पर, बौद्ध शास्त्र भी आजीवकों के अब्रह्म-सेवन की मुक्त पुष्टि करते हैं।' निग्गण्ठ ब्रह्मचर्यवास में और आजीवक अब्रह्मचर्यवास में गिनाए भी गए हैं। गोशालक कहते थे, तीन अवस्थाएं होती हैं-बद्ध, मुक्त और न बद्ध न मुक्त। वे स्वयं को मुक्त-कर्म-लेप से परे मानते थे। उनका कहना था, मुक्त पुरुष स्त्री-सहवास करे, तो उसे भय नहीं। ये सारे प्रसंग भले ही उनके आलोचक सम्प्रदायों के हों, पर, आजीवकों की अब्रह्मविषयक मान्यता को एक गवेषणीय विषय अवश्य बना देते हैं। एक दूसरे के पोषक होकर ये प्रसंग अपने-आप में निराधार नहीं रह जाते । इतिहासविद् डा० सत्यकेतु ने गोशालक के भगवान् महावीर से होने वाले तीन मतभेदों में एक स्त्री-सहवास बताया है। कुल मिलाकर कहा जा सकता है, आजीवकों को जैन आगमों का अब्रह्म के पोषक बतलाना आक्षेप मात्र ही नहीं है और कोई सम्प्रदाय-विशेष ब्रह्मचर्य को सिद्धान्त रूप से मान्यता न दे, यह भी कोई अनहोनी बात नहीं है । भारतवर्ष में अनेक सम्प्रदाय रहे हैं, जिनके सिद्धान्त त्याग और भोग के सभी सम्भव विकल्पों को मानते रहे हैं। हम अब्रह्म की मान्यता पर ही आश्चर्यान्वित क्यों होते हैं ? उन्हीं धर्मनायकों में अजित केसकम्बली जैसे भी थे, जो आत्म-अस्तित्व भी स्वीकार नहीं करते थे। यह भी एक ही प्रश्न है कि ऐसे लोग तपस्या क्यों करते थे। अस्तुः नवीन स्थापनाओं के प्रचलन में और प्रचलित स्थापनाओं के निराकरण में बहुत ही जागरूकत और गम्भीरता अपेक्षित है । १. Ajivakas, vol. I; मज्झिम निकाय, भाग १, पृ० ५१४; Dr. Hoernle, ___Encyclopaedia of Religion and Ethics, p. 261. २. मज्झिम निकाय, सन्दक सुत्त, २-३-६ . ३. गोपालदास पटेल, महावीर कथा, पृ० १७७; श्रीचन्द रामपुरिया, तीर्थंकर वर्धमान पृ०८३। ४. भारतीय संस्कृति और उसका इतिहास, पृ० १६३ । ____ 2010_05 Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काल-निर्णय मनुष्य स्वभाव से ही जिज्ञासाशील प्राणी है । जिज्ञासा से ज्ञान बढ़ता है और ज्ञान से जिज्ञासा बढ़ती है। ज्ञान और जिज्ञासा का यही क्रम जीवन का निःसीम आनन्द है। ज्ञान और जिज्ञासा का यही युग्म सत्य-प्राप्ति का अविकल सोपान है। इतिहास के प्रथम दृष्टिपात में भगवान् महावीर व बुद्ध एक प्रतीत हुए' व कुछ विद्वानों ने प्रथम गणधर गौतम स्वामी को ही गौतम बुद्ध माना । २ जिज्ञासा के दो डगों ने स्पष्ट कर दिया, वे एक ही काल में होने १. S. B. E., vol. XXII, introduction, p. XV. P. According to the Jains, the chief disciple of their Tirthankara Mahavira was called Gautama Swami or Gautama Indrabhuti (Ward, Hindus, p. 247 and Colebrooke's Essays, vol. II, p. 279) whose identity with Gautam Budha was suggested by both Dr. Hamilton and Major Delamaine and was accepted by Colebrooke. This is what Colebrooke says in his Essays, vol. II, p. 276 :-"In the Kalpa Sutra and in other books of the Jains. the first of Mahavira's disciples is mentioned under the name of Indra bhuti, but in the inscriptions under that of Gautam Swami. The names of the other ten precisely agree. Whence it is to be concluded that Gautama, the first one of the first list, is the same with the Indrabhuti, first of the second list. It is certainly probable, as remarked by Dr. Hamilton and Major Delamaine that the Gautama of the Jains and Gautama of Buddhas is the same personage." Two of eleven disciples of Mahavira survived him viz. Sudharma and Gautama. Sudharma's spiritual successors are the Jain priests, whereas the Gautam's followers are the Buddhis. - Manmathnath Shastri, M.A., M. R. A.S., Budha: His Life, His Teachings His Order, 1910 (second edition), pp. 21-22. ___ 2010_05 Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड : १ वाले दो महापुरुष थे, जो क्रमश: ७२ व ८० वर्ष इस घरातल पर विद्यमान रहे ।' जिज्ञासा का अगला कदम उठा-उनकी समसामयिकता कितने वर्षों की थी और उनमें वयोमान की दृष्टि से छोटे और बड़े कौन थे ? इस ओर भी अनेक चिन्तकों का ध्यान बँटा है और अब तक अनेक महत्त्वपूर्ण प्रयत्न इस दिशा में हुए हैं । विषय बहुत कुछ स्पष्ट हुआ है, पर, निर्विवाद नहीं । आगमों, त्रिपिटकों व इतिहास के परस्पर विरोधी प्रतीत होने वाले प्रसंगों ने विचारकों को नाना निर्णयों पर पहुँचा दिया है। पिछले प्रयत्नों का वर्गीकरण, उनकी समीक्षा तथा अपने स्वतंत्र चिन्तन से प्रस्तुत प्रकरण को एक असंदिग्ध स्थिति तक पहुंचाना नितान्त अपेक्षित है। डा० जेकोबी सर्वप्रथम और महत्त्वपूर्ण प्रयत्न इस दिशा में डा० हरमन जेकोबी का रहा है। डा. मैक्समूलर द्वारा सम्पादित पूर्व के पवित्र ग्रन्थ (Sacred Books of the East) नामक ४० खण्डों की सुविस्तत ग्रन्थमाला के अन्तर्गत खण्ड २२ तथा खण्ड ४५ के अनुवादक डा० जेकोबी रहे हैं। खण्ड २२ में आचारांग और कल्प तथा खण्ड ४५ में उत्तराध्ययन व सूत्रकृतांग-ये चार आगम हैं। डा० जेकोबी ने जैन धर्म को और भी उल्लेखनीय सेवायें दी हैं। २३वें तीर्थङ्कर भगवान पार्श्वनाथ को ऐतिहासिक पुरुषों की कोटि में लाने का श्रेय भी उनको ही है।२ इतिहास के क्षेत्र में जो यह भ्रम था कि जैन-धर्म बौद्ध-धर्म की ही ए शाखा मात्र है, उसका निराकरण भी मुख्यतः डा. जेकोबी के द्वारा ही हुआ है। उन्होंने जन परम्पराओं के साक्षात् दर्शन की दृष्टि से दो बार भारतवर्ष की यात्राएं भी की थीं। अनेक जैन आचार्यों से उनका यहां साक्षात् सम्पर्क हुआ था। डा० जेकोबी ने भगवान् महावीर और बुद्ध के निर्वाण-प्रसंग की मुख्यतया दो स्थानों पर चची की है और वे दोनों चर्चायें एक दूसरे से सर्वथा विपरीत हैं। एक समीक्षा में उन्होंने भगवान् महावीर को पूर्व-निर्वाण-प्राप्त और भगवान् बुद्ध को पश्चात्-निर्वाण-प्राप्त प्रमाणित किया है, तो दूसरी समीक्षा में भगवान् बुद्ध को पूर्व-निर्वाण-प्राप्त और भगवान् महावीर को पश्चात्-निर्वाण-प्राप्त प्रमाणित किया है। १. कल्पसूत्र, १४७ तथा दीघ निकाय, महापरिनिव्वाण सुत्त, २-३-१६ । P. S. B. E., vol. XLV, introduction to Jaina Sutras, vol. II, p. 21, 1894. ३. S. B. E., vol. XXII introduction to Jaina Sutras, vol. I, pp. 9-19 1884. ४. सन् १९१४, मार्च में उनकी दूसरी भारत-यात्रा हुई थी। लाडनूं में तेरापंथ के अष्टमाचार्य श्री कालगणी के साथ उनका तीन दिनों का महत्त्वपूर्ण सम्पर्क रहा। 2010_05 Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा] प्रथम समीक्षा उनकी पहली समीक्षा आचारांग सूत्र की भूमिका ( ई० १८८४ ) में है। वहां वे महावीर और बुद्ध के जीवन-प्रसंगों का उल्लेख करते हुए लिखते हैं: "यहां हमें महावीर और बुद्ध के 'मुख्य-मुख्य जीवन-संस्मरणों को सामने लाकर उनके अन्तर को समझना है । बुद्ध कपिलवस्तु में जन्मे थे, महावीर वैशाली के समीपवर्ती किसी एक ग्राम में । बुद्ध की माता का बुद्ध के जन्म के बाद देहान्त हो गया, महावीर के माता-पिता महावीर की युवावस्था तक जीवित थे। बुद्ध अपने पिता के जीवनकाल में ही और पिता की इच्छा के विरुद्ध साधु बन गए थे, महावीर अपने माता-पिता की मृत्यु के बाद अपने बड़ों की आज्ञा लेकर साधु बने थे । बुद्ध ने ६ वर्ष तक तपस्यामय जीवन बिताया, महावीर ने १२ वर्ष तक । बुद्ध ने सोचा कि मैंने इतने वर्ष व्यर्थ गंवाये और ये सब तपस्यायें मेरे ध्येय की प्राप्ति के लिए निरर्थक निकलीं, महावीर को तपस्या की आवश्यकता सत्य लगी और उन्होंने तीर्थङ्कर बनने के पश्चात् भी उनमें से कुछ एक को रख छोड़ा। मंखलिपुत्र गोशालक महावीर के विरोधियों में जितना प्रमुख है, उतना बुद्ध के विरोधियों में नहीं है तथा जमाली जो कि जैनधर्म-संघ में प्रथम निह्न हुआ, बुद्ध के साथ कहीं नहीं पाया जाता । बुद्ध के सभी शिष्यों के नाम महावीर के शिष्यों के नाम से भिन्न हैं । इन असमानताओं की गणना के अन्त में, बुद्ध का निर्वाण काल-निर्णय 2010_05 ?. We shall now put side by side the principal events of Buddha's and Mahavira's lives, in order to demonstrate their difference. Buddha was born in Kapilvastu, Mahavira in village near Vaishali; Buddha's mother died after his birth, Mahavira's parents lived to see him a grown up man; Buddha truned ascetic during the lifetime and against the will of his father, Mahavira did so after the death of his parents and with the consent of those in power; Buddha led a life of austerities for six years, Mahavira for twelve ; Buddha thought these years wasted time, and that all his penances were useless for attaining his end, Mahavira was convinced of the necessity of his penances and preseved in some of then even after becoming a Tirthankara. Amongst Buddha's opponents Gosala Makkhaliputra is by no means so prominent as amongst Mahavira's nor among the former do we neet Jamali who caused the first schism in Jaina Church. All the disciples of Buddha bear other names than those of Mahavira. To finish this enumeration of differences, Buddha died in Kusinagara, whereas Mahavira died in Papa, avowedly before the former. —S. B. E., vol. XXII, introduction, pp. XXVII-XXVIII ४३ Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन खण्ड : १ कुशीनगर में हुआ जबकि महावीर का निर्वाण पावा में और वह भी निश्चित रूप से बुद्ध के निर्वाण से पूर्व ।" डा० जेकोबी ने यहां जरा भी स्पष्ट नहीं किया है कि उनकी यह धारणा किन प्रमाणों पर आधारित है और न उन्होंने यहाँ यह भी समीक्षा की है कि महावीर और बुद्ध के जन्म और निर्वाण कब हुए थे । अतः उक्त विवरण से यह पता लगाना कठिन होता है कि उनकी इस धारणा से महावीर और बुद्ध की समसामयिकता कितनी थी। महावीर का निर्वाण-काल उनके द्वारा अनूदित जैन सूत्रों के दोनों खण्डों की भूमिकाओं के अवान्तर प्रसंगों से यह भी भली-भांति प्रमाणित होता है कि उन्होंने भगवान् महावीर का निर्वाण ई० पू० ५२६ में माना था। वे लिखते हैं : “जैनों की यह सर्वसम्मत मान्यता है कि जैन सूत्रों की वाचना वल्लभी में देवद्धि (क्षमा-श्रमण) के तत्त्वावधान में हुई । इस घटना का समय वीरनिर्वाण से ६८० (या ६६३) वर्ष बाद का है, अर्थात् ४५४ (या ४६७) ईस्वी का है ; जैसा कि कल्पसूत्र (गाथा १४८) में ही बताया गया है।" इस उद्धरण से यह स्पष्ट हो जाता है कि डा. जेकोबी ने वार-नवाण का समय ई० पू० ५२६ का माना है, क्योंकि ५२६ में ४५४ और ४६८ जोड़ने पर ही क्रमशः ९८० और ९६३ वर्ष होते हैं । उनके द्वारा अनूदित दूसरे खण्ड की भूमिका में जो कि पहले खण्ठ की भूमिका से दस वर्ष बाद (ई० १८९४) लिखी गई है, उन्होंने इसी तथ्य को प्रसंगोपात्त फिर दोहराया है । २ उसी भूमिका में एक प्रसंग और मिलता है, जो कि ई० पू० ५२६ की निर्विवाद पुष्टि करता है । वे लिखते हैं : “कौशिक गोत्री छलुय रोहगुत्त ने, जो कि जैन-धर्म का छठा निह्नव था, वीर-निर्वाण के ५४४ वर्ष बाद अर्थात् ई० १८ में त्रैराशिक मत की स्थापना की।" यहां पर भी ५४४ में से ५२६ बाद देने पर ही ई० सन् १८ का समय आता है । 2. The redaction of the Jaina's canon or the siddhanta took place according to the unanimons tradition, in the council of Vallabhi, under the presidency of DEVARDDHI. The date of this event 980 (or 993) A.V., corresponding to 454 (or 467) A. D. incorpcrated in the Kalpasutra (148)... —S, B. E., vol. XXII, introduction, p. XXXVII, २. S. B. E., vol. XLV, introduction, p. XL. ३. Khaluya Rohagutta of the Kausika Gotra, with whom origina. ted the sixth Schism of the Jainas, the Trairasikamatam in 544. A.V. (18 A.D.) -S.B.E. vol. XLV, introduction, p. XXXVII. ___ 2010_05 Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा काल-निर्णय बुद्ध का निर्वाण-काल इसी प्रकार बुद्ध के विषय में भी डा० जेकोबी ने अपनी इन भूमिकाओं में जन्म और निर्वाण के सम्बन्ध में कोई स्पष्ट काल व्यक्त नहीं किया है। परन्तु उन्हीं भूमिकाओं में अन्य प्रसंगों से जो कुछ उन्होंने लिखा है, उनसे उनकी बुद्ध के जन्म और निर्वाण-काल-सम्बन्धी धारणा भी व्यक्त हो जाती है । जैसे कि वे मैक्स मूलर का उद्धरण देते हुए लिखते हैं; "बौद्ध शास्त्रों के लिखे जाने की अन्तिम तिथि ई०पू० ३७७ थीं, जिस समय कि बौद्धों की दूसरी संगीति हुई थी।" यह सर्व-सम्मत धारणा है कि यह संगीति बुद्ध निर्वाण के १०० वर्ष बाद वैशाली में हुई थी। फलित यह होता है कि बुद्ध-निर्वाण का समय ई० पू० ४७७ ठहरता है। महावीर और बुद्ध की निर्माण-तिथि डा. जेकोबी उस समय की धारणा के अनुसार यदि ये ही रही हों, तो महावीर बुद्ध से ४१ वर्ष ज्येष्ठ हो जाते हैं । डा० जेकोबी की दूसरी समीक्षा डा० जेकोबी की एतद्विषयक चर्चा का दूसरा स्थल 'बुद्ध और महावीर का निर्वाण' नामक उनका लेख है। यह लेख उन्होंने जर्मनी की एक शोध-पत्रिका के २६वें भाग में सन् १९३० में लिखा था। इस लेख का गुजराती अनुवाद भारतीय विद्या नामक शोध पत्रिका के सन् १९४४, वर्ष ३, अंक १, जुलाई में प्रकाशित हुआ था और उसका हिन्दी अनुवाद श्री कस्तूरमल बांठिया द्वारा संग्रहीत होकर श्रमण के सन् १९६२, वर्ष 13, अंक ६-७ में प्रकाशित हुआ था। डा० जेकोबी के इस लेख का निष्कर्ष है कि बुद्ध का निर्वाण ई० पू० ४८४ में हुआ था तथा महावीर का निर्वाण ई० पू० ४७७ में हुआ था। तात्पर्य, महावीर बुद्ध से ७ वर्ष बाद निर्वाण को प्राप्त हुए और आयु में उनसे १५ वर्ष छोटे थे। $. The latest date of a Buddhist canon is the time of the second council 377 B. C. S. B. E., vol. X, p. XXXII, in S. B. E. vol. XXII, p. XLII. २. देखें-विनयपिटक, चुल्लवग्ग, १२ : १-६; राहुल सांकृत्यायन, बुद्धचर्या पृ० ५५६, H. C. Raychaudhuri, Political History of Ancient India, Sixth Edition. 1953, p. 228;आजकल का वाषिक अंक "बौद्ध धर्म के २५०० वर्ष में चार बौद्ध परिषदें" नामक भिक्षु जिनान्द का लेख, पृ० ३०। भगवान् महावीर भगवान् बुद्ध निर्वाण ई० पू० ५२६। निर्वाण ई०पू०४७७ आयु ७२ वर्ष। आयु ८० वर्ष। अत: जन्म ई० पू० ५६८। अतः जन्म ई० पू० ५५७ ॥ इस प्रकार ५६८-५५७ = ४१ वर्ष । ४. श्रमण, वर्ष १३, अंक ६, पृष्ठ १० । ३ 2010_05 Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड : १ अन्तिम लेख श्री कस्तूरमल बांठिया के कथनानुसार डा० जेकोबी का यह अन्तिम लेख है और इसमें एतद्विषयक अपनी परिवर्तित धारणा उन्होंने व्यक्ति की है। आश्चर्य यह कि डा० जेकोबी ने 'बुद्ध और महावीर का निर्वाण' इस सुविस्तृत लेख में यह कहीं भी चर्चा नहीं की कि उनका एतद्विषयक अभिमत पहले यह था और अब यह है तथा वह इन कारणों से परिवर्तित हुआ है। उन्होंने तो केवल अपने लेख के प्रारम्म में कहा है : “एक पक्ष यह कहता है, परम्परा से चली आ रही और प्रमाणों द्वारा प्रस्थापित इतिहास की धारणा के अनुसार गौतम बुद्ध महावीर से कितने ही वर्ष पूर्व निर्वाण-प्राप्त हो गए थे। दूसरा पक्ष यह कहता है, बौद्ध शास्त्रों में जो उल्लेख मिलते हैं, उनसे यह जाना जाता है कि महावीर बुद्ध से थोड़े ही समय पूर्व कदाचित् निर्वाण-प्राप्त हुए थे। इस प्रत्यक्ष दीखने वाले विरोध में सत्य क्या है, इसी शोध के लिए यह लेख लिखा जा रहा है।"२ यहां यह ध्यान देने की बात है कि अपने प्राक्तन मत को अपने अनूदित ग्रन्थ की भूमिकाओं में वे लिख चुके थे और उनके सामने वे प्रकाशित होकर भी आ गई थीं; फिर भी प्रस्तुत निबन्ध में वे अपनी उस अभिव्यक्ति का सोल्लेख निराकरण नहीं करते; यह क्यों ? हो सकता है, किन्हीं परिस्थितियों में ऐसा हो गया हो। यहां हमें उसकी छानबीन में नहीं जाना है। यहां तो हमें यही देखना है कि उन्होंने अपने इस अभिनव मत को किन आधारों पर सुस्थिर किया है तथा वे आधार कहां तक यथार्थ हैं। डा० जेकोबी एक गम्भीर समीक्षक थे, इसमें कोई सन्देह नहीं। किसी भी तथ्य को नाना कसौटियों पर कसते रहना तो किसी भी सत्य-मीमांसक का अपना कार्य है ही। डा० जेकोबी के लेख का सार उक्त लेख को आद्योपांत पढ़ जाने से स्पष्ट लगने लगता है कि यह लेख केवल बुद्ध और महावीर की निर्वाण-तिथियों के सम्बन्ध से ही नहीं लिखा गया। लेख का एक प्रमुख ध्येय तात्कालिक राजनैतिक स्थितियों पर भी प्रकाश डालना है। उनके मूल लेख का शीर्षक 'बुद्ध और महावीर का निर्वाण एवं उनके समय की मगध की राजकीय स्थिति' भी यही संकेत करता है। निर्वाण-तिथियों के सम्बन्ध में जितना उन्होंने लिखा है, वह भी विषय को निर्णायक स्थिति तक पहुँचाने के लिए अपर्याप्त ही नहीं, कुछ अस्वाभाविक भी है। डा० जेकोबी का बुद्ध को बड़े और महावीर को छोटे मानने में प्रमुख प्रमाण यह है कि चेटक, कोणिक (अजातशत्रु) आदि का युद्ध-सम्बन्धी विवरण जितना बौद्ध-शास्त्रों में मिलता है, जैन-आगमों में उससे आगे का भी मिलता है । बौद्ध-शास्त्रों में अजातशत्रु का अमात्य वस्सकार बुद्ध के पास वज्जियों के विषय की योजना ही प्रस्तुत करता है, तो जैन-आगमों में चेटक और कोणिक के महाशिलाकंटक और रथमुशलसंग्राम व वैशाली-प्राकार-भंग तक का स्पष्ट विवरण १. श्रमण, वर्ष १३, अंक ६, पृ० ६ ; श्री बांठिया द्वारा लिखित-लेख की पूर्व पीठिका। २. श्रमण, वर्ष १३, अंक ६, पृष्ठ ६, १०। ____ 2010_05 Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा ] काल-निर्णय ४७ मिलता है। उनका कहना है : -"इससे यही प्रमाणित होता है कि महावीर बुद्ध के बाद कितने ही ( सम्भवत: ७ वर्ष) अधिक वर्ष जीवित रहे ।" " -: शास्त्र संग्राहकों ने तात्कालिक स्थितियों का कितना-कितना अंश शास्त्रों में संगृहीत किया, यह उसके चुनाव और उनकी अपेक्षाओं पर आधारित था । यदि ऐसा हुआ भी हो कि बौद्ध संग्राहकों की अपेक्षा जैन संग्राहकों ने कुछ अधिक या परिपूर्ण संकलन किया हो, तो भी इस बात का प्रमाण नहीं बन जाता कि महावीर बुद्ध के बाद भी कुछ वर्ष तक जीवित रहे थे, इसीलिए ऐसा हुआ है । डा० जेकोबी के मतानुसार यदि जैन आश्रम कोणिक-सम्बन्धी विवरणों पर अधिक प्रकाश डालते हैं, तो उसका यह स्वाभाविक और संगत कारण है कि कोणिक जैन-धर्म का वरिष्ठ अनुयायी रहा है । ' डा० जेकोबी ने तो अर्थान्तर से ही अनुमान बांधा है, जब कि बौद्ध शास्त्रों में 'बुद्ध से पूर्व महावीर का निर्वाण हुआ' ऐसे अनेक स्पष्ट और ज्वलन्त उल्लेख मिलते हैं और जैन आगमों में बुद्ध की मृत्यु का कहीं नामोल्लेख ही नहीं मिलता। ऐसी परिस्थिति में स्वाभाविक निष्कर्ष तो यह होता है कि जैन शास्त्र बुद्ध की मृत्यु के सम्बन्ध में कोई उल्लेख नहीं देते और बौद्ध शास्त्रों में 'भगवान् महावीर की मृत्यु भगवान् बुद्ध की मृत्यु से पूर्व हुई', ऐसा स्पष्ट उल्लेख देते हैं, तो महावीर पूर्व-निर्वाण प्राप्त और बुद्ध पश्चात् निर्वाण प्राप्त थे । डा० जेकोबी के लेख में सबसे लचीली बात तो यह है कि उन्होंने अपने दुरान्वयो अर्थ को सुस्थिर रखने के लिए महावीर के पूर्व निर्वाण सम्बन्धी बौद्ध शास्त्रों में मिलने वाले तीन प्रकरणों को अयथार्थ प्रमाणित करने का प्रयत्न किया है। उनका कहना है - ये प्रकरण भिन्न-भिन्न स्थानों में भिन्न-भिन्न प्रकार से मिलते हैं; अतः ये अयथार्थ हैं । साथ-साथ वे यह भी कहते हैं—इन तीनों प्रकरणों के भिन्न होते हुए भी तीनों का उद्देश्य तो एक ही है कि महावीर से निर्वाण-प्रसंग को लक्ष्य कर अपने भिक्षु संघ को एकता और प्रेम का संदेश देना । ध्यान देने की बात यह है कि उक्त तीनों प्रकरणों की भूमिका यत्किंचित् भिन्न भले ही हो, पर महावीर - निर्वाण के विषय में तीनों ही प्रकरण सर्वथा एक ही बात कहते हैं । भूमिकाएं शास्त्र संग्राहक किसी भी शैली से गढ़ सकते हैं, पर जीवित महावीर को भी वे निर्वाण प्राप्त महावीर कह सकते हैं, यह सोचना सर्वथा असंगत होगा । महावीर का निर्वाण किस पावा में ? डा० जेकोबी ने इस सम्बन्ध में एक अन्य तर्क भी उपस्थित किया है कि बौद्ध शास्त्रों महावीर का निर्वाण जिस पावा में कहा है, वह पावा शाक्य भूमि में थी और वहाँ बुद्ध ने अपने अन्तिम दिनों में प्रवास किया था ; जब कि जैनों की पारम्परिक मान्यता के अनुसार १. श्रवण, वर्ष १३, अंक ७ पृ० ३५ । २. विस्तार के लिए देखें, 'अनुयायी राजा' प्रकरण के अन्तर्गत, 'अजातशत्रु कूणिक ।' ३. इन तीनों प्रकरणों की विस्तृत समीक्षा के लिए देखें, इसी प्रकरण के अन्तर्गत 'निर्वाण प्रसंग' | 2010_05 Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [ खण्ड : १ महावीर का निर्वाण पटना जिले के अन्तर्गत राजगृह के समीपस्थ पावा में हुआ था । अतः जिस प्रकार पावा काल्पनिक है, उसी तरह महावीर के निर्वाण की बात भी काल्पनिक हो सकती है । डा० जेकोबी का यह भी कहना है : "महावीर के मृत्यु-स्थान-विषयक जैनों की परम्परा के विषय में शंका करना उचित नहीं है ।" ४८ बौद्धों ने जिस पावा का उल्लेख किया है, मान लें कि नाम-साम्य के कारण उन्होंने वह भूल कर दी । ऐसी भूलों का होना असम्भव नहीं है । पर इसका तात्पर्य यह नहीं होता कि निर्वाण की बात ही सारी मनगढ़ंत है । वस्तुस्थिति तो यह है कि डा० जेकोबी ने जैन परंम्परा में मान्य जिस पावा के विषय में शंका उपस्थित करने की भी वर्जना की है, ऐतिहासिक आधारों पर वह शंकास्पद ही नहीं, निराधार ही बन जाने लगी है । परम्परा और इतिहास में बहुघा आकाश-पाताल का अन्तर पड़ जाता है। महावीर का जन्म-स्थान भी परम्परागत रूप से लिछूयाड़ के निकटस्थ क्षत्रियकुण्ड माना जाता है । पर वर्तमान इतिहास की शोध ने उसे नितान्त अप्रमाणित कर दिया है। ऐतिहासिक धारणा के अनुसार तो महावीर का जन्म स्थान पटना से २७ मील उत्तर में मुजफ्फरपुर जिले का बसाढ़ ही क्षत्रियकुण्डपुर है । इस प्रकार परम्परागत स्थान गंगा से सुदूर दक्षिण की ओर है, जबकि इतिहास - सम्मत स्थान गंगा के उत्तरी अंचल में है । पावा के सम्बन्ध में भी लगभग यही बात है । परम्परा सम्मत पावा दक्षिण बिहार में है और वहाँ के भव्य मन्दिरों ने उसे एक जैन तीर्थ बना दिया है। इतिहास इस बात में सम्मत नहीं है कि वह पावा यहां हो । भगवान् महावीर के निर्वाण-अवसर पर मल्लों और लिच्छवियों के अठारह गण राजा उपस्थित थे । ' ऐसा उत्तरी बिहार में स्थित पावा में अधिक सम्भव हो सकता है; क्योंकि उधर ही उन लोगों का राज्य था । दक्षिण बिहार की पावा तो नितान्त उनके शत्रु- प्रदेश में थी । अपने ज्वलन्त शत्रु मागधों के प्रदेश में वे कैसे उपस्थित हो सकते थे ? पं० राहुल सांकृत्यायन भी इस तथ्य की पुष्टि करते हैं। उनका कहना है- भगवान् महावीर का निर्वाण वस्तुत: गंगा के उत्तरी अंचल में आई हुई पावा में ही हुआ था, जो कि वर्तमान में गोरखपुर जिले के अन्तर्गत 'पपहुर' नामक ग्राम है । जैन लोगों ने प्राचीन परम्परा को भूलकर पटना जिला अन्तर्गत पावा को अपना लिया है । और भी अनेकों इस धारणा से इतिहासज्ञ सहमत हैं 13 तात्पर्य हुआ, डा० जेकोबी जिस पावा के आधार पर निर्वाण सम्बन्धी प्रकरणों को अययार्थ मानते हैं, वही पावा इतिहास सम्मत होकर उन निर्वाण सम्बन्धी प्रकरणों की सत्यता को और पुष्ट कर देती है । तात्कालिक स्थितियों के सम्बन्ध में आगम-त्रिपिटक डा० जेकोबी का यह कथन भी पूर्ण यथार्थ नहीं है कि जैन आगम त्रिपिटकों की अपेक्षा तात्कालिक स्थितियों का अधिक विवरण प्रस्तुत करते हैं । उन्होंने इस अभिमत की पुष्टि के १. कल्पसूत्र, १२८ । २. दर्शन दिग्दर्शन, पृ० ४४४, टि० ३ । ३. श्री नाथूराम प्रेमी ने भी ऐसी ही सम्भावना व्यक्त की है। देखें, जैन साहित्य और इतिहास, पू० १८६ । 2010_05 Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा काल-निर्णय ४६ लिए अपने लेख में जो-जो प्रसंग प्रस्तुत किए हैं, वे भी तो सबके सब आगमोक्त नहीं हैं। महाशिलाकंटक संग्राम और रथमुशल संग्राम के बाद 'वैशाली की विजय" का जो प्रकरण है, जिसमें कूलवालय भिक्षु वैशाली-प्राकार-मंग का निमित्त बनता है ; वह सारा वर्णन डा० जेकोबी ने भी स्वयं आवश्यक कथा से उद्धृत किया है । आगम और त्रिपिटक मौलिक शास्त्र हैं। इन दोनों में तो तात्कालिक विवरणों का कोई बहुत बड़ा अन्तर नहीं पाया जा रहा है। इतर ग्रन्थों में जैसे जैन परम्परा में अनेक विवरण उपलब्ध होते हैं, वैसे बौद्ध परम्परा के महावंश आदि ग्रन्थों में भी तो होते हैं। महावंश' में तो अशोक तक के राजाओं का काल-क्रम दिया जाता है। इतने मात्र का अर्थ यह थोड़े ही हो जाता है कि बुद्ध महावीर के पश्चात् निर्वाण-प्राप्त हुए थे। महावीर की निर्वाण-तिथि डा० जेकोबी ने महावीर का निर्वाण ई०पू० ४७७ और बुद्ध का निर्वाण ई० पू० ४८४ माना है । पर उन्होंने अपने सारे लेख में यह बतलाने का विशेष प्रयत्न नहीं किया कि ये ही तिथियां मानी जायें, ऐसी अनिवार्यता क्यों पैदा हुई ? केवल उन्होंने बताया है : 'जैनों की सर्वमान्य परम्परा के अनुसार चन्द्रगुप्त का राज्याभिषेक महावीर की मृत्यु के २१५ वर्ष बाद हुआ था। परन्तु हेमचन्द्र के मत (परिशिष्ट पर्व, ८-३३६) के अनुसार यह राज्याभिषेक महावीर-निर्वाण १५५ वर्ष बाद हुआ।" इसी बात को उन्होंने भद्रेश्वर के कहावली नामक ग्रन्थ से पुष्ट किया है। परन्तु वस्तुस्थिति यह है-जैसे जेकोबी ने भी स्वीकार किया है, सर्वमान्य परम्परा के अनुसार तो चन्द्रगुप्त का राज्याभिषेक महावीर-निर्वाण के २१५ वर्ष बाद ही माना जाता है। आचार्य हेमचन्द्र ने उस प्रसंग को महावीर-निर्वाण के १५५ वर्ष बाद माना है। किन्तु यह बात इतिहास की कसौटी पर टिकने वाली नहीं है। विद्वानों ने इसे हेमचन्द्राचार्य की भूल ही माना है। इस विषय में सर्वाधिक पुष्ट धारणा यह है कि महावीर जिस दिन निर्वाण-प्राप्त होते हैं, उसी दिन उज्जैनी में पालक राजा राजगद्दी पर बैठता है। उसका या उसके वंश का ६० वर्ष तक राज्य चलता है । उसके बाद १५.५ वर्ष तक नन्दों का राज्य रहता है। तत्पश्चात् मौर्य-राज्य का प्रारम्भ होता है । अर्थात् महावीर १. श्रमण, वर्ष १३, अंक ७-८, पृ० ३४। २. महावंश, परिच्छेद ४, ५। ३. श्रमण, वर्ष १३, अंक ६, पृ० १० । ४. एवं च श्रीमहावीरमुक्तेर्वर्षते गते । पंच पंचाशदधिके चन्द्रगुप्तो भवेन्नृपः ॥ --परिशिष्ट पर्व, सर्ग ८, श्लोक ३३६ । ५. जं रयणि सिद्धिगओ अरहा तित्थंकरो महावीरो। तं रयणिमवंतिए, अभिसित्तो पालो राया ॥ पालगरण्णो सट्ठी, पण पणसयं वियाणि गंदाणम् । मुरियाणं सट्ठिसयं तीसा पुण पूसमित्ताणं । -तित्थोगाली पइन्नय ६२०.२१॥ 2010_05 Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड : १ ' निर्वाण के २१५ वर्ष बाद चन्द्रगुप्त मौर्य गद्दी पर बैठता है। यह प्रकरण तित्यो गाली पइन्नय का है, जो कि परिशिष्ट पर्व तथा भद्रेश्वर की कहावली ; इन दोनों ग्रन्थों से बहुत ही प्राचीन माना जाता है । ५० लगता है, हेमचन्द्राचार्य के परिशिष्ट पर्व की गणना में पालक राज्य के ६० वर्ष छूट ही गए हैं। श्री पूर्णचन्द्र नाहर तथा श्री कृष्णचन्द्र घोष लिखते हैं: "महावीर के बाद पालक राजा ने ६० वर्ष राज्य किया था । लगता है, असावधानी से हेमचन्द्राचार्य उस अवधि को जोड़ना भूल गए । २ 7 डा० जेकोबी ने परिशिष्ट पर्व का सम्पादन किया है। उन्होंने भी अपनी भूमिका में बताया है कि यह रचना हेमचन्द्राचार्य ने बहुत ही शीघ्रता में की है तथा इसमें अनेक स्थानों पर असावधानी रही है । उस भूमिका में जेकोबी ने इस विषय पर विस्तृत रूप से लिखते हुए साहित्य और व्याकरण की नाना भूलें सप्रमाण उद्धृत की हैं। बहुत सम्भव है, जिस कथन ( श्लोक ३३९ ) के आधार पर जेकोबी ने महावीर - निर्वाण के समय को निश्चित किया है, उसमें भी वैसी ही असावधानी रही हो । हेमचन्द्राचार्य ने स्वयं अपने समकालीन राजा कुमारपाल का काल बताते समय महावीर निर्वाण का जो समय माना है, ई० पू० ५२७ का ही है; न कि ई० पू० ४७७ का । हेमचन्द्राचार्य लिखते हैं* : "जब भगवान् महावीर के निर्वाण से सोलह सौ उनहत्तर वर्ष बीतेंगे, तब चौलुक्य कुल में चन्द्रमा के समान राजा कुमारपाल होगा ।" अब यह निर्विवादतया माना जाता है कि राजा कुमारपाल ई० सन् १९४३ में हुआ । हेमचन्द्राचार्य के कथन से यह काल महावीर - निर्वाण १६६६ वर्ष का है । इस प्रकार हेमचन्द्रचार्य ने भी महावीर - निर्वाणकाल १६६६-११४२ ई० पू० ५२७ ही माना है । बुद्ध की निर्वाण तिथि Astro कोबी ने बुद्ध का निर्वाण ई० पू० ४८४ में माना है । उसका आधार उन्होंने यह बताया है : "दक्षिण के बौद्ध कहते हैं, चन्द्रगुप्त का राज्याभिषेक बुद्ध-निर्वाण के १६२ वर्ष १. विस्तार के लिए देखें ; 'काल गणना' प्रकरण । 3. Hemchandra must have omitted by oversight to count the period of 60 years of king Palaka after Mahavira. — Epition of Jainism, Appendix A, p. IV. ३. एशियाटिक सोसाइटी, कलकत्ता द्वारा प्रकाशित । ४. अस्मिन्निर्वाणतो वर्षशत्या ( ता ) न्यभय षोडश । नवषष्टिश्च यास्यन्ति यदा तत्र पुरे तदा ॥ कुमारपाल भूपालो, चौलुक्यकुलचन्द्रमाः । भविष्यति महाबाहुः, प्रचण्डाखण्ड शासनः ॥ — त्रिषष्टिशलाका पुरुषचरित्रम्, पर्व १०, सर्ग १२, श्लो० ४५-४६ । ५. R. C. Majumdar, H. C. Raychoudhary, K. K. Dutta, An Advaoced History of India, p. 202. 2010_05 Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा] पश्चात् हुआ और चन्द्रगुप्त के राज्यारोहण का सर्वसम्मत समय ई० पू० ३२२ है; अतः बुद्ध निर्वाण ई० पू० ४८४ ठहरता है।" डा० जेकोबी ने दक्षिण के बौद्धों की परम्परा का उल्लेख कर चन्द्रगुप्त के राज्यारोहण का जो तथ्य पकड़ा है, वह महावंश का है। उसी महावंश में एक ओर जहां यह कहा गया है कि चन्द्रगुप्त का राज्यारोहण बुद्ध-निर्वाण के १६२ वर्ष बाद हुआ, वहां उसी ग्रन्थ का एक १. अजातसत्तुपुत्तो तं, धातेत्वादाय भद्दको । रज्जं सोलसवस्सानि, कारेसि मित्त दुब्भिको ॥१॥ उदयभद्दपुत्तो तं, घातेत्वा अनुरुद्धको । अनुरुद्धस्स पुत्तो तं, घातेत्वा मुण्डनामको ।।२।। मित्तदुनो दुम्मतिनो, ते पि रज्जं अकारयु । तेसं उभिन्नं रज्जेसु, अट्ठवस्सानतिक्कमु ॥३।। मुण्ड स्स पुत्तो पितरं, घातेत्वा नागदासको। चतुवीसति वस्सानि, रज्जं कारेसि पापको॥४॥ पितु घातकवंसोयं, इति कुद्धाथ नागरा। नागदासकराजानं अपनेत्वा समागता ॥१॥ सुसुनागोति पञातं, अमच्चं साधु संमतं । रज्जे समभिसिविमं सब्बेसि हितमानसा ।।६।। सो अट्ठारस वस्सानि, राजा रजजं अकारयि । कालासोको तस्स पुत्तो, अट्ठवीसति कारयि ।।७।। अतीते दसमे वस्से, कालसोकस्स राजिनो। संबुद्ध परिनिव्वाणा, एवं वस्ससतं अहु ॥८॥ -महावंश, परिच्छेद ४। कालासोकस्स पुत्ता तु, अहेसुं दस भातुका। द्वावीसति ते वस्सानि, रज्जं समनुसासितूं ॥१४॥ नव नंदाततो आसु, केमेनेव नराधिपा। ते पि द्वावीसवर सानि, रज्जं समनुसासिसु ॥१५॥ मोरिणियाणं खत्तियाणं वंसे जातं सिरीधरं । चंदगुत्तोति पञ्जातं, चाणक्को ब्राह्मणो तत्तो॥१६।। नवमं धननंदं तं, घातेत्वा चंड कोधवा । सकले जंबुदीपंस्मि, रज्जे सर्मामसिञ्चसो॥१७॥ -महावंश, परिच्छेद ५। ___ 2010_05 Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड : १ अन्य उल्लेख यह है कि बुद्ध का निर्वाण ई० पू० ५४३ में हुआ, जिसे डा० जेकोबी ने भी अपने लेख में बुद्ध-निर्वाण का प्रसिद्ध परम्परा-मान्य समय कहा है। अब यदि महावंश में बुद्ध निर्वाण का समय ५४३ ई० पू० मानकर उसके १६२ वर्ष पश्चात् चन्द्रगुप्त का राज्यारोहण माना है, तो चन्द्रगुप्त के राज्यारोहण का समय ई० पू० ३८१ का आता है। पर इसकी चन्द्रगुप्त के राज्यारोहण की जो सर्वसम्मत ऐतिहासिक तिथि (ई०पू० ३२२) है, उसके साथ कोई संगति नहीं बैठती । अतः यह स्पष्ट हो जाता है कि महावंश के इस संदिग्ध प्रमाण को मानकर डा० जेकोबी ने बुद्ध-निर्वाण का जो समय माना है, वह संगत नहीं है।' असंगतियां डा० जेकोबी द्वारा निर्णीत भगवान महावीर और बुद्ध की निर्वाण-तिथियों को मानकर चलने में कुछ अन्य असंगतियां भी पैदा होती हैं। भगवती में गोशालक ने अपनी अन्तिम अवस्था में आठ चरमों का निरूपण किया है, उनमें एक चरम महाशिलाकंटक युद्ध भी है। इससे विदित होता है कि गोशालक का निधन महाशिलाकंटक युद्ध के बाद हुआ । गोशालक की मृत्यु के ७ दिन पूर्व भगवान् महावीर कहते हैं ; “मैं अब से १६ वर्ष तक गन्धहस्ती की तरह निर्बाध रूप से जीऊंगा।"५ तात्पर्य यह होता है कि कोणिक के राज्यारोहण के तुरन्त बाद ही यदि महाशिलाकंटक युद्ध हुआ हो, तो भी भगवान् महावीर १. The event happenned in 514 B. C. according to a Ceylonese Reckoning. -H. C. Raychoudhuri, political Hisory of Ancient India p. 225. सिलोनी गाथा महावंश के अनुसार गौतमबुद्ध का निर्वाण ई० पू० ५४४ में हुआ। -प्रो० श्री नेत्र पाण्डेय, भारत का बृहत् इतिहास, प्रथम भाग, प्राचीन भारत, चतुर्थ संस्करण, पृ० २४३ । २. श्रमण, वर्ष १२, अंक ६, पृ० १०। ३. सामान्य रूप से भी महावंश की राज्यत्व-काल-गणना ऐतिहासिक कसौटी पर भूल भरी प्रमाणित होती है, जिसकी विशेष चर्चा प्रस्तुत प्रकरण के 'काल-गणना' शीर्षक के अन्तर्गत की गई है। ४. तस्सविण मज्जस्स पच्छाणट्ठाए इमाइं अट्ठ चरमाइं पण्णवेइ, तंजहा चरिमे पाणे, चरिमे गेये, चरिमे णट्टे, चरिमे अंजलिकम्मे, चरिमे पोक्खलस्स संवट्टए महामेहे, चरिमे सेयणए गंधहत्थि, चरिमे रहासिलाकंटए संगामे। -भगवती, शतक १५ । ५. तएणं समणे भगवं महावीरे गोसालं मंखलीपुत्तं एवं वयासी “णो खलु अहं । गोसाला तव तवेण तेएणं अणाइट्ठे समाणे अंतो छण्हं मासाणं जावकालं करिष्सामि । अहण अण्णाई सोलसवासाइं जिणे सुहत्थी विहरिस्सामि ।" -भगवती, शतक १५ । ____ 2010_05 Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा ] काल-निर्णय ५३ और कोणिक के राज्यारोहण के बीच कम-से-कम १७ वर्ष का अन्तर पड़ता है । किन्तु कोबी द्वारा अभिमत तिथियों के अनुसार तो वह अन्तर २५ वर्ष से अधिक हो ही नहीं सकता । दूसरी असंगति यह है— श्रेणिक भगवान् महावीर से प्रश्न पूछता है : "भगवन् ! अन्तिम केवली कौन होगा ? भगवान् उत्तर देते हैं- “आज से सातवें दिन ऋषभदत्त भार्या के उदर में विद्युन्माली देव आयेगा और वह आगे चल कर जम्बू नामक अन्तिम केवली होगा ।"" जम्बूस्वामी की सर्व आयु ८० वर्ष की थी । ३ १६ वर्ष वे गृहस्थावास में रहे । महावीर निर्वाण के अनन्तर सुधर्मा स्वामी के हाथों उनकी दीक्षा होती है । * इससे राजा श्रेणिक का राज्यान्त और भगवान् महावीर के निर्वाण में लगभग सतरह वर्ष का अन्तर आता है । डा० कोबी द्वारा श्रेणिक - राज्यान्त (कोणिक का राज्यारोहण) और महावीर के निर्वाण में १५ वर्ष से अधिक अन्तर नहीं आ पाता । इस प्रकार इन तिथियों को मान लेने में अनेक आपत्तियां हैं । भगवान् महावीर का निर्वाण ई० पू० ५२७ में हुआ, यह मान्यता लगभग निर्विकल्प और निर्विरोध थी । बुद्ध-निर्वाण का इतना असंदिग्ध काल कोई भी नही माना गया था । १. डा० जेकोबी ने कोणिक के राज्यारोहण के ८वें वर्ष में बुद्ध का निर्वाण माना है (श्रमण, वर्ष १३, अंक ७, पृ० २६) तथा महावीर का निर्वाण बुद्ध से ७ वर्ष बाद माना है । २. पुनर्विज्ञपयामास जिनेन्द्र मगधाधिपः । भगवन्केवलज्ञानं कस्मिन्व्युच्छेदमेष्यति ॥२६२॥ नाथोऽप्पकथयत्पश्य विद्युन्माली सुरोह्यसौ । सामानिको ब्रह्मन्द्रस्य चतुर्देवी समावृतः ॥२६३॥ अह्वोऽमुष्मात्सप्तमेऽह्नि च्युत्वाभावी पुरे तव । श्रेष्ठि ऋषभदत्तस्य जम्बुः पुत्रोऽन्त्यकेवली ॥ २६४॥ परिशिष्ट पर्व, सर्ग १ ३. वे १६ वर्ष गृहस्थावास में, २० वर्ष छद्यस्थ-साधु-अवस्था तथा ४४ वर्ष केवली - अवस्था में रहे । उनका निर्वाण भगवान् महावीर के ६४ वर्ष बाद हुआ था; अतः उनकी दीक्षा महावीर - निर्वाण के बाद उसी वर्ष में हुई, जिस वर्ष भगवान् महावीर का निर्वाण हुआ । ४. सुधर्म स्वामिनः पादानापादम्भोषितारकान् । पञ्चाङ्गस्पृष्ट भूपीठः स प्रणम्य व्यजिज्ञपत् ॥ २८७ ॥ संसारसागरतरी प्रव्रज्यां परमेश्वर । मम सस्वजनस्यापि देहि धेहि कृपां मयि ॥ २८८ ॥ पञ्चमः श्रीगणधरो ऽप्येवमभ्यथितस्तदा । तस्मै सपरिवाराय ददौ दीक्षां यथाविधि ॥ २८६ ॥ परिशिष्ट पर्व, सर्ग ३ 2010_05 Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड : १ बुद्ध-निर्वाण के सम्बन्ध में दशों मत बहुत प्राचीन काल में भी प्रचलित थे और अब भी हैं।' डा० जेकोबी ने अपने इस लेख के प्रतिपादन में बुद्ध के निर्वाण-काल (ई० पू० ४८४) को निर्विकल्प और सत्य जैसा मान लिया और भगवान महावीर के जीवन-प्रसंगों को खींचतान कर उसके साथ संगत करने का प्रयत्न किया। ऐसा करके डा० जेकोबी ने महावीर और बुद्ध की समसामयिकता में एक नया भूचाल खड़ा कर दिया । डा० जेकोबी की वे धारणाएं कालमान की दृष्टि से लगभग ३२ वर्ष पुरानी भी हो चुकी हैं। इस अवधि में इतिहास बहुत कुछ नए प्रकार से भी स्पष्ट हुआ है। ऐसी स्थिति में डा० जैकोबी के निर्णयों को ही अन्तिम रूप से मान लेना जरा भी यथार्थ नहीं है। पं० सुखलालजी व अन्य विद्वान् डा० जेकोबी के इस मत को वर्तमान के कुछ विचारकों ने भी मान्यता दी है। पं० सुखलाल जी का कहना है : "प्रो० जेकोबी ने बौद्ध और जैन ग्रन्थों की ऐतिहासिक दृष्टि से तुलना करके अन्तिम निष्कर्ष निकाला है कि महावीर का निर्वाण बुद्ध-निर्वाण के पीछे ही अमुके समय के बाद ही हुआ है। जेकोबी ने अपनी गहरी छानबीन से यह स्पष्ट कर दिया है कि वज्जि-लिच्छिवियों का कोणिक के साथ जो युद्ध हुआ था, वह बुद्ध-निर्वाण के बाद और महावीर के जीवन-काल में ही हुआ। वज्जि-लिच्छिवी-गण का वर्णन तो बौद्ध और जैन दोनों ग्रन्थों में आता है, पर इनके युद्ध का वर्णन बौद्ध ग्रन्थों में नहीं आता है, जबकि जैन ग्रन्थों में आता है।"२ __ लगता है, पं० सुखलालजी ने डा० जेकोबी के मन्तव्यों को ज्यों-का-त्यों माना है। वे स्वतन्त्र रूप से इस विषय की तह में नहीं गये हैं । बहुत बार हम सभी ऐसा करते हैं । जो विषय हमारा नहीं है या किसी विषय की तह में जाने का हमें अवसर नहीं मिला है, तो किसी भी विद्वान् का उस विषय पर लिखा गया लेख हमारी मान्यता पा लेता है । यह अस्वाभाविक जैसा भी नहीं है। अनेक विषय अनेक जन-साध्य ही होते हैं और मान्यताओं का पारस्परिक विनिमय होता है।। पण्डितजी ने यहां जेकोबी की दो बातों का महत्त्व दिया है। एक तो यह है-वज्जियों और कोणिक के युद्ध का वर्णन बौद्ध शास्त्रों में नहीं है और जैन शास्त्रों में है। प्रस्तुत विषय की निर्णायकता में यह कोई महत्त्वपूर्ण बात नहीं है। इस विषय में पहले बहुत कुछ लिखा जा चुका है। दूसरी बात यह है कि वह युद्ध बुद्ध-निर्वाण के पश्चात् और महावीर-निर्वाण के पूर्व आ था। उक्त मान्यता का मूल आधार महापरिनिव्वाण सुत्त है, जिसके विषय में सामान्यतया यह कहा जाता है कि उसमें बुद्ध के अन्तिम जीवन से सम्बन्धित घटनाओं का वर्णन ही है। इसी सत्त में कोणिक का महामात्य वस्सकार वज्जी के विजय की योजना बुद्ध के समक्ष प्रस्तुत करता है; अतः यह बुद्ध के अन्तिम काल से सम्बन्धित घटना है। महापरिनिव्वाण सुत्त में अधिकांश घटनाएं बुद्ध के अन्तिम जीवन से सम्बन्धित हैं, यह समझ में आता है; पर सभी घटनाएं ऐसी ही हैं, यह यथार्थ नहीं लगता। महापरिनिवाण १. विस्तार के लिए देखें, प्रस्तुत प्रकरण में 'बुद्ध-निर्वाण-कालः परम्परागत तिथियां'। २. दर्शन और चिन्तन, द्वितीय खण्ड, पृ० ४७, ४८ । ____ 2010_05 Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा] काल-निर्णय सुत्त में तो सारिपुत्र भी बुद्ध से वार्तालाप करते हैं;' यह सर्वसम्मत तथ्य है कि भगवान् बुद्ध से बहुत पूर्व ही सारिपुत्र का देहावसान हो चुका था। सम्मव स्थिति तो यह है कि महाशिलाकंटक और रथमुशल संग्राम के हो जाने के बहुत समय पश्चात् जो वैशाली-प्राकारभङ्ग का विषय अधूरा पड़ा था और कोणिक व उसके सेनापति आदि प्राकार-भङ्ग की नाना योजनाएं सोच रहे थे, वस्सकार तब भगवान् बुद्ध से मिला था। यह धारणा इससे भी पुष्ट होती है कि जैन-परम्परा के अनुसार भी प्राकार-भङ्ग छद्म-विधि से किया जाता है और बुद्ध के मुख से वज्जियों की दुर्जयता सुनकर वस्सकार भी किसी छद्म-विघि को अपनाने की बात सोचता है। इस प्रकार अनेक कारण मिलते हैं, जिनसे यह भली-भांति स्पष्ट हो जाता है कि डा० जेकोबी का यह आग्रह कि युद्ध बुद्ध-निर्वाण के पश्चात् ही हुआ था, वास्तविक नहीं है। पं० सुखलाला की तरह श्री गोपालदास पटेल व श्री कस्तूरमल बांठिया आदि विचारकों ने भी डा० जेकोबी के मत को दृढ़तापूर्वक माना है, पर, उसका एक मात्र कारण डा० जेकोबी के प्रमाणों का ही एकपक्षीय अवलो डा० शान्टियर डा० जेकोबी के प्रथम और द्वितीय समीक्षा-काल के बीच डा. शान्टियर द्वारा प्रस्तुत पहेली के निष्कर्ष तक पहुँचने का प्रयत्न हुआ। उनका एतद्विषयक लेख इण्डियन एन्टिक्वेरी, सन् १९१ में प्रकाशित हुआ है । डा० शान्टियर का निष्कर्ष है कि महावीर बुद्ध से १० वर्ष बाद निर्वाद प्राप्त हुए। बुद्ध का निर्वाण ई० पू० ४७७ में हुआ और महावीर का निर्वाण ई० पू० ४६७ में। शान्टियर का यह निष्कर्ष मुख्य दो आधारों पर स्थित है-ई० पू० ४७७ में बुद्ध का निर्वाण-काल और महावीर की निर्वाण-भूमि पावा । आज यदि हम उस लेख को पढ़ते हैं तो स्पष्ट समझ में आ जाता है कि इतिहास के क्रमिक विकास में वे दोनों ही आधार सर्वथा बदल चुके हैं। किसी युग में यह एक ऐतिहासिक धारणा मानी जाती थी कि बुद्ध का निर्वाण ई० पू० ४७७ में हुआ, पर आज की ऐतिहासिक धारणाओं में उक्त तिथि का कोई स्थान नहीं रह गया है। शान्टियर ने महावीर निर्वाण-सम्बन्धी बौद्ध समुल्लेखों को यह बताकर अयथार्थ माना है कि निर्वाण दक्षिण बिहार की पावा में हुआ था और बौद्ध पिटक उत्तर बिहार की पावा का उल्लेख करते हैं। सच बात तो यह है कि ऐतिहा १. दीघ निकाय, महापरिनिव्वाण सुत्त। २. राहुल सांकृत्यायन ने सारिपुत्र की घटना का वहां होना शास्त्र-संग्राहकों की भूल माना है। (देखें, बुद्ध चर्या पृ० ५२५) यदि वहां भूल से ही संकलित होती है, तो क्या 'वस्सकार की घटना' भी वहां भूल से ही संकलित नहीं हो सकती? ३. देखें, भगवान महावीर नो संयम धर्म, (सूत्रकृतांग नो छायानुवाद), पृ० २५७ से २६२। ४. श्रमण, वर्ष १३, अंक ६, पृ०९। 2010_05 Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन सिक दृष्टि से सोचने वाले लगभग सभी विद्वान् उत्तर बिहार की पावा को ही भगवान् महावीर की निर्वाण-भूमि मानने लगे हैं।' डा० जेकोबी ने अपने अभिमत के समर्थन के लिए अपने लेख में डा० शान्टियर की कुछ एक धारणाओं का उल्लेख किया है। पर उल्लेखनीय बात यह है कि शान्टियर द्वारा ठहराये गये महावीर और बुद्ध के काल-निर्धारण को डा० जेकोबी ने आंशिक मान्यता भी नहीं दी है। लगता है, शान्टियर ने अपने लेख-काल में बुद्ध-निर्वाण-काल-सम्बन्धी जो ऐतिहासिक धारणा प्रचलित थी, उसे केन्द्र-बिन्दु मानकर अन्य तथ्यों का जोड़-तोड़ बिठाया है। डा० जेकोबी की दूसरी समीक्षा इससे सोलह वर्ष बाद होती है। तब तक बुद्ध-निर्वाणसम्बन्धी ऐतिहासिक धारणा नवीन रूप ले लेती है और डा० जेकोबी उसे अपना लेते हैं। हमें इस बात को नहीं भूलना है कि डा० जेकोबी की दूसरी समीक्षा भी ३२ वर्ष पुरानी हो चुकी है और इस अवधि में महावीर और बुद्ध के निर्वाण से सम्बन्धित नई-नई धारणाएं सामने आ रही हैं; अतः एतद्विषयक काल-निर्णय में हमें नवीनतम दृष्टिकोणों से ही सोचना अपेक्षित होता है। डा० के० पी० जायसवाल जनरल ऑफ बिहार एण्ड ओरिस्सा रिसर्च सोसायटी के सम्पादक एवं प्रसिद्ध इतिहासकार डा० के० पी० जायसवाल के द्वारा इस दिशा में उल्लेखनीय प्रयत्न हुआ है। उन्होंने अपनी समीक्षा में यह माना-बौद्ध पिटकों में वर्णित महावीर के निर्वाण-प्रसंग ऐतिहासिक निर्धारण में किसी प्रकार उपेक्षा के योग्य नहीं हैं। सामगाम सुत्त में बुद्ध महावीर निर्वाण के समाचार सुनते हैं और प्रचलित धारणाओं के अनुसार इसके दो वर्ष पश्चात् बुद्ध स्वयं निर्वाण को प्राप्त होते हैं। बौद्धों की दक्षिणी परम्परा के अनुसार बुद्ध-निर्वाण ई० पू० ५४४ में हुआ ; अतः महावीर का निर्वाण ई० पू० ५४६ में होता है। महावीर-निर्वाण और विक्रमादित्य उन्होंने इसके साथ-साथ 'महावीर के ४७० वर्ष बाद विक्रमादित्य' इस जैन-मान्यता पर भी एक नूतन संगति बिठाने का प्रयत्न किया था। उनका कहना था; "जन-गणना में भगवान् महावीर के निर्वाण और विक्रम संवत् के बीच ४७० वर्ष का अन्तर माना जाता है। वह वस्तुतः सरस्वती गच्छ की पढावली के लेखानुसार निर्वाण और विक्रम-जन्म के बीच का अन्तर है। विक्रम १८ वें वर्ष में राज्याभिषेक हुआ और उसी वर्ष से संवत् प्रचलित हुआ। इस प्रकार महावीर-निर्वाण से (४७०+१८) ४८८ वर्ष पर विक्रम संवत्सर का आरम्भ हुमा पर जैन-गणना से उक्त १८ वर्ष छूट गये; अतः निर्वाण से ४७० वर्ष पर ही संवत्सर माना जाने लगा, जो स्पष्ट भूल है।"3 १. इसी प्रकरण में "महावीर का निर्वाण किस पावा में ?" के अन्तर्गत इसकी चर्चा की जा चुकी है। २. Journal of Bihar and Orissa Research Society, vol. XIII, pp. 240-246. ३. Journal of Bihar and Orissa Research Society vol. XIII, p. 246. ____ 2010_05 Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा] काल-निर्णय डा० जायसवाल ने महावीर-निर्वाण-सम्बन्धी बौद्ध उल्लेखों की उपेक्षा न करने की जो बात कही, वह वस्तुतः ही न्याय-संगत है । सामगाम सुत्त के आधार पर बुद्ध से दो वर्ष पूर्व महावीर का निर्वाण मानना और ४७० में १८ वर्ष जोड़कर महावीर और विक्रम की मध्यवर्ती अवधि निश्चित करना, पुष्ट प्रमाणों पर आधारित नहीं है। इतिहासकारों का कहना है : “यह मान्यता किसी भी प्रामाणिक परम्परा पर आधारित नहीं है। आचार्य मेरुतुंग' ने महावीर-निर्वाण और विक्रमादित्य के बीच ४७० वर्ष का अन्तर माना है। वह अन्तर विक्रम के जन्मकाल से नहीं, अपितु शक-राज्य की समाप्ति और विक्रम-विजय के काल से है"। इसके अतिरिक्त डा. जायसवाल ने सामगाम सुत्त के आधार पर बुद्धनिर्वाण से दो वर्ष पूर्व जो महावीर-निर्वाण माना है, वह भी आनुमानिक ही ठहरता है। डा. राधाकुमुद मुकर्जी ने अपने सुप्रसिद्ध ग्रन्थ Hindu Civilization (हिन्दू सभ्यता) में डा० जायसवाल की तरह ही महावीर की ज्येष्ठता और पूर्व-निर्वाण-प्राप्ति का यौक्तिक समर्थन किया है। उनकी मान्यता में उक्त दोनों तथ्य सर्वथा असंदिग्ध है। उनके अपने विवेचन में विशेषता की बात यह कि उन्होंने महावीर की ज्येष्ठता को मी अनेक प्रकारों से मान्यता दी है। ___महावीर और बुद्ध के काल-निर्णय में डा० मुकर्जी ने डा० जायसवाल के मत को अक्षरशः अपनाया है, जिसके अनुसार महावीर का निर्वाण-काल ई० पू० ५४६ और बुद्ध का निर्वाण-काल ई०पू० ५४४ है। इस काल-क्रस से महावीर की ज्येष्ठता के निरूपण में विसंवाद (Self contradiction) पैदा हो गया है। महावीर की आयु ७२ वर्ष और बुद्ध की आयु ८० वर्ष थी; अतः इससे बुद्ध महावीर से ८ वर्ष बड़े हो जाते हैं। निष्कर्ष यह है कि डा० मुकर्जी महावीर की ज्येष्ठता और पूर्व-निर्वाण-प्राप्ति को मानते हुए भी, उसे काल-क्रम के साथ घटित न कर पाये हैं। डा० कामताप्रसाद जैन ने भी इसी काल-क्रम को अपनाया है, पर उनकी धारणा में १. विक्रमरज्जारंभा परओ सिरि वीर निव्वुइ भणिया। सुन्नु मुणि वेय जुत्तो विक्कम कालउ जिण कालो। -विचार श्रेणी, पृ० ३, ४। 2. The suggetion can hardly be said to rest on any reliable tradi tion. Merutunga places the death of the last Jina or Tirthankara 470 years before the end of Saka rule and the victory and not birth of the traditional Vikrama ---R.C. Majumdar, H.C. Raychoudhury and K.K. Dutta, An Advanced History of India, p. 85. ३. डा. वासुदेवशरण अग्रवाल द्वारा अनूदित व राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित । ४. हिन्दू सभ्यता, पृ० २१६, २२३, २२४ ।। ५. हिन्दू सभ्यता, पृ० २२३ (बुद्ध का निर्वाण-काल ई० पू० ५४३ बताया गया है। सिलोनी परम्परा के अनुसार ५४३-५४४ दोनों तिथियों का उल्लेख मिलता है। ____ 2010_05 Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन बुद्ध ज्येष्ठ और महावीर पूर्व-निर्वाण-प्राप्त हैं।' महावीर की ज्येष्ठता के सम्बन्ध में मिलने वाले पिटक-समुल्लेखों को भी उन्होंने घटित करने का प्रयत्न किया है, किन्तु वह स्वाभाविकता से बहुत परे का है। एक-आध स्थल को उन्होंने वक्रोक्ति के द्वारा जहां घटित करने का प्रयत्न किया है, वहां अनेक स्थल जो महावीर की ज्येष्ठता के सम्बन्ध में अत्यन्त स्पष्ट हैं, उनका कोई समाधान नहीं दिया है। कुल मिलाकर उनका पक्ष यह तो है कि महावीर बुद्ध से पूर्व-निर्वाण-प्राप्त हए थे। पुरातत्त्व-गवेषक मुनि जिनविजयजी ने भी डा० जायसवाल के मत को मानते हुए महावीर की ज्येष्ठता स्वीकार की है। धर्मानन्द कोसम्बी श्री धर्मानन्द कोसम्बी का सुदृढ़ निश्चय है कि बुद्ध तत्कालीन सातों धर्माचार्यों में सबसे छोटे थे। प्रारम्भ में उनका संघ भी सबसे छोटा था। काल-क्रम की बात को कोसम्बीजी ने यह कहकर गौण कर दिया है कि "बुद्ध की जन्म-तिथि में कुछ कम या अधिक अन्तर पड़ जाता है, तो भी उससे उनके जीवन-चरित्र में किसी प्रकार का गौणत्व नहीं आ सकता। महत्त्व की बात बुद्ध की जन्म-तिथि नहीं, बल्कि यह है कि उनके जन्म से पहले क्या परिस्थिति थी और उसमें से उन्होंने नवीन धर्म-मार्ग कैसे खोज निकाला।"५ काल-क्रम को गौण करने का कारण यही है कि इस सम्बन्ध में नाना मतवाद प्रचलित हैं। डा. हर्नले हैस्टिग्स के इन्साइक्लोपीडिया ऑफ रिलीजन एण्ड इथिक्स ग्रन्थ में डा० हर्नले ने भी इस विषय की चर्चा की है। उनकी धारणा के अनुसार बुद्ध का निर्वाण महावीर से ५ वर्ष पश्चात् होता है। तदनुसार बुद्ध का जन्म महावीर से ३ वर्ष पूर्व होता है। यह मानने में डा० हर्नले के आधारभूत तथ्य वे ही है, जो प्रस्तुत निबन्ध में यत्र-तत्र चर्चे जा चुके हैं। मुनि कल्याण विजयजी ई० सन् १९३० में इतिहासविद् मुनि कल्याण विजयजी ने एक विराट् प्रयत्न किया है। वीर-निर्वाण संवत् और जैन काल-गणना नामक उनका एतद्विषयक ग्रन्थ गवेषकों के लिए एक अनूठा खजाना है। भगवान् महावीर और बुद्ध के निर्वाण-समय के विषय में उन्होने अपना स्वतन्त्र चिन्तन प्रस्तुत किया है। उसका निष्कर्ष है-भगवान् महावीर से बुद्ध १४ १. भगवान् महावीर और महात्मा बुद्ध पृ० ११४-११५ । २. वही, पृ० ११०-११५। ३. जैन साहित्य संशोधक, पूना, १६२०, खण्ड १, अंक ४, पृ २०४ से २१० । ४. भगवान् बुद्ध, ३३, १५५ । ५. वही, भूमिका, पृ० १२। ____ 2010_05 Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा] काल-निर्णय वर्ष ५ मास १५ दिन पूर्व निर्वाण प्राप्त हो चुके थे। अर्थात् बुद्ध महावीर से आयु में लगभग २२ वर्ष बड़े थे। इसी तथ्य को काल-गणना में इस प्रकार बांधा जा सकता है बुद्ध का निर्वाण-ई० पू० ५४२ (मई) महावीर का निर्वाण-ई० पू० ५२८ (नवम्बर)' उन्होंने भगवान् महावीर का निर्वाण ई० पू० ५२७ माना है। यह परम्परा सम्मत भी है और प्रमाण-सम्मत भी। मुनि कल्याण विजयजी ने इसी निर्वाण-संवत् को और भी विभिन्न युक्तियों और प्रमाणों से पुष्ट किया है। उन्होंने बुद्ध का निर्वाण महावीर-निर्वाण से लगभग १५ वर्ष पूर्व माना है। इस मान्यता में उनका आधार यह रहा है कि सामगाम सत्त में बुद्ध जो महावीर-निर्वाण की बात सुनते हैं, वह यथार्थ नहीं थी। गोशालक की तेजोलेश्या से भगवान् महावीर बहुत पीड़ित हो रहे थे। उस समय लोगों में यह चर्चा उठी थी कि 'लगता है, अवश्य ही महावीर गोशालक की भविष्यवाणी के अनुसार ६ महीने में ही काल-धर्म को प्राप्त हो जायेंगे।' उनका कहना है, सम्भवत: इसी निराधार अपवाद से महावीर-निर्वाण की बात चल पड़ी हो। वे लिखते हैं : "जिस वर्ष में ज्ञातपुत्र के मरण (मरण की अफवाह) के समाचार सुने, उसके दूसरे ही वर्ष बुद्ध का निर्वाण हुआ। बौद्धों के इस आशय के लेख से हम बुद्ध और महावीर के निर्वाण-समय के अन्तर को ठीक तौर से समझ सकते हैं।" भगवती सूत्र के अनुसार महावीर गोशालक के तेजोलेश्या-प्रसंग के बाद १६ वर्ष जीए थे; यह पहले बताया जा चुका है। इसी आशय को पकड़ कर मुनि कल्याण विजयजी ने बुद्ध के निर्वाणकाल को निश्चित किया है। उन्होंने यह भी माना है : “मेरा यह आनुमानिक काल दक्षिणी बौद्धों की परम्परा के साथ भी मेल खाता है।" जहां तक महावीर के निर्वाण-समय का सम्बन्ध है, मुनि कल्याण विजयजी ने सचमुच ही यथार्थता का अनुसरण किया है। किन्तु, बुद्ध-निर्वाण के सम्बन्ध में तो उन्होंने अटकलबाजी से ही काम लिया है। बौद्ध-शास्त्रों में उल्लिखित महावीर के निर्वाण-प्रसंगों को उन्होंने बहत ही उलट कर देखा है । इस प्रकार खींचतान करके निकाले गए अर्थ कभी ऐतिहासिक तथ्य नहीं बन सकते। दक्षिणी बौद्धों की परम्परा के साथ अपनी निर्धारित तिथि का मेल बिठाना भी नितान्त खींचतान ही है। दोनों समयों में लगभग दो वर्षों का स्पष्ट अन्तर पड़ता है। उसे किसी प्रकार नगण्य नहीं माना जा सकता, जैसा कि उन्होंने मानने के लिए कहा है। मुनि कल्याण विजयजी ने भगवान् बुद्ध को ज्येष्ठ मानने में एक प्रमाण यह दिया है : "बौद्ध साहित्य में बुद्ध के प्रतिस्पर्धी तीर्थङ्करों का जहां-जहां उल्लेख हुआ है, वहां-वहां सर्वत्र १. ई० पू० ५२८ के नवम्बर महीने और ई० पू० ५२७ में केवल २ महीने का ही अन्तर है ; अतः महावीर-निर्वाण का काल सामान्यतया ई०पू० ५२७ ही लिखा जाता है। मुनि कल्याण विजयजी ने भी इसका प्रयोग यत्र-तत्र किया है। २. वीर निर्वाण संवत् और जैन काल-गणना, पृ० १५। ३. वही, पृ० १६०। ४. वीर निर्वाण संवत् और जैन काल-गणना, पृ०१६० । ____ 2010_05 Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन खण्ड: १ निर्ग्रन्थ ज्ञातपुत्र का नाम सबके पीछे लिखा गया है। इसका शायद यही कारण हो सकता है कि उनके प्रतिस्पधियों में ज्ञातपुत्र महावीर सबसे पीछे के प्रतिस्पर्धी थे।" बुद्ध के प्रतिस्पधियों में महावीर का नाम अन्तिम हो, तो भी उसका यह अर्थ तो नहीं हो जाता कि महावीर बुद्ध से छोटे थे। प्रत्युत बौद्ध पिटकों के तथाप्रकार के प्रसंग तो इसी बात की ओर संकेत करते हैं कि उनके छहों प्रतिस्पर्धी उनसे पूर्व ही बहुत ख्याति और प्रभाव अजित कर चुके थे। वस्तुस्थिति यह है कि मुनि कल्याण विजयजी ने निर्ग्रन्थ ज्ञातपुत्र का नाम सर्वत्र अन्तिम ही होने का जो लिखा है, वह भी यथार्थ नहीं है। ऐसे मी अनेक स्थल हैं, जहाँ निर्ग्रन्थ ज्ञातपुत्र का नाम अन्तिम नहीं है । महावीर अधेड़-बुद्ध युवा मुनि कल्याण विजयजी का कहना है : 'अजातशत्रु के सम्मुख उसके अमात्य ने महावीर के सम्बन्ध में कहा है : 'महाराज ! यह निर्ग्रन्थ ज्ञातपुत्र संघ और गण के मालिक हैं। गण के आचार्य, ज्ञानी और यशस्वी तीर्थङ्कर हैं। साधुजनों के पूज्य और बहुत लोगों के श्रद्धास्पद हैं। ये चिर-दीक्षित और अवस्था में अधेड़ हैं। इससे महावीर का अधेड़ और बुद्ध का वृद्ध होना सिद्ध होता है।" इस प्रसंग को यदि समग्र रूप से देखा जाए तो स्पष्ट संकेत मिलता है कि महावीर अधेड़ थे और बुद्ध युवा ; क्योंकि यहां मंत्री महावीर की विशेषताओं का वर्णन कर रहा है और विशेषता के प्रसंग में 'अधेड़' कहना उनकी ज्येष्ठता का सूचक है। दूसरी बात दीघनिकाय के इसी प्रसंग में गोशालक, संजय आदि सभी को चिर-दीक्षित और अधेड़ कहा गया है। केवल बुद्ध के लिए इन विशेषणों का प्रयोग नहीं किया गया है । इससे भी यही प्रमाणित होता कि बुद्ध इन सबकी अपेक्षा में युवा थे। १. वीर निर्वाण संवत् और काल-गणना, पृ०३। २. संयुत्त निकाय, दहरसुत्त, ३-१-१ में निर्ग्रन्थ ज्ञातपुत्र का नाम तीसरा है; दीघनिकाय, __ सामञफल सुत्त, १-२ (राहुल सांकृत्यायन द्वारा अनूदित, पृष्ठ २१) में पांचवां है। ३. वीर निर्वाण सम्वत् और जैन काल-गणना, पृ० ४। । ४. अयं देव निगंठो नातपुत्तो संघी चेव गणी च गणाचारियो च जातो यसस्सी तित्थकरो साधुसंमतो बहुजनस्स रत्तने चिरपब्बजितो अद्धगत वयो अनुपत्ताति।। -दीघ निकाय, भाग १, पृ० ४८, ४६ (वीर निर्वाण सम्वत् और जैन काल-गणना, पृ० ४ से उद्धृत)। ५. मूल पालि में 'अद्धगतो' और 'वयोअनुपत्ता' ये दो शब्द व्यवहृत होते रहे हैं। पिटकों (विनय पिटक, चुल्लवग्ग, संघ-भेदक खंधक, देवदत्त सुत्त और सुत्तनिपात, सभिय सुत्त) में भी यह शब्द-प्रयोग बहुलता से मिलता है। श्री राहुल सांकृत्यायन ने इनका अनुवाद 'अध्वगत' और 'वयः-अनुप्राप्त किया है (उदाहरणार्थ, देखें, बुद्ध चर्या, पृ० १३७ । राइस डेविड्स ने दीघ निकाय के अंग्रेजी अनुवाद में 'old and wellstricken in years' किया है। (Dialogues of Buddha, vol I, p. 66). 2010_05 Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा ] काल-निर्णय ६१ दीघ निकाय में इसी प्रसंग पर आगे बताया गया है कि अजातशत्रु सभी धर्माचार्यों की गौरव गाथा सुनता है और अन्त में बुद्ध के पास धर्म चर्चा के लिए जाता है । वहाँ जाकर वह बुद्ध से 'श्रामण्य-फल' पूछता है और यह भी बताता है कि 'मैं यही श्रामण्य फल निगंठ नातपुत्त प्रभृत्ति छहों धर्माचार्यों से पूछ चुका हूं ।' बुद्ध और अजातशत्रु का यह प्रथम सम्पर्क था । ऐसी स्थिति में क्या यह स्पष्ट नहीं हो जाता कि निगंठ नातपुत्त प्रभृति छहों धर्म- नायक बुद्ध से ज्येष्ठ थे । उत्तरकालिक ग्रन्थों में इसके अतिरिक्त मुनि कल्याण विजयजी ने श्रेणिक और चेल्लणा सम्बन्धी ऐसी जैन जनश्रुतियों का प्रमाण दिया है, जिनमें राजा श्रेणिक के पहले बौद्ध व पीछे जैन बनने का उल्लेख है ' ; पर वास्तव में ये सारी बातें उत्तरवर्ती जैन-कथाओं की हैं; अतः ऐतिहासिक दृष्टि में इनका विशेष स्थान नहीं बन पाता । किस ग्रन्थ के आधार पर उन्होंने इन कथाओं का उल्लेख किया है ; यह स्वयं उन्होंने भी नहीं लिखा। इसी प्रकार बुद्ध के ज्येष्ठ होने के पक्ष में उन्होंने उत्तरवर्ती बौद्ध साहित्य से भी पांच मायन्ताएं चुनी हैं, जिनका मौलिक आधार वे स्वयं भी नहीं दे पाये हैं । अधिकांश मान्यताएं ऐसी हैं, जिनका मूल पिटकों से कोई सम्बन्ध नहीं है ; अपितु कहीं-कहीं तो वे विरोधाभास उत्पन्न कर देती हैं । 1 असंगतियां मुनि कल्याण विजयजी ने बुद्ध को बड़े और महावीर को छोटे प्रमाणित करने में जितनी भी युक्तियां दी हैं, उनका सबल होना तो दूर, वे पर्याप्त भी नहीं है । उनके द्वारा की गई संगतियों से कुछ एक महान् असंगतियों का आविर्भाव हो जाता है । जैसे कि त्रिपिटक एक धारा से यह कहते हैं - महावीर का निर्वाण बुद्ध से पूर्व हुआ। इतना ही नहीं, पिटकों ने स्वयं बुद्ध के मुँह से कहलवाया है - " मैं सभी धर्मनायकों में छोटा हूं।" तथा उनमें और भी अनेक स्थलों पर बुद्ध को सभी धर्म-नायकों से छोटा कहा गया है। मुनि कल्याण विजयजी उक्त प्रसंगों की कोई संगति नहीं दे पाए हैं । उन्होंने सर्वत्र ऐसे प्रसंगों को काल्पनिक और भ्रामक कह कर टाला है । यह उचित नहीं हुआ है और न बोद्ध पिटकों के साथ न्याय भी । पूर्व और पश्चिम के लगभग सभी इतिहासकारों ने महावीर और बुद्ध के काल-निर्णय में इन आधारों को मूलभूत माना है । दूसरी असंगति यह है कि मुनि कल्याण विजयजी कोणिक के राज्य-काल के दवें वर्ष में बुद्ध-निर्वाण सम्बन्धी उत्तरकालिक ग्रन्थों की मान्यता को मूलभूत मान कर चले हैं और गोशालक के चरम निरूपण से महावीर का १६ वर्ष का जीवन काल बताकर यह निष्कर्ष १. वीर निर्वाण सम्वत् और जैन काल-गणना, पृ० २ । २. वही, पृ० १ । ३. इन सब प्रसंगों की विस्तृत चर्चा प्रस्तुत प्रकरण के अन्तर्गत 'महावीर की ज्येष्ठता' में की गई है । 2010_05 Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [ खण्ड : १ उपस्थित करते हैं : “महावीर अजातशत्रु की राज्य प्राप्ति के सोलह वर्ष से भी अधिक जीवित रहे थे और बुद्ध उसके राज्य काल के ८वें वर्ष में ही देह मुक्त हो चुके थे ।"" जैसा कि बताया गया - कोणिक के राज्य काल के ८वें वर्ष में बुद्ध-निर्वाण की बात उत्तरकालिक और नितान्त पौराणिक है। उसे एक क्षण के लिए सही मान लें, तो भी जैनपरम्परा के अनुसार महावीर - निर्वाण और श्रेणिक के देह मुक्त होने में जो १७ वर्ष का अन्तर माना जाता है, उसके साथ इसकी कोई संगति नहीं बैठती है; क्योंकि कोणिक का राज्यारोहण भगवान् महावीर के निर्वाण से लगभग १७ वर्ष पूर्व हुआ था । इस स्थिति में यदि बुद्ध का निर्वाण कोणिक - राज्यारोहण के ८ वें वर्ष में माना जाए तो बुद्ध और महावीर के निर्वाण में वर्ष से अधिक अन्तर रहना सम्भावित नहीं है । किन्तु दूसरी ओर स्वयं मुनि कल्याण विजयजी के अनुसार ही बुद्ध और महावीर के निर्वाण काल में १४- ३ वर्ष का अन्तर माना गया है । इतनी बड़ी असंगतियों के रहते हुए उनका समाधान कैसे बुद्धिगम्य हो सकता है ? इतिहास के क्षेत्र में जाकर हमें इतिहास की मर्यादाओं में ही विषय को परखना चाहिए । श्री विजयेन्द्र सूरि श्री विजयेन्द्र सूरि द्वारा लिखित तीर्थङ्कर महावीर दो खण्डों में प्रकाशित हुआ है । " ऐतिहासिक तथ्यों का वह भरा-पूरा आकलन है । श्री विजयेन्द्र सूरि ने अनेकानेक प्रमाणों से भगवान् महावीर का निर्वाण-काल ई० पू० ५२७ था, यह स्थापना की है । उन्होंने बुद्ध का निर्वाण-काल ई० पू० ५४४ माना है । ६ कहना चाहिए, उन्होंने सम्भवत: समग्र रूप से मुनि विजयजी की धारणा का समर्थन किया | बौद्ध पिटकों में आए हुए महावीर - निर्वाण के प्रसंगों पर उन्होंने डॉ० ए० एल० बाशम की इस मान्यता को सम्भावित माना है कि वह वस्तुतः गोशालक का मरण था, जिसे बौद्ध - शास्त्र - संग्राहकों ने महावीर का मरण समझ लिया था । श्री विजयेन्द्र सूरि की उपरोक्त धारणा भी कल्पना प्रधान है, न कि प्रमाण- प्रधान । कुछ समय के लिए गोशालक के मरण को महावीर का मरण समझा मी जा सकता है, पर गोशालक की मृत्यु के पश्चात् भगवान् महावीर सोलह वर्ष और जीये और वह भ्रान्ति १. वीर - निर्वाण सम्वत् और जैन काल-गणना, पृ० ७ । २. यह तथ्य 'डा० जेकोबी की दूसरी समीक्षा' के अन्तर्गत 'असंगतियां' में प्रमाणित किया चुका है । ३. वीर - निर्वाण सम्वत् और जैन काल-गणना, पृ० १८ । ४. काशीनाथ सराक, यशोधर्म मन्दिर, बम्बई से प्रकाशित, १६६३ । ५. तीर्थङ्कर महावीर, भाग २, पृ० ३१६-३२४ । ६. वही, पृ० ३२६ । ७. आजीवक, पृ० ७५ । ८. तीर्थंकर महावीर, भाग २, पृ० ३२३ । 2010_05 Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा ] काल- निर्णय ६३ ज्यों-की-त्यों बनी रहे, यह कैसे बुद्धिगम्य हो सकता है। दूसरी बात, जैसे कि कुछ विद्वानों का मत है, उपलब्ध बौद्ध पिटकों का प्रणयन बुद्ध-निर्वाण से दो-तीन शताब्दी बाद हुआ । वहां तक भी वह भूल ज्यों-की-त्यों चलती रही, यह कैसे शक्य हो सकता है, जब कि महावीर और बुद्ध लगभग एक ही सीमित क्षेत्र में विहार करने वाले और एक ही श्रमण परम्परा के उन्नायक थे । श्री विजयेन्द्र सूरि के प्रतिपादन में एक असंगति और खड़ी होती है । वह यह है कि एक ओर वे मानते हैं – 'बुद्ध ने गोशालक के मरण को महावीर के मरण के रूप में सुना', दूसरी ओर वे मानते हैं— 'बुद्ध और गोशालक ; दोनों का ही निधन भगवान् महावीर के निर्वाण से १६ वर्ष पूर्व हुआ ।" ऐसी स्थिति में बुद्ध गोशालक के मृत्यु- संवाद को कैसे सुनते, जबकि पिटकों के अनुसार बुद्ध ने अपने निर्वाण से वर्षों पूर्व ही उस संवाद को सुन लिया था ? यदि पिटकों के आधार पर यह माना जाये कि ऐसी कोई घटना घटित हुई थी तो क्या यह भी मान लेना अपेक्षित नहीं होगा कि वह उनकी मृत्यु से वर्षों पूर्व हुई थी । श्री श्रीचन्द रामपुरिया प्रस्तुत विषय पर एक विवेचनात्मक निबन्ध श्रीचन्दजी रामपुरिया का प्रकाशित हुआ है । उन्होंने अपने निबन्ध में प्रस्तुत विषय के पक्ष और विपक्ष की लभ्य सामग्री का सुन्दर संकलन किया है तथा प्रचलित घटनाओं की यौक्तिक समीक्षा भी की है पर उन्होंने विषय को किसी निर्णायक स्थिति पर नहीं पहुंचाया है । उनका अधिक सुझाव 'महावीर की ज्येष्ठता' का लगता है, क्योंकि उन्होंने डा० जेकोबी और मुनि कल्याण विजयजी के लगभग सारे तर्कों का निराकरण किया है, जो कि उन्होंने बुद्ध की ज्येष्ठता प्रमाणित करने के पक्ष में की हैं । इस सम्बन्ध में उन्हें केवल दो ही प्रसंग ऐसे लगे हैं, जो महावीर की ज्येष्ठता में विचारणीय बनते हैं । महावीर की प्रेरणा से अभयकुमार व बुद्ध के बीच हुए प्रश्नोत्तर और देवदत्त के बारे में बुद्ध द्वारा प्रयुक्त कठोर शब्दों से पहले का प्रसंग सम्बन्धित है । इन दोनों घटनाओं को जोड़कर रामपुरियाजी इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं: "महावीर ने अभयकुमार को चर्चा के लिए भेजा, उसका विषय देवदत्त को बुद्ध द्वारा कहे गये अन्तिम कठोर वचनों का औचित्य अनौचित्य था । ......................इससे स्पष्ट होता है कि देवदत्त के बारे में बुद्ध द्वारा कठोर शब्द कहे जाने के प्रसंग के कुछ साल बाद तक महावीर जीवित थे । देवदत्त अजातशत्रु के राज्याभिरूढ़ होने १. तीर्थंकर महावीर, भाग २,, पृ० ३२६ । २. जैन भारती, वर्ष १२, अंक १, पृ० ५-२१ । ३. विस्तार के लिए देखें, “त्रिपिटक साहित्य में महावीर" प्रकरण के अन्तर्गत 'अभय राजकुमार' | ४. विस्तार के लिए देखें, “विरोधी शिष्य" प्रकरण के अन्तर्गत 'देवदत्त' 1 2010_05 Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड : १ के बाद संघ-विच्छेद कर अलग हुआ था । महावीर के निर्वाण का संवाद सारिपुत्त के जीवनकाल में बुद्ध को मिला था। सारिपुत्त का देहान्त बुद्ध के पूर्व ही हुआ-इसमें बौद्ध लेखक एक मत हैं।' उपर्युक्त सारे बौद्ध उल्लेखों को परस्पर मिलाने से प्रकट होता है कि महावीर का निर्वाण-अजातशत्रु के राज्यारोहण के बाद देवदत्त के विषय में बुद्ध द्वारा उदगार प्रगट किये जाने और सारिपुत्र के देहान्त के बीच होना चाहिए। बुद्ध का निर्वाण अजातशत्रु के राज्यकाल के ८ वें वर्ष में बतलाया गया है। यदि यह ठीक मान लिया जाय तो महावीर का निर्वाण अजातशत्रु के राज्याभिरूढ़ होने के और भी कम अवधि के अन्दर घटित होना चाहिए और अजातशत्रु के राज्यत्वकाल के प्रथम वर्ष के पहले नहीं हो सकता । हम भगवान् महावीर के निर्वाण को अजातशत्रु के राज्यत्वकाल के प्रथम वर्ष में ही मानकर देखें कि उसका क्या नतीजा निकलता है। इसका अर्थ होता है कि जब महावीर ने ७२ वर्ष की अवस्था में निर्वाण प्राप्त किया, उस समय तथागत बुद्ध की अवस्था ७३ वर्ष की थी। जब महावीर ने ४२ वर्ष की अवस्था में केवल ज्ञान प्राप्त किया; तब बुद्ध की अवस्था ४३ वर्ष की थी। अर्थात उन्हें बोधि प्राप्त किये ८ वर्ष हो चुके थे। जब महावीर ने तीस वर्ष की अवस्था में दीक्षा-ग्रहण की, उस समय बुद्ध की अवस्था ३१ वर्ष की थी और उन्हें प्रव्रज्या ग्रहण किये तीन वर्ष हो चुके थे। जब महावीर का जन्म हुआ, उस समय बुद्ध १ वर्ष के थे।" उक्त विवेचन केवल इसी आधार पर ठहरता है कि 'अजातशत्रु के राज्यारोहण के ८ वर्ष बाद बुद्ध का निर्वाण हुआ'। पर स्वयं रामपुरियाजी ने भी 'यदि यह ठीक मान लिया जाये तो' कह कर ही इस तथ्य को प्रस्तुत किया है। वस्तुस्थिति यह है कि '८ वर्ष' की मान्यता केवल महावंश ग्रन्थ की काल-गणना के आधार पर चलती है और वह काल-गणना विद्वानों की दृष्टि में प्रमाणित नहीं है। __दूसरा प्रसंग परिनिर्वाण के समय बुद्ध को सुभद्र परिव्राजक द्वारा पूछे गये प्रश्न से सम्बन्धित है । इस प्रसंग को उद्धृत करते हुए रामपुरियाजी लिखते हैं : "इस प्रसंग से प्रश्न उठता है कि क्या बुद्ध के परिनिर्वाण के दिन तक महावीर जीवित थे ? सुभद्र का प्रश्न जीवित तीर्थङ्करों के बारे में था या निर्वाण-प्राप्त तीर्थङ्करों के सिद्धान्तों की चर्चा-मात्र?" उक्त प्रसंग को भी रामपुरियाजी ने बहुत सजगता से तोला है; क्योंकि ऐसे प्रश्न बहुत बार ढर्रे के रूप में भी हुआ करते हैं और यह प्रश्न तो छहों नाम साथ बोल देने के ढरे रूप ही हुआ है ; यहां तक कि राजा मिलिन्द के साक्षात्कार के सम्बन्ध में भी इन्हीं छः नामों का उल्लेख हुआ है, जब कि राजा मिलिन्द का बुद्ध-निर्वाण के ५०० वर्ष पश्चात् होना १. Edward J. Thomas, The Life of Buddha, PP. 140-141. २. अजातसत्तुनो अट्ठमे वस्से मुनि निव्वुते। -महावंश, परिच्छेद २ । ३. द्रष्टव्य-"त्रिपिटक साहित्य में महावीर" प्रकरण के अन्तर्गत 'सुभद्र परिब्राजक'। ४. मिलिन्द-पञ्हो। ___ 2010_05 Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा ] काल- निर्णय ६५ बताया गया है ।" यह इससे भी स्पष्ट है कि उक्त नामों में मक्खली गोशालक और पूर्णकाश्यप के नाम भी आये हैं; जो कि सर्वसम्मत रूप से बुद्ध से पूर्व ही निधन प्राप्त कर चुके थे । इस प्रकार उक्त प्रसंग बुद्ध की ज्येष्ठता का निर्णायक प्रमाण नहीं बन सकता । डा० शान्तिलाल शाह सन् १९३४ में डा० शान्तिलाल शाह की Chronological Problems नामक पुस्तक बोन (जर्मनी) से प्रकाशित हुई थी । लेखक के शब्दों में "इस पुस्तक का उद्देश्य केवल महावीर और बुद्ध की निर्वाण तिथि व चन्द्रगुप्त मौर्य और अशोक की राज्यारोहण तिथि को ही निश्चित करना नहीं है और न जैन धर्म के पारम्परिक तथ्यों को ही प्रामाणिकता देना है, अपितु उत्तर भारत के अजातशत्रु से लेकर कनिष्क तक के सभी राजाओं के कालक्रम का नव-सर्जन करना है ।" अपने उद्देश्य के अनुसार अजातशत्रु से लेकर कनिष्क तक के काल-क्रम को नया रूप देने का लेखक ने भरसक प्रयत्न किया है । कुछ एक नये तथ्यों को ऐतिहासिक रूप देने में सफल भी हुए हैं; किन्तु यत्र-तत्र जैन पारम्परिक मान्यताओं को ऐतिहासिकता देने में उनका आग्रह-सा भी व्यक्त हुआ है । डा० शाह के अनुसार महावीर का निर्वाण काल ई० पू० ५२७ व बुद्ध का निवाणकाल ई० पू० ५४३ है । दोनों ही निर्वाण-कालों को उन्होंने अपने शब्दों में केवल पारम्परिक आधारों पर ही स्वीकार किया है। पारम्परिक मान्यताएं भी ऐतिहासिक हो जाती हैं, यदि उन्हें अन्य समर्थन मिल जाते हैं। पर डा० शाह ने इस अपेक्षा को अधिक महत्त्व नहीं दिया । परम्परागत उक्त तथ्यों को ही मूलभूत मानकर उन्होने सम्राट् कनिष्क तक की काल-गणना को घटित करने का प्रयत्न किया है । इससे बहुत सारे सर्वमान्य ऐतिहासिक तथ्य मी विघटित हो गये हैं । उदाहरणार्थ - चन्द्रगुप्त मौर्य का ई० पू० ३२२ का राज्याभिषेक - काल १. मिलिन्द - पञ्हो । २. मक्खली गोशाल की मृत्यु भगवान् महावीर के निर्वाण से १६ वर्ष पूर्व ही हो चुकी थी । डा० शाह ने सामगाम सुत्त में बुद्ध द्वारा किये गये महावीर मरण के संवादश्रवण को 'गोशाले के मरण' के रूप में माना है । डा० कोबी, मुनि कल्याण विजयजी, डा० जायसवाल आदि सभी ने महावीर और बुद्ध का जो काल-क्रम माना है, उन सब में गोशालक बुद्ध से पूर्व निर्वाण प्राप्त ही माने गये हैं । · ३. देखें, 'समसामायिक धर्म-नायक' प्रकरण के अन्तर्गत 'जीवन परिचय' । ४. इस पुस्तक पर प्रकाशक और प्राप्ति स्थान नहीं दिया गया है । . Nor alone to fix the death-year of Buddha or Mahavira or the coronation dates of Chandragupta and Ashoka, nor to authenticate the Jaina traditional account, but also to reconstruct the chronology of the whole history of Northern India from Ajatasatru to Kaniska is the aim of this book; because, chronology is not one or two dates, but the record of the whole chain of event in time order. -Chronological Problems, preface p. 1 2010_05 Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड : १ ऐतिहासिक क्षेत्र का एक सर्व-सम्मत तथ्य है, जिसे इतिहासकारों ने उस धुंधले युग में झांकने के लिए एक प्रकाश-स्तम्भ (Light house) माना है। किन्तु डा० शाह के अनुसार वह समय ई० पू० ३१७ का आ जाता है । जहां तक महावीर के निर्वाण-काल का प्रश्न है, पारम्परिक और ऐतिहासिक दोनों ही आधारों से ई० पू० ५२७ सुनिश्चित है । बुद्ध का निर्वाण-काल ई० पू० ५४३ सिलोनी परम्परा के आधार पर है और वह ऐतिहासिक अवलोकन में सही नहीं उतरता। इतिहासकारों की दृष्टि में पूर्व और पश्चिम के अनेकानेक इतिहासकारों ने महावीर और बुद्ध की समसामयिकता पर बहुत कुछ लिखा है। उन सबका एक-एक कर उल्लेख कर पाना सम्भव नहीं है, पर यहां एक ऐसे समुल्लेख को उद्धृत किया जा रहा है, जो इतिहास की वर्तमान धारा का निष्कर्ष माना जा सकता है। डॉ० आर० सी० मजूमदार, डॉ० एच० सी. रायचौधरी तथा डॉ० के० के० दत्त द्वारा लिखित An Advanced History of India नामक ग्रन्थ में प्रस्तुत विषय पर पर्याप्त प्रकाश डाला गया है। ग्यारह सौ से भी अधिक पृष्ठों का यह ग्रन्थ वर्तमान में भारतवर्ष के विश्वविद्यालयों में स्नातकोत्तर परीक्षार्थियों के लिए पाठ्य-ग्रन्थ के रूप में निर्धारित है। इस ग्रन्थ के Ancient India खण्ड में महावीर-निर्वाण के विषय में कहा गया है : “कहा जाता है, यह घटना मौर्यों से २१५ वर्ष पूर्व तथा विक्रम से ४७० वर्ष १. The event is said to have happened 215 year before the Mauryas, and 470 years before Vikrama. This is usually taken to refer to 528 B.C. But 468 B.C. is preferred by some modern scholars. who rely on a tradition recorded by the Jain monk Hemchandra that the interval between Mahavira's death and the accession of Chandragupta Maurya was 155, and not 215 years. The latter date does not accord with the explicit statement found in some of the earliest Buddhist texts that Mahavira predeceased Buddha. The earlier date is also best with difficulties. In the first place it is at variance with the testimony of He mchandra, who places Mahavira's Nirvana only 155 years before Chadragupta Maurya. Again some Jain texts place the Niryana 470 years before the birth of Vikrama, the Vikrama and not his accession, and as this event according to the Jains, does not coincide with the foundation of era of 58 B.C. attributed to Vikrama, the date 528 B.C. for Mahavira's death can hardly be accepted as representing unanimous tradition. Certain Jain writers assume an interval of 18 years between the birth of Vikrama and the foundation of the era 2010_05 Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा Fil-fTOT पूर्व घटित हुई थी, जिसे साधारणतया ई० पू० ५२८ बताया जाता है। किन्तु कुछ आधुनिक विद्वान् इस घटना के ई० पू० ४६८ में घटित होने का समर्थन करते हैं । उसका आधार जैनमुनि हेमचन्द्र द्वारा प्रतिपादित वह परम्परा है, जिसके अनुसार महावीर-निर्वाण और चन्द्रगुप्त मौर्य के राज्यारोहण का अन्तर १५५ वर्ष है, न कि २१५ वर्ष । ई० पू० ४६८ की यह तारीख कुछ एक प्राचीनतम बौद्ध-शास्त्रों में स्पष्टतया उल्लिखित इस कथन के साथ संगत नहीं होती कि महावीर बुद्ध से पूर्व ही निर्वाण-प्राप्त हो चुके थे। ई०पू० ५२८ की तिथि भी कठिनाइयों से परे नहीं है। सर्वप्रथम तो हेमचन्द्र के इस उल्लेख से उसका विरोध है कि चन्द्र attributed to him and thereby seek to reconcil the Jain tradition about the date of Mahavira's Nirvana (58+18+470=546 B.C.) with the Ceylonese date of the great decease of Buddha (544 B.C.) But the suggestion can hardly be said to rest on any reliable tradition. Merutunga places the death of the last Jina or Tirthankara 470 years before the end of Saka rule and the victory, and not the birth of the traditional Vikrama. The date 528 B.C. for the Nirvana of the Inatrika teacher can to a certain extent be reconciled with the Cantonese date of the death of Buddha (486 B.C.). But then we shall have to assume that Mahavira died shortly after Buddha's enlightenment, forty-five years before the Parinirvana, when the letter could hardly have become a renowned religious teacher of long standing as the Buddhist (canonical) texts would lead us to believe. Certain Jaina Sutras seem to suggest that Mahavira died about sixteen years after the accession of Ajatsatru and the commencement of his wars with hostile neighboures. This would place the Nirvana of the Jain teacher eight years after Buddha's death, as according to the Ceylonese chronicles, Buddha died 8 years after the enthronement of Ajatsatru. The Nirvana of the Tirthankara would, according to this view, fall in 478 B.C., if we accept the cantonese reckoning (486 B.C.) as our basis, and in 538 B.C., if we prefer the Ceylonese epoch. The date 478 B.C. would almost coincide with that to which the testimony of Hemchandra leads us and place the accession of Chandra Gupta Maurya in 323 B.C. which cannot be far from truth. But the result in respect of Mahayira himself is at variance with the clear evidence of the Buddhist canonical texts, which make the Buddha survive his Inatrika rival. The Jain statement that their Tirthankara dieds some sixteen years after the accession of Kunika (Ajatsatru) can be reconciled with the Buddhist tradition about the death of 2010_05 Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन गुप्त मौर्य के १५५ वर्ष पूर्व महावीर का निर्वाण हुआ था। दूसरी बात यह है कि कुछ जैन ग्रन्थों के अनुसार महावीर का निर्वाण विक्रम के राज्यारोहण से नहीं, अपितु जन्म से ४७० वर्ष पूर्व हुआ था। उनके अनुसार विक्रम-जन्म की घटना का सम्बन्ध ई० पू० ५८ में स्थापित विक्रम संवत् से नहीं है, इसलिए ई० पू० ५२८ की तारीख महावीर-निर्वाण के लिए निर्विरोध परम्परा के रूप में स्वीकार नहीं की जा सकती। कुछ जैन लेखक विक्रम के जन्म और विक्रम सम्बत् की स्थापना के बीच १८ वर्ष का अन्तर मान लेते हैं और इस प्रकार जैन परम्परा से सम्बन्धित महावीर-निर्वाण की तारीख (५८+१८+ ४७० = ई० पू० ५४६) को लंकावासियों द्वारा मान्य बुद्ध-निर्वाण की तारीख ई० पू० ५४४ के साथ संगति बिठाना चाहते हैं, किन्तु यह सुझाव भी किसी प्रामाणिक परम्परा पर आधारित नहीं कहा जा सकता है । मेस्तंग के अनुसार अन्तिम जिन अर्थात् तीर्थङ्कर का निर्वाण पारम्परिक विक्रम के जन्म से नहीं, अपितु उसकी विजय तथा शक राज्य की समाप्ति से ४७० वर्ष पूर्व हुआ था। ज्ञातपूत्र के निर्वाण की ई० पू० ५२८ की तारीख की बुद्ध के निर्वाण की कैन्टनीज तारीख (ई० पू० ४८६) के साथ कुछ अंशों में संगति बिठाई जा सकती है। परन्तु तब हमें यह मानना पड़ेगा कि बुद्ध के बोधि-लाभ के थोड़े ही समय पश्चात् व उनके निर्वाण से ४५* वर्ष पूर्व ही महावीर का निर्वाण हो जाता है तथा यह भी नहीं हो सकता कि उस समय बुद्ध एक दीर्घकालीन प्रसिद्ध धार्मिक आचार्य बन गए हों; जैसा कि बौद्ध-शास्त्र हमें मानने को बाधित करते हैं। कुछ जैन सूत्र ऐसा बताते हैं कि अजातशत्रु के राज्यारोहण तथा उसके अपने पड़ोसी शत्रुओं के साथ युद्ध प्रारम्भ होने के सोलह वर्ष बाद महावीर का निर्वाण हुआ। इससे तो महावीरनिर्वाण बुद्ध-निर्वाण से ८ वर्ष बाद होगा, क्योंकि लंका की गाथाओं (Chronicles) के अनुसार बुद्ध अजातशत्रु के राज्यारोहण के ८ वर्ष बाद निर्वाण-प्राप्त हुए। इस दृष्टिकोण के अनुसार तीर्थकर महावीर का निर्वाण ई० पू० ४७८ में होगा, यदि हम कैन्टनीजपरम्परा (ई० पू० ४८६) को स्वीकार करें; और यदि लंका की परम्परा (ई० पू० ५४४) को स्वीकार करें तो ई० पू० ५३६ में होगा। ई० पू० ४७८ की तारीख हेमचन्द्र के उल्लेख के साथ लगभग मेल खाती है तथा इसके आधार पर चन्द्रगुप्त मौर्य का राज्यारोहण ई० पू० ३२३ में ठहरता है, जो असत्य नहीं हो सकता। किन्तु स्वयं महावीर के सम्बन्ध में यह निष्कर्ष बौद्ध-शास्त्रों के उस स्पष्ट प्रमाण के साथ कुछ भी मेल नहीं खाता, जो बुद्ध को अपने ज्ञात्रिक प्रतिस्पर्धी (महावीर) के बाद भी जीवित बताते हैं। जैन परम्परा के अनुसार 'तीर्थकर महावीर का निर्वाण अजातशत्रु के राज्याभिषेक के लगभग सोलह वर्ष बाद हुआ।' the same teacher before the eighth year of Ajatsatru, if we assume that the Jains, who refer to Kunika as the ruler of Champa, begin their reckoning from the accession of the prince to the viceregal throne of Champa while the Buddhist make the accession of Ajastsatru to the royal throne of Rajgriha the basis of their calculation." * यहां ४२ वर्ष होना चाहिए। लगता है, भूल से ४५ वर्ष छपा है ; क्योंकि ई० पू० ५२८ और ई०पू० ४८६ बीच ४२ वर्ष का अन्तर है। ४५ वर्ष मानने से तो बुद्ध को महावीरनिर्वाण के समय बोधि-लाम भी नहीं हो सकता। ____ 2010_05 Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा काल-निर्णय ६६ बौद्ध परम्परा की मान्यता है - 'अजातशत्रु के राज्य-काल के ८वें वर्ष से पूर्व ही बुद्ध का निर्वाण हुआ।' इन दोनों मान्यताओं की संगति तभी हो सकती है, जब कि यह माना जाये कि कोणिक को चम्पा का राजा मानने वाली जैन-गणना का प्रारम्भ कोणिक के चम्पा-शाखा के राज्याभिषेक से हुआ है और बौद्ध-गणना का प्रारम्भ राजगृह के राज्याभिषेक से हुआ उक्त विवेचन में विशेष ध्यान देने की एक बात यह भी है कि वर्तमान के इन इतिहास विशेषज्ञों ने डॉ० जेकोबी और शार्पेन्टियर द्वारा माने गये महावीर और बुद्ध के निर्वाण-सम्बन्धी काल-क्रम को कोई मान्यता नहीं दी है : इसका मूलभूत कारण यही है कि तब से अब तक ऐतिहासिक धारणाओं में अनेक अभिनव उन्मेष आ चुके हैं। तीनों इतिहासकारों ने महावीर के निर्वाण-प्रसंग के सम्बन्ध में दो तथ्यों को मूलभूत माना है और एतद्विषयक निर्णय में उनकी सुरक्षा पूर्ण अपेक्षित मानी है। एक तो महावीरनिर्वाण के तीन तिथि-क्रमों में से उन्होंने ई० पू० ५२८ के तिथि-क्रम को सर्वाधिक विश्वस्त माना है। दूसरा तथ्य बौद्ध पिटकों में आने वाले महावीर के निर्वाण-सम्बन्धी सम्मुल्लेख है। ‘महावीर का निर्वाण बुद्ध से पूर्व हुआ, यह तो उन्होंने निश्चित माना ही है और ऐसे तिथि-क्रम की अपेक्षा व्यक्त की है, जो इन तथ्यों को साथ लेकर चल सके । उक्त विवेचन में अल्पता की बात यह रही है कि यहां जीवन-प्रसंगों को तो संगति देने का प्रयन्न किया गया है, पर उनके साथ किसी भी काल-क्रम को संगत करने का पर्याप्त प्रयास नहीं किया गया। कालक्रम की दृष्टि से महावीर-निर्वाण उन्होंने ई० पू० ५२८ माना है और बुद्ध-निर्वाण को कैन्टनीज-परम्परा के अनुसार ई० पू०४८६ माना है। ऐसी स्थिति में महावीर और बुद्ध का व्यवधान ४२ वर्ष का पड़ जाता है। इतने व्यवधान के रहते महावीर और बुद्ध के जीवनप्रसंगों में कोई संगति नहीं बैठ सकती। अपेक्षा है, ऐसे काल-क्रम को अपनाने की, जो उन जीवन्त जीवन-प्रसंगों के साथ संगत हो सके। अनुसंधान और निष्कर्ष सर्वाङ्गीण दृष्टि महावीर और बुद्ध की समसामयिकता और उनके निर्वाण का प्रश्न पहले पहल उपलब्ध इतिहास के केवल सामान्य तथ्यों पर हल किया जाने लगा था; फिर कुछ विद्वानों ने बौद्ध पिटकों की तह में जाकर इस विषय का अनुसन्धान आरम्भ किया तो कुछ विद्वानों ने जैन शास्त्रों की तह में जाकर । सामान्य इतिहास जहां आगमों और त्रिपिटकों की पुट पाए बिना अपूर्ण था, वहां आगमों और त्रिपिटकों की एकांगी छान-बीन ने सारे विषय पर कुछ साम्प्रदायिक रंग ला दिया। कुछ एक लोगों ने बौद्ध पिटकों को अक्षरशः प्रमाण माना और जैन आगमों को साधारणतया; तो कुछ एक लोगों ने जैन आगमों को अक्षरशः प्रमाण माना व बौद्ध पिटकों को साधारणतया । यह ऐतिहासिक पद्धति नहीं हो सकती । प्रस्तुत विषय के सर्वाङ्गीण निष्कर्ष तक पहुँचने के लिए सामान्य ऐतिहासिक आधारों, बौद्ध पिटकों के सम्मुल्लेखों और जैन आगमों के निरूपणों को सन्तुलित रखते हुए ही कुछ सोचना होगा । इस विषय में हमें यह भी ध्यान रखना होगा कि आगम और त्रिपिटक क्रमशः जैन और बौद्ध 2010_05 Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम और त्रिपिटक एक अनुशीलन [ खण्ड : १ परम्पराओं में मूल रूप से प्रमाण माने जाते हैं। उत्तरवर्ती ग्रन्थ वहीं तक प्रमाण हैं, जहां तक कि वे उन मौलिक शास्त्रों का साथ देते हैं । ७० महावीर और बुद्ध की समसामयिकता पर विचार करने में अनेकानेक आघार उपलब्ध होते हैं, किन्तु उन सबमें भी साक्षात्, स्पष्ट और अनन्तर प्रमाण बौद्ध पिटकों का है । अतः आवश्यक है, बौद्ध पिटकों के उन प्रकरणों पर एक-एक कर विचार किया जाये । निर्वाण प्रसंग जिन प्रकरणों में भगवान् महावीर के निर्वाण की चर्चा की है, वे क्रमश: इस प्रकार हैं : 1 ( १ ) भगवान् शाक्य देश में सामगाम में विहार कर रहे थे । निगण्ठ नातपुत्त की कुछ ही समय पूर्व पावा में मृत्यु हुई थी । उनकी मृत्यु के अनन्तर ही निगण्ठों में फूट हो गई, दो पक्ष हो गए, लड़ाई चल रही थी और कलह हो रहा था । निगष्ठ एक दूसरे को वचन - बाणों से बींधते हुए विवाद कर रहे थे - ' तुम इस धर्म - विनय को नहीं जानते, मैं इस धर्मविनय को जानता हूँ । तुम मला इस धर्म - विनय को क्या जानोगे ? तुम मिथ्या प्रतिपन्न हो, मैं सम्यक् प्रपन्न हूँ | मेरा कहना सार्थक, तुम्हारा कहना निरर्थक है । जो बात पहले कहनी चाहिए थी, वह तुमने पीछे कही । जो पीछे कहनी चाहिए थी, वह तुमने पहले कही । तुम्हारा विवाद बिना विचार का उल्टा है । तुमने वाद रोपा है, तुम निग्रह स्थान में आ गये । तुम इस आक्षेप से बचने के लिए यत्न करो, यदि शक्ति है तो इसे सुलझाओ।' मानो निगण्ठों में युद्ध हो रहा था । 1 निगण्ठ नातपुत्त के श्वेत वस्त्रधारी गृहस्थ शिष्य भी नातपुत्तीय निगण्ठों में वैसे ही विरक्त-चित्त हो रहे थे, जैसे नातपुत्त के दुराख्यात, दुष्प्रवेदित, अनैर्याणिक, अन्-उपशमसंवर्तनिक, अ-सम्यक् सम्बुद्ध प्रवेदित, प्रतिष्ठा रहित, भिन्न स्तूप, आश्रय-रहित धर्म में अन्यमनस्क, खिन्न और विरक्त हो रहे थे । चुन्द सरणुद्देस पावा में वर्षावास कर सामगाम में आयुष्मान् आनन्द के पास गये और उन्हें निगण्ठ नातपुत्त की मृत्यु तथा निगन्ठों में परिव्याप्त फूट की विस्तृत सूचना दी । आयुष्मान आनन्द बोले - " आवुस चुन्द ! यह कथा भेंट रूप है । हम भगवान के पास चलें और उनसे यह निवेदित करें ।" आयुष्मान् आनन्द और चुन्द समणुद्देस भगवान् के पास आये । अभिवादन कर दोनों ही एक ओर बैठ गये । आयुष्मान् आनन्द ने भगवान् को निवेदित किया "भन्ते ! चुन्द समद्देस ऐसा कह रहे हैं कि निगष्ठ नातपुत्त अभी-अभी ( कुछ ही दिन पूर्व ही ) मृत्यु को प्राप्त हुए हैं । उनके संघ में भयंकर विग्रह हो रहा है। सभी श्रमण एक दूसरे पर आक्षेपप्रत्याक्षेप कर रहे हैं । भन्ते ! मुझे भी ऐसा अनुभव होता है कि भगवान् के बाद भी संघ में कहीं ऐसा विग्रह उत्पन्न न हो जाये । वह विवाद बहुत जनों के असुख के लिए, बहुत जनों के अनर्थ के लिए, देव- मनुष्यों के अहित और दुःख के लिए होगा ।' भगवान् ने प्रश्न किया - "आनन्द ! साक्षात्कार कर मैंने जिन धर्मों का उपदेश किया है, क्या इन धर्मों में दो भिक्षुओं की भी मत- भिन्नता दिखलाई देती है ?" आयुष्मान् आनन्द ने निवेदन किया—“भन्ते ! भगवान् ने धर्म-साक्षात्कार 2010_05 Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा काल-निर्णय कर जो उपदेश किये हैं, उनमें किसी भी भिक्षुक की मैं मत-मिन्नता नहीं देखता। किन्तु, जो पुद्गल भगवान् के आश्रय से विहरते हैं, भगवान् के न रहने के बाद संघ में जीविका के विषय में, प्रातिमोक्ष (भिक्षु-नियम) के विषय में वे विवाद उत्पन्न कर सकते हैं। वह विवाद बहुतजनों के अहित के लिए, असुख के लिए, अनर्थ के लिए, देव-मनुष्यों के अहित और दुःख के लिए होगा।' (२) भगवान् बुद्ध एक समय शाक्य देश में वेधजा नामक शाक्यों के आम्र-वनप्रासाद में विहार कर रहे थे। निण्ठ नातपुत्त की कुछ ही समय पूर्व पावा में मृत्यु हुई थी। उनकी मृत्यु के अनन्तर ही निगण्ठों में फूट हो गई, दो पक्ष हो गये, लड़ाई चल रही थी और कलह हो रहा था। निगण्ठ एक दूसरे को वचन-वाणों से बींधते हुए विवाद कर रहे थे-'तुम इस धर्म-विनय को नहीं जानते, मैं इस धर्म-विनय को जानता हूं। तुम भला इस धर्म-विनय को क्या जानोगे ? तुम मिथ्या-प्रतिपन्न हो, मैं सम्यक् प्रतिपन्न हं। मेरा कहना सार्थक है, तम्हारा कहना निरर्थक है। जो बात पहले कहनी चाहिये थी, वह तुमने पीछे कही। जो पीछे कहनी चाहिए थी, वह तुमने तुमने पहले कही। तुम्हारा विवाद बिना विचार का उल्टा है । तुमने वाद रोपा है, तुम निग्रह-स्थान में आ गये। तुम इस आक्षेप से बचने के लिए यत्न करो, यदि शक्ति है तो इसे सुलझाओ।" मानों निगण्ठों में युद्ध हो रहा था। - निगण्ठ नातपुत्त के श्वेत वस्त्रधारी गृहस्थ शिष्य भी नातपुत्तीय निगण्ठों में वैसे ही विरक्त-चित्त हो रहे थे, जैसे नातपुत्त के दुराख्यात, दुष्प्रवेदित, अनैर्याणिक, अन-उपशमसंवर्तनिक, अ-सम्यक्-सम्बुद्ध-प्रवेदित, प्रतिष्ठा-रहित, भिन्न-स्तूप, आश्रय-रहित धर्म में अन्यमनस्क, खिन्न और विरक्त हो रहे थे। चुन्द समणुद्देस पावा में वर्षावास कर सामगाम में आयुष्मान् आनन्द के पास गये और उन्हें निगण्ठ नातपुत्त की मृत्यु तथा निगण्ठों में परिव्याप्त फूट की विस्तृत सूचना दी। आयुष्मान् आनन्द बोले-"आवुस चुन्द ! यह कथा भेंट रूप है । हम भगवान के पास चलें और उनसे यह निवेदन करें।" आयुष्मान् आनन्द और चुन्द समणुद्देस भगवान् के पास आये । अभिवादन कर दोनों ही एक ओर बैठ गये। आयुष्मान् आनन्द ने भगवान् को निवेदन किया-भन्ते ! चुन्द समणुद्देस ऐसा कह रहे हैं कि निगण्ठ नातपुत्त अभी-अभी (कुछ दिन पूर्व ही) मृत्यु को प्राप्त हुए हैं। उनके संघ में भयंकर विग्रह हो रहा है । सभी श्रमण एक दूसरे पर आक्षेप-प्रत्याक्षेप कर रहे हैं । भन्ते ! मुझे भी ऐसा अनुभव होता है कि भगवान् के बाद भी संघ में कहीं ऐसा विग्रह उत्पन्न न हो जाये। वह विवाद बहुत जनों के अहित के लिए, बहुत जनों के असुख के लिए, बहुत जनों के अनर्थ के लिए, देव-मनुष्यों के अहित और दु:ख के लिए होगा।" ___ भगवान् बुद्ध ने कहा-“चुन्द ! जहां शास्ता सम्यक् सम्बुद्ध नहीं होता, धर्म दुराख्यात होता है, वहां क्या नहीं हो सकता ? अतः चुन्द ! जिस धर्म को मैंने साक्षात्कार कर तुम्हें उपदेश किया है, उसे सभी मिलजुलकर ठीक समझें, विवाद न करें !"३ (३) पावा-वासी मल्लों का उन्नत व नवीन संस्थागार उन्हीं दिनों बना था। तब १. मज्झिम निकाय, सामगाम सुत्तन्त, ३-१-४ । २. दीघ निकाय, पासादिक सुत्त, ३-६ । 2010_05 Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७३ आगम और त्रिपिटक : एक शनुशीलन [खण्ड :१ तक वहां किसी श्रमण-ब्राह्मण ने वास नहीं किया था। भगवान् बुद्ध मल्ल में चारिका करते हुए पावा पहुंचे और चुन्द कार-पुत्र के आम्र-वन में ठहरे। जब पावा-वासी मल्लों को इसकी सूचना हुई, तो वे उन्हें अपने संस्थागार के अभिमंत्रित करने के लिए आये। उन्होंने निवेदन किया- “संस्थागार का सर्वप्रथम आप ही परिभोग करें। उसके अनन्तर उसका हम परिभोग करेंगे। यह हमारे दीर्घरात्र तक हित-सुख के लिए होगा।" बुद्ध ने मौन रह कर स्वीकृति दी । मल्ल वापस शहर में आये। उन्होंने संस्थागार को अच्छी तरह सजाया। सब जगह फर्श बिछाया और आसन स्थापित किये। पानी के मटके रखे और दीपक जलाये। बुद्ध के पास आये और उन्हें सूचित किया। बुद्ध पात्र-चीवर लेकर भिक्ष-संघ के साथ संस्थागार में आये। पावा-वासी मल्लों को बुद्ध ने बहुत रात तक धार्मिक कथा से संदर्शित, समुत्तेजित और संग्रहर्षित कर विजित किया। भिक्षु-संघ को तुष्णीभूत देख कर भगवान् ने सारिपुत्त को आमंत्रित किया और निर्देश दिया--"सारिपुत्त ! भिक्षु-संघ स्त्यानमृद्ध-रहित है । तुम उन्हें धर्म-कथा कहो । मेरी पीठ अगिया रही है, मैं लेटूंगा।" । सारिपुत्त ने बुद्ध का निर्देश शिरोधार्य किया। चौपेती संघाटी बिछवा, दाहिनी करवट के बल, पैर पर पैर रख, स्मृति-संप्रजन्य के साथ उत्थान-संज्ञा मन में कर सिंह-शय्या लगाई। निगण्ठ नातपुत्त की कुछ ही समय पूर्व पावा में मृत्यु हुई थी। उनके काल करने से निगण्ठों में फूट पड़ गई और दो पक्ष हो गये। दोनों विवाद में पड़, एक-दूसरे पर आक्षेप-प्रत्याक्षेप करते हुए कह रहे थे- 'तू इस धर्म-विनय को नहीं जानता, मैं इस धर्म को जानता हूं।' तू इस धर्म को क्या जानेगा ?' 'तू मिथ्यारूढ़ है, मैं सत्यारूढ़ हूं।' 'मेरा कथन अर्थ-सहित है, तेरा नहीं है।' 'तूने पहले कहने की बात पीछे कही और पीछे कहने की बात पहले कही।' 'तेरा विवाद बिना विचार का उल्टा है। तू ने वाद आरम्भ किया, किन्तु,निगृहीत हो गया।' 'इस वाद से बचने के लिए इधर-उधर भटके।' 'यदि इस बाद को समेट सकता है, तो. समेट ।' निगण्ठों में मानों युद्ध ही हो रहा था। निगण्ठ, नातपुत्त के श्वेत वस्त्रधारी गृहस्थ शिष्य भी नातपुत्तीय निगण्ठों में वैसे ही विरक्त चित्त हो रहे थे, जैसे कि वे नातपुत्त के दुराख्यात, दुष्प्रवेदित, अ-नैर्याणिक, अन्-उपशम-संवर्तनिक, अ-सम्यक्-सम्बुद्ध-प्रवेदित, प्रतिष्ठा-रहित, आश्रय-रहित धर्म में है। आयुष्मान सारिपुत्त ने भिक्षुओं को आमंत्रित किया और उन्हें निगण्ठ नातपुत्त की मृत्यु का संवाद तथा निगण्ठों की फूट की विस्तृत जानकारी देते हुए कहा-"हमारे भगवान् का यह धर्म सु-आख्यात, सुप्रवेदित, नैर्याणिक, उपशम-संवर्तनिक, सम्यक्-सम्बुद्ध-प्रवेदित है। यहां सबको ही अविरुद्ध भाषी होना चाहिए। विवाद नहीं करना चाहिए, जिससे कि यह ब्रह्मचर्य अध्वनिक (चिरस्थायी) हो और बहुजन-हितार्थ, बहुजन-सुखार्थ, लोक अनुकम्पा के लिए तथा देव व मनष्यों के हित व सख के लिए हो।" भगवान् बुद्ध ने दूर से सारिपुत्त का उपदेश-प्रकार सुना। वे तत्काल उठ गये। उन्होंने आयुष्मान् सारिपुत्त को अमंत्रित किया और कहा- "सारिपुत्त ! सारिपुत्त ! तूने भिक्षओं को अच्छे संगीति-पर्याय (एकता का ढंग) का उपदेश दिया है।" आयुष्मान् सारिपुत्त ने कहा- "शास्ता इससे सहमत हुए, मुझे इसकी प्रसन्नता है। अन्य भिक्षुओं ने भी आयुष्मान् सारिपुत्त के भाषण का अभिवादन किया ।" १. दीघ निकाय, संगीति-परियाय सुत्त, ३-१०-१, २, ३ । ____ 2010_05 Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा ] काल-निर्णय ७३ उक्त तीनों प्रकरणों की आत्मा एक है और उनके ऊपर का ढांचा कुछ भिन्न है । प्रथम प्रकरण में बुद्ध इस संवाद -श्रवण के बाद आनन्द को उपदेश करते हैं और दूसरे में चुन्द को; दोनों उपदेशों का शब्द - विन्यास कुछ भिन्न है, पर सुझाव एक ही है । पहले और दूसरे में यह संवाद बुद्ध सामगाम' में सुनते हैं और वहीं उपदेश करते हैं। तीसरे प्रकरण में सारिपुत्र पावा में भिक्षुओं को महावीर - निर्वाण की बात कहकर उपदेश करते हैं । कुछ एक लेखकों ने माना है कि इन प्रकरणों में विरोधाभास है; अतः ये प्रामाणिक नहीं होने चाहिए। वस्तुस्थिति यह है - इतिहास किसी भी शास्त्र के सम्मुल्लेख को अक्षरशः मानकर नहीं चला करता । किसी भी सम्मुल्लेख का मूल हार्द यदि असंदिग्ध है, तो इतिहास उसे ले लेता है। सच बात तो यह है कि तीनों प्रकरणों के अन्तर परस्पर विरोधी हों, एसी बात भी नहीं है । पहले प्रकरण में उपदेश-पात्र आनन्द को और दूसरे प्रकरण में चुन्द को जो बताया गया है, उसके अनेक बुद्धि-गम्य कारण हो सकते हैं। हो सकता है, दोनों ने वह उपदेश एक साथ ही श्रवण किया हो और संकलनकारों ने अपनी-अपनी बुद्धि से एक-एक को महत्त्व दे दिया हो। हो सकता है, यह किंचित् कालान्तर से बुद्ध ने दोनों को पृथक्-पृथक् उपदेश दिया हो । तीसरा प्रकरण अपने आप में स्वतंत्र है ही तथा वह तो प्रत्युत पहले दो प्रकरणों का और पुष्टिकारक बन जाता है । पावा में यह घटना घटित हुई थी; अतः पावा में आने पर सारिपुत्र का उस घटना . को याद करना नितान्त स्वाभाविक ही हो सकता है । भगवान् महावीर के निर्वाण प्रसंग पर अनुयायियों में मत-भेद की चर्चा तीनों ही प्रकरणों में की गई है । जैन परम्परा इस बात की कोई स्पष्ट साक्षी नहीं देती। हो सकता है, भगवान् महावीर के उत्तराधिकारत्व के विषय में परस्पर चिन्तन चला हो । इन्द्रभूति ( गौतम स्वामी) प्रथम गणधर थे । सामान्यतया उत्तराधिकार उन्हें मिलना चाहिए था । पर वह पंचम गणधर सुधर्मा स्वामी को यह कह कर मिला कि केवली तीर्थङ्करों के उत्तराfधकारी नहीं बनते । सम्भव है, यह चिन्तन भी उस निष्कर्ष से निकला हो । यह भी असम्भव तो नहीं माना जा सकता कि गौतम स्वामी के अनुयायी साधुओं और सुधर्मा स्वामी के अनुयायी साधुओं में इसी विषय पर यत्किचित् विवाद न हुआ हो । इसकी तनिक सी झलक हमें इस बात से भी मिलती है कि श्वेताम्बर- परम्पराओं में भगवान् महावीर के प्रथम पट्टधर सुधर्मा स्वामी को माना जाता है, जब कि दिगम्बर- परम्पराओं में गौतम स्वामी को मगवान् महावीर का प्रथम पट्टधर माना जाता है । बौद्ध प्रकरणों में जो, श्वेत वस्त्रधारी' शब्द आया है, वह भी 'अचेल ' और ' सचेल' निर्ग्रन्थों के संघर्ष को इंगित करता है ।" हो सकता है, बौद्धों ने उक्त तीनों प्रकरणों को बहुत बढ़ावा दे दिया हो। यह होता है कि एक सम्प्रदाय की तनिक-सी घटना को प्रतिस्पर्धी सम्प्रदाय के लोग अतिरंजित करके ही बहुधा व्यक्त करते हैं । १. वेवञ्या नामक शक्य सामगाम में रहते थे तथा बाण वेध के ज्ञाता थे; अत: "वेधज्ञ” कहा गया है । द्रष्टव्य, Dictionary or Pali Proper Names, vol II, P. 924. २. उक्त समाधान आनुमानिक है, किन्तु जो संकेत इससे उभरे हैं, हो सकता है, गहराई में जाने से श्वेताम्बर और दिगम्बर के भेद का मूल भी यहीं-कहीं निकल जाये । शोधशील विचारकों के लिए यह ध्यातव्य है । 2010_05 Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन श्री धर्मानन्द कोसम्बी ने जैन आगमों में वर्णित गोशालक के न्यूनता सूचक वर्णन को बहुत ही अतिरंजित माना है । ' डॉ. जेकोबी ने उक्त प्रकरणों को इसलिए भी अप्रामाणिक माना है कि इनमें से कोई समुल्लेख महापरिनिग्वाणसुत में नहीं है, जिसमें कि भगवान् बुद्ध के अन्तिम जीवनप्रसंगों का ब्यौरा मिलता है। डॉ० जेकोबी के इस तर्क से यह तो प्रमाणित नहीं होता कि ये तीनों प्रकरण असंगत हैं; किन्तु यह अवश्य प्रमाणित हो जाता है कि ये प्रकरण बुद्ध-निर्वाणसमय के निकट के नहीं हैं । मुनि कल्याणविजयजी ने उक्त तीनों प्रकरणों को एक भ्रान्ति मात्र का परिणाम माना है। उन्होंने जहां महावीर के निर्वाण प्रसंग को उनकी रुग्णावस्था में हुई अफवाह माना है, वहीं उन्होंने निर्वाणन्तर बताये गये निर्ग्रन्थों के पारस्परिक कलह को जमालि की घटना के साथ जोड़ा है। उनका कहना है: “निर्ग्रन्थों के द्वैधीभाव और एक दूसरे की खटपट का बौद्धों ने जो वर्णन किया है, वह भगवती सूत्र में वर्णित जमालि सौर गौतम इन्द्रभूति के विवाद का विकृत स्वरूप है ।" भगवान् महावीर के साथ गोशालक का विवाद श्रावस्ती नगरी में होता है और जमालि व इन्द्रभूति का शास्त्रार्थं चम्पा नगरी में होता है। इन दोनों घटनाओं केन क्षेत्र एक हैं, न काल एक तथा न इन घटनाओं में परस्पर कोई विषय का भी सम्बन्ध है । ऐसी स्थिति में यह संगति उक्त तीनों प्रकरणों को भ्रान्ति मात्र प्रमाणित करने में यत्किं - चित् भी समर्थ नहीं है । तीनों प्रकरणों में निर्वाण तथा विवाद का पावा में घटित होने का स्पष्ट उल्लेख है । श्रावस्ती और चम्पा की घटनाओं का वहाँ क्या सम्बन्ध जुड़ सकता है ? भगवान् महावीर जैसे युगपुरुषों की निर्वाण की कोई असत्य बात उठे और वह चिरकाल तक चलती ही रहे, यह कैसे सम्भव हो सकता है ? कालान्तर से सारिपुत्र पावा में ही आकर उस घटना को दोहराते हैं। तब तक यदि महावीर का निर्वाण हुआ ही नहीं था उनको यह अवगति नहीं हो गई होती ? किन्हीं उदन्तों का ऐसा कहा जा सकता । १. देखें, पार्श्वनाथ का चातुर्याम धर्म । २. श्रमण, वर्ष १३, अंक ६, पृ० १३ | ३. वीर - निर्वाण सम्वत् और जैन काल-गणना, पृ० १२-१३ । ४. भगवती सूत्र, शतक ६, उ० ३३ । [ खण्ड 2010_05 : १ इन तीनों प्रकरणों की वास्तविकता में हमें इसलिए भी सन्देह नहीं करना चाहिए कि जैन आगमों में महावीर निर्वाण के सम्बन्ध में कोई विरोधी उल्लेख नहीं मिल रहा है । जैन आगमों में यदि महावीर और बुद्ध के निर्वाण की पूर्वापरता के सम्बन्ध में कोई स्पष्ट उल्लेख होता तो हमें उन तीन प्रकरणों की वास्तविकता में फिर भी सन्देह हो सकता था । बौद्ध-शास्त्रों में भी तीन प्रकरणों के अतिरिक्त ऐसा कोई मी चौथा प्रकरण होता, जो महावीर - निर्वाण से पूर्व बुद्ध-निर्वाण की बात कहता, तो हमें गम्भीरता से सोचना होता । जो प्रकरण अपने आप में असंदिग्ध हैं, उन्हें तथ्य- निर्णय के लिए प्रमाणभूत मान लेना जरा भी असंगत नहीं है । तो क्या पावा के लोगों से सामञ्जस्य 'संगति' नहीं Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा ] महावीर की ज्येष्ठता उक्त तीन प्रकरणों के अतिरिक्त और भी अनेक ऐसे प्रसंग बौद्ध साहित्य में उपलब्ध होते हैं, जो बुद्ध का छोटा होना और महावीर का ज्येष्ठ होना प्रमाणित करते हैं । अब तक के अधिकांश विद्वानों ने केवल उक्त तीन प्रकरणों पर ही आलोडन- विलोडन किया है । तत्सम्बन्धी अन्य प्रसंगों पर न जाने उनका ध्यान क्यों नहीं गया, जिनमें बुद्ध स्वयं अपने को तात्कालिक सभी धर्मनायकों में छोटा स्वीकार करते हैं । वे प्रकरण क्रमश: निम्न हैं: काल-निर्णय (१) एक बार भगवान् बुद्ध श्रावस्ती में अनाथपिण्डिक के जेतवन में विहार कर रहे थे । राजा प्रसेनजित् कौशल भगवान् के पास गया, कुशल प्रश्न पूछे और जिज्ञासा व्यक्त की— "गौतम ! क्या आप भी अधिकार- पूर्वक यह कहते हैं, आपने अनुत्तर सम्यग् सम्बोधि को प्राप्त कर लिया है ?" भगवान् ने उत्तर दिया- "महाराज ! यदि कोई किसी को सचमुच सम्यग् कहे, तो वह मुझे ही कह सकता है । मैंने ही अनुत्तर सम्यग् सम्बोधि का साक्षात्कार किया है ।" राजा प्रसेनजित् कौशल ने कहा – “गौतम ! दूसरे श्रमण-ब्राह्मण, जो संघ के अधिपति, गणाधिपति, गणाचार्य, प्रसिद्ध, यशस्वी, तीर्थंकर और बहुजन सम्मत पूरणकस्सप, मक्खलि गोशाल, निगण्ठ नातपुत्त, संजय वेलट्ठिपुत्त, पकुध कच्चायन, अजित केसकम्बली आदि से भी ऐसा पूछा जाने पर, अनुत्तर सम्यग् सम्बोधि प्राप्ति का अधिकार - पूर्वक कथन नहीं करते हैं । आप तो अल्पवयस्क व सद्यः प्रव्रजित हैं; फिर यह कैसे कह सकते हैं ? बुद्ध ने कहा - "क्षत्रिय, सर्प, अग्नि व भिक्षु की अल्प वयस्क समझकर कभी भी उनका परिभव व अपमान नहीं करना चाहिए | कुलीन, उत्तम, यशस्वी क्षत्रिय को अल्प वयस्क समझना भूल है । हो सकता है, समयान्तर से वह राज्य प्राप्त कर मनुष्यों का इन्द्र हो जाये और उसके बाद तिरस्कर्ता का राज दण्ड के द्वारा प्रतिशोध ले। अपने जीवन की रक्षा के लिए इससे बचना आवश्यक है। गांव हो या अरण्य, सर्प को भी छोटा नहीं समझना चाहिए । सर्प नाना रूपों से तेज में विचरता है । समय पाकर वह नर, नारी, बालक आदि को डंस सकता है । जीवन रक्षा के निमित इससे बचना भी आवश्यक है। बहुभक्षी कृष्ण वर्मा पावक को दहर नहीं समझना चाहिए। सामग्री पाकर वह अग्नि सुविस्तृत होकर नर-नारियों को जला देती है; अतः जीवन-रक्षा के निमित इससे बचना भी आवश्यक है । अग्नि वन को जला देती है । अहोरात्र बीतने पर वहां अंकुर उत्पन्न हो जाते हैं । किन्तु, शील-सम्पन्न भिक्षु अपने तेज से जिसे जला डालता है, उसके पुत्र, पशु तक भी नहीं होते। उसके दायाद भी धन नही पाते । वह् निःसन्तान और निर्धन सिर कटे ताल वृक्ष जैसा हो जाता है । अत: पण्डित पुरुष अपने हित का चिन्तन करता हुआ भुजंग, पावक, यशस्वी क्षत्रिय और शीलसम्पन्न भिक्षु के साथ अच्छा व्यवहार करें ।' ७५ (२) एक बार भगवान् बुद्ध राजगृह में वेलुवन कलन्दक निवास में विहार कर रहे थे । समिय परिव्राजक के एक हितैषी देव ने उसे कुछ प्रश्न सिखाये और कहा – “जो श्रमणब्राह्मण इन प्रश्नों का उत्तर दे, उसी के पास तुम ब्रह्मचर्य स्वीकार करना ।" समय परिव्राजक प्रातः काल उठा। वह संधी, गणी, गणाचार्य, प्रसिद्ध, यशस्वी, १. संयुक्त निकाय, दहर सुत्त, ३-१-१ । 2010_05 Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड : १ तीर्थकर, बहुजन-सम्मत पूरणकस्सप, मक्खलि गोशाल, अजित केस कम्बली, पकुध कच्चायन संजय वेलट्टिपुत्त और निगण्ठ नातपुत्त के पास क्रमशः गया और उनसे प्रश्न पूछे । सभी तीर्थकर उसके प्रश्नों का उत्तर नहीं दे सके; अपितु वे कोप, द्वेष और अप्रसन्नता ही व्यक्त करने लगे तथा उल्टे उससे ही प्रश्न पूछने लगे। समिय बहुत असन्तुष्ट हुआ। उसका मन नाना ऊहापोहों से भर गया और उसने निर्णय किया-अच्छा हो, गृहस्थ होकर सांसारिक आनन्द लूटूं। सभिय परिव्राजक के मन में ऐसा भी विचार उत्पन्न हुआ-श्रमण गौतम भी संघी गणी, गणाचार्य.. बहुजन-सम्मत हैं, क्यों न में उनसे भी ये प्रश्न पूछ। उसका मन तत्काल ही आशंका से भर गया। उसने सोचा, पूरण कस्सप, मक्खलि गोशाल, अजित केसकम्बली, पकुध कच्चायन, संजय वेलट्ठिपुत्त और निगण्ठ नातपुत्त' जैसे जीर्ण, वृद्ध, वयस्क, उत्तरावस्था को प्राप्त वयोतीत, स्थविर, अनुभवी, चिर प्रवजित, संघी, गणी, गणाचार्य, प्रसिद्ध, यशस्वी, तीर्थंकर, बहुजन-सम्मानित श्रमण-ब्राह्मण मी मेरे प्रश्नों का उत्तर न दे सके; न दे सकने पर कोप, द्वेष व अप्रसन्नता व्यक्त करते हैं और मुझ से ही इनका उत्तर पूछते हैं। श्रमण गौतम क्या मेरे इन प्रश्नों का उत्तर दे सकेंगे ? श्रमण गौतम तो आयु में युवा और प्रव्रज्या में नवीन'२ हैं । फिर भी श्रमण युवक होता हुआ भी महद्धिक और तेजस्वी होता है; अतः श्रमण गौतम से भी मैं इन प्रश्नों को पूछू । (३) एक समय बुद्ध राजगृह में जीवक कौमार-मृत्य के आम्र-वन में साढ़े बारह सौ भिक्षुओं के बृहद् संध के साथ विहार कर रहे थे। पूर्णमासी के उपोसथ का दिन था। चातु सिक कौमुदी से युक्त पूर्णिमा की रात को, राजा मागध अजातशत्रु वैदेहीपुत्र, राज-अमात्यों से घिरा हुआ, उत्तम प्रासाद पर बैठा था । उस समय अजातशत्रु ने उदान कहा-''अहो ! कैसी रमणीय चांदनी रात है ! कैसी सुन्दर, दर्शनीय, प्रासादिक व लाक्षणिक रात है ! किस . श्रमण या ब्राह्मण का सत्संग करें, जो हमारे चित्त को प्रसन्न करे।" एक राजमंत्री ने कहा-"महाराज! पूरणकस्सप गणनायक, गणाचार्य, ज्ञानी, यशस्वी, तीर्थकर, बहुजन-सम्मानित, अनुभवी, चिर-प्रव्रजित व वयोवृद्ध हैं । आप उनसे धर्मचर्चा करें । उनका अल्पकालिक सत्संग भी आपके चित्त को प्रसन्न करेगा।" राजा अजातशत्रु ने सुना, किन्तु, मौन रहा। दूसरे मंत्री ने उक्त विशेषणों को दुहराते हुए मक्खलि गोशाल को सुझाव दिया । राजा अजातशत्रु मौन रहा। इस प्रकार विभिन्न मंत्रियों ने इसी उक्ति के साथ क्रमशः अजित केसकम्बली, पकुध कच्चायन, निगण्ठ नातपुत्त व संजय वेलट्ठिपुत्त का सुझाव दिया। अजात १. समणब्राह्मणा जिण्णा बुद्धा महल्लका अद्धगता वयो अनुप्पत्ता, थेरारत्तजू चिरपव्व. जित्ता.. पूरणोकस्सपो...पे... निगण्ठो नातपुत्तो,...। -सुत्तनिपात, सभिय सुत्तं, पृ० १०४ । २. ...कि पन में समणो गोतमो इमे पञ्हे पुट्ठो व्याकरिस्सति । समणो हि गोतमो दहरो चेव जातिया नवो च पव्वज्जायाति । –सुत्तनिपात, सभिय सुत्तं, पृ० १०६ । ३. सुत्तनिपात, सभियसुत्तं, पृ० १०४-१०७ । ____ 2010_05 Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा] काल-निर्णय ७७ शत्रु ने यह सब कुछ सुना, किन्तु, मौन रहा । जीवक कौमार-भृत्य भी अजातशत्रु के पास मौन बैठा था। राजा ने उससे कहा- “सौम्य जीवक ! तुम मौन क्यों हो? तुम भी अपना सुझाव दो।" जीवक ने कहा-"महाराज ! मेरे आम्र-उद्यान में साढ़े बारह सौ भिक्षुओं के बृहद् संघ के साथ भगवान् अर्हत् सम्यक् सम्बुद्ध विहार कर रहे हैं। उनका मंगलयश फैला हुआ है । वे भगवान् अर्हत्, परमज्ञानी, विद्या और आचरण से युक्त, सुगत, लोकविद्, पुरुषों को सन्मार्ग पर लाने के लिए अनुपम अश्व-नियन्ता, देव व मनुष्यों के शास्ता तथा बुद्ध हैं। महाराज ! आप उनके पास चलें और उनसे धर्म-चर्चा करें। कदाचित् आपका चित्त प्रसन्न हो जायेगा।" ये तीन प्रकरण भी बुद्ध से महावीर का ज्येष्ठत्व प्रमाणित करने के लिए इतने स्पष्ट हैं कि इन पर कोई युक्ति या संगति जोड़ने की आवश्यकता ही नहीं रह जाती। इस प्रकार, तीन प्रकरण महावीर का पूर्व-निर्वाण प्रमाणित करते हैं और अन्य तीन प्रकरण उनका ज्येष्ठत्व प्रमाणित करते हैं। ज्येष्ठत्व भी केवल वयोमान की दृष्टि से ही नहीं ; अपितु ज्ञान की दृष्टि से, प्रभाव की दृष्टि से और प्रव्रज्या-काल की दृष्टि से । ये समुल्लेख स्वयं बोलते हैं कि जब बुद्ध ने अपना धर्मोपदेश प्रारम्भ किया था, तब तक महावीर इस दिशा में बहुत कुछ कर चुके थे। उक्त प्रकरणों की सत्यता का एक प्रमाण यह भी है कि यहाँ बुद्ध को छोटा स्वीकार किया गया है। सभी स्थलों में बुद्ध को आयु, प्रव्रज्या व ज्ञान-लाभ की दृष्टि से पूर्वकालिक और बड़ा कहा जाता, तब तो फिर भी आशंका खड़ी की जा सकती थी कि सम्भवतः बौद्ध शास्त्रकारों ने अपने धर्म-नायक की महिमा बढ़ाने के लिए भी ऐसा कर दिया हो, किन्तु अपने धर्म-नायक को छोटा स्वीकार करना तो किसी साम्प्रदायिक अहम् का पोषक नहीं होता। प्रतिपाद्य तथ्य की पुष्टि का एक आधार यह भी बनता है कि बौद्ध शास्त्र महावीर के विषय में जितने मुखर है, जैन शास्त्र बुद्ध के विषय में उतने ही मौन हैं। इसका भी सम्भवतः कारण यही है-जो नवोदित धर्म-नायक होता है, वह अपने पूर्ववर्ती प्रतिस्पर्धी धर्म-नायक पर अधिक बोलता है। उसमें उसके समकक्ष होने की एक भावना होती है ; अतः स्वयं को श्रेष्ठ और प्रतिपक्ष को अश्रेष्ठ करने का विशेष प्रयत्न करता है। यही स्थिति बौद्धशास्त्रों में समुल्लिखित महावीर-सम्बन्धी और जैन धर्म-सम्बन्धी अनेकानेक विवरणों में प्रकट होती है । जैन-शास्त्रों में बौद्ध धर्म के प्रवर्तक के रूप में बुद्ध का कहीं नामोल्लेख तक नहीं मिलता। यह भी इसी बात का संकेत है कि जो स्वयं प्रभाव-सम्पन्न हो जाते हैं, वे नवोदित पन्थ को सहसा ही महत्त्व नहीं दिया करते। जैन-शास्त्रों का मौन और बौद्ध-शास्त्रों की मुखरता का अन्य सम्भव कारण यह है कि महावीर-वाणी का द्वादशांगी के रूप में संकलन, महावीर के बोधि-प्राप्ति के अनन्तर ही गणधरों द्वारा हो चुका था । बुद्ध महावीर के उत्तरवर्ती थे ; अतः उन शास्त्रों में बुद्ध के १. दीघ निकाय, सामवफल सुत्त, १-२। २. विस्तार के लिए देखें, 'त्रिपिटकों में निगण्ठ व निगण्ठ नातपुत्त' प्रकरण । ____ 2010_05 Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड : १ जीवन के विषय में चर्चाएँ कैसे होती ? यदि बुद्ध पूर्ववर्ती होते, तो जैन-शास्त्रों में उनकी चर्चा आए बिना ही कैसे रहती।' बौद्ध पिटकों का संकलन बुद्ध-निर्वाण के अनन्तर ही अर्हत् शिष्यों द्वारा होता है । बुद्ध महावीर से उत्तरवर्ती थे ; अतः उनमें महावीर के जीवन-प्रसंगों का उल्लिखित होना स्वाभाविक है ही। समय-विचार इस प्रकार उक्त तथ्यों के आधार से हम इस निष्कर्ष पर तो असंदिग्ध रूप से पहुंच ही जाते हैं कि महावीर बुद्ध से वयोवृद्ध और पूर्व-निर्वाण-प्राप्त थे। विवेचनीय विषय रहता है-उनकी समसामयिकता का अर्थात् कितने वर्ष वे एक दूसरे की विद्यमानता में जीये। पर, यह जान लेना तभी संभव है, जब उनके जीवन-वृत्तों को संवत्सर और तिथियों में बांधा जाए। आगमों और त्रिपिटकों में उनके जन्म व निर्वाण-सम्बन्धी महीनों व तिथियों का उल्लेख मिलता है। पर, आज की संवत् या सन् पद्धति से उनके जन्म और निर्वाण के सम्बन्ध में कहीं कुछ नहीं मिलता। वह इसलिए कि सम्भवतः उस समय किसी व्यवस्थित संवत्सर का प्रचलन था ही नहीं। दोनों युग-पुरुषों की समसामयिकता के निर्णय में पूर्वापर के अतिरिक्त उल्लेखों से ही काम चलाना होता है। पहले हमें महावीर के तिथि-काल पर विचार करना होगा; क्योंकि अपेक्षाकृत बुद्ध के तिथि-क्रम से, वह अधिक स्पष्ट और असंदिग्ध है। महावीर का तिथि-क्रम पिछले प्रकरणों में यह भलीभांति बताया जा चुका है कि महावीर-निर्वाण का असंदिग्ध समय ई० पू० ५२७ का है। इस विषय में एक अन्य प्रमाण यह भी है कि इतिहास के क्षेत्र में सम्राट चन्द्रगुप्त का राज्यारोहण ई० पू० ३२२ माना गया है। इतिहासकार १. सूत्रकृतांग आदि सूत्रों में बौद्ध मान्यताओं से सम्बन्धित मीमांसा नगण्य रूप में मिलती है। द्वादशांगी के मूल स्वरूप में भी पूर्वधर आचार्यों द्वारा समय-समय पर आवश्यक परिवर्तन किया जाता रहा है। अतः बौद्ध-धर्म सम्बन्धी मीमांसा उक्त तथ्य में बाधक नहीं बनती। २. अनेक अधिकारी इतिहासज्ञों व विद्वानों ने इसी तिथि को मान्य रखा है । उदा. हरणार्थ(क) महामहोपाध्याय रायबहादुर गौरीशंकर ओझा, श्री जैन सत्य प्रकाश, वर्ष २, ___अंक ४-५, पृ० २१७-८१। (ख) डॉ० बलदेव उपाध्याय, धर्म और दर्शन, पृ० ८६ । (ग) डॉ० वासुदेवशरण अग्रवाल, तीर्थंकर महावीर, भा० २, भूमिका पृ० १६ । (घ) डॉ० हीरालाल जैन, तत्त्व-समुच्चय, पृ०६। (ङ) महामहोपाध्याय पं० विश्वेश्वरनाथ रेउ, भारत का प्राचीन राजवंश, खण्ड २, पृ० ४३६। ३. Dr. Radha Kumud Mukherjee, Chandragupta Maurya and His Times, pp. 44-6; तथा श्रीनेत्र पाण्डे, भारत का बृहत् इतिहास, प्रथम भाग, प्राचीन भारत, चतुर्थ संस्करण, २४२ । 2010_05 Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा] काल-निर्णय ७६ मानते हैं कि इतिहास के इस अन्धकारपूर्ण वातावरण में यह एक प्रकाशस्तम्भ' है । यह समय सर्वमान्य और प्रामाणिक है । इसे ही केन्द्र-बिन्दु मानकर इतिहास शताब्दियों पूर्व और शताब्दियों पश्चात् की घटनाओं का समय पकड़ता है । जैन परम्परा में मेरुतुंग की विचार श्रेणि, तित्योगाली पइन्नय आदि प्राचीन ग्रन्थों में चन्द्रगुप्त का राज्यारोहण महावीर-निर्वाण के २१५ वर्ष पश्चात् माना है । वह राज्यारोहण उन्होंने अवन्ती का माना है । यह ऐतिहासिक तथ्य है कि चन्द्रगुप्त मौर्य ने पाटलिपुत्र (मगध) राज्यारोहण के १० वर्ष पश्चात् अवन्ती में अपना राज्य स्थापित किया था। इस प्रकार जैन-काल-गणना और सामान्य ऐतिहासिक धारणा परस्पर संगत हो जाती है और महावीर का निर्वाण ई० पू० ३१२-+२१५= ई० पू० ५२७ में होता है। उक्त निर्वाण-समय का समर्थन विक्रम, शक, गुप्त आदि ऐतिहासिक संवत्सरों से भी होता है। विक्रम संवत् के विषय में जैन परम्परा की प्राचीन पट्टावलियों व ग्रन्थों में बताया गया है-भगवान् महावीर के निर्वाण-काल से ४७० वर्ष बाद विक्रम संवत् का प्रचलन 8. To these sources, Indian history is also indebted for what has been called, the sheet-anchor of its chronology, for the starting point of Indian chronology is the date of Chandragupta's accession to sovereignty. -Radha Kumud Mukherjee, Chandragupta Maurya and His Times, p. 3. २. (क) The date 313 B. C. for Chandragupta's accession, if it is based on correct tradition, may refer to his acquisition of Avanti in Malwa, as the chronological datum is found in verse where the Maurya king finds mention the list of succession of Palak, the king of Avanti. -H. C. Ray Choudhuri, Political History of Ancient India, p. 295 (ख) The Jain date 313 B. C., if based on correct tradition, may refer to acquisition of Avanti (Malwa) —An Advanced History of India, p. 99. (ग) यद्यपि ई० पू० ३१३, चन्द्रगुप्त के राज्याभिषेक की तिथि शुद्ध परम्परा के आधार पर अनुमानित है, परन्तु यह तिथि उनके अवन्ती अथवा मालवा के विजय का निर्देश करती है। क्योंकि उस श्लोक में, जिसमें तिथि क्रम-तालिका अंकित है, अवन्ती शासक पालक के अनुवर्ती शासकों में चन्द्रगुप्त मौर्य की चर्चा की गई है। - -श्रीनेत्र पाण्डे, भारत का बृहत् इतिहास, पृ० २४५-२४६ । ३. (क) जं रणि कालगओ, अरिहा तित्थंकरो महावीरो। तं रयणि अवणिवई, अहिसित्तो पालओ राया ॥१॥ सट्ठी पालयरण्णो ६०, पणवण्णसयं तु होइ नंदाणं १५५ । अट्ठसयं मुरियाणं १०८, तीस च्चिय पूसमित्तस्स ३० ॥२॥ ___ 2010_05 Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८० आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड : १ हुआ । इतिहास की सर्वसम्मत धारणा के अनुसार विक्रम संवत् ई० पू० ५७ से प्रारम्भ होता है। इससे भी महावीर-निर्वाण का काल ५७+४७० =ई० पू० ५२७ ही आता श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों ही जैन परम्पराओं की प्राचीन मान्यताओं के अनुसार बलमित्त-भाणुमित्त सट्ठी ६०, वरिसाणि चत्त नहवाणे । तह गद्दभिल्ल रज्जं तेरस १३, वरिस, सगस्स चउ (वरिसा) ॥३।। श्रीविक्रमादित्यश्च प्रतिबोधितस्तद्राज्यं तु श्री वीरसप्ततिचतुष्टये ४७० संजातम् । -धर्मसागर उपाध्याय, तपागच्छ-पट्टावली (सटीक सानुवाद, पन्यास कल्याण विजयजी), पृ० ५०-५२ । (ख) विक्कमरज्जारंभा परओ सिरिवीरनिव्वुई भणिया । सुन्नमुणिवेयजुत्तो विक्कमकालउ जिणकालो । -विक्रमकालाज्जिनस्य वीरस्य कालो जिन कालः शून्य (०) मुनि (७) वेद (४) युक्तः । चत्वारिंशतानि सप्तत्यधिकवर्षाणि श्रीमहावीरविक्रमादित्ययोरन्तर मित्यर्थः । नन्वयं काल: वीर-विक्रमयोः कथं गण्यते, इत्याह-विक्रमराज्यारम्भात परतः पश्चात् श्रीवीरनिर्वतिरत्र भणिता। को भाव: श्रीवीरनिर्वाण-दिनादनु ४७० वर्षे विक्रमादित्यस्य राज्यारम्भ-दिनमिति। -विचार-श्रेणी, पृ० ३-४। (ग) पूनर्मन्निर्वाणात् सप्तत्यधिकचतुःशतवर्षे (४७०) उज्जयिन्यां श्रीविक्रमादित्यो राजा भविष्यति स्वनाम्ना च संवत्सरप्रवृत्ति करिष्यति । -श्री सौभाग्य पंचम्यादि पर्वकथा संग्रह, दीपमालिका व्याख्यान, पृ० ६६-६७ । (घ) महामुक्ख गमणाओ पालय-नंद-चंदगुत्ताइराईसु बोलीणेसु चउसय सत्तरेहिं विक्कमाइच्चो राया होहि । तत्थ सट्ठी वरिसाणं पालगस्स रज्ज, पणपण्णंसयं नंदाणं, अट्ठोत्तर संयं मोरिय वंसाणं, तीसं पूस मित्तस्स, सट्ठी बलमित्त. माणु-मित्ताणं, चालीसं नरवाहणस्स, तेरस गद्दभिल्लस्स, चत्तारि सगस्स। तओ विक्कमाइच्चो। -विविधतीर्थकल्प (अपापाबृहत् कल्प), पृ० ३८-३६ । (ङ) चउसय सत्तरि वरिसे (४७०) वीराओ विक्कमो जाओ। -पंचवस्तुक। १. An Advanced History of India, P. 118; गुप्त साम्राज्य का इतिहास प्रथम खण्ड, पृ० १८३ । 2010_05 Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा] काल-निर्णय शक संवत् महावीर-निर्वाण के ६०५ वर्ष व ५ महीने बाद आरम्भ होता है। ऐतिहासिक धारणा से शक संवत् का प्रारम्भ ई० पू०७८ से होता है। उस निष्कर्ष से भी महावीरनिर्वाण का काल ६०५-७८= ई० पू० ५२७ ही होता है । डॉ. वासुदेव उपाध्याय, अपने ग्रन्थ 'गुप्त साम्राज्य का इतिहास'3 में गुप्त संवत्सर की छानबीन करते हुए लिखते हैं : १. (क) जं रयणि सिद्धिगओ, अरहा तित्थंकरो महावीरो । तं रयणिमवन्तीए, अभिसित्तो पालओ राया ॥६२०।। पालगरण्णो सट्ठी, पुण पण्णसयं वियाणि णंदाणं । मुरियाणं सट्ठिसयं पणतीसा पूसमित्ताणं (त्तस्स) ॥६२१॥ बलमित्त-भाणु मित्ता, सट्ठी चत्ताय होन्ति नहसेणे । गद्दभसयमेगं पुण, पडिवन्नो तो सगो राया ॥६२२।। पंच य मासा पंच य, वासा छच्चेव होंति वाससपा । परिनिव्वुअस्सऽरिहतो, तो उप्पन्नो (पडिवन्नो) सगो राया ॥६२३॥ -तित्थोगाली पइन्नय । (ख) श्री वीरनिर्वृ तेवः षड्भिः पञ्चोत्तरैः शतैः । शाकसंवत्सरस्यैषा प्रवृत्तिभरतेऽभवत् ॥ -मेरुतुंगाचार्य-रचित, विचार-श्रेणी (जैन-साहित्य-संशोधक, खण्ड २ अंक ३-४, पृ० ४)। (ग) छहिं वासाण सएहिं पञ्चर्हि वासेहिं पञ्चमासेहिं । मम निव्वाण गयस्स उ उपाज्जिस्सइ सगो राया। -नेमिचन्द्र-रचित, महावीर-चरियं, श्लो० २१६६, पत्र-९४-१ । पणछस्सयवस्सं पणमासजुदं गमिय वीरणिव्वुइदो। सगराजो तो कक्की चदुणवतियमहियसगमासं ॥ -नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती-रचित, त्रिलोकसार, ८५०। (ङ) वर्षाणां षट्शतीं त्यक्त्वा पंचाग्रां मासपंचकम् । मुक्ति गते महावीर शकराजस्ततोऽभवत् ॥ -जिनसेनाचार्य-रचित, हरिवंश पुराण, ६०-५४६ । णिव्वाणे वीरजिणे छन्वास सदेसु पंचवरिसेसु । पणमासेसु गदेसु संजादो सगणिओ अहवा ॥ -तिलोयपण्णत्ति, भाग १,प०३४१। (छ) पंच य मासा पंच व वासा छच्चेव होंति वाससया। सगकालेण य सहिया थावेयव्वो तदो रासी ।। -धवला, जैन सिद्धान्त भवन, आरा, पत्र ५३७ । २. An Advanced History of India, p. 120%; गुप्त साम्राज्य का इतिहास, प्रथम खण्ड, पृ०१८२-१८३ । ३. भाग १, पृ० ३८२। ____ 2010_05 Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड : १ "अलबेरुनी से पूर्व शताब्दियों में कुछ जैन ग्रन्थकारों के आधार पर यह ज्ञात होता है कि गुप्त तथा शक-काल में २४१ वर्ष का अन्तर है । प्रथम लेखक जिनसेन, जो ८वीं शताब्दी में वर्तमान थे, उन्होंने वर्णन किया है कि भगवान् महावीर के निर्वाण के ६०५ वर्ष ५ माह के पश्चात् शक राजा का जन्म हुआ तथा शक के अनुसार गुप्त के २३१ वर्ष शासन के बाद कल्किराज का जन्म हुआ। द्वितीय ग्रन्थकार गुणभद्र ने उत्तरपुराण में (८८६ ई.) लिखा है कि महावीर.निर्वाण के १००० वर्ष बाद कल्किराज का जन्म हुआ। जिनसेन तथा गणभद्र के कथन का समर्थन तीसरे लेखक नेमिचन्द्र करते हैं। "नेमिचन्द्र त्रिलोकसार में लिखते हैं : “शकराज महावीर-निर्वाण के ६०५ वर्ष ५ माह के बाद तथा शक-काल के ३६४ वर्ष ७ माह के पश्चात् कल्किराज पैदा हुआ। इन के योग से-६०५ वर्ष माह+३९४ वर्ष ७ माह =१००० वर्ष होते हैं ।' इन तीनों जैन ग्रन्थकारों के कथनानुसार शकराज तथा कल्किराज का जन्म निश्चित हो जाता है।" इस प्रकार शक-संवत् का निश्चय उक्त जैन धारणाओं पर करके विद्वान् लेखक ने महाराज हस्तिन् के खोह-लेख आदि के प्रमाण से गुप्त संवत् और शक संवत् का सम्बन्ध निकाला है। निष्कर्ष रूप में वे लिखते हैं : "इस समता से यह ज्ञात होता है कि गुप्त संवत् की तिथि में २४१ जोड़ने से शक-काल में परिवर्तन हो जाता है। इस विस्तृत विवेचन के कारण अलबेरुनी के कथन की सार्थकता ज्ञात हो जाती है। यह निश्चित हो गया है कि शककाल के २४१ वर्ष पश्चात् गुप्त संवत् का आरम्भ हुआ।" फलितार्थ यह होता है कि इस सारी काल-गणना का मूल भगवान् महावीर का निर्वाण-काल बना है। वहाँ से उतर कर वह कालगणना गुप्त संवत् तक आई है। यहाँ से मुड़कर यदि हम वापस चलते हैं, तो निम्नोक्त प्रकार से ई० पू० ५२७ के महावीर-निर्वाण-काल पर पहुंच जाते हैं : गुप्त संवत् का प्रारम्भ ई०३१६ महावीर-निर्वाण गुप्त संवत् पूर्व ८४६ अतः महावीर का निर्वाण-काल 9 .......................... ...... "गुप्तानां च शतद्वयम् । एकविंशश्च वर्षाणि कालविद्भिरुदाहृतम् ।।४६०।। द्विचत्वारिंशदेवातः कल्किराजस्य राजता । ततोऽजितंजयो राजा स्यादिन्द्र पुरसंस्थितः ।।४६१।। वर्षाणां षट्शतीं त्यक्त्वा पञ्चाग्रां मासपञ्चकम् । मुक्ति गते महावीरे शकराजास्ततोऽभवत् ॥५४६।। -जिनसेन कृत हरिवंशपुराण, अ०६०। २. Indian Antiquary, vol.XV, p. 143. ३. पण छस्सयं वस्सं पण मासजुदं गमिय वीरणिवुइदो । सगराजो सो कक्की चदुणवतियमहिय सगमासं ।। –त्रिलोकसार,१०३२। ४. गुप्त साम्राज्य का इतिहास, भाग १, पृ० १८१ । ____ 2010_05 Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा] काल-निर्णय ८३ तेरापंथ के मनीषी आचार्यों ने जिस काल-गणना को माना है, उससे महावीर-निर्वाण का समय ई० पू० ५२७ आता है। भगवान् महावीर की जन्म-राशि पर उनके निर्वाण के समय भस्म-ग्रह लगा। उसका काल शास्त्रकारों ने २००० वर्ष का माना है।' श्रीमज्जयाचार्य के निर्णयानुसार २००० वर्ष का वह भस्म-ग्रह विक्रम संवत् १५३१ में उस राशि से उतरता है तथा शास्त्रकारों के अनुसार महावीर-निर्वाण के १६६० वर्ष पश्चात् ३३३ वर्ष की स्थिति वाले धूमकेतु ग्रह के लगने का विधान है। श्रीमज्जयाचार्य के अनुसार वह समय वि० सं० १८५३ होता है । उक्त दोनों अवधियाँ सहज ही निम्न प्रकार से महावीर-निर्वाण के ई० पू० ५२७ के काल पर इस प्रकार पहुँच जाती हैंभस्म-ग्रह की स्थिति २००० वर्ष भस्म-ग्रह उतरा ई० सन् १४७३ (वि० सं० १५३०) अत: महावीर-निर्वाण ई० पू० ५२७ इसी प्रकार महावीर-निर्वाण के १९६०+३३३ वर्ष बाद धूमकेतु उतरा, अत: २३२३ वर्ष कूल स्थिति। उतरने का समय- १७६६ ई० स० (वि० स० १८५३) अतः महावीर-निर्वाण - ई० पू० ५२७ - जैन परम्परा में 'वीर-निर्वाण-संवत्' चल रहा है। विशेषता यह है कि वह निर्विवाद और सर्वमान्य है। वह संवत् भी ई० पू० ५२७ पर आधारित है । अभी ईस्वी सन् १९६७ में वीर-निर्वाण संवत् २४६४ चल रहा है, जो ईस्वी से ५२७ वर्ष अधिक है, जैसा कि होना ही चाहिए। महावीर-निर्वाण ई० पू० ५२७ में निश्चित हो जाने से उनके प्रमुख जीवन-प्रसंगों का तिथि-क्रम इस प्रकार बनता है: जन्म ई० पू० ५६६ दीक्षा ई० पू० ५६६ कैवल्य-लाभ ई० पू० ५५७ निर्वाण ई० पू० ५२७ काल-गणना भारतवर्ष में मुख्यतया तीन प्राचीन काल-गणनाएँ प्रचलित हैं : (१) पौराणिक, (२) जुन और (३) बौद्ध । पौराणिक काल-गणना का आधार विष्णु पुराण, मत्स्य पुराण, वाय पुराण, भागवत पुराण, ब्रह्माण्ड पुराण आदि हैं। जैन काल-गणना का आधार तित्थोगाली पइन्नय, आचार्य मेरुतुंग द्वारा रचित विचार-श्रेणी आदि हैं । बौद्ध काल-गणना का आधार सिलोनी ग्रन्थ दीपवंश, महावंश आदि हैं। १. कल्प सूत्र, सू० १२८-३० । २. भ्रमविध्वंसनम्, भूमिका, पृ० १४.१५ । ३. बंग चूलिका। ____ 2010_05 Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [ खण्ड : १ पुराणों का रचना-काल विद्वानों ने ई० पू० चौथी या तीसरी शताब्दी माना है । पाजिटेर के अभिमतानुसार पुराणों का वर्तमान रूप अधिक-से-अधिक ईस्वी तीसरी शताब्दी में निर्मित हो ही चुका था । २ तित्थोगाली पइन्नय का रचना-काल लगभग तीसरी चौथी शताब्दी माना जाता है । ३ दीपवंश व महावंश का रचना-काल ईस्वी चौथी पांचवीं शताब्दी माना जाता है । * पौराणिक और जैन काल-गणना नितान्त भारतीय हैं और उनकी परस्पर संगति भी है । पौराणिक काल-गणना की वास्तविकता को इतिहासकारों ने स्वीकार किया है । इस विषय में डॉ० स्मिथ ने लिखा है : "पुराणों में दी गई राजवंशों की सूचियों की आधारभूतता Sat निक युरोपीय लेखकों ने निष्कारण ही निन्दित किया है । इनके सूक्ष्म अनुशीलन से ज्ञात होता है कि इनमें अत्यधिक मौलिक व मूल्यवान् ऐतिहासिक परम्परा उपलब्ध होती ८४ १. (क) पुराण किसी-न-किसी रूप में चौथी शताब्दी में अवश्य वर्तमान थे, क्योंकि कौटिल्य अर्थ - शास्त्र में पुराण का उल्लेख आया है । - जनार्दन भट्ट, बौद्धकालीन भारत, पृ० ३ । (ख) अधिकांश विद्वानों की सम्मति है कि अर्थ - शास्त्र में चन्द्रगुप्त मौर्य की ही शासन पद्धति का विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है; अर्थ - शास्त्र ई० पू० तृतीय शतक की रचना है; अतः कहना पड़ेगा कि पुराणों की रचना ई० पू० तृतीय शतक से बहुत पहले ही हो चुकी थी । - डा० बलदेव उपाध्याय, आर्य संस्कृति के मूलाधार, पृ० १६४ । 2. The Purana Text of the Dynasties of the Kali Age, introduction, p. XII. ३. वीर निर्वाण - संवत् और जैन काल-गणना, पृ० ३०, टिप्पण सं० २७ । ४. Dr. V. A. Smith, Early History of India p. 11; जनार्दन भट्ट, बौद्धकालीन भारत, पृ० ३ । ५. मुनि कल्याण विजयजी ने 'वीर निर्वाण-संवत् और जैन काल-गणना', पृ० २५-२६ में इसका विवेचन किया है । ६. 'पुराणों में प्राचीन इतिहास प्रामाणिक रूप से भरा हुआ है, ऐसी धारणा तो अंग्रेजी पढ़े-लिखे विद्वानों की भी होने लगी है। पुराणों में दिये गये इतिहास की पुष्टि शिलालेखों से, मुद्राओं से और विदेशियों के यात्रा विवरण से पर्याप्त मात्रा में होने लगी है | अतः विद्वान् ऐतिहासिकों का कथन है कि यह पूरी सामग्री प्रामाणिक तथा उपादेय है । - आर्य संस्कृति के मूलाधार, पृ० १६७ । 2010_05 Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा] काल-निर्णय है।" बौद्ध काल-गणना सिलोन से आई है, क्योंकि दीपवंश-महावंश की रचना सिलोनी भिक्षुओं द्वारा हुई है। इन ग्रन्थों के रचयिता के सम्बन्ध में राइस डेविड्स ने लिखा है: "ईस्वी चतुर्थ शताब्दी में किसी ने इन पालि-गाथाओं का संग्रह किया, जो सिलोन के इतिहास के सम्बन्ध में थीं। एक पूर्ण वृत्तान्त बनाने के लिए इनमें और गाथाएँ जोड़ी गईं । इस प्रकार के निर्मित अपने काव्य का नाम कर्ता ने दीपवंश दिया। जिसका अर्थ है-'द्वीप का समय-ग्रन्थ ।' इसके एकाध पीढ़ी पश्चात् महानाम ने अपने महान् ग्रन्थ महावंश को लिखा। वह कोई इतिहासकार नहीं था। उसके पास अपने दो पूर्वजों द्वारा प्रयुक्त सामग्री के अतिरिक्त केवल प्रचलित दन्त-कथाओं काही आधार था।"२ सुप्रसिद्ध बौद्ध विद्वान् के ये विचार बौद्ध काल-गणना की अनधिकृतता को प्रकट करते हैं। वस्तुत: बौद्ध काल-गणना जैन तथा पौराणिक काल-गणना के साथ संगत नहीं होती। उन दोनों की अपेक्षा यह बहुत दुर्बल रह जाती है। दीपवंश महावंश को असंगतियां : सिलोनी ग्रन्थ महावंश व दीपवंश में दी गई काल-गणना में कुछ भूलें तो बहुत ही आश्चर्यकारक हैं। समझ में नहीं आता, इतिहासकारों द्वारा इनकी अनधिकृतता को मान्यता किस प्रकार मिल गई ! उदाहरणार्थ-पौराणिक और जैन काल-गणनाओं में जहाँ $. Modern European writers have inclulued to disparage unduly the authority of the Puranic lists, but closer study finds in them much genuine and valuable historical tradition. - Early History of India, p. 12 8. In the fourth century of our era, some one collected such of thesə Pali verses, as referred to the history of Ceylon, piecing them together by other verses to make a consecutive narrative. He called his poem, thus coustructed, the Dipavamsa,—the Island Chronicle. "A generation afterwards Mahanama wrote his great work, the Mahavamsa. He was no historian, and had, besides the material used by his two predecessors, only popular legends work on. --Buddhist India, pp. 277-78 3. It is to be noted that the Buddhist tradition runs counter to the Brahminical and Jain traditions. --Dr. Radha Kumud Mukherjee, Chandragupta Maurya and his Times, p.20 ____ 2010_05 Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड : १ नव नन्द राजाओं का काल क्रमशः १०० वर्ष तथा १५० वर्ष' माना गया है, वहाँ महावंश की बौद्ध काल-गणना केवल २२ वर्ष मानती है तथा दीपवंश में तो नन्दों का उल्लेख तक नहीं है । सिलोनी काल-गणना की अन्य असंगति यह है कि पौराणिक काल-गणना में जहाँ शिशुनाग, काकवर्ण (कालाशोक) आदि राजाओं के नाम अजातशत्रु के पूर्वजों में गिनाये गये हैं वहाँ दीपवंश महावंश में ये ही नाम अजातशत्रु के वंशजों में गिनाये गये हैं । ऐतिहासिक दृष्टि से यह एक अक्षम्य भूल है। इनके अतिरिक्त महावंश की कुछ-एक मान्यताएँ न केवल मूल त्रिपिटकों के साथ असंगत होती हैं, अपितु मूलभूत १. मत्स्य पुराण, अ० २७२, श्लो० २२; वायु पुराण, अ० ६६, श्लो०३३० । २. तित्थोगाली पइन्नय, ६२१-६२३ ; विचार श्रेणी, जैन साहित्य संशोधक, खण्ड 2, अंक ३.४,१०४। ३. महावंश, परि० ४, गाथा १०८, परि० ५, गा० १४-१७।। ४. आधुनिक इतिहासकारों ने भी इसे भूल माना है। डॉ० स्मिथ ने नन्द-वंश का राज्य काल ८८ वर्ष माना है (Early History of India, p. 57); डॉ० राधाकुमुद मुखर्जी ने बौद्ध काल-गणना के २२ वर्षों को अयथार्थ सिद्ध किया है (हिन्दू सभ्यता, पृ० २६७)। ५. महावंश के अनुसार कालाशोक के समय में दूसरी बौद्ध संगीति हुई थी, किन्तु काला शोक तथा उसके समय में हुई दूसरी संगीति के विषय में इतिहासकार पूर्णरूप से संदिग्ध हैं। प्रो० नीलकण्ठ शास्त्री ने लिखा है : "The tradition says that the council was held in the time of Asoka, or Kalasoka the son of Sisunaga, but history does not know of any such king." (Age of Nandas and Mauryas, p. 30). ६. इतिहासकारों द्वारा अयथार्थ बौद्ध काल-गणना को मान्यता मिलने का एक सम्भव कारण यह लगता है कि पुराणों में आये निम्न श्लोक की व्याख्या अशुद्ध रूप से की गई है : अष्टत्रिशच्छतं भाव्याः प्राद्योताः पञ्च ते सुताः । हत्वा तेषां यशः कृत्स्नं शिशुनागो भविष्यति ।। -वायु पुराण, अ० ९६, श्लो० ३१४ । इस श्लोक के आधार पर यह माना जाता है कि शिशुनाग और काक-वर्ण अन्तिम प्राद्योत राजा (नन्दीवर्धन) के पश्चात् हुए; अत: ये प्राग-बुद्धकालीन न होकर पश्चात्-बुद्धकालीन थे ; परन्तु पुराणों के पूर्वापर श्लोकों के अनुशीलन से स्पष्ट हो जाता है कि उक्त मान्यता यथार्थ नहीं है। पुराणों में निम्न क्रम से कलियुग के राजवंशों का ब्यौरा प्राप्त होता है : १. पौरववंश-अभिमन्यु (जो महाभारत में लड़े थे) से क्षेमक तक; क्षेमक बुद्ध के समकालीन उदयन के बाद चतुर्थ राजा था। इस वंश की राजधानी पहले हस्तिनापुर थी और बाद में कोशम्बी। अधिसीमकृष्ण के वंशज राजा नचक्षु के समय में राजधानी का परिवर्तन हुमा। - 2010_05 Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा] काल-निर्णय २. ऐक्ष्वाकु वंश-बृहद्बल (महाभारत के योद्धा) से सुमित्र तक ; सुमित्र बुद्ध के समकालीन राजा प्रसेनजित् के बाद चतुर्थ राजा था। इस वंश की राजधानी कोशल में श्रावस्ती थी। ३. पौरवचन्द्र वंश (राजा बृहद्रथ के वंशज)-सहदेव (महाभारत के योद्धा) से रिपुंजय तक; रिपुंजय बुद्ध के समकालीन चण्ड-प्रद्योत का पूर्ववर्ती राजा था। - बृहद्रथ के वंशजों (बाहंद्रथों) को सम्भवतया इसलिए 'मागध' कहा जाता है कि बृहद् रथ, जरासन्ध आदि मगध के राजा थे तथा सहदेव के पुत्र सोमाधि ने महाभारत-युद्ध के पश्चात् मगध में गिरिव्रज में राजधानी की स्थापना की थी। सहदेव से रिपुंजय तक २२ राजाओं की काल-गणना देने के पश्चात् पुराणों में बताया गया है: पूर्ण वर्षसहस्र वै तेषां राज्यं भविष्यति ॥ बृहद्रथेष्वतीतेषु वीतिहोत्रेष्ववन्तिषु । पुलिकः स्वामिनं हत्वा स्वपुत्रमभिषेक्ष्यति ।। -वायु पुराण, अ० ६६, श्लो० ३०६-३१०; ___मत्स्यपुराण, अ० २७१, श्लो० ३०; अ० २७२, श्लो० १ । ये श्लोक बताते हैं कि अवन्ती में वीतिहोत्र और बृहद्रथों का राज्य व्यतीत हो जाने पर अन्तिम राजा रिपुंजय को मार कर उसके मंत्री पुलिक ने अपने पुत्र प्रद्योत को अभिषिक्त किया। यह सुविदित है कि प्रद्योत का राज्य अवन्ती में था और वह महावीर व बुद्ध का समकालीन था। इससे स्पष्ट होता है कि बाहद्रथ राजाओं ने सोमाधि के समय में मगध में राज्य स्थापित किया था, किन्तु बाद में वे अवन्ती चले गये थे। वहाँ अन्तिम राजा रिपुंजय की हत्या के पश्चात् प्राद्योतों का राज्य प्रारम्भ हुआ। ४. प्रद्योत वंश-प्रद्योत से अवन्ती-वर्धन (नन्दीवर्धन या वर्तीवर्धन) तक; इस वंश का राज्य अवन्ती में था। ५. शिशुनाग वंश-शिशुनाग से महानन्दी तक इस वंश का राज्य मगध में था। पुराणों के अनुसार राजा शिशुनाग ने शिशुनाग-वंश की स्थापना की थी। शिशुनाग ने काशी का राज्य जीत लिया और अपने पुत्र काकवर्ण को काशी का राजा बनाकर स्वयं मगध का राज्य करने लगा। उसने गिरिव्रज में अपनी राजधानी रखी। हत्वा तेषां यशः कृत्स्नं शिशुनागो भविष्यति । वाराणस्यां सुतं स्थाप्य श्रयिष्यति गिरिव्रजम् ।। -वायु पुराण, अ०६६, श्लो० ३१४-५; मत्स्य पुराण, अ० २७२, श्लो०६। ___डॉ० त्रिभुवनदास लहरचन्द शाह के अनुसार २३वें तीर्थङ्कर पार्श्वनाथ के पिता अश्वसेन के बाद शिशुनाग ने काशी में राज्य स्थापित किया था (प्राचीन भारतवर्ष, खण्ड १)। डॉ० शाह ने पौराणिक, जैन और बौद्ध काल-गणनाओं के संयुक्त अध्ययन के आधार पर एक सुसंगत काल-क्रम का निर्माण किया है (जिसकी विस्तृत चर्चा 'काल-गणना पर पुनर्विचार' में की जायेगी)। इस काल-क्रम के अनुसार शिशुनाग 2010_05 Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८८ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड : १ के पश्चात् क्रमशः काकवर्ण, क्षेमवर्धन, क्षेमजित्, प्रसेनजित्, बिम्बिसार और अजातशत्रु राजा हुए। ___ अब यदि उक्त पांच वंशों का तुलनात्मक अध्ययन किया जाये तो यह स्पष्ट होता है कि ये वंश क्रमशः उत्तरवर्ती नहीं हैं, अपितु प्रायः समसमायिक हैं। प्रथम वंश का उदयन, द्वितीय वंश का प्रसेनजित,चतुर्थ वंश का प्रद्योत व पंचम वंश का अजातशत्र (और बिम्बिसार) वत्स, कोशल, अवन्ती और मगध के समसामयिक राजा थे; बह असंदिग्धतया कहा जा सकता है (cf. Rapson, Cambridge History of India, p. 277)। अतः यह स्पष्ट हो जाता है कि जिस प्रकार द्वितीय वंश प्रथम वंश का उत्तरवर्ती नहीं है; उसी प्रकार पंचम वंश चतुर्थ वंश का उत्तरवर्ती नहीं है । तात्पर्य यह हुमा कि “हत्वा तेषां यशः कृत्स्नं शिशुनागो भविष्यति" में 'तेषां' अवन्ती के प्राद्योतों का वाचक नहीं है। यह भी निश्चित है कि चतुर्थ वंश ततीय वंश का समसामयिक नहीं, अपितु उत्तरवर्ती है जैसा कि स्पष्टतया बताया गया है। प्रश्न केवल यह रहता है कि बाहद्रथों का राज्य मगध में था, जब कि प्राद्योतों का अवन्ती में स्थापित हआ; यह कैसे सम्भव हो सकता है ? इसका उत्तर भी सम्भवत: यही है कि यद्यपि बार्हदरथों का राज्य प्रारम्भ में मगध में स्थापित हआ था, फिर भी जब शिशुनाग ने मगध में शशुनागों का राज्य स्थापित किया, तब बार्हद्रथों ने मगध से हटकर अवन्ती में अपना राज्य स्थापित किया। इस प्रकारी उत्तरवर्ती बाहदथ राजा और पूर्ववर्ती शैशुनाग क्रमशः अवन्ती और मगध के समसामयिक राजा थे तथा 'हत्वा तेषां यशः कृत्स्नं' में 'तेषां' का तात्पर्य 'बाहद्रथों' से है। पौराणिक श्लोकों की यह व्याख्या पौराणिक कालगणना के साथ भी पूर्णतः संगत हो जाती है। पुराणों के अनुसार बृहद्रथ-वंश के २२ राजाओं ने १००० वर्ष तक राज्य किया, जिनके नाम और राज्य-काल इस प्रकार हैं : १. सोमाधि ५८ वर्ष २. श्रुतश्रव ३. अयुतायुस् ४. निरमित्र ५. सुक्षत्र ६. बृहत्कर्मा ७. सेनजित् ८, श्रुतञ्जय ६. विभु (प्रभु) १०. शुची ११. क्षेम १२. भूव्रत १३. सुनेत्र (धर्मनेत्र) ३५ १४. निर्वृत्ति (विवृत्ति) १५. सुव्रत (त्रिनेत्र) ६० ॥ ० ० ० - ० ० ४ - I 2010_05 Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा ] १६. दृढ़सेन १७. महीनेत्र १८. सुचल १६. सुनेत्र की है : २०. सत्यजित् २१. विश्वजित् २२. रिपुञ्जय १. शिशुनाग २. काकवर्ण ३. क्षेमवर्धन ४. क्षेमजित् ५. प्रसेनजित् ६. बिम्बिसार काल-निर्णय बार्हद्रथ राजा १. महीनेत्र २. सुचल ३. सुनेत्र ४. सत्यजित् ५. विश्वजित् ६. रिपुंजय 2010_05 ४८ वर्ष ३३ ३२ 33 ४० ८३ (द्रष्टव्य, वायु पुराण, अ० ६६, श्लो० श्लो० १७-३०; F. E. Pargiter, The the Kali Age, pp. 13-17, 67-68 ). इस प्रकार २२ राजाओं का राज्य काल ६६६ वर्ष होता है । गाणितिक अनुपात की गणना में प्रत्येक राजा का राज्य-काल ४५ ४५ वर्ष से कुछ अधिक होता है । इस गणना से अन्तिम ६ राजाओं का काल ४५.४५ X ६ : २७३ वर्ष से अधिक होता है । अन्तिम ६ राजाओं के वास्तविक राज्य कालों का योग भी २७३ वर्ष होता है । दूसरे प्रमाणों के आधार पर यह पाया जाता है कि प्रद्योत का राज्याभिषेक ई० पू० ५४६ में हुआ था ( द्रष्टव्य, 'निष्कर्ष की पुष्टि ' ) । इसका तात्पर्य यह हुआ कि अवन्ती में बार्हद्रथ राजा रिपुंजय का राज्यान्त ई० पू० ५४६ में हुआ । हमारी गणना के अनुसार ई० पू० ५४४ में अजातशत्रु का राज्य प्रारम्भ होता है । डॉ०टी० एल० शाह ने शिशुनाग वंश के राजाओं का राज्य-काल इस प्रकार पुराणों के आधार पर माना है : समय ( ई० पू० ८२२-७८६ ७८६-७५७ ७५७-७१७ ७१७-६३४ ६३४-५६६ ५६६-५४६ ५०, ३६,, ४३ " ३८ " अब यदि इस काल क्रम के साथ बार्हद्रथ वंश के अन्तिम ६ राजाओं के कालक्रम तुलना 'की जाती है, तो इन दोनों वंशों की समसामयिकता पूर्णतः सिद्ध हो जाती ३५, ५० " == " समग्र ६६६ वर्ष २६४-३०६; मत्स्य पुराण, अ० २७१, Purana Text of the Dynasties of शिशुनाग काकवर्ण क्षेमवर्धन " शुनाग राजा 27 ६० वर्ष ३६” क्षेमजित् प्रसेनजित् बिम्बिसार ἐ समय ( ई० पू० ) ८०७-७४७ ७४७-७११ ७११-६६१ ६११-६२५ ६२५-५८२ ५८२-५४४ Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड : १ ऐतिहासिक तथ्यों के साथ भी संगति नहीं पातीं। “अजातशत्रु के राज्यकाल के आठवें वर्ष में बुद्ध का निर्वाण हुआ'', "अशोक का राज्याभिषेक बुद्ध-निर्वाण के २१८ वर्ष पश्चात् हुआ'२.---आदि मान्यताएँ इनमें प्रमुख हैं। मगध में बिम्बिसार के पश्चात् सातवाँ राजा अजातशत्रु हुआ और अवन्ती में रिपूजय के पश्चात् प्रद्योत हुआ, जिनकी समसामयिता निर्विवादतया सिद्ध हो चुकी है। इनसे आगे के राजवंशों की चर्चा 'काल-गणना पर पुनर्विचार' में की गई है। इस प्रकार पुराणों के आधार पर प्राग्-बुद्ध राजाओं की काल-गणना पूर्णतया संगत हो जाती है तथा सिलोनी ग्रन्थों की काल-गणना की असंगतता प्रमाणित हो जाती है । १. द्रष्टव्य-महावीर और बुद्ध की समसामयिकता, सम्पादकीय । २. हुल्ट्स ने इस विषय में सन्देह प्रकट किया है। देखें, Inscription of Asoka, p. XXXIII. इस विषय में टी० डब्लू ० राइस डेविड्स का निम्न मन्तव्य भी द्रष्टव्य है: According to the Raja-Parampara, or line of Kings, in the Ceylon chronicles, the date of the great decease would be 543 B.C., which is arrived at by adding to the date 161 B.C' (from which the reliable portion of the history begins) two periods of 146 and 236 years. The first purports to give the time which elapsed between 161 B.C. and the great Buddhist church council held under Asoka, and in the eighteenth year of his reign at Patna, and the second to give the interval between that Council and the Buddha's death. It would result from the first calculation that the date of Ashoka's coronation would be 325 B.C. (146+161+18). But we know that this must contain a blunder or blunders, as the date of Ashoka's coronation can be fixed, as above stated, with absolute certainty, within year or two either way of 267 B.C. Would it then be sound criticism to accept the other-earlier, period of 236 years found in those chronicles-a period which we cannot test by Greek chronology-and by simply adding the Ceylon calculation of 236 years to the European date for the cighteenth year of Asoka (that in cicra 249 B.C.) to conclude that the Buddha died in or about 485 B.C.? I cannot think so. The further we go back the greater does the probability of error become, not less. The most superficial examination of the details of this earlier period shows too that 2010_05 Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा काल निर्णय विशेष ध्यान देने की बात तो यह है कि अनेक इतिहासकारों ने इन सिलोनी ग्रन्थों की प्रामाणिकता के विषय में बहुत समय पहले ही संदिग्धता व्यक्त कर दी थी। डॉ० वी० ए० स्मिथ ईस्वी सन् १९०७ में ही लिख चुके थे : "इन सिंहली-कथाओं की, जिनका मूल्य आवश्यकता से अधिक आँका जाता है, सावधानी पूर्वक समीक्षा की आवश्यकता है...।" डॉ० हेमचन्द्र राय चौधरी ने डॉ० स्मिथ की इस चेतावनी को मान्यता दी है और माना है कि महावंश की कथाओं को ऐतिहासिक धारणाओं का आधार नहीं बनाया जा सकता। डॉ० शान्तिलाल शाह ने बौद्ध काल-गणना में जो असंगतता है, उसे "जानबूझ कर किया गया गोलमाल' माना है। डॉ० शाह लिखते हैं : "बौद्ध परम्परा (सिलोनी परम्परा) की यह विचित्रता है कि उसमें मुख्यतया बौद्ध धर्म के हीनयान सम्प्रदाय का इतिहास दिया गया है और बाद में सिलोन में हुए इसके विकास का इतिहास दिया गया है; क्योंकि बौद्ध धर्म का उद्गम भारत में हुआ था, फिर भी उसका विकास सिलोन में हुआ । इस भौगोलिक मर्यादा के, जो कि सिलोन के इतिहास के संरक्षण में एक प्रमुख निमित्त है, फलस्वरूप इस परम्परा में भारत की अपेक्षा सिलोन के बारे में अधिक पूर्ण ब्यौरा मिलता है । जो व्यक्ति दीपवंश और महावंश की योजना व विषय से परिचित है, वह इस बात से कदाचित् ही अनभिज्ञ रहेगा कि इन दोनों ग्रन्थों में मिलने वाला उत्तर भारतीय राजाओं का ब्योरा केवल प्रासंगिक है और अल्प महत्त्व रखता है। यह निष्कर्ष दीपवंश और महावंश की they are unreliable; and what reliance would it be wise to place upon the total, apart from the details, when we find it mentioned for the first time in a work Dipavamasa, written eight centuries after the date it is proposed to fix ? If further proof were needed, we have it in the fact that the Dipavamsa actually contains the details of another calculation not based on the list of Kings (Raja-Parampara), but on a list of Theras (Thera-Parampara) stretching back from Asoka's time to the time of the great Teacher—which contradicts this calculation of 236 years. -S.B.E., vol. XI, Introduction to Maha-Parinirvana Sutta, p. XLVI. 8. These Sinhalese stories, the value of which has been sometimes over-estimated, demand cautious criticism........ - Early History of India, p. 9. २. Political History of Ancient India, P. 6. ३. Chronological Problems, p.41 ____ 2010_05 Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड : १ विचित्र रचना से पूर्णतया पुष्ट हो जाता है।" इस प्रकार की अनेक असंगतियों के होते हुए भी बुद्ध-निर्वाण-काल का निश्चय करने के लिए किये गये अब तक के प्रयत्नों में सिलोनी काल-गणना को प्रधानता दी गई है। यही कारण है कि बुद्ध के तिथि-क्रम और वास्तविक जीवन-प्रसंगों के बीच असंगति पाई जाती है। काल-गणना पर पुनर्विचार जैन काल-गणना तथा सर्वमान्य ऐतिहासिक तिथियों और तथ्यों के आधार पर शिशुनाग-वंश के संस्थापक शिशुनाग से लेकर अवन्ती में चन्द्रगुप्त मौर्य के राज्यारोहण १. महावंश का विषयानुक्रम इस प्रकार है : १. तथागत का लंका आगमन २. महासम्मत का वंश ३. प्रथम संगीति ४. द्वितीय संगीति ५. तृतीय संगीति ६. विजय का आगमन ७. विजय का राज्याभिषेक ८. पांड्ड वासुदेव का राज्याभिषेक ६. अभय का राज्याभिषेक (द्रष्टव्य, महावंश अनु० गाइगर, पृ०८) p. The pecularity of the Buddhist tradition (the Ceylonese tradition) that it confines itself firstly to the history of the Hinayana Buddhism and secondly to the history of its development in Ceylon, since Buddhism although originating India, had found its development in Ceylon. Because of this territorial limitation, wich has been a great factor for the preservation of the history of Ceylon, the account of this tradition about Ceylon is much more perfect than that about India, One who is acquainted with the scheme and content of the Dipavamsa and Mahavamsa will hardly fail to notice that the account of North Indian kings in these two books is only occasional and minor importance. This conclusion is absolutely borne out by the typical construction of the Dipavamsa and Mahavamsa. -Chronological Problems, p. 19. ____ 2010_05 Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा ] काल - निर्णय ६३ तक का तिथि क्रम अब हम निश्चित कर सकते हैं। निम्न तिथियों का निश्चय हम कर चुके हैं : अजातशत्रु का राज्यारोहण गोशालक की मृत्यु महावीर - निर्वाण पालक-वंश नन्द-वंश चन्द्रगुप्त मौर्य का राज्यारोपण ई० ६० पू० ५४३ ई० पू० ५२७ चन्द्रगुप्त मौर्य का मगध राज्यारोहण ई० पू० ३२२ चन्द्रगुप्त मौर्य का अवन्ती राज्यारोहण ई० पू० ३१२ जैन काल-गणना के अनुसार अवन्ती में महावीर - निर्वाण के पश्चात् ६० वर्ष पालकवंश और १५५ वर्ष नन्द वंश का राज्य रहा । तदनुसार अवन्ती का राज्य-काल-गणना इस प्रकार बनती है : ई० ० पू० ५४४ अजातशत्रु (कोणिक) उदायी अनुरुद्ध-मुण्ड ई० पू० ५२७ - ई० पू० ४६७ ई० पू० ४६७ - ई० पू० ३१२ ई० पू० ३१२ मगध की राज्य-काल-गणना के सम्बन्ध में हमें निर्वाण के पश्चात् मगध में शिशुनाग वंश का उनके बाद नन्द वंश का राज्य स्थापित हुआ । इस प्रकार मगध में यह जानकारी मिलती है कि महावीर - राज्य ५३ या ५४ वर्ष तक रहा और शिशुनाग वंश का १. मुनि कल्याणविजयजी तथा डॉ० टी० एल० शाह ने जैन, बौद्ध और पौराणिक कालगणना के तुलनात्मक अध्ययन के आधार पर शिशुनाग वंश और नन्द वंश के राजाओं के राज्य-काल की गणना की है । विस्तार के लिए देखें, वीर- निर्वाण-संवत् और जैन काल-गणना, पृ० २५- ६; प्राचीन भारतवर्ष, खण्ड १ । 2010_05 २. डॉ० टी० एल० शाह ( पूर्व उद्धृत ग्रन्थ) के अनुसार महावीर - निर्वाण के पश्चात् मगध में शिशुनाग वंश के राजाओं का राज्य-काल इस प्रकार रहा : ३० वर्ष १६ ८ कुल ५४ वर्ष महावीर - निर्वाण-काल ई० पू० ५२७ है; अतः मगध में शिशुनाग वंश का अन्त ई० पू० ४७३ में होता है । मुनि कल्याण विजयजी ( पूर्व उद्धृत ग्रन्थ, पृ० २८) ने पुराणों के आधार पर अजातशत्रु व उदयी का राज्य काल क्रमश: ३७ और ३३ वर्ष माना है । जैसा कि प्रमाणित किया जा चुका है, महावीर का निर्वाण अजातशत्रु के राज्यारोहण के १७ वर्ष पश्चात् हुआ; अत: इस गणना से भी मगध में शिशुनाग वंश का अन्त महावीरके ५३ वर्ष पश्चात् अर्थात् ई० पू० ४७४ में होता है । "1 Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड : १ अन्त और नन्द-वंश का प्रारम्भ ई० पू० ४७४-३ में होता है। पुराणों के अनुसार शिशुनागवंश के १० राजाओं ने मगध में ३३३ वर्ष तक राज्य किया। तदनुसार शिशुनाग वंश का राज्यारम्भ-काल ई० पू० ८०७ में आता है। इस प्रकार मगध शिशुनाग वंश के १० राजाओं का राज्य-काल ई० पू० ८०७-४७४ है। इनमें से प्रथम पांच राजाओं का समय ई० पू० १. नन्द-वंश का राज्य मगध में ई०पू०४७४-३ में तथा अवन्ती में ई०पू० ४६७ में हुआ, इसकी पुष्टि ऐतिहासिक आधार पर भी होती है। यह एक सर्वमान्य ऐतिहासिक तथ्य है कि उस समय में मगध और अवन्ती के बीच काफी संघर्ष चल रहा था। इससे यह सम्भव लगता है कि प्रथम नन्द राजा ने मगध में अपना राज्य स्थापित करने के ६ या ७ वर्ष बाद अवन्ती का राज्य जीत लिया हो। यह तो सभी इतिहासकारों द्वारा निर्विवादतया माना जाता है कि नन्दों ने भारत में एकछत्र राज्य (एकराट| स्थापित किया था। द्रष्टव्य, Dr. H.C. Raychaudhuri, Political History of Ancient India, p. 234; Nilakantha Shastri, Age of Nandas and Mauryas, pp. 11-20. २. यहाँ यह ध्यान देना आवश्यक है कि यद्यपि पुराणों में शिशुनाग वंश का समग्र राज्य काल ३६२ वर्ष बताया गया है, फिर भी भिन्न-भिन्न राजाओं का जो राज्य-काल वहाँ दिया गया है, उसका योगफल ३३३ वर्ष होता है। द्रष्टव्य, वायु पुराण, अ. ६६, श्लो० ३१५-२१ ; महामहोपाध्याय विश्वेसरनाथ रेउ-भारत के प्राचीन राजवंश, खण्ड २, पृष्ठ ५४। ३. जैसा कि हम देख चुके हैं, शिशुनाग को भगवान् पार्श्वनाथ का समकालीन माना जाता है । पार्श्वनाथ का निर्वाण महावीर-निर्वाण से २५० वर्ष पूर्व हुआ था और उसकी समग्र आयु १०० वर्ष थी ; अतः पार्श्वनाथ का समय ई० पू० ८७७-ई० पू० ७७७ है (द्रष्टव्य, Political History of Ancient India, p.97) शिशुनाग का काल हमारी गणना के अनुसार ई० पू० ८०७-७४७ आता है। इस प्रकार शिशुनाग और भगवान् पार्श्वनाथ की समकालीनता पुष्ट हो जाती है। ४. हम देख चुके हैं कि डॉ० टी० एल० शाह के अनुसार शिशुनाग के बाद क्रमशः काक वर्ण, क्षेमवर्धन, क्षेमजित् और प्रसेनजित् राजा हुए। प्रसेनजित् का उल्लेख पुराणों में नहीं मिलता किन्तु जैन परम्परा में प्रसेनजित् को बिम्बिसार का पिता माना गया है। यह भी बताया जाता है कि प्रसेनजित् ने मगध की राजधानी कुस्थाल से हटाकर गिरिब्रज में बनाई (प्राचीन भारतवर्ष, खण्ड १)। प्रसेनजित् का उल्लेख बौद्ध ग्रन्थ दिव्यावदान (पृ० ३६६ में शिशुनाग व काकवर्ण के वंशजों में आया है। देखें, Political History of Ancient India, p. 222. ____ 2010_05 Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा ] काल- निर्णय ६५ विम्बिसार के ८०७-५८२ है ।' ई० पू० ५=२ में बिम्बिसार का राज्य प्रारम्भ होता है। पश्चात् अजातशत्रु का राज्यारम्भ-काल निश्चित रूप से ई० पू० ५४४ तथा यह भी निश्चित किया जा चुका है कि महावीर निर्वाण के १७ वर्ष पूर्व अजातशत्रु के राज्य का प्रारम्भ हुआ तथा ३० वर्ष पश्चात् उसका अन्त हुआ । इस प्रकार अजातशत्रु का राज्य-काल ई० पू० ५४४ - ४६७ होता है । अजातशत्रु के पश्चात् उसका पुत्र उदायी मगध का राजा हुआ । उदायी ने १६ वर्ष राज्य किया; अतः उदायी का राज्य-काल ई० पू० ४६७ - ४८१ होता है । तत्पश्चात् अनिरुद्ध-मुण्ड के ८ वर्ष के राज्य काल के बाद ई० पू० ४७३ से मगध में शिशुनाग वंश का अंत हुआ। शिशुनाग वंश के बाद नन्द वंश का राज्य प्रारम्भ हुआ । नन्द १. डॉ० टी० एल० शाह ने पहले पाँच राजाओं का काल २२५ वर्ष तथा अन्तिम पाँच राजाओं का काल १०८ वर्ष माना है ; अतः बिम्बिसार का राज्यारम्भ ई० पू० ५८२ तथा शिशुनाग वंश का अन्त ई० पू० ४७४ में आता है । २. डॉ० वी० ए० स्मिथ ने भी बिम्बिसार का राज्यारोहण-काल ई० पू० ५८२ माना है; देखें, Oxford History of India, p. 45. । ३. जैन-काल-गणना अजातशत्रु के बाद उदायी को राजा मानती है। पुराणों के अनुसार अजातशत्रु के बाद क्रमशः दर्शक, उदायी, नन्दीवर्धन और महानन्दी राजा हुए। बौद्ध ग्रन्थों के अनुसार उदीयभद्र, अनिरुद्ध व मुण्ड राजा हुए। वस्तुतः नन्दीवर्धन और महानन्दी नन्दवंश के राजा थे (देखें, आगे की टिप्पण) दर्शक का उल्लेख पुराणों के अतिरिक्त स्वप्नवासवदत्ता जैसे प्रसिद्ध संस्कृत नाटक में राजगृह के राजा के रूप में हुआ है। मुनि कल्याण विजयजी ने (पूर्व उद्धृत ग्रन्थ, पृ० २२- ३) प्रमाणित किया है कि दर्शक मगध की मुख्य गद्दी चम्पा या पाटलीपुत्र का राजा न होकर राजगृह-शाखा का राजा था । बिम्बिसार के पश्चात् अजातशत्रु ने मगध की मुख्य राजधानी चम्पा में बनाई; ऐसा स्पष्ट उल्लेख जैन आगमों में मिलता है तथा जैन एवं बौद्ध काल-गणना अजातशत्रु के बाद उदायी का ही उल्लेख करती है। इससे यही अनुमान लगता है कि दर्शक मगध की मुख्य गद्दी का अधिकारी नहीं था । कुछ विद्वानों का अभिमत है कि दर्शक बिम्बिसार के अनेक पुत्रों और प्रपुत्रों में से कोई एक हो सकता है, जैसे डॉ० सीतानाथ प्रधान ने माना है - " दर्शक बिम्बिसार के अनेक पुत्रों में से एक हो सकता है, जो बिम्बिसार के जीवन में ही राज कार्य की देखभाल करने लगा हो ।" (Chronology of Ancient India, p. 212 ) ; तथा द्रष्टव्य, Political History of Ancient, India, by H. C. Raychaudhuri, p. 130; Mahavamsa tr. by Geiger, introduction.) । डॉ० सीतानाथ प्रधान ने यह भी लिखा है - "विष्णु पुराण का वह वंशानुक्रम, जिसमें अजातशत्रु और उदयाश्व के बीच दर्शक का उल्लेख है, अस्वीकार्य है ।" (Chronology of Ancient India, (p. 217 ) अतः मगध में शिशुनाग वंश की राज्य-काल-गणना में दर्शक गिनना आवश्यक नहीं है | 2010_05 Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड : १ वंश का प्रथम राजा नन्दीवर्धन था।' मगध में ई० पू० ४७३ में राज्य स्थापित करने के पश्चात् नन्दीवर्धन ने ई० पू० ४६७ में अवन्ती पर विजय प्राप्त की। वहाँ पालक वंश या प्राद्योतों का अन्त किया तथा नन्द-वंश का राज्य स्थापित किया। यह प्रतीत होता है कि १. बौद्ध-काल-गणना के अनुसार अनिरुद्ध-मुण्ड के पश्चात् नागदशक और शुशुनाग ने क्रमशः २४ व १८ वर्ष राज्य किया (महावंश परिच्छेद ४, गाथा ४-६) । पुराणों में दर्शक और नन्दीवर्धन का काल क्रमशः २४ और ४२ (अथवा ४०) बताया गया है (वाय-पूराण, अ०६६, श्लो० ३२० : मत्स्यपुराण, अ० २७१, श्लो. १०)। लगता है. पुराणों का दर्शक और बौद्धों का नागदशक एक ही व्यक्ति है, जैसे कुछ इतिहासकारों ने माना है (डा० राधाकुमुद मुखर्जी-हिन्दू सभ्यता पृ० २६५; E.J. Rapson Combridge Histoay of India, p. 279.) यह भी सम्भव है कि दर्शक या नागदशक ने राजगह की शाखा-गद्दी पर २४ वर्ष राज्य किया और उसी के समकाल में मगध की मुख्य गद्दी (पाटलिपुत्र) में उदायी (१६ वर्ष व अनिरुद्ध-मुण्ड (वर्ष) ने राज्य किया। मण्ड के पश्चात दर्शक या नागदशक ने मगध की मुख्य गही पर कब्जा कर लिया और नन्दीवर्धन नाम रख कर नन्द-वंश की स्थापना की तथा १५ वर्ष राज्य किया (डॉ० टी० एल० शाह-प्राचीन भारतवर्ष) । पुराणों में जो नन्दीवर्धन का राज्य-काल ४२ वर्ष बताया गया है, वह राजगृह के २४ वर्ष और पाटलिपुत्र के १८ वर्ष मिलाकर हो सकता है। बौद्ध गणना में अनिरुद्धमण्ड के पश्चात जो शुशुनाग का उल्लेख है, वह भी नन्दीवर्धन के लिए ही हो सकता हैं ; क्योंकि शिशुनाग वंश का होने से उसे शैशुनाग या शुशुनाग भी कहा जा सकता है। २. पुराणों के अनुसार पुलक (अथवा सुनक) नामक मंत्री ने अपने राजा रिपुञ्जय का वध कर अपने पुत्र प्रद्योत को अवन्ती की गद्दी पर बैठाया (वायु-पुराण, अ० ६६ श्लो० ३०६-३१४, मत्स्य-पुराण, अ० २७१, श्लो० १-४) हम देख चुके हैं कि बार्हद्रथों के पश्चात् अवन्ती में प्राद्योतों का राज्य प्रारम्भ हुआ। प्राद्योतों के पाँच राजा इस प्रकार हुए: १. प्रद्योत (महासेन अथवा चण्डप्रद्योत) २. पालक ३. विशाखयूप ४. अजक (या गोपालक) ५. अवन्तीवर्धन (अथवा बर्तीवर्धन) जैन काल-गणना के अनुसार पालक का राज्याभिषेक उसी दिन हुआ, जिस दिन महावीर का निर्वाण हुआ तथा उसके वंश का राज्य-काल ६० वर्ष तक रहा। पौराणिक काल गणना में पालक का राज्य-काल २० वर्ष माना गया है (द्रष्टव्य, The purana Text of Dynesties of the Kali Age, p. 9. foot-note 26)। यद्यपि पुराणों की कुछ प्रतियों में २४ वर्ष का उल्लेख है। फिर भी विद्वानों ने २० वर्ष को ही सही माना है (द्रष्टव्य, Dr. Shanti Lal Shah, Chronological problems, p. 26)। तीसरे प्रद्योत राजा विशाखयूप का राज्य-काल पुराणों में ५३(अथवा ८५)वर्ष बताया ___ 2010_05 Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा ] काल - निर्णय अवन्ती - विजय के पश्चात् नन्दीवर्धन ने कलिंग पर आक्रमण किया और वहाँ से एक जैन-मूर्ति को उठाकर मगध ले आया । हाथीगुम्फा शिलालेख के आधार पर इस घटना का समय ई० पू० ४६६ प्रमाणित होता है ।" ६७ गया है, किन्तु मृच्छकटिक जैसी साहित्यिक कृतियों के आधार पर विद्वानों ने प्रमाfra किया है कि पालक का उत्तराधिकारी अजक या गोपालक था; अतः विशाखयूप को पालक - वंश में नहीं गिनना चाहिए जैसे - डॉ० शान्तिलाल शाह ने लिखा है : "What about Visahakhayupa who occurs in the Purana in between Palak and Aryak? According to the family history of Pradyota which we have seen just now, there is no place for Visakhayupa in between Palaka and Ajaka as reported"—Chronological Problems, p. 27। मजदूमदार शास्त्री ने लिखा है : "Visakhayupa has been Introduced between Palaka and Ajaka, but as that name does not occur in all Mss. we ought to take no notice of him."Journal of Bihar and Orissa Research Society, vol. VII, p. 116 ) । डॉ० रमाशंकर त्रिपाठी ने लिखा है : "पुराणों में पालक और अजक के बीच विशाखप का नाम रखा गया है, यह सम्भवतया भूल है" (प्राचीन भारत का इतिहास, पृ० ७२ ) । इस प्रकार २० वर्ष के पालक के राज्य काल के बाद अजक राजा हुआ । पुराणों में अजक का राज्य काल २१ वर्ष बताया गया है। तत्पश्चात् अवन्ती वर्धन या बर्ती वर्धन ने २० वर्ष राज्य किया । इस प्रकार पालक, अजक और अवन्तीवर्धन ने ६१ वर्ष राज्य किया और उसके बाद प्रद्योतों का अन्त हुआ । इस प्रकार जैन एवं पौराणिक दोनों ही काल-गणनाएं पालक वंश का राज्य ६० या ६१ वर्ष मानती हैं (तुलना कीजिए, Chronological Problems pp. 25-27 ) । १. कलिंग के राजा खारवेल के हाथीगुम्फा शिलालेख में दो बार नन्द राजा का उल्लेख हुआ है ( द्रष्टव्य, E. J. Rapson, Cambridge History of India, vol I, P. 280) । इस शिलालेख की छुट्टी पंक्ति में लिखा गया है: “पंचमे वेदानि बसे नन्द राजा ति-वस-सत ओगाहितं -- तंसुलिय-वात पनदि (म् ) नगर पवेस ( यति ) ... " " ओर (अपने राज्य काल के ) पाँचवें वर्ष में वह ( खारवेल ) ३०० वर्ष पूर्व नन्द राजा द्वारा खोदी गई नहर तोसली तंसुलिय को राजधानी में लाता है (अथवा नहर के द्वारा नगर - विशेष में प्रवेश करता है अथवा नहर से सम्बन्धित किसी सार्वजनिक कार्य को करता है) ।" कुछ विद्वान् 'ति त्रस सत' का अनुवाद ' (नन्द राजा के ) १०३ वें वर्ष में' करते हैं, पर डॉ० के० पी० जायसवाल, डॉ० आर० डी० बनर्जी आदि विद्वानों ने इसका अर्थ “३०० वर्ष" ही किया है (द्रष्टव्य, Journal of Bihar and Orissa Research Society, Dec. 1917, pp. 425 ff.) । डॉ० शान्तिलाल शाह ने लिखा है : "ति-वस-सत का अर्थ निश्चित रूप से ३०० वर्ष है, १०३ वर्ष नहीं (देखें, डॉ० बनर्जी का लेख, J.B.OR.S., vol. III, d. 496 ff.) । मैं इसके साथ यह जोड़ना चाहता हूं कि 'वर्ष' शब्द का प्रयोग समास में हुआ है, इसलिए 'सत' शब्द एक वचन 2010_05 - Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन में प्रयुक्त हुआ है, न कि बहुवचन में।" (Chronological Problems p. 42f.n.) इस शिलालेख से यह स्पष्ट होता है कि उक्त नन्द राजा खारवेल के राज्यकाल के ५वें वर्ष से ३०० वर्ष पूर्व हआ था। डॉ. जायसवाल ने यह भी प्रमाणित किया है कि यह नन्द राजा नन्दीवर्धन ही था (op. cit; vol. XIII, p. 240)। उक्त शिलालेख की सोलहवीं पंक्ति में यह भी बताया गया है कि खारवेल के राज्यकाल का तेरहवाँ वर्ष मौर्य संवत् के १६५वें वर्ष में पड़ता है। शिलालेख की पंक्ति इस प्रकार है : "पाणंतरिय सठिवसतत राजा मुरियकाले वोच्छिनं च चोयठिअग सतक तुरियं उपादयति"-"उसने (खारवेल ने) राजा मुरिय-काल का १६४वां वर्ष जब समाप्त ही हुआ था (वोच्छिन) १६५वें वर्ष में (अगली पंक्तियों में उल्लिखित चीजों को) करवाया।" इस पंक्ति के अर्थ के विषय में भी सभी विद्वान् एकमत नहीं हैं। कुछ विद्वान् इसमें किसी तारीख का उल्लेख हुआ है, ऐसा नहीं मानते, जबकि कुछ विद्वानों ने इसका खण्डन किया है। द्रष्टव्य,(Chronological Problems pp 47-8)। सुप्रसिद्ध इतिहासकार ई० जे० रेपसन ने इस विषय में यह टिप्पणी की हैं। "क्या इस शिलालेख में तारीख का उल्लेख है ? यह मूलभूत प्रश्न भी अब तक विवादास्पद है। कुछ विद्वान् मानते हैं कि सोलहवीं पंक्ति से यही तात्पर्य निकलता है कि यह शिलालेख मौर्य राजाओं के (अथवा राजा के) १६५वें वर्ष में लिखा गया । जब कि अन्य कुछ विद्वान् ऐसी कोई तारीख का उल्लेख हुआ है, ऐसा नहीं मानते । यद्यपि इस प्रकार की समस्याओं पर विचार-विमर्श करना प्रस्तुत ग्रन्थ के क्षेत्र से बाहर की बात है, फिर भी यह बताया जा सकता है कि किसी भी रूप में यह शिलालेख ईसा पूर्व द्वितीय शताब्दी के लगभग मध्य का है। हमें समान उदाहरणों से ज्ञात होता है कि राजवंशों के संवत् का प्रारम्भ प्रायः वंश-स्थापक के अदिकाल से माना जाता है। इसलिए मौर्य संवत् का प्रारम्भ चन्द्रगुप्त मौर्य के राज्याभिषेक-काल ई० पू० ३२१ से माना जा सकता है तथा इसी संवत् का प्रयोग इस शिलालेख में हुआ हो, तो इस शिलालेख का समय ई० पू० १५६ होना चाहिए और खारवेल के राज्यारम्भ का समय ई० पू० १६६ के लगभग होना चाहिए। इस आनुमानिक काल-निर्णय के साथ इस तारीख से सम्बन्धित अन्य तथ्य भी संगत होते हैं।। "पुरातत्त्वीय दृष्टि से चिन्तन करने पर खारवेल के हाथीगुम्फा के शिलालेख व नांगनिक के नानाघाट के शिलालेख का समय वही आता है, जो कृष्ण के नासिक शिलालेख का है (Buhler, Archaeological Survey of Western India, vol. V, p. 71 Indische Palaeographie, p. 39)। इसलिए यदि ऐसा माना भी जाये कि खारवेल के शिलालेख में तारीख का कोई उल्लेख नहीं है तो भी यह मानने के लिए पर्याप्त प्रमाण है कि खारवेल ई०पू० द्वितीय शताब्दी के पूर्वार्ध में हुए शातकर्णा का समकालीन था। इतना ही नहीं, हाथी गुम्फा शिलालेख में ही शातकर्णी का उल्लेख खारवेल के प्रतिस्पर्धा के रूप में हुआ है तथा यह पूर्णतः सम्भव लगता है कि वह नानाघाट शिलालेख में उल्लिखित शातकर्णी से अभिन्न था।" (Cambridge History of India, vol. I, pp. 281-2.) ____ 2010_05 Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ EE इतिहास और परम्परा] काल-निर्णय इस प्रकार अपने १८ (अथवा १६) वर्ष के राज्य-काल में नन्द-वंश को सुस्थापना इस प्रकार मौर्य सम्वत् का प्रारम्भ ई० पू० ३२२ में (चन्द्रगुप्त मौर्य का राज्याभिषेक-काल) मानने पर खारवेल का राज्याभिषेक-काल ई०पू० १७० में आता है और इसके राज्य-काल का पांचवां वर्ष ई० पू० १६६ में आता है। इससे ३०० वर्ष पूर्व अर्थात् ई०पू० ४६६ में नन्द राजा ने कलिंग पर आक्रमण किया था, यह प्रमाणित होता है । इसी नन्द राजा का उल्लेख हाथीगुम्फा शिलालेख की १२वीं पंक्ति में भी किया गया है। वहाँ बताया गया है कि अपने राज्य के बारहवें वर्ष में खारवेल ने उत्तरापथ के राजाओं में आतंक फैला दिया, मगध के लोकों में भय उत्पन्न कर दिया, अपने हाथियों को 'सुओ गरिगेय' में प्रविष्ट करवाया, मगधराज बृहस्पति मित्र को निचा दिखाया, नन्द राजा के द्वारा अपहृत जैन मूर्ति को कलिंग में वापिस ले आया तथा अंग व मगध से विजय के प्रतीक रूप कुछ रत्न प्राप्त किये (द्रष्टव्य, J. B.O. R.S., vol. IV, p.401; vol. XIII, p. 732)। इन पंक्तियों के आधार पर खारवेल का ऊपर किया गया काल-निर्णय भी पुष्ट हो जाता है, क्योंकि इनमें उल्लिखित बृहस्पति मित्र की पहचान शुंगवंशीय राजा पुष्यमित्र के साथ की जाती है, जिसका समय पौराणिक काल-गणना के आधार पर ई० पू० १८५-१५० स्वीकार किया गया है और खारवेल का १२वा वर्ष ई० पू० १५६ में आता है, जो कि पुष्यमित्र के काल के साथ समकालीन ठहरता है । द्रष्टव्य, Chiman Lal Jechand Shah, Jainism in North India, (Gujarati Translation), pp. 159-62; Dr. V. A. Smith, Journal of Royal Asiatic Society, 1918, p. 545; Dr. K. P. Jayswal, op. cit., vol. III, p. 447; Dr. Shanti Lal Shah, op. cit., pp. 53-55.)। __यह नन्द राजा नन्दीवर्धन ही था—हमारा यह मन्तव्य अनेक इतिहासकारों द्वारा स्वीकार किया गया है । डॉ० वी० ए० स्मिथ ने लिखा है : “(हाथीगुम्फा शिलालेख में) उल्लिखित नन्द-राजा पुराणों में बताया गया शिशुनाग वंश का हवा राजा नन्दीवर्धन ही है, ऐसा लगता है। यह आवश्यक लगता है कि इसे और इसके उत्तराधिकारी १०वें राजा महानन्दी को नन्दों में ही गिनना चाहिए, जो नन्द १०वें राजा तथा चन्द्रगुप्त के बीच हुए नव नन्दों से पृथक् थे । 'अर्ली हिस्ट्री ऑफ इण्डिया, के तृतीय संस्करण में मैंने नन्दीवर्धन का राज्यारोहण समय ई० पू० ४१८ माना था, किन्तु अब वह समय ई० पू० ४७० या उससे भी पूर्व का होना चाहिए।" (Journal of Royal Asiatic Society, 1918, p. 547) i Cambridge History of India के प्रमुख सम्पादन ई० जे० रेपसन ने निष्कर्ष रूप से लिखा है : "(हाथीगुम्फा) शिलालेख की छट्ठी पंक्ति में आये 'ति-वस-सत' का अर्थ यदि '३०० वर्ष' होता है, तो यह निश्चित है कि ई० पू० पाँचवीं शताब्दी के मध्य में कलिंग नन्द राजा के आधिपत्य में था और वह नन्द राजा मोर्यों के सुप्रसिद्ध पूर्ववर्ती राजाओं में से ही था, यह स्वाभाविक है।" (vol, I. p., 504) 2010_05 Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन कर प्रथम नन्द राजा नन्दीवर्धन ई० पू० ४४५ में दिवंगत हुआ।' प्रथम नन्द राजा नन्दी. वर्धन का यह काल । (ई० पू० ४७४-४५६) प्रसिद्ध वैयाकरण पाणिनि की तिथि से भी पुष्ट होता है, जो उसका समकालीन सिद्ध हो चुका है और जिसका काल ई० पू०४८०-४१० प्रमाणित हो चुका है। १. नन्दीवर्धन का राज्यान्त ई० पू० ४५६ में हुआ; इसकी पुष्टि इस तथ्य से भी होती है कि अलबेरुनी के अनुसार नन्द संवत् का आरम्भ विक्रम संवत् (ई० पू० ५६) से ४०० वर्ष पूर्व हुआ था (द्रष्टव्य, Dr. K. P. Jayswal, op. cit. vol XIII, p. 240%; गंगाप्रसाद मेहता, प्राचीन भारत, पृ० १०३) । यह सर्वथा सम्भव है कि नन्द-वंश के संस्थापक नन्दीवर्धन की मृत्यु के उपलक्ष्य में नन्द संवत् का प्रारम्भ हुआ हो। २. प्राचीन ब्राह्मण एवं बौद्ध परम्पराएँ पाणिनि को नन्द राजा का समकालीन बताती हैं। प्रसिद्ध तिब्बती इतिहासकार तारनाथ के अनुसार पाणिनि महापद्म के पिता नन्दराजा महानन्दी का मित्र था (History of Buddhism, p. 1608) । बौद्ध ग्रन्थ मंजुश्रीमूलकल्प में उल्लेख मिलता है : तस्याप्यन्तरो राजा नन्दनामा भविष्यति । पुष्पाख्ये नगरं श्रीमान महासन्यो महावलः। भविष्यति तदा काले ब्राह्मण स्ताकिका भवि ॥ तेभिः परिवारितो राजा वै। तस्याप्यन्यतमः सख्यः पाणि निर्माम माणवाः॥ (पटल ५३, पृ० ६११-२, Dr. Jayswal, Studies on Manusjhrimutakalpa, p. 14.) पुष्पपुर में नन्द राजा होगा और पाणिनि नामक ब्राह्मण उसके निकट का मित्र होगा। राजा की सभा में अनेक तार्किक होंगे और राजा उनको पारितोषिकों से सम्मानित करेगा। इन प्रमाणों के अतिरिक्त सोमदेव के 'कथासरित्सागर' व क्षेमेन्द्र की 'बृहत्कथामंजरी' से भी इस तथ्य की पुष्टि होती है कि पाणिनि नन्द राजा का समकालीन था। चीनी यात्री ह्य-एन-त्सांग का विवरण भी इस तथ्य की पुष्टि करता है। द्रष्टव्य, डॉ. वासुदेवशरण अग्रवाल, पाणिनिकालीन भारतवर्ष, पृ० ४६७-४८० । डॉ० वासुदेवशरण अग्रवाल ने साहित्यिक, ऐतिहासिक व पारम्परिक प्रमाणों के आधार पर सिद्ध किया है कि पाणिनि का समय ई० पू० ४८०-४१० था। डॉ. अग्रवाल ने जैन काल-गणना की इस मान्यता को भी स्वीकार किया है कि नन्दों का काल ई० पू० ४७३-३२३ था (पाणिनिकालीन भारतवर्ष, पृ० ४७३)। डॉ० अग्रवाल इससे भी सहमत हैं कि ई०पू०४६५ में प्रथम नन्द राजा नन्दीवर्धन पाटिलपत्र में राज्य कर रहा था (वही, प०४७४)। इतना ही नहीं उन्होंने पाणिनि के व्याकरण का उद्धरण देकर यह प्रमाणित किया है कि नन्दीवर्धन प्रथम नन्द राजा था व उसका पुत्र महानन्दी द्वितीय नन्द राजा था (वही पृ० ४७४) । 2010_05 Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा] नन्दीवर्धन के पश्चात् उसका पुत्र माहनन्दी नन्द-वंश का दूसरा राजा हुआ और उसने पुराणों के अनुसार ४३ वर्ष राज्य किया।' महानन्दी का समय ई० पू० ४५६-४१३ था। तत्पश्चात् महापद्म नन्द राजा हुआ और उसने भारत में 'एकराट्' साम्राज्य की स्थापना की। पुराणों के अनुसार उसका राज्य-काल ८८ वर्ष का था। इस प्रकार ई० पू० ३२५ में महापद्म नन्द का अन्त हुआ। शेष नन्द राजाओं ने केवल १२ वर्ष राज्य किया और ई० पू० ३१३ में नन्द-वंश का अन्त हुआ। इस प्रकार शिशुनाग-वंश से लेकर मौर्य-वंश की स्थापना तक समग्र काल-गणना का पुननिर्माण किया जा सकता है। इसको काल-क्रम तालिका के रूप में इस प्रकार रखा जा सकता है: घटना तिथि (ई० पू०) शिशुनाग वंश की स्थापना) शिशुनाग का राज्याभिषेक काकवर्ण का राज्याभिषेक ७४७ क्षेमवर्धन , क्षेमजित् , ६६१ प्रसेनजित् । ६२५ बिम्बिसार , ५८२ अजातशत्रु, ५४४ उदायी , ,, (मगध की मुख्य) ४६७ गद्दी पाटलिपुत्र में) (दर्शक या नागदशक का राज्याभिषेक (४६७) मगध की शाखा राजगृह में) ८०७ १. वायु पुराण, अ० ६६, श्लो० ३२६; मत्स्य पुराण, अ० २७१, श्लो० १८ । २. वायु पुराण, अ० ६६, श्लो० ३२७ । ३. वही। ४. यह ध्यान देने योग्य है कि डॉ० स्मिथ ने भिन्न आधारों पर अपनी काल-गणना का . निर्माण किया है, फिर भी महापद्म नन्द का काल ई०पू० ४१३-३२५ माना है। ५. चन्द्रगुप्त मौर्य ने ई० पू० ३२२ में नन्द-वंश का अन्त कर दिया. पर नन्दों का राज्य अवन्ती में ई० पू० ३१३ तक चलता रहा । जब ई० पू० ३१३ में चन्द्रगुप्त मौर्य ने अवन्ती का राज्य जीत लिया, तब वहाँ भी नन्द-वंश का अन्त हो गया। कुछ इतिहासकारों ने प्रथम दो नन्द राजा नन्दीवर्धन व महानन्दी के पूर्व नन्द और महापद्म नन्द तथा उसके वंशजों को नव नन्द अथवा नये नन्द के रूप में भी माना है (द्रष्टव्य, Dr. Shantilal Shah, Chronological Problems, pp. 34-37; E. J. Rapson, Cambridge History of India, pp. 289-903; Dr. K. P. Jayswal, J. B. O. R. S. Sept. 1915, p. 21) । ____ 2010_05 Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन खण्ड : १ ४८१ ४७४ ४६७ अनिरुद्ध-मुण्ड का राज्याभिषेक नन्द-वंश की स्थापना नन्दीवर्धन का राज्याभिषेक (पाटलिपुत्र में) नन्दीवर्धन का राज्याभिषेक (अवन्ती में) महानन्दी का राज्याभिषेक महापद्म , " महापद्म के आठ पुत्रों का राज्याभिषेक मौर्य-वंश की स्थापना चन्द्रगुप्त मौर्य का राज्याभिषेक (मगध में)। " , , , (अवन्ती में) ४५६ ४१३ ३२५ ३२२ ३१३१ १. महावंश, डॉ. स्मिथ व डॉ. शान्तिलाल शाह द्वारा दी गई काल-गणना की तालिकाओं के साथ इसकी तुलना की जा सकती है : १. महावंश को काल-गणना-तालिका (बुद्ध-निर्वाण-तिथि ई० ५४४ मानने से तथा बुद्ध का निर्वाण अजातशत्रु के ८ वें वर्ष में मानने से निम्न तिथियां राज्याभिषेक-काल बताती हैं।) राजा राज्य-काल तिथि (ई० पू०) भजातशत्रु ३२ ५५१ उदायीभद्र १६ ५१६ अनिरुद्ध-मुण्ड नागदशक ४६५ शुशुनाग कालाशोक ४५३ कालाशोक-पुत्र नवनन्द ४०३ चन्द्रगुप्त मौर्य ३८१ ४७१ ४२५ २. डॉ. स्मिय-Oxford History of India राजा राज्य-काल बिम्बिसार अजातशत्रु २४ तिथि (ई० पू०) ५८२ ५५१ ५२७ ५०३ दर्शक उदय २३ ____ 2010_05 Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा ] बुद्ध-निर्वाण काल : परम्परागत तिथियाँ महावीर का निर्वाण काल जितना असंदिग्ध बनाया जा सका है, बुद्ध के निर्वाण-काल को उतना असंदिग्ध बना पाना इतना सहज नहीं है । बुद्ध-निर्वाण-काल के सम्बन्ध में सहस्रों वर्ष पूर्व भी संदिग्धता थी और आज भी वह बहुत कुछ अवशेष है। चीनी यात्री फाहियान, जो ई० सन् ४०० में यहाँ आया था, लिखता है : " इस समय तक निर्वाण से १४६७ वर्ष व्यतीत हो चुके हैं।"" इससे बुद्ध-निर्वाण का समय ई० पू० १०६७ के आस-पास आता है । प्रसिद्ध चीनी यात्री -एन-त्सांग ई० सन् ६३० में भारत यात्रा पर आया था। वह लिखता है : "श्री बुद्धदेव ८० वर्ष तक जीवित रहे । उनके निर्वाण की तिथि के विषय में बहुत मतभेद है । कुछ लोग वैशाख पूर्णिमा को उनकी निर्वाण तिथि मानते हैं । सर्वास्तिवादी कार्तिक पूर्णिमा को निर्वाण तिथि मानते हैं । कुछ लोग कहते हैं कि निर्वाण को १२०० वर्ष हो चुके हैं, तो कुछ लोग कहते हैं कि १५०० वर्ष बीत चुके हैं । कुछ लोग कहते हैं, निर्वाण-काल को अभी तक ६०० वर्षों से कुछ अधिक समय हुआ है ।"" इन धारणाओं से तो बुद्ध-निर्वाण काल क्रमश: ई० पू० ५७०, ई० पू० ८७० तथा ई० पू० २७० से कुछ अधिक वर्ष आता है । नन्दीवर्धन महानन्दी उक्त अवधियाँ तो केवल किंवदन्तियाँ मात्र ही रह जाती हैं । बौद्ध परम्पराओं के आधार पर वर्तमान में अनेक तिथियाँ प्रचलित हैं । एक तिथि क्रम सिलोनी गाथा महावंश पर महापद्मनन्द महापद्मनन्द के पुत्र चन्द्रगुप्त काल-निर्णय राजा अजातशत्रु दर्शक उदायन ( पूर्व नन्द ) नन्दीवर्धन काकवर्ण व महानन्दी ( नवनन्द ) नन्द (नाई) नन्द 'द्वितीय' (महापद्म ) चन्द्रगुप्त १. भारतीय प्राचीन लिपिमाला । २. वही । 2010_05 ६१ ३. डॉ० शान्तिलाल शाह - Chronological Problems राज्य-काल ३२ १८ ३४ २० ४३ २२ ६६ ४८० ४१३ ३२२ (? ३२५) तिथि ( ई० पू० ) ५५१ ५१६ ५०१ ४६७ ४४७ १०३ ४०४ ३८२ ३१६ Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन खण्ड : १ आधारित है। इसके अनुसार बुद्ध-निर्वाण ई० पू० ५४४ में हुआ था। दूसरा तिथिक्रम 'केन्टन के बिन्दु संग्रह' (Cantonese Dotted Record) पर आधारित है। इस परम्परा का इतिहास इस प्रकार है : जब बुद्ध का निर्वाण हुआ, भिक्षु संघभद्र ने वह सूचना चीन पहुँचाई। वहाँ के केन्टन नगर के लोगों ने एक बिन्दु संग्रह (Dotted Record) की व्यवस्था की, जिसका प्रारम्भ भगवान् बुद्ध की निर्वाण-तिथि से किया गया तथा उसमें प्रतिवर्ष एक बिन्दु और जोड़ दिया जाता। यह परम्परा ई० सन् ४८६ तक चलती रही तथा जब समस्त बिन्दु गिने गये, तो उनकी संख्या ६७५ ज्ञात हुई। इसके अनुसार ई० पू० ४८६ में गौतम बुद्ध की निर्वाण-समय निर्धारित किया गया। तीसरा तिथि-क्रम चीनी तुर्किस्तान में प्रचलित है। कुतान (चीनी तुर्किस्तान) में पाये गये बौद्ध ग्रन्थों में दी गई एक दन्त कथा से पता लगता है कि बुद्ध-निर्वाण के २५० वर्ष बाद अशोक हुए। उस दन्त कथा से यह भी पता चलता है कि अशोक चीन के बादशाह शेह्वांगटी का समकालीन था। शेह्वांगटी ने ई० पू० २४६ से ई० पू० २१० तक राज्य किया था। इस तिथि-क्रम के आधार पर कुछ एक विद्वानों ने बुद्ध का निर्वाण-काल २४६+२५० =ई० पू० ४६६ भी माना है। इतिहासकारों का अभिमत आश्चर्य की बात यह है कि बहुत शोध-कार्य हो जाने के पश्चात् भी इतिहासकार किसी सर्वसम्मत निष्कर्ष पर नहीं पहुँच सके हैं । अधिकांश विद्वान् इस विषय में अपनाअपना नया मत स्थापित करते जा रहे हैं। विद्वानों द्वारा अभिमत बुद्ध-निर्वाण-काल निम्न प्रकार से हैं: ई० जे० थॉमस और जापानी विद्वान् ई० पू० ३८६ राइस डेविड्स ई० पू० ४१२ मैक्स मूलर व शाण्टियर ई० पू० ४७७ ज० कनिंगहेम व दीवानबहादुर स्वामी कन्नुपिल्ले१० ई० पू० ४७८ १. Vincent Smith, Early History of India, p. 49 २.Journal of Royal Asiatic Society, Great Britain, 1905, p. 51. 3. Sarat Chandra Das, Journal of Royal Asiatic Society, Bengal, 1886, pp. 193-203; Tchang, Synchronismes Chinois; V. A. Smith, Early History of India, pp. 49-50. ४. जनार्दन भट्ट, बुद्धकालीन भारत, पृ०३७१ । %. B. C. Law Commemoration Volume, vol. II, pp. 18-22. ६. Buddhism, pp. 212-213. 9. S. B. E, vol. X, Introduction to Dhammpada, p. XII. ८. Indian Antiquary,XLIII, 1914, pp. 126-133. E. Corpus Inscriptionum Indicarum, vol. 1, Introduction, p. V. १०.An Indian Ephemeris, I, pt. J, 1922, p. 471. ___ 2010_05 Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा काल-निर्णय १०५ डॉ० ओल्डनबर्ग' ई० पू०४८० फएसन' ई० पू०४८१ डॉ० ब्यूहलर ई०पू०४८३ व ४८१ के बीच डॉ० व्हीलर, डॉ० गाइगर, डा० फ्लीट५ ई० पू० ४८३ तुकाराम कृष्ण लाडू६, राहुल सांकृत्यायन, ई० पू०४८३ डॉ० जेकोबी डॉ० एच० सी० रायचौधरी ई० पू० ४८६ डॉ. स्मिथ की दूसरी शोध के अनुसार ई० पू० ४८७ प्रो० कर्न ई० पू० ४८८ डॉ० स्मिथ की प्रथम शोध के अनुसार ई० पू० ५४३ पं० धर्मानन्द कोसम्बी3 पं० भगवानलाल इन्दरजी१४ ई० पू० ६३८ उक्त तथ्यों से यह निष्कर्ष तो सहज ही निकल जाता है कि इन बाईस अभिमतों में उन्नीस अभिमत ऐसे हैं, जो बुद्ध का निर्वाण-समय ई० पू० ५२७ के पश्चात् ही मानते हैं। यदि ई० पू० ५२७ को महावीर-निर्वाण का सही समय मान लिया जाता है, तो उक्त उन्नीस अभिमतों के अनुसार भगवान् बुद्ध ही उत्तरवर्ती ठहरते हैं। इन अभिमतों में क्रमिक परिष्कार होता गया है, फिर भी इनमें से एक भी अभिमत ऐसा नहीं है, जो महावीर, बुद्ध, गोशालक, श्रेणिक, कोणिक आदि से सम्बन्धित समस्त घटना-प्रसंगों को साथ लेकर चल सकता हो । इसका तात्पर्य यह भी निकलता है कि अब तक 2. S. B. E., vol., XIII, Introduction to Vinaya Pitaka, p. XXII; The Religions of India, by E. W. Hopkins, p. 310. २.Journal of Royal Asiatic Society, IV, p. 81. ३. Indian Antiquary, VI, p. 149.ff. (Also, see Budddism in Transla tion p. 2). ४. Mahavamsa, Geiger's Translation, p. XXVIII; The Journal of Royal Asiatic Society, 1909, pp. 1-134. 4. Journal of Royal Asiatic Society, 1908, pp. 471 ff. ६. वीर- निर्वाण-संवत् और जैन-काल-गणना, पृ० १५५। ७. बुद्धचर्या, भूमिका, पृ० १। ८. श्रमण, वर्ष १३, अंक ६, पृ०११ । ६. Political History of Ancient India, p. 227. १०. Early History of India, pp. 46-47. ११. Der Buddhismus, Jaar Telling, vol. II, p. 63. १२. Early Histoy of India, 1924, pp,49-50. १३. भगवान् बुद्ध, पृ० ८६, भूमिका, पृ० १२ । १४. Indian Antiquary, vol. XIII, 1884, pp. 411 ff. ____ 2010_05 Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मागम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड : १ के हमारे चिन्तन में कोई मौलिक भूल रही है । वह है-बौद्ध काल-गणना का आधार । बुद्ध के जन्म और निर्वाण के काल-निर्धारण में बौद्ध काल-गणना काही आधार मुख्यतया माना जाता रहा है। यही कारण हो सकता है कि उनके जीवन-संस्मरणों व काल-क्रम में पर्याप्त संगति नहीं बैठ रही है। महावीर और बुद्ध की समसामयिकता ऐसी स्थिति में जब कि बुद्ध के जन्म और निर्वाण का काल-क्रम स्वयं में संदिग्ध और अनिश्चित ही ठहरता है, महावीर और उनकी समसायिकता को पकड़ने के लिए, उनके जीवन-प्रसंग ही आधारभूत प्रमाण बन जाते हैं । बुद्ध के समय में उनके सहित सात धर्मनायक थे । बुद्ध का सम्बन्ध उन सब में अच्छा या बुरा महावीर के साथ सबसे अधिक रहा है, यह त्रिपिटक स्वयं बतला रहे हैं। अतः महावीर और बुद्ध के जीवन-प्रसंगों की संगति बुद्ध के निर्वाण-काल को समझने में सहायक हो सकती है। __ आगमों और त्रिपिटकों के अंचल में निम्न चार निष्कर्ष सुस्पष्ट हैं : १. बुद्ध महावीर से आयु में छोटे थे अर्थात् महावीर जब प्रौढ़ (अधेड़) थे, तब बद्ध युवा थे। २. बुद्ध को बोधि-लाभ होने से पूर्व ही महावीर को कैवल्य-लाभ हो चुका था और वे धर्मोपदेश की दिशा में बहुत कुछ कर चुके थे। ३. गोशालक का शरीरान्त महावीर के निर्वाण से १६ वर्ष पूर्व हुआ अर्थात् उस समय महावीर ५६ वर्ष के थे। ४. गोशालक की वर्तमानता में बुद्ध बोधि-प्राप्त कर चुके थे तथा महाशिलाकंटक व रथमुशल संग्राम के समय महावीर, बुद्ध और गोशालक-तीनों ही विद्यमान थ। गोशालक की मृत्यु के समय महावीर ५६ वर्ष के थे और बोधि-प्राप्त बुद्ध उस समय कम-से-कम ३५ वर्ष के तो होते ही हैं। ७२ वर्ष की आयु में महावीर का निर्वाण हुआ। उस समय बुद्ध की अवस्था कम-से-कम ५१ वर्ष की तो हो ही जाती है । बुद्ध की समग्न आयु ८० वर्ष होती है। इस प्रकार महावीर-निर्वाण के अधिक-से-अधिक २६ वर्ष बाद उनका निर्वाण होता है। यह तो दोनों के निर्वाण-काल में अधिक-से-अधिक अन्तर की सम्भावना हुई । अब १. पूरण कस्यप आदि छहों ही तीर्थङ्कर बुद्ध के बोधि-प्राप्ति से पहले ही अपने को तीर्थङ्कर घोषित कर धर्म प्रचार करते थे व बुद्ध की बोधि-प्राप्ति के समय सभी विद्यमान थे। जिस समय बुद्ध को बोधि-प्राप्ति हुई, उस समय उनको गया में सारनाथ जाते हुए रास्ते में एक उपक नामक आजीवक साधु मिला था। बुद्ध ने उसे कहा था-'मुझे तत्त्व-बोध हुआ है। परन्तु उपक को उस सम्बन्ध में विश्वास नहीं हुआ। 'होगा शायद' कहकर वह दूसरे मार्ग से चलता बना(देखें, विनय पिटक, महावग्ग १; धर्मानन्द कोसम्बी, भगवान् बुद्ध, पृ० १३७)। इस प्रसंग से यह स्पष्ट हो जाता है कि बुद्ध की बोधि-प्राप्ति के समय मक्खलि गोशाल एक प्रसिद्ध आचार्य हो चुका था भौर उसके शिष्य यत्र-तत्र विहार करते थे। ____ 2010_05 Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा] काल-निर्णय १०७ देखना यह है कि दोनों के निर्वाण-काल में कम-से-कम अन्तर कितना सम्भव हो सकता है। गोशालक की मृत्यु से पूर्व यदि बुद्ध को बोधि-लाभ होता है, तो अधिक-से-अधिक १४ वर्ष पूर्व हो सकता है। क्योंकि इससे अधिक मानने में निष्कर्ष संख्या २ में हानि आती है । यदि इसे हम सम्भव मानें, तो महावीर और बुद्ध के निर्वाण में कम-से-कम १५ वर्ष का अन्तर आ जाता है। इस प्रकार दोनों के निर्वाण में कम-से-कम १५ वर्ष का और अधिक-से-अधिक २६ वर्ष का अन्तर आता है । इतने वर्षों के इस सम्भावित अन्तर में से किसी निश्चित अवधि तक पहुँचने के लिए हमें एक मार्ग और मिल जाता है । अंगुत्तर निकाय की अट्ठकथा' में बुद्ध के चातुर्मासों का क्रमिक इतिहास मिलता है। उसके अनुसार बुद्ध राजगृह में बोधि-लाभ के पश्चात् दूसरा, तीसरा, चौथा, सतरहवाँ व बीसवाँ वर्षावास बिताते हैं। दीघ निकाय सामञफल सुत्त के अनुसार राजा अजातशत्रु राजगृह वर्षावास में बुद्ध का साक्षात्कार करता है, श्रामण्यफल पूछता है और पितृ-हत्या का अनुताप करता है। यह सब अजातशत्रु के राज्यारोहण के प्रथम वर्ष में होना चाहिए । राज्यारोहण के अनन्तर ही शोक-संतप्त होकर अपनी राजधानी राजगृह से चम्पा ले जाता है । यदि श्रामण्यफल आदि की घटना को सतरहवें या बीसवें चातुर्मास में हुआ मानें, तो निष्कर्ष संख्या २ विघटित होती है; क्योंकि श्रेणिक की मृत्यु व कोणिक के राज्यारोहण की घटना जैन-मान्यता के अनुसार महावीर की कैवल्य-प्राप्ति के तेरहवें वर्ष के आस-पास घटित होती है। इसलिए बुद्ध का यह वर्षावास दूसरे से चौथे तक ही होना चाहिए । इस प्रकार, महावीर की कैवल्य-प्राप्ति का वह तेरहवां वर्ष होता है और बुद्ध की बोधि-प्राप्ति का यह दूसरा, तीसरा या चौथा वर्ष होता है अर्थात् उस समय महावीर की आयु ५५ वर्ष की तथा बुद्ध की आयु ३६, ३७ या ३८ वर्ष की होती है। महावीर बुद्ध से १७,१८ या १६ वर्ष बड़े होते हैं । इसी आधार पर उनके निर्वाण का अन्तर २५, २६ या २७ वर्ष आ जाता है। उक्त तीनों वर्षों में भी किसी एक निश्चित वर्ष पर पहुंचने के लिए भी एक छोटा-सा मार्ग मिल जाता है । यदि हम राजगृह में बुद्ध के दूसरे या तीसरे वर्षावास को लेते हैं, तो राजा श्रेणिक या बुद्ध की समसामयिकता एक या दो ही वर्ष ठहरती है। पिटकों की अभिव्यक्ति को देखते हुए उनकी समसामयिकता कुछ विस्तृत होनी चाहिए; अतः राजगह के चतुर्थ वर्षावास को ही ग्रहण करना सुसंगत है, जिससे श्रेणिक और बुद्ध की समसामयिकता भी पर्याप्त विस्तृत हो जाती है। इस प्रकार हम इस निष्कर्ष पर पहुंच जाते हैं कि महावीर और बुद्ध के निर्वाण में सम्भव अन्तर २५ वर्ष का है। १.२-४-५। २. राइस डेविड्स ने भगवान् बुद्ध का चौथा चातुर्मास महावन (वैशाली) में माना है (Rhys Davids, Buddhism, quoted in Buddha His life, His order, His teachings, M. N. Shastri, p. 120]; किन्तु अट्ठकथा के अनुसार तो पाँचवाँ चातुर्मास वैशाली में था । इसी प्रकार अट्ठकथा में छठा वर्षावास मंकुल पर्वत पर बताया है, जब कि राइस डेविड्स ने पाँचवां वर्षावास मंकुल पर्वत पर बताया है । लगता है, उन्होंने गिनती में एक वर्ष की भूल की है। ____ 2010_05 Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ बुद्ध-निर्वाण काल यह अन्तर न केवल जीवन-प्रसंगों पर आधारित है। उन दोनों युगपुरुषों को किसी मी काल में ले जायें, तो भी उक्त समीक्षा और निष्कर्ष साथ दे सकते हैं । विषय की परिपूर्णता के लिए यहाँ पर भी काल-क्रम की दृष्टि से विचार कर लेना आवश्यक है । डॉ० राधाकुमुद मुकर्जी के शब्दों में काल-क्रम के साथ ही किसी को ऐतिहासिक पुरुष माना जा सकता है ।" यह बताया जा चुका है कि बुद्ध का काल - क्रम अपने आप में निश्चित नहीं हो. पा रहा है । साथ-साथ यह भी बताया जा चुका है कि महावीर का काल-क्रम स्वयं में सर्वसम्मत और निश्चित जैसा है । अत: उक्त जीवन-प्रसंगों के निष्कर्ष को महावीर की कालावधि के साथ तोलेंगे, तो बुद्ध के जन्म और निर्वाण का काल - क्रम भी स्वयं सामने आ जायेगा | महावीर और बुद्ध के निर्वाण काल का अन्तर २५ वर्ष है । महावीर का निर्वाण ई० पू० ५२७ है; अतः बुद्ध का निर्वाण ई० पू० ५०२ में होता है । जब हम उनके निर्वाणसमय को पा लेते हैं, तो उनके मूलभूत जीवन-प्रसंगों की काल-गणना निम्न प्रकार से बन जाती है : आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन ई० पू० ५८२ ई० पू० ५५४ ई० पू० ५४७ जन्म गृह-त्याग बोधि (कैवल्य ) निर्वाण जन्म गृह-त्याग बोधि प्राप्ति ई० पू० ५४४ ई० पू० ५०२ महावीर और बुद्ध के जीवन-प्रसंगों का तुलनात्मक कार्यक्रम इस प्रकार बनता है : महावीर ई० पू० ५६६ ई० पू० ५६६ ई० पू० ५५७ ई० पू० ५२७ 2010_05 अजातशत्रु का बुद्ध से मिलन - श्रामण्यफल पूछना निर्वाण [खण्ड : बुद्ध ई० पू० ५८२ ई० पू० ५५४ ई० पू० ५४७ ई० पू० ५०२ आयु में १७ वर्ष बड़े इस प्रकार महावीर बुद्ध से थे । उनके जीवन काल की समसामयिकता ई० पू० ५८२ से ई० पू० ५२७ ( = ५५ वर्ष) रही। उनके धर्म प्रचार- काल की समसामयिकता ई० पू० ५४७ से ई० पू० ५२७ ( = २० वर्ष ) रही । 1. Chronology is essential to biography. An individual cannot rank as a historical person unless his life and work are placed in time. - Chandragupta Maurya and His Times, p. 2 Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा ] काल- निर्णय १०६ बुद्ध का निर्वाण अजातशत्रु के राज्य काल के ४२वें वर्ष में हुआ । बुद्ध के निर्वाण के १८० वर्ष बाद चन्द्रगुप्त मगध की गद्दी पर बैठा तथा २२६ वर्ष बाद अशोक का राज्यकाल स्थापित हुआ । froni की पुष्टि में बुद्ध-निर्वाण सम्बन्धी उक्त निष्कर्ष नितान्त ऐतिहासिक और गणितिक पद्धति से प्रसूत हुए हैं; इसलिए वे स्वतः प्रमाण हैं; पर चूंकि वे निष्कर्ष इतिहास के क्षेत्र में प्रथम रूप से ही प्रस्तुत हो रहे हैं; अतः इनकी पुष्टि में कुछ अन्यान्य प्रमाण अनपेक्षित नहीं हैं । कुछ एक ऐतिहासिक और पारम्परिक प्रमाण, जो उक्त तथ्यों की साक्षात् पुष्टि करते हैं, वे क्रमश: दिये जा रहे हैं । १. तिब्बती परम्परा तिब्बती बौद्ध परम्परा के अनुसार जिस दिन बुद्ध का जन्म हुआ उसी दिन अवन्ती के राजा चण्डप्रद्योत ( महासेन) का भी जन्म हुआ; तथा जिस दिन बुद्ध को बोधि-लाभ हुआ, उसी दिन चण्डप्रद्योत का राज्यारोहण हुआ । प्रद्योत राजा का उल्लेख बौद्ध, जैन और पौराणिक - तीनों परम्पराओं में प्रकीर्ण रूप से मिलता है। वायु', मत्स्य, भागवत' आदि पुराणों में तथा कथासरित्सागर" स्वप्नवासवदत्ता आदि ग्रन्थों के अनुसार चण्डप्रद्योत राजा का पुत्र पालक होता है, जो कि भगवान् महावीर की निर्वाण - रात्रि में ही अवन्ती की राजगद्दी पर बैठा । इससे यह स्पष्ट होता है कि जिस प्रकार प्रद्योत बुद्ध के साथ जन्मा और बुद्ध के बोधि-लाभ के दिन राजसिंहासन पर बैठा, उसी तरह भगवान् महावीर की निर्वाणतिथि पर ही उसका राज्यान्त हुआ । पौराणिक काल-गणना के अनुसार यह नितान्त असंदिग्ध है - त्रयोविंशत् समाराजा भविता स नरोत्तमः ६ अर्थात् चण्डप्रद्योत का २३ वर्ष राज्य रहा । बुद्ध के बोधि-लाभ के दिन प्रद्योत राजा बना, जब कि बुद्ध ३५ वर्ष के थे और महावीर के निर्वाण दिवस पर प्रद्योत का राज्यान्त हुआ, जबकि महावीर ७२ वर्ष के थे । अर्थात् प्रद्योत के राज्याभिषेक के समय महावीर ७२ – २३ – ४६ के वर्ष होते हैं । इससे भी निष्कर्ष आता है कि महावीर बुद्ध से १४ वर्ष ज्येष्ठ थे ; यह निष्कर्ष मी पूर्वोक्त १७ वर्ष की ज्येष्ठता के बहुत निकट पहुँच जाता है । १. Rockhill, Life of Buddha, pp. 17, 32 २. वायु पुराण, अ० ६६, श्लो० ३१२ । ३. मत्स्य पुराण अ० २७१, श्लो० ३ । ४. भागवत पुराण, स्कन्ध १२ अ० १, श्लो० ३ । ५. कथासरित्सागर, ३-५-५८ । ६. वायु पुराण, अ० ६६, श्लो० ३११ । 2010_05 Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड : १ २. चीनी तुर्किस्तान का तिथिक्रम प्रस्तुत निष्कर्ष बौद्ध-परम्परा में बताये गये चीनी तुर्किस्तान वाले तिथिक्रम के साथ भलीभाँति संगत हो जाता है। उस परम्परा में राजा अशोक और राजा शेह्वांगटी की समसामयिकता को मानकर बुद्ध- निर्वाण और अशोक का अन्तर २५० वर्ष माना है। श्री जनार्दन भट्ट ने शेह्वांगटी को ई० पू० २४६ में मानकर बुद्ध-निर्वाण ई० पू० ४६६ में माना है। ई० पू० ५०२ का समय, जो पीछे हम बुद्ध-निर्वाण का समय मान आये हैं, उसमें और इसमें केवल ६ वर्ष का नगण्य-सा अन्तर रहता है । बुद्ध-निर्वाण और अशोक के बीच जो २५० वर्ष का अन्तर माना गया है, वह समय वास्तव में वह है, जिसमें इतिहासकारों ने तीसरी बौद्धसंगीति का होना माना है, जो कि अशोक के राज्य-काल में ई०पू० २५२ में हुई थी; अत: उक्त परम्परा के आधार से भी बुद्ध-निर्वाण काल ई० पू० ५०२ ही आ जाता है । एक अन्य तिब्बती परम्परा, जिसका उल्लेख डॉ० स्मिथ ने अर्ली हिस्ट्री ऑफ इण्डिया में किया है, बताती है कि अशोक का राज्यारोहण बुद्ध-निर्वाण के २३४ वर्ष बाद हुआ। इससे भी बुद्धनिर्वाण-काल २६६+२३४ =५०३ ई० पू० आता है । ३. अशोक के शिलालेख सम्राट अशोक द्वारा उत्कीर्ण शिलाएँ व स्तम्भ सचमुच ही भारतीय इतिहास की आधार-शिला व आधार-स्तम्भ हैं । इन आधारों ने इतिहास के बहुत सारे संदिग्ध तथ्यों को असंदिग्ध बना दिया है । बुद्ध-निर्वाण-काल-विषयक प्रस्तुत निष्कर्ष के सम्बन्ध में भी कुछ एक शिलालेख सबल प्रमाण बनते हैं । सम्राट अशोक द्वारा उत्कीर्ण अभिलेखों को निम्न विभागों में बांटा गया है : ५ लघु शिलालेख, १४ बृहत् शिलालेख, ४ लघु स्तम्भलेख, ७ बृहत् स्तम्भलेख, ३ गुहालेख, ६ स्फुट शिलालेख । इनमें से लघु शिलालेख सं० १ में, जो कि रूपनाथ, सहसराम और वैराट में उपलब्ध हुआ है, सम्राट अशोक ने लिखा है: देवानं पिये एवं आहा:-सातिलेकानि अढ़तियानि वय सुमि पाका सबके नो चु बाढि पकते; सातिलके चु छच्छरे य सुमि हकं संघे उपेते। "बाढि चु पकते यि। इमाय कालाय जम्बुदिपंसि अमिसा देवा हुसु ते वानि मिसा कटा। पकमयि हि एस फले । नो च एसा महतता पापलेतवे-खुदकेन हि क । १. बुद्धकालीन भारत, पृ० ३७१। २. डॉ. रमाशंकर त्रिपाठी, प्राचीन भरत का इतिहास, पृ० १२६ । ३. पृ० ४४ । 6. Tibetan tradition reckons 10 reigns from No. 26, Ajatasatru to ___No. 15, Asoka, inclusive and places Asoka's accession in 234 A. B. (after Buddha). -Rockhill, Life of Buddha, pp 33 233 ५. जनार्दन भट्ट, अशोक के धर्मलेख। ६. सहसराम तथा वैराट के लेख में "उपासके" है। ____ 2010_05 Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा काल-निर्णय १११ "पि परूममिनेन सकिये पिपुले पि स्वगे आरोधवे। एतिय अठाय च सावने कटे खुदका च उढाला च पकमंतु ति। अता पि च जानंतु इयं पकख। - "किति (?) चिरठति के सिया । इय हि अठे वढि वढिसिति विपुल च वढिसिति । अपलघियेना दियढिय वाढिसत (1) इय स अठे पवतिसु लेखापेत वालतहध च (1) प्रथि "सिलाठमे सिलाठमसि लाखापतवयत । एतिना च वय-जनेना यावतक तुपक अहाले सवर विवसेतवायति । व्युठेना सावने कटें २५६ सतवियासात ।" "देवताओं के प्रिय इस प्रकार कहते हैं : अढाई वर्ष से अधिक हुए कि मैं उपासक हुआ, पर मैंने अधिक उद्योग नहीं किया; किन्तु एक वर्ष से अधिक हुए, जब से मैं संघ आया हूँ, तब तब से मैंने अच्छी तरह से उद्योग किया है। इस बीच में जो देवता सच्चे माने जाते थे, वे अब झूठे सिद्ध कर दिये गये हैं। यह उद्योग का फल है। यह (उद्योग का फल) केवल बड़े ही लोग पा सके, ऐसी बात नहीं है, क्योंकि छोटे लोग भी उद्योग करें, तो महान् स्वर्ग का सुख पा सकते हैं। इसलिए यह अनुशासन लिखा गया है कि 'छोटे और बड़े उद्योग करें।' मेरे पड़ोसी राजा भी इस अनुशासन को मानें और मेरा उद्योग चिर स्थित रहे। इस बात का विस्तार होगा और अच्छा विस्तार होगा। कम-से-कम डेढ़ गुना विस्तार होगा। यह अनुशासन यहाँ और दूर के प्रान्तों में पर्वतों की शिलाओं पर लिखा जाना चाहिए, जहाँ कहीं शिला स्तम्भ हों, वहां यह अनुशासन शिलास्तम्भ पर भी लिखा जाना चाहिए। इस अनुशासन के अनुसार जहाँ तक आप लोगों का अधिकार हो, वहाँ-वहां आप लोग सर्वत्र इसका प्रचार करें। यह अनुशासन (मैंने) उस समय लिखा, जब बुद्ध भगवान् के निर्वाण को २५६ वर्ष हुए थे।" लघु शिलालेख सं० २ में, जो कि ब्रह्मगिरि, सिद्धपुर व जतिंग रामेश्वर में प्राप्त हुआ है, यही बात स्वल्प भिन्नता के साथ मिलती है । उसमें सम्राट अशोक लिखते हैं : 'सुवणगिरि ते अयपुतस महामाताणं च बचनेन इसिलसि महामाता आरोगियं वतविया हेवं च वतविया । देवाणं पिये आणपयति । ___"अधिकानि अढातियानि वय सुमि.............दियढिय वढिसिति। इयं च सावणे सावपते व्युधेन २५६ ।" "सुवर्णगिरि से आर्यपुत्र (कुमार) और महामात्यों की ओर से इसिला के महामात्यों को आरोग्य कहना और यह सूचित करना कि देवताओं के प्रिय आज्ञा देते हैं कि अढाई वर्ष से अधिक हुये ... डेढ़ गुना विस्तार होगा। यह अनुशासन (मैंने) बुद्ध के निर्वाण से २५६वें वर्ष से प्रचारित किया (या सुनाया था)।" उक्त दोनों अभिलेखों में दो बातें विशेष ध्यान देने की हैं—अशोक का ‘संघ उपेत' होना और बुद्ध-निर्वाण के २५६ वर्षों बाद इस लेख का लिखा जाना। उक्त लेखों में प्रयुक्त 'संघ उपेत' शब्दों पर नाना अनुमान बाँधे गये हैं। डा० राधाकुमुद मुखर्जी ने इसकी चर्चा करते हुए लिखा है : २"संघे उपेते-इन शब्दों के द्वारा १. जनार्दन भट्ट, अशोक के धर्मलेख । R. It is difficult to understand what Asoka exactly intends by the expression Sanghe Upete which has been translated above to ____ 2010_05 Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड : १ प्रशोक क्या कहना चाहता है, समझना कठिन है। इसका अनुवाद ऊपर जिस प्रकार से किया गया है उसका अर्थ होता है कि वह संघ के साथ रहा, या संघ में प्रविष्ट हुआ या संघ के दर्शनार्थ गया, किन्तु इस बात को लेकर विद्वानों में बहुत बड़ा मतभेद है । कुछ विद्वानों का मत है कि अशोक सचमुच ही बौद्ध भिक्षु बन गया था । अन्य कुछ विद्वान् उक्त शब्दों का अर्थ करते हैं कि अशोक राजकीय तौर पर संघ के दर्शनार्थ गया और जैसे सिंहली गाथायें हमें सूचित करती हैं, उसने सार्वजनिक रूप से अपने धर्म की घोषणा की। इनमें से पहले अभिमत की पुष्टि चीनी यात्री इ-त्सिंग के इस कथन से होती है कि मैंने अशोक की एक मूर्ति देखी थी, जिसमें वह साधु के वेश में था । एक तीसरी सम्भावना यह भी है कि अशोक बिना साधुत्व स्वीकार किये ही एक वर्ष से अधिक साधु संघ के साथ रहा । "जो विद्वान् मानते हैं कि अशोक साधु बन गया था, उनमें भी फिर भिन्न-भिन्न मत mean that he lived with, entered, or visited the Sangha, and the opinion of the scholars is sharply divided on this point. Some scholars hold that Asoka actually became a Buddhist monk (bhikku ). Others, however, take the expression simply to mean that Asoka made a state-visit to the Sangha and publicly proclaimed his faith, as the Sinhalese Chronicle informs us. The former view is, however, supported by the statement of I-tsing that he actually saw a statue of Asoka dressed as a monk. A third possibility is that Asoka lived with the Sangha for more than a year, without taking orders. Among those who assume that Asoka became a monk, there is, again, a difference of opinion. Some hold that during the period Asoka was a monk, he must have ceased to be a monarch, for monastic life is hardly compatible with royal duties. Others, however, point out actually examples of kings who were monks at the same time, and find no reason for the assumption that Asoka, even temporarily, addicated the throne. Whatever may be the right interpretation of his association with the Sangna, there is no doubt that since this event Asoka exerted himself with unflagging zeal for the propagation of Buddhism, or at least that part of it which he accepted as his Dharma. He not only set up a net-work of missions to preach the doctrine both in and outside India, but himself undertook tours for this purpose, and took various other steps to the same end. -The Age of Imperial Unity: History and Culture of the Indian people, vol. II, pp. 75-76 2010_05 Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११३ इतिहास और परम्परा] काल-निर्णय हैं। कुछ कहते हैं कि जिस समय अशोक साधू-पर्याय में रहा, उस समय उसने सम्राट पद छोड दिया होगा, क्योंकि भिक्षु-जीवन का राजकीय कर्तव्यों के साथ पालन होना सम्भव नहीं है। अन्य विद्वानों का कहना है कि बहुत सारे राजाओं के ऐसे उदाहरण मिलते हैं, जो साथ-साथ साधु भी थे ; अत: यह कल्पना करने की कोई आवश्यकता नहीं है कि अशोक ने कुछ काल के लिए भी गद्दी का त्याग कर दिया हो। ___संघे उपेते शब्दों का जो कुछ भी अर्थ लगाया जाये, इतना तो असंदिग्धतया कहा जा सकता है कि जब से अशोक 'संघ उपेत' हुआ, तबसे उसने बौद्ध धर्म या उसके प्रचारार्थ अदम्य उत्साह दिखाया । न केवल उसने इन सिद्धान्तों के प्रसार के लिए भारत में तथा विदेशों में उपदेशकों के समूह-के-समूह भेजे, अपितु उसने स्वयं इस हेतु से यात्राएँ की तथा इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए अन्य अनेक प्रयत्न किये।" डॉ० मुखर्जी ने अपने विवेचन में संघे उपेते' शब्द के किसी एक ही अर्थ-विशेष पर बल नहीं दिया है, पर उन सारे अर्थ-भेदों पर दृष्टिपात करने से यह सहज ही समझ में आता है कि अशोक के संघ उपेत' होने का सम्बन्ध उसकी ऐतिहासिक धर्म-यात्रा से ही होना चाहिए, जिसका उल्लेख अशोक के रुम्मिनदेई स्तम्भ लेख में स्पष्ट-स्पष्ट मिलता है। इस अभिलेख में बताया गया है : "देवान पियेन पियवसिन लाजिना वीसातिवसाभिसितेन अतन अगाच महीयिते। हिद बुधे जाते सक्य मुनीति सिल-बिगडभीचा कालापित सिलाथमे च उसपापिते हिव भगवं जाते ति लुमिनिगामे उवलिके कटे अठभागिये च।" "देवताओं के प्रिय प्रियदर्शी राजा ने राज्याभिषेक के २० वर्ष बाद स्वयं आकर (इस स्थान की) पूजा की। यहाँ शाक्य मुनि बुद्ध का जन्म हुआ था, इसलिए यहाँ पत्थर की एक प्राचीर स्थापित की गई है और पत्थर का एक स्तम्म खड़ा किया गया। वहाँ भगवान् जन्मे थे, इसलिए लुंबिनी ग्राम का कर उठा दिया गया और (पैदावार का) आठवां भाग भी (जो राजा का हक था) उसी ग्राम को दे दिया गया।" ___ इसके अतिरिक्त अशोकावदान ग्रन्थ में उक्त यात्रा का जिस प्रकार वर्णन मिलता है, उससे भी 'संघ उपेत' शब्द इस यात्रा के साथ ही अधिक संगत बैठता है। अशोक की यात्रा के सम्बन्ध में वहाँ बताया गया है :२ "राजा (अशोक) ने (अपने गुरु उप्तगुप्त से) कहा : 'मैं १. जनार्दन भट्ट, अशोक के धर्मलेख । १२. The king said : "I desire to visit all the places where the vener able Bnddha stayed, to do honour unto them, and to mark each with an enduring memorial for the instruction of the most remote posterity.' The saint approved of the project, and uudertook to act as a guide. Escorted by a mighty army, the monarch visited all the holy places in order. The first place visited was the Lumbini Garden. Here Upagupta said: "In this spot, great king, the venerable one was born," and added : "Here is the first monument consecrated in honour of the Buddha, the sight of whom is excellent. Here, ____ 2010_05 Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड : १ उन सभी स्थलों की यात्रा करना चाहता हूं, जहाँ भगवान् बुद्ध ठहरे थे। ऐसा करके मैं उन स्थानों का आदर करना चाहता हूँ तथा चिरकाल तक के लोगों को शिक्षा मिले, ऐसे स्थाई स्मृति-स्तम्भ के द्वारा उनको उत्कीर्ण करना चाहता हूँ।' गुरुजी ने इस योजना की अनुमति दी और यात्रा में मार्ग-दर्शक बनना स्वीकार कर लिया। विशाल सेना सहित सम्राट ने क्रमश: सभी तीर्थ-स्थानों की यात्रा की। “सर्व प्रथम लुम्बिनी उद्यान की यात्रा की गई। यहां (गुरु) उपगुप्त ने कहा : 'महाराज ! यहाँ भगवान बद्ध जन्मे थे।' और आगे कहा : 'जिसके दर्शन ही मनोहर हैं, ऐसे भगवान बद्ध के समादर में यहां प्रथम स्मति-स्तम्भ खड़ा किया जाता है। यहाँ जन्म के अनन्तर ही श्रमण गौतम ने भूमि पर सात कदम भरे थे।" "राजा ने उस स्थान के लोगों को एक लाख स्वर्ण मुद्रा प्रदान की और स्तूप बनवाया। तत्पश्चात् वे कपिलवस्तु गये। "बाद में उस राजयात्री ने बोध गया स्थित बोधि-वृक्ष के दर्शन किये और एक लाख स्वर्ण मुद्राओं की भेंट चढ़ाई तथा चैत्य बंधवाया। बनारस के समीप आये हुए ऋषिपतन, जहाँ गौतम बुद्ध ने 'धर्मचक्र' का प्रवर्तन किया था और कुशीनारा, जहाँ तथागत निर्वाण को प्राप्त हुए थे, भी राजा ने देखे तथा उसी प्रकार की भेंट चढ़ाई। श्रावस्ती में तीर्थ-यात्रियों ने जेतवन विहार के दर्शन किये, जहाँ गौतम ने दीर्घकाल के लिए निवास किया था और उपदेश दिया था तथा वहीं पर बुद्ध के शिष्य सारिपुत्र, मौद्गल्यायन व महाकश्यप के the moment after his birth, the recluse took seven steps upon the ground.'' The king bestowed a hundred thousand gold pieces on the people of the place, and built a STUP A. He then passed on to Kapilvastu. The royal pilgrim next yisited the Bodhi-tree at Bodh Gaya, and there also gave largess of a hundred thousand gold-pieces, and built a CHAITYA. Rishipatana (Sarnath) near Benares, where Gautama had turned the wheel of the law, and Kusina gar, where the teacher had passed away, were also visited with similar observances. At Sravasti, the pilgrims did reverence to the Jetavana monastery, where Gautama had so long dwelt and taught, and to the Stupas of his disciples, Sariputra, Maudgalayana and Mabakasyapa. But when the king visited the STUPA of Vakkula, he gave only one copper coin, insmuch as Vakkula had met with few obstacles in the path of holiness and had done little good to his fellow creatures. At the STUPA of Ananda, the faithful attendant of Gautama, the royal gift amounted to six million gold pieces." -Ashokavadana, Translated by Dr. Vincent A. Smith. 'The Pilgrimage of Asoka' in Asoka (The Rulers of India), pp. 227-228 2010_05 Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा ] काल- निर्णय ११५ स्तूपों का भी सम्मान किया, परन्तु जब राजा ने वक्कुल के स्तूप के दर्शन किये, तब उसने केवल एक ताम्र- सिक्का भेंट चढ़ाया, क्योंकि वक्कुल ने साधना मार्ग में थोड़े ही परीषह सहन किये थे और अपने बन्धु प्राणियों पर कुछ भी उपकार नहीं किया था । गौतम के अनन्य शिष्य आनन्द के स्तूप पर तो राजा की भेंट साठ लाख स्वर्ण मुद्रा की राशि में चढ़ाई गई ।” अशोक अपने जीवन में बौद्ध भिक्षु भी बना, भले ही वह थोड़े काल के लिए क्यों न हो, यह बहुत सारे विद्वानों की धारणा है । बहुत सम्भव तो यही है कि उक्त यात्रा उसने भिक्षु-पर्याय धारण करके ही की हो। उस समय वह राजा नहीं रहा, ऐसा भी नहीं कहा जा सकता । इस प्रकार 'संघ - उपेत' शब्द का अभिप्राय भी सार्थक सिद्ध हो जाता है । उक्त शिलालेखों में अशोक ने यह भी बताया है कि मैं 'संघ उपेत' होने से ढाई वर्ष पूर्व उपासक बना। 'संघ उपेत' होने का काल जब राज्याभिषेक के २० वर्ष पश्चात् का है, तो उपासक बनने का समय राज्याभिषेक के साढ़े सतरह वर्ष बाद होता है । वह काल ठीक तीसरी बौद्ध संगीति का है । सामान्यतया कहा जा सकता है कि अशोक राज्याभिषेक के ६ वर्ष पश्चात् बौद्ध धर्म का अनुयायी बन गया था, परन्तु लगता यह है कि उसने संगीति-काल से ही अपने आपको परिपूर्ण उपासक-धर्म में दीक्षित माना है । तात्पर्य हुआ कि सम्राट् अशोक राज्याभिषेक के १७३ वर्ष बाद उपासक बना, २० वर्ष पश्चात् 'संघ उपेत' हुआ और २१ वर्षं पश्चात् उसने उक्त लघु शिलालेख खुदवाये । उक्त शिलालेखों की जो दूसरी महत्त्वपूर्ण बात है, वह शिलालेख की अन्तिम पंक्ति 'व्युठेना सावने कटे २५६ सतविवासात' से सम्बन्धित है । इस पंक्ति के अर्थ में भी नाना मत मिलते हैं । व्युठेना संस्कृत व्युष्टेन और विवासा संस्कृत विवासात् का प्राकृत रूप है । व्युष्ट - यह शब्द विपूर्वक वस् धातु में क्त प्रत्यय लगने से सिद्ध होता है और विवास शब्द विपूर्वक वस् धातु में उन प्रत्यय लगने से बनता है । डॉ० ब्यूलर, डॉ० फ्लीट आदि कई विद्वानों ने व्युष्टेन का अर्थ – 'जो चला गया हो' अर्थात् 'बुद्ध' तथा विवासा का अर्थ 'बुद्ध का निर्वाण' ऐसा किया है ।' डॉ० फ्लीट ने यह भी माना है : "बुद्ध-निर्वाण के २५५ साल बाद सातवें या आठवें महीने में महाराज अशोक ने राजसिंहासन छोड़कर प्रव्रज्या ग्रहण की होगी, तभी से वे संघ में आये होंगे। इस प्रकार से ८ मास १६ दिन पूरे होने पर २५६वीं रात को उन्होंने यह शिलालेख लिखवाया होगा। एक प्रश्न यह भी उठता है कि इस लेख में २५६वीं रात्रि का विशेष रूप से उल्लेख करने की क्या आवश्यकता थी । इसका उत्तर यह है- प्रवास की २५६ वीं रात या २५६ वें दिन को बुद्ध भगवान् के निर्वाण से २५६ साल पूरे होने की वर्षगाँठ मनाने के लिए अशोक ने लघु शिलालेख खुदवाये थे । इसलिए यह सिद्ध होता है कि इस शिलालेख में २५६ की संख्या इस बात की सूचक है कि बुद्ध भगवान् का निर्वाण अशोक के २५६ वर्ष पूर्व हुआ था ।"२ डॉ० फ्लीट एवं डॉ० ब्यूलर की उक्त मीमांसा बहुत शोधपूर्ण है, १. Journal of Royal Asiatic Society, 1904, pp. 1-26 and Dr. Buhler, ' Second Notice, Indian Antiquary, 1893 2. Journal of Royal Asiatic Society, 1910, pp. 1301-8, 1911, pp. 10911112. 2010_05 Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड : १ पर वर्तमान इतिहासकारों की दृष्टि में यह अभिमत अर्द्धमान्य-सा हो रहा है। उनका कहना है कि यह तो ठीक है कि वह शिलालेख सम्राट अशोक की धर्म-यात्रा के २५६ वें पड़ाव या २५६ वें दिन को लिखा गया था, पर वह भगवान् बुद्ध की २५६ वीं निर्वाण-जयन्ती के उपलक्ष में लिखा गया, यह यथार्थ नहीं लगता है; क्योंकि अशोक के काल (ई० पू० २७३२३६) के साथ बुद्ध-निर्वाण के २५६ वर्षों की, उनकी प्रचलित किसी भी निर्वाण-तिथि के आधार पर संगति नहीं बैठती। किन्तु डॉ० मैक्स म्यूलर ने इतिहासकारों के इस अभिमत की स्पष्टतया आलोचना की है और डॉ० ब्यूलर के मत का समर्थन किया है। 'सेक्रेड बुक्स ऑफ वी ईस्ट' के अन्तर्गत खण्ड १०, धम्मपद की भूमिका में उन्होंने लिखा है : "इन शिलालेखों (लघु शिलालेख नं०१ और २) की शब्दाबलि से सम्बन्धित कठिनाइयों को मैं पूर्ण रूप से स्वीकार करता हूँ; किन्तु फिर भी मैं पूछता हूँ कि ये शिलालेख अशोक ने नहीं खुदवाये तो किसने खुदवाये? और यदि अशोक ने ही खुदवाये, तो उसमें रही हुई तारीख बुद्ध-निर्वाण के २५६ वर्ष के अतिरिक्त और क्या अर्थ रख सकती है ? डॉ० ब्यूलर ने अपनी दूसरी विज्ञप्ति में' इन दृष्टिबिन्दुओं के विषय में इतनी विद्वतापूर्ण तक रखी हैं कि मुझे डर लगता है, मैं और कुछ अधिक लिख कर सम्भवतः उनके पक्ष को कहीं निर्बल न बना दूं। अत: मेरे पाठकों को मेरे विचार जानने के लिए उन्हीं (डॉ० ब्यूलर) की दूसरी विज्ञप्ति' देखने का सुझाव देता हूँ।" इस सम्बन्ध में उल्लेखनीय और महत्त्व की बात यह है कि प्रस्तुत पुस्तक में ई०पू० ५०२ के जिस बुद्ध-निर्वाण-काल पर हम पहुंचे हैं, वह इन शिलालेखों के उक्त कथन के साथ पूर्णतया संगत होता है । यह तो स्पष्ट हो ही चुका है कि उक्त शिलालेख सम्राट अशोक के 'संघ उपेत' होने के कुछ अधिक एक वर्ष पश्चात् लिखे गये हैं और अशोक अपने राज्याभिषेक के २० वर्ष पश्चात् ‘संघ-उपेत' होता है। यहां हम काल-गणना के एक निश्चित् बिन्दु पर पहुँच जाते हैं, जो कि सर्वमान्य और निर्विवाद है। वह है-ई० पू० २६६ में अशोक का राज्याभिषेक । निष्कर्ष हुआ १. उदाहरणार्थ देखें, Dr. Vincent A. Smith, Asoka, p. 150; Dr. H.C. Ray Chaudhuri, Political History of Ancient India, p. 341 n; यदुनन्दन कपूर, अशोक पृ० १२८ । P. I fully admit the difficulties in the phraseology of these inscrip tions but I ask, who could have written these inscriptions, if not Ashoka? And how if written by Ashoka, can the date which they contain mean anything but 256 years after Buddha's Nirvana ? These points however, have been argued in so masterly a manner by Dr. Buhiar in his "Second Notice" that I should be afraid of weakening his case by adding anything of my own and must refer my readers to his "Second Notice". —Max Muler, S. B. E., vol. X, (Part I), Dhammapada, introduction, p, XII. 2010_05 Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा] काल-निर्णय ११७ अशोक का राज्याभिषेक- ई०पू० २६६ । अशोक का संघ-उपेत होना- ई० पू० २४८ ।' उक्त शिलालेखों का लिखा जाना- ई० पू० २४७ । इस प्रकार हम ई० पू० २४७ से २५५ वर्ष और पीछे जाते हैं, तो बुद्ध-निर्वाण का समय आता है-२४७+२५५= ई० पू० ५०२ । ४. बर्मी परम्परा । परम्परा सम्बद्ध प्रमाणों में सबसे सबल प्रमाण बर्मी परम्परा का है। बर्मा में 'ईत्झाना (Eetzana) नामक संवत् का प्रचलन माना जाता है । ईत्झाना शब्द का अर्थ है-अंजन । कहा जाता है, यह संवत् बुद्ध के नाना 'अंजन' ने प्रचलित किया था। राजा अंजन शाक्य क्षत्रिय थे और उनका राज्य देवदह प्रदेश में था। बर्मी परम्परा के अनुसार उस संवत् की काल-गणना में बुद्ध के जीवन-प्रसंग इस प्रकार माने जाते हैं : १. बुद्ध का जन्म : ईत्झाना संवत् के ६८वें वर्ष में, काटसन (वैशाख) मास में, पूर्णिमा के दिन शुक्रवार को, जब चन्द्रमा का विशाखा-नक्षत्र के साथ योग था। २. बुद्ध का गृहत्याग (दीक्षा) : ईत्झाना संवत् के ६६ वें वर्ष में जुलाई (आषाढ़) मास में, पूर्णिमा के दिन सोमवार को, जब चन्द्रमा का उत्तराषाढ़ा नक्षत्र के साथ योग था। ३. बुद्ध की बोधि-प्राप्ति : ईत्झाना संवत् के १०३वें वर्ष में, काटसन (वैशाख) मास में, पूर्णिमा के दिन, बुधवार को जब चन्द्रमा का विशाखा नक्षत्र के साथ योग था। १. डा० राधाकुमुद मुखजी ने बताया है कि अशोक के संघ-उपेत होने के पश्चात् ही उसने विदेश में जोर-शोर से धर्म प्रचार का कार्य प्रारम्भ किया था । इतिहासकारों ने महेन्द के लंका-प्रवास की तिथि ई० पू० २४६ मानी है (Cambridge History of India. p. 507) । अतः अशोक के 'संघ उपेत' होने की ई०पू० २४८ की तारीख पुष्ट हो जाती है। २. डॉ० फ्लीट का यह अभिमत कि बुद्ध-निर्वाण के २५६वें वर्ष और यात्रा के २५६वें पड़ाव में उक्त शिलालेख लिखा गया, यह 'व्युठेना सावने कटे २५६ सत विवासात' का अर्थ न होना चाहिए ; बहुत ही यथार्थ है। इसके साथ हम इतना और जोड़ सकते हैं कि उक्त शिलालेख लिखे जाने का वह निर्वाण दिवस सम्भवत: कुशीनारा में ही आया हो, जहाँ कि बुद्ध भगवान् का निर्वाण हुआ था और अशोक की यात्रा का वह एक प्रमुख पड़ाव था। ३. Bigandet, Life of Gaudama, val. I, p. 13. ४. lbid, vol. II pp.71-72. ५. 'काटसन बर्मी' भाषा में 'वैशाख' का पर्यायवाची शब्द है। ६. Bigandet, Life of Gaudama vol. I, pp. 62-63 ; vol. II, p 72. ७. Ibid, vol. I, P 97.; vol. II pp. 72-73. 2010_05 Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन खण्ड : १ ४. बुद्ध का निर्वाण : ईत्झाना' संवत् के १४८वें वर्ष में, काटसन (वैसाख) मास में पूर्णिमा के दिन मंगलवार को, जब चन्द्रमा का विशाखा नक्षत्र के साथ योग था। बर्मी-परम्परा के अनुसार ईत्झाना संवत् का प्रारम्भ तगू' (चैत्र)मास में कृष्णा प्रथमा के दिन रविवार को होता है। इस बर्मी काल-क्रम को एम० गोविन्द पै ने ईस्वी सन् काल-क्रम में इस प्रकार वाला है : १. जन्म: ई० पू० ५८१, मार्च ३०, शुक्रवार । २. गृहत्याग : ई० पू० ५५३, जून १८, सोमवार । ३. बोधि-प्राप्ति: ई०पू० ५४६, अप्रैल ३, बुधवार । ४. निर्वाण : ई० पू० ५०१, अप्रैल १५, मंगलवार । ५. ईत्झाना संवत् का प्रारम्भ : ई०पू०६४८, फरवरी १७, रविवार। इस प्रकार भगवान बुद्ध के जन्म, गृह-त्याग, बोधि और निर्वाण के सम्बन्ध से हम जिस काल-क्रम पर पहुँचे हैं, बर्मी-परम्परा उस काल-क्रम का पूर्णतः समर्थन कर देती है। तथ्य की पुष्टि में यह एक अनोखा संयोग कहा जा सकता है और वह इसलिए कि अपने निष्कर्षों पर पहुँचने तक बर्मी परम्परा की ये धारणाएँ लेखक के सामने नहीं थीं। इन बर्मी परम्पराओं का साक्षात् लेखक को तब होता है, जब यह पूरा प्रकरण लेखमाला के रूप में 'जैन भारती' आदि पत्रिकाओं में निकल चुकता है। इससे यह भी प्रमाणित हो जाता है कि निष्कर्ष तक पहुँचने के लिए हमने जिन कल्पनाओं का सहारा लिया था, वे कल्पनाएँ ही नहीं, वस्तुस्थिति तक पहुंचाने की यथार्थ पगडंडियाँ ही थीं। कुल मिलाकर उक्त चारों ही प्रमाण विभिन्न दिशाओं से चलने वाले पथिकों की तरह एक ही ध्रुव-बिन्दु पर पहुँचकर उस ध्रुव-बिन्दु की सत्यता के प्रमाण बन गये हैं। १. Ibid, voll. II, P. 69 २. 'तगू' बर्मी भाषा में 'चैत्र' मास का पर्यायवाची शब्द है। ३. Bigandet Life Gaudama vol. I p. 13. 8. Prabuddha Karnntaka Kannada Quarterly published by the Mysore University, vol XXVII (1945-46), No I, pp. 92-93, The Date of Nirwana of Lord Mahavira in "Mahabvira Commemoration Volume, pp. 93-94" ____ 2010_05 Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूर्व भव जैन और बौद्ध परम्परा में पूर्वभव-चर्चा भी समान पद्धति से मिलती है । महावीर और बुद्ध की भव-चर्चा में तो एक अनोखी समानता भी है। प्रथम तीर्थङ्कर ऋषभदेव ने अनेक भव पूर्व मरीचि तापस को लक्ष्य कर कहा--"यह अन्तिम तीर्थकर महावीर होगा।" इसी प्रकार अनेक कल्पों पूर्व दीपंकर बुद्ध ने सुमेध तापस के विषय में कहा-“यह एक दिन बुद्ध होगा।" महावीर की घटना उनके पच्चीस भव पूर्व की है । बुद्ध की घटना पाँच सौ इक्यावन भव पूर्व की है। मरीचि तापस विचारों में शिथिलता __ मरीचि भरत का पुत्र था। सुर-असुरों द्वारा की गई भगवान् ऋषभदेव के केवल ज्ञान की महिमा को देखकर वह भी अपने पांच सौ भाइयों के साथ निर्ग्रन्थ बना था। वह ग्यारह ही अंगों का ज्ञाता था और प्रतिदिन भगवान ऋषभदेव के साथ उनकी छाया की तरह विहरण करता था। एक बार भयंकर गर्मी से वह परिक्लान्त हो गया। सारा शरीर पसीने से तरबतर हो गया । पसीने व मलिन वस्त्रों के कारण उसके शरीर से दुर्गन्ध उछलने लगी । प्यास के मारे उसके प्राण निकलने लगे । गर्मी व तत्सम्बन्धी अन्य परिषहों से वह इतना पराभूत हआ कि श्रामण्य की सामान्य पर्याय से भी नीचे खिसक गया तथा अन्य नाना संकल्प-विकल्पों का शिकार बन गया। उसके मन में यह विचार उत्पन्न हुआ.--"प्रथम तीर्थङ्कर भगवान् ऋषभदेव का मैं पौत्र हूँ। अखण्ड छः खण्ड के विजेता प्रथम चक्रवर्ती भरत का मैं पुत्र हूँ। चतुर्विध तीर्थ के समक्ष वैराग्य से मैंने प्रवज्या ग्रहण की है । संयम को छोड़कर घर चले जाना मेरे लिए लज्जास्पद है, किन्तु, चारित्र के इतने बड़े भार को अपने इन दुर्बल कन्धों पर उठाये रखने में भी मैं सक्षम नहीं हूँ। महाव्रतों का पालन अशक्य अनुष्ठान है और इन्हें छोड़कर घर चले जाने से मेरा उत्तम कुल मलिन होगा। इतो व्याघ्र इतस्तटी एक ओर व्याघ्र है और दूसरी ओर गहरी नदी। किन्तु, जिस प्रकार पर्वत पर चढ़ने के लिए संकरी पगडण्डी होती है, उसी प्रकार इस कठिन मार्ग के पास कोई सुगम मार्ग भी होना चाहिए।" त्रिदण्डी अपने ही विचारों में खोया हुआ मरीचि आगे और सोचने लगा- भगवान् ऋषभदेव के साधु मनोदण्ड, वचनदण्ड और कायादण्ड को जीतने वाले हैं और मैं इनसे जीता गया हूँ;अतः त्रिदण्डी बनूंगा । इन्द्रिय-विजयी ये श्रमण केशों का लुन्चन कर मुण्डित होकर विचरते हैं। मैं मुण्डन कराऊँगा और शिखा रखूगा । ये निर्ग्रन्थ सूक्ष्म व स्थूल दोनों प्रकार के प्राणियों के वध से विरत हैं और मैं केवल स्थूल प्राणियों के वध से ही उपरत रहूँगा। मैं अकिञ्चन भी नहीं रहूँगा और पादुकाओं का प्रयोग भी करूंगा। चन्दन आदि सुगन्धित द्रव्यों का विलेपन करूँगा। ____ 2010_05 Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड : १ मस्तक पर छत्र धारण करूँगा । कषाय-रहित होने से ये मुनि श्वेत वस्त्र पहनते हैं और मैं कषाय-कालुष्य से युक्त हूँ; अतः इसकी स्मृति में काषायित वस्त्र पहनूंगा। ये सचित्त जल के परित्यागी हैं, पर, मैं वैसे परिमित जल से स्नान भी करूंगा तथा पीऊँगा भी। अपनी बुद्धि से वेश की इस तरह परिकल्पना कर तथा उसे धारण कर वह भगवान् ऋषभदेव के साथ ही विहरण करने लगा । साधुओं की टोली में इस अद्भुत साधु को देखकर कौतूहलवश बहुत सारे व्यक्ति उससे धर्म पूछते । उत्तर में वह मूल तथा उमर गुण-सम्पन्न साधु-धर्म का ही उपदेश करता । जब उसे जनता यह पूछती कि तुम उसके अनुसार आचरण क्यों नहीं करते, तो वह अपनी असमर्थता स्वीकार करता । उसके उपदेश से प्रेरित होकर यदि कोई भव्य दीक्षित होना चाहता तो वह उसे भगवान् के समवसरण में भेज देता और भगवान् उसे दीक्षा-प्रदान कर देते। कपिल __भगवान् ऋषभदेव की सेवा में विहरण करते हुए मरीचि का काफी समय बीत चुका । एक बार वह रोगाक्रान्त हुआ। उसकी परिचर्या करने वाला कोई नहीं था; अतः वेदना से पराभूत होकर उसने स्वयं के शिष्य बनाने का सोचा । संयोग की बात थी, एक बार भगवान् ऋषभदेव देशना (प्रवचन) दे रहे थे । कपिल नामक एक राजकुमार भी परिषद में उपस्थित था। उसे वह उपदेश रुचिकर प्रतीत नहीं हुआ। उसने इधर-उधर अन्य साधुओं की ओर भी दृष्टि दौड़ाई। सभी साधुओं के बीच विचित्र वेश वाले उस त्रिदण्डी मरीचि को भी उसने देखा । वह वहाँ से उठकर उसके पास आया । धर्म का मार्ग पूछा तो मरीचि ने स्पष्ट उत्तर दिया—"मेरे पास धर्म नहीं है । यदि तू धर्म चाहता है तो प्रभु का ही शरण ग्रहण कर ।" वह पनः भगवान ऋषभदेव के पास आया और धर्म-श्रवण करने लगा। किन्त अपने दषित विचारों से प्रेरित होकर वह वहाँ से पुनः उठा और मरीचि के पास जाकर बोला--"क्या तुम्हारे पास जैसा-तैसा भी धर्म नहीं है; यदि नहीं है तो फिर यह संन्यास का चोगा कैसे?" "दैवयोग से यह भी मेरे जैसा ही मालूम होता है। चिर-काल से सदृश विचार वाले का मेल हुआ है । मेरे असहाय का यह सहायक हो।" इन विचारो में निमग्न मरीचि ने उत्सूत्र प्ररूपणा करते हए कहा-"वहाँ भी धर्म है और यहाँ भी।" इस मिथ्यात्वपर्ण संभाषण से उसने उत्कट संसार बढ़ाया । कपिल को दीक्षित कर उसने अपना शिष्य बनाया और उसे पच्चीस तत्त्वों का उपदेश देकर अलग मत की स्थापना की। जैन पुराणों में यह भी माना गया है कि आगे चलकर कपिल का शिष्य आसुरी व आसुरी का शिष्य सांख्य बना। कपिल व सांख्य ने मरीचि द्वारा बताये गए उन पच्चीस तत्त्वों की विशेष व्याख्या की जो एक स्वतन्त्र दर्शन के रूप में प्रसिद्ध हआ। कपिल और सांख्य उस दर्शन के विशेष व्याख्याकार हए हैं; अत: वह दर्शन भी कपिल दर्शन या सांख्य दर्शन के नाम से विश्रुत हुआ । वस्तुतः मरीचि इसका मूल संस्थापक था।' भावी तीर्थङ्कर कौन ? भरत ने एक बार भगवान् ऋषभदेव से पूछा-"प्रभो! इस परिषद् में ऐसी भी कोई आत्मा है, जो आपकी तरह तीर्थ की स्थापना कर इस भरत क्षेत्र को पवित्र करेगी ?" . भगवान ने उत्तर दिया ... "तेरा पुत्र मरीचि प्रथम त्रिदण्डी' परिव्राजक है । इसकी आत्मा अब तक कर्म-मल से मलिन है । शुक्ल ध्यान के अवलम्बन से क्रमशः वह शुद्ध होगी। १. त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्रम्, प्रथम पर्व, सर्ग ६, श्लो० १ से ५२; आदि पुराण, पर्व १८; श्री आवश्यक सूत्र, नियुक्ति मलयगिरि वृत्ति, पत्र सं० २३२-२ से २३४-१ के आधार पर। ____ 2010_05 Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२१ इतिहास और परम्परा पूर्व भवं भरत क्षेत्र के पोत्तनपुर नगर में इसी अवसर्पिणी काल में वह त्रिपृष्ट नामक पहला वासुदेव होगा। क्रमशः परिभ्रमण करता हुआ, वह पश्चिम महाविदेह में धनंजय और धारिणी दम्पती का पुत्र होकर प्रियमित्र नामक चक्रवर्ती होगा। अपने संसार-परिभ्रमण को समाप्त करता हुआ वह इसी चौबीसी में महावीर नामक चौबीसवाँ तीर्थङ्कर होकर तीर्थ की स्थापना करेगा तथा स्वयं सिद्ध, बुद्ध व मुक्त बनेगा।" कुल का अहं अपने प्रश्न का उत्तर सुनकर भरत बहुत आह्लादित हुए। उन्हें इस बात से भी अत्यधिक प्रसन्नता हुई कि उनका पुत्र पहला वासुदेव, चक्रवर्ती व अन्तिम तीर्थङ्कर होगा। परिब्राजक मरीचि को सूचना व बधाई देने के निमित्त भगवान् के पास से वे उसके पास आए। भगवान् से हुए अपने वार्तालाप से उसे परिचित किया । मरीचि को इससे अपार प्रसन्नता हुई । वह तीन ताल देकर आकाश में उछला और अपने भाग्य को बार-बार सराहने लगा। उच्च स्वर से बोलने लगा-."मेरा कुल कितना श्रेष्ठ है, मेरा कुल कितना श्रेष्ठ है। मेरे दादा प्रथम तीर्थङ्क र हैं । मेरे पिता प्रथम चक्रवर्ती हैं । मैं पहला वासुदेव होऊँगा व चक्रवर्ती होकर अन्तिम तीर्थङ्कर होऊँगा । मेरे सभी मनोरथ पूर्ण हुए। सब कुलों में मेरा ही कुल श्रेष्ठ है।" कुल के इस अहं से मरीचि ने नीच गोत्र कर्म उपार्जित किया। यही कारण था कि महावीर तीर्थङ्कर होते हुए भी पहले देवानन्दा ब्राह्मणी के गर्भ में आए, जब कि तीर्थङ्कर का क्षत्रिय-कुल में जन्म लेना अनिवार्य होता है।' महावीर के कुल सत्ताईस भवों का वर्णन मिलता है, जिसमें दो भव मरीचि-भव से पर्व के हैं और शेष बाद के । सत्ताईस भवों में प्रथम भव नयसार कर्मकर का था। इस भव में महावीर ने किसी तपस्वी मुनि को आहार-दान किया था और प्रथम बार सम्यग दर्शन उपाजित किया। सत्ताईस भवों में महावीर ने जहाँ चक्रवर्तित्व औरवासुदेवत्व पाया; वहाँ उन्होंने सप्तम नरक तक का भयंकर दुःख भी सहा । पच्चीसवें भव में तीर्थङ्क रत्व प्राप्ति के बीस निमित्तों की आराधना करते हुए तीर्थङ्कर गोत्र-नामकर्म बाँधा। छब्बीसवें भव में प्राणत नामक दशवें स्वर्ग में रहे और सत्ताईसर्वे भव में महावीर के रूप में जन्म लिया। तापस अमरवती नगर के ब्राह्मण वंश में सुमेध नामक बालक का जन्म हुआ। बचपन में ही उसके माता-पिता का देहान्त हो गया । सुमेध विरक्त हुआ और उसने तापस-प्रव्रज्या स्वीकार कर ली। चिन्तन में लीन सुमेध को सहसा एक उपलब्धि हुई-"पुनर्भव दुःख है । मुझे उस मार्ग का अन्वेषण करना चाहिए, जिस पर चलने से भव से मुक्ति मिलती है। ऐसा कोई मार्ग अवश्य ही होगा। जिस प्रकार लोक में दुःख का प्रतिपक्ष सुख है, उसी प्रकार भय का प्रतिपक्ष विभव (भव का अभाव ) भी होना चाहिए। उष्ण का उपशम शीत है, वैसे ही रागादि अग्नियों का उपशम निर्वाण है।" चिन्तन का परिणाम अत्यधिक विरक्ति हुआ। हिमालय में पर्णकुटी बना कर वहाँ रहने लगे । तपस्वी सुमेध के दिन समाधि में बीतने लगे। लोकनायक दीपंकर बुद्ध उस समय संसार में धर्मोपदेश करते थे। चारिका करते हुए एक बार वे रम्मक नगर के सुदर्शन महाविहार में आये । नागरिकों ने श्रद्धावनत होकर गंध१. त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्रम्, प्रथम पर्व, सर्ग ६ श्लो० ३७० से ३६० ; श्री आवश्यकसूत्र, निर्यक्ति, मलयगिरिवृत्ति पत्र सं० २४४ से २४५-१ के आधार पर। ____ 2010_05 Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड : १ माला आदि से शास्ता का अभिवादन किया, धर्मोपदेश सुना और अगले दिन के भोजन का निमन्त्रण देकर सभी लौट आए। दीपंकर बुद्ध के आगमन के उपलक्ष में नगर को विशेष रूप से सजाया गया। पानी के बहाव से टूटे-फूटे स्थानों पर रेत डालकर भूमि को समतल किया गया । चाँदी जैसी श्वेत बालू को फैलाकर उस पर लाज (खील) और पुष्प विकीर्ण किए गए। गों के वस्त्रों की ध्वजाएँ फहरायी गई और स्थान-स्थान पर कदली तथा पूर्ण घट की पंक्तियाँ प्रतिष्ठित की गई । आनन्दित होकर मनुष्यों की टोलियाँ झूमती हुई इधर-उधर घूम रही थीं। उसी समय सुमेध तापस अपने आश्रम से निकल कर आकाश-मार्ग से कहीं जा रहे थे। उन्होंने नगर की साज-सज्जा तथा आनन्दमग्न मनुष्यों को घूमते देखा। उनके मन में उस के कारण को जानने की उत्कण्ठा जागृत हुई। आकाश से उतरे और नगर-अलंकरण के बारे में जिज्ञासा की । जनता से उत्तर मिला--"भन्ते! दीपंकर बुद्ध होकर श्रेष्ठ धर्म का प्रचार करते हुए हमारे नगर के सुदर्शन महाविहार में वास कर रहे हैं। हमने भगवान् को निमंत्रित किया है । इस उपलक्ष से भगवान् के आगमन-मार्ग को हम अलंकृत कर रहे हैं।" तपस्वी सुमेध सोचने लगे----"बुद्ध शब्द का सुनना भी लोक में दुर्लभ है ; बुद्ध के जन्म लेने की तो बात ही क्या? मुझे भी इन मनुष्यों के साथ मिलकर बुद्ध का मार्ग अलंकृत करना चाहिए।" और वे तत्काल ही मार्ग-शोधन में लग गए। कुछ ही समय में दीपंकर बुद्ध आ गए। भेरी बजने लगी । मनुष्य और देवता साध-साध कहने लगे । आकाश से मन्दार पष्पों होने लगी। सुमेध अपनी जटा खोलकर, बल्कल, चीवर और चर्म बिछाकर भमि पर लेट गये और विचार किया : “यदि दीपंकर मेरे शरीर को अपने चरण कमल से स्पर्श करें तो मेरा हित हो।" लेटे-लेटे ही उन्होंने दीपंकर की बुद्ध-श्री को देखते हुए चिन्तन किया--- "मैं सब क्लेशों का नाश कर निर्वाण-प्राप्त कर सकता है, किन्तु केवल यही मेरा ध्येय नहीं है। मेरे लिये तो यही योग्य है कि मैं भी दीपंकर बुद्ध की तरह परम सम्बोधि को प्राप्त कर मानवसमूह को धर्म की नौका पर चढ़ा संसार-सागर के पार ले जाऊँ और तदनन्तर स्वयं निर्वाण प्राप्त करूं।" उन्होंने बुद्ध-पद की प्राप्ति के लिये उल्कट अभिलाषा (अभिनीहार) प्रकट की। बद्धों के जीवन-परित्याग को भी वे उद्यत थे। दीपंकर तपस्वी सुमेध के पास आकर बोले-"इस जटिल तापस को देखो। एक दिन बुद्ध होगा। यह बुद्ध का व्याकरण हुआ।" “यह एक दिन बुद्ध होगा"-...इस वाक्य को सुनकर देवता और मनुष्य आनन्दित हुए और बोले-"तपस्वी सुमेध बुद्ध-बीज है, बुद्ध-अंकुर है।" वहाँ पर जो 'जिन-पुत्र' (बुद्ध-पुत्र) थे, उन्होंने सुमेध की प्रदक्षिणा की। लोगों ने कहा .... "आप निश्चित ही बुद्ध होंगे । दृढ़ पराक्रम करें, आगे बढ़ें, पीछे न हट।" सुमेध ने सोचा, बुद्ध का वचन अमोघ होगा। बुद्धत्व की आकांक्षा की सफलता के लिए सुमेध बुद्ध-कारक धर्मों का अन्वेषण करने लगे और उनमें महान् उत्साह प्रदर्शित किया। दश पारभितायें प्रकट हुईं, जिनका आसेवन पूर्व काल में बोधि-सत्वों ने किया था। इन्हीं के ग्रहण से बुद्धत्व की प्राप्ति होगी। सुमेध ने बुद्ध-गुणों को ग्रहण कर दीपंकर को नमस्कार किया। सुमेध की चर्या अर्थात् साधना आरम्भ हुई और ५५० विविध जन्मों के पश्चात् वे तुषित् लोक में उत्पन्न हुए। वहाँ बोधि-प्राप्ति के सहस्र वर्ष पूर्व बुद्ध कोलाहल शब्द इस अभिप्राय से हुआ कि सुमेध की सफलता निश्चित है । तुषित् लोक से च्युत होकर मायादेवी के गर्भ में उनकी अवक्रान्ति हुई और यथासमय बुद्ध के रूप में उनका जन्म हुआ।' १. जातक अटकथा, दूरे निदान, पृ० २ से ३६ के आधार पर। 2010_05 Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा पूर्व भव १२३ उक्त प्रकरणों में भव-भ्रमण का प्रकार, आयु की दीर्घता आदि अनेक विषय अन्वेषणीय बन जाते हैं। तीर्थङ्क रत्व प्राप्ति के लिए बीस निमित्त और बुद्धत्व-प्राप्ति के लिए दश पारमितायें अपेक्षित मानी गई हैं । उन निमित्तों और पारमिताओं के हार्द में बहुत कुछ समानता बीस निमित्त दश पारमितायें १. अरिहन्त की आराधना १. दान २. सिद्ध की आराधना २. शील ३. प्रवचन की आराधना ३. नैष्क्रम्य ४. गुरु का विनय ४. प्रज्ञा ५. स्थविर का विनय ५. वीर्य ६. बहुश्रुत का विनय ६. क्षान्ति ७. तपस्वी का विनय ७. सत्य ८. अभीक्षण ज्ञानोपयोग ८. अधिष्ठान ६. निर्मल सम्यगदर्शन ६. मैत्री १०. विनय १०. उपेक्षा ११. षड् आवश्यक का विधिवत् समाचरण १२. ब्रह्मचर्य का निरतिचार पालन १३. ध्यान १४. तपश्चर्या १५. पात्र-दान १६. वैयावृत्ति १७. समाधि-दान १८. अपूर्व ज्ञानाभ्यास १६. श्रुत-भक्ति २०. प्रवचन-प्रभावना बीस निमित्तों और दश पारमिताओं के भावनात्मक साम्य के साथ-साथ एक मौलिक अन्तर भी है। बुद्ध बुद्धत्व-प्राप्ति के लिए कृत संकल्प होते हैं और सारी क्रियाएँ बुद्धत्व-प्राप्ति १. इमेहि य णं वीसाएहि य कारणेहिं आसेविय बहुली--कएहि तित्थयरनामगोयं कम्म निवत्तिसु तं जहा अरहंत सिद्ध पवयण गुरु थेर बहुस्सुए तवस्सीखें। वच्छल्लया य तेसिं अभिक्खणाणोवओगे य ॥१॥ दसण विणय आवस्सए य सीलव्वए णिरइयारं। खणलव तब च्चियाए वेयावच्चे समाही य॥ २॥ अपुव्वणाणगहणे सुयभत्ती पवयणे पभावणया । एएहिं कारणेहिं त्तित्थयरत्तं लहइ जीओ ॥३॥ ---णायाधम्मकहाओ, अ० ८, सू० ७० । २. बौद्ध धर्म दर्शन, पृ० १८१-१८२; जातक, प्रथम खण्ड, पृ० ११०-१३१ । ____ 2010_05 Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आंगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड : १ के लिये ही करते हैं । जैन परम्परा के अनुसार बीतरागता (बौद्ध परिभाषा में अर्हत् पद) के लिए ही प्रयत्न विहित है । तीर्थङ्करत्व एक गरिमापूर्ण पद है। वह काम्य नहीं हुआ करता। वह तो सहज सुकृत-संचय से प्राप्त हो जाता है । विहित तप को किसी नश्वर काम्य के लिए अर्पित कर देना, जैन परिभाषा में 'निदान" कहलाता है । वह विराधकता का सूचक है। भौतिक ध्येय के लिए तप करना भी अशास्त्रीय है । बौद्धों में बुद्धत्व इसलिए काम्य माना गया है कि वहाँ व्यक्ति अपनी भव-मुमुक्षा को गौण करता है और विश्व मुक्ति के लिए इच्छुक होता है। तात्पर्य, जैनों ने तीर्थङ्क रत्व को उपाधि विशेष से जोड़ा है और बुद्धों ने बुद्धत्व को.. केवल परोपकारिता से । यही अपेक्षा-भेद दोनों परम्पराओं के मौलिक अन्तर का कारण बना है। परोपकारिकता जैन धर्म में भी अना-काङ्क्षणीय नहीं है और पदाकांक्षा बौद्ध धर्म में भी उपादेय नहीं है । इस प्रकार उक्त अन्तर केवल सापेक्ष वचन-विन्यास ही ठहरता है । १. दससुयक्खन्ध, निदान प्रकरण । २. चउव्विहा खलु तवसमाहि भवइ । तंजहा—नो इहलोगट्टयाए तवमहिछेज्जा, नो परलोगटयाए तवमहिछेज्जा, नो कित्तिवण्णसद्दसिलोगटयाए तवमहिछेज्जा, नन्नत्थ निज्जरल्याए तवमहिठ्ठज्जा । -दसवेआलियं, अ० ६, उ०४। ____ 2010_05 Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान् महावीर की मौलिक जीवन-गाथा श्वेताम्बर परम्परा में आयारंग और कष्पइन दो आगमों में मिलती है । टीका, चूर्णि, नियुक्ति और काव्य ग्रंथों में वह पल्लवित होती रही है । भगवान् बुद्ध का प्रारम्भिक जीवन-वृत मुख्यतः जातक में मिलता है । वैसे तो समग्र आगम व त्रिपिटक ही दोनों की जीवन-गाथा के पूरक हैं, पर, जीवन-चरित की शैली में उनकी यत्किञ्चित् जीवन-गाथा उक्त स्थलों में ही विशेषतः उपलब्ध है । दोनों युगपुरुषों के जन्म व दीक्षा के वर्णन परस्पर समान भी हैं और असमान भी । वे समानताएँ और असमानताएँ जैन और बौद्ध संस्कृतियों के व्यवधान को समझने में बहुत महत्वपूर्ण हैं । इसके अतिरिक्त उन वर्णनों से तत्कालीन लोक धारणाओं, सामाजिक प्रथाओं और धार्मिक परम्पराओं पर भी पर्याप्त प्रकाश पड़ता है । ६ जन्म और प्रव्रज्या महावीर और बुद्ध दोनों ही अपने प्राग्-भव के अन्तिम भाग में अपने अग्रिम जन्म को सोच लेते हैं । दोनों के सोचने में अन्तर केवल यह है कि महावीर सोचते हैं, मेरा जन्म कहाँ होने वाला है और बुद्ध सोचते हैं, मुझे कहाँ जन्म लेना चाहिए । बुद्ध ने अपने उत्पत्ति-काल के विषय में सोचा, मुझे उस समय जन्म लेना चाहिए, जब मनुष्यों का आयुमान सौ वर्ष से अधिक और लाख वर्ष से कम हो । वही समय नैर्याणिक (निर्वाणोचित) होता है । जैन परम्परा में भी भरत क्षेत्र में तीर्थङ्करों का उत्पत्ति-काल वही माना गया है, जब मनुष्य मध्य आयु वाले होते हैं । महावीर का जम्बूद्वीप एक लाख योजन का है और बुद्ध का जम्बूद्वीप दस हजार योजन का । महावीर जम्बूद्वीप के दक्षिण भारत में उत्तर क्षत्रिय कुण्डपुर में जन्म लेते हैं और बुद्ध जम्बूद्वीप के मध्य देश में कपिलवस्तु नगर में जन्म लेते हैं । दोनों ही भू-भाग बहुत समीपवर्ती हैं । केवल अभिधाएँ भिन्न-भिन्न हैं । महावीर ब्राह्मण कुल में देवानन्दा के गर्भ में आते हैं । इन्द्र सोचता है - " अरिहन्त क्षत्रिय कुल को छोड़ ब्राह्मण, वैश्य व शूद्र, इन कुलों में न कभी उत्पन्न हुए, न कभी होंगे । मुझ 'देवानन्दा का गर्भ हरण कर भगवान् को त्रिशला क्षत्रियाणी के उदर में स्थापित करना चाहिए । 'इन्द्र की आज्ञा से हरिणैगमेषी देव वैसा कर देता है । बुद्ध स्वयं सोचते हैं, बुद्ध ब्राह्मण और क्षत्रिय कुल में ही जन्म लेते है, वैश्य और शूद्र कुल में नहीं; अतः मुझे क्षत्रिय कुल में ही जन्म लेना है । इन्द्र ने केवल क्षत्रिय कुल में ही तीर्थङ्कर का उत्पन्न होना माना है और बुद्ध ने क्षत्रिय और ब्राह्मण -- इन दो कुलों में बुद्ध का उत्पन्न होना । १. गर्भ-हरण का प्रसंग दिगम्बर परम्परा में अभिमत नहीं है । ܐܕܙ 2010_05 Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड : १ गर्भाधान के समय महावीर की माता सिंह, गज, वृषभ आदि चौदह स्वप्न देखती है। बुद्ध की माता केवल एक स्वप्न देखती है, हाथी का । प्रातः स्वप्न-पाठक महावीर के लिए चक्रवर्ती या जिन होने का और बुद्ध के लिए चक्रवर्ती या बुद्ध होने का फलादेश करते हैं । जन्म-प्रसंग पर देवों का संसर्ग दोनों ही युगपुरुषों के यहाँ बताया गया है। दोनों ही परम्पराओं के वर्णन आलंकारिक हैं । जातक कथा का वर्णन अधिक विस्तृत और अतिशयोक्ति प्रधान है । महावीर' और बुद्ध-दोनों ही अपनी-अपनी माता के गर्भ से मल-निर्लिप्त जन्म लेते हैं। ___ शुद्धोदन सद्यः-जात शिशु बुद्ध को काल देवल तपस्वी के चरणों में रखना चाहता है, पर, इससे पूर्व बुद्ध के चरण तपस्वी की जटाओं में लग जाते हैं, इसलिए की बुद्ध जन्म से ही किसी को प्रणाम नहीं किया करते । महावीर की जीवन-चर्या में ऐसी कोई घटना नहीं घटती है, पर, तीर्थंकरों का भी यही नियम है कि वे किसी पुरुष-विशेष को प्रणाम नहीं करते। महावीर का अंक-धाय, मज्जन-धाय आदि पाँच धायें और बुद्ध का निर्दोष धायें लालनपालन करती हैं। शाला आदि में जाकर शिल्प, व्याकरण आदि का अध्ययन न महावीर करते हैं और न बुद्ध । महावीर एक दिन के लिए शाला में जाते हैं और इन्द्र के व्याकरण-सम्बन्धी प्रश्नों का निरसन कर अपनी ज्ञान-गरिमा का परिचय देते हैं। बुद्ध एक दिन शिल्प-विशारदों के बीच अपनी शिल्प दक्षता का परिचय देते हैं। महावीर भोग-समर्थ होकर और बुद्ध सोलह वर्ष के होकर दाम्पतिक जीवन प्रारम्भ करते हैं । जातक शीत, ग्रीष्म और वर्षा- इन ऋतुओं के पृथक्-पृथक् तीन प्रासाद कहकर वैभवशीलता व्यक्त करते हैं । जैन परम्परा 'विस्तीर्ण व विपुल' कहकर ही बहुधा राज-प्रासादों का वर्णन करती है। अन्यान्य प्रकरणों से भी पता चलता है, उस युग में श्रीमन्त लोग पृथक्-पृथक ऋतुओं के लिए पृथक्-पृथक् प्रकार के भवन बनाते और ऋतु के अनुसार उनमें निवास करते बुद्ध के मनोरञ्जन के लिए चम्मालीस सहस्र नर्तिकाओं की नियुक्ति का वर्णन है। प्रतिबोध-समय पर महावीर को लोकान्तिक देव आकर प्रतिबुद्ध करते हैं और बुद्ध को देव आकर वृद्ध, रोगी, मृत व संन्यायी के पूर्व शकुनों से प्रतिबुद्ध करते हैं । बोधि-प्राप्ति के अनन्त र बुद्ध को भी लोकान्तिक देवों की तरह ही सहम्पति ब्रह्मा आकर धर्मचक्र प्रवर्तन के लिए अनुप्रेरित करते है। दीक्षा से पूर्व महावीर वर्षीदान करते हैं । बुद्ध के लिए ऐसा उल्लेख नहीं थे। नगर-प्रतोली से बाहर होते ही मार बुद्ध से कहता है--"आज से सातवें दिन तुम्हारे लिए चक्र-रत्न उत्पन्न होगा; अत: घर छोड़कर मत निकलो।" चक्रवर्ती होने वाले के लिए चक्र-रत्न की परिकल्पना जैन परम्परा में भी मान्य है। १. त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्रम्, प्रथम पर्व (हिन्दी अनुवाद),पृ० १३६ । २. कल्पसूत्रार्थ प्रबोधिनी, पृ० १२७ । ३. उदवाई, सू०६ : विच्छिण्णविउलभवन । ४. भगवती सूत्र, श०६, उ० ३३ । ५. जातक अटकथा, सन्ति के निदान, पृ० १५४ । ६. त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्रम् प्रथम पर्व, सर्ग ३, श्लो० ५१३ । ____ 2010_05 Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा] जन्म और प्रव्रज्या १२७ महावीर का दीक्षा-समारोह इन्द्र आदि देव, नन्दीवर्धन आदि मनुष्य आयोजित प्रकार से मानते हैं। वे महावीर को अलंकृत करते है, शिविकारूढ़ करते हैं, जूलूस निकालते हैं, यावत् दीक्षा-ग्रहण-विधि सम्पन्न कराते हैं । जिस रात को बुद्ध का महाभिनिष्क्रमण होता है, उसी दिन इन्द्र के आदेश से बुद्ध के स्नाकोत्तर-काल में देव आते हैं और अन्य उपस्थितियों से अदृष्ट रहकर ही उनकी वेश-सज्जा करते हैं। दोनों प्रकरणों को एक साथ देखने से लगता है, आगामों की दीक्षा-शैली का अनुसरण जातक में हुआ है। बुद्ध के घटनात्मक दीक्षा-प्रयाण में देव-संसर्ग को यथाशक्य ही जोड़ा जा सकता था। पर, यह कमी भी कथाकार ने तब पूरी की, जब बुद्ध रात्रि के नीरव वातावरण में अपने अश्व को बढ़ाये ही चले जा रहे थे। वहाँ साठ-साठ हजार देवता चारों ओर हाथ में मशाल लिए चलते हैं। जन्म, दीक्षा आदि विशेष-सूचना-प्रसंगों पर जैन समुल्लेख इन्द्र के सिंहासन का प्रकम्पित होना बतलाते हैं और बौद्ध समुल्लेख उसका तप्त (गर्म) होना बतलाते हैं। __ महावीर ने दीक्षा ग्रहण के समय पंच मुष्टिक लुन्चन किया। बुद्ध ने अपना केश-जूट तलवार से काटा। महावीर के केशों को इन्द्र ने एक वज्र रत्नमय थाल में ग्रहण कर क्षीर समुद्र में विसर्जित किया। बुद्ध ने अपने कटे केश-जूट को आकाश में फेंका। योजन-भर ऊँचाई पर वह अधर टिका । इन्द्र ने उसे वहां से रत्नमय करण्य में ग्रहण कर त्रयस्त्रिश लोक में चूड़ामणि चैत्य का स्वरूप दिया। महावीर के लिए कहा गया है--अवठ्ठिए केसमंसु रोमनहे' अर्थात् केश, स्मश्र, रोम, नख अवस्थित (अवृद्धि-शील) रहते हैं। दीक्षा-ग्रहण-काल से बुद्ध के भी केश अवस्थित बताये गये हैं। दोनों ही परम्पराओं ने इसे अतिशय माना है। दोनों के ही केश प्रदक्षिणावर्त' (धुंघराले) बताये गये हैं। जिस अश्व पर सवार होकर बुद्ध घर से निकले, उसका नाम कन्थक था। वह गर्दन से लेकर पूंछ तक अठारह हाथ लम्बा था। बुद्ध में एक सहस्त्र कोटि हाथियों जितना बल बतलाया गया है। जैन परम्परा के अनुसार चालीस लाख अष्टापद का बल एक चक्रवर्ती में होता है और तीर्थङ्कर तो अनन्तबली होते हैं। महावीर ने जन्म-जात दशा में ही मेरु को अंगूठे मात्र से प्रकम्पित कर इन्द्र आदि देवों को सन्देह-मुक्त किया। बुद्ध के जीवन-चरित में ऐसी कोई घटना नहीं मिलती, पर, योगबल से यदा-कदा वे नाना चामत्कारिक स्थितियां सम्पन्न करते रहे हैं । भगवान महावीर इस अवसर्पिणी काल का सुषम-सुषम आरा बीत चुका था। सुषम आरा बीत चुका था। सुषम-दुःषम आरा भी बीत चुका था और दुःषम-सुषम आरा भी बहुत कुछ बीत चुका था। केवल वह पचहत्तर वर्ष साढ़े आठ मास अवशेष था। उस समय भगवान् महावीर ग्रीष्म १. समवायांग, सम० ३४३ २. उल्लेखनीय यह है कि जैन आगमों (समवायांग, सम० ३४; उववाई, सू०१०) में 'जिन' के अतिशयों को "चउत्तीसबुद्ध 'अतिसे"..."चौंतीस बुद्ध के अतिशय" कहा है। 'जिन' और 'बुद्ध' शब्द की एकार्थता के लिए यह एक सुन्दर प्रमाण हैं। ३. महावीर के विषय में बताया गया है-'णिकुरुंब-निचिय-कुंचिय-पयाहिणावत्तमुद्धसिरए' उववाई, सू०१०)। 2010_05 Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ आगम और एक त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड : १ ऋतु के चतुर्थ मास, अष्टम पक्ष आषाढ़ शुक्ला षष्ठी के दिन हस्तोत्तर नक्षत्र का योग आने पर प्राणत नामक दश स्वर्ग के पुण्डरीक नामक महाविमान से बीस सागरोपम प्रमाण देव आयुष्य को पूर्ण कर वहाँ से च्युत हुए। देवानन्दा की कुक्षि में जम्बद्वीप के दक्षिण भरतक्षेत्र में दक्षिण ब्राह्मणकुण्ड सन्निवेश में कोडाल गोत्रीय ऋषभदत्त की जालंधर गोत्रीया देवानन्दा ब्राह्मणी की कुक्षि में अवतरित हुए । क्षण भर के लिये प्राणी-मात्र के दुःख का अच्छेद हो गया। तीनों ही लोक में सुख और प्रकाश फैल गया। । उस समय भगवान् महावीर मति, श्रुत और अवधि-इन तीन ज्ञान के धारक थे। इस देवगति से मुझे च्युत होना है, यह उन्होंने जाना। च्युत होकर मैं देवानन्दा ब्राह्मणी की कुक्षि में पहुंच चुका हूं, यह भी उन्होंने जाना, किन्तु च्यवन-काल को उन्होंने नहीं जाना, क्योंकि वह अत्यन्त सूक्ष्म होता है। देवों का आयुष्य जब छः मास अवशिष्ट रहता है, तब उनकी माला मुरझा जाती है, कल्प वृक्ष कम्पित होने लगता है, श्री और ही का नाश हो जाता है, वस्त्रों का उपराग होने लगता है, दीनता छा जाती है, नींद उड़ जाती है, कामना समाप्त हो जाती है, शरीर टूटने लगता है, दृष्टि में भ्रान्ति हो जाती है, कम्पन होने लगता है और चिन्ता में ही समय व्यतीत होता है। किन्तु, महावीर इसके अपवाद थे। उनके साथ उपर्युक्त बारह प्रकार नहीं हुए। यह उनका अतिशय था। गर्भाधान के समय देवानन्दा ने अर्धनिद्रित अवस्था में चौदह स्वप्न देखे। तत्काल प्रसन्नमना उठी और उसने ऋषभदत्त को सारा स्वप्न-वृत्त सुनाया। ऋषभदत्त भी बहुत हर्षित हुआ। उसने कहा -- “सुभगे ! ये स्वप्न विलक्षण हैं। कल्याण व शिव रूप हैं। मंगलमय हैं । आरोग्यदायक व मंगल कारक हैं । इन स्वप्नों के परिणाम स्वरूप तुझे अर्थ, भोग, पुत्र और सुख का लाभ होगा। नव मास और साढ़े सात दिन व्यतीत होने पर तू एक अलौकिक पुत्र को जन्म देगी। उस पुत्र के हाथ-पांव बड़े सुकुमार होंगे। वह पांचों इन्द्रियों से प्रतिपूर्ण व सांगोपांग होगा। उसका शरीर सुगठित और सर्वांग सुन्दर होगा। विशिष्ट लक्षण, व्यंजन व गुण-सम्पन्न होगा। वह चन्द्र के सदृश्य सौम्य और सबको प्रिय, कान्त व मनोज्ञ होगा। ____ "शैशव की देहली को पार कर जब वह यौवन में प्रविष्ट होगा, उसका ज्ञान बहुत विस्तृत हो जायेगा। वह ऋग्वेद, यजुर्वेद सामवेद व अथर्ववेद, इतिहास तथा निघण्टु का सांगोपांग ज्ञाता होगा । उनके सूक्ष्मतम रहस्यों को विविक्त करेगा। वेदो के विस्मृत हार्द का पुनः जागरण करेगा। वेद के षडंगों व सष्टि तंत्र (कापिलीय) शास्त्र में निष्णात होगा। गणित शास्त्र, ज्योतिष, व्याकरण, ब्राह्मण शास्त्र, परिव्राजक शास्त्र आदि में भी धुरंधर होगा।" गर्भ-संहरण अवधि ज्ञान से महावीर के गर्भावतरण की घटना जब इन्द्र को ज्ञात हुई तो सहसा विचार आया-तीर्थङ्कर, चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव, आदि शूद्र, अधम, तुच्छ, अल्प कौटु,म्बिक, निर्धन, कृपण, भिक्षक या ब्राह्मण कूल में अवतरित नहीं होते। वे तो राजन्य कुल में ज्ञात, क्षत्रिय, इक्ष्वाकु, हरि आदि वंशों में ही अवतरित होते है। तत्काल हरिणगमेषी देव १. आचारांग, श्रुत०२, अ० १५, पत्र सं० ३८८-१ । २. कल्पसूत्र, १७-१८ । ___ 2010_05 Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ इतिहास और परम्परा] जन्म और प्रव्रज्या को बुलाया और गर्भ-परिवर्तन का आदेश दिया। आश्विन कृष्णा १३ की मध्य रात्रि थी। उत्तरा फल्गुनी नक्षत्र था। महावीर को देवानन्दा की कुक्षि में आए बयासी अहोरात्र बीत चुके थे । तिरासिवें दिन की मध्य रात्रि में हरिणगमेषी देव ने उनका देवानन्दा की कुक्षि से संहरण कर उन्हें त्रिशला की कुक्षि में प्रस्थापित किया। महावीर तीन ज्ञान से सम्पन्न थे; अतः संहरण से पूर्व उन्हें ज्ञात था, ऐसा होगा। संहरण के बाद भी उन्हें ज्ञात था, ऐसा हो चुका है और संहरण हो रहा है, ऐसा भी उन्हें ज्ञात था।' पश्चिम रात्रि में त्रिशला ने १. सिंह, २. हाथी, ३. वृषभ, ४. लक्ष्मी, ५. पुष्पमाला युग्म, ६. चन्द्र, ७. सूर्य, ८.ध्वजा, ६. कलश, १०. पद्मसरोवर, ११. क्षीर समुद्र, १२. देव-विमान, १३. रत्न-राशि और १४. निर्धूम अग्नि, ये चौदह स्वप्न देखे । वह जगी। प्रसन्नमना राजा सिद्धार्थ के पास आई और स्वप्न-उदन्त कहा। राजा को भी इस शुभसंवाद से हादिक प्रसन्नता हुई । उसने त्रिशला से कहा-"तू ने कल्याणकारी स्वप्न देखे हैं। इनके फलस्वरूप हमें अर्थ, भोग, पुत्र व सुख की प्राप्ति होगी और राज्य की अभिवृद्धि होगी। कोई महान् आत्मा हमारे घर आएगी।" सिद्धार्थ द्वारा अपने स्वप्नों का संक्षिप्त, किन्तु, विशिष्ट फल सुनकर त्रिशला प्रमुदित हई । राजा के पास से उठकर वह अपने शयनागार में आई । मांगलिक स्वप्न निष्फल न हों, इस उद्देश्य से उसने शेष रात्रि अध्यात्म-जागरण में बिताई। राजा सिद्धार्थ प्रातः उठा। उसके प्रत्येक अवयव में स्फुरणा थी। प्रातः कृत्यों से निवृत्त हो व्यायाम शाला में आया। शस्त्राभ्यास, वलान (कूदना), व्यामर्दन, मल्लयुद्ध व पद्मासन आदि विविध आसन किए । थकान दूर करने के लिए शतपाक व सहस्रपाक तेल का मर्दन कराया। मज्जन-घर में आकर स्नान किया। गोशीर्षक चन्दन का विलेपन किया। सुन्दर वस्त्र आभूषण पहने । सब तरह से सज्जित हो, सभा-भवन में माया। सिद्धार्थ के सिंहासन के समीपही त्रिशला के लिए यवनिका के पीछे रत्न-जटित भद्रासन रखा गया। राजा ने कौटुम्बिक को अष्टांग निमित्त के ज्ञाता स्वप्न-पाठकों को राज-सभा में आमंत्रित करने का आदेश दिया। कौटुम्बिक ने तत्काल उस आदेश को क्रियान्वित किया। स्वप्न-फल निमन्त्रण पाकर स्वप्न-पाठकों ने स्नान किया, देव पूजा और तिलक लगाया। दुःस्वप्न-नाश के लिए दधि, दूर्वा और अक्षत से मंगल किये, निर्मल वस्त्र पहने, आभूषण पहने और मस्तक पर श्वेत सरसों व दूर्वा लगाई। क्षत्रिय कुण्ड नगर के मध्य से होते हुए राज-सभा के द्वार पर पहुंचे। वहाँ उन्होंने परस्पर विचार-विनिमय किया और एक धीमान् को अपना प्रमुख चुना। सभा में प्रविष्ट हो, राजा का अभिवादन किया । सिद्धार्थ ने उन्हें सत्कृत किया और त्रिशला द्वारा संदृष्ट चौदह स्वप्नों का फल पूछा। अन्योन्य विमर्षणा के अनन्तर स्वप्न-पाठकों ने उत्तर में कहा--"राजन! स्वप्नशास्त्र में सामान्य फल देने वाले बयालीस और उत्तम फल देने वाले तीस महास्वप्न बताये गये हैं। कुल मिलाकर बहत्तर स्वप्न होते हैं। तीर्थङ्कर और चक्रवर्ती की माता तीस महास्वप्नों में से चौदह स्वप्न देखती है । वासुदेव की माता सात, बलदेव की माता चार और मांडलिक राजा की माता एक स्वप्न देखती है।" १. कल्पसूत्र में संहरण-काल को भी अज्ञात बताया है । वह किसी अपेक्षा-विशेष से ही यथार्थ हो सकता है। तत्त्वतः तो अवधि-ज्ञान-युक्त महावीर के लिए वह अगम्य नहीं हो सकता। 2010_05 Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड : १ स्वप्न-शास्त्रियों ने आगे कहा-"राजन् ! महारानी त्रिशला ने चौदह स्वप्न देखे हैं; अतः अर्थ-लाभ, पुव-लाभ सुख-लाभ और राज्य-लाभ सुनिश्चित है । नव मास और साढ़े सात अहोरात्र व्यतीत होने पर कुल-केतु, कुल-दीप, कुल-किरीट, कुल-तिलक पुत्र का प्रसव करेंगी। वह आपकी कुल परम्परा का वर्धक, कुल की कीत्ति, वृद्धि व निर्वाह का सर्जक होगा। पाँचों इन्द्रियों से प्रतिपूर्ण, सर्वांग सुन्दर व सुकुमार होगा। लक्षण ब व्यंजन गुणों से युक्त, प्रियदर्शन व शांत होगा। ___ "शैशव समाप्त करते ही परिपक्वज्ञान वाला होगा। जब वह यौवन में प्रविष्ट होगा, दानवीर, पराक्रमी व चारों दिशाओं का अधिशास्ता चक्रवर्ती या चार गति का परिभ्रमण समाप्त करने वाला धर्म-चक्रवर्ती तीर्थङ्कर होगा।" स्वप्न-पाठकों ने एक-एक कर चौदह स्वप्नों का सविस्तार विवेचन किया । सिद्धार्थ और त्रिशला उसे सुन शतगुणित हर्षित हुए। राजा ने उन्हें जीभर दक्षिणा दी और ससत्कार विदा किया। मात-प्रेम महावीर ने गर्भ में एक बार सोचा-मेरे हिलने-डुलने से माता को कष्ट होता होगा । मुझे इसमें निमित्त नहीं बनना चाहिए । और वे अपने अंगोपांगों को अकम्पित कर सुस्थिर हो गये। त्रिशला को विविध आशंकाएँ हुई-क्या किसी देव ने मेरे गर्भ का हरण कर लिया है ? क्या वह मर गया है ? क्या वह गल गया है ? विविध आशंकाओं ने त्रिशला केहदय पर एक महरा आघास पहुंचाया । वह सन्न-सी रह गई। विखिन्न वदन रोने लगी। वेदना का भार इतना बढ़ा कि वह मूछित होकर गिर पड़ी। सखियों ने तत्काल उसे सम्भाला और गर्भ-कुशलता का प्रश्न पूछा । वृद्धा नारियां शांति कर्म, मंगल व उपचार के निमित मनौतियां करने लगी और ज्योतिषियों को बुला कर उनसे नामा प्रश्न पुछने लगीं। सिद्धार्थ भी इस संवाद से चिन्तित हुआ। मंत्रीजन भी किंकर्तव्यविमूढ़ हो गये । राज-भवन का राग-रंग समाप्त हो गया। महावीर ने ज्ञान-बल से इस उदन्त को जाना । उन्होंने सोचा-मैंने तो यह सब कुछ माता के सुख के लिए किया था, किन्तु, इसका परिणाम तो अनालोचित ही हुआ। उन्होंने माता के सुख के लिए हिलना-डुलना आरम्भ किया। गर्भ की कुशलता से त्रिशला पुलक उठी। उसे अपने पूर्व चिन्तन पर अनुताप हुआ। उसे पूर्ण विश्वास हो गया--न मेरा गर्भ अपहृत हुआ है, न मरा है और न गला है । मैंने यह अमंगल चिन्तन क्यों किया ? त्रिशला की प्रसन्नता से सारा राज-भवन आनन्द मग्न हो गया। यह घटना उस समय की है, जब महावीर को गर्भ में आये सार्ध छः मास व्यतीत हो चुके थे। इस घटना का महावीर के मन पर असर हुआ। उन्होंने सोचा- मेरे दीक्षा-काल में तो न जाने माता-पिता को कितना कष्ट होगा? माता-पिता के इसी कष्ट को विचार कर गर्भ में ही उन्होंने प्रतिज्ञा की--"पाता-पिता के रहते मैं प्रबजित नहीं होऊँगा।" गर्भ को सुरक्षित स्थिति में पाकर त्रिशला ने स्नान, पूजन व कौतुक-मंगल किए तथा आभूषणों से अलंकृत हुई । गर्भ-पोषण के निमित्त वह अति शीत, अति उष्ण, अति लिक्त, अति कटुक, अति कषायित, अति आम्ल, अति स्निग्ध, अति रुक्ष, अति आर्द्र, अति शुष्क भोजन का परिहार करती और ऋतु-अनुकूल भोजन करती। अति चिन्ता, अति शोक, अति दैन्य, अति मोद, अति भय, अति त्रास आदि से बचकर रहती। 2010_05 Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा ] वयः प्राप्त व अनुभव प्राप्त महिलाओं की शिक्षा का स्मरण करती हुई, गर्भ-संरक्षण के लिए वह मन्द मन्द चलती, शनैः-शनैः बोलती, क्रोध व अट्टहास न करती, पथ्य वस्तुओं का सेवन करती, कटि-बन्धन शिथिल रखती थी, उच्चावच भूमि में परिव्रजन करती हुई सम्भल कर रहती तथा खुले आकाश में न बैठती । महावीर जब से गर्भ में आये, सिद्धार्थ के घर धन-धान्य की विपुल वृद्धि होने लगी । शकेन्द्र के आदेश से वैश्रवण जृम्भक देवों के द्वारा भूमिगत धन-भण्डार, बिना स्वामी का धनभण्डार, बिना संरक्षण का धन भण्डार, अपितु ऐसा भूमिगत धन भण्डार भी, जो किसी के लिए भी ज्ञात नहीं है तथा ग्राम, नगर, अरण्य, मार्ग, जलाशय, तीर्थ-स्थान, उद्यान, शून्यागार, गिरिकन्दरा आदि में संगोपित धन-भण्डार आदि को वहाँ वहाँ से उठाकर सिद्धार्थ के घर पहुंचाने लगा। राज्य में धन-धान्य, यान- वाहन आदि की प्रचुर वृद्धि हुई । दोहद जन्म और प्रव्रज्या कप्पसुत्त की कल्पलता व्याख्या के अनुसार त्रिशला को इन्द्राणियों से छीनकर उनके कुण्डल पहनने का दोहद उत्पन्न हुआ । किन्तु, ऐसा हो पाना सर्वथा असम्भव था; अतः वह दुर्मनस्क रहने लगी । सहसा इन्द्र का आसन कम्पित हुआ । अवधि- ज्ञान के बल से उसने यह सब कुछ जाना । इसे पूर्ण करने के उद्देश्य से उसने इन्द्राणी प्रभृति अप्सराओं को साथ लिया और एक दुर्गम पर्वत के अन्तर्वर्ती विषम स्थान में देव नगर का निर्माण कर रहने लगा । सिद्धार्थ ने जब यह जाना, ससैन्य इन्द्र के पास आया और उससे कुण्डलों की याचना की । इन्द्र ने उसे देने से मना किया। दोनों ही पक्ष युद्ध के लिए सज्ज हुए । इन्द्र युद्ध में समर्थ था, फिर भी कुछ समय लड़कर वहां से भाग निकला। सिद्धार्थ ने अप्सराओं को लूट लिया । बिलखति हुई इन्द्राणियों के हाथों से बलपूर्वक राजा ने कुण्डल छीने और त्रिशला को लाकर दिये । रानी ने उन्हें पहन कर अपना दोहद पूर्ण किया । I १३१ चैत्र शुक्ला त्रयोदशी की मध्य रात्रि में नव मास साढ़े सात अहोरात्र की गर्भ-स्थिति का परिपाक हुआ । महावीर ने पूर्ण आरोग्य के साथ जन्म लिया । वे देवताओं की तरह जरायु, रुधिर व मल से रहित थें। उस दिन सातों ग्रह उच्च स्थान-स्थित थे और उत्तरा फाल्गुनी नक्षत्र के साथ चन्द्रमा का योग था । अत्यन्त आश्चर्यकारक प्रकाश से सारा संसार जगमगा उठा । आकाश में गम्भीर घोष से दुन्दुभि बजने लगी । नारक जीवों ने अभूतपूर्व सुख की साँस ली । सब दिशाएँ शान्त एवं विशुद्ध थीं । शकुन जय-विजय के सूचक थे । धायु अनुकूल व मन्द मन्द चल रही थी । बादलों से सुगंधित जल की वर्षा हो रही थी । भूमि शस्यश्यामला हो रही थी । सारा देश आनन्दमग्न था । जन्मोत्सव 2010_05 जन्म के समय छप्पन दिक् कुमारियाँ आईं और उन्होंने सूतिकर्म किया । सौधर्म देवलोक के इन्द्र का आसन कम्पित हुआ । अवधि ज्ञान से उसे ज्ञात हुआ कि चरम तीर्थङ्कर महावीर का जन्म हुआ है । अत्यन्त आह्लादित वह अपने पूरे परिवार के साथ क्षत्रियकुण्डपुर की ओर चला । उसके साथ भुवनपति, व्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक - चारों निकाय के देव और उनके इन्द्र भी थे। सभी देव अहंप्रथमिका से सिद्धार्थ के राज-महलों में पहुँचने के लिए प्रयत्नशील थे । इन्द्र ने महावीर और त्रिशला की तीन प्रदक्षिणा की और उन्हें प्रणाम किया । महावीर का एक प्रतिबिम्ब बनाकर माता के पास रखा। अवस्वापिनी निन्द्रा में माता को सुलाकर महावीर को मेरु पर्वत के शिखर पर ले गए। वहाँ सभी देव आठ प्रकार के आठ हजार Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड:१ चौसठ जल-कलश लेकर स्नात्राभिषेक को उद्यत हुए। सौधर्मेन्द्र मन-ही-मन आशंकित हुआ, एक बालक इतने जल-प्रवाह को कैसे सह सकेगा ?' ... महावीर ने इन्द्र की आशंका को अवधि ज्ञान से जान लिया। उसकी निवृति के लिए उन्होंने अपने बायें पाँव से मेरु पर्वत को थोड़ा-सा दबाया। वह कम्पित हो गया। इन्द्र ने कम्पन का कारण जानने के लिए अपने ज्ञान का प्रयोग किया। उसे महावीर की अनन्त शक्ति का अनुभव हुआ। तत्काल भगवान् से क्षमा याचना की। इन्द्र और देवों ने मिलकर जलाभिषेक किया। भगवान् की स्तुति की और उन्हें पुनः त्रिशला के पास लाकर लिटा दिया। प्रियंवदा दासी ने प्रातःकाल सिद्धार्थ को सर्वप्रथम इस शुभ संवाद से सूचित किया । सिद्धार्थ अत्यधिक प्रमुदित हुआ। उसने मुकुट के अतिरिक्त अपने शरीर पर पहने समस्त आभूषण उसे उपहार में दिए और जीवन-पर्यन्त उसे दासत्व से मुक्त कर दिया । आरक्षकों को अपने पास बुलाया और आदेश दिया- बन्दीगृह के समस्त कैदियों को मुक्त कर दो। ऋणीजनों को ऋण-मुक्त कर दो। बाजार में उद्घोषणा कर दो, वस्तु की आवश्यकता होने पर जो स्वयं न खरीद सकता हो, उसे बिना मूल्य लिये ही वह वस्तु दी जाये । उसका मूल्य राज-कोष से दिया जायेगा। माप और तोल कर दी जाने वाली वस्तुओं के माप में वृद्धि करा दो। नगर की सब ओर से सफाई करो। सुगन्धित जल से समस्त भू-भाग पर छिड़काव करो। देवालयों और राजमार्गों को सजाओ। बाजारों में व अन्य प्रमुख स्थानों पर मंच बंधवा दो ताकि नागरिक सुखासीन होकर महोत्सव देख सकें। दीवारों पर सफेदी कराओ और उन पर थापे लगवाओ। नगर के समस्त नट-नाटक करने वालों. नट्टग -नाचने वालों, जल्लरस्सी पर खेलने वालों, मल्ल-मल्लों, मटिठ-मष्टि-युद्ध करने वालों, विडम्बक-विदूषकों, पवग-बन्दर के समान उछल-कूद करने वालों, गड्ढे फांदने वालों व नदी में तैरने वालों, कहगा--कथा-वाचकों, पाठग-सूक्ति पाठकों, लासग–रास करने वालों, लेख-बांस पर चढ़कर खेल करने वालों, मंख-हाथ में चित्र लेकर भिक्षा मांगने वालों, तूण इल्ल - तूणनामक वाद्य बजाने वालों, तुम्ब-वीणिका-वीणा-वादकों, मदंग-वादकों व तालाचरा-तालियां बजाने वालों को सज्ज करो और उन्हें त्रिक, चतुष्पथ व चच्चर आदि में अपनी उत्कृष्ट कलाबाजियां दिखाने का निर्देश दो। सभी सम्बन्धित अधिकारी और कर्मचारी उन कामों में जुट गये। सिद्धार्थ व्यायाम शाला में आया । नियमपूर्वक अपनी दैनिक चर्या सम्पन्न की। स्नान किया और वस्त्राभूषणों से सज्जित होकर राज-सभा में आया। आनन्द-विनोद के साथ दस दिन तक स्थितिपतित नामक महोत्सव मनाने का निर्देश किया। तीसरे दिन महावीर को चन्द्र-सूर्य-दर्शन कराये गए। छठे दिन रात्रि-जागरण हुआ। बारहवें दिन नाम-संस्कार किया गया। उस दिन सिद्धार्थ ने अपने इष्ट मित्रों, स्वजनों, स्नेहियों व भृत्यों को आमंत्रित कर भोजन-पानी, अलंकार आदि से सबको सत्कृत किया। आगन्तुक अतिथियों को सम्बोधित करते हुए उसने कहा- "जब से यह बालक गर्भ में आया है, धन-धान्य, कोश, कोष्ठागार, बल स्वजन और राज्य में अतिशय वृद्धि हुई है ; अतः इसका नाम 'वर्द्धमान' रखा जाए।" सिद्धार्थ का यह प्रस्ताव सभी को भा गया। महावीर का सर्वप्रथम वर्द्धमान नामकरण हुआ। जब वे साधना में प्रवृत्त हुए और दुःसह, मारणान्तिक व महादारुण परिषहों में अविचलित रहे तो देवों ने उनका महावीर नामकरण किया, जो अति विश्रुत हुआ। १. कप्प, कल्पलता व्याख्या, पत्र संख्या १०८-२, १०६-१ । ____ 2010_05 Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा] जन्म और प्रव्रज्या बाल्य-जीवन महावीर का बाल्य-काल एक राजकुमार की भाँति सुख-समृद्धि और आनन्द में बीता। उनके लालन-पालन के लिए पांच सुदक्ष धाइयाँ नियुक्त की गईं, जो उनके प्रत्येक कार्य को विधिवत् संचालित करती थीं। उन पाँचों के काम बँटे हुए थे--दूध पिलाना, स्नान कराना, वस्त्राभूषण पहनाना, क्रीड़ा कराना व गोद में लेना। __ खेल-कूद में महावीर को विशेष रुचि नहीं थी; फिर भी अपने समवयस्कों के साथ वे यदा-कदा प्रमदवन (गृहोद्यान) में खेलते थे। एक बार जबकि उनकी अवस्था आठ वर्ष से कुछ कम थी, समवयस्कों के साथ संकुली (आमलकी) खेल रहे थे। इस खेल में किसी वृक्ष विशेष को लक्षित कर सभी बालक उसकी ओर दौड़ पड़ते। जो बालक सबसे पहले उस वृक्ष पर चढ़कर उतर आता, वह विजयी होता। पराजित बालकों के कंधों पर सवार होकर वह उस स्थान तक जाता, जहाँ से दौड़ आरम्भ होती थी। ___क्रीड़ारत महावीर को लक्ष्य कर एक बार शकेन्द्र ने देवों से कहा---'महावीर बालक होते हुए भी बड़े पराक्रमी व साहसी हैं। इन्द्र, देव, दानव,-कोई भी उनको पराजित नहीं कर सकता। एक देव को इन्द्र के इस कथन पर विश्वास न हुआ। परीक्षा के लिए, जहाँ महावीर खेल रहे थे, वह वहाँ आया। भयंकर सर्प बनकर पीपल के तने पर लिपट गया और फुफकारने लगा। महावीर उस समय पीपल पर चढ़े हुए थे। विकराल सर्प को देखकर सभी बालक डर गए। वर्द्धमान तनिक भी विचलित न हुए। उन्होंने दांये हाथ से सर्प को पकड़ कर एक ओर डाल दिया। बालक फिर एकत्रित हुए और तिदूंसक खेल खेलने लगे। दो-दो बालकों के बीच वह खेल खेला जाता था। दोनों बालक लक्षित वृक्ष की ओर दौड़ पड़ते। जो बालक लक्षित वृक्ष को सबसे पहले छू लेता, वह विजयी होता। विजयी पराजित पर सवार होकर प्रस्थान-स्थान पर आता। वह देव बालक बनकर उस टोली में सम्मिलित हो गया। महावीर ने उसे पराजित कर वक्ष को छ लिया। नियमानुसार महावीर उस पर आरूढ होकर नियत स्थान पर आने लगे । देव ने उन्हें भीत करने व उनका अपहरण करने के लिए अपने शरीर को सात ताड़ प्रणाम ऊँचा और बहुत ही भयावह बना लिया। सभी बालक घबरा गए । कुछ चित्कार करने लगे व कुछ रोने लगे। महावीर अविचलित रहे । उन्होंने उसकी धूर्तता को भांप लिया और अपने पौरुष से उसके सिर व पीठ पर मुष्टिका का प्रहार किया। देव उस प्रहार को सह न सका । वह जमीन में धंसने लगा। उसने अपना वास्तविक रूप प्रकट किया और लज्जित होकर महावीर के चरणों में गिर पड़ा । बोला-"इन्द्र ने जैसी आपकी प्रशंसा की थी, आप उनसे भी अधिक धीर व वीर हैं।" देव अपने स्थान पर गया । इन्द्र स्वयं आया और उसने उनके वीरोचित कार्यों की भूरि-भूरि प्रशंसा की। बल महावीर के बल के बारे में माना जाता है-बारह योद्धाओं का बल एक वृषभ में, दस वृषभों का बल एक अश्व में, बारह अश्वों का बल एक महिष में, पन्द्रह महिषों का बल एक हाथी में, पाँच सौ हाथियों का बल एक केसरीसिंह में, दो हजार केसरीसिंह का बल एक अष्टा पद में, दस लाख अष्टापदों का बल एक बलदेव में, दो बलदेवों का बल एक वासुदेव में, दो बलदेवों का बल एक चक्रवर्ती में, एक लाख चक्रवतियों का बल एक नागेन्द्र में, एक करोड़ नागेन्द्रों का बल एक इन्द्र में और ऐसे अनन्त इन्द्रों के बल के सदृश बल तीर्थङ्करों की कनिष्ठ अंगुलि में होता है। 2010_05 Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ अध्ययन आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन महावीर जब कुछ अधिक आठ वर्ष के हुए तो माता-पिता ने शुभ मुहूर्त में अध्ययनार्थ विद्यालय भेजा । पंडित को उपहार में नारियल, बहुमूल्य वस्त्र व आभूषण दिये गये । विद्याथियों में खाने के स्वादु पदार्थ व अध्ययन में उपयोगी वस्तुएँ वितरित की गईं। पंडित ने महावीर के लिए विशेष आसन की व्यवस्था की । [ खण्ड : १ इन्द्र को सिद्धार्थ और त्रिशला की इस प्रवृत्ति पर विस्मय हुआ । तीन ज्ञान सम्पन्न महापुरुष को सामान्य जन पढ़ाये, यह उचित नहीं है । वह ब्राह्मण का रूप बनाकर वहाँ आया । महावीर से सभी विद्यार्थियों व पंडित की उपस्थिति में व्याकरण सम्बन्धी नाना दुरुह प्रश्न पूछे । महावीर ने अविलम्ब उनके उत्तर दिये । पंडित व विद्यार्थी चकित हो गये । उन प्रश्नो उत्तरों से पंडित की भी बहुत सारी शंकाएँ निर्मूल हो गईं। इन्द्र ने पंडित से कहा छात्र असाधारण है । सब शास्त्रों में पारंगत यह बालक महावीर है ।" पंडित को इस सूचना से हार्दिक प्रसन्नता हुई । इन्द्र ने महावीर के मुख से निःसृत उन उत्तरों को व्यवस्थित संकलित किया और उसे ऐन्द्र व्याकरण की संज्ञा दी । "यह विवाह सिद्धार्थ और त्रिशला ने यौवन में महावीर से विवाह का आग्रह किया । महावीर दाम्पतिक जीवन जीना नहीं चाहते थे, किन्तु, वे माता-पिता के आग्रह को टाल भी न सके । वसन्तपुर नगर के महासामन्त समरवीर व पद्मावती की कन्या यशोदा के साथ उनका पाणिग्रहण हुआ । उनके पारिवारिक जनों का परिचय भी आगमों में पर्याप्त रूप से मिलता है । उनके चाचा का नाम सुपार्श्व, अग्रज का नाम नन्दीवर्धन, बड़ी बहिन का नाम सुदर्शना, पुत्री का नाम प्रियदर्शना व अनवद्या तथा दामाद का नाम जमालि था । दोहित्री का नाम शेषवती व यशस्वती था । महावीर सहज विरक्त थे । उनका शरीर अत्यन्त कान्त व बलिष्ठ था । उनके लिए भोग - सामग्री सर्व सुलभ थी, पर, वे उसमें उदासीन व अनुत्सुक रहते थे । सिद्धार्थ और त्रिशला पावपित्यिक उपासक थे । उनका धर्मानुराग बड़ा उत्कट था । उन्होंने अनेक वर्षों तक श्रमणोपासक धर्म का पालन किया ! अपने अन्तिम समय में अहिंका की साधना के लिए पापों की आलोचना, निन्द्रा, गर्हा करते हुए प्रतिक्रमण व प्रायश्चित्त कर यावज्जीवन के लिए संथारा किया। वहाँ से आयु शेष कर वे अच्युत कल्प में उत्पन्न हुए । महावीर उस समय अटाईस वर्ष के थे । अपनी प्रतिज्ञा पूर्ण होने पर उन्होंने अपने अज नन्दीवर्धन के समक्ष प्रवजित होने की भावना प्रस्तुत की । नन्दीवर्धन को इससे आवात लगा | माता-पिता के वियोग में अनुज का भी वियोग वह सहने में अक्षम था। उसके अनुरोध १. वैजयन्ती कोष ( पृ० ८४७ ) में सामन्त का अर्थ पड़ोसी राजा किया है। कौटिलीय अर्थशास्त्र में भी सामन्त शब्द का यही अर्थ उपलब्ध होता है । पड़ोसी राजाओं में भी जो प्रमुख होते थे, वे महासामन्त कहलाते थे । 2010_05 २. दिगम्बर- परम्परा भगवान् महावीर का पाणिग्रहण तो नहीं मानती, पर, इतना अवश्य मानती है कि माता-पिता की ओर से उनके विवाह का वातावरण बनाया गया था । अनेक राजा अपनी-अपनी कन्याएं उन्हें देना चाहते थे । राजा जितशत्रु अपनी कन्या यशोदा का उनके साथ विवाह करने के लिए विशेष आग्रहशील था। पर, महावीर ने विवाह करना स्वीकार नहीं किया । - हरिवंश पुराण Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा जन्म और प्रव्रज्या १३५ पर महावीर और दो वर्ष तक प्रवजित न होने के लिए सहमत हो गए। इसी बीच सर्वत्र यह बात फैल गई कि महावीर के गर्भ-समय उनकी माता ने चतुर्दश स्वप्न देखे थे; अतः वे अब चक्रवती होंगे। बड़े-बड़े राजाओं ने श्रेणिक, चण्ड प्रद्योतन आदि अपने कुमारों को उनकी सेवा में तत्पर कर दिया।' किन्तु, महावीर तो अनासक्त थे। चक्रवतित्व उनके समक्ष नगण्य था। वे तो निविष्ण अवस्था में ही रहते । इस अवधि में गृहस्थावास में रहते हुए भी उन्होंने सचित्त पानी नहीं पिया, रात्रि-भोजन नहीं किया और ब्रह्मचर्य का पालन किया। भूमि-शयन ही करते और कषाय-अग्नि को शान्त करने के लिए एकत्व भावना में लीन रहते। एक वर्ष की अवधि के बाद उन्होंने वर्षीदान आरम्भ किया। वे प्रतिदिन एक करोड़ आठ लाख स्वर्णमुद्राएं दान करते थे। वर्ष भर में तीन अरब अठासी करोड़ अस्सी लाख स्वर्ण-मुद्राएँ उन्होंने दान की। अभिनिष्क्रमण तीस वर्ष की अवस्था में महावीर समाप्त-प्रतिज्ञ हुए। लोकान्तिक देव अपने जीताचार के अनुसार महावीर के पास आए और उन्होंने कहा जय-जय खत्तिय वर वसभ ! बुज्झहि भयवं । सव्व जगज्जीव हियं अरहं तित्थं पव्वत्तेहि ॥ "हे क्षत्रिय वर वृषभ! आपकी जय हो । अब आप दीक्षा ग्रहण करें और समस्त प्राणियों के लिए हितकर धर्म-तीर्थ का प्रवर्तन करें।" उन्होंने महावीर को वन्दन, नमस्कार किया और अपने स्थान की ओर गए। महावीर ने अपने अग्रज नन्दिवर्धन व चाचा सुपार्श्व आदि स्वजनों के समक्ष दीक्षाविषयक अपना दृढ़ संकल्प व्यक्त किया। सभी स्वजनों ने उनके संकल्प का अनुमोदन किया। नन्दिवर्धन ने अभिनिष्क्रमण महोत्सव आरम्भ किया। उसने अपने कौटुम्बिक पुरुषों को आदेश दिया, आठ प्रकार के एक-एक हजार आठ कलश तैयार कराओ। आदेश शीघ्र ही क्रियान्वित हुआ। महोत्सव मनाने के लिए शकेन्द्र भी अपने पूरे परिवार के साथ आया। नन्दिवर्धन, इन्द्र और देवों ने महावीर को पूर्वाभिमुख स्वर्ण-सिंहासन पर बैठाकर आठ प्रकार के कलशों में स्वच्छ पानी भराकर अभिषेक किया। गंधकाषाय वस्त्र से शरीर पोंछा गया और दिव्य चंदन का विलेपन किया गया । अल्प भार वाले बहुमूल्य वस्त्र व आभूषण पहनाये गए। महावीर इन सब कार्यों से निवृत्त होकर सुविस्तृत व सुसज्जित चन्द्रप्रभा शिविका में आरूढ़ हुए । मनुष्यों, इन्द्र और देवों ने मिलकर उस शिविका को उठाया। विशाल जन-समूह के साथ क्षत्रियकुण्ड ग्राम के मध्य से होते हुए ज्ञातृ-खण्ड उद्यान के अशोक वृक्ष के नीचे पहुंचे। समस्त अलंकारों व वस्त्रों को अपने हाथ से उतारा । उन्होंने पंच मुष्टि लुंचन किया। शकेन्द्र ने जानुपाद रहकर उन केशों को एक वज्ररत्नमय थाल में ग्रहण किया तथा क्षीर समुद्र में उन्हें विसर्जित कर दिया। महावीर के शरीर पर केवल एक देवदूष्य वस्त्र रहा। उस दिन महावीर के षष्ट भक्त (दो दिन का) तप था। विशुद्ध लेष्या थी । हेमन्त ऋतु थी। मार्गशीर्ष कृष्णा दशमी तिथि थी। सुब्रत दिवस था, विजय मुहूर्त, चौथा प्रहर तथा उत्तराफागुल्नी नक्षत्र था। मनुष्यों और देवों की विराट परिषद् में सिद्धों को नमस्कार करते हुए--सव्वं में अकरणिज्ज पाव कम्म--आज से सब पाप मेरे लिए अकृत्य हैं, मैं आज १. कप्प सत्त, कल्पलता व्याख्या, प०१२३-१ । २. (१) स्वर्ण, (२) रजत, (३) रत्न, (४) स्वर्ण-रजत, (५) स्वर्ण-रत्न, (६) रत्न-रजत, (७) स्वर्ण-रजत-रत्न, (८) मृत्तिका । ____ 2010_05 Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३६ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड : १ से कोई पाप कार्य नहीं करूँगा, यह कहते हुए उन्होंने सामयिक चारित्र ग्रहण किया। सारा कलरव शान्त था और सहस्त्रों देवों व मनुष्यों के निनिमेष नेत्र उस स्वर्णिम दृश्य को देख रहे थे । उसी समय महावीर को मनःपर्यव ज्ञान प्राप्त हुआ। अभिग्रह दीक्षित होते ही महावीर ने मित्र, ज्ञाति व सम्बन्धी वर्ग को विजित किया। एक उत्कट अभिग्रह धारण किया---'"बारह वर्ष तक व्युत्सृष्काय और (यक्तदेह (देह-शुश्रूषा से उपरत) होकर रहूंगा। इस अवधि में देव, मनुष्य व पशु-पक्षियों द्वारा जो भी उपसर्ग उपस्थित होंगे, उन्हें समभाव पूर्वक सहन करूंगा।" बाद में ज्ञात-खण्ड उद्यान से विहार किया। उसी दिन सायंकाल एक मुहूर्त दिन शेष रहने पर वे कुमार ग्राम पहुँचे और ध्यानस्थ हो गये। भगवान बुद्ध बोधिसत्त्व जब तुषित् लोक में थे, बुद्ध कोलाहल पैदा हुआ । लोकपाल देवताओं ने, सहस्त्र वर्ष बीतने पर लोक में सर्वज्ञ बुद्ध उत्पन्न होंगे, ऐसा जान कर मित्रों को सम्बोधित कर सर्वत्र घूमते हुए उच्च स्वर से घोषणा की..."अब से सहस्र वर्ष बीतने पर लोक में बुद्ध उत्पन्न होंगे।'' घोषणा से प्रेरित हो समस्त दस सहस्र चक्रवालों के देवता एकत्रित हुए। बुद्ध कौन होगा, यह जाना और उसके पूर्व लक्षणों को देखकर उसके पास गये व याचना की। जब उनके पूर्व लक्षण उदित हो गये तो चक्रवाल के सभी देवता- चतुर्महाराजिक, शक्र, सुयाम, संतुषित्, परनिर्मित-वशवर्ती-महाब्रह्माओं के साथ एक ही चक्रवाल में एकत्रित हुए और उन्होंने परस्पर मंत्रणा की। वे तुषित् लोक में बोधिसत्व के पास गये और उन्होंने प्रार्थना की— "मित्र ! तुमने जो दस पारमिताओं की पूर्ति की है, वह न तो इन्द्रासन पाने के लिए की है, न मार, ब्रह्मा या चक्रवर्ती का पद पाने के लिए, अपितु लोक-निस्तार व बुद्धत्व की इच्छा से ही उन्हें पूर्ण किया है। मित्र ! अब यह बुद्ध होने का समय है।" पाँच महाविलोकन बोधिसत्त्व ने देवताओं को वचन दिये बिना ही अपने जन्म-सम्बन्धी समय, द्वीप, देश, कुल-माता तथा उसका आयु-परिमाण, इन पांच महाविलोकनों पर सविस्तार विचार किया। समय उचित है या नहीं, सर्वप्रथम यह चिन्तन किया। लाख वर्ष से अधिक की आयु का समय बुद्धों के जन्म के लिए उपयुक्त नहीं होता, क्योंकि उस समय प्राणियों को जन्म, जरा व मृत्यु का भान नहीं होता । बुद्धों का धर्मोपदेश अनित्य, दुःख तथा अनात्मभाव से रहित नहीं होता। उस समय इस उपदेश पर लोग ध्यान नहीं देते, उस पर श्रद्धा नहीं करते व नाना ऊहापोह करते हैं । उन्हें इसलिए धर्म का बोध नहीं हो सकता और ऐसा न होने पर बुद्धधर्म उनके लिए सहायक (नर्याणिक) नहीं होता; अतः वह समय अनुकूल नहीं है। सौ वर्ष से कम आयु का समय भी अनुकूल नहीं होता, क्योंकि स्वल्पायुषी प्राणियों में राग-द्वेष की बहुलता होती है; अतः उन्हें दिया गया उपदेश भी प्रभावोत्पादक नहीं होता। पानी में लकड़ी से खींची गई रेखा की तरह वह शीघ्र ही नष्ट हो जाता है, अतः यह समय भी अनुकूल नहीं है। लाख वर्ष से कम और सौ वर्ष से अधिक का समय अनुकूल होता हैं। प्रवर्तमान समय ऐसा ही है; अतः बुद्धों के जन्म के लिए उपयुक्त है। 2010_05 Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा] जन्म और प्रव्रज्या द्वीप का विचार करते हुए उपद्वीपों सहित चारों द्वीपों को देखा। अपर-गोयान, पूर्व विदेह तथा उत्तर कुरु'-इन तीनों द्वीपों में बुद्ध जन्म नहीं लेते, केवल जम्बूद्वीप में ही जन्म लेते हैं; अतः इसी द्वीप का निश्चय किया। जम्बूद्वीप तो दस हजार योजन परिमाण है; अत: प्रदेश का चिन्तन करते हुए उन्होंने मध्य प्रदेश को देखा। इस प्रदेश के पूर्व में कजंगल कस्बा है। उसके आगे शाल के बड़े वन हैं। मध्य में सललवती नदी है । दक्षिण में सेतकणिक कस्बा हैं। पश्चिम में थून नामक ब्राह्मणों का ग्राम है। उत्तर में उशीरध्वज पर्वत है । वह लम्बाई में तीन सौ योजन, चौड़ाई में ढाई सौ योजन और परिधि में नौ सौ योजन है। इसी प्रदेश में बुद्ध, प्रत्येक बुद्ध, अग्र श्रावक (प्रधानशिष्य), महाश्रावक, अस्सी महाश्रावक, चक्रवर्ती राजा तथा महा प्रतापी, ऐश्वर्य-सम्पन्न, क्षत्रिय, ब्राह्मण व वैश्य पैदा होते हैं । कपिलवस्तु नगर भी इसी प्रदेश में है; अत: इसी नगर में जन्म-ग्रहण का निश्चय किया। कुल के बारे में चिन्तन करते हुए उन्होंने निश्चय किया-'बुद्ध वैश्य या शूद्र कुल में उत्पन्न नहीं होते; लोकमान्य क्षत्रिय या ब्राह्मण-इन्हीं दो कुल में जन्म लेते हैं। आजकल क्षत्रिय कुल ही लोकमान्य है; अतः इसी कुल में जन्म लूंगा। राजा शुद्धोदन मेरे पिता होंगे।" __ माता के स्वभाव और आचार का विश्लेषण करते हुए उन्होंने सोचा--बुद्धों की माता चंचलता रहित व शराब आदि व्यसनों से मुक्त होती है। लाख कल्प से दान आदि पारमिताएं पूर्ण करने वाली और जन्म से ही अखण्ड पंचशील का पालन करने वाली होती है। देवी महामाया इन गुणों से युक्त है। यह मेरी माता होगी।" किन्तु अब इसकी आयु कितनी अवशिष्ट है, यह विचार करते हुए उन्होंने दस मास सात दिन का आयुष्य शेष पाया। पांच महाविलोकनों को देखकर बोधिसत्त्व ने "मेरे बुद्ध होने का यह समय है।' यह कहते हुए उन देवताओं को सन्तुष्ट किया और उन्हें विदा किया । तुषित् लोक के देवताओं के साथ उस लोक के नन्दन वन में प्रवेश किया। साथी देवता वहां बोधिसत्त्व को यहां से च्युत होकर प्राप्त होने वाली सुगति और पूर्वकृत पुण्य कर्मों के बल पर मिलने वाले स्थानों का स्मरण दिलाते हुए घूमते रहे। वहां से च्युत होकर वे देवी महामाया की कुक्षि में आए। स्वप्न-दर्शन कपिलवस्तु में उस समय सभी नागरिक आषाढ-उत्सव मना रहे थे। पूर्णिमा से सात दिन पूर्व ही देवी महामाया, माला-गन्ध आदि से सुशोभित हो, उत्सव मना रही थी। वह सातवें दिन प्रातः ही उठी। सुगन्धित जल से स्नान किया । चार लाख का महादान दिया। सब प्रकार के अलंकारों से विभूषित हो सुस्वादु भोजन किया। उपोसथ (व्रत) के नियम ग्रहण कर सु-अलंकृत शयनागार में रमणीय पल्यंक पर लेट गई । निद्रित अवस्था में उस समय उसने स्वप्न देखा ....."चार महाराज (दिकपाल) शय्या सहित मुझे उठाकर हिमवन्त प्रदेश में ले गये । साठ योजन के मनशिला नामक शिला पर सात योजन छाया वाले महान् शाल वृक्ष के नीचे मुझे रखकर खड़े हो गये। उन दिकपालों की देवियां तब मुझे अनोतप्त दह पर ले गईं। मनुष्य-मल को दूर करने के लिए स्नान कराया, दिव्य वस्त्र पहनाये, गन्ध-विलेपन किया और दिव्य फूलों से सजाया। उसके समीप ही रजत पर्वत हैं । उसमें स्वर्ग विमान है । वहां पूर्व की ओर सिर कर दिव्य बिछौने पर मुझे लेटा दिया। बोधिसत्त्व श्वेत सुन्दर हाथी बन समीपवर्ती सुवर्ण पर्वत पर विचरे तथा वहां से उतर रजत पर्वत पर चढ़े । उत्तर १. जैन परम्परा के अनुसार भी पूर्व विदेह, पश्चिमविदेह उत्तरकुरु, देवकुरु आदि क्षेत्र जम्बूद्वीप के अंग है। ____ 2010_05 Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड :१ दिशा से होकर उक्त स्थान पर पहुंचे । रूपहली माला के सदृश उनकी सूड में श्वेत कमल था। मधुर नाद करते हुए स्वर्ण विमान में प्रविष्ट हुए। शय्या को तीन प्रदक्षिणा दी और दाहिनी बगल चीरते हुए कुक्षि में प्रविष्ट हुए।" उस दिन उत्तराषाढ़ा नक्षत्र था। देवी महामाया ने दूसरे दिन स्वप्न के बारे में राजा शुद्धोधन को सूचित किया। राजा ने चौसठ प्रधान ब्राह्मणों को बुलाया । उनके सम्मान में भूमि को गोबर से लिपा गया, धान की खीलों से मंगलाचार किया गया और बहुमूल्य आसन बिछाये गये। ब्राह्मण आए और उन सत्कृत आसनों पर बैठे। उन्हें घी, मधु, शक्कर से भावित सुस्वादु खीर स्वर्ण-रजत की थालियों में भर कर और वैसी ही थालियों में ढंककर परोसी गई । नये वस्त्रों व कपिला गौ आदि से उन्हें सन्तर्पित किया गया। आगत ब्राह्मणों की समस्त इच्छाएं पूर्ण कर उनका ध्यान केन्द्रित करते हए राजा ने स्वप्न-फल के बारे में जिज्ञासा की। ब्राह्मणों ने उत्तर दिया .."महाराज ! चिन्ता मुक्त हों। महारानी ने जो गर्भ-धारण किया है, वह बालक है, कन्या नहीं है। आपके पुत्र होगा । यदि वह गार्हस्थ्य में रहा, तो चक्रवर्ती होगा और परिव्राजक बना तो महाज्ञानी बुद्ध होगा।" बोधिसत्त्व के गर्भ में आने के समय समस्त दस सहस्र ब्रह्माण्ड एक प्रकार से कांप उठे। बत्तीस पूर्व शकुन (लक्षण) प्रकट हुए। दस सहस्र चक्रवालों में अनन्त प्रकाश हो उठा। प्रकाश की उस क्रान्ति को देखने के लिए ही मानो अंधों को आँखें मिल गईं, बधिर सुनने लगे, मूक बोलने लगे, कुब्ज सीधे हो गये, पंगु पाँवों से अच्छी तरह चलने लगे। बेड़ी-हथकड़ी आदि बन्धनों में जकड़े हुए प्राणी मुक्त हो गये। सभी नरकों की आग बुझ गई । प्रेतों की क्षुधापिपासा शान्त हो गई । पशुओं का भय जाता रहा। समस्त प्राणियों के रोग शान्त हो गये । सभी प्राणी प्रिय भाषी हो गये । घोड़े मधुर स्वर से हिनहिनाने लगे। हाथी चिंघाड़ने लगे। सारे वाद्य स्वयं बजने लगे। मनुष्यों के हाथों के आभूषण बिना टकराये ही शब्द करने लगे। सब दिशाएं शान्त हो गई । सुखद, मृदुल व शीतल हवा चलने लगी। असमय ही वर्षा बरसने लगी। पृथ्वी से भी पानी निकल कर बहने लगा। पक्षियों ने आकाश में उड़ना छोड़ दिया। नदियों ने वहना छोड़ दिया। महासमुद्र का पानी मीठा हो गया। सारा भूमि-मण्डल पंचरंगे कमलों से ढ़क गया। जल-थल में उत्पन्न होने वाले सब प्रकार के पुष्प खिल उठे। वृक्षों के स्कन्धों में स्कन्ध-कमल, शाखाओं में शाखा-कमल, लताओं में लता-कमल पुष्पित हुए। स्थल पर शिला-तलों को चीर कर सात-सात दण्ड-कमल निकले। आकाश में अधर-कमल उत्पन्न हुए। सर्वत्र पुष्पों की वर्षा हुई। आकाश में दिव्य वाद्य बजे । चारों ओर सारी दस-सहस्री लोक-धातु (ब्रह्माण्ड) माला गुच्छ की तरह, दबाकर बंधे माला-समूह की तरह, सजे-सजाये माला-आसन की तरह, माला पंक्ति की तरह अथवा पुष्प-धूप-गंध से सुवासित खिली हुई चंवर की तरह परम शोभा को प्राप्त हुई। बोधिसत्व के गर्भ में आने के समय से ही उनके और उनकी माता के उपद्रव निवारणार्थ चारों देवपुत्र हाथ में तलवार लिए पहरा देते थे । बोधिसत्त्व की माता को इसके अनन्तर पुरुष में राग-भाव उत्पन्न न हुआ। वह अतिशय लाभ और यश को प्राप्त हो, सुखी व अक्लान्त शरीर बनी रही। वह कुक्षिस्थ बोधिसत्त्व को सुन्दर मणि रत्न में पिरोये हुए पीले धागे की तरह देख सकती थी। बोधिसत्त्व जिस कुक्षि में वास करते हैं, वह चैत्य-गर्भ के समान दूसरे प्राणी के रहने या उपभोग करने योग्य नहीं रहती; अतएव जन्म के एक सप्ताह बाद ही माता की मृत्यु हो जाती है और वह तुषित् लोक में जन्म ग्रहण करती है। जिस प्रकार अन्य स्त्रियाँ दस मास से कम या अधिक बैठी या लेटी प्रसव करती हैं, बोधिसत्त्व की माता 2010_05 Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा ] जन्म और प्रव्रज्या १३६ ऐसा नहीं करती । वह दस मास की पूर्ण अवधि तक बोधिसत्त्व को अपने उदर में धारण कर खड़ी ही प्रसव करती है । यह बोधिसत्त्व की माता की धर्मता है । जन्म देवी महामाया ने गर्भ के पूर्ण होने पर राजा शुद्धोदन के समक्ष पीहर जाने की इच्छा व्यक्त की । राजा ने कपिलवस्तु से देवदह नगर तक का मार्ग समतल कराया और केला, पूर्ण घ्ट, ध्वज, पताका आदि से अच्छी तरह सजाया । रानी को स्वर्ण-शिविका में बैठाकर एक हजार अधिकारियों व बहुत सारे दास-दासियों के साथ विदा किया। दोनों नगरों के बीच, दोनों ही नगर वासियों का लुम्बिनी नामक एक मंगल शाल वन था । वह वन उस समय मूल से शिखर की शाखाओं तक पूर्णतः फूला हुआ था । शाखाओं और पुष्पों के बीच भर गण, नाना पक्षि-संघ मधुर कूजन कर रहे थे । सारा ही लुम्बिनी वन बहुत सञ्जित था । महामाया ने उस वन में घूमने की इच्छा व्यक्त की। अधिकारियों ने उसे तत्काल क्रियान्वित किया । सारा सार्थ वन में प्रविष्ट हुआ । रानी जब एक सुन्दर शाल के नीचे पहुँची तो उसने उसकी शाखा को पड़कना चाहा । शाल शाखा तत्काल मुड़कर देवी के हाथके समीप आ गई। उसने पाथ फैलाकर उसे पकड़ लिया । उसी समय उसे प्रवस - वेदना आरम्भ हुई। चारों ओर कनात का घेरा डाल दिया गया और लोग एक ओर हो गये । शाखा हाथ में लिए खड़े ही गर्भ-उत्थान हो गया । उस समय चारों शुद्ध चित्त महाब्रह्मा सोने का जाल हाथ में लिए वहाँ पहुँचे । बोधिसत्त्व को उस जाल में लेकर माता के सम्मुख रखा और बोले— “देवी ! सन्तुष्ट होओ; तुमने महाप्रतापी पुत्र को जन्म दिया है ।" बोधिसत्त्व अन्य प्राणियों की तरह माता की कुक्षि से गन्दे व मल-विलिप्त नहीं निकलते । वे तो धर्मासन से उतरते धर्म कथिक व सोपान से उतरते पुरुष के समान, दोनों हाथ और दोनों पैर फैलाये खड़े मनुष्य की तरह, मल से सर्वथा अलिप्त, काशी देश के शुद्ध व निर्मल वस्त्र में रखे मणि-रत्न के समान चमकते हुए माता के उदर से निकले । बोधिसत्त्व और उनकी माता के सत्कारार्थ आकाश से दो जल-धाराएं निकलीं और उन्होंने दोनों के शरीर को शीतल किया । ब्रह्माओं के हाथ से चारों महाराजाओं ने उन्हें मांगलिक समझे जाने वाले कोमल मृगचर्म में ग्रहण किया। उनके हाथ से मनुष्यों ने दुकूल की तह में ग्रहण किया । तब वे मनुष्यों के हाथ से छूट कर पृथ्वी पर खड़े हो गये । उन्होंने पूर्व दिशा की ओर देखा । अनेक सहस्र चक्रवाल एक आंगन से हो गये। वहां देवता और मनुष्य गंध-माला आदि से पूजा करते बोले - "महापुरुष ! यहां आप जैसा कोई नहीं है ; विशिष्ट तो कहां से होगा ।" बोधिसत्त्व ने चारों दिशाओं व चारों अनुदिशाओं को ऊपर-नीचे देखा । अपने जैसा किसी को न पाकर उत्तर दिशा में क्रमश: सात कदम गमन किया । महाब्रह्मा ने उस समय उन पर श्वेत छत्र धारण किया; सुयामों ने ताल व्यजन और अन्य देवताओं ने राजाओं के अन्य ककुधभाण्ड हाथ में लिए उनका अनुगमन किया। सातवें कदम पर ठहर कर " मैं संसार में सर्वश्रेष्ठ हूँ" - पुरुष - पुंगवों की इस प्रथम निर्भीक वाणी का उच्चारण करते हुए उन्होंने सिंहनाद किया । बोधिसत्त्व ने माता की कोख से निकलते ही जिस प्रकार इस जन्म में वाणी का उच्चारण किया, उसी प्रकार महौषध जन्म व वेस्सन्तर जन्म में भी किया था । गर्भ धारण के १. खड्ग, छत्र, मुकुट, पादुका और व्यजन । २. महौसध जन्म में बोधिसत्त्व के कोख से निकलते ही देवेन्द्र शक्र आया और चन्दन 2010_05 Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४० आगम और त्रिपिटक एक अनुशीलन [ खण्ड : १ समय की भाँति जन्म के समय भी बत्तीस शकुन प्रकट हुए। लुम्बिनी वन में जिस समय बोधिसत्त्व उत्त्पन्न हुए, उसी समय राहुल-माता देवी, अमात्य छन्न (छन्दक ), अमात्य काल उदाई हस्तिराज आजातीय, अश्वराज कन्थक, महाबोधिवृक्ष और निधि-संभृत चार कलश उत्पन्न हुए । वे कलश क्रमशः गव्यूति, आधा योजन तीन गव्यूति एक योजन की दूरी पर थे । ये सात एक ही समय पैदा हुए। दोनों नगरों के निवासी बोधिसत्त्व को लेकर कपिलवस्तु नगर लौट आये । कालदेवल तापस आठ समाधि से सम्पन्न काल देवल तपस्वी राजा शुद्धोधन के कुल-मान्य थे। एक दिन भोजन से निवृत्त हो मनोविनोद के लिए त्रयस्त्रिश देवलोक में गये । वहाँ विश्राम के लिए बैठे हुए देवताओं से उन्होंने पूछा - " इस प्रकार सन्तुष्ट चित्त होकर आप क्रीड़ा कैसे कर रहे हैं? मुझे भी इसका रहस्य बताओ ।" देवों ने उत्तर दिया- " मित्र ! राजा शुद्धोदन के पुत्र उत्पन्न हुआ है । वह बोधि वृक्ष के नीचे बैठ, बुद्ध हो, धर्मचक्र प्रवर्तित करेगा । हमें उसकी अनन्त बुद्ध-लीला देखने व उसके धर्म सुनने का अवसर मिलेगा । हमारी प्रसन्नता का यही मुख्य कारण है ।" तपस्वी शीघ्र ही देवलोक से उतरे और राजमहलों में पहुँचे । बिछे हुए आसन पर बैठकर राजा से कहा- "महाराज ! आपको पुत्र हुआ है । मैं उसे देखना चाहता हूँ ।" राजा ने उसे सु-अलंकृत कुमार को अपने पास मंगाया और तापस की वन्दना के लिए कदम आगे बढ़ाये । बोधिसत्व के चरण उठकर तापस की जटा में जा लगे 1 बोधिसत्त्व के जन्म में उनके लिए दूसरा वन्दनीय नहीं होता। यदि अनजान में ही बोधिसत्त्व का सिर तापस के चरण पर रखा जाता तो तापस के सिर के सात टुकड़े हो जाते। मुझे अपना विनाश करना योग्य नहीं है, यह सोच तापस आसन से उठे और उन्होंने करबद्ध होकर प्रणाम किया। राजा ने इस आश्चर्य को देखा और अपने पुत्र की वन्दना की । तपस्वी को चालीस अतीत के और चालीस ही भविष्य के अस्सी कल्पों की स्मृति हो सकती थी । यह बुद्ध होगा या नहीं, इस अभिप्राय से तस्वी ने उनके शारीरिक लक्षणों को अच्छी तरह से देखा और यह जानाः अवश्य ही यह बुद्ध होगा | यह अद्भुत पुरुष है । वे मन-ही-मन मुस्कराये । फिर सोचने लगे, बुद्ध होने पर मैं इसे देख सकूंगा या नहीं ? कुछ चिन्तन के बाद ज्ञात हुआ, मैं इसे नहीं देख पाऊँगा । इसके बुद्ध होने के पूर्व ही मैं मृत्यु पाकर अरूप- लोक में उत्पन्न होऊँगा, जहां सौ अथवा सहस्र बुद्धों के अवतरित होने पर भी ज्ञान प्राप्ति नहीं हो सकती । वे अपने दुर्भाग्य पर रो पड़े । तत्रस्थ लोगों ने साश्चर्य इसका कारण पूछा। उनका प्रश्न था “अभी कुछ क्षण पूर्व आप हँसे और फिर रोने क्यों लगे ? क्या हमारे आर्य-पुत्र को कोई संकट होगा ?" सार हाथ में रखकर चला गया । बोधिसत्त्व उसे हाथ में लिए ही बाहर आए । माता ने उस समय उनसे पूछा – “पुत्र ! क्या लेकर आया है?" उन्होंने उत्तर दिया – “अम्म ! औषध ।" इसी हेतु से उनका नाम औषध दारक ही रखा गया । उस औषध को बरतन में रख दिया गया । वह औषध अन्धत्व, बधिरत्व आदि सभी प्रकार के रोगों के उपशमन में प्रयुक्त हुई । औषध राम-बाग थी; अतः महौषध नाम से विश्रुत हो गई । बोधिसत्त्व का नामकरण इसीलिए महौषध हो गया । --- जातक, सं० ५४६ के आधार पर । वेस्सन्तर जन्म में "माँ ! घर में कुछ है ? दान दूंगा ।" यह कहते हुए ही बोधिसत्त्व माता की कोख से निकले । माता ने “पुत्र ! तू धनवान कुल में पैदा हुआ है" यह कहते हुए 2010_05 Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा] जन्म और प्रव्रज्या १४१ तपस्वी ने गम्भीरता और दृढ़ता के साथ उत्तर दिया---"इनको संकट नहीं होगा। ये तो निःसन्देह बुद्ध होंगे।" अगला प्रश्न हुआ--"तो फिर आप किस लिए रो रहे हैं ?" तपस्वी के शब्दों में अधीरता थी। उन्होंने कहा- "इस प्रकार के पुरुष को बुद्ध हुए मैं नहीं देख सकूँगा।" मेरे पारिवारिकों में से कोई भी इन्हें बुद्ध हुआ देखेगा या नहीं, जब तपस्वी ने यह चिन्तन किया तो उन्हें ज्ञात हुआ कि उनका भानजा नालक इसके योग्य है । वे तत्काल अपनी बहिन के घर आये और उससे पूछा-नालक कहां है ?" बहिन ने उत्तर दिया--"आर्य । घर पर ही है।" तपस्वी ने कहा --"उसे बुला।" नालक के पास आने पर तपस्वी बोले-'बेटा ! राजा शुद्धोदन के घर पुत्र उत्पन्न हुआ है । वह बुद्ध-अंकुर है । पैंतीस वर्ष बाद वह बुद्ध होगा और तू उसे देख पायेगा । तू आज ही प्रवजित हो जा।" "मैं सत्तासी करोड़ धन वाले कुल में उत्पन्न हुआ हूँ, तो भी मामा मुझे अनर्थ में संलग्न नहीं रहे हैं", यह सोचते हुए उसने उसी समय बाजार से काषाय वस्त्र और मिट्टी का पात्र मंगाया। सिर दाढ़ी को मुड़ाया और काषाय वस्त्र पहने । “लोक में जो उत्तम पुरुष है, उसी के नाम पर मेरी यह प्रब्रज्या है"--यह कहते हुए उसने बोधिसत्त्व की ओर अंजलिबद्ध हो पाँचों अंगों से वंदना की। पात्र को झोली में रखा, उसे कंधे पर लटकाया और हिमालय में प्रवेश कर श्रमण-धर्म का पालन करने लगा। नालक की अगली कथा है कि तथागत के बुद्ध हो जाने पर वह उनके पास आया। उनसे ज्ञान सुना और फिर हिमालय में चला गया। वहाँ अर्हत्-पद को प्राप्त कर उत्कृष्ट प्रतिपदा (सर्व श्रेष्ठ मार्ग) पर आरूढ़ हुआ। सात मास तक ही जीवित रहा । सुवर्ण पर्वत के पास निवास करता हुआ वह खड़ा-खड़ा उपाधिरहित-निर्वाण को प्राप्त हो गया। भविष्य-प्रश्न पाँचवें दिन बोधिसत्त्व को सिर से नहलाया गया। नामकरण संस्कार किया गया। राज-भवन को चार प्रकार के गंधों से लिपवाया गया। खीलों सहित चार प्रकार के पुष्प बिखेरे गये। निर्जल खीर पकाई गई । राजा ने तीनों वेदों के पारंगत एक सौ आठ ब्राह्मणों को निमंत्रित किया। उनमें राम, ध्वज, लक्ष्मण, मंत्री, कौण्डिन्य, भोज, सुयाम और सुदत्त, ये आठ षड-अंग जानने वाले देवज्ञ ब्राह्मण थे। इन्होंने ही मंत्रों की व्याख्या की। गर्भसमय का स्वप्न-विचार भी इन्हीं ब्राह्मणों ने किया था । उन्हें राज-भवन में बैठाया गया, सुभोजन कराया गया और सत्कार पूर्वक बोधिसत्त्व के लक्षणों के बारे में पछा गया"भविष्य क्या है?'--'आठ ब्राह्मणों में से सात ने दो अंगुलियां उठा कर दो प्रकार का भविष्य उनकी हथेली को अपनी हथेली पर रखा और हजार की थैली रखवाई। --जातक, सं०५४७ के आधार पर । बुद्ध के महौषध नामकरण की जैसी अनुश्रुति है, कुछ वैसी ही जैन परम्परा में तार्थङ्कर ऋषभ के सम्बन्ध से ईक्ष्वाक वंश के नाम- निर्धारण की चर्चा है। जब ऋषभ एक वर्ष के थे, तभी उन्होंने ईक्षु लेने के लिए सम्मुखीन इन्द्र की ओर हाथ बढ़ाया। इन्द्र ने वह ईक्ष उनके हाथ में दिया। ऋषभ के उस ईक्षु-भक्षण से (आकु-भक्षणार्थे) वंश का नाम ईक्ष्वाकु पड़ा। --आचार्य श्री तुलसी, भरत-मुक्ति; मुनि महेन्द्र कुमार 'प्रथम' भरत-मुक्ति : एक आत्माराम एण्ड सन्स, १६६४, पृ० १३ । ____ 2010_05 Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [ खण्ड : १ कहा - " ऐसे लक्षणों वाला यदि गृहस्थ रहता है तो चक्रवर्ती राजा होता है और यदि प्रव्रजित होता है तो बुद्ध ।" और फिर उन्होंने चक्रवर्ती की श्री सम्पत्ति का भी वर्णन किया । उनमें सबसे कम अवस्था वाले कौण्डिन्य गोत्रीय तरुण ब्राह्मण ने बोधिसत्त्व के विशिष्ट लक्षणों को देख एक ही अंगुली उठाई और दृढ़तापूर्वक एक ही प्रकार का भविष्य कहा -" इस के गृहस्थ में रहने की कोई सम्भावना नहीं है । यह महाज्ञानी बुद्ध होगा । यह अधिकारी, अन्तिम जन्म-धारी, प्रज्ञा में अन्य जनों से बढ़ा-चढ़ा है; अतः ऐसे पुरुष के गार्हस्थ्य में रहने की कोई संभावना नहीं है । निश्चित ही यह बुद्ध होगा ।" राजा ने प्रश्न किया - "मेरा पुत्र क्या देखकर प्रव्रजित होगा ?" उत्तर मिला - "चार पूर्व लक्षण ?" राजा ने पुनः पूछा - "कौन-कौन से चार लक्षण ?” ब्राह्मण ने कहा- “वृद्ध, रोगी, मृत और प्रव्रजित । " 1 राजा ने तत्काल कठोर आदेश दिया- "चारों ही प्रकार के लक्षण मेरे पुत्र के पास न आने पायें ; ऐसा प्रबन्ध होना चाहिए। मुझे इसके बुद्ध बनने से कोई प्रयोजन नहीं है । मैं तो इसे दो सहस्र द्वीपों से घिरे चारों महाद्वीपों का आधिपत्य करते हुए तथा छत्तीस योजन परिधि वाली परिषद् के बीच व मुक्त आकाश में विचरते देखना चाहता हूँ ।" राजा ने चारों दिशाओं में तीन-तीन कोश की दूरी पर कड़ा पहरा बिठा दिया और उन्हें निर्देश कर दिया, चारों ही प्रकार के व्यक्ति इस सीमा में प्रवेश न करें । उस दिन उस मांगलिक स्थान पर अस्सी हजार ज्ञाति-सम्बन्धियों ने प्रतिज्ञा की -- "कुमार चाहे बुद्ध हो या राजा, हम इसे अपना एक-एक पुत्र देंगे । यदि वह बुद्ध होगा, तो क्षत्रिय साधुओं से व राजा होगा, तो क्षत्रिय कुमारों से पुरस्कृत तथा परिवारित होकर विचरेगा । " एक चमत्कार शुद्धोदन ने बोधिसत्त्व की परिचर्यार्थ उत्तम रूप सम्पन्न व निर्दोष धाइयां नियुक्त कीं । बोधिसत्त्व अनन्त परिवार तथा शोभा व श्री के साथ बढ़ने लगे । एक दिन क्षेत्रमहोत्सव था । सभी लोगों ने नगर को देव - विमान की तरह अलंकृत किया। सभी दास, प्रेष्य आदिनये वस्त्र पहिन व गंध-माला आदि से विभूषित हो राजमहल में एकत्र हुए। राजा के एक हजार हलों की खेती थी । एक कम आठ सौ रुपहले हल थे । राजा का हल रत्न- सुवर्ण जटित था। बैलों के सींग और रस्सी कोड़े भी सुवर्ण - खचित ही थे । राजा पुत्र व पूरे दल-बल के साथ वहाँ पहुँचा। वहीं विशाल व सघन छाया वाला एक जामुन का वृक्ष था। उसके नीचे कुमार की शय्या बिछाई गई । ऊपर स्वर्ण- तार- खचित चंदवा तनवाया गया। कनात से घेर कर पहरा लगा दिया गया । सब तरह से अलंकृत होकर अमात्यगण सहित राजा हल जोतने के स्थान पर गया । उसने सुनहले हल को पकड़ा, अमात्यों ने एक कम आठ सौ रुपहले हलों को और कृषकों ने दूसरों हलों को । सभी व्यक्ति हलों को जोतने लगे । राजा भी उन सब के साथ इस पार से उस पार व उस पार से इस पार आ-जा रहा था । समारोह को देखने के लिए बड़ी भीड़ जमा हो गई थी । बोधिसत्त्व की परिचर्या में बैठी सभी धाइयां भी समारोह देखने के लिए कनात से बाहर चली आईं। बोधिसत्त्व अपने पास किसी को बैठे न देख, शीघ्रता से उठे । श्वास-प्रश्वास का ध्यान दिया और प्रथम ध्यान में लीन हो गये । उस समय सभी वृक्षों की छाया घूम गई थी, किन्तु, बोधिसत्त्व जिस वृक्ष के नीचे बैठे थे, उसकी छाया गोलाकर ही रही। अचानक धाइयों को उनका ध्यान आया । वे 2010_05 Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा जन्म और प्रव्रज्या १४३ शीघ्र ही कनात में दौड़ आई और बोधिसत्त्व को बिछौने पर आसन साधे बैठे देखा । वे बहुत चमत्कृत हुई। दौड़ कर राजा के पास गईं और राजा को सारा वृत्त सुनाया। राजा भी शीघ्र ही वहाँ आया और उस चमत्कार को देखकर विस्मित हुआ। तत्काल वन्दना करते हुए बोला-"पुत्र ! तुझे यह मेरी दूसरी वन्दना है।" बोधिसत्त्व क्रमशः सोलह वर्ष के हुए। राजा ने उनके लिए तीनों ही ऋतुओं के उपयुक्त तीन महल बनवाये । एक नौ मंजिल का था, एक सात मंजिल का और एक पाँच मंजिल का। उनके मनोरंजन के लिए चालीस हजार नर्तिकाओं की व्यवस्था की गई। वे देवताओं की भाँति अप्सराओं से घिरे, अलंकृत नर्तकियों से परिवृत और प्रशिक्षित महिलाओं द्वारा वादित वाद्यों से सेवित महासम्पत्ति का उपभोग करते हुए ऋतुओं के क्रम से प्रासादों में रह रहे थे । राहुल माता देवी उनकी अग्र-महिषी थी। शिल्प-प्रदर्शन एक दिन ज्ञाति-जनों में चर्चा चली- "सिद्धार्थ क्रीड़ा में ही रत रहता है। किसी कला के अध्ययन में रुचि नहीं रखता। कभी युद्ध-प्रसंग छिड़ने पर वह क्या करेगा?' यह चर्चा राजा तक पहुँची। उसने बोधिसत्त्व को अपने पास बुलाया और कहा-."तात ! किसी भी कला को न सीख कर तू क्रीड़ा में ही लीन रहता है । क्या इसे ही उचित समझता है ?'' बोधिसत्त्व ने सगर्व उत्तर दिया-"मेरे लिए कोई शिल्प-शिक्षण अवशिष्ट नहीं है। आप नगर में उद्घोषणा करवा दें कि आज से सात दिन मैं शिल्प-प्रदर्शन करूँगा।" राजा ने वैसा ही किया। नियत समय व नियत स्थान पर सहस्रों की परिषद् एकत्रित हो गई । साठ हजार क्षण वेध, बाल वेध आदि के ज्ञाता धनुर्धारी भी विशेष निमंत्रण पर वहाँ आये । बोधिसत्व ने कवच धारण कर कंचुक में प्रवेश किया। सिर पर उष्णीष पहना । मेंढ़े के सींग वाले धनुष में मूंगे के रंग की डोरी बांधी । पीठ पर तूणीर कसा। बाँये कंधे पर तलवार लटकाई और वज्र की नोंक वाले तीर को नाखून पर घूमाते हुए वे उस परिषद के बीच उपस्थित हए । जनता ने अपार हर्ष-ध्वनि से उनका स्वागत किया। बोधिसत्त्व ने राजा से कहा ---"उपस्थित धनुर्धारियों में से चार सिद्धहस्त क्षण-वेधी, बाल-वेधी. शब्द-वेधी व शर-वेधी धनुर्धारियों को मेरे समक्ष उपस्थित करें।" राजा ने वैसा ही किया। बोधिसत्व ने समचतुरस्र एक मण्डप बना कर उसके चारों कोनों पर उन चारों धनुर्धारियों को खड़ा किया। एक-एक धनुर्धारी को तीस-तीस हजार तीर दिये गए और प्रत्येक को एकएक कुशल सहयोगी भी दिया गया । बोधिसत्त्व मण्डप के बीच खड़े हुए। वे वज्रमुख नोक वाला तीर अपने नाखून पर घूमा रहे थे। उन्होंने कहा-~-"महाराज ! ये चारों धनुर्धारी एक साथै तीर चला कर मुझे बींधे । मेरे पर इनके तीरों का कोई असर नहीं होगा।" चारों ही धनुर्धारियों ने सगर्व राजा से कहा--"महाराज ! हम लोग क्षण-वेधी, बाल-वेधी, शब्द-वेधी और शर-वेधी हैं ; अतः आप कुमार को इस कार्य से उपरत करें। कुमार तरुण हैं । हम इन्हें नहीं बींधेगे।" बोधिसत्त्व ने उसका प्रतिवाद करते हुए दृढ़ता से कहा - "यदि तुम्हारे में सामर्थ्य है तो मुझे बींध डालो। मैं तुम्हें चुनौती देता हूँ।" धनुर्धारियों का स्वाभिमान फड़क उठा। उन्होंने एक साथ तीर छोड़े। बोधिसत्त्व ने उन चारों के बाण बीच ही में काट डाले। उन्होंने अपने चारों ओर के बाणों सा बना डाला। उससे चारों के बाणों का असर उन पर नहीं होता था, अपितु बोधिसत्त्व के बाणों से वे चारों त्रसित हो रहे थे। चारों के सारे तीर समाप्त हो गये । बोधिसत्त्व तीरों ____ 2010_05 Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड :१ के घर को बिना हानि पहुँचाये छलांग भर कर राजा के पास आ खड़े हुए । जनता ने विपुल हर्ष-ध्वनि से उनका स्वागत किया तथा उपहार में बहुमूल्य वस्त्र व आभूषणों का ढेर लगा दिया। वह धन अठारह करोड़ था। राजा इस प्रदर्शन से फूला नहीं समाया । उसने बोधिसत्त्व का वर्धापन किया और उस विद्या का नाम तथा उसके ज्ञाता के बारे में पूछा। बोधिसत्त्व ने उत्तर दिया- "इस विद्या का नाम वाणावरोधिनी है और इसका ज्ञाता जम्बूद्वीप मे मेरे अतिरिक्त दूसरा नहीं है ।" राजा ने निर्देश किया-"पुत्र ! दूसरा प्रदर्शन भी करो।" बोधिसत्त्व ने कहा-'देव ! ये चारों धनुर्धारी चारों कोनों पर खड़े रहकर मुझे नहीं बींध सके, किन्तु, मैं इन चारों को चारों कोनों में खड़े रहने पर भी एक ही बाण से बींध दूंगा।" - धनुर्धारियों ने खड़े होने का साहस नहीं किया ; अतः चारों कोनों में केले के चार स्तम्भ खड़े किये गए । बाण के पुंख में लाल रंग का धागा पिरोया और एक खम्भे की ओर उसे छोड़ा। तीर ने उस स्तम्भ को बींध डाला। वह वहां से स्वतः दूसरे तीसरे, और क्रमशः चौथे स्तम्भ को बींधता हुआ पहले स्तम्भ में से निकल कर बोधिसत्त्व के हाथ में आ गया। केले के स्तम्भों में धागा पिरोया गया। चक्र बींधने की इस विद्या के सफल प्रयोग पर जनता ने सहस्र घोषों के साथ बोधिसत्त्व का वर्धापन किया। बोधिसत्त्व ने इस प्रकार शर-यष्टि, शर-रज्जु तथा शर-वेणी का प्रदर्शन किया। शरप्रासाद, शर-म.डप, शर-सोपान व शर-पुष्करिणी की रचना की। शर-पद्म खिलाया। शरवर्षा बरसाई । बारह प्रकार की असाधारण विद्याओं का प्रदर्शन करने के अनन्तर उन्होंने सात मोटी-मोटी वस्तुओं को चीर डाला। उनमें आठ अंगुल मोटा अंजीर का फलक, चार अंगुल मोटी चट्टान, दो अंगुल मोटा ताम्बे का पत्ता, एक अंगुल मोटा लोहे का पत्ता चीर डाला। एक साथ बंधे हुए सौ फलकों को भी चीर डाला । बोधिसत्त्व के इस शिल्प-प्रदर्शन पर सभी सम्बन्धियों की आशंकाएं दूर हो गई। चार पूर्व लक्षण बोधिसत्त्व के मन में एक दिन उद्यान-विहार की इच्छा जागृत हुई। उन्होंने सारथी से रथ जोतने के लिए कहा। सारथी बहुत दक्ष था। उसने तत्काल उत्तम रथ को अलंकृत किया, कमल-पत्र सदृश देशीय चार मांगलिक अश्वों को उममें जोता और बोधिसत्त्व को सूचना दी। बोधिसत्त्व देव-विमान सदश उस रथ पर आरूढ़ हो कर उद्यान की ओर चले। देवताओं ने सोचा, सिद्धार्थ-कुमार के बुद्धत्त्व प्राप्त करने का समय समीप है; अतः हम इनके समक्ष पूर्व लक्षण प्रस्तुत करें। उन्होंने जरा से जर्जरित, विदीर्ण-दन्त, पक्व-केश, झुका हुआ शरीर, हाथ में यष्टि व कम्पित-वपू एक देव-पत्र को बोधिसत्त्व व सारथी के समक्ष प्रस्तुत किया। उसे वे दो ही व्यक्ति देख सकते थे। बोधिसत्त्व ने सारथी से तत्काल पूछा - "सौम्य! यह पुरुष कौन है ? इसका शरीर और केश दूसरों से भिन्न है।" सारथी ने उत्तर दिया- "देव ! यह बूढ़ा हो चुका है।" बोधिसत्त्व ने सहज गंभीरता से पूछा-"बूढ़ा क्या होता है ?" सारथी ने पुनः उत्तर दिया--"देव ! यह जर्जर-काय हो चुका है ; अतः बूढ़ा कहा जाता है। इसे अब बहुत दिन नहीं जीना है।" __ बोधिसत्त्व का मानस ऊहापोह से भर आया। उन्होंने पूछा --"तो क्या मैं भी बूढ़ा होऊँगा? क्या यह अनिवार्य धर्म है ?" ____ 2010_05 Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा ] जन्म और प्रव्रज्या १४५ सारथी ने विनम्रता से उत्तर दिया “देव ! आप, हम और सभी लोगों के लिए बुढ़ापा अनिवार्य है ।" बोधिसत्त्व बोले -" तो भद्र ! उद्यान - भूमि में जाना स्थगित करो । यहीं से रथ को मोड़ो और अन्तःपुर की ओर लौट चलो।" सारथी ने तत्काल रथ मोड़ा और अन्तःपुर पहुँच गये । बोधिसत्व उदासीन होकर पुनः पुनः सारथी के उत्तर पर चिन्तन करने लगे । शीघ्र ही महलों में लौट आने से राजा को इस बारे में जिज्ञासा हुई । तत्काल उत्तर मिला - "मार्ग में कुमार ने एक वृद्ध को देखा था । राजा के मुँह से आह निकली - " भविष्य वक्ताओं ने वृद्ध देखकर ही प्रव्रजित होना बताया था; अतः पुत्र के लिए शीघ्र ही नृत्य आदि की व्यवस्था करो । भोग-लिप्त रहने से प्रव्रज्या का विचार हट जायेगा । चारों दिशाओं में आधे योजन तक पहरा और बढ़ा दो तथा सतकता के लिए सभी प्रतिहारों को विशेष सूचित करो। " बोधिसत्त्व एक दिन फिर उद्यान जा रहे थे। उन्होंने मार्ग में देवताओं द्वारा निर्मित था व दूसरों के द्वारा उठाया, देखा और सारथी से कहा। स्वर भी दूसरों से मेल नहीं एक रोगी को देखा। वह अपने ही मल-मूत्र से सना हुआ बैठाया तथा लेटाया जा रहा था । बोधिसत्त्व ने दूर से उसे "यह पुरुष कौन है ? इसकी आंखें भी दूसरों की तरह नहीं है खाता है ।" सारथी ने कहा - "देव ! यह रोगी है; अतः इसका शरीर शिथिल हो चुका है । अब वह सम्भवंतः उठ न सके ।" बोधिसत्त्व ने कहा--"तो क्या मैं भी व्याधिधर्मा हूँ ? व्याधि सभी के लिए अनिवार्य है ?" सारथी ने कहा--"देव ! इसका कोई अपवाद नहीं हो सकता ।" बोधिसत्त्व का मन विराग से भर गया । उन्होंने रथ को वापिस मोड़ा और बिना घूमे ही वे महलों में लौट आए। राजा ने उनकी उदासीनता का पता लगाया और पहरे को चारों ओर पौन योजन तक विशेष रूप से बढ़ा दिया । f किसी एक विशेष दिन बोधिसत्त्व फिर घूमने के लिए चले । मार्ग में उन्होंने देवनिर्मित एक दृश्य देखा। वहां बहुत सारे व्यक्ति एकत्रित होकर एक शिविका (अर्थी) बना रहे थे । बोधिसत्त्व ने उसके बारे में जिज्ञासा की । सारथी ने बताया – “कोई मनुष्य मर गया है । उसकी अन्त्येष्टि के लिए उसके पारिवारिकों, मित्रों व अन्य व्यक्तिओं द्वारा तैया रिया की जा रही हैं ।" बोधिसत्त्व ने वहां चलने का संकेत किया । सारथी उन्हें वहां ले आया । उन्होंने मृतक को देखा और पूछा - "मृत्यु क्या चीज है ?" सारथी ने उत्तर दिया- "देव ! अब इसका माता-पिता, ज्ञाति स्वजन, मित्र आदि से कोई सम्पर्क नहीं रहा । न यह उन्हें देख सकेगा और न इसे वे देख सकेंगे । इसका सबसे सम्बन्ध टूट गया है ।" बोधिसत्त्व ने पूछा - "क्या मैं भी मरणधर्मा हूँ ? मेरी भी मृत्यु अनिवार्य है ?" सारथी ने कहा- -" इसका कोई भी अपवाद नहीं हो सकता । " बोधिसत्त्व ने उदासीनता के साथ कहा - " अब मुझें घूमने नहीं जाना है । वापिस महलों की ओर चलो।" 2010_05 Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड : १ राजा को सारी स्थिति का पता चला। उसे चिन्ता हुई। बोधिसत्त्व की विराग से रक्षा के निमित्त पहरा एक योजन तक बढ़ा दिया गया और कठोर कर दिया गया। भोगसामग्री विशेष रूप से बढ़ा दी गई। बोधिसत्त्व फिर एक दिन उद्यान जा रहे थे। देवताओं द्वारा निर्मित संन्यासी को उन्होंने देखा। वह मुण्डित-सिर व काषाय वस्त्र पहने हुआ था । बोधिसत्त्व ने उसे देख कर सारथी से पूछा- "सौम्य ! यह पुरुष कौन है ? इसका सिर मुण्डित है तथा वस्त्र भी दूसरों से भिन्न है।" सारथी ने कहा-"देव ! यह प्रवृजित है।" बोधिसत्त्व ने पूछा- सौम्य ! मनुष्य प्रवजित क्यों होता है ?" सारथी ने सविस्तार उत्तर दिया-"देव ! यह धर्माचरण के लिए, शान्ति पाने के लिए, अच्छे कर्म करने के लिए, पुण्य-संचय के लिए, अहिंसा-पालन के लिए व भूतों पर अनुकम्पा करने के लिए प्रवजित हुआ है।" बोधिसत्त्व सारथी के साथ तत्काल वहाँ आये । उस प्रवजित को गौर से देखा। उस से नाना प्रश्न पूछे। प्रव्रज्या के गुणों के बारे में छान-बीन की। बोधिसत्त्व को प्रव्रज्या में रुचि उत्पन्न हुई। वे इस बार तत्काल अन्तःपुर नहीं लौटे, अपितु उद्यान गये । दीघ भाणकों' का मत है कि बोधिसत्त्व ने चारों पूर्व लक्षणों को एक ही दिन देखा। पुत्र-जन्म बोधिसत्त्व दिन भर उद्यान में आमोद-प्रमोदकरते रहे । सुन्दर पुष्करिणी में स्नान किया। संध्या के समय अपने को आभूषित कराने के उद्देश्य से सुन्दर शिला-पट पर बैठे। उनके परिचारक नाना रंग के दुशाले, नाना आभूषण, माला, सुगन्धित आदि लेकर चारों ओर से उन्हें घेर कर खड़े हो गये । इन्द्र का सिंहासन उस समय तप्त हुआ। "मुझे इस सिंहासन से कौन उतारना चाहता है"-इस तरह उसने आक्रोश पूर्वक सोचा। उसने तत्काल बोधिसत्त्व के अलंकृत होने का समय जाना । वह शान्त हो गया और उसने विश्वकर्मा को बुलाकर कहा"सौम्य ! आज आधी रात के समय सिद्धार्थ कुमार महाभिनिष्क्रमण करेंगे। आज का उनका यह अन्तिम शृंगार है । उद्यान में जाकर उन्हें दिव्य अलंकारों से अलंकृत करो।" विश्वकर्मा देव-बल से तत्काल वहां पहुंचा। अपना वेष बदला और साज-सज्जा कराने वाले परिचारक का रूप धारण किया। परिचारिक के हाथ से दुशाला ले, बोधिसत्त्व के सिर पर बांधने लगा। हाथ के स्पर्श से ही वे जान गये, यह मनुष्य नहीं हैं, कोई देव-पुत्र है । पगड़ी से मस्तक को वेष्टित करते ही मस्तक पर मुकुट के रत्नों की भांति एक सहस्र दुशाले उत्पन्न हो गये । इसी तरह दस बार बाँधने पर दस सहस्र दुशाले उत्पन्न हो गये। सबसे बड़े दुशाले का भार श्यामा-लता के पुष्प के तुल्य व दूसरों का भार तो कुतुम्बक पुष्प के तुल्य था। बोधिसत्त्व का मस्तक किंजल्क-युक्त कुय्यक फूल के समान था । सब तरह से आभूषित हो जाने पर तालज्ञ ब्राह्मणों ने अपनी-अपनी प्रतिभा का प्रदर्शन किया। सूतमागधों के नाना मांगलिक वचनों व स्तुति-घोषों से सत्कृत होते हुए वे सर्वालंकार विभूषित उत्तम रथ पर आरूढ़ हुए। राहुलमाता ने उसी समय पुत्र-प्रसव किया। राजा शुद्धोदन को जब यह संवाद ज्ञात हुआ तो उसने अपने अनुचरों को निर्देश दिया -"उद्यान में सैर कर रहे मेरे पुत्र को यह सुखद संवाद सुनाओ।' अनुचर दौड़े-दौड़े वहाँ आये और बोधिसत्त्व को वह शुभ संवाद १. दीघ निकाय कन्ठस्थ करने वाले पुराने आचार्यों को दीर्घ भाणक, कहा जाता है। ___ 2010_05 Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४७ इतिहास और परम्परा जन्म और प्रव्रज्या सुनाया। बोधिसत्त्व के उद्गार निकले-"राहु-बन्धन पैदा हुआ है।" अनुचर पुनः राजा के पास पहुँचे । राजा ने बोधिसत्त्व की प्रतिक्रिया को जानना चाहा। अनुचरों ने सारा वृत्त सुनाया। राहु शब्द के आधार पर पौत्र का राहल कुमार नामकरण किया गया। बोधिसत्त्व नगर में प्रविष्ट हुए। क्षत्रिय-कन्या कृशा गौतमी उस समय प्रासाद पर बैठी नगरावलोकन कर रही थी। नगर-परिक्रमा करते हए बोधिसत्व की रूप-शोभा को देखकर बहत ही प्रसन्नता व्यक्त की तथा हर्ष से उसने उदान' कहा- वे माता-पिता परम शान्त हैं, जिनके इस प्रकार का पुत्र है। वह नारी परम शान्त है, जिसके इस प्रकार का पति है।"वह उदान बोधिसत्त्व के कानों में पडा। उनका चिन्तन उस पर केन्द्रित हो गया। वे मोचने लगे-किसके शान्त होने पर हदय परम शान्त होता है ? रागादि क्लेशों से विरक्त होते हु हुए उन्होंने गहरा चिन्तन किया-"राग, द्वेष और मोह की अग्नि के शान्त होने पर परम शान्ति होती हैं । अभिमान, मिथ्या विचार (दृष्टि) आदि सभी मलों के उपशमन होने पर परम शान्ति होती हैं । यह मुझे प्रिय वचन सुना रही है । मैं निर्वाण को ढूंढ़ रहा हूँ। आज ही मुझे गृह-वास छोड़ प्रवजित हो, निर्वाण की खोज में लगना चाहिए । उन्होंने अपने गले से एक लाख मूल्य का मोती का हार उतारा और गुरु-दक्षिणा के रूप में कृशा गौतमी के पास भेज दिया। हार को पाकर वह बहुत प्रसन्न हुई। उसने सोचा - सिद्धार्थ कुमार ने मेरे प्रेम में आकर्षित होकर यह उपहार भेजा है। गृह-त्याग ___ बोधिसत्त्व महलों में लौट आए । सुकोमल शय्या पर लेट गये। उसी समय सब तरह से अलंकृत, नृत्य-गीत आदि में दक्ष अप्सरा-तुल्य परम सुन्दरी स्त्रियों ने विविध वाद्यों के साथ कुमार को घेर लिया। उन्हें परम प्रसन्न करने के लिए नृत्य, गीत व वाद्य आरम्भ किये। बोधिसत्त्व रागादि मलों से विरक्त चित्त थे; अतः नृत्य आदि में उनकी कोई रुचि नहीं हुई। वे शीघ्र ही सो गये । नर्तिकाओं ने सोचा-अब हम कष्ट क्यों उठायें; जबकि जिनके लिए हम कर रही हैं, वे स्वयं ले गए हैं। वे सभी साज-समान के साथ उसी कक्ष में लेट गई । सुगन्धित तेल से परिपूर्ण दीप जल रहे थे । बोधिसत्व जग पड़े। पल्यंक पर आसन मारकर बैठ गये। उनकी दृष्टि कक्ष में लेटी उन स्त्रियों पर पड़ी। बोधिसत्त्व ने उस दृश्य को गम्भीरता से देखा। कुछ स्त्रियों के मुंह से लार और कफ बह रहा था; अतः शरीर भींग गया था। कुछ एक दांत पीस रही थीं; कुछ एक खाँस रही थीं तथा कुछ एक बर्रा रही थीं। कुछ एक के मुंह खुले हुए थे तथा कुछ एक के वस्त्र इतने अस्त-व्यस्त हो गए थे कि दर्शक उन्हें देख नहीं पाता था। स्त्रियों की इस सविकार प्रवृत्ति को देखकर वे और भी अधिक दृढ़ता-पूर्वक काम-भोगों से विरक्त हो गये। उस समय उन्हें वह सुअलंकृत महाभवन सड़ती हुई नाना लाशों से पूर्ण कच्चे श्मशान की भाँति प्रतीत हो रहा था। उन्हें तीनों ही भवन जलते हुए घर की तरह दिखलाई पड रहे थे। उनके मुंह से अनायास ही "हा! कष्ट, हा ! शोक" आह निकल पड़ी। उनका चित्त प्रव्रज्या के लिए अत्यन्त आतुर हो गया। मुझे आज ही गृह-त्याग करना है, इस दृढ़ निश्चय से वे पल्यंक से उतरे और द्वार के समीप जाकर पछा--"कौन है?" ड्योढ़ी में सिर रखकर सोये हुए छन्न ने कहा-"आर्यपुत्र ! मैं छन्दक हूँ।" बोधिसत्त्व ने कहा—“आज मैं अभिनिष्क्रमण करना चाहता हूँ। मेरे लिए एक घोड़ा तैयार करो।" १. आनन्दोल्लास से निकली वाक्यावलि । 2010_05 Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन खण्ड : १ छन्दक अश्व की साज-सज्जा का सामान ले अश्वशाला में गया । सुगन्धित तेल के जलते दीपों के प्रकाश में बेल-बूटे वाले चंदवे के नीचे रमणी भूमि पर खड़े अश्वराज कथक को देखा। छन्दक ने उसे ही उपयुक्त समझा। सब तरह से उसे सजाया और अच्छी तरह से कसा। कन्थक के मन में सहज ही विचार आया, आज की तैयारी अन्य दिनों से भिन्न है। मेरे आर्यपुत्र उद्यान-यात्रा आदि में न जाकर महाभिनिष्क्रमण के इच्छुक होंगे। वह प्रसन्न चित्त हो हिनहिनाया। वह शब्द सारे शहर में फैल जाता, किन्तु, देवताओं ने उसे रोक लिया, किसी को सुनने नहीं दिया। छन्दक जैसे ही कन्थक को तैयार करने के लिए गया बोधिसत्त्व पुत्र की देखने की अभिलाषा से अपने आसन को छोड़ राहुल-माता के वास-स्थान की ओर गये । शयनागार का द्वार खोला। वहाँ सुगन्धित तेल-प्रदीप जल रहे थे। राहुल-माता बेला, चमेली आदि अम्मन भर फूलों से सजी शैय्या पर पुत्र के सिर पर हाथ रखकर सो रही थीं। बोधिसत्त्व ने देहली में खड़े होकर उन दोनों को देखा। वे राहुल को लेना चाहते थे। किन्तु, दूसरे ही क्षण उनके मन में विचार आया, “यदि मैं देवी के हाथ को हटाकर अपने पुत्र को लूंगा तो देवी जग पड़ेगी। मेरे अभिनिष्क्रमण में यह विघ्न होगा। बुद्ध होने के पश्चात् ही यहाँ आकर पुत्र को देखूगा।" प्राचीन सिंहल भाषा की जातक कथा के अभिमतानुसार राहुल कुमार की अवस्था उस समय एक सप्ताह की थी। __ बोधिसत्त्व महलों से उतर आए । कन्थक के पास आये और उससे कहा-"तात ! कन्थक ! आज तू मुझे एक रात में तार दे। मैं तेरे इस सहयोग से बुद्ध होकर देवताओं सहित सारे लोक को ताऊँगा।' वे तत्काल उछले और कन्थक की पीठ पर सवार हो गये । कन्थक गर्दन से पूंछ तक अठारह हाथ लम्बा था। महाकाय, बल-वेग-सम्पन्न वधुले हुए शंख सदृश श्वेत वर्ण का था। यदि वह हिनहिनाता या पैर खटखटाता तो वह शब्द सारे नगर में फैल जाता। वह उस समय भी हिनहिनाया, किन्तु, देवों ने उसके शब्द को वहीं रोक लिया। जहाँ-जहाँ घोड़े के पैर पड़े वहाँ-वहां देवों ने अपनी हथेलियाँ रख दीं। शब्द नहीं हुआ। निःशब्द स्थिति में बोधिसत्त्व ने वहाँ से प्रस्थान किया। छन्दक ने कथक की पूंछ पकड़ी। तीनों प्राणी आधी रात के समय महाद्वार के समीप पहुंचे। राजा को यह आशंका थी कि बोधिसत्व कहीं रात-बिरात नगर-द्वार को खोलकर अभिनिष्क्रमण न कर दे ; अतः दरवाजों के कपाटों को इतना सुदृढ़ बनवा दिया कि एक हजार मनुष्यों की शक्ति के बिना वे खुल न सकें । बोधिसत्त्व महाबल-सम्पन्न दस अरब हाथियों के बल के बराबर व पुरुषों के बल से एक खरब पुरुषों के बराबर बलिष्ठ थे । द्वार पर पहुँच कर बोधिसत्त्व ने सोचा-"यदि द्वार न खुल सका तो कन्थक की पीठ पर बैठे ही, पूंछ पकड़ कर लटकते हुए छन्दक को साथ लिये, घोड़े को जाँघ से दबाकर अठारह हाथ ऊँचे प्राकार को कूद कर पार करूँगा" छन्दक ने सोचा-यदि द्वार न खुला तो मैं आर्यपुत्र को कंधे पर बैठाकर, कन्थक को दाहिने हाथ से बगल में दबाकर प्राकार को लांघ जाऊँगा।" कन्थक ने भी सोचा--- "यदि द्वार न खुला तो स्वामी को अपनी पीठ पर वैसे ही बैठाये,पूंछ पकड़ कर लटकते छन्दक के साथ ही प्राकार को लांघ जाऊँगा।' यदि द्वार न खुलता तो तीनों में से प्रत्येक उपर्युक्त चिन्तन के अनुसार प्रवृत्ति करते। किन्तु, ऐसा प्रसंग नहीं आया। द्वार पर रहने वाले देवों ने तत्काल कपाट खोल दिये। १ ११ द्रोण-१ अम्मन । २. १४० हाथ-१ ऋषभ । ____ 2010_05 Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा जन्म और प्रव्रज्या १४६ बोधिसत्त्व को वापिस लौटाने की इच्छा से मार आकाश में आकर खड़ा हुआ। उसने कहा-"मित्र ! राज्य छोड़ मत निकलो। आज से सातवें दिन तुम्हारे लिए चक्र-रत्न प्रकट होगा। दो हजार छोटे द्वीपों और चार महाद्वीपों पर तुम्हारा अखण्ड साम्राज्य होगा। मित्र ! लौट आओ। आगे न बढ़ो।" बोधिसत्त्व-"तुम कौन हो?" मार---मैं वशवर्ती हूँ।" बोधिसत्त्व---मैं भी जानता हूँ कि मेरे लिए चक्र-रत्न प्रकट होगा। किन्तु, मुझे राज्य से कोई प्रयोजन नहीं है । मैं तो साहस्रिक लोक धातुओं को निनादित करता हुआ बुद्ध बनूंगा।" "आज से कभी भी तुम्हारे मन में कामना, द्रोह या हिंसा-सम्बन्धित वितर्क उत्पन्न नहीं होंगे, तब मैं तुझे समझंगा।" बोधिसत्त्व को मार ने इन शब्दों में चुनौती दी और अवसर की ताक के लिए शरीर-छाया की भाँति उनका पीछा करने लगा। बोधिसत्त्व ने हस्तगत चक्रवर्ती-राज्य को ठुकरा कर, उसे थूक की भांति छोड़कर आषाढ़ पूर्णिमा को उत्तराषाढ़ा नक्षत्र में नगर से निर्गमन किया। नगर से निकलते ही उनके मन में नगरावलोकन की पुनः अभिलाषा जागृत हुई । उसी समय महापृथ्वी कुम्हार के चक्र की तरह कांपने लगी । मानो वह कह रही हो, “महापुरुष ! लौट कर देखने का कार्य तूने अपने जीवन में कभी नहीं किया।" बोधिसत्व ने जहाँ से मुंह घुमा कर नगर को देखा था, उस भूप्रदेश में 'कन्थक-निवर्तक-चैत्य' का चिह्न बन गया । गन्तव्य की ओर कन्थक का मुंह फेरा और अत्यन्त सत्कार और महान् श्री के साथ आगे चल पड़े। उस समय साठ-साठ हजार देवता आगे पीछे, दाँये और बांये मशाल हाथ में लिए चल रहे थे। चक्रवालों के द्वार-समूह पर अपरिमित मशालों को जलाया। बहुत सारे देवों तथा नाग, सुपर्ण (गरुड़) आदि ने दिव्य गंध, माला, चूर्ण, धूप से पूजा करते हुए पारिजात पुष्प, मन्दार पुष्प की वृष्टि कर आकाश को आच्छादित कर दिया। दिव्य संगीत हो रहा था। चारों ओर आठ प्रकार के व साठ प्रकार के अड़सठ लाख वाद्य बज रहे थे। विशिष्ट श्री और सौभाग्य के साथ प्रस्थान करते हुए बोधिसत्त्व एक ही रात में शाक्य, कोलिय और राम-ग्राम-इन तीन राज्यों को पार कर तीस योजन दूर अनोमा नदी के तट पर पहुँच गये। कन्थक अपरिमित बल-सम्पन्न था। वह प्रातः प्रस्थान कर एक चक्रवाल के मध्यवर्ती घेरे को पृथ्वी पर रहे चक्के की तरह मदित करता हुआ उसके प्रत्येक कोने पर घूम कर, अपने भोजन के समय पुनः लौट सकता था। किन्तु, इस समय वह केवल तीस योजन ही चल सका। आकाश-स्थित देव, नाग व गरुड़ आदि द्वारा बरसाये गये गंधमाला आदि से वह जंघा तक ढंक गया था । पुनः-पुनः उसमें से अपने को निकालते हुए व गंधमाला के जाल को हटाते हुए उसे काफी समय लग गया। प्रव्रज्या -ग्रहण बोधिसत्त्व ने नदी के तट पर खड़े होकर छन्दक से नदी का नाम पूछा । छन्दक ने उत्तर दिया-"अनोमा।" बोधिसत्त्व ने तत्काल सोचा-हमारी प्रव्रज्या भी अनोमा'-- छोटी नहीं होगी। उन्होंने उसी समय एड़ी से रगड़ कर घोड़े को संकेत किया । घोड़े ने तत्काल छलांग भरी और आठ ऋषभ चौड़ी नदी के दूसरे तट पर जा खड़ा हुआ। बोधि१. अनोमा=अन्+अवम् । २. १४० हाथ-1 ऋषभ । 2010_05 Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड :१ सत्त्व घोड़े से उतरे व रुपहले रेशम की तरह सुकोमल बालुका-तट पर खड़े हुए। छन्दक को सम्बोधित करते हुए कहा-"सौम्य ! छन्दक ! तू मेरे आभूषणों तथा कन्थक को ले जा । मैं प्रव्रजित होऊँगा। छन्दक ने कहा--"देव ? मैं भी प्रबजित होऊंगा।' बोधिसत्त्व ने स्पष्ट तया तीन बार कहा-"तुझे प्रव्रज्या नहीं मिल सकती । तू यहाँ से लौट जा।" छन्दक को बोधिसत्त्व का वह निर्देश शिरोधार्य करना पड़ा। आभूषण और कन्थक को सौंपकर वे सोचने लगे-"मेरे ये केश श्रमण-भाव के योग्य नहीं हैं । बोधिसत्त्व के केशकर्तन के लिए असि के अतिरिक्त दूसरा कोई उपयुक्त साधन नहीं है; अतः मुझे असि से ही काटना चाहिए।" उन्होंने दाहिने हाथ में तलवार लिया और बाँये हाथ में मौर-सहित जुड़े को पकड़ा व उसे काट डाला। केवल दो अंगुल-प्रमाण केश रहे जो दाहिनी ओर से घूम कर सिर में चिपट गए। जीवन-पर्यन्त उनके केशों का यही परिमाण रहा। मूंछ और दाढ़ी भी उसी परिमाण से रहे । उन्हें अब सिर-दाढ़ी के मुण्डन की कोई आवश्यकता नहीं रही। मौर-सहित जुड़े को बोधिसत्त्व ने आकाश में यह सोचते हुए फेंक दिया कि यदि मैं बुद्ध होऊँ तो यह आकाश में ही ठहरे अन्यथा भूमि पर गिर जाए। वह चूडामणि-वेष्टन योजन तक आकाश में जाकर ठहर गया। देवराज शक्र ने अपनी दिव्य दृष्टि से उसे देखा। उसे उपयुक्त रत्नमय करण्ड में ग्रहणकर शिरोधार्य किया और त्रयस्त्रिश स्वर्ग में चूडामणि चैत्य की स्थापना की। बोधिसत्त्व ने पुनः सोचा-"काशी के बने ये वस्त्र भिक्षु के योग्य नहीं हैं।" तब कश्यप बुद्ध के समय के उनके पुराने मित्र घटिकार महाब्रह्मा ने सोचा- "मेरे मित्र ने आज अभिनिष्क्रमण किया है ; अतः मैं उसके लिए भिक्षु की आवश्यकताएँ (श्रमणपरिष्कार) ले चलूंगा।" उसने तत्काल तीन चीवर, पात्र, उस्तरा, सुई, काय-बन्धन और पानी छानने का वस्त्र, ये आठ परिष्कार तैयार किए और बोधिसत्त्व को दिए। बोधिसत्त्व ने अर्हत ध्वजा को धारण कर अर्थात श्रेष्ठ प्रव्रज्या-वेश को ग्रहण कर छन्दक को प्रेरित किया..."छन्दक! मेरी बात से माता-पिता को आरोग्य कहना।" छन्दक ने बोधिसत्त्व को वन्दना तथा प्रदक्षिणा की और चल दिया। कन्दक ने भी बोधिसत्त्व और छन्दक के बीच हुई बात को सुना। अब मुझे पुनः स्वामी के दर्शन नहीं होंगे, जब उसे यह ज्ञात हुआ, वह उस शोक को सहन सका । तत्काल कलेजा फट गया और वह मरकर त्रयस्त्रिश भवन में कन्थक नामक देव-पुत्र हुआ। छन्दक को पहले एक ही शोक था, किन्तु, कन्थक की मृत्यु से वह दूसरे शोक से भी पीड़ित हुआ वह रोता हुआ नगर की ओर चला। 2010_05 Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधना महावीर का साधना-काल १२ वर्ष और १३ पक्ष का होता है और बुद्ध का साधनाकाल लगभग ६ वर्ष का। उरकट तपस्या, उत्कट सहिष्णुता और उत्कट ध्यान-परायणता दोनों ही युग-पुरुषों की साधना में मिलती है। प्रारम्भ में बुद्ध महावीर की तरह ही तपस्वी जीवन जीते हैं । कृशकाय व दुर्वर्ण हो जाते हैं और एक दिन चंक्रमण वेदिका पर गिर पड़ते हैं। तब उन्हें अनुभव होता है-यह दुष्कर तपस्या बुद्धत्व-प्राप्ति का मार्ग नहीं है । पुन: वे अन्नभोजी हो जाते हैं और सुजाता की खीर खाकर सम्बोधि-प्राप्त करते हैं। उन्होंने माना-सम्बोधि का कारण ध्यान है। उनके समग्र साधना-क्रम को देखते हुए लगता है, बुद्ध ने तपस्या को उसी प्रकार अनुपादेय ठहराया, जैसे कोई किसान अंकुर फूटने के अनन्तरित मेघ को अंकुर फूटने का एकमात्र निमित्त मान बैठे। भूमि का उत्खनन, बीज का आरोपण तथा पूर्ववर्ती मेघों का वर्षण उसकी दृष्टि में कुछ नहीं रह जाते । वस्तुस्थिति यह है कि कुल निमित्त मिलकर ही अंकुर स्फोटन कर पाते हैं। महावीर एक वर्ष से कुछ अधिक सचेल रहते हैं, फिर अचेलावस्था में ही विहार करते है।' बुद्ध प्रवज्या के समय गैरिक वस्त्र धारण करते हैं । तपस्या का प्रकार भी बहुत कुछ समान रहता है। महावीर कभी सूखे भात, मथु और उड़द पर निर्भर होते हैं; बुद्ध तिल-तण्डुल आदि पर । प्रथम भिक्षान्न खाने के समय बुद्ध के उदर की आंतें मानो मुंह की ओर से बाहर निकलने लगती हैं, पर, बुद्ध अपने आपको सम्भालकर वहीं भोजन कर लेते हैं। भिक्षान्त की विरसता का वर्णन दोनों ही परम्परा में बहुत विशद मिलता है। __ महावीर के विषय में आईक मुनि-संलाप में जैसे गोशालक ने कहा-"महावीर पहले एकान्त विहारी श्रमण था। अब वह बड़ी परिषद् में उपदेश करने लगा है। यह आजीविका चलाने का ढोंग है", उसी प्रकार बुद्ध को भी बोधि-सम्प्राप्ति के पश्चात् पंचवर्गीय भिक्षु १. आयारंग, प्रथम श्रुतस्कन्ध, अ०६। २. ललित विस्तर तथा हिन्दू सभ्यता, पृ. २३८ । ____ 2010_05 Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड : १ कहते हैं- "गौतम बुद्ध अब संग्रहशील और साधनाभ्रष्ट हो गया है। पहले यह कृशकाय तपस्वी था। अब यह सरस आहार से उपचित हो गया है।" सुजाता खीर बनाने के लिए सहस्र गायों का दूध पाँच सौ गायों को पिलाती है। इसी क्रम से सोलह गायों का दूध आठ गायों को। दूध को स्निग्ध, स्वादु और बल-प्रद बनाने के लिए जैन परम्परा में भी ऐसा उल्लेख मिलता है। चक्रवर्ती की खीर इसके लिए प्रसिद्ध उदाहरण है। उस खीर को बनाने में पुण्ड्र-ईक्षुक के खेतों में चरने वाली एक लाख गायों का दूध पच्चास हजार गायों को पिलाया जाता है । इसी क्रम से एक गाय तक पहुँच कर उसके दूध की खीर बनाई जाती है । इसे कल्याण भोजन कहा जाता है । श्री देवी और चक्रवर्ती ही इसे खाते हैं और उनके लिए ही वह सुपाच्य होता है।' कैवल्य-साधना आयारग में महावीर की साधना का विशद् वर्णन मिलता है। वहाँ बताया गया है : महावीर ने दीक्षा ली, उस समय उनके शरीर पर एक ही वस्त्र था। लगभग तेरह मास तक उन्होंने उस वस्त्र को कंधों पर रखा। दूसरे वर्ष जब आधी शरद् ऋतु बीत चुकी, तब वे उस वस्त्र को त्याग सम्पूर्ण अचेलक अनगार हो गए । शोत से त्रसित होकर वे बाहुओं को समेटते न थे, अपितु यथावत् हाथ फैलाये विहार करते थे। शिशिर ऋतु में पवन जोर से फुफकार मारता, कड़कड़ाती सर्दी होती, तब इतर साधु उससे बचने के लिए किसी गर्म स्थान की खोज करते, वस्त्र लपेटते और तापस लकड़ियां जलाकर शीत दूर करने का प्रयत्न करते; परन्तु, महावीर खुले स्थान में नंगे बदन रहते और अपने बचाव की इच्छा भी नहीं करते। वहीं पर स्थिर होकर ध्यान करते । नंगे वदन होने के कारण सर्दी-गर्मी के ही नहीं, पर, दंश-मशक तथा अन्य कोमल-कठोर स्पर्श के अनेक कष्ट वे झेलते थे। महावीर अपने निवास के लिए कभी निर्जन झोपड़ियों को चुनते, कभी धर्मशालाओं को, कभी प्रपा को, कभी हाट को, कभी लुहार की शाला को, कभी मालियों के घरों को, कभी शहर को, कभी श्मशान को, कभी सूने घरों को, कभी वृक्ष की छाया को तो कभी घास की गंजियों के समीपवर्ती स्थान को। इन स्थानों में रहते हुए उन्हें नाना उपसर्गों से जूझना होता था । सर्प आदि विषैले जंतु और गीध आदि पक्षी उन्हें काट खाते थे। उद्दण्ड मनुष्य उन्हें नाना यातनाएँ देते थे, गाँव के रखवाले हथियारों से उन्हें पीटते थे और विषयातुर स्त्रियां कामभोग के लिए उन्हें सताती थीं। मनुष्य और तिर्यञ्चों के दारुण उपसर्गों और कर्कश-कठोर शब्दों के अनेक उपसर्ग उनके समक्ष आये दिन प्रस्तुत होते रहते थे। जार पुरुष उन्हें निर्जन स्थानों में देख चिढ़ते, पीटते और कभी-कभी उनका अत्यधिक तिरस्कार कर चले १. चक्रवर्ति-संबन्धिनीनां पुण्ड्रेक्षुचारिणीनामनातङ्कानां गवां लक्षस्यार्द्धिक्रमेण पीतगोक्षीरस्य पर्यन्ते यावदेकस्याः गोः संबन्धि यत क्षीरं तत्प्राप्तकलमशालिपरमान्नरूपमनेकसंस्कारकद्रव्यसंमिश्रं कल्याणभोजनमितिप्रसिद्ध, चक्रिणं स्त्रीरत्नं च बिना अन्यस्य भोक्तुर्दुर्जरं महदुन्मादकं चेति । -जम्बूदीवपण्णत्ति वृत्ति, वक्ष० २ 2010_05 Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा साधना १५३ जाने को कहते । मारने-पीटने पर भी वे अपनी समाधि में लीन रहते और चले जाने का कहने पर तत्काल अन्यत्र चले जाते।। आहार के नियम भी महावीर के बड़े कठिन थे। नीरोग होते हुए भी वे मिताहारी थे। मानापमान में सम्माव रखते हुए घर-घर भिक्षाचरी करते थे। कभी दीनभाव नहीं दिखाते थे। रसों में उन्हें आसक्ति न थी और न वे कभी रसयुक्त पदार्थों की माकांक्षा ही करते थे। भिक्षा में रूखा-सूखा, ठण्डा, वासी, उड़द, सूखे भात, मथु, यवादि नीरस धान्य का जो भी आहार मिलता, उसे वे शान्त भाव से और सन्तोषपूर्वक ग्रहण करते थे। एक बार निरन्तर आठ महीनों तक वे इन्हीं चीजों पर रहे। न मिलने पर भी वे दीन नहीं होते थे। पखवाड़े तक, मास तक और छ:-छः मास तक जल नहीं पीते थे। उपवास में भी विहार करते थे। ठण्डा-बासी आहार भी वे तीन-तीन, चार-चार, पांच-पांच दिन के अन्तर से करते थे। निरन्तर नहीं करते थे। स्वाद-जय उनका मुख्य लक्ष्य था। भिक्षा के लिए जाते समय मार्ग में कबूतर आदि पक्षी धान चुगते हुए दिखाई देते तो वे दूर से ही टलकर चले जाते । उन जीवों के लिए वे विघ्नरूप न होते। यदि किसी घर में ब्राह्मण, श्रमण, भिखारी, अतिथि, चण्डाल, बिल्ली या कुत्ता आदि को कुछ पाने की आशा में या याचना करते हुए वे वहाँ देखते, तो उनकी आजीविका में बाधा न पहुंचे, इस अभिप्राय से वे दूर से ही चले जाते। किसी के मन में द्वेष-भाव उत्पन्न होने का वे अवसर ही नहीं आने देते। शरीर के प्रति महावीर की निरीहता बड़ी रोमाञ्चक थी। रोग उत्पन्न हान पर भो वे औषध-सेवन नहीं करते थे। विरेचन, वमन, तेल-मर्दन, स्नान और दन्त-प्रक्षालन नहीं करते थे । आराम के लिए पर नहीं दबाते थे। आंखों में किरकिरी गिर जाती तो उसे भी वे नहीं निकालते। ऐसी परिस्थिति में आँख को भी वे नहीं खुजलाते । शरीर में खाज आती, तो उस पर भी विजय पाने का प्रयत्न करते । महावीर कमी नींद नहीं लेते थे। उन्हें जब कभी नींद अधिक सताती, वे शीत में मुहूर्तभर चंक्रमण कर निद्रा दूर करते । वे प्रतिक्षण जागृत रह ध्यान व कायोत्सर्ग में ही लीन रहते। __वसति-वास में महावीर न गीतों में आसक्त होते थे और न नृत्य व नाटकों में । न उन्हें दण्ड-युद्ध में उत्सुकता थी और न उन्हें मुष्टि-युद्ध में। स्त्रियों व स्त्री-पुरुषों को परस्परा काम-कथा में लीन देखकर भी वे मोहाधीन नहीं होते थे । वीतराग-भाव की रक्षा करते हुए वे इन्द्रियों के विषयों में विरक्त रहते थे। ___ उत्कटक, गोदोहिका, वीरासन प्रभृति अनेक आसनों द्वारा महावीर निविकार ध्यान करते थे । शीत में वे छाया में बैठकर ध्यान करते और ग्रीष्म में उत्कटुक आदि कठोर आसनों के माध्यम से चिलचिल्लाती धूप में ध्यान करते। कितनी ही बार जब वे गृहस्थों की बस्ती में ठहरते, तो रूपवती स्त्रियाँ, उनके शारीरिक सौन्दर्य पर मुग्ध हो, उन्हें विषयाथं आमन्त्रित करती। ऐसे अवसर पर भी महावीर आंख उठाकर उनकी ओर नहीं देखते थे और अन्तर्म ख १. साधना-काल के बारह वर्ष तेरह पखवाड़ों में महावीर ने केवल एक बार मुहूर्त भर नींद ली; ऐसा माना जाता है। ___ 2010_05 Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड: । रहते थे । गृहस्थों के साथ किसी प्रकार का संसर्ग नहीं रखते थे। ध्यानावस्था में कुछ पूछने पर वे उत्तर नहीं देते थे। वे अबहुवादी थे अर्थात् अल्पभाषी जीवन जीते थे। सहे न जा सकें, ऐसे कटु व्यंग्यों को सुनकर भी शान्त और मौन रहते थे। कोई उनकी स्तुति करता और कोई उन्हें दण्ड से तजित करता या बालों को खींचता या उन्हें नोंचता ; वे दोनों ही प्रवृत्तियों में समचित रहते थे। महावीर इस प्रकार निर्विकार, कषाय-रहित, मूर्छा-रहित, निर्मल ध्यान और आत्म-चिन्तन में ही अपना समय बिताते। चलते समय महावीर आगे की पुरुष-प्रमाण भूमि पर दृष्टि डालते हुए चलते। इधर. उधर या पीछे की ओर वे नहीं झांकते । केवल सम्मुखीन मार्ग पर ही दृष्टि डाले सावधानीपूर्वक चलते थे। रास्ते में उनसे कोई बोलना चाहता, तो वे नहीं बोलते थे। महावीर दीक्षित हुए, तब उनके शरीर पर नाना प्रकार के सुगन्धित द्रव्यों का विलेपन किया हुआ था । चार मास से भी अधिक भ्रमर आदि जन्तु उनके शरीर पर मंडराते रहे, उनके मांस को नोंचते रहे और रक्त को पीते रहे। महावीर ने तितिक्षा-भाव की पराकाष्ठा कर दी। उन जन्तुओं को मारना तो दूर, उन्हें हटाने की भी वे इच्छा नहीं करते थे। महावीर ने दुर्गम्य लाढ़ देश की वज्रभूमि और शुभ्र भूमि दोनों में विहार किया। वहाँ उन्हें अनेक विपदाएँ झेलनी पड़ी। वहाँ के लोग उन्हें पीटते, वहाँ उन्हें खाने को रूखासूखा आहार मिलता । ठहरने के लिए स्थान भी कठिनता से मिलता और वह भी साधारण । बहुत बार चारों ओर से उन्हें कुत्ते घेर लेते और कष्ट देते। ऐसे अवसरों पर उनकी रक्षा करने वाले बिरले ही मिलते। अधिकांश तो उन्हीं को यातना देते और उनके पीछे कुत्ते लगा देते । ऐसे विकट विहार में भी इतर साधुओं की तरह वे दण्ड आदि का प्रयोग नहीं करते। दुष्ट लोगों के दुर्वचनों को वे बहुत ही क्षमा-भाव से सहन करते। कभी-कभी ऐसा भी होता कि भटकते रहने पर भी वे गांव के निकट नहीं पहुंच पाते । ज्यों-त्यों ग्राम के निकट पहुँचते, अनार्य लोग उन्हें त्रास देते और तिरस्कारपूर्वक कहते--"तू यहाँ से चला जा।" कितनी ही बार उस देश के लोगों ने लकड़ियों, मुट्ठियों, भाले की अणियों, पत्थर या हड्डियों के खप्परों से पीट-पीटकर उनके शरीर में घाव कर दिये। जब वे ध्यान में होते, तो दुष्ट लोग उनके मांस को नोंच लेते, उन पर धूल बरसाते, उन्हें ऊँचा उठाकर नीचे गिरा देते, उन्हें आसन पर से नीचे ढकेल देते ।। महावीर की निर्जल और निराहार तपस्याओं का प्रामाणिक ब्यौरा भी अनेक परम्परा ग्रन्थों में मिलता है। एक बार उन्होंने छ: महीने का निर्जल और निराहार तप किया, एक बार पांच महीने और पच्चीस दिन का, नो बार चार-चार महीनों का, दो बार तीन-तीन महीनों का, दो बार ढाई-ढाई महीनों का, छः बार दो-दो महीनों का, दो बार डेढ़-डेढ़ महीनों का, बारह बार एक महीने का, बहत्तर बार पखवाड़े का, बारह बार तीन-तीन दिन का, दो सौ उनतीस बार दो-दो दिन को और एक-एक बार भद्र, महाभद्र, सर्वतो भद्र प्रतिमा का १. आयारंग अ० ६, उ०१ से ४ के आधार पर। ____ 2010_05 Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा साधना तप किया । कुल मिलाकर कहा जा सकता है, भगवान् महावीर ने अपने अकेवली जीवन के ४५१५ दिनों में केवल ३५० दिन अन्न व पानी ग्रहण किया। ४१६५ दिन तो तप में बीते। अन्य सब तीर्थङ्करों की अपेक्षा महावीर के तप को उग्र बताया गया है । सम्बोधि-साधना प्रवजित होते ही बुद्ध ने अनूपिया नामक आम्र-उद्यान में एक सप्ताह प्रव्रज्या-सुख में बिताया। वहां से प्रस्थान कर एक ही दिन में तीस योजन पैदल चले और राजगह में प्रविष्ट हुए। वहाँ वे भिक्षा के लिए निकले । बुद्ध के रूप-सौन्दर्य को देखकर सारा नगर, धनपाल के प्रवेश से राजगृह की तरह, असुरेन्द्र के प्रवेश से देवनगर की तरह, संक्षुब्ध हो गया। राजपुरुषों ने राजा से जाकर कहा- "देव ! इस रूप का एक पुरुष शहर में मधुकरी मांग रहा है। वह देव है, मनुष्य है, नाग है या गरुड़ है, हम तो नहीं पहचान पाये।" राजा ने राजमहलों के ऊपर खड़े होकर उस महापुरुष को देखा और साश्चर्य अपने पुरुषों को आज्ञा दी-"जाओ, देखो, यदि यह अमनुष्य होगा, नगर से निकलकर अन्तर्धान हो जायेगा; देवता होगा, आकाश-मार्ग से चला जायेगा; नाग होगा, डुबकी लगा कर पृथ्वी में चला जायेगा और यदि मनुष्य होगा, तो मिली हुई मिक्षा का भोजन करेगा।" बुद्ध ने भिक्षा में प्राप्त भोजन का संग्रह किया और उसे अपने लिए पर्याप्त समझ कर जिस नगर-द्वार से शहर में प्रवेश किया था, उसी से निर्गमन कर पाण्डव पर्वत की छाया में बैठ भोजन करना आरम्भ किया। उस नीरस व रूक्ष आहार को देखते ही उनकी आंतें उलट कर मानों मुंह से बाहर निकलने लगीं। उन्होंने ऐसा प्रतिकूल भोजन तब तक आँखों से देखा भी नहीं था। भोजन से दुःखित होकर उन्होंने अपने मन को समझाया-"सिद्धार्थ ! तू ऐसे कुल में पैदा हुआ था, जहां अन्न-पान की सुलभता थी । तीन वर्ष के पुराने सुगन्धित चावल का नाना अत्युत्तम रसों से भावित भोजन तत्काल तैयार रहता था। एक गुदरीधारी भिक्षु को देखकर तू सोचा करता था, मेरे जीवन में भी क्या ऐसा समय आयेगा, जब कि इस भिक्षु की तरह भिक्षा मांगकर भोजन करूँगा । यही विचार मेरे गृह-त्याग का निमित्त था । अब तू क्या कर रहा है ?” बुद्ध ने इस प्रकार अपने मन को समझाया और विकार-रहित हो भोजन किया। राजपुरुषों ने राजा को इस घटना से सूचित किया। राजा तत्काल नगर से चलकर बुद्ध के पास पहुंचा। उनकी सरल चेष्टा से प्रसन्न होकर उन्हें सभी प्रकार के ऐश्वर्य उपहृत किये । बुद्ध ने निर्लेप भाव से उत्तर देते हुए कहा-"महाराज ! मुझे न भोग-कामना है और न वस्तु-कामना । मैं महान् अभिसम्बोधि के लिए निकला हूँ।" राजा ने बहुत प्रकार १. त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्रम्, पर्व १०, सर्ग ४, श्लोक ६५२-६५७; आवश्यक नियुक्ति हारिभद्रीय वृत्ति २२७-२ से २२६-१, मलयगिरि वृत्ति, पत्र २६८-२ से ३००-२; आवश्यक नियुक्तिदीपिका, प्रथम भाग, पत्र १०७-१ से १०८ । २. उग्गं च तवोकम्मं विसेसतो वद्धमाणस्स। -आवश्यक नियुक्ति, गा० २६२ ____ 2010_05 Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [ खण्ड : १ से प्रार्थना की, किन्तु, बुद्ध उस ऐश्वर्य को ग्रहण करने को प्रस्तुत न हुए । अन्ततः राजा ने साग्रह एक प्रार्थना की- “बुद्ध होते ही सबसे पहले आपको मेरे राज्य में आना होगा ।" बुद्ध ने राजा को वचन दिया और आगे प्रस्थान किया । क्रमशः विचरते हुए वे आलारकालाम तथा उद्दक- रामपुत्र के पास पहुँचे और वहाँ समाधि की शिक्षा ली। कुछ दिनों बाद उन्हें अनुभव हुआ, यह ज्ञान का मार्ग नहीं है । यह समाधि भावना अपर्याप्त है । देवता- सहित सभी लोकों को अपना बल-वीर्य दिखाने के लिए और परम तत्त्व पाने के लिए वे उरुवेला पहुँचे। उन्हें वह प्रदेश रमणीय प्रतीत हुआ; अतः वहाँ ठहर कर महान् उद्योग आरम्भ कर दिया | कौण्डिन्य आदि पाँच परिव्राजक भी गांवों, नगरों व राजधानियों में भिक्षाचरण करते हुए बुद्ध के पास वहीं पहुँचे । वे इस आशा में थे कि सिद्धार्थकुमार अब शीघ्र ही बुद्ध होंगे । छः वर्ष तक वे उनकी उपासना में लगे रहे, आश्रम की सफाई आदि से उनकी सेवा करते रहे तथा बुद्धत्व प्राप्ति की व्यग्रता से प्रतीक्षा करते रहे । बुद्ध दुष्कर तपस्या करते हुए तिल - तण्डुल से काल-क्षेप करते रहे । अन्ततः उन्होंने आहार ग्रहण करना भी छोड़ दिया । देवता ने रोम कूपों द्वारा उनके शरीर में ओज डाल दिया, किन्तु, निराहार रहने से वे अत्यन्त दुर्बल हो गये। उनका कनकाभ शरीर काला पड़ गया। शरीर में विद्यमान महापुरुषों के बत्तीस लक्षण छिप गये । एक बार श्वास का अवरोध कर ध्यान करते समय क्लेश से अत्यन्त पीड़ित हो, बेहोश होकर चंक्रमण की वेदिका पर गिर पड़े। कुछ देवताओं ने कहा - "श्रमण गौतम मर गये । " बुद्ध को अनुभव हुआ, यह दुष्कर तपस्या बुद्धत्व प्राप्ति का मार्ग नहीं है । उन्होंने ग्रामों और बाजारों में भिक्षाटन कर भोजन ग्रहण करना आरम्भ कर दिया। उनका शरीर पुनः स्वर्णवर्ण हो गया । पंचवर्गीय भिक्षुओं ने सोचा – “छः वर्ष तक दुष्कर तपस्या करने पर भी यह बुद्ध नहीं हो सका; अब जब कि ग्रामादि से स्थूल आहार ग्रहण करने लगा है तो बोधि- प्राप्ति कैसे सम्भव होगी ? यह तो लालची हो गया है और तपो भ्रष्ट भी । इसकी और प्रतीक्षा करने से हमारा क्या मतलब सिद्ध हो सकेगा ?" उन्होंने बुद्ध को वहीं छोड़ दिया ओर अपने-अपने पात्र - चीवर आदि ले अठारह योजन दूर ऋषिपतन को चले गये । उरुवेला प्रदेश के सेनानी कस्बे में सेनानी कुटुम्बी के घर सुजाता कन्या उत्पन्न हुई । तारुण्य में सुजाता ने बरगद से प्रार्थना की- “यदि समान जाति के कुल घर में मेरा विवाह हो और मेरी पहली सन्तान पुत्र हो, तो मैं प्रतिवर्ष एक लाख के खर्च से तेरी पूजा करूँगी ।" उसकी वह प्रार्थना पूर्ण हुई । बुद्ध की दुष्कर तपश्चर्या का छठा वर्ष पूर्ण हो रहा था । वैशाख पूर्णिमा का दिन था । सुजाता ने पूजा करने के अभिप्राय से हजार गायों को यष्टिमधु ( मुलेठी ) के वन में चरवा कर उनका दूध दूसरी पाँच सौ गायों को पिलाया फिर उनका दूध ढाई सौ गायों को पिलाया । क्रमशः सोलह गायों का दूध आठ गायों को पिलाया। इस प्रकार दूध की सघनता, मधुरता और ओज के लिए उसने क्षीर-परिवर्तन किया । पूर्णिमा के ब्रह्म मुहूर्त में आठ गायों को दुहवाया । नये बर्तन में दूध डालकर सुजाता ने खीर पकाना आरम्भ किया । 2010_05 Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा साधना १५७ सुजाता ने अपनी पूर्णा दासी को शीघ्र ही देव-स्थान की सफाई का निर्देश दिया। दासी तत्काल वहाँ से चली। वृक्ष के नीचे आई। बुद्ध ने उसी रात को पाँच महास्वप्न देखे और उनके आधार पर निश्चय किया- “निःसंशय आज मैं बुद्ध होऊँगा।" रात बीतने परशौच आदि से निवृत्त हो, भिक्षा-काल की प्रतीक्षा करते हुए उसी वृक्ष के नीचे बैठे। सारा वक्ष उनकी प्रभा से प्रकाशित हो उठा। पूर्णा ने वृक्ष के नीचे पूर्वाभिमुख बैठे बुद्ध को देखा। उसने सोचा, आज हमारे देवता वृक्ष से उतरकर, अपने हाथ से ही बलि ग्रहण के लिए बैठे हैं। उसने दौड़कर सुजाता को सूचित किया। सुजाता को उस संवाद से अत्यधिक प्रसन्नता हुई। उसने पूर्णा से कहा- "आज से तू मेरी ज्येष्ठा पुत्री होकर मेरे पास रह ।" सुजाता ने तत्काल उसे पुत्री के योग्य आमरण दिये। स्वर्ण के थाल में खीर को सझाया, दूसरे स्वर्ण थाल से उसे ढांका और स्वच्छ कपड़े से बांधा। स्वयं अलंकृत होकर, थाल को अपने सिर पर रख कर वृक्ष के नीचे आई। बुद्ध को वहाँ देखकर वह बहुत ही सन्तुष्ट हुई। उन्हें वृक्षदेवता समझकर सर्वप्रथम जहाँ से उसने बुद्ध को देखा था, उसी स्थान पर झुक कर, सिर से थाल को उतारा, खोला, सोने की झारी में से सुगन्धित पुष्पों से सुवासित जल को लिया और बुद्ध के पास जाकर खड़ी हो गई। घटिकार महाब्रह्मा द्वारा प्रदत्त मिट्टी का भिक्षा पात्र इतने समय तक बराबर बुद्ध के पास रहा, किन्तु, इस समय वह अदृश्य हो गया। पात्र को अपने पास न देखकर बुद्ध ने दाहिना हाथ फैलाकर जल को ग्रहण किया। सुजाता ने पात्र सहित खीर को महापुरुष के हाथ में अर्पित किया । बुद्ध ने सुजाता की ओर देखा। सुजाता उनके अभिप्राय को समझ गई। उसने निवेदन किया-"आर्य ! मैंने तुम्हें यह प्रदान किया है। इसे ग्रहण कर यथारुचि पधारें।" सुजाता ने वंदना की और कहा-"जैसे मेरा मनोरथ पूर्ण हुआ है, वैसे तुम्हारा भी पूर्ण हो।" और एक लाख मुद्रा वाला वह स्वर्ण-थाल पुराने पत्तल की तरह उसने वहीं छोड़ दिया और वह वहाँ से चली गई। बुद्ध वहाँ से उठे। वृक्ष की प्रदक्षिणा की और नेरञ्जरा नदी के तीर पर गये । थाल को एक ओर रखा, जल में उतरे, स्नान कर बाहर आये, पूर्वाभिमुख होकर बैठे और उनपच्चास ग्रास करके उस सारे निर्जल पायस का उन्होंने भोजन किया। यह भोजन ही उनके बुद्ध होने के बाद बोधिमण्ड में वास करते हुए सात सप्ताह के उनपच्चास दिनों के लिए आहार हुआ। इतने समय तक न उन्होंने आहार किया, न स्नान किया और न मुख ही धोया। ध्यान-सुख, मार्ग-सुख, फल-सुख से ही इन सात सप्ताहों को बिताया। बुद्ध ने खीर को खाकर सोने के थाल को नदी में फेंक दिया।' स्वप्न छद्मस्थ-अवस्था की अन्तिम रात्रि में महावीर दश स्वप्न देखते हैं, जिनका सम्बन्ध उनके भावी जीवन से है । बुद्ध अपने साधना-काल की अन्तिम रात्रि में पांच महास्वप्न देखते हैं । उनका सम्बन्ध भी उनके भावी जीवन से है। स्वप्नों की संघटना बहुत कुछ भिन्न है, पर, हार्द बहुत कुछ समान है। १. जातकट्ठकथा, निदान । 2010_05 Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड : १ महावीर के स्वप्न साधना-काल में महावीर को एक बार मुहूर्त भर नींद आई और उसमें उन्होंने दश स्वप्न देखे। १. महावीर ने देखा, मैं एक भयंकर ताड़-सदृश पिशाच को मार रहा हूँ। इसका अथ है-मोह-नाश। २. महावीर ने देखा, मेरे सामने एक रंग-बिरंगा पुंस्कोकिल उपस्थित है। इसका अर्थ है-शुक्ल ध्यान। ३. महावीर ने देखा, मेरे सामने एक रंग-बिरंगा पुंस्कोकिल उपस्थित है। इसका अर्थ है-विविध विचार-पूर्ण द्वादशांगी का निरूपण । ४. महावीर ने देखा, दो रन-मालायें मेरे सम्मुख हैं। इसका अर्थ है-अनगार-धर्म और अनगार-धर्म की स्थापना। ५. महावीर ने देखा, एक श्वेत गोकुल मेरे सम्मुख है। इसका अर्थ है-चतुर्विध संघ से सेवित। ६. महावीर ने देखा, एक विकसित पम सरोवर मेरे सामने है। इसका अर्थ है-चतुर्विध देवों को प्रतिबोध । ७. महावीर ने देखा, मैं तरंगाकुल महासमुद्र को अपने हाथों से तैर कर पार कर पुका हूं। इसका अर्थ है-भव-भ्रमण का विच्छेद। ८. महावीर ने देखा, जाज्वल्यमान सूर्य सारे विश्व को आलोकित कर रहा है। इसका अर्थ है-कैवल्य-प्राप्ति । ६. महावीर ने देखा, मैं अपनी वडूर्य वर्ण आंतों से मानुषोत्तर पर्वत को आवेष्टित कर रहा हूँ। इसका अर्थ है-मनुष्य-लोक और सुर-लोक में यश-विस्तार । १०. महावीर ने देखा, मैं मेरु पर्वत की चूलिका पर सिंहासनारूढ़ हो रहा हूँ। इसका अर्थ है-देवता और मनुष्यों की परिषद् में धर्मोपदेश ।' बुद्ध के स्वप्न १. बुद्ध ने देखा, मैं एक महापर्यत पर सो रहा हूँ। हिमाचल मेरा उपधान है। बांया हाथ पूर्वी समुद्र को छू रहा है, दांया हाथ पश्चिमी समुद्र को छू रहा है और पर दक्षिणी समुद्र को छू रहे हैं। इसका अर्थ है-तथागत द्वारा पूर्ण बोधि-प्राप्ति ।' २. बुद्ध ने देखा, तिरिया नामक एक वृक्ष उनके हाथ में प्रादुर्भूत होकर आकाश तक पहुँच गया है। इसका अर्थ है-अष्टांगिक मार्ग का निरूपण। ३. बुद्ध ने देखा, श्वेत कीट, जिनका शिरोभाग काला है, मेरे घुटनों तक रेंग रहे हैं। इसका अर्थ है-श्वेत वस्त्रधारी गृहस्थों का शरणागत होना । १. भगवती श० १६, उ०६, सू० ५७६; ठाणांग ठा० १०, उ० ३; आवश्यक नियुक्ति ___मलयगिरि वृत्ति, पत्र २७० । २. इस स्वप्न का फल जैन आगमों में उसी जन्म में मोक्षि-प्राप्ति माना है। -भगवती शतक १६, उ० ६, सूत्र ५८० । ____ 2010_05 Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा साधना ४. बुद्ध ने देखा, रंग-बिरंगे चार पक्षी चार दिशाओं से आते हैं, उनके चरणों में गिरते हैं और श्वेत हो जाते हैं । इसका अर्थ है-चारों वर्गों के लोग उनके पास संन्यस्त होंगे और निर्वाण प्राप्त करेंगे। ५. बद्ध ने देखा, वे एक गोमय-पर्वत पर चल रहे हैं, पर, फिसल या गिर नहीं रहे हैं। इसका अर्थ है-सुलभ भौतिक सामग्री में अनासक्ति।' १. अंगुत्तर निकाय ३-२४०; महावस्तु २-१३६, E. J. Thomas, Life of Buddha p. 70 fn. 4. ____ 2010_05 Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिषह और तितिक्षा महावीर की चर्या में घटनात्मक परिषहों की कथा बहुत ही रोमाञ्चक है। वे परिषह बुद्ध की चर्या में नहीं देखे जाते। कुछ एक परिषह-प्रसंग ऐसे हैं, जो न्यूनाधिक रूपान्तर से दोनों की जीवन-चर्या में मिलते हैं। महावीर का 'चण्डकौशिक-उद्बोधन' और बुद्ध का 'चण्डनाग-विजय;' ये प्रसंग हार्द की दृष्टि से एक दूसरे के बहुत निकट हैं । चण्डकौशिक-उद्बोधन ___ महावीर प्रामानुग्राम विहरण करते हुए एक दिन श्वेताम्बिका नगरी की ओर जा रहे थे। जिस मार्ग से वे प्रस्थान कर रहे थे, कुछ व्यक्तियों ने उस ओर जाते हुए उन्हें यह कहकर रोका कि इसी मार्ग पर भयंकर आशीविष चण्डकौशिक सपं रहता है । वह पलक मारते ही व्यक्ति को धराशायी कर देता है। सैकड़ों व्यक्ति उसके शिकार हो चुके हैं । अब यह मार्ग भी निषिद्ध मार्ग के नाम से सर्वत्र प्रसिद्धि पा चुका है। अतः हे श्रमण ! इस पथ से न जाओ। इसी में तुम्हारा भला है। महावीर जिस दिन से श्रमण बने थे, व्युत्सृष्टकाय होकर तपः-प्रधान साधना कर रहे थे। सम्मुखीन उपसर्ग से भीत होकर पथ न बदलने की उनकी अपनी प्रतिज्ञा थी; अतः उन्होंने उन व्यक्तियों का कथन सुना अवश्य, पर, उससे प्रभावित होकर अपना मार्ग न बदला। वे उसी राह से और उसी संयमनिष्ठ गति से चलते रहे । जब कुछ दूर गये, उसी चण्डकौशिक सर्प की बांबी आ गई। सर्प भी बाहर ही बैठा था। उसने भी कुछ दूरी पर महावीर को अपनी ओर आते देखा । उसे भी बड़ा आश्चर्य हआ। बहत दिनों बाद उस मार्ग से किसी मनुष्य का आगमन हआ था। सपं ने सूर्य की ओर देखा तथा अपना भयंकर महावीर पर छोड़ा। महावीर ध्यानस्थ खड़े हो गए। उसके फफकार का उन पर कोई प्रभाव नहीं हआ। वे अविचल ध्यान में लीन खडे रहे। अपने अचक विष का भी जब उन पर कोई प्रभाव न हआ, तो सर्प और अधिक क्रोधारुण हो गया। वह वहां से चला और निकट आकर उसने महावीर के पैर के अंगुठे को डसा। फिर भी उसके जहर का उनके शरीर पर कोई प्रभाव न हुआ। वह उनके शरीर पर चढ़ा। उसने उनके कन्धों को डसा। जहर का तब भी ___ 2010_05 Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा] परिषह और तितिक्षा १६१ कोई प्रभाव न पड़ा। महावीर उसी तरह अडोल ध्यान-मुद्रा में लीन रहे। उसे उनका रुधिर बहुत सुस्वादु लगा। वह उसे पीने लगा। साथ-ही-साथ उसके हृदय में कौतुहल पूर्वक यह जिज्ञासा भी हुई कि आखिर क्या कारण है, मेरे विष का कोई असर नहीं हो रहा हैं। विचारमग्न होते ही उसे जाति-स्मरण ज्ञान मिला। उसने उसके बल पर जाना, ये तो चौबीसवें तीर्थकर महावीर हैं। मैंने तो यह आशातना कर घोर अपराध कर डाला । वह उनके शरीर से नीचे उतरा, उनके चरणों में लोटने लगा और अपने इस दुष्कृत्य, इस जीवन के दुष्कृत्य व पूर्व भव के क्रोध जनित दुष्कृत्यों का स्मरण, उनकी आलोचना व गहीं करता हुआ, अपनी उसी बांबी में जाकर शरीर की ममता को छोड़ कर अनशन पूर्वक रहने लगा। उसने मनुष्यों को डसना छोड़ दिया; अन्य छोटे-बड़े जीव-जन्तुओं को सताना छोड़ दिया, अपने शरीर की सार-सम्भाल को भी सर्वथा छोड़ दिया और आत्म-भाव में रमण करता हुआ वहाँ रहने लगा। निषेध करते हुए भी जब महावीर को उसी मार्ग से प्रस्थान करते हुए लोगों ने देखा तो उन्हें बहुत आश्चर्य हुआ। कुछ व्यक्ति बहुत दूर तक उनके पीछे भी गए। जब उन व्यक्तियों ने सर्प की उपयुक्त सारी घटना देखी तो उनके भी आश्चर्य काठिकाना न रहा। भयंकर विषधर का इस प्रकार शान्त हो जाना सचमच ही एक अनोखी घटना थी। लोगों ने वापिस आकर अपने गांव में व आस-पास के अन्य गांवों में भी यह उदन्त सुनाया और चण्डकौशिक सर्प अब अपना विष छोड़कर शान्त हो गया है, यह प्रसिद्ध कर दिया। जनता में इससे हर्ष को लहर दौड़ गई। नागदेव शान्त हो गया, इस बात से प्रेरित होकर सैंकड़ों व्यक्ति उसकी पूजा व अर्चा के लिए वहां आने लगे। वे दुग्ध-शर्करा आदि चढ़ाने लगे। उपहृत पदार्थों की गंध से होकर वहां बहुत सारी चींटियाँ जमा हो गई और सर्प के शरीर को चूंटने लगीं। चण्डकौशिक को इससे अपार वेदना हुई। उस समय भी उसने महावीर का तितिक्षा-आदर्श रखा। वह तिलमिलाया नहीं और न मन में भी क्रुद्ध हुआ। उसने न चींटियों को कोई आघात पहुंचाया और न स्वयं भी वहाँ से हटकर दूसरी जगह गया। वेदना को समभाव से सहन करता हुआ, शरीर का त्याग कर देव-योनि में उत्पन्न हुआ।' चण्डनाग-विजय बुद्ध उरुवेल काश्यप जटिल के आश्रम में पहुंचे और उससे कहा-“यदि तुझे असुविधा न हो, तो मैं तेरी अग्निशाला में वास करना चाहता हूँ।" उरुवेल काश्यप ने निवेदन किया--"महाश्रमण ! तुम्हारे निवास से मुझे तो कोई असुविधा नहीं है, किन्तु, यहाँ एक अत्यन्त चण्ड व दिव्य शक्तिधर आशीविष नागराज रहता है । कहीं वह तुम्हारे लिए हानिकारक न हो।" बुद्ध ने अपने प्रस्ताव को फिर भी दो-तीन बार दुहराया और कहा-"काश्यप ! वह नाग मुझे हानि नहीं पहुंचा सकेगा । तू अग्निशाला की स्वीकृति दे दे।" १. त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्रम्, पर्व १०, सर्ग ३; आवश्यक नियुक्ति, मलयगिरि वृत्ति, गा० ४६६-६७, पत्र २७३-७४ । ___ 2010_05 Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड ! १ उरुवेल ने सहर्ष स्वीकृति दे दी। बुद्ध ने अग्निशाला में तृण बिछाये, आसन लगाया, शरीर को सीधा किया और स्मृति को स्थिर कर बैठ गये । नागराज ने उन्हें वहाँ बैठे देखा। वह क्रुद्ध हो, धुआँ उगलने लगा । बुद्ध के मन में अध्यवसाय उत्पन्न हुआ, नागराज के चर्म, मांस, नस, अस्थि, मज्जा आदि को किसी प्रकार की बिना क्षति पहुंचाये इसके तेज को खींच लूं। उन्होंने अपने योग-बल से वैसा ही किया। स्वयं धुआँ उगलने लगे । नागराज उनके तेज को सह न सका । वह प्रज्वलित हो उठा। बुद्ध भी तेजमहाभूत में समाधिस्थ होकर प्रज्वलित हो उठे। दोनों के ज्योति रूप होने से अग्निशाला प्रज्वलित-सी प्रतीत होने लगी। उरुवेल काश्यप ने अग्निशाला को चारों ओर से घेर लिया और वह कहने लगा-"हाय ! परम सुन्दर महाश्रमण नाग द्वारा मारा जा रहा है।" रात बीत गई। प्रातःकाल बुद्ध ने नागराज को बिना किसी प्रकार की क्षति पहुँचाये, उसका सारा तेज खींच लिया और उसे पात्र में रखकर उरुवेल काश्यप को दिखाते हुए कहा-“मैंने तेरे नाग का तेज खींच लिया है। अब यह निस्तेज है। किसी को भी हानि नहीं पहुँचा सकेगा।" देव-परिषह महावीर की जीवन-चर्या में संगम देव-कृत परिषह बहुत प्रसिद्ध हैं और बुद्ध की जीवन-चर्या में मार देव-कृत परिषह । दोनों ही प्रकार के परिषहों की समानता विस्मयोत्पादक है। संगम-देव महावीर ने सानुलट्ठिय से दृढ़ भूमि की ओर विहार किया। पेढ़ाल गांव के समीपवर्ती पेढ़ाल उद्यान में पोलास नामक चैत्य में आये और अट्ठम तप आरम्भ किया। एक शिला पर शरीर को कुछ झुकाकर, हाथों को फैलाया। किसी रूक्ष पदार्थ पर दृष्टि को केन्द्रित कर व दढ़मनस्क होकर वे निर्मिमेष हो गये। यह महाप्रतिमा तप कहलाता है। महावीर वहाँ एक रात्रि ध्यानस्थ रहे। उनकी इस उत्कृष्ट ध्यान-विधि को देखकर इन्द्र ने अपनी सभा को सम्बोधित करते हए कहा-"भरत क्षेत्र में इस समय महावीर के सदृश ध्यानी और धीर पुरुष अन्य कोई नहीं है। कोई भी शक्ति उन्हें अपने कायोत्सर्ग से विचलित नहीं कर सकती।" देवों में इस प्रकरण से बड़ा हर्ष हुआ। संगम को यह अच्छा नहीं लगा। उसने इन्द्र के कथन का प्रतिवाद करते हुए कहा-“ऐसा कोई भी देहधारी नहीं हो सकता, जो देव-शक्ति के सम्मुख नत न हो।" संगम ने इन्द्र के कथन को चुनौती देते हुए आगे कहा- "मैं उन्हें विचलित कर सकता हूँ। मेरी शक्ति के समक्ष उन्हें झुकना पड़ेगा।" इन्द्र ने अपने पक्ष को पुष्ट करते हुए कहा-"ऐसा न कभी हुआ और न कभी हो सकता है कि ध्यानस्थ तीर्थङ्कर किसी आघात या तर्जन से विचलित हो जायें।" संगम ने दृढ़ता के साथ कहा- मैं उनकी परीक्षा लूंगा।" १. विनय पिटक, महावग्ग, महाखन्धक । ____ 2010_05 Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा] परिषह और तितिक्षा अपने विचार को क्रियान्वित करने के लिए वह शीघ्र ही पोलास चैत्य में आया। ध्यानारूढ़ महावीर को देखा। उन्हें विचलित करने के लिए एक ही रात्रि में एक के बाद एक, बीस प्रकार के भयंकर कष्ट दिए। वे क्रमशः इस प्रकार हैं : १. प्रलय-काल की तरह धूलि की भीषण वृष्टि की। महावीर के कान, नेत्र, नाक __ आदि इस धूलि से सर्वथा सन गये। २. वज्रमुखी चींटियाँ उत्पन्न की। उन्होंने महावीर के सारे शरीर को खोखला कर दिया। ३. मच्छरों के झुण्ड बनाए और उन्हें महावीर पर छोड़ा । उन्होंने उनके शरीर का ____ बहुत खून चूसा। ४. तीक्ष्णमुखी दीमकें उत्पन्न की। वे महावीर के शरीर पर चिमट गईं और उन्हें ___काटने लगीं । ऐसा लगता था, जैसे कि उनके रोंगटे खड़े हो गये हों। ५. जहरीले बिच्छुओं की सेना तैयार की। उन्होंने एक साथ महावीर पर आक्रमण किया और अपने पैने डंक से उन्हें डंसने लगे। ६. नेवले छोड़े । भयंकर शब्द करते हुए वे महावीर पर टूट पड़े और उनके मांस ___ खण्ड को छिन्न-भिन्न करने लगे। ७. नुकीले दाँत और विष की थैलियों से भरे सर्प छोड़े। वे महावीर को बार-बार काटने लगे। अन्ततः जब वे निर्विष हो गये तो शिथिल होकर गिर पड़े। ८. चूहे उत्पन्न किए। वे महावीर को अपने नुकीले दाँतों से काटने के साथ-साथ उन पर मूत्र-विसर्जन भी करते । कटे हुए घावों पर मूत्र नमक का काम करता। ९. लम्बी संढ वाला हाथी तैयार किया। उसने महावीर को आकाश में पुनः पुनः उछाला और गिरते ही उन्हें अपने पैरों से रौंदा तथा उनकी छाती पर तीखे दाँतों से प्रहार किया। १०. हाथी की तरह हथिनी बनाई और उसने भी महावीर को बार-बार आकाश में उछाला तथा अपने पैरों से रौंदकर तीखे दान्तों से प्रहार किया। ११. बीभत्स पिशाच का रूप बनाया और वह भयानक किलकारियां भरता हुआ हाथ में पैनी बर्थी लेकर महावीर पर झपटा। पूरी शक्ति से उन पर आक्रमण किया। १२. विकराल व्याघ्र बनकर वच-सदृश दान्तों और त्रिशूल-सदृश नाखूनों से महावीर के शरीर का विदारण किया। १३. सिद्धार्थ और त्रिशला बनकर हृदय-भेदी विलाप करते हुए उन्होंने कहा-'वर्द्ध मान ! वृद्धावस्था में हमें असहाय छोड़ कर तू कहाँ चला आया?" १४. महावीर के दोनों पैरों के बीच में अग्नि जलाकर भोजन पकाने का बर्तन रखा। महावीर उस अग्नि-ताप से विचलित न हुए, अपितु उनकी कान्ति स्वर्ण की भांति निखर उठी। १५. महावीर के शरीर पर पक्षियों के पिंजरे लटका दिये । पक्षियों ने अपनी चोंच और पंजों से प्रहार कर उन्हें क्षत-विक्षत करने का प्रयत्न किया। 2010_05 Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड : १ १६. भयंकर आंधी चलाई। वृक्ष मूल से उखड़ने लगे, मकानों की छतें उड़ने लगी और साँय-साँय का भयंकर निनाद जन-मानस को भयाकुल करने लगा। महावीर उस वातूल में कई बार उड़े और गिरे। १७. चक्राकर वायु चलाई । महावीर उसमें चक्र की तरह घूमने लगे। १८. काल चक्र चलाया। महावीर घुटने तक भूमि में धंस गये। प्रतिकूल परिषहों से जब महावीर तनिक भी विचलित न हुए तो उसे कुछ लज्जाका अनुभव हुआ, फिर भी उसने प्रयास न छोड़ा। उनका ध्यान-भङ्ग करने के लिए उसने कुछ अनुकूल प्रयत्न भी किये। १६. एक विमान में बैठकर महावीर के पास आया और बोला-'कहिये' आपको स्वर्ग चाहिए या अपवर्ग? अभिलाषा पूर्ण करूँगा।" २० अन्ततः उसने एक अप्सरा को लाकर महावीर के सम्मुख खड़ा किया। उसने भी अपने हाव-भाव व विभ्रम-विलास से उन्हें ध्यान-च्युत करने का प्रयत्न किया, किन्तु, सफलता नहीं मिली। रात्रि समाप्त हुई। प्रातःकाल महावीर ने अपना ध्यान समाप्त किया और बालुका की ओर विहार किया। असफल व्यक्ति अपने दुर्विचार को ज्यों-त्यों नहीं छोड़ता । उसका प्रयत्न होता है, जैसे-तैसे भी कुछ कर डालूं । यद्यपि महावीर को मेरु की भाँति अडोल देखकर वह सन्न रह गया, फिर भी उसने दुष्प्रयत्न नहीं छोड़े। महावीर बालुका की ओर जब विहार कर रहे थे, संगम ने उन्हें भीत करने के लिए मार्ग में पांच सौ चोरों का एक गिरोह खड़ा कर दिया। किन्तु, वे भीत न हुए। उन्होंने अपना मार्ग नहीं बदला । सहज गति से चलते रहे। बालुका से विहार कर वे सुयोग, सुच्छेता, मलय और हस्तिशीर्ष आये। संगम वहाँ भी उनके साथ था और उन्हें नाना परिषह देता रहा। महावीर तोसलि गाँव के उद्यान में ध्यानस्थ थे। संगम साधु का वेष बनाकर गाँव में गया और वहाँ सेंध लगाने लगा। जनता ने उसे चोर समझ कर पकड़ लिया और उसे बरी तरह पीटने लगी । रुंआसी शक्ल में संगम ने कहा- "मुझे क्यों पीटते हैं ? मैं तो अपने गुरु की आज्ञा का पालन कर रहा हूँ।" जनता ने पूछा--"तेरा गुरु कौन है और कहाँ है ?" संगम ने उद्यान में ध्यानमग्न महावीर को बता दिया। जनता उद्यान में आई। महावीर को ध्यानस्थ देखा । जनता ने उन पर आक्रमण कर दिया। उन्हें बांधकर गांव की ओर ले जाने की तैयारी करने लगे। महाभूतिल ऐन्द्रजालिक सहसा वहाँ आ पहुँचा। उसने गांव वालों को महावीर का परिचय दिया और उन्हें मुक्त कराया। जनता उस तथाकथित साधु की खोज में लगी। वह कहीं दिखाई नहीं दिया। गाँव वालों को स्वतः यह ज्ञात हो गया कि इसमें अवश्य ही कोई षड्यंत्र था। १.प्रस्तुत बीस परिषह आवश्यक चूणि (प्रथम भाग, पत्र ३११) के आधार से हैं। कप्प सुत्त में ये ही परिषह कुछ क्रम-भेद और स्वरूप-भेद से हैं। २. आवश्यक नियुक्ति, गा० ५०८। ____ 2010_05 Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा] परिषह और तितिक्षा १६५ तोसलि से विहार कर महावीर मोसलि पहुंचे। उद्यान में ध्यानमग्न थे। संगम ने उन पर चोर होने का अभियोग लगाया। आरक्षक आये और उन्हें गिरफ्तार कर लिया। वे राजसभा में लाये गये। सभा में सिद्धार्थ का मित्र सुमागध राष्ट्रिय बैठा था। महावीर को देखकर वह खड़ा हो गया। उनका अभिवादन किया। राजा से उनका परिचय करवाया और बन्धनमुक्त किया। महावीर उद्यान में जाकर पुनः ध्यानस्थ हो गये। एक बार महावीर कायोत्सर्ग में लीन थे। संगम ने चोरी के उपकरण लाकर उनके पास रख दिए। जनता ने उन्हें चोर की आशंका से पकड़ लिया और तोसलि-क्षत्रिय के समक्ष उपस्थित किया। क्षत्रिय ने उनसे नाना प्रश्न पूछे और परिचय जानना चाहा। उन्होंने कुछ भी उत्तर नहीं दिया । मौन से क्षत्रिय और अधिक सशंक हुआ। उसने अपने परामर्श मण्डल से विमर्षण किया। सभी इस निष्कर्ष पर पहुंचे, यह छद्म साधु है; अतः इसे फांसी पर लटका दिया जाए। अधिकारियों ने आदेश को क्रियान्वित करने के लिए कदम उठाये। महावीर को फांसी के तख्ते पर ले आये और उन्होंने फांसी का फंदा उनके गले में डाला । फंदा उसी समय टूट गया। सात बार उन्हें फांसी लगाने का उपक्रम किया गया, किन्तु, वह विफल ही हुआ। राजा और अधिकारी; सभी चकित हुए और अतिशय प्रभावित भी। राजा ने महावीर को आदरपूर्वक मुक्त कर दिया। महावीर एक बार सिद्धार्थपुर आये। संगम के कारण चोर की आशंका में वे वहाँ भी पकड़े गये । अश्व-वणिक कौशिक से परिचय पाकर वे मुक्त कर दिये गये । यहाँ से ब्रजग्राम आये। वहाँ उस दिन कोई पर्व था ; अत: सबके घर खीर बनी थी। महावीर भिक्षाचरी के लिए उठे। संगम वहाँ भी पहुँच गया। महावीर जिस घर में गौचरी के लिए जाते, वह वहाँ पहुँच जाता और आहार को अकल्पनीय कर देता । महावीर संगम की दुर्बुद्धि को समझ गये और नगर छोड़कर अन्यत्र चले गये। छः महीने तक संगम महावीर को भयंकर कष्ट देता रहा। उसने अधमता की सीमा लांघ दी। महावीर फिर भी अपने मार्ग से तनिक भी विचलित न हुए । संगम मन में लज्जित हुआ। उसे दृढ़ विश्वास हो गया, मेरे अनेक प्रयत्न करने पर भी महावीर का मनोबल क्रमश: दृढतर ही हुआ है, उसमें न्यूनता नहीं हुई है । पराभूत होकर वह महावीर के समक्ष उपस्थित हुआ और अपना रहस्योद्घाटन करता हुआ बोला-"इन्द्र द्वारा की गई आपकी स्तुति अक्षरश: सत्य है । आप दृढ़प्रतिज्ञ हैं। मैं अपनी प्रतिज्ञा से भ्रष्ट हुआ हूँ। आपको कोई भी शक्ति विचलित नहीं कर सकती । भविष्य में मैं कभी भी, किसी के भी साथ ऐसी अधमता नहीं करूंगा।" महावीर समचित्त थे। संगम की पूर्व प्रवृत्तियों पर वे न उद्विग्न हुए और न इस निवेदन पर हर्षित। संगम स्वर्ग में गया। इस कुकृत्य से इन्द्र उस पर बहुत क्रुद्ध हुआ। उसकी भर्त्सना १. आवश्यक नियुक्ति, गा ५०९। २. वही, गा० ५०६ । ३. वही, ५१०। 2010_05 Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन खण्ड: १ करते हुए उसे देवलोक से निर्वासित कर दिया। वह अपनी पत्नी के साथ मेरु पर्वत की चूला पर रहने लगा। मार देव-पुत्र बुद्ध यथार्थ ज्ञान प्राप्त करने के लिए जब कृत संकल्प हो, आसन लगाकर बैठे तो मार देव-पुत्र ने सोचा-"सिद्धार्थ-कुमार मेरे अधिकार से बाहर निकलना चाहता है । मैं ऐसा नहीं होने दूंगा।" मार देव-पुत्र अपने सैन्य शिविर में आया, सारी सेना को सज्जित किया और बुद्ध पर आक्रमण करने के लिए चल पड़ा। सेना बहुत विस्तृत थी। चारों ओर व ऊँचाई में अनेक योजनों तक फैली हुई थी। मार स्वयं गिरिमेखल हाथी पर आरूढ़ हुआ और उसने सहस्रबाहु से नाना आयुध ग्रहण किये । अन्य सैनिकों ने भी अस्त्र-शस्त्र धारण किये और विभिन्न रंगों से अपनी आकृति को अत्यन्त भयावह व विचित्र बनाकर बुद्ध को भीत करने के लिए चल पड़े। जब मार अपने पूरे परिवार के साथ बोधि-मण्ड के समीप पहुँच रहा था, सारे देव-सैनिक एक-एक कर भाग खड़े हुए। बुद्ध के अप्रतिम तेज को वे देख न सके । मार देव-पुत्र को अपने प्रभाव का अनुभव हुआ और दूसरा मार्ग खोजते हुए उसने निश्चय-किया-"बुद्ध के समान दूसरा कोई भी वीर नहीं है । अभिमुख होकर इससे युद्ध नहीं कर सकेंगे ; अतः पीछे से आक्रमण करना चाहिए।" और उन्होंने पीछे से आक्रमण कर दिया। बुद्ध ने अन्य दिशाओं को खाली पाया और केवल उत्तर दिशा से मार-सेना को अपनी ओर बढ़ते पाया। उन्होंने सोचा-"ये इतने व्यक्ति मेरे विरुद्ध विशेष प्रयत्नशील हैं। मेरी ओर मेरे माता-पिता, भाई, स्वजन-परिजन आदि कोई नहीं हैं, दश पारमिताएं ही मेरे परिजन के समान हैं ; अतः उनकी ही ढाल बनाकर पारमिता-शस्त्र को ही चलाना चाहिए और इस सेना-समूह का विध्वंस करना चाहिये।" । दश पारमिताओं का स्मरण कर बुद्ध आसन जमा कर बैठ गये। मार देव ने उन्हें भगाने के उद्देश्य से कष्ट देना प्रारम्भ किया। १. भयंकर आँधी चलाई। पर्वतों के शिखर उड़ने लगे, वृक्षों की जड़ें उखड़ने लगीं और ग्राम व नगरों का अस्तित्व रह पाना असम्भव हो गया। बुद्ध स्थिरकाय बैठे रहे । चलती हुई आँधी जब बुद्ध के समीप पहुंची तो वह सर्वथा निर्बल हो चुकी थी। उनके चीवर का कोना भी नहीं हिल पाया। २. आँधी में असफल होकर मार देव-पुत्र ने बुद्ध को डुबोने के अभिप्राय से मूसलाधार वर्षा की वेगवाहिनी धाराओं से पृथ्वी में स्थान-स्थान पर छिद्र हो गये । वन-वृक्षों की ऊपरी चोटियों तक बाढ़ आ गई। फिर भी बुद्ध के चीवरों को वह ओस की बूंदों के समान भी भिगो न सका। ३. पत्थरों की वर्षा की। बड़े-बड़े धुंआ-धार, जलते-दहकते पर्वत-शिखर आकाश-मार्ग से आये और बुद्ध के समीप पहुँचकर वे पुष्पों के गुच्छे बन गये। ४. आयुधों की वर्षा की। एकधार, द्विधार, असि, शक्ति, तीर आदि प्रज्वलित आयुध माकाश-मार्ग से आये और बुद्ध के समीप पहुँचते ही वे दिव्य पुष्पों में परिवर्तित हो गये। ५. अङ्गारों की वर्षा की। रक्त-वर्ण अङ्गारे आकाश से बरसने लगे, किन्तु, वे बुद्ध के पैरों पर पुष्प बनकर बिखर गये। ____ 2010_05 Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा] परिषह और तितिक्षा ६. राख की वर्षा की । अत्यन्त उष्ण अग्नि-चूर्ण आकाश से बरसने लगा, किन्तु, बुद्ध के चरणों में वह चन्दन-चूर्ण बनकर गिरा। ७. रेत की वर्षा की। धुंधली, प्रज्वलित, अति सूक्ष्म धूल आकाश से बरसने लगी, किन्तु, बुद्ध के चरणों पर वह दिव्य पुष्प बनकर गिर पड़ी। ८. कीचड़ की वर्षा की। धुंधला व प्रज्वलित कीचड़ आकाश से बरसने लगा, किन्तु, बद्ध के चरणों पर वह भी दिव्य लेप बनकर गिरा। ६. चारों ओर सघन अंधकार फैलाना आरम्भ किया, किन्तु, वह भी बुद्ध के समीप पहुँचता हुआ, सूर्य-प्रभा से विनष्ट अन्धेरे की भाँति तिरोहित हो गया। आँधी, वर्षा, पाषाण, आयुध, अंगारे, धधकती राख, बालू, कीचड़ और अन्धकार की वर्षा से भी मार जब बुद्ध को न भगा सका तो अपने सैनिकों को आदेश दिया-“खड़े-खड़े क्या देख रहे हो? इस कुमार को पकड़ो, मारो और भगाओ।" स्वयं गिरिमेखल हाथी पर बैठकर, चक्र को हाथ में ले बुद्ध के पास पहुँचा और बोला-"सिद्धार्थ ! इस आसन से उठ। यह तेरे लिए नहीं है, अपितु मेरे लिए है।" बुद्ध ने उत्तर दिया-“मार ! तू ने न दश पारमिताएं पूर्ण की हैं, न उप-परिमिताएं और न परमार्थ पारमिताएं ही। तू ने पाँच महात्याग भी नहीं किये, न ज्ञाति-हित व लोक-हित के लिए ही कुछ किया । तू ने ज्ञान का आचरण भी नहीं किया है । यह आसन तेरे लिए नहीं, मेरे लिए ही है।" मार अपने क्रोध के वेग को रोक न सका। उसने बुद्ध पर चक्र चलाया । बुद्ध ने अपनी दश पारमिताओं का स्मरण किया। वह चक्र उन पर फूलों का चँदवा बन कर ठहर गया। यह चक्र इतना तेज या कि मार क्रुद्ध होकर यदि एक ठोस पाषाण स्तम्भ पर फेंकता तो उसे बाँसों के कड़ीर (घास) की तरह खण्ड-खण्ड कर देता। मार परिषद् ने भी बुद्ध को आसन से भगाने के लिए बड़ी-बड़ी पत्थर शिलाएं फेंकी। दश पारमिताओं का स्मरण करते ही बुद्ध के पास आकर वे फूलमालायें बनकर पृथ्वी पर गिर पड़ीं। चक्रवाल के किनारे पर खड़े देवता-गण उत्कन्धर होकर इस दृश्य को देख रहे थे। रह-रह कर उनके मस्तिष्क में एक ही चिन्तन उभर रहा था, सिद्धार्थ कुमार का सुन्दर स्वरूप नष्ट हो गया। अब वह क्या करेगा ? पारमिताओं को पूर्ण करने वाले बोधिसत्त्वों की बुद्धत्व-प्राप्ति के दिन जो आसन प्राप्त होता है, वह मेरे लिए ही है ; जब मार ने यह कहा तो बुद्ध ने उससे पूछा-मार ! तेरे दान का साक्षी कौन है ?" मार ने अपनी सेना की ओर हाथ फैलाते हुए कहा-"ये सारे मेरे साथी हैं।" सभी सैनिक मार का संकेत पाते ही एक साथ चिल्ला उठे- "हम साक्षी हैं, हम साक्षी हैं।" वह कोलाहल इतना हुआ कि जैसे पृथ्वी के फटने का शब्द होता हो। मार ने बुद्ध से पूछा-"सिद्धार्थ-कुमार तू ने दान दिया है, इसका साक्षी कौन है ?" बुद्ध ने स्पष्ट शब्दों में कहा-"तू ने जो दान दिया था, उसके साक्षी तो ये जीवित प्राणी (सचेतन) हैं; किन्तु, मैंने जो दान दिया था, यहाँ उसका जीवित साक्षी कोई नहीं है। अन्य जन्मों में दिए गए दान की बात तू रहने दे। केवल 'वेस्सन्तर जन्म' में मेरे द्वारा सात सप्ताह तक दिये गये दान की यह अचेतन ठोस महा पृथ्वी भी साक्षिणी है।" ____ 2010_05 Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड : १ बुद्ध ने तत्काल चीवर में से दाहिने हाथ को निकाला । महापृथ्वी को सम्बोधित करते हुए उन्होंने कहा – “वेस्सन्तर जन्म में मेरे द्वारा सात सप्ताह तक दिए गये दान की क्या तृ साक्षिणी है ?" १६८ ( बुद्ध ने महापृथ्वी से प्रश्न किया और उसकी ओर हाथ लटकाया । ) महापृथ्वी ने तत्काल उत्तर दिया- "मैं तेरी उस समय की साक्षिणी हूँ ।" और मार-सेना को तितर-बितर करते हुए उसने शतशः, सहस्रशः और लक्षशः महानाद किया । मार पराभूत हुआ । उसने बुद्ध के कथन को स्वीकार करते हुए कहा- -"सिद्धार्थ ! तूने महादान दिया है, उत्तम दान दिया है ।" ज्योंही मार ने वेस्सन्तर जन्म के दान पर विचार किया, गिरिमेखल हाथी ने दोनों घुटने टेक दिये। उसी समय मार सेना दिशाओं विदिशाओं में भाग निकली। एक मार्ग से दो नहीं गये । सिर के आभूषण व वस्त्रादिक छोड़, जिस ओर अवकाश मिला, उस ओर ही भाग निकले । देव - गण ने बुद्ध की विजय और मार की पराजय को देखा । वे बहुत हर्षित हुए । बुद्ध के समीप आये और उनकी पूजा की। अवलोकन संगम और मार के कुछ परिषद् तो नितान्त एक रूप ही हैं; फिर भी कुछ मौलिक अन्तर भी है । संगम द्वारा होने वाले परिषहों के आघात का परिणाम महावीर के शरीर पर होता है; किन्तु, वे इतने स्थिरकाय थे कि उनसे विचलित नहीं हुए । मार देव पुत्र द्वारा होने वाले आक्रमण जब बुद्ध के समीप पहुँचते हैं तो बुद्ध दश पारमिताओं का स्मरण करते हैं और वे (आक्रमण) पुष्प आदि के रूप में बदल जाते हैं तथा वे उनके लिए कष्टकारक नहीं होते । महावीर का संगम के साथ कोई वार्तालाप नहीं होता है । बुद्ध और मार देव पुत्र एक दूसरे को चुनौतियाँ देते हैं और दोनों में वाद-विवाद भी होता है । महावीर के समक्ष संगम और बुद्ध के समक्ष मार देव पुत्र, अन्त में, दोनों ही पराभूत होते हैं । महावीर को ये उपसर्ग छद्मस्थ काल के ग्यारहवें वर्ष में होते हैं । इन्द्र द्वारा की गई उनकी ध्यान दृढ़ता की प्रशंसा इसका निमित्त बनती है। संगम को मिध्यादृष्टि देव माना गया है। बुद्ध को मार देव-पुत्र-कृत ये उपसर्ग अबोधि दशा के अन्तिम वर्ष में होते हैं; जब कि बुद्ध सुजाता की खीर खाकर सम्यक् सम्बोधि प्राप्त किये बिना आसन को न छोड़ने का प्रण करते हैं । उपसर्गों के अनन्तर ही बुद्ध बोधि-लाभ कर लेते हैं और फिर वे स्थानान्तर से सात सप्ताह तक समाधि लगाते हुए विमुक्ति का आनन्द लेते हैं । दूसरे सप्ताह वे अजपाल बर्गद के नीचे और तीसरे सप्ताह मुचलिन्द वृक्ष की छाया में समाधि लेते हैं । उस सप्ताह अकाल मेघ का प्रकोप होता है । शरीर को चीर कर निकलने वाली ठण्डी हवाएँ चलती हैं । उस समय मुचलिन्द नागराज आता है और बुद्ध के शरीर को सात बार लपेट कर उनके मस्तक पर फन तानकर खड़ा १. जातकट्ठकथा, निदान | २. देखें, आवश्यक निर्युक्ति, मलयगिरिवृत्ति, गा० ४६८ से ५१७ । 2010_05 Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा] परिषह और तितिक्षा रहता है । इस प्रकार वह बुद्ध की शीत-ताप, दंश, मच्छर, वात, धूप, सरीसृप आदि से रक्षा करता है। यह उपसर्ग तीर्थङ्कर पार्श्वनाथ के कमठ उपसर्ग जैसा है। छद्मस्थ अवस्था में पार्श्वनाथ एक दिन वट वृक्ष की छाया में कूप के समीप ध्यानस्थ खड़े थे। पूर्व भव के विरोधी मेघमाली देव ने भयंकर कड़क और बिजली के साथ मूसलधार मेघ बरसाना प्रारम्भ किया। नदी-नाले बह चले। प्रलय का-सा दृश्य उत्पन्न हो गया। तीर्थङ्कर पार्श्वनाथ के गले तक पानी भर आया। धरणेन्द्र-पद्मावती देव-युगल ने उस समय उन्हें स्वविकुर्वित कमल-नाभि पर खड़ा किया और उनके मस्तक पर विकुर्वित नागराज फन तान कर खड़ा रहा। इस प्रकार तीन दिन तक वे देव द्वारा सुरक्षित रहे। १. विनय पिटक, महावग्ग, महाखन्धक। २. विस्तार के लिए देखें-त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्रम् । ____ 2010_05 Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कवल्य और बोधि कैवल्य "अनुत्तर ज्ञान, दर्शन, चारित्र, आर्जव, स्वाध्याय, वीर्य, लाघव, क्षान्ति, मुक्ति (निर्लोभता), गुप्ति, तुष्टि, सत्य, संयम, तप और सुचरित तथा पुष्ट फल देने वाले निर्वाण मार्ग से अपनी आत्मा को भावित करते हुए महावीर ने बारह वर्ष का सुदीर्घ समय बिता दिया। तेरहवें वर्ष में एक बार वे, जंभिय ग्राम के बाहर, ऋजुबालिका नदी के उत्तर तट पर, श्यामाक गाथापति के खेत में, व्यावृत चैत्य के न अधिक दूर और न अधिक समीप, ईशान कोण में, शालवृक्ष के नीचे, गोदोहिकासन से, ध्यानस्थ होकर आतापना ले रहे थे। उस दिन उनके निर्जल षष्टभक्त तप था। बैशाख शुक्ला दशमी का दिन था। पूर्वाभिमुख छाया थी। अपराह्न का अन्तिम प्रहर था। विजय मुहूर्त में उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र था। पूर्ण निस्तब्ध व शान्त वातावरण में एकाग्रता की उत्कृष्टता में महावीर शुक्ल ध्यान में लीन थे। प्रबल पुरुषार्थी महावीर उस समय साधना के अन्तिम छोर तक पहुँचे । चार घाती कर्मों का क्षय किया और उन्होंने केवल ज्ञान और केवल दर्शन को प्राप्त किया। वह ज्ञान और दर्शन चरम, उत्कृष्ट, अनुत्तर, अनन्त, व्यापक, सम्पूर्ण, निरावरण और अव्याहत था। इसकी प्राप्ति के बाद वे मनुष्य, देव तथा असुर-प्रधान लोक के समस्त जीवों के सभी भाव और पर्याय जानने देखने लगे। कैवल्य-प्राप्ति के साथ-साथ देवलोक में प्रकाश हुआ। देवों के आसन चलित होने लगे। देवों के इन्द्र, सामानिक देव, त्रायस्त्रिश देव, लोकपाल, देवों की अग्रमहिषियाँ, पारिवारिक देव, सेनापति, आत्म-रक्षक देव और लोकान्तिक आदि देव अहं-प्रथमिका से मनुष्यलोक में उतर आये । स्थान-स्थान पर देवों की सभाओं का समायोजन होने लगा। देवियां ईषद् मुस्कान से मधुर संगायन करने लगीं। सब दिशाएं शान्त एवं विशुद्ध हो रहीं थीं। अत्यन्त आश्चर्यकारक प्रकाश से सारा संसार जगमगा उठा । आकाश में गम्भीर घोष से दुन्दुभि १. आयारंग, श्रु० २, अ० १५; कप्प सुत्त, कल्पद्रुम कलिका वृत्ति के आधार से। ____ 2010_05 Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा] कैवल्य और बोधि १७१ बजने लगी। नारक जीवों ने अभूतपूर्व सुख की सांस ली। मन्द-मन्द सुखकर हवा चलने लगी। अनेक अलौकिक घटनाएँ घटी।' बोधि बुद्ध दिन में नदी के तटवर्ती सुपुष्पित शालवन में विहार करते रहे। सायंकाल वहाँ से चले और बोधि वृक्ष के समीप आये। मार्ग में उन्हें श्रोत्रिय घसियारा घास लेकर आता हुआ मिला। उसने बुद्ध को आठ मुट्ठी तृण दिये। बुद्ध उन्हें लेकर बोधि-मण्ड पर चढ़े और दक्षिण दिशा में उत्तर की ओर मुंह कर खड़े हुए। उस समय दक्षिण चक्रवाल दबकर मानो अवीचि (नरक) तक चला गया और उत्तर चक्रवाल उठकर मानो भवाग्र तक ऊपर चला गया। बुद्ध को अनुभव हुआ, यहाँ सम्बुद्धत्व की प्राप्ति नहीं होगी। वे वहाँ से हटे और प्रदक्षिणा करते हुए पश्चिम दिशा में जाकर पूर्वाभिमुख होकर खड़े हो गये । पश्चिम चक्रवाल दब कर अवीचि तक चला गया और पूर्व चक्रवाल भवाग्र तक। वे जहाँ-जहाँ जाकर ठहरे, वहाँ-वहाँ नेमियों को विस्तीर्ण कर नाभि के बल पर लेटाये हुए शकट के पहिये के सदृश महापथ्वी ऊँची-नीची हो उठी। बुद्ध को वहाँ भी अनुभव हुआ, यहाँ भी बोधि-प्राप्ति न वे वहाँ से हटे और उत्तर में जाकर दक्षिणाभिमुख होकर खड़े हुए। उस समय भी उत्तर का चक्रवाल दबकर अवीचि तक चला गया और दक्षिण का चक्रवाल भवाग्र तक । उस स्थान को भी बुद्धत्व-प्राप्ति के लिए अनुपयुक्त समझकर वे वहाँ से हटे, प्रदक्षिणा की और पूर्व में जाकर पश्चिमाभिमुख होकर खड़े हो गये। उनके मानस में तत्काल यह विचार उभरा; "यह सभी बुद्धों से अपरित्यक्त स्थान है। यही दुःख-पञ्जर के विध्वंसन का स्थान है।" उन्होंने तृणों के अग्र भाग को पकड़ कर हिलाया। वे तृण तत्काल ही चौदह हाथ के आसन में बदल गये। तण जिस आकार में गिरे, वह बहुत ही सुन्दर था। चित्रकार या शिल्पकार भी वैसा आकार चित्रित नहीं कर सकते । बुद्ध ने बोधिवृक्ष की ओर पीठ कर एकाग्र हो, दृढ़ निश्चय किया"चाहे मेरी चमड़ी, नसें, अस्थियां ही अवशेप क्यों न रह जायें, शरीर, मांस, रक्त आदि भी क्यों न सूख जायें, सम्यक् सम्बोधि प्राप्त किये बिना मैं इस आसन को नहीं छोडूंगा।" पूर्वाभिमुख होकर सौ बिजलियों के गिरने से भी न टूटने वाला अपराजित आसन लगाकर वे बैठ गये। मार ने बुद्ध को उस आसन से विचलित करने के लिए वायु, वर्षा, पाषाण, आयुध, अंगारे, धधकती राख, बालू, कीचड़ और अंधकार की भयंकर वृष्टि की। किन्तु, वह सफल न हो सका। सूर्यास्त से पूर्व ही पराभूत होकर वह वहाँ से भाग निकला। उस समय बुद्ध के चीवर पर बोधि वृक्ष के अंकुर गिर रहे थे। ऐसा प्रतीत होता था कि लाल मूंगों की वर्षा से उनकी पूजा हो रही है । प्रथम याम' में उन्हें पूर्व जन्मों का ज्ञान हुआ, दूसरे याम में दिव्य चक्षु विशुद्ध हुआ और अन्तिम याम में उन्होंने पतीच्चसमुप्पाद का साक्षात्कार किया। चक्रवालों के बीच आठ सहस्र लोकान्तर, जो पहले सात सूर्य के प्रकाश से भी कभी प्रकाशित नहीं होते थे, उस समय १.त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्रम्, पर्व १०, सर्ग ५। २. चार घण्टे का एक याम । प्रथम याम रात्रि का प्रथम तृतीयांश । 2010_05 Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड : १ चारों ओर से प्रकाशित हो उठे। चौरासी हजार योजन गहरे महासमुद्र का पानी मीठा हो गया। नदियों का बहाव रुक गया। जन्मान्ध देखने लगे, जन्म से बहरे सुनने लगे और जन्म के पंगु चलने लगे। बन्दिजनों की हथकड़ियां और बेड़ियां टूट कर गिर पड़ी। वे बन्धन-मुक्त हो गये। उस समय अनेक विस्मय-कारक घटनायें घटी।' 'कैवल्य' की अपेक्षा 'बोधि' का वर्णन अधिक आलंकारिक है। कैवल्य के सम्बन्ध स देवों के आगमन की विशेष चर्चा है और बोधि के सम्बन्ध से मनुष्य-लोक की । अलौकिक और विस्मय-कारक घटनाओं के घटित होने का उल्लेख दोनों में समान रूप से है। अवलोकन सर्वज्ञता के सम्बन्ध में बौद्धों की मान्यता है, बुद्ध जो जानना चाहते हैं, वह जान सकते हैं; जबकि जैनों की धारणा है, जो ज्ञेय था, वह सब महावीर ने अपने कैवल्य-प्राप्ति के प्रथम क्षण में ही जान लिया । बोधि-प्राप्त बुद्ध अपनी विवक्षा के प्रारम्भ में सोचते हैं"मैं सर्वप्रथम इस धर्म की देशना किसे करूँ; इस धर्म को शीघ्र ही कौन ग्रहण कर सकेगा?" तत्काल ही उनके मन में आया, "आलार-कालाम मेधावी, चतुर व चिरकाल से अल्प मलिन चित्त है। क्यों न मैं उसे ही सर्वप्रथम धर्म की देशना दूं ? वह इसे बहुत शीघ्र ग्रहण कर लेगा।" प्रच्छन्नरूप से देवताओं ने कहा- "भन्ते ! आलार-कालाम तो एक सप्ताह पूर्व ही मर चुका है।" बुद्ध को भी उस समय ज्ञान-दर्शन हुआ और उन्होंने इस घटना को जाना। साथ ही उन्होंने सोचा, "आलार-कालाम महाआजानीय था। यदि वह इस धर्म को सुनता, शीघ्र ही ग्रहण कर लेता।" फिर उन्होंने चिन्तन किया-"उद्दकराम पुत्र चतुर, मेधावी व चिरकाल से अल्प मलिन चित्त है। क्यों न मैं पहले उसे ही धर्मोपदेश करूँ? वह इस धर्म को शीघ्र ही ग्रहण कर लेगा।" देवताओं ने गुप्त रूप से उन्हें सूचित किया-"भन्ते ! वह तो रात को ही काल-धर्म को प्राप्त हो चुका है।" बुद्ध को भी उस समय ज्ञान-दर्शन हुआ। चिन्तन-लीन होकर बुद्ध ने फिर सोचा-"पंचवर्गीय भिक्षु मेरे बहुत काम आये है। साधना-काल में उन्होंने मेरी बहुत सेवा की थी। क्यों न मैं सर्वप्रथम उन्हें ही धर्मोपदेश करूं।" आगे उन्होंने सोचा- "इस समय वे कहाँ हैं ?" उन्होंने अमानुष विशुद्ध दिव्य नेत्रों से देखा -"वे तो इस समय वाराणसी के ऋषिपत्तन मृग-दाव में विहार कर रहे हैं।"२ बोधि-लाभ के पश्चात् बुद्ध ऐसे लोगों को धर्मोपदेश देने का सोचते हैं, जो दिवंगत हो चुके हैं। जब उन्हें बताया जाता है, तब वे अपने 'ज्ञान-दर्शन' से भी वैसा जानते हैं । ज्ञान और दर्शन शब्द का प्रयोग दोनों परम्पराओं में युगपत् चलता है। महावीर केवलज्ञानकेवलदर्शन प्राप्त करते हैं। बुद्ध अपने ज्ञान-दर्शन से आलार-कालाम व उद्दकराम-पुत्र की मृत्यु को जानते हैं। जैन परम्परा में पाँच ज्ञान और चार दर्शन माने गए हैं। पाँच ज्ञान में - १. जातकट्ठथा, निदान । २. विनय पिटक, महावग्ग, महाखन्धक के आधार से। ३. ज्ञान-मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्यव, केवल । ४. दर्शन-चक्षु, अचक्षु, अवधि, केवल । ___ 2010_05 Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा कैवल्य और बोधि तीसरा अवधिज्ञान है । अवधिज्ञानी (विमंग-ज्ञानी) अपने विषय पर दत्तचित्त होकर ही ज्ञेय का ज्ञान करता है । बुद्ध का ज्ञान भी जैन परिभाषा में अवधिज्ञान (विभंग-ज्ञान) जैसा ही प्रतीत होता है। इस तथ्य की पुष्टि इससे भी होती है कि बौद्ध शास्त्र सर्व-काल और सर्वदेश में अवस्थित केवलज्ञान के प्रति अनास्था और असंभवता व्यक्त करने के साथ-साथ उपहास भी व्यक्त करते हैं। सन्दक सुत्त में कहा गया है-'यहाँ एक शास्ता सर्वज्ञ, सर्वदर्शी, अशेष ज्ञान-दर्शन-सम्पन्न होने का दावा करता है-चलते, खड़े रहते, सोते, जागते, सदासर्वदा मुझे ज्ञान-दर्शन प्रत्युपस्थित रहता है । तो भी वह सूने घर में जाता है और वहाँ भिक्षा पाता, कुक्कुर भी काट खाता है, चण्ड हाथी से भी उसका सामना हो जाता है, चण्ड घोड़े और चण्ड बैल से भी सामना हो जाता है। सर्वज्ञ होने पर भी स्त्री-पुरुषों के नाम-गोत्र पूछता है, ग्राम-निगम का नाम और मार्ग पूछता है। आप सर्वज्ञ होकर यह क्या जनता द्वारा प्रश्न किये जाने पर, वह कहता है-सूने घर में जाना भवितव्यता थी, इसलिए । भिक्षा न मिलना भवितव्यता थी, इसलिए न मिली। कुक्कुर का काटना, हाथी से मिलना, घोड़े और बैल से मिलना भी भवितव्यता थी; अतः वैसा हुआ।"२ उक्त आक्षेपों की मीमांसा में जाना यहाँ विषयानुगत नहीं होगा । यहाँ तो केवल इतना ही अभिप्रेत है कि कैवल्य और बोधि एक परिभाषा में नहीं समा पाते । जैनों की सर्वज्ञता बौद्धों के लिए एक प्रश्न चिह्न ही रही है। सर्वज्ञता का प्रश्न वर्तमान युग में मूलतः ही विवादास्पद बन रहा है। नवीन धारणाओं में महावीर की सर्वज्ञता उप्पन्नेह वा, विगमेह वा. धुवेहवा' की उपलब्धि और बुद्ध की बोधि यत् सत् तत् क्षणिक के विवेक-लाभ में समाहित हो जाती है। १. अवधिज्ञान ही पात्र-भेद के कारण विभंग-ज्ञान कहा जाता है। २. मज्झिम निकाय, मज्झिम पण्णासक, परिब्बाजक वग्ग, सन्दक सुत्त। ३. भगवती, शतक ५, उद्देशक ६, सूत्र २२५ । ____ 2010_05 Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० भिक्ष-संघ और उसका विस्तार भगवान् महावीर के धर्म-संघ में १४००० साधु और ३६००० साध्वियां बताई गई हैं। भगवान बुद्ध के धर्म-संघ में भिक्षु और भिक्षुणियां कितनी थीं, यह निश्चित और एकरूप बता पाना कठिन है। बोधि-लाभ के कुछ समय पश्चात ही जब वे सर्वप्रथम राजगह में आये १०६३ भिक्षु उनके साथ थे, ऐसा उल्लेख मिलता है। सारिपुत्त और मोग्ग्ल्लान २५० परिव्राजकों के परिवार से बौद्ध संघ में और सम्मिलित हो गये । इस प्रकार बुद्ध के राजगृह प्रथम आगमन के समय कुल संख्या १३४५. हो गई। कपिलवस्तु के प्रथम गमन में २०००० भिक्षु उनके साथ थे। ललित-विस्तर के अनुसार श्रावस्ती-गमन के समय १२००० भिक्षु और ३२००० बोधिसत्त्व उनके साथ थे। ___संघ-विस्तार का कार्य कैवल्य और बोधि-प्राप्ति के साथ-साथ ही प्रारम्भ हो गया था। सहस्रों-सहस्रों के थोक (समूह) विविध घटना-प्रसंगों के साथ दीक्षित हुए थे। दीक्षित होने वालों में बड़ा भाग वैदिक पण्डितों, परिव्राजकों व क्षत्रिय राजकुमारों का होता था। दोनों ही परम्पराओं के ये दीक्षा-प्रसंग बहुत ही अद्भुत और प्रेरक हैं। कहीं-कहीं तो इन घटनाओं में विलक्षण समानताएं भी हैं। महावीर इन्द्रभूति आदि ग्यारह पण्डितों व चार हजार चार-सौ उनके ब्राह्मण शिष्यों को दीक्षित करते हैं । बुद्ध उरुवेल आदि तीन जटिल नायकों को उनके एक हजार शिष्यों सहित दीक्षित करते हैं। इन्द्रभूति एक ही घटना-प्रसंग से कोडिन्न, दिन्न, सेवाल; इन तीन तापस-नायकों को उनके पन्द्रह सौ तापस शिष्यों के साथ दीक्षित् करते हैं। __ महावीर अपनी जन्म-भूमि में आकर पांच सौ व्यक्तियों के परिवार से अपने जामाता जमालि को व पन्द्रह सौ के परिवार से अपनी पुत्री प्रियदर्शना को दीक्षित करते हैं। बुद्ध कपिलवस्तु-आगमन प्रसंग में दस सहस्र नागरिकों व अपने पुत्र राहुल तथा महा प्रजापति गौतमी के पुत्र नन्द को दीक्षित करते हैं । १. उववाई, सूत्र १० ; कप्प सुत्त, सू० १३४-३५ । २. भगवान बद्ध, प०१५४ । ____ 2010_05 Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा ] क्या सब कुछ अतिशयोक्ति ? बौद्ध विद्वान् धर्मानन्द कोसम्बी बौद्ध भिक्षुओं की बढ़ी चढ़ी इन संख्याओं के बारे में संदिग्धता उत्पन्न करते हैं । वे कहते हैं : "बुद्ध को वाराणसी में साठ भिक्षु मिले । GE***... भिक्षु संघ और उसका विस्तार ... राजगृह तक भगवान् बुद्ध को जो भिक्षु मिले, उनकी संख्या क्या इन पन्द्रह भिक्षुओं से अधिक थी ? बुद्ध को वाराणसी में साठ भिक्षु मिले, उरुवेला जाते समय रास्ते में तीस और उरुवेला में एक हजार' - इस प्रकार कुल मिलाकर १०९३ भिक्षुओं के संघ के साथ भगवान् ने राजगृह में प्रवेश किया। वहां सारिपुत्त एवं मोग्गल्लान के साथ संजय परिव्राजक के ढाई सौ शिष्य आकर बौद्ध संघ में आकर मिल गए ; यानी उस समय भिक्षु संघ की संख्या १३४५ हो गई थी । परन्तु इतना बड़ा भिक्षु संघ बुद्ध के पास होने का उल्लेख सुत्तपिटक में कहीं नहीं मिलता। सामञ्ञफलसुत्त में कहा गया है कि बुद्ध भगवान् परिनिर्वाण से एक-दो वर्ष पहले जब राजगृह गये तब उनके साथ १२५० भिक्षु थे, परन्तु tafter के दूसरे आठ सुंत्तों में भिक्षु संघ की संख्या ५०० दी गई है और ऐसा प्रतीत होता है कि भगवान् की अन्तिम यात्रा में भी उनके साथ ५०० भिक्षु ही थे । भगवान् के परिनिर्वाण के बाद राजगृह में भिक्षुओं की जो पहली परिषद् हुई, उसमें भी ५०० भिक्षु ही थे । अतः यह अनुमान लगाया जा सकता है कि भगवान् के परिनिर्वाण तक भिक्षु संघ की संख्या ५०० से अधिक नहीं हुई थी । १७५ "बुद्ध भगवान् परिनिर्वाण के बाद कदाचित् इस संख्या को बढ़ा-चढ़ा कर बताने का कार्य शुरू हुआ । ललित विस्तर के शुरू में ही कहा गया है कि श्रावस्ती में भगवान् के साथ बारह हजार भिक्षु एवं बत्तीस हजार बोधिसत्त्व थे । इस प्रकार अपने सम्प्रदाय का महत्त्व बढ़ाने के लिए उस समय के भिक्षुओं ने पूर्वकालीन भिक्षुओं की संख्या बढ़ानी शुरू की और महायान पंथ के ग्रन्थकारों ने तो उसमें चाहे जितने बोधिसत्त्वों की संख्या बढ़ा दी। बौद्ध धर्म की अवनति का यही प्रमुख कारण था। अपने धर्म एवं संघ का महत्व बढ़ाने के लिए बौद्ध भिक्षुओं ने बे-सिर-पैर की दन्त कथाएं गढ़ना शुरू कर दिया और ब्राह्मणों ने उनसे भी अधिक अद्भुत कथा गढ़कर भिक्षुओं को पूरी तरह हरा दिया । "3 श्री कोसम्बी ने अपनी समीक्षा में उक्त प्रकार की भिक्षु संख्याओं को नितान्त अतिशयोक्ति पूर्ण बताया है; पर, लगता है, समीक्षा करते हुए वे स्वयं को भी अतिशयोक्ति से बचा नहीं सके । जैन और बौद्ध अवान्तर ग्रन्थों में अतिशयोक्तियाँ की गई हैं, पर, दीक्षासम्बन्धी आँकड़ों को नितान्त काल्पनिक ही मान लेना यथार्थ नहीं लगता । मनुष्य सदा ही वातावरण में जीता है और प्रवाह में चलता है । महावीर और बुद्ध का युग आध्यात्मिक उत्कर्ष का एक सर्वोच्च काल था । उस युग में आध्यात्मिकता की अन्तिम पहुंच थी - गृहमुक्ति । श्रद्धा का युग था । राजा, राजकुमार और बड़े-बड़े घनिक उस रास्ते पर अगुआ होकर चल 2010_05 १. पंचवर्गीय भिक्षु, यश और उसके चार मित्र, तीन काश्यप बन्धु और संजय के शिष्य सारिपुत्त तथा मौद्गल्लान । २. यहाँ 'एक हजार तीन' होना चाहिए; देखें, भगवान् बुद्ध, पृ० १५१ । ३. भगवान् बुद्ध, पृ० १५३-५४ । Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७६ __ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन रहे थे। ऐसी स्थिति में विशेष आश्चर्य की बात नहीं रह जाती कि बहु-संख्यक लोग घर छोड़ एक साथ प्रवजित हो जाते हों। अस्तु, कुछ भी रहा हो, प्रस्तुत प्रकरण तो दोनों परम्पराओं के इतिहास, भाव-भाषा आदि को समझने का ही है। प्रस्तुत प्रकरण में दोनों ही परम्पराओं के जो दीक्षा-प्रसंग दिए गए हैं, वे न तो क्रमिक हैं और न समन ही हैं । चुने हुए मुख्य-मुख्य प्रसंग यहां संग्रहीत किए गये हैं। निर्ग्रन्थ दीक्षाएं ग्यारह गणषर सोमिल ब्राह्मण मध्यम पावापुरी में एक विशाल यज्ञ का अनुष्ठान कर रहा था । सारे शहर में अद्भुत चहल-पहल थी। यज्ञ में भाग लेने के लिए दूर-दूर से सुप्रसिद्ध विद्वान् अपने बृहत् शिष्य-परिवार से आए थे। इन्द्रभूति, अग्निभूति, वायुभूति, व्यक्त, सुधर्मा, मण्डित (मण्डिक), मौर्यपुत्र, अकम्पित, अचलभ्राता, मेतार्य और प्रभास, उनमें प्रमुख थे । इन्द्रभूति, अग्निभूति और वायुभूति गौतम गोत्री और मगध देश के गोबर गांव के निवासी थे। तीनों ही चौदह विद्याओं में पारंगत थे और प्रत्येक के पाँच-पाँच सौ शिष्य थे। व्यक्त और सुधर्मा कोल्लाग सन्निवेश के निवासी थे । व्यक्त भारद्वाज गोत्री और सुधर्मा अग्नि वैश्यायन गौत्री थे। दोनों के ही पांच-पांच सौ शिष्य थे। मण्डित और मौर्यपत्र मौर्यसन्निवेश के थे। मण्डित वासिष्ठ और मौर्यपुत्र काश्यप गोत्री थे। दोनों के साढे तीन-तीन सौ शिष्य थे। अकम्पित मिथिला के थे और गौतम गौत्री थे। अचलभ्राता कौशल के थे और उनका गौत्र हारित था। मेतार्य कौशाम्बी के निकटस्थ तंगिक के निवासी थे और प्रभास राजगह के। दोनों कौण्डिन्य गोत्री थे। चारों के तीन-तीन सौ शिष्य थे। यज्ञ के विशाल आयोजन में इन ग्यारह ही विद्वानों की उपस्थिति ने चार चांद लगा दिये। ग्यारह ही विद्वान् अपने दर्शन के अधिकृत व्याख्याता, सूक्ष्मतम रहस्यों के अनुसंधाता व अपर दर्शनों के भी ज्ञाता थे ; किन्तु सभी विद्वान् किसी-न-किसी विषय में संदिग्ध भी थे। वे इतने दक्ष थे कि अपनी आशंकाओं को अपने शिष्य-परिवार में व्यक्त न होने देते थे। उनकी आशंकाओं का ब्यौरा इस प्रकार है : १. इन्द्रभूति- आत्मा का अस्तित्व है या नहीं ? २. अग्निभूति- कर्म है या नहीं ? ३. वायुभूति- जो जीव है, वही शरीर है ? ४. व्यक्त पंचभूत है या नहीं? ५. सुधर्मा- इस भव में जो जैसा है, पर भव में भी वह वैसा ही होता है ? ६. मण्डित कर्मों का बन्ध व मोक्ष कैसे है ? ७. मौर्यपुत्र स्वर्ग है या नहीं? ८. अकम्पित- नरक है या नहीं ? ६. अचल भ्राता- पुण्य-पाप है या नहीं? १०. मेतार्य परलोक है या नहीं? ११. प्रभास निर्वाण है या नहीं ? ____ 2010_05 Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा] भिक्षु-संघ और उसका विस्तार १७७ भगवान महावीर कैवल्य प्राप्ति के दूसरे दिन वहां पधारे और महासेन उद्यान में ठहरे। समवसरण की रचना हुई। नागरिक अहमहमिकया से उद्यान की ओर बढ़े जा रहे थे। देवों में भी उस ओर आने के लिए प्रतिस्पर्धा-सी लग रही थी। आकाश में देव-विमानों को देखकर ग्यारह ही विद्वान् फूले नहीं समा रहे थे । वे मन-ही-मन अपनी विद्वत्ता और यज्ञानुष्ठान-विधि की सफलता पर अतिशय प्रफुल्लित हो रहे थे। किन्तु, कुछ ही क्षणों में उनका वह प्रसाद विषाद में बदल गया। देव-विमान यज्ञ-मण्डल पर न रुक कर उद्यान की ओर बढ़ गये । विद्वानों के मन में खिन्नता के साथ जिज्ञासा हुई, ये विमान किधर गए ? यहां और कौन महामानव आया है ? चारों ओर आदमी दौड़े। शीघ्र ही ज्ञात हुआ, यहां सर्वज्ञ महावीर आए हुए हैं । देव-गण उन्हें वन्दना करने के लिए आये हैं। इन्द्रभूति के मन में विचार हुआ : "मेरे जैसे सर्वज्ञ की उपस्थिति में यह दूसरा सर्वज्ञ यहां कौन उपस्थित हुआ है ? भोले मनुष्य को तो ठगा भी जा सकता है, किन्तु, इसने तो देवों को भी ठग लिया है। यही कारण है कि मेरे जैसे सर्वज्ञ को छोड़कर वे इस नए सर्वज्ञ के पास जा रहे हैं।" विचारमग्न इन्द्रभूति देवताओं के बारे में भी संदिग्व हो गए । उन्होंने सोचा; सम्भव है, जैसा यह सर्वज्ञ है, वैसे ही ये देव हों। किन्तु, कुछ भी हो, एक म्यान में दो तलवार नहीं रह सकतीं। मेरे रहते हुए कोई दूसरा व्यक्ति सर्वज्ञता का दम्भ भरे, यह मुझे स्वीकार नहीं है। महावीर को वन्दन कर लौटते हुए मनुष्यों को इन्द्रभूति ने देखा और उनसे महावीर के बारे में नाना प्रश्न पूछे-"क्या तुमने उस सर्वज्ञ को देखा है ? कैसा है वह सर्वज्ञ ? उसका स्वरूप कैसा है ?" इन्द्रभूति के प्रश्न से प्रेरित होकर जनता ने महावीर के गुणों की भूरि-भूरि व्याख्या की। इन्द्रभूति के अध्यवसाय हुए ---"वह अवश्य ही कोई कपट मूर्ति-ऐन्द्रजालिक है। उसने जनता को अपने जाल में अच्छी तरह फंसाया है ; अन्यथा इतने लोग भ्रम में नहीं फंसते । मेरे रहते हुए कोई व्यक्ति इस तरह गुरुडम जमाये, यह नहीं हो सकता । मेरे समक्ष बड़े-बड़े वादियों की तूती बन्द हो गई तो यह कौनसी हस्ती है ? मेरी विद्वत्ता की इतनी धाक है कि बहुत सारे विद्वान् तो अपनी मातृभूमि छोड़ कर भाग खड़े हुए। सर्वज्ञत्व का अहं भरने वाला मेरे समक्ष यह कौन-सा किंकर है ?" __भूमि पर उन्होंने अपने पैर से एक प्रहार किया और रोषारुण वहां से उठे। मस्तक पर द्वादश तिलक किए। स्वर्ण यज्ञोपवीत धारण किया। पीत वस्त्र पहने। दर्भासन और कमण्डलु लिया। पांच सौ शिष्यों से परिवृत्त इन्द्रभूति वहां से चले और जहां महावीर थे, वहां आए। महावीर ने इन्द्रभूति को देखते ही कहा-“गौतम गौत्री इन्द्रभूति ! तुझे जीवात्मा के सम्बन्ध में सन्देह है ; क्योंकि घट की तरह आत्मा प्रत्यक्षतः गृहीत नहीं होती है। तेरी धारणा है कि जो अत्यन्त अप्रत्यक्ष है, वह इस लोक में आकाश-पुष्प के सदृश ही है।" ___इन्द्रभूति इस अगम्य सर्वज्ञता से प्रभावित हुए। सुदीर्घ आत्म-चर्चा से उनका मनोगत सन्देह दूर हुआ। अपनी शिष्य-मण्डली सहित उन्होंने निर्ग्रन्थ-प्रव्रज्या स्वीकार की। एक-एक कर इसी क्रम से दसों ब्राह्मण विद्वान् आए। मनोगत शंकाओं का समाधान पाया और अपनी-अपनी मण्डली के साथ निर्ग्रन्थ धर्म में दीक्षित हुए। महावीर के श्रमण संघ ____ 2010_05 Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७८ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड : १ में वे गणधर कहलाए। इस प्रकार महवीर का धर्म संघ चम्मालीस सौ ग्यारह ब्राह्मणदीक्षाओं से प्रारम्भ हुआ । इन्द्रभूति गौतम के नाम से प्रसिद्धि पाए । सुधर्मा महावीर निर्माण के पश्चात् प्रथम पट्टधर बने । दिगम्बर मान्यता के अनुसार गौतम ही महावीर के प्रथम पट्टधर थे । ' चन्दनबाला बौद्ध संघ में कुछ समय तक स्त्री-दीक्षा वर्जित रही । निर्ग्रन्थ संघ में महावीर के प्रथम समवसरण में ही स्त्री-दीक्षायें हुईं । चन्दनबाला प्रथम शिष्या थी और वह छत्तीस हजार के बृहत् श्रमणी - संघ में भी सदैव प्रवर्तिनी ( अग्रणी ) रही । महावीर का छः मास का तप अभिग्रह मूलक था । उनका अभिग्रह था : “द्रव से उड़द के बाकुले हों; शूर्प के कोने में हों ; क्षेत्र से - दाता का एक पैर देहली के अन्दर व एक बाहर हो ; काल से - भिक्षाचरी की अतिक्रांत बेला हो ; भाव से - राजकन्या हो, दासत्व प्राप्त हो, श्रृंखला-बद्ध हो ; सिर से मुण्डित हो, रुदन करती हो, तीन दिन की उपोसित हो ; ऐसे संयोग में मुझे भिक्षा लेना है । अन्यथा छः मास तक मुझे भिक्षा नहीं लेना है ।" छः मास में जब पाँच दिन अवशिष्ट थे, तब चन्दनबाला के हाथों यह अभिग्रह पूरा हुआ । चन्दनबाला की जीवन-गाथा आदि मध्य व अन्त में बहुत ही घटनात्मक है । वह चम्पा के राजा दधिवाहन व धारिणी की इकलौती कन्या थी । उसके दो नाम थे-- चन्दनबाला और वसुमती । लाड़-प्यार में ही उसका शैशव बीता। कौशाम्बी के राजा शतानीक ने एक बार जल-मार्ग से सेना लेकर बिना सूचित किये एक ही रात में चम्पा को घेर लिया । पूर्व सज्जा के अभाव में दधिवाहन की हार हुई। शतानीक के सैनिकों ने निर्भय होकर दो प्रहर तक चम्पा के नागरिकों को यथेच्छ लूटा। एक रथिक राजमहलों में पहुँचा। वह रानी धारिणी और राजकुमारी चन्दनबाला को अपने रथ में बैठा कर भाग निकला । शतानीक विजयी होकर कौशाम्बी लौट आया । रथिक धारिणी और चन्दनबाला को लेकर निर्जन अरण्य में पहुँच गया। वहाँ उसने रानी के साथ बलात्कार का प्रयत्न किया । रानी ने उसे बहुत समझाया, किन्तु, उसकी सविकार मनोभावना का परिष्कार न हो सका । जब वह मर्यादा का अतिक्रमण कर रानी की ओर बढ़ ही आया तो उसने अपने सतीत्व की रक्षा के निमित्त जीभ खींच कर प्राणों की आहुति दे दी और रथिक की दुश्चेष्टा को सर्वथा १. गणधरवाद ; आवश्यक नियुक्ति, गा० १७ ६५ के आधार पर । २. सामी य इमं एतारूवं अभिग्गहं अभिगेण्हति, चउव्विहं दव्वतो ४, दव्वतो कुंमासे सुप्पकोणेणं, खित्तओ एलुयं विक्खंभइत्ता, कालओ नियत्तेसु भिक्खायरेसु, भावतो जदि रायघूया दासत्तणं पत्ताणियलबद्धा मुंडियसिरा रोयमाणी अट्ठभत्तिया, एवं कप्पति, सेसंण कप्पति, कालो य पोसबहुल पाडिवओ । एवं अभिग्गहं घेणं कोसंबीए अच्छति । - आवश्यक चूर्णि, प्रथम भाग, पत्र ३१६-३१७; आवश्यक निर्युक्ति, मलयगिरिवृत्ति पत्र सं २४-२६५; श्री कल्पसूत्रार्थ प्रबोधिनी, पृ० १५४ । 2010_05 Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा] भिक्षु-संघ और उसका विस्तार १७६. विफल कर दिया। रानी की इस मार्मिक मृत्यु ने रथिक के नेत्र खोल दिये और चन्दनबाला को भी एक जीवन्त शिक्षा मिल गई। रथिक कौशाम्बी लौट आया चन्दनबाला को उसने एक दासी की भाँति बाजार में बेच दिया। पहले उसे एक वेश्या ने खरीदा और वेश्या से धनावह सेठ ने । चन्दनबाला सेठ के घर एक दासी की भाँति रहने लगी। उसके व्यवहार में राज-कन्या का कोई प्रतिबिम्ब नहीं था। उसका व्यवहार सब के साथ चन्दन की तरह अतिशय शीतल था; अतः तब से उसका चन्दना नाम अति विश्रुत हो गया। चन्दनबाला प्रत्येक कार्य को अपनी चातुरी से विशेष आकर्षक बना देती। वह अतिशय श्रमशीला थी; अतः सबको ही भा गई। उसकी लोकप्रियता पर सभी दास-दासी मुग्ध थे। कार्य की प्रचुरता व्यक्तित्व की शालीनता को आवृत्त नहीं कर सकती। चन्दनबाला युवती हुई । उसके प्रत्येक अवयव में सौन्दर्य निखर उठा । सेठानी मूला को उसके लावण्य से डाह होने लगी। सेठ कहीं इसे अपनी सहमिणी न बना ले; यह उसके तन में भय था। चन्दनबाला के प्रत्येक कार्य को वह प्रतिक्षण घूर-चूर कर देखती रहती थी। चन्दनबाला ने इस ओर कभी ध्यान नहीं दिया। वह सेठ और सेठानी को माता-पिता ही मानती और उनके साथ एक दासी की भाँति रहती। उसने कभी यह व्यक्त भी नहीं होने दिया कि वह एक राजकुमारी है। सेठ एक दिन किसी गाँव से यात्रा कर लौटा । दोपहर का समय हो चुका था। पदयात्रा के श्रम से व भूख-प्यास से वह अत्यन्त क्लान्त हो गया था। घर पहुँचते ही वह पैर धोने के लिए बैठा । चन्दनबाला पानी लेकर आई। सेठ पैर धोने लगा और वह धुलाने लगी। चन्दनबाला के केश सहसा भूमि पर बिखर पड़े। कीचड़ में वे सन न जाये, इस उद्देश्य से सेठ ने उन्हें उठाया और उसकी पीठ पर रख दिया। झरोखे में बैठी मूला की वक्र दृष्टि उस समय चन्दनबाला और सेठ पर पड़ी। उसे अपनी आशंका सत्य प्रमाणित होती हुई दिखाई दी। उसके शरीर में आग-सी लग गई। उस क्षण से ही उसने चन्दनबाला के विरुद्ध षड्यन्त्र की योजना आरम्भ कर दी। सेठ आये दिन अपने व्यवसाय के काम से देहातों में जाता रहता था। एक दिन जब वह देहात गया, पीछे से मूला ने चन्दनबाला को पकड़ा और सिर मुंडन कर, पैरों को बेड़ी से जकड़ कर उसे भौंहरे में डाल दिया। घर बन्द कर स्वयं पीहर चली गई। सेठ को तीन दिन लग गये। जब वह लौटा तो उसे घर बन्द मिला । उसे आश्चर्य हुआ और खिन्नता भी हुई। बाहर का द्वार खोलकर सेठ घर में गया। सभी कमरों के दरवाजों पर ताले लगे हुए थे। एक-एक कर सेठ ने सभी कमरों को संभाला। घूमता हुआ वह नीचे भौंहरे के पास भी जा पहुँचा। वहाँ उसे किसी के सिसकने की आवाज सुनाई दी। उसने करुण स्वर में पूछा"कौन चन्दना?" घर्घराए स्वर से उत्तर मिला-"हाँ, पिताजी ! मैं ही हूँ।" सेठ के दुःख का पार न रहा । उसने चन्दनबाला को जैसे-तैसे बाहर निकाला। रुंधते हुए गले से पूछा"बेटी ! तेरे साथ यह बर्ताव किसने किया ?" चन्दनबाला फिर भी शान्त थी। उसने अपने धैर्य को नहीं खोया । बोली-"पिताजी ! मेरे ही अशुभ कर्मों का यह परिपाक है।" 2010_05 Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८० आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड : १ चन्दनबाला तीन दिन से भूखी थी। उसने विलखते हुए कहा- पिताजी ! कुछ खाने को दें। सेठ तत्काल घर में आया। रसोई को ताला लगा हुआ था। इधर-उधर खोजने पर उसे शूर्प में पड़े उड़द के सूखे बाकुले मिले । सेठ उन्हें लेकर चन्दनबाला के पास आया। आश्वासन के साथ उसने वे बाकूले शप-सहित चन्दनबाला के हाथ में रखे । सेठ ने कहा"बेटी ! एक बार तू इन्हें खा । मैं तेरी शृङ्खलायें तोड़ने का प्रबन्ध करता हूँ।" । सेठ वहाँ से चला। चन्दनबाला सिसकती हुई द्वार तक पहुंच गई । पैरों से जकड़ा हुई सिर से मुण्डित, तीन दिन की भूखी चन्दनबाला शूर्प में उड़द के सूखे बाकुले लिए अकेली दुःखमग्न बैठी थी। सहसा विचार आया, यदि इस समय किसी निर्ग्रन्थ का योग मिले, तो मैं यह रुखा-सूखा दान देकर कृतकृत्य हो जाऊँ। उसके भाग्य ने उसे सहारा दिया। अभिग्रहधारी भगवान् महावीर अकस्मात् वहाँ पधारे । उनके अभिग्रह को पांच महीने पच्चीस दिन पूरे हो रहे थे । अपने द्वार पर भावी तीर्थङ्कर महावीर को देखकर चन्दनबाला पुलक उठी। उसका सारा दुःख राख में बदल गया। हर्षातिरेक से उसने प्रार्थना की--"प्रभो ! इस प्रासक अन्न को ग्रहण कर मेरी भावना पूर्ण करें।" महावीर अवधिज्ञानी थे। उन्होंने अपने अभिग्रह की पूर्णता की ओर ध्यान दिया। उसकी पूर्ति में केवल एक बात अवशिष्ट थी। चन्दनबाला की आँखों में आंसू नहीं थे । महावीर वापिस मुड़ गये। चन्दनबाला को अप्रत्याशित दुःख हुआ। वह रो पड़ी। महावीर ने मुड़कर एक बार चन्दनबाला की ओर देखा। उनका अभिग्रह अब पूर्ण हो चुका था । बढ़ते हुए कदम रुके और दूसरे ही क्षण चन्दनबाला की ओर बढ़ चले । झरती आँखों से और हर्षातिरेक से चन्दनबाला ने महावीर को उड़द के सूखे बाकले बहराये। मह वीर ने वहाँ पारणा किया। आकाश में 'अहोदानं अहोदान' की देव-दुन्दुभि बज उठी। पाँ दिव्य प्रकट हए । साढ़े बारह करोड़ स्वर्ण-मुद्राओं की वृष्टि हुई। चन्दनबाला का सौन्दर्य अतिशय निखर उठा। उसकी लोह-शृङ्खला स्वर्ण-आभूषणों में परिवर्तित हो गई। सर्वत्र सतीत्व की यशोगाथा गाई जाने लगी। शतानीक राजा की पत्नी मृगावती चन्दनबाला की मौसी थी। राजा और रानी ने जब यह उदन्त सुना, चन्दनबाला को राजमहलों में बुला लिया। विवाह करने के लिए आग्रह किया, पर, वह इसके लिए प्रस्तुत नहीं हुई। केवलज्ञान प्राप्त कर जब महावीर मध्यम पावा पधारे, तब चन्दनबाला उनके समवशरण में दीक्षित हुई। इसी अवसर पर अनेकानेक पुरुष श्रावक बने तथा महिलाएं श्राविकाएं साधु, साध्वी, श्रावक, श्राविका रूप चतुर्विध तीर्थ की स्थापना हुई, जिससे कि महावीर तीर्थङ्कर कहलाए ।' मेघकुमार मेधकुमार राजा श्रेणिक का पुत्र था। आठ कन्याओं के साथ उसका पाणि-ग्रहण किया गया। तीर्थङ्कर महावीर राजगृह आये। राजा श्रेणिक सपरिवार दर्शनार्थ आया। महावीर की प्रेरक देशना सुनकर परिषद् नगर को लौट आई। श्रेणिक भी राज-महलों में लौट आया । मेघकुमार के मन में महावीर के उपदेश ने एक अभिनव चेतना जागृत कर दी। वह १. आवश्यक चूणि, भाग-१ । . ____ 2010_05 Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा ] भिक्षु सघ और उसका विस्तार શ્ संसार से पराङ्मुख होकर साधु-चर्या को स्वीकार करना चाहता था । पिता श्रेणिक और माता धारणी के पास आकर उसने करबद्ध कहा- "आप ने चिरकाल तक मेरा लालन-पालन किया है । मैं आपको केवल श्रम देने वाला ही रहा हूँ । किन्तु, मैं आप से एक प्रार्थना करना चाहता हूँ; इस दुःखद जगत् से मैं ऊब गया हूँ । भगवान् महावीर यहाँ पधारे हैं। यदि आप अनुमति दें, तो मैं उनके चरणों में साधु-धर्म स्वीकार कर लूँ ।" श्रेणिक और धारिणी ने साधु-जीवन की दुष्करता के बारे में मेघकुमार को नाना प्रकार से समझाया, किन्तु, वह अपने विचारों पर दृढ़ रहा । उसने नाना युक्तियों से उत्तर देकर माता-पिता को आश्वस्त कर दिया कि वह भावुकता व आवेश से साधु नहीं बन रहा है। राजा श्रेणिक ने अन्ततः एक प्रस्ताव रखते हुए कहा - " वत्स ! तू संसार से उद्विग्न है; अतः राज्य, ऐश्वर्य, परिवार आदि तुझे लुभा नहीं सकते । किन्तु, मेरी एक अभिलाषा है । तुझे वह पूर्ण करनी चाहिए। मैं चाहता हूँ, कम-से-कम एक दिन के लिए मगध का यह राज्य भार तू संभाल । यदि तू ऐसा कर सकेगा तो मुझे शान्ति प्राप्त होगी । " मेघकुमार ने श्रेणिक के इस प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया । समारोहपूर्वक उसका राज्याभिषेक किया गया। सारे मगध में खुशियाँ मनाई गईं । राजा श्रेणिक पूर्णतः तृप्त हो गया । उसने मेघकुमार को वत्सलता की दृष्टि से निहारा और पूछा - " वत्स ! मैं अब तेरे लिए क्या कर सकता हूँ ?" मेघकुमार ने सविनय कहा - ' - "पितृवर ! यदि आप मेरे पर प्रसन्न हैं तो कुत्रिकापण से मुझे रजोहरण, पात्र आदि मंगवा दें। मैं अब साधु बनना चाहता हूँ । श्रेणिक ने तदनुसार सब व्यवस्था की । एक लाख स्वर्ण मुद्रा से रजोहरण मंगाया और एक लाख स्वर्ण मुद्रा से पात्र । राज्याभिषेक महोत्सव की तरह ही मेघकुमार का अभिनिष्क्रमण महोत्सव भी उल्लेखनीय रूप से मनाया गया। महावीर के द्वारा भागवती दीक्षा ग्रहण कर मेघकुमार साधु-चर्या में लीन हो गया । नन्दीसेन नन्दीसेन राजा श्रेणिक का पुत्र था। एक बार महावीर राजगृह आये । राजा और राज-परिवार के अन्य सदस्यों के साथ नन्दीसेन भी महावीर के दर्शन करने तथा प्रवचन सुनने के लिए गया । हजारों मनुष्यों की परिषद् में महावीर का प्रवचन हुआ और प्रश्नोत्तर हुए। प्रवचन से प्रभावित हो, जहाँ सैंकड़ों व्यक्ति सम्यक्त्वी व देशव्रती हुए, वहाँ नन्दीसेन सर्वव्रती (साधु) होने को तत्पर हुआ । राज-महलों की मनोहत्य मोग सामग्री को छोड़कर अकिञ्चन निर्ग्रन्थ बनने के राजकुमार के संकल्प का सर्वत्र स्वागत हुआ । किन्तु, सहसा एक आकाशवाणी हुई- "राजकुमार ! अपने निर्णय पर पुनः चिन्तन करो। तुम्हारे भोग्य कर्म अभी अवशिष्ट हैं । वे निकाचित हैं । तुम्हें भोगने ही पड़ेंगे। तुम्हारा संकल्प उत्तम है, पर, उन भोग्य कर्मों की तुम उपेक्षा नहीं कर सकोगे ।' १. णाया धम्मकहाओ, अ० १ के आधार से । 2010_05 Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [ खण्ड : १ के राजकुमार मन-ही-मन हँसा । वह वैराग्य से पूर्णतः मावित हो रहा था । साहस साथ बोला "ज्योति के समक्ष क्या कभी निबिड़ तम का अस्तित्व टिक पाया है ? हवा के झोंकों के सम्मुख घुमड़ते और कजरारे बादल अपना अस्तित्व कितने समय स्थिर रख पाए हैं ? मैं दीक्षित होते ही जब घोर तपश्चर्या करूँगा, कौन से कर्म कितने दिन रह पाएँगे ? भविष्य का आधार वर्तमान के अतिरिक्त कहाँ हो सकता है ? मैं अपने प्रत्येक क्षण को सावधानीपूर्वक तपश्चर्या के साथ स्वाध्याय, ध्यान और कायोत्सर्ग में नियोजित करूँगा । किसी भी अनिष्ट की आशंका को वहाँ स्थान ही नहीं रहने दूंगा ।" १८२ अनुकूल व प्रतिकूल सहयोग की उपेक्षा करता हुआ दृढ़प्रतिज्ञ नन्दीसेन भगवान् महावीर के समवशरण में पहुँचा और उत्कट वैराग्य के साथ दीक्षित हो गया । अनिष्ट की सम्भावना व्यक्ति को प्रतिक्षण जागरूक रखती है । नन्दीसेन देव-वाणी को अन्यथा प्रमाणित करने के लिए तपश्चरण में लीन हो गया । उसने अपने हृष्ट-पुष्ट व तेजस्वी शरीर को अत्यन्त कुश व कांति विहीन कर दिया । केवल अस्थियों का ढाँचा ही दिखाई देता था । वह सर्वथा एकान्त में रहता और आत्म-स्वरूप का ही चिन्तन करता । पक्ष पक्ष, मास-मास की तपस्या के अनन्तर एक बार बस्ती में गोचरी के लिए जाता और पुनः शीघ्र ही आकर अपने अध्यात्म-चिन्तन में लीन हो जाता था । इससे उसे तपोजन्य बहुत सारी लब्धियाँ प्राप्त हो गई । सत्कार्य करते हुए भी व्यक्ति कभी-कभी अपने मार्ग से च्युत हो जाता है और अनालोचित चक्र में फँस जाता है । नन्दीसेन एक दिन गोचरी के लिए बस्ती में आया । संयोगवश वह एक गणिका के घर पहुँच गया । घर में उसे एक महिला मिली। उसने अपनी सहज वाणी में पूछा - "क्या मेरे योग्य यहाँ आहार मिल सकता है ?" गणिका ने भौंड़ी शक्ल और दीन अवस्था में नन्दीसेन को देखकर तपाक से उत्तर दे दिया" जिसके पास सम्पत्ति का बल है, उसके लिए यहाँ सब कुछ मिल सकता है, किन्तु जो दरिद्र है, वह मेरे जीने में भी पैर नहीं रख सकता ।" वेश्या के कथन से नन्दीसेन का अहं जागृत हो गया। उसके मन में आया, इसने मुझे नहीं पहचाना । मेरे तपःप्रभाव से यह अनभिज्ञ है । अवसर आ गया है; अतः कुछ परिचय मुझे देना चाहिए। नन्दीसेन ने भूमि पर पड़ा एक तिनका उठाया। उसे तोड़ा । तत्काल स्वर्णमुद्रायें बरस पड़ीं । वेश्या ने नन्दीसेन की ओर देखा और नन्दीसेन ने वेश्या की ओर । वह एक बार समझ नहीं पाई कि यह स्वप्न है या वास्तविकता, किन्तु, उसने बड़ी पटुता से स्थिति को सम्भाला । तत्क्षण आगे आई और नन्दीसेन को अपने प्रति अनुरक्त करने के लिए विविध प्रयत्न करने लगी । यह अनुराग और विराग का स्पष्ट संघर्ष था । एक ओर वर्षों की कठोर साधना थी और दूसरी ओर दो क्षण का मधुर व्यवहार । नन्दीसेन अपनी साधना को भूल गया । उसने वेश्या द्वारा रखा गया सहवास का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया । साधना से विचलित होता हुआ नन्दीसेन कुछ समय आकर्षण और विकर्षण के झूले में झूलता रहा । उसने उस समय एक प्रतिज्ञा की "प्रति दिन दस व्यक्तियों को प्रतिबोध देकर प्रव्रज्या के लिए भगवान् महावीर के समवशरण में भेजूंगा । जब तक यह कार्य न हो जाएगा, तब तक भोजन नहीं करूँगा । " नन्दीसेन अपनी प्रतिज्ञा पर दृढ़ रहा । वह प्रतिदिन दस-दस व्यक्तियों को निर्ग्रन्थ धर्म 2010_05 Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा] भिक्षु-संघ और उसका विस्तार १८३ के प्रति श्रद्धाशील बनाता और भगवान् महावीर के समवशरण में पहुँचाता। प्रतिज्ञा पूर्ण होने पर ही वह भोजन करता। एक दिन नौ व्यक्तियों को तो वह प्रतिबोध दे चुका था। दसवाँ व्यक्ति स्वर्णकार था। वह प्रतिबुद्ध नहीं हो रहा था। बहुत देर लग गई। प्रतीक्षा करती वेश्या व्यग्र हो उठी। उसने आकर भोजन के लिए कहा। नन्दीसेन ने कहा-"दसवें व्यक्ति को बिना समझाये मैं भोजन कैसे करूँ !" वेश्या झुंझलाकर बोल पड़ी-"ऐसी बात है, तो स्वयं ही दसवें क्यों नहीं बन जाते ?" नन्दीसेन को बात लग गई । वेश्या देखती ही रही । वह वहाँ से महावीर के समवशरण में आ पुनः दीक्षित हुआ।' ऋषभदत्त-देवानन्दा राजगृह में तेरहवाँ वर्षा वास समाप्त कर भगवान् महावीर ने विदेह की ओर प्रस्थान किया । मार्गवर्ती ब्राह्मणकुण्ड ग्राम पधारे। उसके निकटवर्ती बहुशाल चैत्य में ठहरे। इसी ग्राम में शृषभदत्त ब्राह्मण रहता था। उसकी पत्नी का नाम देवानन्दा था। महावीर के आगमन का संवाद याम में विद्युत की तरह फैल गया। ऋषभदत्त अपनी पत्नी के साथ महावीर को वन्दन करने के लिए चला। जब वह उनके निकट पहुंचा, पांच अभिगमों से युक्त हुआ। उसने सचित्त का त्याग किया, वस्त्रों को व्यवस्थित किया, उत्तरासंग किया और बद्धांजलि होकर मानसिक वृत्तियों को एकान किया। तीन बार आदक्षिणा प्रदक्षिणापूर्वक वन्दना की और देशना सुनने के लिए बैठ गया। देवानन्दा ने भी ऋषभदत्त की भाँति पाँच अभिगमनपूर्वक वन्दना की और देशना सुनने के लिए बैठ गई । महावीर की ओर ज्यों-ज्यों वह देखती थी, अत्यन्त रोमांचित होती जा रही थी। उसका वक्ष उभरा जा रहा था । आँखों से हर्ष के आंसू उमड़े जा रहे थे। उसे स्वयं को भी पता न चल रहा था कि यह सब क्या हो रहा है ? अकस्मात् उसकी कंचुकी टूटी और उसके स्तनों से दूध की धारा बह निकली। गणधर गौतम ने इस अभूतपूर्व दृश्य को देखा। उनके मन में सहज जिज्ञासा हुई। वन्दना कर भगवान् महावीर से उन्होंने पूछा-"भन्ते ! देवानन्दा आज इतनी रोमांचित क्यों हुई ? उसके स्तन से दुग्ध-धारा बहने का विशेष निमित्त क्या बना?" भगवान् महावीर ने उत्तर दिया-गौतम ! देवानन्दा मेरी माता है। मैं इसका पुत्र हूँ। पुत्र-स्नेह के कारण ही यह रोमाञ्चित हुई है।" अश्रुतपूर्व इस उदन्त से सभी विस्मित हुए। गणधर गौतम ने अगला प्रश्न किया"अन्ते ! आप तो रानी त्रिशला के अङ्गजात हैं ?' ___भगवान् महावीर ने गर्म परिवर्तन की अपनी सारी घटना सुनाई । तब तक वह घटना सब के लिए अज्ञात ही थी। ऋषमदत्त और देवानन्दा के हर्ष का पारावार नहीं रहा। __भगवान् महावीर ने ऋषभदत्त, देवानन्दा और विशाल परिषद् को धर्मोपदेश दिया। सभी श्रोता सुनकर अत्यन्त हर्षित हुए। ऋषभदत्त खड़ा हुआ। उसने भगवान् से प्रार्थना की ----"भन्ते ! आपके धर्म में मेरी श्रद्धा है। मुझे यह रुचिकर है। यह धर्म भव-भ्रमण का अन्त करने वाला है। अतः मैं इसे स्वीकार करना चाहता हूँ। मैं प्रवजित होकर कृत्स्न कर्मों का १. त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्रम्, पर्व १०, सर्ग ६ के आधार से। 2010_05 Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८४ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड : १ क्षय करना चाहता हूँ।" वह तत्काल वहाँ से उठा । ईशान दिशा में गया। आभरण, अलंकार आदि का व्युत्सर्जन किया । पञ्च मुष्टि लुंचन किया। प्रभु के चरणों में उपस्थित हुआ। तीन बार आदक्षिणा-प्रदक्षिणापूर्वक वन्दना की और दीक्षित होकर भगवान् के संघ में प्रविष्ट हो गया।' देवानन्दा भी ऋषभदत्त के साथ ही प्रव्रजित हुई और प्रवर्तिनी चन्दनबाला के नेतृत्व में रहने लगी। जमालि-प्रियवर्शना क्षत्रियकुण्ड ग्राम में जमालि नामक क्षत्रियकुमार रहता था। वह अत्यन्त ऐश्वर्यशाली था। वह महावीर की बहिन सुदर्शना का पुत्र था; अतः उनका भाणेज था और महावीर की पुत्री प्रियदर्शना का पति था; अतः उनका जामाता था। भगवान् महावीर ग्रामानुग्राम विहार करते क्षत्रिय कुण्डपुर नगर में आये। समवशरण लगा । नगर के नर-नारी एक ही दिशा में चल पड़े। जमालि क्षत्रियकुमार भी वन्दनार्थ समवशरण में आया । महावीर ने महती परिषद् में देशना दी। जमालिकुमार प्रतिबुद्ध हुआ। उसने महावीर के सम्मुख हो निवेदन किया, "भगवन् ! मुझे निर्ग्रन्थ प्रवचन रुचिकर प्रतीत हुआ है, सत्य प्रतीत हुआ है। मैं अगार धर्म से अनगार धर्म में प्रविष्ट होना चाहता हूँ।" महावीर ने कहा-जहा सुहं-जैसे सुख हो, वैसे करो, विलम्ब मत करो। जमालिकुमार राजप्रासाद में आया। माता-पिता से अपने मन की बात कही। माता-पिता पुत्र-विरह के आशंकित भय से रो पड़े। पुत्र को बहुत प्रकार से समझाया, पर, सब व्यर्थ । अन्तत: मातापिता सहमत हुए। दीक्षा-समारोह रचा। आशीर्वादात्मक जय-घोषों के साथ सहस्रों नागरिकों ने उसकी वर्धापना की। जमालिकुमार व माता-पिता के विनम्र निवेदन पर महावीर ने उसे भिक्षु-संघ दीक्षित किया। पांच सौ अन्य क्षत्रियकुमार भी उसके साथ दीक्षित हुए। उसकी पत्नी अर्थात् महावीर की पुत्री प्रियदर्शना भी एक हजार अन्य क्षत्रिय महिलाओं के साथ दीक्षित हुई।४ १. दीक्षा के बाद-ऋषभदत्त ने ग्यारह अंगों का सम्यक् अध्ययन किया । छ8, अट्ठम, दशम आदि अनेक विध तप का अनुष्ठान किया और बहुत वर्षों तक आत्मा को भावित करता हुआ साधु-पर्याय में रमण करता रहा । अन्तिम ममय में एक मास की संलेखना और अनशन से मोक्ष-पद प्राप्त किया। २. दीक्षा के बाद-देवानन्दा ने भी ग्यारह अंगों का अध्ययन किया। नाना तपस्याओं में अपनी आत्मा को भावित करती हुई वह सब कर्मों का क्षय कर मुक्त हुई। -भगवती, श०६, उ० ३३ के आधार से। ३. विशेषावश्यकभाष्य, सटीक, पत्र ६३५। ४. जमालि की दीक्षा भगवती, श० ६, उ० ३३; प्रियदर्शना की दीक्षा त्रिषष्टिशलाका पुरुषचरित्रम, पर्व १०, सर्ग ८ के आधार से। जमालि-सम्बन्धी आगे का वर्णन देखें, विरोधी शिष्य, प्रकरण के अन्तर्गत 'जमालि। 2010_05 Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा ] जयन्ती भिक्षु संघ और उसका विस्तार भगवान् महावीर ने वैशाली से वत्सदेश की ओर विहार किया । कौशाम्बी वहाँ की राजधानी थी । वहाँ चन्द्रावतरण चैत्य में पधारे । सहस्त्रानीक का पौत्र, शतानीक का पुत्र, वैशाली के राजा चेटक की पुत्री मृगावती का पुत्र राजा उदयन वहाँ राज्य करता था । श्रमणोपासिका जयन्ती उदयन की बुआ थी । वह साधुओं के लिए प्रथम शय्यातर के रूप में प्रसिद्ध थी । कौशाम्बी में नव्य आगत साधु पहले पहल जयन्ती के यहाँ ही वसति की याचना करते थे । I महावीर के आगमन का संवाद सुनकर जयन्ती अपने पुत्र के साथ वन्दना करने आई । महावीर ने धर्म देशना दी । श्रमणोपासिका जयन्ती ने उपदेश सुना और उसके अनन्तर कुछ प्रश्न पूछे । उसका पहला प्रश्न था - "भन्ते ! जीव शीघ्र ही गुरुत्व को कैसे प्राप्त होता है ?" महावीर - " जयन्ती ! १. प्राणातिपात २. मृषावाद, ३. अदत्तादान, ४ मैथुन, ५. परिग्रह, ६. क्रोध, ७. मान, 5 माया, ६. लोभ, १०. राग, ११. द्वेष, १२. कलह, १३. अभ्याख्यान, १४, पैशुन्य, १५. पर-परिवार, १६. रति- अरति १७. मायामृषा और १८. मिथ्यादर्शन - ये अठारह दोष पाप हैं; जिनके आसेवन से जीव शीघ्र ही गुरुत्व को प्राप्त होता है ।" जयन्ती - “भगवन् ! आत्मा लघुत्व को कैसे प्राप्त होती है ?” महावीर - " प्राणातिपात आदि के अनासेवन से आत्मा लघुत्व को प्राप्त होती है । प्राणातिपात आदि की प्रवृत्ति से आत्मा जिस प्रकार संसार को बढ़ाती है, प्रलम्ब करती है, संसार में भ्रमण करती है; उसी प्रकार उनकी निवृत्ति से संसार को घटाती है, ह्रस्व करती है और उसका उल्लंघन कर देती है ।" नहीं ।" १८५ जयन्ती - "भन्ते ! मोक्ष प्राप्त करने की योग्यता जीव को स्वभाव से प्राप्त होती है या परिणाम से ?" महावीर - "मोक्ष प्राप्त करने की योग्यता जीव को स्वभाव से होती है, परिणाम से जयन्ती - "क्या सब भव- सिद्धिक आत्माएँ मोक्षगामिनी हैं ?" महावीर - "हाँ, जो भव- सिद्धिक हैं, वे सब मोक्षगामिनी हैं । "1 जयन्ती - "भगवन् ! यदि भव-सिद्धिक जीव सब मुक्त हो जायेंगे, तो क्या यह संसार उन से रहित नहीं हो जायेगा ?" महावीर - " जयन्ती ! ऐसा नहीं है । सादि व अनन्त तथा दोनों ओर से परिमित व दूसरी श्रेणियों से परिवृत्त सर्वाकाश की श्रेणी में से एक-एक परमाणु पुद्गल प्रति-समय निकालने पर अनन्त उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी व्यतीत हो जाये, फिर भी वह श्रेणी रिक्त नहीं होती । इसी प्रकार भव-सिद्धिक जीवों के मुक्त होने पर भी यह संसार उनसे रिक्त नहीं होगा ।" जयन्ती - "जीव सोता हुआ अच्छा है या जगता हुआ ?" महावीर - "कुछ एक जीवों का सोना अच्छा है और कुछ एक का जगना ।" जयन्ती - "भन्ते ! यह कैसे ?" 2010_05 Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड : १ महावीर-“जयन्ती ! जो जीव अधार्मिक हैं, अधर्म का ही अनुसरण करते है, जिन्हें अधर्म ही प्रिय है, जो अधर्म की ही व्याख्या करते हैं, जो अधर्म के ही प्रेक्षक हैं, अधर्म में ही आसक्त हैं, अधर्म में ही हर्षित हैं और जो अधर्म से ही अपनी जीविका चलाते हैं; उनका सोना ही अच्छा है। ऐसे जीव जब सोते रहते हैं, तो प्राण-भूत-जीव-सत्त्व-समुदाय के शोक और परिताप का कारण नहीं बनते । ऐसे जीव मोते रहते हैं, तो उनकी अपनी और दूसरों की बहुत-सी अधार्मिक संयोजना नहीं होती, अतः ऐसे जीवों का सोना ही अच्छा है । "और हे जयन्ती ! जो जीव धार्मिक, धर्मानुसारी, धर्म-प्रिय, धर्म-व्याख्याता, धर्म प्रेक्षक, धर्मासक्त, धर्म में हर्षित और धर्मजीवी हैं ; उनका जगना ही अच्छा है। ऐसे जीव जगते हुए बहुत सारे प्राणियों के अदु:ख और अपरिताप के लिए कार्य करते हैं। ऐसे जीव जागत हों, तो अपने और दूसरों के लिए धार्मिक संयोजना के निमित्त बनते हैं; अतः उनका जगते रहना अच्छा है।। "इसी अभिप्राय से कुछ एक जीवों का सोते रहना अच्छा है और कुछ एक का जगते रहना।" जयन्ती-"भगवान् ! जीवों की दुर्बलता अच्छी है या सबलता?" महावीर-"कुछ जीवों की सबलता अच्छी है और कुछ जीवों की दुर्बलता अच्छी जयन्ती-"भन्ते ! यह कैसे ?" महावीर.---. "जो जीव अधार्मिक हैं और अधर्म से ही जीविकोपार्जन करते हैं, उनकी दुर्बलता ही अच्छी है। क्योंकि उनकी वह दुर्बलता अन्य प्राणियों के लिए दुःख का निमित्त नहीं बनती। जो जीव धार्मिक हैं, उनका सबल होना अच्छा है । इसीलिए में कहता हूँ कि कुछ की दुर्बलता अच्छी है और कुछ की सबलता।" जयन्ती-"क्षमाश्रमण ! जीवों का दक्ष व उद्यमी होना अच्छा है या आलसी होना?" महावीर-"कुछ जीवों का उद्यमी होना अच्छा है और कुछ का आलसी होना।" जयन्ती-"क्षमाश्रमण ! यह कैसे ?" महावीर-"जो जीव अधार्मिक हैं और अधर्मानुसार ही विचरण करते हैं, उनका आलसी होना ही अच्छा है । जो जीव धर्माचरण करते हैं, उनका उद्यमी होना ही अच्छा है ; क्योंकि धर्मपरायण जीव सावधान ही होता है और वह आचार्य, उपाध्याय, स्थविर, तपस्वी, ग्लान, शैक्ष, गण, संघ और सार्मिक की वैयावृत्ति करता है।" जयन्ती-"प्रभो ! श्रोत्रेन्द्रिय के वशीभूत पीड़ित जीव क्या कर्म बांधता है ?" महावीर-“केवल श्रोत्रेन्द्रिय के ही नहीं, अपितु, पांचों इन्द्रियों के वशीभूत होकर जीव संसार में भ्रमण करता है।" श्रमणोपासिका जयन्ती महावीर से अपने प्रश्नों का समाधान पाकर अत्यन्त हर्षित हुई। जीवाजीव की विभक्ति को जानकर उसने महावीर के चरणों में प्रव्रज्या ग्रहण की।' १. भगवती, श० १२, उ०२ के आधार से। 2010_05 Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा ] काश्यप भिक्षु संघ और उसका विस्तार राजगृह में काश्यप गृहपति रहता था । उसने महावीर के पास साधु - व्रत ग्रहण किया । ग्यारह अंगों का अध्ययन किया । घोर तप का अनुष्ठान किया । सोलह वर्षों तक साधु-पर्याय का निरतिचार पालन करते हुए विपुल पर्वत पर पादोपगमन अनशन पूर्वक मोक्ष प्राप्त किया। 2 स्कन्दक परिव्राजक राजगृह के गुणशिल चैत्य से प्रस्थान कर ग्रामानुग्राम विहरण करते हुए महावीर एक बार कयंगला आये । ईशानकोण स्थित छत्रपलाशक चैत्य में ठहरे । वहाँ भगवान् का समवशरण हुआ । कयंगला के निकट श्रावस्ती नगर था । वहाँ कात्यायन गोत्रीय गर्दभाल परिव्राजक का शिष्य स्कन्दक परिव्राजक रहता था । वह चारों वेद, इतिहास व निघण्टु का ज्ञाता था । षष्टितंत्र ( कापिलीय शास्त्र ) का विशारद था । गणितशास्त्र, शिक्षाशास्त्र, आचारशास्त्र, व्याकरणशास्त्र, छन्दशास्त्र, व्युत्पत्तिशास्त्र, ज्योतिषशास्त्र तथा अन्य ब्राह्मण-नीति और दर्शन - शास्त्र में भी वह पारंगत था । उसी नगर में भगवान् महावीर का श्रावक पिंगल निर्ग्रन्थ रहता था | पिंगल एक दिन स्कन्दक के आश्रम की ओर जा निकला। उसके समीप जाकर उससे नाना प्रश्न पूछे। पिंगल ने कहा – “मागघ ! यह लोक सान्त है या अनन्त ? जीव सान्त है या अनन्त ? सिद्धि सान्त है या अनन्त ? सिद्ध सान्त है या अनन्त ? किस प्रकार का मरण पाकर जीव संसार को घटाता और बढ़ाता है ?" १८७ प्रश्न सुनते हो स्कन्दक शंकाशील हो गया । असमंजस में तैरता - डूबता रहा । उत्तर देने को ज्यों ही उद्यत होता, उसके मन में आता क्या उत्तर दूं? मेरे उत्तर से प्रश्नकर्ता सन्तुष्ट होगा या नहीं ? विचारमग्न स्कन्दक उत्तर न दे सका । वह मौन रहा। पिंगल ने साक्षेप अपने प्रश्न दो-तीन बार दुहराये । शंकित और कांक्षित स्कन्दक बोल न सका । उसे अपने पर अविश्वास हो गया था; अतः उसकी बुद्धि स्खलित हो गई । स्कन्दक ने जनता के मुंह से छत्रपलाशक में महावीर के आगमन का वृत्त सुना । मन में विचार आया, कितना सुन्दर हो, यदि मैं महावीर के पास जाऊँ और उपर्युक्त प्रश्नों का समाधान करूँ । संकल्प को सुदृढ़ कर वह परिव्राजकाश्रम में गया । त्रिदण्ड, कुण्डी, रूद्राक्ष - माला, मृत्पात्र, आसन, पात्र प्रमार्जन का वस्त्र खण्ड, त्रिकाष्टिका, अंकुश, कुश की मुद्रिका सदृश वस्तु, कलई का एक प्रकार का आभूषण, छत्र, उपानह, पादुका, गैरिक वस्त्र आदि यथास्थान धारण किये और कयंगला की ओर प्रस्थान किया । -" गौतम ! आज तुम अपने एक पूर्व भगवान् महावीर ने उसी समय गौतम से कहापरिचित को देखोगे ।" 2010_05 १. बौद्ध परम्परा में भी काश्यप नाम से एक महान् भिक्षु हुए हैं । वे प्रथम संगीति के कर्णधार रहे हैं । नाम साम्य के अतिरिक्त दोनों में कोई एकरूपता नहीं है । २. अन्तगडदसाओ, वर्ग ६ | Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८८ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड : १ गौतम ने पूछा- "भन्ते ! मैं किस पूर्व परिचित से मिलंगा?" महावीर ने कहा-"कात्यायन गोत्रीय स्कन्दक परिव्राजक से।" गौतम ने पुनः प्रश्न किया- “भन्ते ! वह परिव्राजक मुझे कब व कैसे मिलेगा ?" महावीर ने उत्तर दिया-श्रावस्ती में पिंगल निर्ग्रन्थ ने उससे कुछ प्रश्न पूछे हैं। वह उत्तर न दे सका; अतः अपने तापसीय उपकरणों को साथ लिए यहाँ आने के लिए प्रस्थान कर चुका है। उसने बहुत सारा मार्ग लाँघ दिया है । वह मार्ग के बीच है। शीघ्र ही वह यहाँ पहुँच जायेगा और उसे तू आज ही देखेगा।" गौतम-क्या उसमें आपके शिष्य होने की योग्यता है ?" महावीर-"हाँ, उसमें यह योग्यता है और निश्चित ही वह मेरा शिष्य हो जायेगा।" महावीर और गौतम का वार्तालाप चल ही रहा था कि उसी समय स्कन्दक परिव्राजक सामने से आता हुआ दृष्टिगोचर हुआ। गौतम उठे, उसके सामने गये और बोले"हे स्कन्दक ! तुम्हारा स्वागत है, सुस्वागत है, अन्वागत है। मागध ! क्या यह सच है कि पिंगल निर्ग्रन्थ ने तुमसे कुछ प्रश्न पूछे और तुम उनके उत्तर न दे सके ; अतः यहाँ आ रहे हो ?" गौतम से अपने मन की गुप्त बात सुन स्कन्दक परिव्राजक अत्यन्त विस्मित हुआ। उसने पूछा- “गौतम ! ऐसा वह कौन ज्ञानी या तपस्वी है, जिसने मेरा गुप्त रहस्य इतना शीघ्र बता दिया ?" गौतम ने एक सात्त्विक गौरव की अनुभूति के साथ कहा-"स्कन्दक ! मेरे धर्मगुरु, धर्मोपदेशक श्रमण भगवान महावीर अनुत्तर ज्ञान और दर्शन के धारक हैं । वे अरिहन्त हैं, जिन हैं, केवली हैं, त्रिकालज्ञ हैं । वे सर्वज्ञ और सर्वदर्शी हैं। उनसे तुम्हारा मानसिक अभिप्राय तनिक भी अज्ञात नहीं रह सकता।" स्कन्दक परिव्राजक ने गौतम के समक्ष भगवान महावीर को वन्दन करने का अपना अभिप्राय व्यक्त किया और वह उनके साथ महावीर के समीप आया। दर्शन मात्र से ही वह सन्तुष्ट हो गया। उसने श्रद्धापूर्वक तीन प्रदक्षिणा की और वन्दना की। महावीर ने स्कन्दक को सम्बोधित करते हुए कहा--"मागध ! श्रावस्ती में रहने वाले पिंगल निर्ग्रन्थ ने तुझ से लोक जीव, मोक्ष, सिद्ध आदि सान्त हैं या अनन्त; ये प्रश्न पूछे ?" स्कन्दक ने महावीर का कथन स्वीकार किया। महावीर ने उसे उत्तर देना आरम्भ किया-"स्कन्दक! द्रव्य, क्षेत्र, काल व भाव की अपेक्षा से यह लोक चार प्रकार का है। द्रव्य की अपेक्षा से यह एक है और सान्त है । क्षेत्र की अपेक्षा से यह असंख्य कोटाकोटि योजन आयाम-विष्कंभ वाला है। इसकी परिधि असंख्य कोटाकोटि योजन बताई गई है। इसका अन्त–छोर है। काल की अपेक्षा से यह किसी दिन न होता हो, ऐसा नहीं है। किसी दिन नहीं था, ऐसा भी नहीं है। किसी दिन नहीं रहेगा, ऐसा भी नहीं है । यह सदैव था, सदैव है और सदैव रहेगा यह ध्र व, नियत, शाश्वत, अक्षत, अव्यय, अवस्थित और नित्य है । इसका अन्त नहीं है । भाव की अपेक्षा से यह अनन्त वर्ण-गंध-रस-स्पर्श-पर्यवरूप है। अनन्त संस्थान पर्यव, अनन्त गुरुलघु-पर्यव तथा अनन्त अगुरुलघु-पर्यवरूप है। __ "स्कन्दक ! द्रव्य और क्षेत्र की अपेक्षा से यह लोक सान्त है तथा काल और भाव की अपेक्षा से अनन्त ; अतः लोक सान्त भी है और अनन्त भी। 2010_05 Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा] भिक्षु संघ और उसका विस्तार १८६ "जीव के बारे में भी स्कन्दक ! द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा से चिन्तन करो । द्रव्य की अपेक्षा से जीव एक और सान्त है । क्षेत्र की अपेक्षा से यह असंख्य प्रदेशी है, पर, सान्त है । काल की अपेक्षा से यह कभी नहीं था, कभी नहीं है, कभी नहीं रहेगा ; ऐसा नहीं है; अत: नित्य है और इसका अन्त नहीं है । भाव की अपेक्षा से यह अनन्त ज्ञान पर्यवरूप है, अनन्त दर्शन - पर्यवरूप है, अनन्त अगुरु-लघु - पर्यवरूप है और इसका अन्त नहीं है । इस प्रकार स्कन्दक ! द्रव्य व क्षेत्र की अपेक्षा से जीव अन्त युक्त है और काल व भाव की अपेक्षा से अन्त-रहित है । "स्कन्दक ! तुझे यह भी विकल्प हुआ था कि मोक्ष सान्त है या अनन्त ? इसे भी तुझे द्रव्य, क्षेत्र, काल व भाव की अपेक्षा से जानना होगा । द्रव्य की अपेक्षा से मोक्ष एक है और सान्त है । क्षेत्र की अपेक्षा से ४५ लाख योजन आयाम - विष्कंभ है और इसकी परिधि १ करोड़ ४२ लाख ३० हजार २४६ योजन से कुछ अधिक है । इसका छोर:- अन्त है । काल की अपेक्षा से यह नहीं कहा जा सकता कि किसी दिन मोक्ष नहीं था, नहीं है और नहीं रहेगा । भाव की अपेक्षा से भी यह अन्त-रहित है। तात्पर्य है, द्रव्य और क्षेत्र की अपेक्षा से मोक्ष अन्त-युक्त है और काल व भाव की अपेक्षा से अन्त- रहित । "स्कन्दक ! तुझे यह भी शंका हुई थी कि सिद्ध अन्त युक्त है या अन्त-रहित । इस बारे में भी तुझे द्रव्य, क्षेत्र, काल व भाव की अपेक्षा से सोचना होगा । द्रव्य की अपेक्षा से सिद्ध एक है और अन्त - युक्त है। क्षेत्र की अपेक्षा से सिद्ध असंख्य प्रदेश - अवगाढ़ होने पर भी अन्तयुक्त है । काल की अपेक्षा से सिद्ध की आदि तो है, पर, अन्त नहीं है । भाव की अपेक्षा से सिद्ध ज्ञान-दर्शन-पर्यवरूप है और उसका अन्त नहीं है । "स्कन्दक ! मरण के बारे में भी तू संदिग्ध है न ? तेरे मन में यह ऊहापोह है न कि किस प्रकार के मरण से संसार घटता है और किस प्रकार के मरण से संसार बढ़ता है ? मरण दो प्रकार का है : १. बाल मरण २. पण्डित मरण ।" स्कन्दक — "भन्ते ! बाल मरण किस प्रकार होता है ?" महावीर — “स्कन्दक ! उसके बारह प्रकार हैं : १. भूख से तड़पते हुए मरना, २ . इन्द्रियादिक की पराधीनता पूर्वक मरना, ३ . शरीर में शस्त्रादिक के प्रवेश से या सन्मार्ग से भ्रष्ट होकर मरना, ४ . जिस गति में मरे, उसका ही आयुष्य बाँधना, ५. पर्वत से गिर कर मरना, ६. वृक्ष से गिर कर मरना, ७. पानी में डूबकर मरना, ८. अग्नि में जलकर मरना, ६ विष खाकर मरना, १०. शस्त्र प्रयोग से मरना, ११. फांसी लगाकर मरना, १२. गृद्ध आदि पक्षियों से नुचवाकर मरना । स्कन्दक ! इन बारह प्रकारों से मरकर जीव अनन्त बार नैरयिक भाव को प्राप्त होता है । वह तिर्यक् गति का अधिकारी होता है और चतुर्गत्यात्मक संसार को बढ़ाता है । मरण से संसार का बढ़ना इसी को कहते हैं । " स्कन्दक - "भन्ते ! पण्डित मरण किसे कहते हैं ?" महावीर —''स्कन्दक ! वह दो प्रकार से होता है : १. पादपोयंगमण और २. भक्त प्रत्याख्यान । पादपोयंगमण भी दो प्रकार का है : १. निर्धारिम और २. अनिहरिम । भक्तप्रत्याख्यान भी दो प्रकार है : १. निर्धारिम और २. अनिहरिम । जो साधु उपाश्रय में पादपोयंगमण या भक्त - प्रत्याख्यान आरम्भ करते हैं, पण्डित मरण के बाद उनका शव उपाश्रय 2010_05 Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड : १ व नगर से बाहर लाकर संस्कारित किया जाता है; अतः वह मरण निर्झरिम कहलाता है। जो साधु अरण्य में दोनों प्रकार में से किसी प्रकार से देह-त्याग करते हैं, उनका शव संस्कार के लिए कहीं बाहर नहीं लाया जाता ; अत: वह मरण अनिर्हारिम कहलाता है । पादोपगमण निर्हारिम हो, चाहे अनिर्हारिम अप्रतिकर्म होता है; क्योंकि वह मरण वैयावृत्त्य रहित होता है। भक्त-प्रत्याख्यान निर्हारिम हो या अनियरिम सप्रतिकर्म होता है ; क्योंकि वहाँ वैयावृत्त्य निषिद्ध नहीं है। स्कन्दक ! इन प्रकारों से जो जीव मरते हैं, वे नैरयिक नहीं होते और न अनन्त भावों को प्राप्त होते हैं। ये जीव दीर्घ संसार को तनु करते हैं।" सविस्तार अपने सभी प्रश्नों के उत्तर पाकर स्कन्दक अत्यन्त आह्लादित हुआ। उसने भगवान महावीर के कथन में अत्यन्त आस्था प्रकट की और प्रव्रजित होने की अभिलाषा भी व्यक्त की। महावीर ने उसे प्रव्रजित कर लिया और तत्सम्बन्धी शिक्षा व समाचारी से परिचित किया। श्रमण केशीकुमार मिथिला से ग्रामानुग्राम विहार करते हुए भगवान महावीर हस्तिनापुर की ओर पधारे । गणधर गौतम अपने शिष्य-समुदाय के साथ श्रावस्ती पधारे और निकटस्थ कौष्ठक उद्यान में ठहरे । उसी नगर के बाहर एक ओर तिन्दुक उद्यान था, जिसमें पार्श्वसंतानीय निर्ग्रन्थ श्रमण केशीकुमार अपने शिष्य-समुदाय के साथ ठहरे हुए थे। श्रमण केशीकुमार कुमारावस्था में ही प्रव्रजित हो गये थे। वे ज्ञान व चारित्र के पारगामी थे। मति, श्रुत व अवधि ; तीन ज्ञान से पदार्थों के स्वरूप के ज्ञाता थे। दोनों के शिष्य-समुदाय में कुछ-कुछ आशंकाएं उत्पन्न हुई; हमारा धर्म कैसा और इनका धर्म कसा ? आचार-धर्म-प्रणिधि हमारी कैसी और इनकी कैसी ? महामुनि पार्श्वनाथ ने चतुर्याम धर्म का उपदेश किया है और स्वामी वर्धमान पाँच शिक्षारूप धर्म का उपदेश करते हैं। एक लक्ष्य वालों में यह भेद कैसा? एक ने सचेलक धर्म का उपदेश दिया है और एक अचेलक भाव का उपदेश करते हैं। अपने शिष्यों की आशंकाओं से प्रेरित होकर दोनों ही आचार्यों ने परस्पर मिलने का निश्चय किया । गौतम अपने शिष्य-वर्ग के साथ तिन्दुक उद्यान में आये, जहां कि श्रमण केशीकुमार ठहरे हुए थे । गौतम को अपने यहां आते हुए देख कर श्रमण केशीकुमार ने भक्तिबहुमान पुरस्सर उनका स्वागत किया। अपने द्वारा याचित पलाल, कुश, तृण आदि के आसन गौतम के सम्मुख प्रस्तुत किये। उस समय बहुत सारे पाखण्डी व कोतूहल-प्रिय व्यक्ति भी उद्यान में एकत्रित हो गये थे। गौतम से अनुमति पाकर केशीकुमार ने चर्चा को आरम्भ करते हुए कहा-"महाभाग ! वर्धमान स्वामी ने पाँच शिक्षारूप धर्म का उपदेश किया है, जब कि महामुनि पार्श्वनाथ ने चतुर्याम धर्म का प्रतिपादन किया है। मेधाविन् ! एक कार्य में प्रवृत्त होने वाले साधकों के धर्म में विशेष भेद होने का क्या कारण है ? धर्म में अन्तर हो जाने पर आपको संशय क्यों नहीं होता?" १. भगवती श० २, उ०१ के आधार से । ____ 2010_05 Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा] भिक्षु-संघ और उसका विस्तार गौतम ने उत्तर दिया-"जिस धर्म में जीवादि तत्त्वों का विनिश्चय किया जाता है, उसके तत्त्व को प्रज्ञा ही देख सकती है। काल-स्वभाव से प्रथम तीर्थङ्कर के मुनि ऋजु जड़ और चरम तीर्थङ्कर के मुनि वक्र जड़ हैं ; किन्तु, मध्यवर्ती तीर्थङ्करों के मुनि ऋजु प्राज्ञ हैं। यही कारण है कि धर्म के दो भेद हैं। प्रथम तीर्थङ्कर के मुनियों का कल्प दुर्विशोध्य और चरम तीर्थङ्कर के मुनियों का कल्प दुरनुपालक होता है; पर, मध्यवर्ती तीर्थङ्करों के मुनियों का कल्प सुविशोध्य और सुपालक होता है।" केशीकुमार-“गौतम ! आपने मेरे एक प्रश्न का समाधान तो कर दिया। दूसरी जिज्ञासा को भी समाहित करें। वर्धमान स्वामी ने अचेलक धर्म का उपदेश दिया है और महामुनि पार्श्वनाथ ने सचेलक धर्म का प्रतिपादन किया है । एक ही कार्य में प्रवृत्त होने वालों में यह अन्तर क्यों ? इसमें विशेष हेतु क्या है ? यशस्विन् ! लिंग-वेष में इस प्रकार अन्तर हो जाने पर क्या आपके मन में विप्रत्यय उत्पन्न नहीं होता?" ___गौतम-"लोक में प्रत्यय के लिए, वर्षादि ऋतुओं में संयम की रक्षा के लिए, संयमयात्रा के निर्वाह के लिए, ज्ञानादि ग्रहण के लिए अथवा 'यह साधु है'; इस पहचान के लिए लिंग का प्रयोजन है। भगवन् ! वस्तुतः दोनों ही तीर्थङ्करों की प्रतिज्ञा तो यही है कि निश्चय में मोक्ष के सद्भूत साधन तो ज्ञान, दर्शन और चरित्र ही हैं।" केशीकुमार- “महाभाग ! आप अनेक सहस्र शत्रुओं के बीच खड़े हैं । वे शत्रु आपको जीतने के लिए आपके अभिमुख आ रहे हैं। आपने उन शत्रुओं को किस प्रकार जीता ?" गौतम- "जब मैंने एक शत्रु को जीत लिया, पांच शत्रु जीते गये। पांच शत्रुओं के जीते जाने पर दस और इसी प्रकार मैंने सहस्रों शत्रुओं को जीत लिया।" केशीकुमार-“वे शत्रु कौन हैं ?" गौतम-"महामुने ! बहिर्मूत आत्मा, चार कषाय व पाँच इन्द्रियाँ शत्रु हैं। उन्हें जीतकर मैं विचरता हूँ।" केशीकुमार-“मुने ! लोक में बहुत सारे जीव पाश-बद्ध देखे जाते हैं, किन्तु, आप पाश-मुक्त और लघुभूत होकर कैसे विचरते हैं ?" “गौतम- "मुने ! मैं उन पाशों को सब तरह से छेदन कर तथा सोपाय विनिष्ट कर मुक्त-पाश और लघुभूत होकर विचरता हूँ।" "केशीकुमार "भन्ते ! वे पाश कौन से हैं ? गौतम-"भगवन् ! राग-द्वेष और तीव्र स्नेह रूप पाश हैं, जो बड़े भयंकर हैं। इनका सोद्योग छेदन कर मैं यथाक्रम विचरता हूँ।" केशीकुमार-“गौतम ! अन्तःकरण की गहराई से उद्भूत लता को, जिसका फलपरिणाम अत्यन्त विष-सन्निभ है, आपने किस प्रकार उखाड़ा?" गौतम-“मैंने उस लता का सर्वतोमावेन छेदन कर दिया है तथा उसे खण्ड-खण्ड कर १. अचेलक का अर्थ वस्त्र-विहीनता ही नहीं है। ठाणांग, स्था० ५, उ० ३ के अनुसार अल्प वस्त्रता भी अचेलक का अर्थ होता है । देखें, पाइयसहमहण्णवो, पृ २४ । 2010_05 Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड : १ समूल उखाड़ कर फेंक दिया है; अतः मैं विष-सन्निभ फलों के भक्षण से सर्वथा मुक्त हो गया हूँ ।" केशीकुमार - "महाभाग ! वह लता कौन सी है ?" गौतम — “महामुने ! संसार में तृष्णा लता बहुत भयंकर है और दारुण फल देने वाली है । उसका न्याय- पूर्वक उच्छेद कर मैं विचरता हूँ । केशीकुमार - "मेघाविन् ! शरीर में घोर तथा प्रचण्ड अग्नि प्रज्वलित हो रही है ! वह शरीर को भस्मसात् करने वाली है । आपने उसे कैसे शान्त किया, कैसे बुझाया ?" गौतम - " तपस्विन् ! महामेघ से प्रसूत उत्तम और पवित्र जल को ग्रहण कर मैं उस अग्नि को सींचता रहता हूं; अत: सिंचित की गई अग्नि मुझे नहीं जलाती ।" केशीकुमार - "महाभाग ! वह अग्नि और जल कौन सा कहा गया है ?" गौतम - " धीमन् ! कषाय अग्नि है। श्रुत, शील और तप जल है । श्रुत जल-धारा से अभिहत वह अग्नि मुझे नहीं जलाती।" केशीकुमार - "तपस्विन् ! यह साहसिक, भीम, दुष्ट, अश्व चारों ओर भाग रहा है। उस पर चढ़े हुए भी आप उसके द्वारा उन्मार्ग में कैसे नहीं ले जाये गये ?" गौतम - "महामुने ! भागते हुए अश्व को मैं श्रुतरूप रस्सी से बांधे रखता हूँ; अतः वह उन्मार्ग में नहीं जा पाता, सन्मार्ग में ही प्रवृत्त रहता है ।" केशीकुमार - "यशस्विन् ! आप अश्व किसको कहते हैं ?" " गौतम - " व्रतिवर ! मन ही दु:साहसिक व भीम अश्व है । वही चारों ओर भागता है । मैं कथक अश्व की तरह धर्म-शिक्षा के द्वारा उसका निग्रह करता हूँ ।" केशीकुमार — "मुनिपुंगव ! संसार में ऐसे बहुत से कुमार्ग हैं, जिन पर चलने से जीव सन्मार्ग से च्युत हो जाता है । किन्तु, आप सन्मार्ग में चलते हुए उससे विचलित कैसे नहीं होते हैं ?" गौतम - "व्रतिराज ! सन्मार्ग में गमन करने वालों व उन्मार्ग में प्रस्थान करने वालो को मैं अच्छी तरह जानता हूँ ; अतः सन्मार्ग से हटता नहीं हूँ ।" केशीकुमार - " विज्ञवर ! वह सन्मार्ग और उन्मार्ग कौन-सा है ? " गौतम – मतिमन् ! कुप्रवचन को मानने वाले सभी पाखण्डी उन्मार्ग में प्रस्थित हैं । सन्मार्ग तो जिन भाषित है । और यह मार्ग निश्चित ही उत्तम है ।" केशीकुमार - " महर्षे ! महान् उदक के वेग में बहते हुए प्राणियों के लिए शरण और प्रतिष्ठारूप द्वीप आप किसे कहते हैं ?" गौतम - "यतिराज ! एक महाद्वीप है । वह बहुत विस्तृत है । जल के महान् वेग की वहाँ गति नहीं है । " केशीकुमार - "महाप्राज्ञ ! वह महाद्वीप कौनसा है ? ?" गौतम - "ऋषिवर ! जरा-मरण के वेग से डूबते हुए प्राणियों के लिए धर्मद्वीप प्रतिष्ठारूप है और उसमें जाना उत्तम शरण रूप है ।" केशीकुमार - "महाप्रवाह वाले समुद्र में एक नौका विपरीत रूप से चारों ओर भाग रही है । आप उसमें आरूढ़ हो रहे हैं । मेरी जिज्ञासा है, फिर आप पार कैसे जा सकेंगे ?" 2010_05 Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा] भिक्षु-संघ और उसका विस्तार १६३ गौतम- "सच्छिद्र नौका पारगामी नहीं होती, किन्तु, छिद्र-रहित नौका पार पहुंचाने में समर्थ होती है।" केशीकुमार-"वह नौका कौनसी है?" गौतम-“शरीर नौका है । आत्मा नाविक है। संसार समुद्र है, जिसे महर्षिजन सहज ही तैरते हैं।" केशीकुमार-"बहुत सारे प्राणी घोर अन्धकार में हैं । इन प्राणियों के लिए लोक में उद्योत कौन करता है ?" गौतम- "उदित हुआ सूर्य लोक में सब प्राणियों के लिए उद्योत करता है।" केशीकुमार-"वह सूर्य कोनसा है ?" गौतम--"जिनका संसार क्षीण हो गया है, ऐसे सर्वज्ञ जिन भास्कर का उदय हो चुका है। वे ही सारे विश्व में उद्योत करते हैं।" केशीकुमार-"शारीरिक और मानसिक दु:खों से पीड़ित प्राणियों के लिए क्षेम और शिवरूप तथा बाधा-रहित आप कौनसा स्थान मानते हैं ?" गौतम-“लोक के अग्र भाग में एक ध्र वस्थान है, जहाँ जरा, मृत्यु, व्याधि और वेदना नहीं है। किन्तु, वहाँ आरोहण करना नितान्त दुष्कर है।" केशीकुमार-"वह कौनसा स्थान है ?" गौतम-"महर्षियों द्वारा प्राप्त वह स्थान निर्वाण, अव्याबाध, सिद्धि, लोकाग्र, क्षेम, शिव और अनाबाध; इन नामों से विश्रुत है।" मुने! वह स्थान शाश्वत वास का है, लोक के अग्रभाग में स्थित है और दुरारोह है । इसे प्राप्त कर भव-परम्परा का अन्त करने वाले मुनिजन चिन्तन-मुक्त हो जाते हैं। श्रमण केशीकुमार ने चर्चा का उपसंहार करते हुए कहा-: महामुने गौतम ! आपकी प्रज्ञा साधु है। आपने मेरे संशयों का उच्छेद कर दिया है। अतः हे संशयातीत! सर्व सत्र के पारगामिन ! आपको नमस्कार है। गणघर गौतम को वन्दना के अनन्तर श्रमण केशीकुमार ने अपने बृहत् शिष्य-समुदाय सहित उनसे पंच महाव्रत रूप धर्म को भाव से ग्रहण किया और महावीर के भिक्षु-संघ में प्रविष्ट हुए। केशीकुमार श्रमण की तरह कालासवेसियपुत्त अनगार, गंगेय अनगार, पेढाल पुत्त उदक आदि भी तत्त्व-चर्चा के पश्चात् महावीर के संघ में चतुर्यामात्मक दीक्षा से पंच महाव्रत रूप दीक्षा में आये। इन घटना-प्रसंगों से यह इतिहास भी हमारी आँखों के सामने आ जाता है कि पार्श्व की परम्परा महावीर की उदीयमान संघ में कैसे लीन हुई और उन दोनों के बीच क्या-क्या भेद व तादात्म्य थे। १. उत्तरज्झयणाणि अ० २३ के आधार से। २. भगवती, शतक १, उद्देशक ९ । ३. वही, शतक ९ उद्देशक ३२। ४. सूयगडांग, श्रु० २, अ० ७ । ____ 2010_05 Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन खण्ड : १ शालिभद्र और धन्य जैन-परम्परा में शालिभद्र और धन्य का जीवन-वृत्त बहुत ही सरस और बहुत ही विश्रुत है। शालिभद्र और धन्य के परस्पर साले-बहनोई का सम्बन्ध था और दोनों ने ही महावीर के पास दीक्षा ग्रहण की। शालिभद्र राजगृह के धनाढ्य गृहपति गोभद्र का पुत्र था। उसकी माता का नाम भद्रा और बहिन का नाम सुभद्रा था। शालिभद्र के बाल्यकाल में ही गोभद्र गृहपति का शरीरात हो गया था। वह अगाध मातृ-वात्सल्य में पला-पुसा और तरुण हुआ। कहा जाता है, उसका पिता मर कर देव-योनि में उत्पन्न हुआ। वह अपने पुत्र एवं पुत्र-बधुओं के सुख-मोग के लिए वस्त्र और आभूषणों से परिपूरित ३३ पेटियाँ प्रतिदिन उन्हें देता था। भद्रा सारा गृहभार सम्भालती। शालिभद्र अपने महल की सातवीं मंजिल पर अहर्निश सांसारिक सुख-भोग में लीन रहता। एक दिन राजगृह में रत्न-कम्बल के व्यापारी आये। उनके पास सोलह रत्न-कम्बल थे। एक-एक कम्बल का मूल्य सवा लाख स्वर्ण-मुद्राएं था। राजगृह के बाजार में उन्हें कोई खरीददार न मिला। वे राजा श्रेणिक के पास गये । रत्न-कम्बल रानियों ने पसन्द किए, पर, एक-एक का मूल्य सवा लाख सुनकर राजा भी चौंका। राजा ने एक भी कम्बल नहीं खरीदा। व्यापारी अपने आवास के बाहर वृक्ष की छाया में बैठे बातें कर रहे थे; राजगृह जैसे नगर में भी हमें कोई क्रेता नहीं मिला तो अन्यत्र कहाँ मिलेगा ? शालिभद्र की दा राह से पनघट की ओर जा रही थीं। वह बात उनके कानों में पड़ी। पानी लेकर वापस आते समय दासियों ने व्यापारियों से पूछ लिया--"आप किसी दुर्घट चिन्ता में मालम पडते है। क्या हमें भी वह चिन्ता बतलाई जा सकती है ?" व्यापारियों ने कहा- "जो चिन्ता राजा श्रेणिक भी नहीं मिटा सका, तुम पनिहारिन हमारी क्या चिन्ता मिटाओगी?" दासियों ने कहा-"कभी-कभी ऐसा भी हो जाता है।" व्यापारियों ने अपना पिण्ड छुड़ाने के लिए अन्यमनस्कता से ही अपनी बात दो शब्दों में उन्हें कह डाली। दासियों ने हँस कर कहा-"बस, यही बात है ? चलो, हमारे साथ । हम एक ही सौदे में आपके सारे कम्बल बिकवा देती हैं।" व्यापारियों ने कुछ गम्भीरता से बात पूछी। दासियों ने अपने स्वामी शालिभद्र के वैभव का वर्णन किया। व्यापारी उत्सुक होकर दासियों के साथ चल पड़े। शालिभद्र का हर्म्य आया। बाहर से भी इतना आकर्षक कि राज-प्रसाद से भी अधिक । व्यापारियों ने प्रथम मंजिल में प्रवेश किया। साज-सज्जा देखकर वे विस्मित हुए। दासियों ने कहा-“यह तो हम दास-दासियों के रहने की मंजिल है।" दूसरी मंजिल पर पहुंचे और वहाँ की रमणीयता देखी। सोचा, यहाँ शालिभद्र बैठे होंगे। उन्हें बताया गया, यहाँ तो मुनीम लोग ही बैठते हैं और बही-खातों का काम करते हैं। तीसरी मंजिल पर १. एक परम्परा के अनुसार ६६ पेटियां-वस्त्र, आभूषण व भोजन की ३३-३३ पेटियां-आती थीं। ____ 2010_05 Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा] भिक्षु-संघ और उसका विस्तार पहुँचे। वहाँ भद्रा सेठानी रहती थी। भद्रा से व्यापारियों का परिचय कराया गया। व्यापारियों ने कहा-"हम शालिभद्र से मिलने आये हैं। उन्हें रत्न-कम्बल दिखलायेंगे।" भद्रा ने कहा-"आप शालिभद्र से नहीं मिल सकेंगे। आप अपने रत्न-कम्बल मुझे ही दिखला दे।" कुछ संकोच व कुछ विस्मय से व्यापारी भद्रा के सम्मुख जमकर बैठे । एक रत्न-कम्बल निकाला और भद्रा के हाथ में दिया । भद्रा ने बिना उसका मूल्य पूछे ही कहा-"आपके पास ऐसे कितने कम्बल हैं ?" व्यापारी-“सोलह ।" भद्रा-"मुझे बत्तीस चाहिए ; क्योंकि मेरी बहुएं बत्तीस हैं । कम हों, तो मैं किसे दूं व किसे न दूं?" व्यापारी-“पहले आप एक कम्बल का मूल्य तो पूछ लीजिये।" भद्रा- “उसकी आप चिन्ता न करें। जो भी मूल्य होगा, चुकाया जायेगा।" व्यापारी आश्चर्यान्वित थे। उन्हें लगता था, हम स्वप्न-लोक में तो कहीं विहार नहीं कर रहे हैं । भद्रा ने कहा-"खैर, आपके पास जितनी कम्बले हैं ; वे यहाँ रख दें।" व्यापारियों ने वैसा ही किया। भद्रा ने मुख्य मुनीम को बुला कर कहा-"जो भी मूल्य इनका हो, इन्हें चुका दिया जाये।" भद्रा अन्य कार्य में संलग्न हो गई। व्यापारियों को लेकर मुनीम धन-मण्डार पर आया। व्यापारियों से पूछा- “एक कम्बल का क्या मूल्य है ?" व्यापारियों ने कहा-“सवा लाख स्वर्ण मुद्राएँ।" मुनीम ने भण्डारी को आदेश दिया"सोलह कम्बलों का मूल्य सवा लाख प्रति कम्बल के हिसाब से इन्हें चुका दिया जाये।" भण्डारी ने यथाविधि सब कुछ सम्पन्न किया। व्यापारियों के हर्ष और विस्मय का क्या पार था ? वे यह कहते हुए हर्म्य से बाहर आये कि भला हो, उन बेचारी दासियों का जो हमें यहाँ ले आई । हम तो आशा ही छोड़ चुके थे कि हमारी एक कम्बल भी कहीं बिक सकेगा?" अगले दिन श्रेणिक की साम्राज्ञी चेलणा ने आग्रह पकड़ा, एक कम्बल तो मेरे लिए खरीदना ही होगा। श्रेणिक क्या करता? उसने व्यापारियो को पुनः राज-सभा में बुलाया। व्यापारियों ने कहा-"राजन् ! हमारी तो सोलह ही रत्न-कम्बलें बिक चुकी हैं।" सारी वस्तुस्थिति से अवगत हो, श्रेणिक स्वयं विस्मित हो गया। राजा ने अभयकुमार को भद्रा के पास भेजा। उसने वहां जाकर कहा-"गृहपत्नी ! तुम्हारे पास सोलह कम्बलें हैं । मूल्य लेकर भी एक कम्बल राजा को भेंट कर दो।" भद्रा ने कहा- "मंत्रीवर अभयकुमार ! मैंने एक-एक कम्बल के दो-दो टुकड़े कर बत्तीस बहुओं को बाँट दिए हैं।" अभयकुमार ने कहा"दो टुकड़े मंगवा दो। रानी का हठ मैं किस तरह पूरा करूंगा।" भद्रा ने दासियों से पूछवाया तो मालूम पड़ा कि सभी बहुओं ने अपने-अपने टुकड़ों को पैर पोंछने का अंगोछा बना लिया है । अभयकमार इन सारी बातों की जानकारी कर राज-सभा में आया। भद्रा भी राजा के योग्य बहुमूल्य उपहार ले सभा में आई। भद्रा ने भेंट करते हुए कहा--"राजन् ! माने। शालिभद्र और उसकी पत्तियाँ देव-दष्य वस्त्र ही पहनती हैं। मेरे पति अब देव-गति में हैं और वे ही प्रतिदिन उन्हें वस्त्र, आभूषण, अंग-राग आदि देते हैं। रत्न-कम्बल का स्पर्श मेरी बहुओं को कठोर प्रतीत हुआ है और इसीलिए उन्होंने उसका उपयोग पर बुरान ___ 2010_05 Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड : १ पोंछने के वस्त्र के रूप में किया है।" राजा और सभासद यह सुन कर आश्चर्य-मग्न हो रहे थे। भद्रा ने राजा श्रेणिक को अपने हर्म्य आने का आमंत्रण दिया। श्रेणिक तो शालिभद्र और उसके वैभव को देखने के लिए स्वयं उत्सुक हो चुका था ; अतः उसने सहर्ष वह आमंत्रण स्वीकार किया। भद्रा ने घर आकर राजा के स्वागत में तैयारियां की। राजा भी राजकीय साज-सज्जा से उसके घर आया। शालिभद्र तब तक अपने महलों में ही था। हर्म्य की चतुर्थ मंजिल में राजा को बैठाया गया। राजा वहां की दिव्य ऋद्धि को देखकर विस्मित हो रहा था। सोचता था, इस द्रव्य ऋद्धि को भोगने वाला शालिभद्र कैसा होगा? भद्रा ने सातवीं मंजिल पर जा शालिभद्र को कहा-"बेटा ! श्रेणिक अपने घर आया है, नीचे चलो और उसे नमस्कार करो।" "माँ, मैं नीचे क्यों चलूं, घर की मालकिन तुम वहाँ बैठी हो, जो भी मूल्य हो दे दो और श्रेणिक को खरीद लो!" "बेटा तुम नहीं समझते । वह खरीदने की वस्तु नहीं है । श्रेणिक हमारा राजा है, स्वामी है, हमारे पर अनुग्रह कर यहाँ आया है। तुम नीचे चलो और उसे नमस्कार करो।" शालिभद्र के मन पर एक चोट-सी लगी। मैं स्वयं अपना स्वामी नहीं हूँ, मेरे पर भी कोई स्वामी है, यह क्या ? मैं तो अब वही रास्ता खोजूंगा, जिसमें अपना स्वामी मैं स्वयं ही रहूँ। माता के निर्देशन से शालिभद्र श्रेणिक के पास आया और नमस्कार किया। श्रेणिक उसके सुडोल शरीर, गौर वर्ण और असीम सौकुमार्य को देखकर अवाक रहा। निकट होते ही श्रेणिक ने उसे गोद में भर लिया, पर, शालिभद्र इतना सुकोमल था कि राजा के शरीर की उष्मा से ही उसके सारे शरीर से स्वेद बहने लगा। उसे आकुलता-सी प्रतीत होने लगी। राजा समझ गया। उसने उसे अपने सम्मुख उचित आसन पर बैठाया और उससे बातें की। राजा आनन्दित, पुलकित अपने राज-प्रासाद गया। शालिभद्र भी वहाँ से उठकर सप्तम भौम गया। उसके मन में यही उथल-पुथल थी, क्या मैं ही अपना स्वामी नहीं हूँ ? __नगर के ईशान कोणवर्ती उद्यान में धर्मघोष मुनि आए। समूह-के-समूह नर-नारी उसी दिशा में चल पड़े। शालिभद्र ने सप्तम भौम से उस जन-समूह को देखा। कर्मकरों से जानकारी ली। उसके मन में स्व-स्वामित्व का प्रश्न घुट ही रहा था। समाधान की उत्सुकता में वह भी निरुपम साज-सज्जा से उसी दिशा में चल पड़ा। धर्मघोष मुनि की देशना से उसने भोगों की नश्वरता समझी। साधु-चर्या का स्व-स्वामित्व समझा। दीक्षित होने को कृतसंकल्प हुआ। शालिभद्र घर आया। अपने मन का संकल्प माता से कहा। माता को वज्राघातसा लगा उसने पुत्र के मन को मोड़ने का हर प्रयत्न किया, पर, सब व्यर्थ । अन्त में बात यह ठहरी कि आज ही दीक्षा न लेकर प्रतिदिन एक-एक पत्नी का परित्याग किया जाए। पत्नियां भी पति के इस संकल्प को सुनकर आकुल-व्याकुल हुईं। पति को मोड़ने का प्रयत्न किया, पर, शालिभद्र का वह पत्नी परित्याग अनुष्ठान चलता ही रहा। 2010_05 Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा भिक्षु संघ और उसका विस्तार १६७ शालिभद्र की सगी बहिन सुभद्रा राजगह में ही एक धनाढ्य के पुत्र धन्य को ब्याही थी। धन्य के सात पत्नियाँ और भी थीं। एक दिन वे सब अपनी अशोक वाटिका में धन्य को स्नान करा रही थीं। सुभद्रा को अपने भाई की याद आई और आँखों में आँसू छलक पड़े। धन्य की पीठ पर वे अश्रु-बिन्दु गिरे । उष्ण स्पर्श के कारण धन्य ने मुड़कर ऊपर झांका तो देखा, सुभद्रा की आँखे गीली हैं और अश्रु बरस रहे हैं । धन्य ने कहा-"प्रिये ! यह क्या ? इस आमोद-प्रमोद की बेला में आँसू ?" सुभद्रा ने कहा-"पतिदेव ! मेरा भाई शालिभद्र दीक्षा-ग्रहण करेगा; अतः वह प्रतिदिन एक पत्नी और एक शय्या का त्याग कर रहा है।" धन्य ने स्वाभिमान भरी नजर से सुभद्रा के चेहरे की ओर झांकते हुए कहा"तम्हारा भाई बहत भीरु और कातर है। दीक्षा ही लेनी है तो फिर एक-एक पत्नी का त्याग कैसा?" सभद्रा का स्वाभिमान जग पड़ा। उसने भी कड़ाक से कहा-"पतिदेव ! कहना सहज होता है, करना ही कठिन होता है। आप भी ऐसा करके तो बतायें ?" धन्य पर जैसे चाबूक की मार पड़ गई हो । उसका मन हिनहिना उठा । सब पलियों की ओर झांकते हुए वह बोल उठा-"दूर रहो ! मैं तुम सब का परित्याग कर चुका हूँ।" पत्नियाँ देखते ही रह गईं। अन्य पारिवारिक जन भी उसे मोड़ने में असमर्थ रहे। धन्य शालिभद्र के घर पहुँचा। शालिभद्र से मिला और उससे कहा-“यह क्या कायरता है ? चलो, हम दोनों साला-बहनोई आज ही भगवान् महावीर के पास दीक्षित हों।" शालिभद्र तो प्रस्तुत था ही। केवल माता के आग्रह से ऐसा कर रहा था। उसने भी शेष पत्नियों का परित्याग एक साथ कर दिया। दोनों ने महावीर के समवशरण में आकर भागवती दीक्षा ग्रहण की। महावीर के भिक्षु-संघ की अभिवृद्धि में चार चांद और लगे। इस प्रकार की दीक्षाओं से और अनेक लोग प्रेरित होते थे और दीक्षा ग्रहण करते थे। राजर्षि उवायन सिंधु सौवीर देश की उस समय भारत के विशाल राज्यों में गणना की जाती थी। वीत भय उसकी राजधानी थी। सोलह बृहद् देश, तीन सौ तिरसठ नगर और आगर उसके अधीन थे। वहाँ के राजा का नाम उदायन था।२ चण्डप्रद्योतन आदि दश मुकुटधारी महापराक्रमी राजा उसकी सेवा में रहते थे। रानी का नाम प्रभावती था, जो वैशाली के राजा चेटक की पुत्री थी। राजकुमार का नाम अभीचकुमार और भानजे का नाम केशी था। प्रभावती निर्ग्रन्थ धाविका थी, पर, उदायन तापस-भक्त था। प्रभावती मृत्यु पाकर स्वर्ग में गई। उसने अपने पति को प्रतिबोध दिया और उसे दृढ़-निष्ठ श्रावक बनाया। १. (क) भिक्षु-जीवन का विवरण देखें- 'पारिपाश्विक भिक्षु-भिक्षुणियाँ' प्रकरण में । (ख) त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्रम्, पूर्व १०, सर्ग १० के आधार से । (ग) जैन परम्परा में धन्य और शालिभद्र से सम्बन्धित अनेक काव्य-ग्रन्थ तथा चौपाइयाँ उपलब्ध हैं। २.विजयेन्द्र सूरि (तीर्थकर महावीर, खण्ड २, पृ० ५०६) ने इस राजा का नाम उद्रायण माना है, पर, आगम उसे स्पष्टतः उदायन (सेणं उदायणे राया) ही कहते हैं । (देखें-भगवती, श० १३, उ०६)। 2010_05 Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भिक्षु और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड : १ एक बार राजा पौषघशाला में पौषध कर रहा था। रात में धर्म- जागरणा करते हुए उसके मन में अध्यवसाय उत्पन्न हुआ; वे ग्राम, नगर, आगर आदि धन्य हैं, जो भगवान् वर्षमान के चरण रज से पवित्र होते हैं। यदि किसी समय ऐसा सौभाग्य वीतभय को भी प्राप्त हो, तो मैं गार्हस्थ्य को छोड़ कर प्रव्रजित हो जाऊँ । १६८ भगवान् महावीर सर्वज्ञ थे । उन्होंने उदायन के मनोगत विचारों को जाना और उस ओर प्रस्थान कर दिया । सात सौ कोस का उग्र विहार था । मार्ग की विकटता और पुरीषहों की अधिकता से बहुत से मुनि मार्ग में ही मृत्यु पा गये । वीतमय में भगवान् महावीर के आगमन से उदायन अत्यन्त प्रमुदित हुआ । महावीर के समवशरण में पहुँचा और दीक्षित होने की अपनी चिरकालीन भावना व्यक्त की। राजा ने प्रार्थना की "भन्ते ! जब तक 我 पुत्र को राज्य सौंपकर दीक्षित होने के लिए श्रीचरणों में उपस्थित न हो जाऊँ, विहार के लिए शीघ्रता न करें।" प्रत्युत्तर में महावीर ने कहा – “पर, इस ओर प्रमाद न करना ।" भ्रमण करेगा। मैं इसका राजा उदायन राजमहलों में लोट भाया । मार्ग में वह राज व्यवस्था का ही चिन्तन कर रहा था । सहसा उसके मानस में विचार उभरा, यदि मैं पुत्र को, राज्याधिकारी बनाता हूँ तो वह इसमें आसक्त हो जायेगा और चिरकाल तक संसार में निमित्त बन जाऊँगा । कितना अच्छा हो, यदि मैं राज्य भार कुमार को न देकर भानजे केशी को दूं । कुमार की सुरक्षा स्वतः हो जायेगी । राजा ने अपना चिन्तन सुदृढ़ किया और उसे क्रियान्वित भी कर दिया। समारोह पूर्वक स्वयं अभिनिष्क्रमित हुआ और महावीर के चरणों में प्रव्रजित हो गया । ' १. दीक्षा के बाद — दुष्कर तप का अनुष्ठान आरम्भ किया । उपवास से आरम्भ कर मासावधि तक तप किया। स्वाध्याय, कायोत्सर्ग आदि से अपनी आत्मा को भावित किया । अरस- नीरस आहार व लम्बी-लम्बी तपस्याओं से वे अतिशय कृश हो गये । उनका शारीरिक बल क्षीण हो गया । वे बीमार रहने लगे । रोग ने उग्र रूप धारण कर लिया । ध्यान, स्वाध्याय व कायोत्सर्ग आदि में विघ्न होने लगा । वैद्यों ने उन्हें दही के प्रयोग का परामर्श दिया । गोकुल में उसकी सहज सुलभता थी; अतः राजर्षि उस ओर ही विहार करने लगे । राजर्षि उदायन एक बार बिहार करते हुए वीतभय आये। राजा केशी को उसके मंत्रियों ने राजर्षि के विरुद्ध यह कह कर भ्रान्त कर दिया कि राजर्षि राज्य छीनने अभिप्राय से आये हैं । आप सावधान रहें । दुर्बुद्धि केशी उस भ्रान्ति में आ गया । उसने राजर्षि के निवास के लिए शहर में निषेध करवा दिया। राजर्षि ने घूमते हुए शहर के कोने-कोने को छान डाला। कहीं स्थान न मिला । अन्ततः एक कुम्मकार के घर उन्होंने विश्राम लिया । राजा केशी ने उन्हें मरवाने के निमित्त आहार में कई बार विष मिलवाया, किन्तु, एक देवी ने उन्हें उससे उबार लिया। एक बार देवी की अनुप 2010_05 Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा ] पन्द्रह सौ तीन तापस पन्द्रह सौ तीन तापसों का एक समुदाय अष्टापद पर्वत पर आरोहण कर रहा था । उनमें कोडिन्न, दिन्न और सेवाल ; ये तीन प्रमुख थे । प्रत्येक के पाँच-पाँच सौ का परिवार था । तपस्या से वे सब कृशकाय हो चुके थे । कोडिन्न सपरिवार अष्टापद की पहली मेखला तक, दिन्न दूसरी मेखला तक और सेवाल तीसरी मेखला तक पहुँचा । अष्टापद पर्वत में एक-एक योजना की समग्र आठ मेखलाएँ थीं। आगे बढ़ने में वे तापस अपने आपको असमर्थ पा रहे थे । भिक्षु संघ और उसका विस्तार गणधर गौतम उसी अवधि में उन सब तापसों के देखते-देखते अपने लब्धि - बल से अष्टापद पर्वत के शिखर पर चढ़ गये । उनके इस तपोबल से सभी तपस्वी अत्यन्त प्रभावित हुए। उन्होंने निश्चय किया, इन्द्रभूति अष्टापद से उतर कर जब यहाँ आयेंगे, हम सब उनके शिष्य हो जायेंगे | इन्द्रभूति वापस आये । तापसों ने उनसे कहा - "आप हमारे गुरु हैं और हम आपके शिष्य ।" इन्द्रभूति वहाँ उन पन्द्रह सौ तीन तापसों को दीक्षित किया और अपने अक्षीण महानस - लब्धि-बल से खीर के एक ही भरे-पूरे पात्र से समग्र तापस-श्रमणों को उन्होंने भोजन कराया । अपने गुरु के इस लब्धि-बल को देखकर सभी तापस कृतकृत्य हो गये । ' सभी जैन परम्पराएं इस घटना-प्रसंग को सर्वथा प्रामाणिक नहीं मानती हैं । राजा दशार्णमद्र १६६ 1 दशार्णभद्र दशार्णपुर का राजा था। उसके पाँच सौ रानियों का परिवार था और बहुत बड़ी सेना थी । भोजन से निवृत्त होकर राजा आमोद-प्रमोद में संलग्न बैठा था । सहसा उद्यानपाल आया और उसने सूचित किया - "देव ! अपने उद्यान में आज चरम तीर्थङ्कर भगवान् श्री महावीर पधारे हैं ।" राजा दशार्णभद्र उस संवाद से अत्यन्त हर्षित हुआ । उसी समय सिंहासन से नीचे उतरा और उसी दिशा में नत मस्तक होकर नमस्कार किया। बहुत सारा प्रीति दान देकर उद्यानपाल को विसर्जित किया। राजा दशार्णभद्र के मन में अध्यवसाय उत्पन्न हुआ, "कल प्रातः मैं भगवान् को ऐसी अपूर्व समृद्धि के साथ वन्दना करूँगा, जिसके साथ आज तक किसी ने भी न की हो।" अपने सैन्याधिकारी को बुलाया और निर्देश दिया“कल प्रातः काल के लिए सेना को अभूतपूर्व सुसज्जित करो।" एक कौटुम्बिक पुरुष को निर्देश दिया – “ नगर की सफाई कराओ, चन्दन - मिश्रित सुगन्धित जल का छिड़काव कराओ, सर्वत्र पुष्प वर्षा करो, बंदनवार और रजत कलशों की श्रेणियों से मार्ग को सुसज्जित करो और स्थिति में विष मिश्रित आहार राजर्षि के पात्र में आ गया। राजर्षि ने अनासक्त भाव से उसे खा लिया। शरीर में विष फैल गया। राजर्षि ने अनशन किया और एक मास की अवधि के बाद केवल ज्ञान प्राप्त कर समाधि मरण प्राप्त किया । 2010_05 राजर्षि की मृत्यु से देवी क्रुद्ध हुई। उसने धूल की वर्षा की और वीतभय नगर को घूलिसात् कर दिया । केवल वह कुम्भकार बचा । -उत्तराज्झयणाणि, भावविजयगणि- विरचित वृत्ति, अ० १८, पत्र सं ० ३८० से ३८८ के आधार से । १. श्री कल्पसूत्रार्थ प्रबोधिनी, पृ० १६६ से १७१; कल्पसूत्र बालावबोध, पृ० २६० के आधार से । Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०० आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन खण्ड : १ सारे शहर को ध्वजाओं से छा दो।" एक अन्य कोटुम्बिक पुरुष को निर्देश दिया- 'तुम उद्घोषणा करो-प्रातः काल सभी सामन्त, मंत्रीगण और नागरिक सुसज्जित होकर आयें। सबको सामूहिक रूप से भगवान् को वन्दन करने के लिए जाना है।" राजा दशार्णभद्र प्रातः काल उठा। स्नान किया, चन्दन का विलेपन किया, देवदूष्य वस्त्र पहने और आभूषणों से शरीर को अलंकृत किया। सुसज्जित प्रधान हाथी पर बैठा। राजा के मस्तक पर छत्र था और चारों ओर चामर डुलाए जा रहे थे। राजा के पीछे-पीछे हजारों सामन्त और प्रमुख नागरिक सुसज्जित हाथियों, घोड़ों और रथों पर आरूढ़ होकर चले । सारी सेना भी क्रमशः चली। पांच सौ रानियाँ भी रथों में आरूढ़ हुईं। गगनचुम्बी सहस्रों पताकायें फहरा रही थीं। वाद्यों के घोष से भू-नभ एकाकार हो रहा था। सहस्रों मंगल-पाठक मांगलिक वाक्यों को दुहरा रहे थे । गायकों का मधुर संगीत श्रोताओं को आकर्षित कर रहा था। अद्भुत समृद्धि और पूरे परिवार के साथ राजा दशार्णभद्र भगवान् श्री महावीर के समवशरण में पहुँचा। हाथी से उतरा, छत्र-चामर आदि राज्य-चिन्हों का त्याग किया। तीन प्रदक्षिणा पूर्वक भगवान् को नमस्कार किया, स्तुति की और एक ओर बैठ गया ।। शकेन्द्र ने राजा दशार्णभद्र के गर्वपूर्ण अभिप्राय को जाना । उसने सोचा-"दशार्णभद्र की भगवान महावीर के प्रति अनुपम भक्ति है, तथापि उसे गर्व नहीं करना चहिए।" राजा को प्रतिबोध देने के लिए शकेन्द्र उद्यत हुआ। उसने ऐरावण नामक देव को आज्ञा देकर समुज्ज्वल और समुन्नत चौसठ हजार हाथियों की विकर्वणा करवाई। प्रत्येक हाथी के पाँचपाँच सौ बारह मुख, प्रत्येक मुख में आठ-आठ दाँत, प्रत्येक दांत पर आठ-आठ वापिकाएं, प्रत्येक वापिका में आठ-आठ कमल और प्रत्येक कमल पर एक-एक लाख पंखुड़ियाँ थीं। प्रत्येक पंखुड़ी में बत्तीस प्रकार के नाटक हो रहे थे। कमल की मध्यकणिका पर चतुर्मुखी प्रासाद थे। सभी प्रासादों में इन्द्र अपनी आठ-आठ अग्र-महिषियों के साथ नाटक देख रहा था। इस प्रकार की उत्कृष्ट समृद्धि के साथ आकाश को आच्छन्न करता हुआ शकेन्द्र भी भगवान् महावीर को नमस्कार करने के लिए आया। राजा दशार्णभद्र ने उसे देखा । अन्तर्मुख होकर सहसा उसने सोचा-"मैंने अपनी समृद्धि का व्यर्थ ही घमण्ड किया। इन्द्र की इस सम्पदा के समक्ष तो मेरी यह सम्पदा नगण्य है। छिछले व्यक्ति ही अपने ऐश्वर्य पर गर्व करते हैं। इसका प्रायश्चित्त यही है कि मैं भागवती दीक्षा ग्रहण कर अजर, अमर और अन्यून मोक्ष सम्पदा को प्राप्त करूँ।" राजा दशार्णभद्र अपने स्थान से उठा । भगवान् के समक्ष आया और निवेदन किया-"भन्ते ! मैं विरक्त हूँ। प्रव्रजित कर आप मुझे अनुगृहीत करें।' राजा ने अपने हाथों लुञ्चन किया और दीक्षित हुआ। शकेन्द्र ने राजा को दीक्षित होते देखा। उसे अनुभव हुआ कि इस प्रतिस्पर्धा में वह भी पराजित हो गया है । वह मुनि दशार्णभद्र के पास आया और उनके इस प्रयत्न की मुक्त कण्ठ से स्तुति करने लगा। इन्द्र अपने स्वर्ग में गया और मुनि दशार्णभद्र भगवान महावीर के भिक्षु-संघ में साधना-लीन हो गये।' १. उत्तरज्झयणाणि, भावविजयगणि-विरचित-वृत्ति, अ० १८, पत्र सं० ३७५ से ३७६ के आधार से। ____ 2010_05 Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा] भिक्षु-संघ और उसका विस्तार २०१ महावीर के संघ में इस प्रकार और भी अनेकानेक लोग प्रवजित हुए। उनके परिचय में बताया गया है -वे उग्रवंशी, भोगवंशी, राजन्यवंशी, ज्ञात या नागवंशी, कुरुवंशी व क्षत्रियवंशी थे। बहुत सारे भट, योद्धा, सेनापति, धर्म-नीति-शिक्षक, श्रेष्ठी, इभ्य भी थे। बहुत सारे मातृ-पितृ-पक्ष से कुलीन थे । बहुत सारे रूप, विनय, विज्ञान, आकृति, लावण्य व विक्रम में प्रधान थे। सौभाग्य और कांति में अद्वितीय थे। वे विपुल धन-धान्य के संग्रह और परिवार के सम्पन्न थे। उनके यहाँ राजा द्वारा उपहृत पंचेन्द्रिय सुखों का अतिरेक था ; अतः में लान रह सकते थे, किन्तु, वे उन्हें किपाक-फल के समान ओर जीवन के जल-बद बुद व कुशाग्र-स्थित जल-बिन्दु के समान विनश्वर समझते थे। कपड़े पर लगी धूल को जिस प्रकार झटकाया जाता है, उसी प्रकार वे ऐश्वर्य आदि अध्रव पदार्थों को छोड़ने में तत्पर रहते थे। उन्होंने विपुल रजत, स्वर्ण, धन, धान्य, सेना, वाहन, कोश, कोष्ठागार, राज्य, राष्ट्र, पुर, अन्तःपुर, कनक, रत्न, मणि, मौक्तिक, शंख शिला-प्रवाल, पद्म राग आदि को छोड़कर प्रव्रज्या ग्रहण की थी।" बौद्ध उपसम्पदाएँ पंचवर्गीय भिक्ष पंचवर्गीय भिक्षु वाराणसी के ऋषिपसन (सारनाथ) में रहते थे। बोधि-प्राप्ति के बाद चार आर्य सत्यों का ज्ञान सर्व प्रथम किसे दिया जाये, यह चिन्तन करते हुए बुद्ध ऋषि १. उववाई, सू० १४ । २. बौद्ध वाङ्मय में श्रामणेर पर्याय को प्रव्रज्या और भिक्षु-पर्याय को उपसम्पदा कहते ३. राम, ध्वज, लक्ष्मण, मन्त्री, कौंडिन्य, भोज, सुयाम और सुदत्त-ये षडंग वेद के ज्ञाता ब्राह्मण थे। इन विद्वानों में से सात ने गौतम बुद्ध का भविष्य बताया था कि ये गृह-स्थाश्रम में रहेंगे, तो चक्रवर्ती होंगे और संन्यासी बनेंगे, तो सम्यक् सम्बद्ध होंगे । कौण्डिन्य तरुण था। उसने एक ही भविष्य बताया था कि बोधिसत्त्व निःसन्देह सम्यक् सम्बुद्ध होंगे । द्विविध भविष्य-वक्ता ब्राह्मणों ने अपने-अपने पुत्रों से कहा"सिद्धार्थ राजकुमार बुद्ध हो जाये, तो तुम उसके संघ में प्रविष्ट होना।” बोधिसत्त्व के गृह-त्याग के अवसर पर अकेला कौंडिन्य जीवित था। उसने सातों विद्वानों के पुत्रों को सिद्धार्थ राजकुमार के परिव्राजक होने की सूचना दी और कहा-"वह निश्चित हो बुद्ध होगा ; अतः हमें भी परिव्राजक हो जाना चाहिए।" उनमें से चार युवकों ने कौण्डिन्य का कथन स्वीकार किया-(१) वाष्प (वप्प), (२) भद्रिक, (३) महानाम और (४) अश्वजित् । आगे चल कर ये पांचों पंचवर्गीय भिक्षु कहलाये। ____ 2010_05 Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०२ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [ खण्ड : १ पत्तन पहुँचे | पंचवर्गीय भिक्षुओं ने उन्हें दूर से आते हुए देखा। सभी ने यह दृढ़ निश्चय किया - "गौतम बुद्ध अब संग्रहशील व साधना भ्रष्ट हो गया है; अत: उसका आदर-सत्कार न किया जाये, अभिवादन न किया जाये, सत्कारार्थ खड़े भी नहीं होना चाहिए और उसका पात्र, चीवर आदि भी नहीं लेना चाहिए । केवल आसन रख देना चाहिए। यदि इच्छा होगी, तो स्वयं ही बैठ जायेगा ।" किन्तु, ज्यों-ज्यों बुद्ध समीप आते गए, भिक्षुक अपनी प्रतिज्ञा पर स्थिर न रह सके । उनमें से किसी ने समीप जाकर उनका पात्र - चीवर लिया, किसी ने आसन बिछाया, किसी ने पानी, पादपीठ और पैर रगड़ने की लकड़ी लाकर पास में रखी । गौतम बुद्ध बिछाए हुए आसन पर बैठे | पैर घोये । भिक्षुओं ने उन्हें 'आवुस' कह कर पुकारा तो बुद्ध ने उन्हें कहा – “भिक्षुओ ! तथागत को नामग्रह तथा 'आवुस' कह कर नहीं पुकारा जाता । भिक्षुओ ! तथागत अर्हत् सम्यक् सम्बुद्ध है। सुनो, मैंने जिस अमृत को पाया है, उसका तुम्हें उपदेश करता हूँ । इस विधि से आचरण करने पर तुम्हें इसी जन्म में अतिशीघ्र अनुपम ब्रह्मचर्य - फल का उपलाभ होगा ।" 1 गौतम बुद्ध के कथन का प्रतिवाद करते हुए पंचवर्गीय भिक्षुओं ने कहा-' - "आवस ! गौतम ! उस साधना और दुष्कर तपस्या में भी तुम आर्यों के ज्ञान दर्शन की पराकाष्ठा की विशेषता व दिव्यशक्ति को नहीं पा सके, तो संग्रहशील और तपो भ्रष्ट होकर खाना-पीना आरम्भ कर देने पर तो सद्धर्म का बोध कैसे पा सकोगे ?" तथागत ने उनके कथन का प्रतिवाद किया और अपने अभिमत को दुहराया। पंचवर्गीय भिक्षुओं ने भी पुनः उसका प्रतिवाद किया । दो-तीन बार दोनों ही ओर से प्रतिवाद होते रहे । अन्ततः तथागत बोले - “भिक्षुओ ! इससे पूर्व भी क्या मैंने कभी इस प्रकार कहा है ?" पंचवर्गीय भिक्षु चिन्तन-लीन हो गए। उन्होंने कुछ क्षण बाद कहा - "नहीं, पहले तो कभी भी ऐसा नहीं कहा ।" तथागत ने कहा- "तो फिर मेरे कथन की ओर ध्यान क्यों नहीं देते ? मुझे अमृत का मार्ग मिल गया है। इस मार्ग को अपनाने से शीघ्र ही विमुक्ति मिलेगी ।" पंचवर्गीय भिक्षुओं को समझाने में तथागत सफल हुए। मिक्षु दत्तावधान होकर उपदेश सुनने में लीन हो गये । उस समय भगवान ने उन्हें सम्बोधन करते हुए सर्वप्रथम धर्मचक्र प्रवर्तन सूत्र कहा । उस समय उन्होंने कहा – “भिक्षुओ ! अति इन्द्रिय-भोग और अति देहदण्डन ; इन दो अन्तों (अतियों) का प्रव्रजितों को सेवन नहीं करना चाहिए । यही मध्यम मार्ग ( मध्यम प्रतिपदा) है ।" तब दृष्ट धर्म, विदित धर्म और मध्यम प्रतिपदा विशारद होकर कौण्डिन्य ने भगवान् से कहा- “भन्ते ! भगवान् के पास मुझे प्रव्रज्या मिले, उपसम्पदा मिले।" भगवान् ने कहा -' - " भिक्षु ! आओ । (यह ) धर्म सु-आख्यात है। अच्छी तरह दुःख के क्षय के लिए ब्रह्मचर्य ( यही उस आयुष्मान् की उपसम्पदा हुई । कालक्रम से अन्य चारों की भी उपसम्पदा हुई । तत्पश्चात् भगवान् ने पंचवर्गीय भिक्षुओं को उपदेश दिया, जिसको सुनकर भिक्षुओं का चित्त आस्रवों (मलों) से विलग हो मुक्त हो गया । उस समय लोक में छ: अर्हत् थे । श्रमण धर्म) का पालन करो ।” १. विनय पिटक, महावग्ग, महाखन्धक, १ १ ६ व ७ के आधार से । 2010_05 Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा] भिक्षु-संघ और उसका विस्तार २०३ यश और अन्य चौपन कुमार यश वाराणसी के श्रेष्ठी' का सुकमार पुत्र था। उसके निवास के लिए हेमन्त, ग्रीष्म व वर्षावास के लिए पृथक्-पृथक् प्रासाद थे । वर्षा ऋतु में वह चारों ही महीने वर्षाकालिक प्रासाद में वास करता था। वह कभी नीचे नहीं उतरता था। प्रतिदिन स्त्रियों द्वारा बादित वाद्यों की मधुर ध्वनि के बीच आनन्द मग्न रहता था। एक दिन यश कुलपुत्र अपने आवास में सो रहा था। सहसा उसकी आंखें खुलीं-दीपक के प्रकाश में उसने अपने परिजन को देखा, किसी के बगल में वीणा पड़ी है, किसी के गले में मृदङ्ग है, किसी के केश बिखरे पड़े हैं, किसी के मुह से लार टपक रही है तो कोई बर्रा रहा है। श्मशान-सदृश दृश्य देखकर उसके मन में घृणा उत्पन्न हुई। हृदय वैराग्य से भर गया। उसके मुह से सहसा उदान निकल पड़ा-"हा ! संतप्त !! हा ! पीड़ित !!" सुनहले जूते पहन यश कुलपुत्र घर से बाहर आया। नगर-द्वार की सीमा को लाँघता हुआ वह ऋषिपत्तन के मृगदाव में पहुँचा। उस समय बुद्ध खुले स्थान में टहल रहे थे। उन्होंने दूर से ही आते हुए यश को देखा तो बिछे हुए आसन पर बैठ गये । यश ने उनके समीप जाकर अपने उसी उदान को दोहराया-"हा ! संतप्त !! हा! पीड़ित !!” बुद्ध ने कहा"यहां संतप्ति और पीड़ा नहीं है। आ, बैठ, तुझे धर्म बताता हूँ।" यश उस वाणी से बहुत आह्लादित हुआ। उसने सुनहले जूते उतारे और भगवान् के पास जाकर उन्हें अभिवादन कर, समीप बैठ गया। भगवान् ने उसे काम-वासनाओं के दुष्परिणाम, निष्कर्मता आदि का माहात्म्य बताया। जब उन्होंने उसे भव्यचित्त, मृदुचित्त, अनाच्छादितचित्त और प्रसन्नचित्त देखा, तो दुःख, समुदय-दुःख का कारण, निरोघ-दुःख का नाश और मार्ग-दुःख-नाश का उपाय बतलाया। कालिमा-रहित शुद्ध वस्त्र जिस प्रकार अच्छी तरह रंग पकड़ता है, वैसे ही यश कुलपुत्र को उसी आसन पर निर्मल धर्म-चक्षु उत्पन्न हुआ। यश कुलपुत्र की माता उसके प्रासाद में आई। अपने कुमार को जब वहाँ नहीं देखा, तो अत्यन्त खिन्न होकर श्रेष्ठी के पास आई। उससे सारा उदन्त कहा। गृहपति ने चारों ओर अपने दूत दौड़ाये और स्वयं भी उसके अन्वेषण के लिए घर से चला। सहसा ऋषिपत्तन के मगदाव की ओर निकल पड़ो। सनहले जूतों के चिन्ह देखकर उनके पीछे-पीछे लगा। बुद्ध ने दूर से ही श्रेष्ठी को अपनी ओर आते देखा। उनके मन में विचार हुआ, क्यों न मैं अपने योग-बल से यश को गृहपति के लिए अदृश्य कर दूं। उन्होंने ऐसा ही किया । श्रेष्ठी ने बुद्ध के पास जाकर पूछा-"भन्ते ! क्या भगवान् ने यश कुलपुत्र को कहीं देखा है ?" बुद्ध ने कहा- गृहपति ! यहां बैठ ! यहाँ तू अपने पुत्र को देख सकेगा।" गृहपति बहुत हर्षित हुआ और वह अभिवादन कर एक ओर बैठ गया। बुद्ध ने उसे उपदेश दिया। श्रेष्ठी गृहपति को भी उसी आसन पर निर्मल धर्म-चक्षु उत्पन्न हुआ। धर्म में स्वतन्त्र हो वह बोला- "आश्चर्य ! भन्ते !! आश्चर्य ! भन्ते !! जिस प्रकार औंधे को सीधा कर दें, १. श्रेष्ठी नगर का अवैतनिक पदाधिकारी होता था, जो कि धनिक व्यापारियों में से बनाया जाता था। 2010_05 Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [ खण्ड : १ आवृत्त को अनावृत्त कर दे, भूले को मार्ग दिखा दे, अन्धकार में तैल-प्रदीप रख दे, जिससे कि सनेत्र रूप देख सकें, उसी प्रकार भगवान् ने भी अनेक पर्याय से धर्म को प्रकाशित किया है । मैं भगवान् की शरण जाता हूं, धर्म और भिक्षु संघ की भी । आज से मुझे साँजलि शरणागत उपासक ग्रहण करें ।" वह गृहपति ही संसार में बुद्ध, धर्म और संघ की शरण ग्रहण करने वाला प्रथम उपासक बना । पिता को दिए गए धर्मोपदेश को सुनते हुए व उस पर गम्भीर चिन्तन करते हुए यश कुलपुत्र का चित्त अलिप्त व आस्रवों — दोषों से मुक्त हो गया । बुद्ध ने इस स्थिति को पहिचाना। उनको दृढ़ विश्वास हो गया, किसी भी प्रयत्न से यश पूर्व अवस्था की तरह कामोपभोग करने के योग्य नहीं है। उन्होंने अपने योग-बल के प्रभाव का प्रत्याहरण कर लिया । यश अपने पिता को वहां बैठा दिखाई देने लगा | गृहपति ने उससे कहा – “तात ! तेरे वियोग में तेरी मां कलप रही है । वह शोकार्त्त हो रुदन कर रही है । उसे तू जीवनदान दे।" यश ने बुद्ध की ओर निहारा । बुद्ध ने तत्काल गृहपति को कहा - " “गृहपति ! जिस प्रकार तूने अपूर्ण ज्ञान दर्शन से भी धर्म को देखा है, क्या वैसे ही यश ने भी देखा है ? दर्शन, श्रवण और प्रत्यवेक्षण से उसका चित्त अलिप्त होकर आस्रवों से मुक्त हो गया है। क्या यह पहले की तरह अब कामोपभोग में आसक्त होगा ?" गृहपति का सिर श्रद्धा से झुक गया और सहज ही शब्द निकले- - "भन्ते ! ऐसा तो नहीं होगा ।" बुद्ध ने फिर कहा - "यश कुलपुत्र का मन अब संसार से उचट गया है, यह संसार के योग्य नहीं रहा है ।" गृहपति ने निवेदन किया- "भन्ते ! यह यश कुलपुत्र के लाभ व सुलाभ के लिए हुआ है । आप इसे अनुगामी भिक्षु बनायें और मेरा आज का भोजन स्वीकार करें। " बुद्ध से मौन स्वीकृति पाकर गृहपति वहां से उठा और अभिवादन पूर्वक प्रदक्षिणा देकर चला गया । यश कुलपुत्र ने उसके अनन्तर बुद्ध से प्रव्रज्या और उपसम्पदा की याचना की । बुद्ध ने कहा- - "भिक्षु ! आओ, धर्म सु-आख्यात है । अच्छी तरह दुःख-क्षय के लिए ब्रह्मचर्य का पालन करो । ।" और यह उस आयुष्मान् की उपसम्पदा हुई । उस समय लोक में सात अर्हत् थे । वाराणसी के श्रेष्ठी - अनुश्रेष्ठियों के कुल के कुमार विमल, सुबाहु, पूर्णजित् और गवांपति; आयुष्मान् यश के चार गृही मित्र थे । यश के प्रव्रजित हो जाने का उन्होंने संवाद सुना तो उनके भी चिन्तन उभरा, जिस धर्म-सम्प्रदाय में यश प्रव्रजित हुआ है, वह साधारण नहीं होगा। अवश्य ही कोई विशेष होगा। वे अपने आवासों से चले और भिक्षु यश के पास भिक्षु यश उन्हें बुद्ध के पास ले गया । अभिबुद्ध से उनका परिचय कराया और उपदिया। चारों ही मित्र धर्म में विशारद याचना की । बुद्ध ने तत्काल उनकी प्रार्थना चित्त आस्रवों से मुक्त हो गये । उस समय पहुँचे । अभिवादन कर एक ओर खड़े हो गये । वादन कर वे एक ओर शान्त-चित्त बैठ गये । यश |देश देने की प्रार्थना की । बुद्ध ने उन्हें दिव्य उपदेश हुए और उन्होंने भी प्रव्रज्या व उपसम्पदा की स्वीकार की । तत्काल उपदेश सुनते ही उनके लोक में ग्यारह अर्हत् थे । ने 2010_05 Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा] भिक्षु-संघ और उसका विस्तार २०५ ग्रामवासी पच्चास गृही-मित्रों ने यश के प्रव्रजित होने का संवाद सुना तो वे भी भिक्ष संघ की प्रभावना से आकृष्ट होकर बुद्ध के पास आये और उपदेश सुनकर प्रवजित हो गये तथा उनके चित्त आस्रव-रहित हो गये । उस समय लोक में इकसठ अर्हत थे। वाराणसी में रहते-रहते बुद्ध ने उपर्युक्त साठ उपसम्पदाएं कीं। इन्हीं साठ भिक्षुओं में उन्होंने चरत भिक्खवे चारिका, चरत भिक्खवे चारिका का सुविख्यात सन्देश दिया । यहीं से उन्होंने समस्त भिक्षुओं को स्वयं उपसम्पदा देने की अनुज्ञा दी । लगता है, भिक्षु-संघ की वृद्धि के लिए चारिका-सन्देश और उपसम्पदा-निर्देश वरदान रूप हो गये। मद्रवर्गीय बुद्ध ने साठ भिक्षुओं को चारिका-सन्देश के प्रसारार्थ भिन्न-भिन्न दिशाओं में भेजा। वाराणसी से प्रस्थान कर स्वयं उरुवेला आये। मार्ग से हटकर एक उद्यान में वृक्ष के नीचे विश्राम लिया। मद्रवर्गीय तीस मित्र अपनी पत्नियों के साथ उसी उद्यान में क्रीड़ा कर रहे थे । एक मित्र के पत्नी नहीं थी: अतः उसके लिए एक वेश्या लाई गई। तीस यवक और युवतियां आमोद-प्रमोद में इतने मग्न हो गये कि वे अपनी सुध-बुध ही भूल गये । वेश्या ने उस अवसर का लाभ उठाया और वह आभषण आदि बहमुल्य वस्तुएं उठाकर चलती बनी। सुध में आने पर जब उन्हें ज्ञात हुआ, तो अपने मित्र के सहयोग में सभी मित्रों ने उद्यान के चप्पेचप्पे को छान डाला । वे घूमते हुए उस वृक्ष के नीचे भी पहुंच गये, जहाँ कि बुद्ध बैठे थे। सभी ने वह घटना बताई और वेश्या के उधर आगमन के बारे में उनसे प्रश्न किया। बुद्ध ने तत्काल प्रतिप्रश्न किया- "कुमारो! उस स्त्री की खोज को आवश्यक मानते हो या अपनी (आत्मा की) खोज को ?" सभी ने एक स्वर से उत्तर दिया- "हमारे लिए आत्मा की खोज ही सबसे उत्तम बुद्ध ने उन्हें उपदेश दिया। सभी भद्रवर्गीय मित्र धर्म में विशारद हो गये और उन्होंने बुद्ध से उपसम्पदा प्राप्त की। एक हजार परिव्राजक भगवान् बुद्ध उरुवेला पहुंचे। वहाँ उरुवेल काश्यप, नंदी काश्यप और गया काश्यप; तीन जटिल (जटाधारी) बंधु अग्निहोत्र पूर्वक तपश्चर्या कर रहे थे। उनके क्रमशः पाँच सौ, तीन सौ और दो सौ शिष्यों का परिवार था । बुद्ध उरुवेल काश्यप जटिल के आश्रम में पहुँचे । अग्निशाला में वास किया। प्रथम रात्रि में उन्होंने नाग का तेज खींचकर उसकी चण्डता समाप्त कर दी। १. विनय पिटक, महावग्ग, महाखन्धक, १-१-८ से १० के आधार से। २. विनय पिटक, महावग्ग, महाखन्धक, १-१-१३ के आधार से । ३. विस्तार के लिए देखें, 'परिषह और तितिक्षा' प्रकरण के अन्तर्गत 'चण्डनाग-विजय' । ___ 2010_05 Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन खण्ड : १ उरुवेल काश्यप उस चामत्कारिक घटना से बहुत प्रभावित हुआ। महादिव्य शक्तिधर व महाअनुभवी बुद्ध का उसने लोहा माना। उन्हें अपने आश्रम में विहार के लिए आग्रह और निवेदन किया- मैं प्रतिदिन भोजन से तुम्हारी सेवा करूंगा।" बुद्ध वहाँ रहने लगे । एक बार उरुवेल काश्यप के समक्ष एक महायज्ञ का प्रसंग उपस्थित हुआ। उस यज्ञ में अंग-मगध-निवासी बहुसंख्यक जनता खाद्य-भोज्य सामग्री लेकर उपस्थित होने वाली थी। उरुवेल काश्यप के मन में सहसा विचार हुआ, यज्ञ-प्रसंग पर बहुत सारी जनता एकत्रित होगी। यदि इस समय महाश्रमण ने जन-समुदाय को चमत्कार दिखलाया, तो उसका लाभ व सत्कार बढ़ेगा और मेरा घटेगा। कितना सुन्दर होता, यदि महाश्रमण इस अवसर पर यहाँ न होता। उरुवेल काश्यप का मानसिक अभिप्राय बुद्ध ने जान लिया। वे उत्तरकुरु पहुँच गये। वहाँ से भिक्षान्न ले अनवतप्त सरोवर पर भोजन किया और दिन में वहीं विहार किया। रात समाप्त हुई । उरुवेल काश्यप बुद्ध के पास पहुंचा और बोला--"महाश्रमण ! भोजन का समय है । भात तैयार हो गये हैं। महाश्रमण ! कल क्यों नहीं आये ? हम लोग आपको याद करते रहे । आपके भोजन का भाग रखा पड़ा है।" बुद्ध ने उरुवेल काश्यप की कलई खोलते हुए उसके प्रच्छन्न मानसिक अभिप्राय को प्रकट किया और कहा- "इसीलिए मैं कल यहाँ नहीं रहा।" उरुवेल काश्यप के मन में विचार आया, महाश्रमण दिव्य शक्तिधर है। अपने चित्त से दूसरे के चित्त को सहज ही जान लेता है, फिर भी यह मेरे जैसा अर्हत् नहीं है। उरुवेल काश्यप द्वारा प्रदत्त भोजन बुद्ध ने ग्रहण किया और उसी वन-खण्ड में विहार करने लगे। एक समय उन्हें कुछ पुराने चीवर प्राप्त हुए। उनके मन में आया, इन्हें कहाँ धोना चाहिए ? शक्रेन्द्र ने उनके अभिप्राय को जान लिया और अपने हाथ से पुष्करिणी खोद डाली। निवेदन किया--"भन्ते ! आप ये चीवर यहाँ धोएँ।" तत्काल दूसरा विचार आया, इन्हें कहाँ पछाड़। शक्रेन्द्र ने तत्काल वहाँ एक बड़ी भारी शिला रख दी। जब उनके मन में यह अभिप्राय हुआ, किसका आलम्बन लेकर नीचे उतरूं। शकेन्द्र ने तत्काल ककुध वृक्ष की शाखा लटका दी। वस्त्रों को सुखाने के लिए कहाँ फैलाऊँ, जब उनके मन में यह अभिप्राय हुआ, तो शकेन्द्र ने तत्काल एक बड़ी भारी शिला डाल दी। रात बीती। उरुवेल काश्यप बुद्ध के पास गया और भोजन के लिए निमन्त्रण दिया। अभूतपूर्व पुष्करिणी, शिला, ककुध-शाखा आदि को देखकर उनके बारे में भी पश्न किया। बुद्ध ने सारी घटना सुनाई। उरुवेल काश्यप जटिल के मन में आया, महाश्रमण दिव्य शक्तिधर है, फिर भी मेरे जैसा अर्हत् नहीं है। बुद्ध ने आहार ग्रहण किया और वहीं विहार करने लगे। एक बार अकाल मेघ बरसा। बाढ़-सी आ गई। बुद्ध जिस प्रदेश में विहार कर रहे थे, वह पानी में डूब गया। बुद्ध के मन में आया, चारों ओर से पानी को हटाकर क्यों न मैं स्थल प्रदेश में चंक्रमण करूँ। उन्होंने वैसा ही किया। सहसा उरुवेल काश्यप के मन में आया, महाश्रमण जल में डूब गए होंगे। नाव व बहुत सारे जटिलों को साथ लेकर बुद्ध के पास आया। उन्होंने बुद्ध को स्थल प्रदेश में चंक्रमण करते देखा। उरुवेल काश्यप ने साश्चर्य पूछा-"महाश्रमण ! क्या तुम ही हो ?” बुद्ध ने कहा-"हां, मैं ही हूँ।" वे आकाश में उड़े और नाव में जाकर खड़े हो गये । उरुवेल काश्यप के मन में फिर विचार आया, महाश्रमण अवश्य ही दिव्य शक्तिधर है, किन्तु, मेरे जैसा अर्हत् नहीं है। 2010_05 Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा ] भिक्षु संघ और उसका विस्तार ३०७ बुद्ध ने इस प्रकार पन्द्रह प्रातिहार्य दिखलाये, पर, उरुवेल मन में उसी प्रकार सोचता रहा । अन्त में उसकी इस धारणा का निराकरण करने के निमित्त बुद्ध ने कहा - "काश्यप ! तू न तो अर्हत् है ओर न अर्हत के मार्ग पर आरूढ़ । उस सूझ से भी तू सर्वथा रहित है, जिससे कि अर्हत हो सके या अर्हत् के मार्ग पर आरूढ़ हो सके ।' बुद्ध के इस कथन से उरुवेल का सिर श्रद्धा से झुक गया। उनके चरणों में अपना मस्तक रख कर वह बोला- “भन्ते ! मुझे आप से प्रवज्या मिले, उपसम्पदा मिले ।" बुद्ध ने अत्यन्त कोमल शब्दों में कहा - "काश्यप ! तू पाँच सौ जटिलों का नेता है । उनकी ओर भी देख । " उरुवेल काश्यप ने बुद्ध के इस संकेत को शिरोधार्य किया । अपने पाँच सौ जटिलों के पास गया । महाश्रमण के पास जाकर ब्रह्मचर्य ग्रहण करने के अपने अभिप्राय से उन्हें सूचित किया। उनको निर्देश किया - "तुम सब स्वतंत्र हो । जैसा चाहो, वैसा करो। " कुछ चिन्तन के अनन्तर सभी ने एक साथ कहा - "हम महाश्रमण से प्रभावित हैं । यदि आप उनके पास ब्रह्मचर्य-चरण करेंगे तो हम भी आपके अनुगत होंगे।" सभी जटिल एक साथ उठे । उन्होंने अपनी केश-सामग्री, जटा - सामग्री, भोली, घी की के सामग्री, अग्निहोत्र की सामग्री आदि अपने सामान को जल में प्रवाहित किया और बुद्ध पास उपस्थित हुए | नतमस्तक होकर प्रव्रज्या और उपसम्पदा की याचना की । बुद्ध ने उनकी प्रार्थना को स्वीकार किया और उपसम्पदा प्रदान की । नंदी काश्यप ने नदी में प्रवाहित सामग्री को देखा, तो उसे बहुत आश्चर्य हुआ । उसे अपने भाई के अनिष्ट की आशंका हुई । अपने सभी जटिलों को साथ लेकर उरुवेल कास्यप के पास आया। उसे श्रमण- पर्याय में देखकर वह चकित हो गया। सहसा उसके मुँह से प्रश्न निकला - "काश्यप ! क्या यह अच्छा है ?" उरुवेल काश्यप ने उत्तर दिया- "हाँ आवुस ! यह अच्छा है ।" नंदी काश्यप ने भी अपनी सारी सामग्री जल में विसर्जित कर दी और उसने अपने तीन सौ जटिलों के परिवार से बुद्ध के पास उपसम्पदा स्वीकार की । गया काश्यप ने भी जल में प्रवाहित सामग्री को देखा। वह भी अपने बन्धुओं के पास आया और उनसे उस बारे में जिज्ञासा की । समाधान पाकर उसने अपने दो सौ जटिलों के साथ बुद्ध से उपसम्पदा स्वीकार की । उरुवेला से प्रस्थान कर बुद्ध एक सहस्र जटिल मिक्षुओं के महासंघ के साथ गया आये ।' सारिपुत्त और मौग्गल्लान राजगृह में ढाई सौ परिव्राजकों के परिवार से संजय परिव्राजक रहता था । सारिपुत्त और मोग्गल्लान उसके प्रमुख शिष्य थे । वे संजय परिव्राजक के पास ब्रह्मचर्यं चरण करते थे। दोनों ने एक साथ निश्चय किया, जिसे सर्वप्रथम अमृत प्राप्त हो, वह दूसरे को तत्काल सूचित करें । भिक्षु अश्वजित् पूर्वाह्न में व्यवस्थित हो, पात्र व चीवर लेकर, अति सुन्दर आलोकनविलोकन के साथ, , संकोचन - विकोचन के साथ, अधोदृष्टि तथा संयमित गति से भिक्षा के लिए १. विनय पिटक, महावग्ग, महाखन्धक, १-१-१४ व १५ के आधार से । 2010_05 Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [ खण्ड : १ से राजगृह में प्रविष्ट हुए । सारिपुत्त ने उन्हें देखा। वह उनकी शान्त और गम्भीर मुखाकृति बहुत प्रभावित हुआ। उसके मन में आया, लोक में जो अर्हत् या अर्हत्-मार्ग पर आरूढ़ हैं, उनमें से यह भिक्षु भी एक ही हो सकता है । क्यों न मैं इसे पूछें कि आप किस गुरु के पास प्रव्रजित हुए है, शास्ता कौन है और किस धर्म को मानते हैं । दूसरे ही क्षण सारिपुत्त के मन में अध्यवसाय उत्पन्न हुआ, यह भिक्षु इस समय भिक्षा के लिए घूम रहा है; अतः प्रश्न पूछने का उचित अवसर नहीं 1 क्यों न मैं इसके पीछे-पीछे चलूं और इसके आश्रम में पहुँच कर ही मैं अपना समाधान करूँ । २०८ आयुष्मान् अश्वजित् राजगृह से भिक्षा लेकर आश्रम लौट आये । सारिपुत्त भी उनके पीछे-पीछे ही पहुँच गया । अश्वजित् से कुशल प्रश्न किया और एक ओर खड़ा हो गया । उसने अश्वजित की प्रशंसा करते हुए कहा - " आवुस ! तुम्हारी इन्द्रियाँ प्रसन्न हैं । तुम्हारी छवि परिशुद्ध तथा उज्ज्वल है । तुम किसको गुरु करके प्रव्रजित हुए हो, तुम्हारा शास्ता कौन है और तुम किसका धर्म मानते हो ?" - I अश्वजित् ने कहा – “ शाक्य कुल में उत्पन्न शाक्यपुत्र महाश्रमण हैं । उन्हें ही गुरु मानकर मैं प्रव्रजित हुआ हूँ । वे ही भगवान् मेरे शास्ता हैं और उनका धर्म ही मैं मानता हूँ ।" सारिपुत्त ने जिज्ञासा करते हुए कहा - "तुम्हारे शास्ता किस सिद्धान्त को मानने वाले हैं ।" अश्वजित् ने विनम्रभाव से कहा - "मैं इस धर्म में सद्यः ही प्रविष्ट हुआ हूँ । नव प्रव्रजित होने से मैं तुम्हें विस्तार से नहीं बतला सकता, किन्तु, संक्षेप में अवश्य बतला सकता हूँ ।" सारिपुत्त ने उत्सुकता व्यक्त करते हुए कहा- "आवुस ! अल्प या अधिक ; कुछ भी मुझे बतलाओ । संक्षेप में ही बतलाओ, अधिक विस्तार से मुझे प्रयोजन नहीं है । " आयुष्मान् अश्वजित् ने तब धर्म-प्रयाय बतलाते हुए दुःख, दुःख समुदय, दु:ख निरोध एवं दु:ख निरोध- गामिनी प्रतिपदा का संक्षेप में प्रतिपादन किया और कहा - "महाश्रमण का यह वाद सिद्धान्त है ।" श्रवणमात्र से ही सारिपुत्त को विमल धर्म चक्षु उत्पन्न हुआ । विहित प्रतिज्ञा के अनुसार मोग्गलान को सूचना देने के लिए आया। मौग्गल्लान ने उसे दूर से ही आते हुए देखा। वह उसकी शान्त, संयमित व गम्भीर गति से बहुत प्रभावित हुआ । सहसा उसके मुंह से निकला – “क्या तुझे अमृत की प्राप्ति हो गई है ?" सारिपुत्त ने स्वीकृति सूचक उत्तर दिया। मोग्गल्लान का अगला प्रश्न था, तू ने वह कहां से पाया ? सारिपुत्त ने सारा वृत्त बतलाया । मौग्गल्लान को विशेष प्रसन्नता हुई और उसे भी धर्म चक्षु उत्पन्न हुआ। दोनों ने तत्काल निश्चय किया, हम भगवान् के पास चलें । ही हमारे शास्ता है । हमारे आश्रम में रहने वाले ढाई सौ परिव्राजकों को भी सूचित कर दें। वे भी जैसा चाहें, कर सकें । ढाई सौ परिव्राजकों ने सारिपुत्त और मोग्गल्लान के निश्चय का स्वागत किया और उन्होंने भी शास्ता की शरण ग्रहण करने की अभिलाषा व्यक्त की । सारिपुत्त और मौग्गल्लान ने संजय परिव्राजक को अपने सामूहिक निश्चय से सूचित किया। उन्हें यह उचित प्रतीत नहीं हुआ । उन्होंने इसका प्रतिवाद करते हुए कहा -- 2010_05 Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा] भिक्षु-संघ और उसका विस्तार २०६ ''आवुसो ! तुम वहाँ मत जाओ। हम तीनों मिलकर इस परिव्राजक संघ का नेतृत्व करेंगे।" सारिपुत्त और मौग्गल्लान ने संजय के कथन का प्रतिवाद किया और अपने अभिमत को दोतीन बार दुहराया। संजय परिव्राजक ने अपनी बात को उसी प्रकार दुहराया। उसके मुंह से वहीं गर्म खून निकलने लगा। सारिपुत्त और मौग्गल्लान ने संजय का साथ छोड़ दिया और अपने पूरे परिवार के साथ वेणुवन पहुँच गये । बुद्ध ने उन्हें दूर से ही आते हुए देखा तो भिक्षओं को सम्बोधित करते हुए कहा-"कोलित (मोग्गल्लान), उपतिष्य (सारिपुत्त), ये दोनों मित्र प्रधान शिष्य-युगल होंगे; भद्र-युगल होंगे।" दोनों ही परिव्राजकों ने अपने शिष्य-परिवार के साथ अभिवादन किया और उपसम्पदा ग्रहण कर विहरण करने लगे।' महाकाच्चायन महाकाच्चायन का जन्म उज्जैन में पुरोहित के घर में हुआ। गोत्र के कारण वे काच्चायन की अभिधा से प्रसिद्ध हुए। बड़े होकर उन्होंने तीनों वेद पढ़े। पिता की मृत्यु के बाद उन्हें पुरोहित का पद प्राप्त हुआ। राजा चण्डप्रद्योत ने एक बार अपने अमात्यों को एकत्रित कर आदेश दिया-लोक में बुद्ध उत्पन्न हुए हैं। कोई वहां जाकर उन्हें यहाँ अवश्य लाये । अमात्यों ने निवेदन किया-“देव ! आचार्य कात्यायन ही इस कार्य के लिए समर्थ हैं। आप उन्हें ही दायित्व सौंपें।" राजा ने उन्हें बुलाया और अपनी इच्छा व्यक्त की। आचार्य कात्यायन ने एक शर्त प्रस्तुत करते हुए कहा-'यदि मुझे प्रव्रज्या की अनुज्ञा मिले, तो मैं जाऊँगा।" राजा चन्डप्रद्योत ने उसे स्वीकार करते हुए कहा-'जैसे भी हो, राज्य में तथागत का आगमन आवश्यक है।" आचार्य काच्चायन ने यह दायित्व अपने पर ले लिया। प्रस्थान की तैयारी करते हुए उन्होंने सोचा, इस निमंत्रण के लिए जनसमूह की आवश्यकता नहीं है। उन्होंने अपने साथ सात व्यक्तियों को लिया। बुद्ध के पास पहुँचे। बुद्ध ने उन्हें धर्मोपदेश दिया। सभी व्यक्ति प्रतिसंवित् हो अर्हत्-पद को प्राप्त हुए । शास्ता ने 'भिक्षुओं ! आओ' कह हाथ फैलाया । उस समय वे सभी मुण्डित मस्तक, ऋद्धि-प्राप्त, पात्र-चीवर धारण किये, सौ वर्ष के स्थविर के सदृश हो गये। प्रव्रजित होने के बाद स्थविर कात्यायन मौन होकर नहीं बैठे । उन्होंने शास्ता को उज्जैन चलने के लिए निमंत्रण दिया। शास्ता ने उनकी बात को ध्यान पूर्वक सुना और कहा-"बुद्ध एक कारण से न जाने योग्य स्थान में नहीं जाते; अतः भिक्षु ! तू ही जा। तेरे जाने पर ही राजा प्रसन्न होगा।" स्थविर कात्यायन ने सोचा, बुद्धों की दो बातें नहीं हुआ करतीं। उन्होंने तथागत को वन्दना की और अपने सातों साथियों को साथ ले उज्जैन की ओर प्रस्थान किया। रास्ते में तेलप्पनाली नामक कस्बे में भिक्षाचार करने गये। वहाँ दो लड़कियाँ रहती थीं। एक लड़की दरिद्र घर में पैदा हुई थी। माता-पिता की मृत्यु के बाद एक दाई ने उसे पाला-पोषा। उसका लावण्य निरुपम था और केश बहुत प्रलम्ब थे। दूसरी लड़की उसी कस्बे में ऐश्वर्य-सम्पन्न एक सेठ के घर पैदा हुई थी, किन्तु, केश-हीना थी। उसने दरिद्र लड़की के पास सन्देश भेजा, १. विनय पिटक, महावग्ग, महासन्धक, १-१-१८ के आधार से। 2010_05 Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१० आगम और त्रिपिटिक : एक अनुशीलन [खण्ड :१ मैं तुम्हें सौ या हजार दूंगी, यदि तू अपने केश मुझे दे दे। दरिद्र-कन्या ने उसके प्रस्ताव को ठकरा दिया। स्थविर कात्यायन को दरिद्र लड़की ने अपने ग्राम में भिक्षा के लिए घूमते हुए देखा। स्थविर खाली पात्र ही लौट रहे थे। उसने सोचा, मेरे पास धन होता तो ऐसा नहीं होने देती। उसे धनिक कन्या का प्रस्ताव याद आया। उसने अपने केश उसे बेच कर प्राप्त धन से स्थविर को भिक्षा देने का निश्चय किया। उसने दाई को तत्काल भेजा और साथियो-सहित स्थविर को अपने घर बुला लिया। दाई से अपने केशों को कटवा कर कहा-"अम्मा ! इन केशों को अमुक सेठ की कन्या को दे आ। जो आय होगी, उससे मैं आर्यों को भिक्षा दूंगी।" केश-कर्तन से दाई को आघात पहुँचा। फिर भी उसने हाथ से आँसू पोंछे, धीरज बांधा और केश लेकर उस सेठ की कन्या के पास गई। सारपूर्ण उत्तम वस्तु आयाचित ही यदि पास आती है तो उसका वह आदर नहीं होता। इन केशों के साथ भी ऐसा ही हुआ। सेठकन्या ने सहसा सोचा, मैं बहुत सारा धन देकर इन केशों को खरीदना चाहती थी, पर, मुझे ये प्राप्त न हो सके। पर, अब तो ये कटे हुए हैं; अतः उचित मूल्य ही देना होगा। उसने दाई से कहा-"जीवित केश आठ कार्षापण के होते हैं।" और उसने केश लेकर आठ कार्षापण उसके हाथ में थमा दिये। दाई ने वे कार्षापण लाकर कन्या को दिये। कन्या ने एक-एक कार्षापण का एक-एक भिक्षान्न तयार कर स्थविरों को प्रदान किया। स्थविर कात्यायन ने दरिद्र-कन्या के विचारों को जान लिया और दाई से पूछा-"कन्या कहाँ है ?" दाई ने उत्तर दिया-"आर्य ! वह तो घर में है।" स्थविर ने पुनः कहा-“उसे बुलाओ।" दरिद्र-कन्या स्थविर द्वारा अज्ञात भावों को जान लेने पर उनसे बहुत प्रभावित हुई। उसके मन में बहुत श्रद्धा उत्पन्न हुई। उसने वहाँ आकर स्थविर को अभिवन्दना की। सुन्दर खेत (सुपात्र) में दिया भिक्षान्न उसी जन्म में फल देता है। इसलिए स्थविरों को वन्दना करते समय ही कन्या के केश पूर्ववत् हो गये। स्थविरों ने उस भिक्षान्न को ग्रहण किया और कन्या के देखते-देखते आकाश में उड़ कर कांचन-वन में जा उतरे। माली ने राजा चण्डप्रद्योत को सूचित किया--"देव ! आर्य पुरोहित कात्यायन प्रवजित हो, उद्यान में आये हैं।" राजा आनन्दित हुआ और उद्यान में पहुँचा। स्थविरों के भोजन कर चुकने पर राजा ने पाँच अंगों से उन्हें वन्दना की और पूछा-'भन्ते ! भगवान् कहाँ हैं ?" स्थविर कात्यायन ने उत्तर दिया-"महाराज ! शास्ता स्वयं नहीं आये। उन्होंने मुझे भेजा है।" राजा का अगला प्रश्न था-'आज आपने भिक्षा कहाँ पाई ?" स्थविर ने दरिद्र-कन्या के दुष्कर कार्य का सारा वृतांत सुनाया। राजा उससे बहुत प्रभावित हआ। उसने स्थविरों के रहने का प्रबन्ध किया और भोजन का निमंत्रण देकर लौट आया। दरिद्र-कन्या को बुलाया और उसे अग्रमहिषी के पद पर स्थापित किया। स्थविर का बहुत सत्कार करने लगा। दरिद्र-कन्या के पुत्र हुआ। मातामह के नाम पर उसका गोपालकुमार नामकरण किया गया और वह रानी गोपाल-माता के नाम से विश्रुत हुई। उसने राजा से कह कर कांचन-वन 2010_05 Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा भिक्षु-संघ और उसका विस्तार २११ में स्थविरों के लिए विहार बनवाया। स्थविरों ने उज्जैन नगर को अनुरक्त बनाया और शास्ता के पास चले गये। दस सहस्त्र नागरिक, नन्द व राहुल महाराज शुद्धोदन को यह ज्ञात हुआ कि मेरा पुत्र छः वर्ष तक दुष्कर तपश्चर्या करने के अनन्तर, परम अभिसम्बोधि को प्राप्त कर व धर्मचक्र का प्रवर्तन कर इस समय वेणुवन में विहार कर रहा है । उस समय उसने अपने अमात्य से कहा-“एक हजार व्यक्तियों के साथ राजगृह जाकर बुद्ध से कहो-'आपके पिता महाराज शुद्धोदन आपके दर्शन करना चाहते हैं। उसे अपने साथ ले आओ।" अमात्य ने राजा का आदेश शिरोधार्य किया और हजार व्यक्तियों के साथ साठ योजन मार्ग को लांघकर राजगृह के वेणुवन पहुँचा। बुद्ध उस समय चार प्रकार की परिषद् (भिक्षु, भिक्षुणी, उपासक और उपासिकाओं) के बीच धर्मोपदेश कर रहे थे । वह विहार के अन्दर गया। राजा का सन्देश बुद्ध को निवेदन न कर, एक ओर खड़ा हो, वह उपदेश-श्रवण में लीन हो गया। वहाँ खड़े-खड़े हजार व्यक्तियों सहित अमात्य ने अर्हत्-पद को प्राप्त किया और प्रव्रज्या की याचना की। "भिक्षुओं ! आओ", कहते हुए बुद्ध ने हाथ फैलाया। चामत्का. रिक रूप में वे सभी पात्र-चीवर धारण किये शतवर्षीय वृद्ध स्थविर हो गये। अर्हत्-पद प्राप्त होने पर मध्यस्थ भाव को प्राप्त हो जाते हैं। अतः उसने राजा का भेजा हआ संदेश-पत्र बद्ध को नहीं दिया। अमात्य लौटकर भी नहीं आया और समाचार भी नहीं पहुंचाया तो राजा ने उसी प्रकार हजार व्यक्तियों के समूह के साथ दूसरे अमात्य को भेजा। वह भी अपने अनुचरों के साथ अर्हत्त्व पाकर मौन हो गया। वापस नहीं लौटा। राजा ने हजार-हजार पुरुषों के साथ नौ अमात्यों को भेजा। सभी अपना-अपना आत्मोन्नति का कार्य कर मौन हो. वहीं विहरने लगे। कोई भी लौटकर नहीं आया। राजा विचार में पड़ गया। उसने सोचा, इतने व्यक्तियों का स्नेह मेरे साथ होते हुए भी, किसी ने आकर मुझे संवाद नहीं सुनाया। अब । बात कौन मानेगा? चिन्तामग्न होकर उसने अपने राजमण्डल को निहारा। कालउदाई पर उसकी दृष्टि पड़ी। कालउदाई राजा का आन्तरिक, अतिविश्वस्त व सर्वार्थसाधक अमात्य था। वह बोधिसत्त्व के साथ एक ही दिन पैदा हुआ था। दोनों बाल-मित्र । राजा ने कालउदाई को सम्बोधन करते हुये कहा-"तात! मैं अपने पुत्र को देखना चाहता हूं। नौ हजार पुरुषों को भेजा, एक ने भी आकर सचित नहीं किया। शरीर का कोई भरोसा नहीं है। मैं अपने जीवन में उसे देख लेना चाहता हूं। तू मुझे अपने पुत्र को दिखा सकेगा?" कालउदाई ने कहा- "देव ! ऐसा कर सकूँगा, किन्तु, मुझे प्रव्रज्या की अनुज्ञा मिले।" राजा ने व्यग्रता के साथ कहा-"तात ! तू प्रवजित या अप्रव्रजित, मेरे पुत्र को यहां लाकर मुझे दिखा।" राजा का आदेश शिरोधार्य कर कालउदाई वहां से चल पड़ा। राजगृह पहुंचा। . १. अंगुत्तर निकाय अट्ठकथा, १.१.१० । 2010_05 Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड : १ परिषद् के अन्त में खड़े होकर शास्ता का धर्मोपदेश सुना और सपरिवार अर्हत्फल को प्राप्त हो गया। शास्ता ने बुद्ध होकर पहला वर्षावास ऋषिपत्तन में व्यतीत किया। उरुवेला आये और तीन मास ठहरे। तीनों जटिल बन्धुओं को मार्ग पर ला, एक सहस्र भिक्षुओं के परिवार से पौष मास की पूर्णिमा को राजगृह आये। वहां दो मास ठहरे। वाराणसी से चले उन्हें पांच मास व्यतीत हो गये थे । उदाई स्थविर को वहां आये सात-आठ दिन बीत चुके थे। फाल्गुन, प्रणिमा को वह सोचने लगा-"हेमन्त समाप्त हो गया है । वसन्त आ गया है। कृषकों ने शस्य आदि काटकर रास्ता छोड़ दिया है। पृथ्वी हरित तृण से आच्छादित है, वन-खण्ड फलों से लदे हुये हैं। मार्ग गमनागमन के योग्य हो गये हैं। बुद्ध के लिए अपनी जाति-संग्रह का यह उचित समय है।" शास्ता के पास आकर उसने प्रार्थना की-"भन्ते ! इस समय न अधिक शीत है और न अधिक गर्मी । अन्न की भी कठिनता नहीं है। हरियाली से भूमि हरित है। कुल-नगर की ओर प्रस्थान का उचित समय है।" बुद्ध ने कहा-"उदाई ! क्या तू मधुर स्वर से यात्रा का अनुमोदन कर रहा है ?" उदाई ने निवेदन किया-“भन्ते ! आपके पिता महाराज शुद्धोदन आपके दर्शन चाहते हैं। आप जाति वालों का संग्रह करें।" बुद्ध ने निर्णय देते हुये कहा-“अच्छा, मैं जातिवालों का संग्रह करूंगा। तुम भिक्षुसंघ से कहो कि यात्रा की तैयारी करे।" बुद्ध ने जब वहां से प्रस्थान किया तो उनके साथ अंग-मगध के दस हजार कुलपुत्र व दस हजार ही कपिलवस्तु के कुलपुत्र थे । वे सभी बीस हजार क्षीणास्रव (अर्हत् ) थे। प्रतिदिन एक-एक योजन चलते हुये धीमी गति से साठ दिन में कपिलवस्तु पहुंचे। बुद्ध के आगमन का संवाद सुन सभी शाक्य एकत्रित हुए और उन्होंने न्यग्रोध उद्यान को उनके निवास स्थान के लिए चुना। उसे बहुत ही सजाया व संवारा । उनकी अगवानी के लिये गंध, पुष्प आदि हाथों लिए, सब तरह के अलंकृत कुमार व कुमारियों को भेजा । उनके बाद राजकुमार व राजकुमारियों ने उनकी अगवानी की। पूजा-सत्कार करते हुए उन्हें न्यग्रोधाराम में लाये । बुद्ध बीस हजार अर्हतों के परिवार से स्थापित बुद्धासन पर बैठे। दूसरे दिन भिक्षुओं के साथ बुद्ध ने भिक्षा के लिये कपिलवस्तु में प्रवेश किया। वहां न किसी ने उन्हें भोजन के लिये निमंत्रित ही किया और न किसी ने पात्र ही ग्रहण किया । बद्ध ने इन्द्रकील पर खड़े होकर चिन्तन किया--"पूर्व के बुद्धों ने कुल-नगर में भिक्षाटन कैसे किया था ! क्या बीच के घरों को छोड़कर केवल बड़े-बड़े आदमियों के ही घर गये या एक ओर से सबके घर?" उन्होंने जाना, बीच-बीच में घर छोड़कर किसी भी बुद्ध ने भिक्षाटन नहीं किया। मेरा भी यही वंश है; अतः यही कुल-धर्म ग्रहण करना चाहिये । भविष्य से मेरे श्रावक (शिष्य) मेरा ही अनुसरण करते हुये भिक्षाचार व्रत पूरा करेंगे। उन्होंने एक छोर से भिक्षाचार आरम्भ किया। शहर में सर्वत्र यह विश्रुत हो गया कि आर्य सिद्धार्थ राजकुमार भिक्षाचार कर रहे हैं। नागरिक उत्सुकतावश अपने-अपने प्रासादों की खिड़कियां खोल उस दृश्य को देखने लगे। १. जैन परम्परा में भी भिक्षु की समुदान भिक्षा का लगभग यही क्रम है। देखें, दसवेयालियम्, अगस्त्यसिंह चूर्णि, अ० ५, उ० २, गा० २५। ____ 2010_05 Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा भिक्षु संघ और उसका विस्तार राहुल-माता देवी (यशोधरा) ने भी खिड़की खोल उन्हें देखा। उसके मन में आया, एक दिन आर्यपुत्र इसी नगर में बाडम्बर से स्वर्ण-शिविका में आरूढ़ होकर घूमे थे और आज सिर दाढ़ी-मुंडाकर, काषाय-वस्त्र पहन, कपाल हाथ में लिये भिक्षाचार कर रहे हैं। क्या यह शोभा देता है ? उसने तत्काल राजा को सूचित किया। घबराया हुआ राजा बुद्ध के पास पहुंचकर बोला-'भन्ते ! आप हमें क्यों लजवाते हैं ? आप भिक्षा-चरण क्यों करते हैं ? क्या आप यह ख्यापित करना चाहते हैं कि इतने भिक्षुओं को हमारे यहां भोजन नहीं मिलता?" बुद्ध ने सहज भाषा में उत्तर दिया--"महाराज ! हमारे वंश का यही आचार है।" राजा ने पुनः कहा-"भन्ते ! निश्चित ही हम लोगों का वंश तो महासम्मत का क्षत्रिय वंश है । इस वंश में एक क्षत्रिय भी तो कभी भिक्षाचारी नहीं हुआ ?" बुद्ध ने प्रत्युत्तर में कहा--"महाराज ! वह राजवंश तो आपका है। हमारा वंश तो दीपंकर आदि का बुद्ध-वंश है। सहस्रशः बुद्ध भिक्षाचारी रहे हैं। उन्होंने इसी माध्यम से जीविका चलाई है।" राजा ने तत्काल बुद्ध का पात्र हाथ में लिया और परिषद् सहित महलों में ले आया। उन्हें उत्तम खाद्य-भोज्य परोसे । भोजन के बाद राहुल-माता को छोड़ सारे अन्तःपुर ने आकर उनकी अभिवन्दना की। परिजन द्वारा कहे जाने पर भी राहुल-माता वन्दना के लिए नहीं आई। उसने एक ही उत्तर दिया-- यदि मेरे में गुण हैं, तो स्वयं आर्यपुत्र मेरे पास आयेंगे, तब मैं उन्हें वन्दना करूंगी।" बुद्ध ने राजा को पात्र दिया और अपने दो अग्र श्रावकों (सारिपुत्त और मौग्गल्लान) को साथ ले राजकुमारी के शयनागार में गए। दोनों अग्न स्रावकों से उन्होंने कहा-"राजकन्या को यथारुचि वन्दना करने देना। कुछ न कहना।" स्वयं बिछाये हुए आसन पर बैठ गए। राज-कन्या शीघ्रता से आई। चरण पकड़कर सिर रखा और यथेच्छ वन्दना की। राजा ने राज-कन्या के बारे में बुद्ध से कहा-"भन्ते ! जिस दिन से आपने काषाय वस्त्र पहने हैं, उस दिन से यह भी काषाय वस्त्र-धारिणी हो गई है। आपके एक बार भोजन को सुन, एकाहारिणी हो गई है। आपने ऊंचे पल्यंक आदि को छोड़ दिया, तो यह भी तख्त पर सोने लगी है। आपके माला, गंध आदि से विरत होने की घटना सुन, स्वयं भी उनसे विरत हो गई है। पीहर वालों ने बहुत से पत्र भेजे। उन्होंने चाहा था, हम तुम्हारी सेवा-सुश्रूषा करेंगे। यह उनके एक पत्र को भी नहीं देखती है।" शुद्धोदन के कथन का अनुमोदन कहते हुए बुद्ध ने कहा-'महाराज ! इसमें कुछ आश्चर्य नहीं है । इस समय तो यह आपकी सुरक्षा में रह रही है और परिपक्व ज्ञान के साथ भी है; अतः अपनी रक्षा कर सकी है। विगत में भी इसने सुरक्षा साधनों के अभाव में व अपरिपक्व ज्ञान रखते हुए भी पर्वत के नीचे विचरते हुए आत्म-रक्षा की थी।" बुद्ध आसन से उठकर चले गये। तीसरे दिन राजकुमार नन्द के अभिषेक, गृह-प्रवेश और विवाह; ये तीन मंगल उत्सव थे। उसे प्रव्रजित करने के उद्देश्य से बुद्ध स्वयं वहां आये। नन्द के हाथ में पात्र दिया, मंगल कहा और वहां से चल पड़े। चलते समय उन्होंने पात्र वापस नहीं लिया। कुमार भी तथागत के गौरव से इतना अभिभूत था कि उन्हें निवेदन भी १. जातक निदान ४, महावग्ग अट्ठकथा, महास्कन्धक, राहुलवस्तु । 2010_05 Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१४ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड: १ न कर सका कि भन्ते ! पात्र वापस लें । उसने सोचा, सीढ़ी पर पात्र ले लेंगे, किन्तु उन्होंने वहां भी पात्र नहीं लिया। सीढ़ियों से नीचे भी नहीं लिया, राज-आंगन में भी नहीं लिया और क्रमश: आगे बढ़ते ही गये । जनता ने वह देखकर जनपद - कल्याणी नन्दा से कहा“भगवान् नन्द राजकुमार को लिए जा रहे हैं । वह तुम्हें उनसे विरहित कर देंगे ।" वह बूंदें गिरते व बिना कंघी किये केशों को सहलाती हुई शीघ्रता से प्रासाद पर चढ़ी। खिड़की पर खड़ी होकर पुकारने लगी- “आर्यपुत्र ! शीघ्र ही आना ।" वह कथन उसके हृदय में उलटे शल्य की तरह चुभने लगा । बुद्ध ने फिर भी उसके हाथ से पात्र वापस नहीं लिया । संकोचवश वह भी न कह सका । विहार में पहुंचे । नन्द से पूछा - " प्रव्रजित होगा ?" उसने संकोचवश उत्तर दिया – “हां, प्रव्रजित होऊँगा ।" शास्ता ने निर्देश दिया- "नन्द को प्रव्रजित करो।" और इस प्रकार कपिलवस्तु में पहुंचने के तीसरे दिन नन्द को प्रव्रजित किया । सातवें दिन राहुल-माता ने राहुलकुमार को अलंकृत कर, यह कहकर भेजा - "तात ! बीस हजार श्रमणों के मध्य जो सुनहले उत्तम रूप वाले श्रमण हैं, वही तेरे पिता हैं । उनके पास बहुत सारे निधान थे, जो प्रव्रजित होने के बाद कहीं दिखाई ही नहीं देते। उनसे विरासत की याचना कर। उन्हें यह भी कहना, मैं राजकुमार हूं, अभिषिक्त होकर चक्रवर्ती बनना चाहता हूं | इसके लिये घन आवश्यक होता है । आप मुझे घन दें । पुत्र पिता को सम्पत्ति का अधिकारी होता है ।" पूर्वाह्न के समय पात्र चीवर आदि को लेकर बुद्ध शुद्धोदन के घर भिक्षा के लिए आये । भोजन के अनन्तर माता से प्रेरित होकर राहुलकुमार बुद्ध के पास आया और बोला“श्रमण ! तेरी छाया सुखमय है ।" बुद्ध वहां से चल दिए । राहुल भी 'श्रमण ! मुझे अपनी पैतृक सम्पत्ति दो, मुझे अपनी पैतृक सम्पत्ति दो'; यह कहता हुआ उनके पीछे-पीछे चल दिया । बुद्ध ने कुमार को नहीं लौटाया । परिजन भी उसे साथ जाने से न रोक सके । वह बुद्ध के साथ आराम तक चला गया। बुद्ध ने सोचा, यह जिस धन की याचना कर रहा है, वह सांसारिक है । नश्वर है । क्यों न मैं इसे बोधिमण्ड में मिला सात प्रकार का आर्यधन २ दूं । इस अलौकिक विरासत का इसे स्वामी बना दूं । तत्काल सारिपुत्त को आह्वान किया और कहा – “राहुलकुमार को प्रव्रजित करो ।" सारिपुत्त ने प्रश्न किया – “भन्ते ! राहुलकुमार को किस विधि से प्रव्रजित करूं ।” बुद्ध ने इस प्रसंग पर धर्म-कथा कही और भिक्षुओं को संबोधित करते हुए कहाभिक्षुओ ! तीन शरण-गमन से श्रामणेर प्रव्रज्या की अनुज्ञा देता हूं । उसका क्रम इस प्रकार है; शिर और दाढ़ी के केशों का मुण्डन करना चाहिए, काषाय वस्त्र पहनना चाहिए, एक कन्धे पर उत्तरीय करना चाहिए, भिक्षुओं को पाद-वन्दना करवानी चाहिए, ऊकड़ बैठाकर तथा बद्धांजलि कर उसे तीन बार बोलने के लिए इस प्रकार कहना - "मैं बुद्ध की शरण जाता हूं, धर्म की शरण जाता हूं, संघ की शरण जाता हूं। सारिपुत्त ने बुद्ध द्वारा निर्दिष्ट विधि से राहुलकुमार को प्रव्रजित कर लिया । शुद्धोदन १. उदान अट्ठकथा ३-२ अंगुत्तर निकाय अट्ठकथा १-४-८, विनय पिटक, महावग्ग अट्ठकथा । — २. १. श्रद्धा, २. शील, ३. लज्जा, ४. निन्दा-भय, ५ बहुश्रुत, ६. त्याग और ७. - जातक (हिन्दी अनुवाद), भाग १, पृ० ११८ ) प्रज्ञा । 2010_05 Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा भिक्षु-संघ और उसका विस्तार २१५ को जब यह ज्ञात हुआ तो वह बुद्ध के पास आया और प्रार्थना की-भन्ते ! मैं एक वर चाहता हूं।" बुद्ध ने उत्तर दिया-"गौतम! तथागत वर से दूर हो चुके हैं ?" शुद्धोदन ने निवेदन किया- "भन्ते ! वह उचित है, दोष-रहित है।" बुद्ध की स्वीकृति पाकर शुद्धोदन ने कहा-"भगवान् के प्रवजित होने पर मुझे बहुत दुःख हुआ था । नन्द के प्रवजित होने पर भी मुझे बहुत दुःख हुआ और राहुल के प्रव्रजित होने पर भी अतिशय दुःख हुआ। भन्ते ! पुत्र-प्रेम मेरा चाम छेद रहा है, चाम छेदकर मांस छेद रहा है, मांस को छेदकर नस को छेद रहा है, नस को छेदकर अस्थि को छेद रहा है, अस्थि को छेदकर घायल कर दिया है। अच्छा हो भन्ते ! आर्य (भिक्षु लोग) माता-पिता की अनुज्ञा के बिना किसी को प्रवजित न करें।" शुद्धोदन को इस प्रसंग पर बुद्ध ने धर्मोपदेश दिया। शुद्धोदन आसन से उठ, अभिवादन व प्रदक्षिणा कर चला गया। इसी अवसर पर बुद्ध ने भिक्षुओं को सम्बोधित करते हुए कहा-“आर्य माता-पिता की बिना अनुज्ञा किसी को प्रव्रजित न करें। जो प्रवृजित करे, उसे दुक्कट का दोष है।" छः शाक्यकुमार और उपालि राहुलकुमार को प्रवजित करने के अनन्तर बुद्ध शीघ्र ही कपिलवस्तु से प्रस्थान कर मल्ल देश में चारिका करते हुये अनूपिया के आम्रवन में पहुंचे। उस समय कुलीन शाक्यकुमार बुद्ध के पास अहमहमिकया प्रवजित हो रहे थे। महानाम और अनुरुद्ध; दो शाक्य बंधु थे। अनुरुद्ध सुकुमार था। उसके शीत, ग्रीष्म व वर्षा के लिये पृथक्-पृथक् तीन प्रासाद थे। वह उन दिनों वर्षा ऋतु के प्रासाद में आमोद-प्रमोद के साथ रह रहा था। प्रासाद से नीचे भी नहीं उतरता था। शाक्यकुमारों के प्रवजित होने की घटनाएं सुनकर महानाम अपने अनुज अनुरुद्ध के पास आया और घटनाएं सुनाते हुए उसने कहा- "अपने वंश में अब तक कोई भी प्रव्रजित नहीं हुआ है। दोनों बंधुओं में से एक को अवश्य प्रव्रजित होना चाहिए।" अनुरुद्ध ने तपाक से उत्तर दिया--"मैं सुकुमार हूं। घर छोड़कर प्रव्रजित नहीं हो सकता। आप ही प्रवजित हों।" महानाम ने अत्यन्त वात्सल्य से कहा- "तात ! अनुरुद्ध ! मैं तुम्हें घर-गृहस्थी अच्छी तरह समझा दूं।" अनुरुद्ध श्रवण में लीन हो गया और महानाम ने कहना आरम्भ किया। देखो, सर्वप्रथम खेत में हल चलवाने चाहिये, फिर बुआना चाहिए और फिर क्रमशः पानी भरना, पानी निकालकर सुखाना, कटवाना चाहिए, ऊपर लाना सीधा करवाना, गाटा इकट्ठा करवाना, मर्दन करवाना, पयाल हटाना, भूसी हटाना, फटकवाना तथा फिर जमा करना चाहिए। इसी क्रम से प्रतिवर्ष करना चाहिये। काम (आवश्यकता) का नाश और अंत नहीं जान पड़ता। अनुरुद्ध ने सहसा प्रश्न किया-"काम कब समाप्त होंगे? कब उनका अंत होगा और कब हम निश्चिन्त होकर पांच प्रकार के काम-भोगों से युक्त विचरण करेंगे ?" महानाम का उत्तर था-'तात ! अनुरुद्ध ! काम कभी समाप्त नहीं होते और न १. जातक अट्ठकथा, निदान ४; विनय पिटक, महावग्ग, महाखन्धक, ११३।११। ____ 2010_05 Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१६ आगम और त्रिपट : एक अनुशीलन [ खण्ड : १ इनका अंत ही जान पड़ता है । कामों को बिना समाप्त किये ही पिता और पितामह मृत्यु को प्राप्त हो गए ।" अनुरूद्ध के हृदय में सहसा विराग का अंकुर फूट पड़ा और वह बोला- “तब तो आप ही घर-गृहस्थी सम्भालें। मैं तो प्रब्रजित होऊंगा ।" अनुरुद्ध शाक्य माता के पास आया और अपने प्रव्रजित होने के अभिप्राय से उसे उसके कथन का प्रतिवाद करते हुये मृत्यु के बाद भी मैं तुमसे अनिच्छुक की स्वीकृति दूं ; यह कभी भी नहीं सूचित करते हुये उसने आज्ञा की याचना की । माता ने कहा—“तात ! अनुरुद्ध ! तुम दोनों मेरे प्रिय पुत्र हो । नहीं होऊंगी तो फिर जीवित रहते हुये मैं तुम्हें प्रव्रज्या हो सकता ।" अनुरुद्ध निरुत्साह नहीं हुआ। उसने दो-तीन बार अपने अभिप्राय को फिर दुहराया। माता अपने निश्चय पर अडिग रही। उसने एक मध्यम मार्ग निकाला । उस समय भद्दिय शक्यों का राजा था । वह अनुरुद्ध का परम मित्र था । माता जानती थी कि वह कभी भी प्रव्रजित नहीं होगा; अत: अपने पुत्र से कहा -- --- "यदि भद्दिय प्रव्रजित होता हो, तो मैं तुझे भी प्रव्रज्या की अनुज्ञा दे सकती हूं ।" अपनी जटिल पहेली का सीधा-सा उत्तर पाकर अनुरुद्ध मद्दिय के पास आया और - "सौम्य ! मेरी प्रव्रज्या तेरे अधीन है ।" कहा भद्दिय ने तत्काल उत्तर दिया-- " सौम्य ! यदि तेरी प्रवज्या मेरे अधीन है, तो मैं तुम्हें उससे मुक्त करता हूं । तू सुख से प्रवजित हो जा।" अनुरुद्ध ने कोमल शब्दों में कहा - "श्राश्रो, सौम्य ! हम दोनों प्रव्रजित हों।" भद्दिय ने अपनी असमर्थता व्यक्त करते हुए उत्तर दिया – “मैं तो प्रव्रजित नहीं हो सकता । तेरे लिये जो भी अपेक्षित है, मैं सहर्ष करूंगा। तू प्रव्रजित हो जा । " अनुरुद्ध ने अपनी स्थिति का उद्घाटन करते हुये माता द्वारा प्रस्तुत शर्त का उल्लेख किया और बलपूर्वक कहा - "तू वचन बद्ध है । तुझे मेरे साथ प्रव्रजित होना होगा । हम दोनों एक साथ एक ही मार्ग का अवलम्बन करेंगे ।" उस समय के लोग सत्यवादी होते थे । भद्दिय ने अनुरुद्ध से कहा - " मैं अपने कथन पर अटल हूं । किन्तु, मुझे सात वर्ष का समय चाहिए। उसके बाद हम दोनों एक साथ प्रव्रजित होंगे ।" अनुरुद्ध ने व्यग्रता के साथ कहा- - " सात वर्ष बहुत चिर है । मैं इतना विलम्ब नहीं कर सकता ।" भद्दिय ने कुछ अवधि अल्प करते हुए छ: वर्ष का कहा । विरक्त के लिए छ: वर्ष की अवधि भी बहुत विस्तीर्ण होती है । अनुरुद्ध ने उसका भी प्रतिवाद किया । भद्दिय ने अवधि को घटाते हुए क्रमशः पांच वर्ष, चार वर्ष, तीन वर्ष, दो वर्ष, एक वर्ष, छः मास, पांच मास, चार मास, तीन मास, दो मास, एक मास, एक पक्ष की प्रतीक्षा का कह डाला । अनुरुद्ध के लिये एक पक्ष का समय भी प्रलम्ब था; अत: उसने उसे भी अस्वीकार कर दिया और उसे शीघ्रता के लिये प्रेरित किया । मद्दिय ने अन्ततः कहा - " मित्र ! तू मुझे एक सप्ताह का समय तो दे ताकि मैं अपने पुत्रों और भाइयों को राज्य - भार व्यवस्थित रूप से संभला सकूँ ।” अनुरुद्ध ने भद्दिय का यह प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। सप्ताह की अवधि समाप्त 2010_05 Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा] भिक्षु-संध और उसका विस्तार २१७ होते ही शक्य राजा, भद्दिय अनुरुद्ध, आनन्द, भृगु, किम्बिल, देवदत्त और नापित उपालि; सातों ही व्यक्तियों को चतुरंगिनी सेना-सहित उद्यान ले जाया गया। दूर तक पहुंच कर सेना को लौटा दिया गया। वहां से आगे चले और अन्य राज्य की सीमा में पहुंचकर आभूषण आदि उतारे और उत्तरीय में गठरी बांध दी। नापित उपालि के हाथों में गठरी थमाते हुए उससे कहा- "तू यहां से लौट जा। तेरी जीविका के लिए इतना पर्याप्त होगा।" उपालि गठरी को लेकर लौट आया। मार्ग में चलते हुए उसका चिन्तन उभराशाक्य स्वभाव से चण्ड होते हैं। आभषण-सहित मेरे आगमन से जब वे जानेगे, अनायास ही यह समझ बैठेंगे कि मैंने कुमारों को मारकर आभूषण हड़प लिए हैं। वे मुझे मरवा डालेंगे। भद्दिय, अनुरुद्ध आदि राजकूमार होकर भी जब प्रवजित हो रहे हैं, तो फिर मैं भी क्यों न प्रवजित हो जाऊं । उसने गठरी खोलकर आभूषण वृक्ष पर लटका दिये और बोला- “जो देखे, वह ले जाये।" उपालि वहां से चला और शाक्य कुमारों के पास पहुंचा। तत्काल लौट आने से कुमारों ने उससे पूछा--"उपालि लौट क्यों आया ?' उपालि ने अपने मानस में उभरे चिन्तन से उन्हें परिचित किया और आभूषणों के बारे में भी उन्हें बताया। शाक्य-कमारों ने उपालि द्वारा विहित कार्य का अनुमोदन किया और उसके अभिमत को पुष्ट करते हुए कहा-'शाक्य वस्तुतः ही स्वभाव से चण्ड होते हैं। तेरी आशंका अन्यथा नहीं है।" उपालि को साथ लेकर शाक्य-कमार बुद्ध के पास आये। अभिवादन कर एक ओर बैठ गये। उन्होंने निवेदन किया-“भन्ते ! हम शाक्य अभिमानी हैं। यह उपालि नापित चिरकाल तक हमारा सेवक रहा है। इसे आप हमारे से पूर्व प्रव्रजित करें, जिससे कि हम इसका अभिवादन, प्रत्युत्थान आदि कर सकें। ऐसा होने से हम शाक्यों का शाक्य होने का अभिमान मदित हो सकेगा।" बुद्ध ने इस प्रस्ताव को स्वीकार किया। पहले उपालि प्रवजित हुआ और उसके अनन्तर छः शाक्य-कुमार।' १. विनय पिटक, चूल्लवग्ग, संघ-भेदक-स्कन्धक, ७-१-१ व २ के आधार से । ___ 2010_05 Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पारिपाश्विक भिक्षु-भिक्षुणियाँ किसी भी महापुरुष की जीवन-कथा में कुछ पात्र अवश्य ऐसे होते हैं, जो उस जीवनकथा के साथ सदा के लिए अमर रहते हैं। महावीर और बुद्ध की जीवन-चर्या में ऐसे पात्रों का योग और भी बहुलता से मिलता है। महावीर के साथ ग्यारह गणधरों के नाम अमर हैं। ये सब भिक्षु-संघों के नायक थे । इन्होंने ही द्वादशांगी का आकलन किया । गौतम गौतम सबमें प्रथम थे और महावीर के साथ अनन्य रूप से संपृक्त थे। ये गूढ़-से-गूढ़ और सहज-से-सहज प्रश्न महावीर से पूछते ही रहा करते थे। इनके प्रश्नों पर ही विशालतम आगम विवाह पण्णत्ति (भगवती सूत्र) गठित हुआ है। ये अपने लब्धि-बल से भी बहुत प्रसिद्ध रहे हैं। __ गौतम का महावीर के प्रति असीम स्नेह था। महावीर के निर्वाण-प्रसंग पर तो वह तट तोड़ कर ही बहने लगा। उन्होंने महावीर की निर्मोह वृत्ति पर उलाहनों का अम्बार खड़ा कर दिया, पर, अन्त में संभले। उनकी वीतरागता को पहचाना और अपनी सरागता को। पर-भाव से स्वभाव में आए। अज्ञान का आवरण हटा। कैवल्य पा स्वयं अर्हत हो गए। एक बार कैवल्य-प्राप्ति न होने के कारण गौतम को अपने पर बहुत ग्लानि हुई। उनके उस अनुताप को मिटाने के लिए महावीर ने कहा था-"गौतम ! तू बहुत समय से मेरे साथ स्नेह से संबद्ध है। तू बहुत समय से मेरी प्रशंसा करता आ रहा है। तेरा मेरे साथ चिरकाल से परिचय है। तूने चिरकाल से मेरी सेवा की है, मेरा अनुसरण किया है, कार्यों में प्रवर्तित हुआ है। पूर्ववर्ती देव-भव तथा मनुष्य-भव में भी तेरा मेरे साथ सम्बन्ध रहा है । और क्या, मृत्यु के पश्चात् भी, इन शरीरों के नाश हो जाने पर दोनों समान, एक प्रयोजन वाले तथा भेद-रहित (सिद्ध) होंगे।" १. समणे भगवं महावीरे भगवं गोयमं आमंतेत्ता एवं वयासी-'चिर संसिट्ठोऽसि मे गोयमा ! चिरसंथुओऽसि मे गोयमा ! चिरपरिचिओऽसि मे गोयमा ! चिरजुसिओऽसि 2010_05 Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा ] पारिपाश्विक भिक्षु भिक्षुणियाँ ३१६ उक्त उद्गारों से स्पष्ट होता है, महावीर के साथ गौतम का कैसा अभिन्न सम्बन्ध था । चन्दनबाला चन्दनबाला महावीर के भिक्षु संघ में अग्रणी थी । पद से वह 'प्रवर्तिनी' कहलाती थी । वह राज - कन्या थी । उसका समग्र जीवन उतार-चढ़ाव के चलचित्रों से भरा-पूरा था । दासी का जीवन भी उसने जीया । लोह शृङ्खलाओं में भी वह आबद्ध रही, पर, उसके जीवन का अन्तिम अध्याय एक महान् भिक्षुणी संघ की संचालिका के गौरवपूर्ण पद पर बीता । ठाणांग व समवायांग' के अनुसार महावीर के भिक्षु संघ में सात सौ ने कैवल्य ( सर्वज्ञत्व) पाया, तेरह सौ भिक्षुओं ने अवधि ज्ञान प्राप्त किया, पाँच सौ मनः पर्यवज्ञानी हुए, तीन सौ चतुर्दश- पूर्व-घर हुए तथा इनके अतिरिक्त अनेकानेक भिक्षु भिक्षुणियां लब्धिधर, तपस्वी, वाद-कुशल आदि हुए । महावीर कभी-कभी भिक्षु भिक्षुणियों की विशेषताओं का नाम-ग्राह उल्लेख भी किया करते थे । त्रिपिटक साहित्य में बुद्ध के पारिपाश्विक भिक्षुओं का भी पर्याप्त विवरण मिल जाता है । सारिपुत्त, मोग्गल्लान, आनन्द, उपालि, महाकाश्यप, आज्ञा कौण्डिन्य आदि भिक्षु बुद्ध के अग्रगण्य शिष्य थे । जैन परम्परा में गणधरों का एक गौरवपूर्ण पद है और उनका व्यवस्थित दायित्व होता है । बौद्ध परम्परा में गणधर जैसा कोई सुनिश्चित पद नहीं है, पर, सारिपुत्त आदि का बौद्ध भिक्षु संघ में गणधरों जैसा ही गौरव व दायित्व था । सारिपुत्त गणधर गौतम की तरह सारिपुत्त भी बुद्ध के अनन्य सहचरों में थे । वे बहुत सूझ-बूझ के धनी विद्वान् और व्याख्याता थे । बुद्ध इन पर बहुत भरोसा रखते थे । एक प्रसंग- विशेष पर बुद्ध ने इनको कहा - "सारिपुत्त ! तुम जिस दिशा में जाते हो, उतना ही आलोक करते हो, जितना कि बुद्ध | "3 सारिपुत्त की सूझ-बूझ का एक अनूठा उदाहरण त्रिपिटक साहित्य में मिलता है । बुद्ध का विरोधी शिष्य देवदत्त जब ५०० वज्जी भिक्षुओं को साथ लेकर भिक्षु संघ से पृथक् हो जाता है तो मुख्यतः सारिपुत्त ही अपनी बुद्धि-कौशल से उन पाँच सौ भिक्षुओं को देवदत्त के चंगुल से निकाल कर बुद्ध की शरण में लाते हैं । * मे गोयमा ! चिराणुगओऽसि मे गोयमा ! चिराणुवत्तीसि मे गोयमा ! अनंतरं देवकायस्स भेदा, इओ चुत्ता दो वि - भगवती, श० १४, उ० ७ । लोए अनंतरं माणुस्सए भवे, किं परं ? मरणा तुल्ला एगट्ठा अविसेसमणाणत्ता भविस्सामो । १. ठाणांग, सू० २३० : समवायांग, सम० ११० । २. कष्प सुत्त (सू० १४४ ) के अनुसार ७०० भिक्षु व १४०० भिक्षुणियों ने सिद्ध गति प्राप्त की । ३. अंगुत्तर निकाय, अट्ठकथा, १-४-१ | ४. विनय पिटक, चुल्लवग्ग, संघ-भेदक- खन्धक | 2010_05 Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२० आगम और त्रिपटक : एक अनुशीलन खण्ड : १ एक बार बुद्ध ने आनन्द से पूछा-"तुम्हें सारिपुत्त सुहाता है न ?" आनन्द ने कहा"भन्ते ! मूर्ख, दुष्ट और विक्षिप्त मनुष्य को छोड़कर ऐसा कौन मनुष्य होगा, जिसे आयुष्मान् सारिपुत्त न सुहाते हों। आयुष्मान् सारिपुत्त महाज्ञानी हैं, महाप्राज्ञ हैं । उनकी प्रज्ञा अत्यन्त प्रसन्न व अत्यन्त तीव्र है।" सारिपुत्त के निधन पर बुद्ध कहते हैं-"आज धर्मरूप कल्प वृक्ष की एक विशाल शाखा टूट गई है।" बुद्ध सारिपुत्त को धर्म-सेनापति भी कहा करते थे। मोग्गल्लान मोग्गल्लान का नाम भी सारिपुत्त के साथ-साथ बुद्ध के प्रधान शिष्यों में आता है। ये तपस्वी और सर्वश्रेष्ठ ऋद्धिमान् थे। जैन-परम्परा में जैसे गौतम के लब्धि-बल के विषय में अनेक बातें प्रचलित हैं; उसी प्रकार मौग्गल्लान के ऋद्धि-बल की अनेक घटनाएं बौद्ध-परम्परा में प्रचलित हैं। पाँच सौ वज्जी भिक्षुओं को देवदत्त के नेतृत्व से मुक्त करने में सारिपुत्त के साथ मोग्गल्लान का भी पूरा हाथ रहा है। बुद्ध की प्रमुख उपासिका विशाखा ने सत्ताईस करोड़ स्वर्ण-मुद्राओं की लागत से बुद्ध और उनके भिक्षु-संघ के लिए एक विहार बनाने का निश्चय किया। इस कार्य के लिए विशाखा ने बुद्ध से एक मार्ग-दर्शक भिक्षु की याचना की। बुद्ध ने कहा- "तुम जिस भिक्षु को चाहती हो, उसी का चीवर और पात्र उठा लो।" विशाखा ने यह सोचकर कि मोग्गल्लान भिक्षु ऋद्धिमान हैं; इनके ऋद्धि-बल से मेरा कार्य शीघ्र सम्पन्न होगा; उन्हें ही इस कार्य के लिए मांगा । बुद्ध ने पाँच सौ भिक्षुओं के परिवार से मौग्गल्लान को वहाँ रखा। कहा जाता है, उनके ऋद्धि-बल से विशाखा के कर्मकर रातभर में साठ-साठ योजन से बड़े-बड़े वृक्ष, पत्थर आदि उठा ले आने में समर्थ हो जाते थे। जैन परम्परा उक्त समारम्भ पूर्ण उपक्रम को भिक्षु के लिए आचरणीय नहीं मानती और न वह लब्धि-बल को प्रयुज्य ही मानती है, पर, लब्धि-बल की क्षमता और प्रयोग की अनेक अद्भुत घटनाएँ उसमें भी प्रचलित हैं। महावीर द्वारा संदीक्षित नन्दीसेन भिक्षु ने, जो श्रेणिक राजा के पुत्र थे, अपने तपो-बल से वेश्या के यहां स्वर्ण-मुद्राओं की वृष्टि कर दिखाई। ___महावीर ने अंगुष्ठ-स्पर्श से जैसे समय मेरु को प्रकम्पित कर इन्द्र को प्रभावित किया; बौद्ध परम्परा में मौग्गल्लान द्वारा वैजयन्त प्रासाद को अंगुष्ठ-स्पर्श से प्रकम्पित कर इन्द्र को प्रभावित कर देने की बात कही जाती है। कहा जाता है, एक बार बुद्ध, मौग्गल्लान प्रभृति पूर्वाराम के ऊपरी भौम में थे। प्रासाद के नीचे कुछ प्रमादी भिक्षु वार्ता, उपहास आदि कर रहे थे। उनका ध्यान खींचने के लिए मौग्गल्लान ने अपने ऋद्धि-बल से सारे प्रासाद को १. संयुत्तनिकाय, अनाथपिण्डिकवग्ग, सुसिम सुत्त । २. अंगुत्तरनिकाय, १-१४ । ३. विनय पिटक, चुल्लवग्ग, संघ-भेदक-खन्धक । ४. धम्मपद-अट्ठकथा, ४-४४ । ५. देखें, पृ० २०३-४। ६. मज्झिम निकाय चूलतण्हासंखय सुत्त । ____ 2010_05 Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ होती थी। इतिहास और परम्परा] पारिपाश्विक भिक्षु-भिक्षुणियां २२१ प्रकम्पित कर दिया। संविग्न और रोमांचित उन प्रमादी भिक्षुओं को बुद्ध ने उद्बोधन दिया।' उववाई में महावीर के पारिपाश्विक भिक्षुओं के विषय में बताया गया है : १. अनेक भिक्षु ऐसे थे, जो मन से भी किसी को अभिशप्त और अनुगृहीत कर सकते थे। २. अनेक भिक्षु ऐसे थे, जो वचन से ऐसा कर सकते थे। ३. अनेक भिक्षु ऐसे थे, जो कायिक प्रवर्तन से ऐसा कर सकते थे । ४. अनेक भिक्षु श्लेष्मौषध लब्धि वाले थे। उनके श्लेष्म से ही सभी प्रकार के रोग मिटते थे। ५. अनेक भिक्षु जल्लोषध लब्धि के धारक थे। उनके शरीर के मेल से दूसरों के रोग मिटते थे। ६. अनेक भिक्षु विपुषौषध लब्धि के धारक थे। उनके प्रस्रवण की बूंद भी रोगनाशक ७. अनेक भिक्षु आमोषध लब्धि के धारक थे। उनके हाथ के स्पर्श मात्र से रोग मिट जाते थे। ८. अनेक भिक्षु सर्वोषध लब्धि वाले थे। उनके केश, नख, रोम आदि सभी औषध रूप होते थे। ९. अनेक भिक्षु पदानुसारी लब्धि के धारक थे, जो एक पद के श्रवण-मात्र से अनेकानेक पदों का स्मरण कर लेते थे। १०. अनेक भिक्षु संभिन्न श्रोतृ-लब्धि के धारक थे, जो किसी भी एक इन्द्रिय से पाँचों इन्द्रिय के विषय ग्रहण कर सकते थे। उदाहरणार्थ-कान से सुन भी सकते थे, देख भी सकते थे, चख भी सकते थे आदि। ११. अनेक भिक्षु अक्षीणमहानस लब्धि के धारक थे, जो प्राप्त अन्न को जब तक स्वयं न खा लेते थे; तब तक शतशः-सहस्रशः व्यक्तियों को खिला सकते थे। १२. अनेक भिक्षु विकुर्वण ऋद्धि के धारक थे। वे अपने नाना रूप बना सकते थे। १३. अनेक भिक्षु जंघाचारण लब्धि के धारक थे। वे जंघा पर हाथ लगा कर एक ही उड़ान में तेरहवें रुचकवर द्वीप तक और मेरु पर्वत पर जा सकते थे। १४. अनेक भिक्षु विद्याचारण लब्धि के धारक थे। वे ईषत् उपष्टम्भ से दो उड़ान में आठवें नन्दीश्वर द्वीप तक और मेरु पर्वत पर जा सकते थे। १५. अनेक भिक्षु आकाशातिपाती लब्धि के धारक थे। वे आकाश में गमन कर सकते थे। आकाश से रजत आदि इष्ट-अनिष्ट पदार्थों की वर्षा कर सकते थे।" है मौग्गल्लान का निधन बहुत ही दयनीय प्रकार का बताया गया है । उनके ऋद्धि-बल से जल-भुनकर इतर तैथिकों ने उनको पशु-मार से मारा। उनकी अस्थियाँ इतनी चूर-चूर कर दी गईं कि कोई खण्ड तक तण्डुल से बड़ा नहीं रहा । यह भी बताया गया है कि प्रतिकारक १. संयुत्त निकाय, महावग्ग, ऋद्धिपाद, संयुत्त प्रासादकम्पनवग्ग, मौग्गल्लान' सुत्त । २. अप्पेगइया मणेणं सावाणुग्गहसमत्था, वएणं सावाणुग्गहसमत्था, काएणं सावाणुग्गह समत्था, अप्पेगइया खेलोसहिपत्ता, एवं जल्लौसहिपत्ता, विप्पोसहिपत्ता, आमोसहिपत्ता, सव्वोसहिपत्ता,.. पयाणुसारी, संभिन्नसोआ, अक्खीणमहाणसिआ, विउव्वणिडिढपत्ता, चारणा, विज्जाहरा, आगासाइवाइणो। -उववाइय सुत्त, १५॥ 2010_05 Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२२ आगम और त्रिपटक : एक अनुशीलन [खण्ड : १ ऋद्धि-बल के होते हुए भी उन्होंने इसे पूर्व कर्मों का परिणाम समझ कर स्वीकार किया।' आनन्द कुछ दृष्टियों से बुद्ध के सारिपुत्त और मौग्गल्लान से भी अधिक अभिन्न शिष्य आनन्द थे। बुद्ध के साथ इनके संस्मरण बहुत ही रोचक और प्रेरक हैं। इनके हाथों कुछ एक ऐसे ऐतिहासिक कार्य भी हुए हैं, जो बौद्ध परम्परा में सदा के लिए अमर रहेंगे। बौद्ध परम्परा में भिक्षुणी-संघ का श्रीगणेश नितान्त आनन्द की प्रेरणा से हुआ। बुद्ध नारी-दीक्षा के पक्ष में नहीं थे। उन्हें उसमें अनेक दोष दिखते थे। केवल आनन्द के आग्रह पर महाप्रजापति गौतमी को उन्होंने दीक्षा दी। दीक्षा देने के साथ-साथ यह भी उन्होंने कहा- 'आनन्द ! यह भिक्षु-संघ यदि सहस्र वर्ष तक टिकने वाला था, तो अब पाँच सौ वर्ष से अधिक नहीं टिकेगा। अर्थात नारी-दीक्षा से मेरे धर्म-संघ की आधी ही उम्र शेष रह गई है।"२ प्रथम बौद्ध संगीति में त्रिपिटकों का संकलन हुआ। पाँच सौ अर्हत्-भिक्षुओं में एक आनन्द ही ऐसे भिक्षु थे, जो सूत्र के अधिकारी ज्ञाता थे; अतः उन्हें ही प्रमाण मान कर सुत्तपिटक का संकलन हुआ। कुछ बातों की स्पष्टता यथासमय बुद्ध के पास न कर लेने के कारण उन्हें भिक्षु-संघ के समक्ष प्रायश्चित्त भी करना पड़ा। आश्चर्य तो यह है कि भिक्षु-संघ ने उन्हें स्त्री-दीक्षा का प्रेरक बनने का भी प्रायश्चित्त कराया। आनन्द बुद्ध के उपस्थाक (परिचारक) थे। उपस्थाक बनने का घटना-प्रसंग भी बहुत सरस है। बुद्ध ने अपनी आयु के ५६वें वर्ष में एक दिन सभी भिक्षुओं को आमन्त्रित कर कहा"भिक्षओ ! मेरे लिए एक उपस्थाक नियुक्त करो। उपस्थाक के अभाव में मेरी अवहेलना होती है। मैं कहता हूँ, इस रास्ते चलना है, भिक्ष उस रास्ते जाते हैं। मेरा चीवर और पात्र भूमि पर यों ही रख देते हैं।" सारिपुत्त, मौग्गल्लान आदि सभी को टाल कर बुद्ध ने आनन्द को उपस्थाक-पद पर नियुक्त किया। तब से आनन्द बुद्ध के अनन्य सहचारी रहे। समय-समय पर गौतम की तरह उनसे प्रश्न पूछते रहते और समय-समय पर परामर्श भी देते रहते । जिस प्रकार महावीर से गौतम का सम्बन्ध पूर्व भवों में भी रहा, उसी प्रकार जातक-साहित्य में आनन्द के भी बुद्ध के साथ उत्पन्न होने की अनेक कथाएं मिलती हैं। आगन्तुकों के लिए बुद्ध से भेंट का माध्यम भी मुख्यतः वे ही बनते । बुद्ध के निर्वाण-प्रसंग पर गौतम की तरह आनन्द भी व्याकुल हुए। गौतम महावीर-निर्माण के पश्चात् व्याकुल हुए। आनन्द निर्वाण से पूर्व ही एक ओर जाकर दीवाल की खूटी पकड़ कर रोने लगे; जबकि उन्हें बुद्ध के द्वारा उसी दिन निर्वाण होने की सूचना मिल चुकी थी। महावीर-निर्वाण के पश्चात् गौतम उसी रात को केवली हो गए । बुद्ध-निर्वाण के पश्चात् प्रथम बौद्ध संगीति में जाने से पूर्व आनन्द भी अर्हत् हो गए। गौतम की तरह इनको भी अर्हत् न होने की आत्म-ग्लानि हुई । दोनों ही घटना-प्रसंग बहुत सामीप्य रखते हैं। महावीर के भी एक अनन्य उपासक आनन्द थे, पर, ये गृही उपासक थे और बौद्ध १. धम्मपद अट्ठकथा, १०-७; मिलिन्दपओ, परि०४, वर्ग ४, प० २२६ । २. विस्तार के लिए देखें, आचार-ग्रन्थ और आचार-संहिता' प्रकरण। ३. वही। ४. अंगुत्तर निकाय, अट्ठकथा, १-४-१ । ५. उवासगदसाओ, अ० १। 2010_05 Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा] पारिपाश्विक भिक्षु-भिक्षुणियां २२३ परम्परा के आनन्द बुद्ध के भिक्षु-उपासक थे। नाम-साम्य के अतिरिक्त दोनों में कोई तादात्म्य नहीं है । महावीर के भिक्षु शिष्यों में भी एक आनन्द थे, जिन्हें बुलाकर गोशालक ने कहा था- “मेरी तेजोलब्धि के अभिघात से महावीर शीघ्र ही काल-धर्म को प्राप्त होंगे।" उपालि उपालि प्रथम संगीति में विनय-सूत्र के संगायक थे । विनय-सूत्र उन्होंने बुद्ध की पारि पाश्विकता से ग्रहण किया था। ये नापित-कुल में उत्पन्न हुए थे। शाक्य राजा भद्दिय, आनन्द आदि पाँच अन्य शाक्य कुमारों के साथ प्रवजित हुए थे। महाकाश्यप महाकाश्यप बुद्ध के कर्मठ शिष्य थे। इनका प्रव्रज्या-ग्रहण से पूर्व का जीवन भी बहुत विलक्षण और प्रेरक रहा है। पिप्पलीकुमार और भद्राकुमारी का आख्यान इन्हीं का जीवन वृत्त है। वही पिप्पलीकुमार माणवक धर्म-संघ में आकर आयुष्मान् महाकाश्यप बन जाता है। इनके सुकोमल और बहुमूल्य चीवर का स्पर्श कर बुद्ध ने प्रशंसा की। इन्होंने बुद्ध से वस्त्रग्रहण करने का आग्रह किया। बुद्ध ने कहा- "मैं तुम्हारा यह वस्त्र ले भी लूं, पर, क्या तुम मेरे इस जीर्ण, मोटे और मलिन वस्त्र को धारण कर सकोगे?" महाकाश्यप ने वह स्वीकार किया और उसी समय बुद्ध के साथ उनका चीवर परिवर्तन हुआ। बुद्ध के जीवन और बौद्धपरम्परा की यह एक ऐतिहासिक घटना मानी जाती है। महाकाश्यप विद्वान् थे । ये बुद्ध-सूक्तों के व्याख्याकार के रूप में प्रसिद्ध रह हैं। बुद्ध के निर्वाण-प्रसंग पर ये मुख्य निर्देशक रहे हैं। पांच सौ भिक्षुओं के परिवार से विहार करते, जिस दिन और जिस समय ये चिता-स्थल पहुँचते हैं; उसी दिन और उसी समय बुद्ध की अन्त्येष्टि होती है। अजातशत्रु ने इन्हीं के सुझाव पर राजगृह में बुद्ध का धातु-निधान (अस्थि गर्भ) बनवाया, जिसे कालान्तर से सम्राट अशोक ने खोला और बुद्ध की धातुओं को दूर-दूर तक पहुँचाया। महाकाश्यप ही प्रथम बौद्ध संगीति के नियामक रहे है। आज्ञा कौण्डिन्य, अनिरुद्ध आदि और भी अनेक भिक्षु ऐसे रहे हैं, जो बुद्ध के पारिपाश्विक कहे जा सकते हैं। द्रौतमी - बौद्ध भिक्षुणियों में महाप्रजापति गौतमी का नाम उतना ही श्रुतिगम्य है, जितना जन परम्परा में महासती चन्दनबाला का। दोनों के पूर्वतन जीवन वृत्त में कोई समानता नहीं १. देखें ‘गोशालक' प्रकरण । २. विस्तार के लिए देखें, 'भिक्षु संघ और उसका विस्तार' प्रकरण । ३. देखें, आगम और त्रिपिटकः एक अनुशीलन, खण्ड २ । ४. दीघ निकाय, महापरिनिव्वाण सुत्त । ५. दीघ निकाय-अट्ठकथा, महापरिनिव्वाण सुत्त । ६. विनय पिटक, चुल्लवग्ग, पंचशतिका खन्धक । 2010_05 Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२४ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड : १ है, पर, दोनों ही अपने-अपने धर्म-नायक की प्रथम शिष्या रही हैं और अपने-अपने भिक्षुणीसंघ में अग्रणी भी। गौतमी के जीवन की दो बातें विशेष उल्लेखनीय हैं। उसने नारी-जाति को भिक्षसंघ में स्थान दिलवाया तथा भिक्षुणियों को भिक्षुओं के समान ही अधिकार देने की बात बुद्ध से कही । बुद्ध ने गौतमी को प्रव्रजित करते समय कुछ शर्ते उस पर डाल दी थीं, जिनमें एक थी-चिर-दीक्षिता भिक्षुणी के लिए भी सद्य:-दीक्षित भिक्षु वन्दनीय होगा। गौतमी ने उसे स्वीकार किया, पर, प्रवजित होने के पश्चात् बहुत शीघ्र ही उसने बद्ध से प्रश्न कर लिया "भन्ते ! चिर-दीक्षिता भिक्षुणी ही नव-दीक्षित भिक्षु को नमस्कार करे; ऐसा क्यों ? क्यों न नव दीक्षित भिक्ष ही चिर-दीक्षिता भिक्षुणी को नमस्कार करे ?” बुद्ध ने कहा-“गौतमी ! इतर धर्म-संघों में भी ऐसा नहीं है। हमारा धर्म-संघ तो बहुत श्रेष्ठ है।" आज से अढ़ाई हजार वर्ष पूर्व गौतमी द्वारा यह प्रश्न उठा लेना, नारी-जाति के आत्म-सम्मान का सूचक है। बुद्ध का उत्तर इस प्रश्न की अपेक्षा में बहुत ही सामान्य हो जाता है। उनके इस उत्तर से पता चलता है, महापुरुष भी कुछेक ही नवीन मूल्य स्थापित करते हैं; अधिकांशतः तो वे भी लौकिक व्यवहार व लौकिक ढरों का अनुसरण करते हैं। अस्तु, गौतमी की वह बात भले ही आज पच्चीस सौ वर्ष बाद भी फलित न हुई हो, पर, उसने बुद्ध के समक्ष अपना प्रश्न रख कर नारी-जाति के पक्ष में एक गौरवपूर्ण इतिहास तो बना ही दिया है। गौतमी के अतिरिक्त खेमा, उत्पलवर्णा, पटाचारा, भद्रा कुण्डल-केशा, भद्रा कापिलायनी आदि अन्य अनेक भिक्षुणियां बौद्ध धर्म-संघ में सुविख्यात रही हैं। बुद्ध ने एतदग्ग वग्ग में अपने इकतालीस भिक्षुओं तथा बारह भिक्षुणियों को नाम-ग्राह अभिनन्दित किया है तथा पृथक्-पृथक् गुणों में पृथक्-पृथक् भिक्षु-भिक्षुणियों को अग्रगण्य बताया है। भिक्षुओं में अग्रगण्य बुद्ध कहते हैं१ भिक्षुओ! मेरे अनुरक्तज्ञ भिक्षुओं में आज्ञा कौण्डिन्य अग्रगण्य है। २..........'महाप्राज्ञों में सारिपुत्त....। ३..........ऋद्धिमानों में महामोग्गल्लान५...। ४... 'धुतवादियों (त्यागियों) में महाकाश्यप ...। ५......... दिव्यचाक्षुकों में अनुरुद्ध...। १. विनय पिटक, चुल्लवग्ग, भिक्खुणी खन्धक । २. अंगुत्तर निकाय, एकेकनिपात, १४ के आधार से। ३. शाक्य, कपिलवस्तु के समीप द्रोण-वस्तु ग्राम, ब्राह्मण । ४. मगध, राजगृह से अविदूर उपतिष्य (नालक) ग्राम, ब्राह्मण । ५. मगध, राजगृह से अविदूर कोलित ग्राम, ब्राह्मण । ६. मगध, महातीर्थ ब्राह्मण ग्राम, ब्राह्मण। ७. शाक्य, कपिलवस्तु, क्षत्रिय, बुद्ध के चाचा अमृतौदन शाक्य के पुत्र । 2010_05 Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा पारिपाश्विक भिक्षु-भिक्षुणियां २२५ ६भिक्षुओ ! उच्चकुलीनों में भद्दिय कालिगोधा-पुत्र' है । ७........ कोमल स्वर से उपदेष्टाओं में लकुण्टक भद्दिय२...। ८.............सिंहनादियों में पिण्डोल भारद्वाज अग्रगण्य... ........... धर्म-कथिकों में पूर्ण मैत्रायणी-पुत्र...। १०.........व्याख्याकारों में महाकात्यायन...। ११..........मनोगत रूप-निर्माताओं व चित्त-विवर्त्त-चतुरों में घुल्लपन्थक ६....। १२..........संज्ञा-विवर्त्त-चतुरों में महापन्थक..। १३........ क्लेश-मुक्तों व दाक्षिणेयों में सुभूति ...। • आरण्यकों (वन वासियों) में रेवतखदिरवनिय...। १५........ ध्यानियों में कंखा रेवत....। १६.......... उद्यमशीलों में सोण कोडिवीस१...। १७......... सुवक्ताओं में सोण कुटिकण्ण'२...। ..लाभार्थियों में सीवली...। १६........... श्रद्धाशीलों में वक्कलि१४...। २०............ संघीय-नियम-बद्धता में राहुल ५...। २१.......... श्रद्धा से प्रव्रजितों में राष्ट्रपाल'६...। २२........ प्रथम शलाका ग्रहण करने वालों में कुण्डधान ७...। .. २३.........कवियों में वंगीश८...। १. शाक्य, कपिलवस्तु, क्षत्रिय । २. कौशल, श्रावस्ती, धनी (महाभोग)। ३. मगध, राजगृह, ब्राह्मण । ४. शाक्य, कपिलवस्तु के समीप द्रोण-वस्तु ग्राम, ब्राह्मण । ५. अवन्ती, उज्जयिनी, ब्राह्मण । ६. मगध, राजगृह, श्रेष्ठि-कन्या-पुत्र । ७. वही। ८. कौशल, श्रावस्ती, वैश्य । ६. मगध, नालक ब्राह्मण-ग्राम, सारिपुत्त के अनुज । १०. कौशल, श्रावस्ती, महाभोग। ११. अंग, चम्पा, श्रेष्ठी। १२. अवन्ती, कुररघर, वैश्य । १३. शाक्य, कुण्डिया, क्षत्रिय, कोलिय-दुहिता सुप्रवासा का पुत्र । १४. कौशल, श्रावस्ती, ब्राह्मण । १५. शाक्य, कपिलवस्तु, क्षत्रिय, सिद्धार्थ-पुत्र । १६. कुरु, थुल्लकोणित, वैश्य । १७. कौशल, श्रावस्ती, ब्राह्मण । १८. वही। ____ 2010_05 Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२६ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड : १ २४. भिक्षुओ! समन्तप्रासादिकों (सर्वतः लावण्य-सम्पन्न) में उपसेन वंगन्त-पुत्र' अग्रगण्य है। २५.........शयनासन-व्यवस्थापकों में द्रव्य-मल्ल-पुत्र २...। २६........ देवताओं के प्रियों में पिलिन्दिवात्स्य...। २७........ प्रखर बुद्धिमानों में वाहियदारुचीरिय४...। २८.......... विचित्र वक्ताओं में कुमार काश्यप५....। २६........"प्रतिसंवित्प्राप्तों में महाकोष्ठित ...। ३०... • 'बहुश्रुतों, स्मृतिमानों, गतिशीलों, धृतिमानों व उपस्थाकों में आनन्द...। ३१......... महापरिषद् वालों में उरुवेल काश्यप...। ३२......... कुल-प्रसादकों में काल-उदायी...। ३३...........निरोगों में बक्कली....। ३४........ पूर्व जन्म का स्मरण करने वालों में शोभित ११...। ३५..........विनयधरों में उपालि'२...। ३६.........भिक्षुणियों के उपदेष्टाओं में नन्दक13 ...। ३७.............जितेन्द्रियों में नन्द १४...। के उपदेष्टाओं में महाकप्पिन१५...। ३६..... तेज-धातु-कुशलों में स्वागत...। ४०........... प्रतिभाशालियों में राध१७...। a m m m m Mmx9. m m m m x १. मगध, नालक ब्राह्मण-ग्राम, ब्राह्मण, सारिपुत्त के अनुज । २. मल्ल, अनूपिया, क्षत्रिय । ३. कौशल, श्रावस्ती, ब्राह्मण। ४. वाहियराष्ट्र, कुल-पुत्र। ५. मगव, राजगृह । ६. कौशल, श्रावस्ती, ब्राह्मण। ७. शाक्य, कपिलवस्तु, क्षत्रिय, अमृतोदन-पुत्र । ८. काशी, वाराणसी, ब्राहण । ६. शाक्य, कपिलवस्तु, अमात्यगेह । १०. वत्स, कौशाम्बी, वैश्य। ११. कौशल, श्रावस्ती, ब्राह्मण। १२. शाक्य, कपिलवस्तु, नापित । १३. कौशल, श्रावस्ती, कुल-गेह।। १४. शाक्य, कपिलवस्तु, क्षत्रिय, महाप्रजापती-पुत्र । १५. सीमान्त, कुक्कुटवती, राजवंश । १६. कौशल, श्रावस्ती, ब्राह्मण । १७. मगध, राजगह, ब्राह्मण । ____ 2010_05 Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा] पारिपाश्विक भिक्ष-भिक्षुणियाँ २२७ ४१. भिक्षुओ ! रुक्ष चोवर-घारियों में मोघराज' है। भिक्षुणियों में अग्रगण्य १. भिक्षुओ ! मेरी रक्तज्ञा भिक्षुणियों में महाप्रजापति गौतमी अग्रगण्या है। २. ......... महाप्रज्ञाओं में खेमा...। ३. .........."ऋद्धि-शालिनियों में उत्पलवर्णा...। ४. ..........विनयधराओं में पटाचारा...। .......धर्मोपदेशिकाओं में धम्मदिन्ना...। ...........ध्यायिकाओं में नन्दा...। ........... उद्यमशीलाओं में सोणा८...। ............दिव्य चाक्षुकों में सकुला। ........... प्रखर प्रतिमाशालिनियों में भद्राकुण्डलकेशा'....। १०. ........ पूर्वजन्म का अनुस्मरण-कारिकाओं में भद्रा कापिलायनी...। ११. .......... महा-अभिज्ञाघारिकाओं में भद्रा कात्यायिनी'२...। १२. ........... रुक्ष चीवर-घारिकाओं में कृशा गौतमी...। १३. .........श्रद्धा-युक्तों में शृगाल माता१४...। आगम-साहित्य में एतदग्ग-वग्ग की तरह नामग्राह कोई व्यवस्थित प्रकरण इस विषय का नहीं मिलता, पर, कप्प सुत्त का केवली आदि का संख्याबद्ध उल्लेख महावीर के भिक्ष संघ की व्यापक सूचना दे देता है । उववाई में निर्ग्रन्थों के विविध तपों का और उनकी अन्य विविध विशेषताओं का सविस्तार वर्णन है। तप के विषय में बताया गया है-"अनेक भिक्ष कनकावली तप करते थे। अनेक भिक्षु एकावली तप, अनेक भिक्षु लघुसिंहनिष्क्रीडित तप, अनेक मिक्ष महासिंहनिष्णक्रीड़ित तप, अनेक भिक्षु भद्र प्रतिमा, अनेक भिक्षु महाभद्र प्रतिमा, अनेक भिक्षु सर्वतोभद्र प्रतिमा, अनेक भिक्षु आयंविल वर्द्धमान तप, अनेक भिक्षु मासिकी भिक्ष प्रतिमा, अनेक भिक्षु द्विमासिकी भिक्षु प्रतिमा से सप्त मासिकी भिक्षु प्रतिमा, अनेक भिक्ष १. कौशल, श्रावस्ती, ब्राह्मण, बावरी-शिष्य। २. शाक्य, कपिलवस्तु, क्षत्रिय, शुद्धोदन की पत्नी। ३. मद्र, सागल, राजपुत्री, मगधराज बिम्बिसार की पत्नी। ४. कौशल, श्रावस्ती, श्रेष्ठिकुल । ५. वही। ६. मगध, राजगृह, विशाख श्रेष्ठी की पत्नी। ७. शाक्य, कपिलवस्तु, महाप्रजापती गौतमी की पुत्री। ८. कौशल, श्रावस्ती, कुल-गेह । ६. वही। १०. मगध, राजगृह, श्रेष्ठिकुल । ११. मद्र, सागल, ब्राह्मण, महाकाश्यप की पत्नी। १२. शाक्य, कपिलवस्तु, क्षत्रिय, राहुल-माता-देवदहवासी सुप्रबुद्ध शाक्य की पुत्री। १३. कौशल, श्रावस्ती, वैश्य। १४. मगध, राजगृह, प्रेष्ठिकुल । ____ 2010_05 Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२८ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड : १ प्रथम-द्वितीय-तृतीय सप्त अहोरात्र प्रतिमा, अनेक भिक्षु एक अहोरात्र प्रतिमा, अनेक भिक्षु एक रात्रि प्रतिमा, अनेक भिक्षु सप्त सप्तमिका प्रतिमा, अनेक भिक्षु यवमध्यचन्द्र प्रतिमा तथा अनेक भिक्षु वज्रमध्यचन्द्र प्रतिमा तप करते थे।'' अन्य विशेषताओं के सम्बन्ध में वहां बताया गया है-"वे भिक्ष ज्ञान-सम्पन्न, दर्शन सम्पन्न, चारित्र-सम्पन्न, लज्जा-सम्पन्न व लाघव-सम्पन्न थे। वे ओजस्वी, तेजस्वी, वर्चस्वी और यशस्वी थे। वे इन्द्रिय-जयी, निद्रा-जयी और परिषह-जयी थे। वे जीवन की आशा और मृत्यु के भय से विमुक्त थे। वे प्रज्ञप्ति आदि विद्याओं व मंत्रों में प्रधान थे। वे श्रेष्ठ, ज्ञानी, ब्रह्मचर्य, सत्य व शौच में कुशल थे। वे चारुवर्ण थे । भौतिक आशा-वाञ्छा से वे ऊपर उठ चुके थे। औत्सुक्य रहित, श्रामण्य-पर्याय में सावधान और बाह्य-आभ्यन्तरिक ग्रन्थियों के भेद में कुशल थे। स्व-सिद्धान्त और पर-सिद्धान्त के ज्ञाता थे। पर-वादियों को परास्त करने में अग्रणी थे। द्वादशांगी के ज्ञाता और समस्त गणिपिटक के धारक थे। अक्षरों के समस्त संयोगों के व सभी भाषाओं के ज्ञाता थे। वे जिन (सर्वज्ञ) न होते हुए भी जिन के सदृश थे।" प्रकीर्ण रूप से भी अनेकानेक भिक्षु-भिक्षुणियों के जीवन-प्रसंग आगम-साहित्य में बिखरे पड़े हैं, जिनसे उनकी विशेषताओं का पर्याप्त ब्यौरा मिल जाता है। काकन्दी के धन्य काकन्दी के धन्य बत्तीस परिणीता तरुणियों और बत्तीस महलों को छोड़कर भिक्षु हुए थे। महावीर के साथ रहते उन्होंने इतना तप तपा कि उनका शरीर केवल अस्थि-कंकाल मात्र रह गया था। राजा बिम्बिसार के द्वारा पूछे जाने पर महावीर ने उनके विषय में कहा"अभी यह धन्य भिक्षु अपने तप से, अपनी साधना से चतुर्दश सहस्र भिक्ष ओं में महादुष्कर क्रिया करने वाला है।"3 मेघकुमार बिम्बिसार के पुत्र मेघकुमार दीक्षा-पर्याय की प्रथम रात में संयम से विचलित हो गये। उन्हें लगा, कल तक जब मैं राजकुमार था, सभी भिक्षु मेरा आदर करते थे, स्नेह दिखलाते थे। आज मैं भिक्षु हो गया, मेरा वह आदर कहाँ ? मुंह टाल कर भिक्षु इधर-उधर अपने कामों में दौड़े जाते हैं । सदा की तरह मेरे पास आकर कोई जमा नहीं हुए। शयन का स्थान मुझे अन्तिम मिला है। द्वार से निकलते और आते भिक्षु मेरी नींद उड़ाते हैं। मेरे साथ यह कैसा व्यवहार ? प्रभात होते ही मैं भगवान् महावीर को उनकी दी हुई प्रव्रज्या वापस करूँगा। प्रातःकाल ज्यों ही महावीर के सम्मुख आया, महावीर ने अपने ही ज्ञान-बल से कहा-"मेघकुमार ! रात को तेरे मन में ये-ये चिन्ताएं उत्पन्न हुई ? तुमने पात्र-रजोहरण १. उववाइय सुत्त, १५ । २. उववाइय सुत्त, १५-१६ ३. इमेसिणं भन्ते ! इंदभूई पामोक्खाणं चउदसण्हं समण साहसीणं कयरे अणगारे महा दुक्कर कारए चेव महाणिज्जरकारएचेव ? एवं खलु सेणिया! इसीसिं इंदभूई पामोक्खाणं चउदसण्हं समण साहसीणं धन्ने अणगारे महादुक्करकारए चेवं महानिज्जरकारए चेव -अणुत्तरोववाईदसाओ, वर्ग० ३, अ० १। 2010_05 Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा] पारिपाश्विक भिक्षु-भिक्षुणियाँ २२६ आदि संभला कर घर जाने का निश्चिय किया ?" मेघकुमार ने कहा- "भगवन् ! आप सत्य कहते हैं।" महावीर ने उन्हें संयमारूढ़ करने के लिए नाना उपदेश दिए तथा उनके पूर्व भव का वृत्तान्त बताया। मेधकुमार पुनः संयमारूढ़ हो गया। मेघकुमार भिक्षु ने जाति-स्मरण ज्ञान पाया। एकादशांगी का अध्ययन किया। गुणरत्नसंवत्सर-तप की आराधना की। भिक्षु की 'द्वादश प्रतिमा' आराधी । अन्त में महावीर से आज्ञा ग्रहण कर वैभार गिरि पर आमरण अनशन कर उत्कृष्ट देव-गति को प्राप्त हुए।' बौद्ध परम्परा में सद्यः दीक्षित नन्द का भी मेधकुमार जैसा ही हाल रहा है। वह अपनी नव विवाहिता पत्नी जनपद कल्याणी नन्दा के अन्तिम आमंत्रण को याद कर दीक्षित होने के अनन्तर ही विचलित-सा हो गया। बुद्ध ने यह सब कुछ जाना और उसे प्रतिबुद्ध करने के लिए ले गये। मार्ग में उन्होंने उसे एक बन्दरी दिखलाई, जिसके कान, नाक और पूंछ कटी हुई थी ; जिसके बाल जल गये थे ; जिसकी खाल फट गई थी, जिसकी चमड़ी मात्र बाकी रह गई थी तथा जिसमें से रक्त बह रहा था और पूछा-"क्या तुम्हारी पत्नी इससे अधिक सुन्दर है ?'' वह बोला-'अवश्य ।" तब बुद्ध उसे त्रायस्त्रिश स्वर्ग में ले गये। • अप्सराओं-सहित इन्द्र ने उनका अभिवादन किया। बुद्ध ने अप्सराओं की ओर संकेत कर पूछा-"क्या जनपद कल्याणी नन्दा इनसे भी सुन्दर है ?" वह बोला-"नहीं, मन्ते ! जनपद कल्याणी की तुलना में जैसे वह लुज बन्दरी थी ; इसी तरह इनकी तुलना में जनपद कल्याणी है।" बुद्ध ने कहा - "तब उसके लिए तू क्यों विक्षिप्त हो रहा है ? भिक्षु-धर्म का पालन कर । तुझे भी ऐसी अप्सराएं मिलेंगी।" नन्द पुनः श्रमण-धर्म में आरूढ़ हुआ। उसका वह वैषयिक लक्ष्य तब मिटा, जब सारिपुत आदि अस्सी महाश्रावकों (भिक्षुओं) ने उसे इस बात के लिए लज्जित किया कि वह अप्सराओं के लिए भिक्षु-धर्म का पालन कर रहा है। इस प्रकार विषय-मुक्त होकर वह अर्हत् हुआ। मेघकुमार और नन्द के विचलित होने के निमित्त सर्वथा भिन्न थे, पर, घटना-क्रम दोनों का ही बहुत सरस और बहुत समान है । महावीर मेघकुमार को पूर्व-भव का दुःख बता कर सुस्थिर करते हैं और बुद्ध नन्द के आगामी भव के सुख बता कर सुस्थिर करते हैं । विशेष उल्लेखनीय यह है कि मेघकुमार की तरह प्राक्तन भावों में नन्द के भी हाथी होने का वर्णन जातक' में है। १. पूर्व जीवन के लिए देखें, 'भिक्षु संघ और उसका विस्तार' प्रकरण । *२. जन परम्परा का 'सुन्दरी नन्द' का आख्यान भी इस बौद्ध-प्रसंग से बहुत मिलता जुलता है। यहाँ बुद्ध अपने भाई को अप्सराएं दिखलाकर प्रतिबोध देते हैं, वहाँ विषयासक्त सुन्दरी नन्द को उसके भ्राता भिक्षु अपने लब्धि-बल से बन्दरी, विद्याधरी और अप्सरा दिखा कर उसकी पत्नी सुन्दरी से विरक्त करते हैं। (द्रष्टव्य आवश्यक सूत्र, मलयगिरि टीका) ३. सुत्त निपात-अट्ठकथा, पृ० २७२; धम्मपद-अट्ठकथा, खण्ड १, पृ०६६-१०५, जातक सं० १८२ : थेरगाथा १५७; Dictionary of Pali Proper Names, Vol. 1, pp. 10-11. ४. सङ्गामावचर जातक, सं० १८२, (हिन्दी अनुवाद) खण्ड २, पृ० २४८-२५४ । ____ 2010_05 Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३० आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड : १ शालिभद्र राजगह के शालिभद्र, जिनके वैभव को देखकर राजा बिम्बिसार भी विस्मित रह गए थे; भिक्षुजीवन में आकर उत्कट तपस्वी बने। मासिक, द्विमासिक और त्रैमासिक तप उनके निरन्तर चलता रहता। एक बार महावीर बृहत् भिक्षु-संघ के साथ राजगृह आए। शालिभद्र भी साथ थे। उस दिन उनके एक महीने की तपस्या का पारण होना था। उन्होंने नतमस्तक हो, महावीर से भिक्षार्थ नगर में जाने की आज्ञा मांगी। महावीर ने कहा- “जाओ, अपनी माता के हाथ से 'पारणा' पाओ।" शालिभद्र अपनी माता भद्रा के घर आए। भद्रा महावीर और अपने पुत्र के दर्शन को तैयार हो रही थी। उत्सुकता में उसने घर आए मुनि की ओर ध्यान ही नहीं दिया। कर्मकरों ने भी अपने स्वामी को नहीं पहचाना। शालिभद्र बिना भिक्षा पाए ही लौट गए। रास्ते में एक अहीरिन मिली। दही का मटका लिए जा रही थी। मुनि को देख कर उसके मन में स्नेह जगा। रोमाञ्चित हो गई। स्तनों से दूध की धारा बह चली। उसने मुनि को दही लेने का आग्रह किया। मुनि दही ले कर महावीर के पास आए । 'पारणा' किया। महावीर से पूछा-'भगवन् ! आपने कहा था, माता के हाथ से 'पारणा' करो । वह क्यों नहीं हुआ ?" महावीर ने कहा- "शालिभद्र ! माता के हाथ से ही 'पारणा' हुआ है। वह अहीरिन तुम्हारे पिछले जन्म की माता थी।" महावीर की अनुज्ञा पा शालिभद्र ने उसी दिन वैभार गिरि पर जा आमरण अनशन कर दिया। भद्रा समवशरण में आई। महावीर के मुख से शालिभद्र का भिक्षाचरी से लेकर अनशन तक का सारा वृत्तान्त सना। माता के हदय पर जो बीत सकता है. वह बीता। तत्काल वह पर्वत पर आई। पुत्र की उस तप:-क्लिष्ट काया और मरणाभिमुख स्थिति को देख कर उसका हृदय हिल उठा। वह दहाड़ मार कर रोने लगी। राजा बिम्बिसार ने उसे सान्त्वना दी। उद्बोधन दिया। वह घर गई। शालिभद्र सर्वोच्च देव-गति को प्राप्त हुए। उनके गृह जीवन की विलास प्रियता और भिक्षु-जीवन की कठोर साधना दोनों ही उत्कृष्ट थीं। स्कन्दक स्कन्दक महावीर के परिव्राजक भिक्षु थे। परिव्राजक-साधना से भिक्षु-साधना में आना और उसमें उत्कृष्ट रूप से रम जाना उनकी उल्लेखनीय विशेषता थी। आगम बताते हैं-स्कन्दक यत्नापूर्वक चलते, यत्नापूर्वक ठहरते, यत्नापूर्वक बैठते, यत्नापूर्वक सोते, यत्नापूर्वक खाते और यत्नापूर्वक बोलते । प्राण, भूत, जीव, सत्त्व के प्रति संयम रखते। वे कात्यायन गोत्रीय स्कन्दक ईर्या आदि पाँचों समितियों से संयत, मनः संयत, वच: संयत, काय संयत, जितेन्द्रिय, आकांक्षा-रहित, चपलता-रहित और संयमरत थे।' स्कन्दक भिक्षु स्थविरों के पास अध्ययन कर एकादश अंगों के ज्ञाता बने। उन्होंने भिक्षु की द्वादश प्रतिमा आराधी। भगवान् महावीर से आज्ञा लेकर गुणरत्नसंवत्सर-तप तपा। इस उत्कट तप से उनका सुन्दर, सुडोल और मनोहारी शरीर रूक्ष, शुष्क और निर्मास हो गया। चर्मवेष्टित हड्डियां ही शरीर में रह गईं। जब वे चलते, उनकी हड्डियाँ शब्द करतीं, १. भगवती सूत्र, श० २, उ०१। 2010_05 Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा पारिपाश्विक भिक्षु-भिक्षुणियाँ २३१ जैसे कोई सखे पत्तों से मरी गाड़ी चल रही हो, कोयलों से भरी गाड़ी चल रही हो। वे अपने तप के तेज से दीप्त थे।' स्कन्दक तपस्वी को बोलने में ही नहीं; बोलने का मन करने मात्र से ही क्लान्ति होने लगी। अपने शरीर की इस क्षीणावस्था का विचार कर वे महावीर के पास आए। उनसे आमरण अनशन की आज्ञा मांगी। अनुज्ञा पा, परिचारक भिक्षओं के साथ विपूलाचल पर्वत पर आए। यथाविधि अनशन ग्रहण किया। एक मास के अनशन से काल-धर्म को पा अच्युत्कल्प स्वर्ग में देव हुए । महावीर के पारिपारिवकों में इनका भी उल्लेखनीय स्थान रहा है। पंचमांग भगवती में इनके जीवन और इनकी साधना पर सविस्तार प्रकाश डाला गया है। महावीर की भिक्षणियों में चन्दनबाला के अतिरिक्त मृगावती, देवानन्दा, जयन्ती, सुदर्शना आदि अनेक नाम उल्लेखनीय हैं। ___ महावीर और बुद्ध के पारिपाश्विक भिक्षु-भिक्षुणियों की यह संक्षिप्त परिचय-गाथा है। विस्तार के लिए इस दिशा में बहुत अवकाश है। जो लिखा गया है, वह तो प्रस्तुत विषय की झलक मात्र के लिए ही यथेष्ट माना जा सकता है। १. तए णं से खंदए अणगारे तेणं उरालेणं, विउलेणं, .. महाणुभागेणं तवोकम्मेणं सुक्के, लुक्खे, निम्मसे, अद्वि-चम्मावणद्धे, किडिकिडियाभूए, किसे, धमणि संतए जाए यावि होत्था। जीवं-जीवेण गच्छइ, जीवंजीवेण चिट्ठइ, भासं भासित्ता वि गिलाइ, भासं भासमाणे गिलाइ, भासं भासिस्सामीति गिलायति । से जहानामए कट्ठसगडिया इ वा, पत्तसगडिया इ वा, पत्त-तिल-मंडगसगडिया इ वा, एरंडकट्ठसगडिया इ वा, इंगालसगडिया इ वा उण्हे दिण्णा सुक्का समाणी ससई गच्छइ, ससई चिट्ठइ, ऐवामेव खंदए वि अणगारे ससई गच्छइ ससद्द चिट्ठइ, उवचिए तवेणं, अवचिए मंससोणिएणं, हुयासणे विव भासारासिपडिच्छण्णे तवेणं, तेएणं, तव-तेयसिरीए अतीव अतीव उवसोभेमाणे चिट्ठइ। -भगवती सुत्त, श० २, उ०१ 2010_05 Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ प्रमुख उपासक-उपासिकाएं आगमों और त्रिपिटकों की छानबीन में महावीर और बुद्ध की उपासक-उपासिकाओं का विवरण भी पर्याप्त रूप से मिल जाता है । अनुयायी के अर्थ में दोनों ही परम्पराओं में 'श्रमणोपासक' शब्द मुख्यतः प्रयुक्त हुआ है। जैन और बौद्ध श्रमण-परम्परा की ही शाखाएँ थीं ; अत: श्रमणोपासक शब्द उनके पृष्ठवर्ती तादात्म्य को व्यक्त करता है । 'श्रावक' शब्द का प्रयोग भी दोनों परम्पराओं में मिलता है। जैन परम्परा में उपासक के ही अर्थ में तथा बौद्ध परम्पराओं में भिक्षु और उपासक ; दोनों ही अर्थ में इसका प्रयोग मिलता है। जैसे-भिक्ष श्रावक और उपासक-श्रावक।' प्रमुख जैन उपासक उपासकों का परिचय और उनकी चर्या जितनी व्यवस्थित आगमों में मिलती है; उतनी त्रिपिटकों में नहीं । जैन परम्परा के ग्यारह अंग सूत्रों में सातवाँ अंग सूत्र महावीर के दश प्रमुख श्रावकों की जीवन-चर्या का हो परिचायक है। भगवती आदि और भी अनेक सूत्रों में अनेकानेक उपासक-उपासिकाओं का विवरण मिलता है। उववासगदसाओं में दशों ही उपासकों के निर्ग्रन्थ-धर्म स्वीकार करने का, उनके पारिवरिक जनों का, उनके व्यवसाय का, उनकी धन-राशिका तथा उनके गो-कूलों का क्रमबद्ध विवरण है। ऊपर में एक-एक श्रावक के पा चौबीस करोड़ स्वर्ण-मुद्राएँ और अशीति (अस्सी) सहस्र गौएं होने का वर्णन किया गया है। बौद्ध उपासिका विशाखा के पास तो और अधिक धन होने की सचना मिलती है। २७ करोड स्वर्ण-मुद्राएँ तो उसने पूर्वाराम आश्रम के निर्माण में खर्च की थीं। बौद्ध उपासकों के पास भी बड़ी संख्या में गौएँ होने का संकेत त्रिपिटक-साहित्य में मिलता है। बौद्ध उपासकों की विशेषता मुख्यत: विहार-निर्माण और भोजन, वस्त्र आदि के दान के रूप में ही व्यक्त की गई है। जैन उपासकों की विशेषतओं में द्वादश व्रतों की आराधना, सम्यक्त्व की आराधना, तपस्या आदि का प्रमुख स्थान है। जैन उपासकों की आराधना में देवकृत उपसर्गों का भी रोमांचक वर्णन आता है । कुछ श्रावक विचलित हो जाते हैं और कुछ अचल रह जाते हैं। १. अंगुत्तर निकाय, एककनिपात, १४ । ____ 2010_05 Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा प्रमुख उपासक उपासिकाएँ २३३ उवासगदसाओ के दश उपासकों के नाम हैं-१: आनन्द, २. कामदेव, ३. चूलिणीप्पिया, ४. सुरादेव, ५. चुल्लशतक, ६. कुण्डकोलिक, ७. शकडाल-पुत्र, ८. महाशतक, ६. नन्दिनीपिता, १०. सांलिहीपिता। इनके ग्राम-नगर हैं- १. वाणिज्य ग्राम, २. चम्पानगरी, ३-४. वाराणसी, ५. आलम्भिका, ६. काम्पिल्यपुर, ७. पोलासपुर ८. राजगृह, ६.१०. श्रावस्ती। इनके पास क्रमशः गौएँ थीं-१. चालीस सहस्र, २. साठ सहस्र, ३. अस्सी सहस्र ४. साठ सहस्र, ५. साठ सहस्र, ६. साठ सहस्र, ७. दश सहस्र, ८. अस्सी सहस्र, ६. चालीस सहस्र, १०. चालीस सहस्र । इनकी धन-राशि का उल्लेख क्रमशः इस प्रकार मिलता है-१. बारह हिरण्य कोटि, २. अट्ठारह हिरण्य कोटि, ३. चौबीस. हिरण्य कोटि, ४-५-६. अट्ठारह-अट्ठारह हिरण्य कोटि, ७. तीन हिरण्य कोटि, ८. चौबीस हिरण्य कोटि, ६-१० बारह-बारह हिरण्य कोटि। दश उपासकों के अतिरिक्त भी महावीर के अनेक उपासक-उपासिकाए थी; जिनमें-१. शख, २. पोखली,२३. सुदर्शना, ४. सुलसा, ५. रेवती' आदि के नाम उल्लेखनीय हैं। महावीर के कुल श्रावक १ लाख ५६ सहस्र तथा श्राविकाएँ३ लाख १८ सहस्र बताई गई हैं। यह कहीं नहीं बताया गया है कि यह संख्या किस कोटि के श्रावकों की है, अ मात्र कीया केवल आनन्द आदि द्वादश व्रतधारी श्रावकों को। प्रमुख बौद्ध उपासक-उपासिकाएँ बुद्ध ने एतदग्ग वग्ग में निम्न उपासक-उपसिकाओं की गणना की है १. भिक्षुओ! मेरे उपासक श्रावकों में प्रथम शरण आने वालों में तपस्सु और भल्लुक वणिक अग्र हैं। २............दाताओं में अनाथ-पिण्डिक सुदत्त गृहपतिः ...। ३........ धर्म-कथिकों में चित्र गृहपति....। ४........'चार संग्रह वस्तुओं से परिषत् को संयोजित करने वालों में हस्तक आल वक...१११ १. भगवती सुत्त , श०१२, उ०१। २. वही। ३. वही। ४. आवश्यक चूर्णि। ५. भगवती सुत्त, श०१५। ६. समवायांग, सूत्र ११४-११५। ७. असितजन नगर, कुटुम्बिक गेह । ८. वही। ६. कौशल, श्रावस्ती, सुमन श्रेष्ठि-पुत्र। १०. मगध, मच्छिकाषण्ड, श्रेष्ठि-कुल । ११. पंचाल, आलवी, राजकुमार। ____ 2010_05 Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३४ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन ५. भिक्षुओ ! उत्तम वस्तुओं के दाताओं में महानाम शाक्य ' है । ६.........................मनाप (प्रिय) वस्तुओं के दाताओं में गृहपति उग्र*...। ........ संघ- सेवकों में गृहपति उद्गत ...। ८... • अत्यन्त प्रसन्नमना में शूर अम्बष्ट ४ ... । ह.......................पुद्गल (व्यक्तिगत ) प्रसन्नमना में जीवक कौमार मृत्य ... • विश्वस्तों में गृहपति नकुल-पिता ...। १०.... १. भिक्षुओ ! मेरी श्राविकाओं में प्रथम शरण ग्रहण करने वाली उपासिकाओं में सुजाता अग्र है | • दायिकाओं में विशाखा मृगारमाता ...। • बहुश्रुताओं में खुज्ज - उत्तरा .. ***1 • मैत्री विहार प्राप्तों में सामावती १०...। - ध्यायिकाओं में उत्तरा नन्दमाता ११... • प्रणीत-दायिकाओं में सुप्रवासा कोलिय- दुहिता • रुग्णों की शुश्रूषिकाओं में उपासिका सुप्रिया...। • अत्यन्त प्रसन्नमना में कात्यायनी १४... ५ · ......... विश्वस्तों में गृहपत्नी नकुल- माता १५... | १०. "अनुश्रव प्रसन्नमना में उपासिका काली १६...। उल्लिखित उपासक - उपासिकाओं में कुछ के नामोल्लेख मात्र ही मिलते हैं और कुछ के नाना घटना-प्रसंग । तपस्सुक और भल्लुक ने बोधि-लाभ के पश्चात् बुद्ध को मोदक और १. शाक्य, कपिलवस्तु, क्षत्रिय, (अनुरुद्ध का ज्येष्ठ भ्राता) २. वज्जी, वैशाली, श्रेष्ठि-कुल । ३. वज्जी, हस्तिग्राम श्रेष्ठि-कुल । ४. कौशल, श्रावस्ती, श्रेष्ठि-कुल । ५. मगध, राजगृह, अभयकुमार और सातवलिका गणिका से उत्पन्न । ६. भग्ग, संसुमारगिरि, श्रेष्ठि-कुल । ७. मगध, उरुवेला सेनानी-ग्राम, सेनानी कुटुम्बिक की पुत्री । ८. कौशल, श्रावस्ती, वैश्य । ६. वत्स, कौशाम्बी, घोषक श्रेष्ठी की धाय की पुत्री । १०. भद्रवती राष्ट्र, भद्रिका नगर, भद्रवतिक श्रेष्ठि-पुत्री, पश्चात् वत्स, कौशाम्बी, घोषित श्रेष्ठी की धर्मपुत्री ; वत्सराज उदयन की महिषी । ११. मगध, राजगृह, सुमन श्रेष्ठी के अधीन पूर्णसिंह की पुत्री । १२. शाक्य, कुण्डिया, सीवली माता क्षत्रिय । १३. काशी, वाराणसी, वैश्य । १४. अवन्ती, कुररघर ( वश्य) नोणकुटिकण्ण की माता । १५. भग्ग, संसुमारगिरि । [ खण्ड : १ १६. मगध, राजगृह, कुलगेह में उत्पन्न और अवन्ती के कुररघर में उद्वाहिता । - अंगुत्तर निकाय, ऐककनिपात, १४ के आधार से । 2010_05 Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा) प्रमुख उपासक-उपासिकाएँ २३५ धि का दान किया और प्रथम शरणागत बने। ये बनजारे थे और इनका बुद्ध से आकस्मिक संयोग हुआ था। चित्र गृहपति बुद्ध का आदर्श व चर्चावादी उपासक था। उसने निगण्ठ नातपुत्त से भी वर्चा की थी। एक बार सुधम्म भिक्षु के साथ उसका मतभेद हो गया। सुधम्म बुद्ध के पास गया। बुद्ध ने कहा- "सुधम्म ! तुम्हारा ही दोष है। जाओ, चित्र से क्षमा मांगो।" यह ठीक वैसा ही लगता है, जैसा महावीर ने गौतम को आनन्द के सम्बन्ध में कहा था। चित्र गृहपति की मरण-वेला पर देवता उपस्थित हुए। उन्होंने कहा- “आप हमारे इन्द्र हों, ऐसा संकल्प करें।" चित्र ने कहा-“मैं ऐसी नश्वर कामना नहीं करता।"3 जनआगम भगवती में तापस तामली का वर्णन हैं। उसने आमरण अनशन किया। उस समय देवता आये और उसे अपना इन्द्र होने का निदान करने के लिए कहा । वह चुप रहा, यह सोच कर कि तपस्या को बेचना अलाभ और अशिव के लिए होगा। जीवक कौमार भृत्य बिम्बिसार का राज-वैद्य था। सुदूर राज्यों तक राज-कुलों में, श्रेष्ठ-कुलों में इसकी महिमा थी। इसने अनेक अनहोने उपचार अनहोने ढंग से किये थे। बिम्बिसार ने इसे राज्य-वैद्य के रूप में स्थापित करने के साथ-साथ बुद्ध और उनके भिक्षुसंघ की सेवा के लिए भी स्थापित किया था। यह राजगृह की सालवती-नामक नगर वधू का पुत्र था। कूड़े के ढेर पर फेंक दिये जाने के कारण अभयकुमार के महलों में इसका पालन हुआ। तक्षशिला में इसकी शिक्षा हुई। अंगुत्तर निकाय अट्ठकथा व विनयपिटक आदि में इसके द्वारा किए गये बुद्ध के तथा अन्य व्यक्तियों के अद्भुत उपचारों का रोचक वर्णन है। बौद्ध' मान्यता के अनुसार उस युग का यह एक महत्त्वपूर्ण व्यक्ति था। इसने ही बुद्ध से अजातशत्रु का प्रथम सम्पर्क कराया था, पर, जैन-आगमों व जैन पुराण-साहित्य में जीवक के विषय में कोई उल्लेख नहीं मिलता।। जैन परम्परा में आनन्द और सुलसा तथा बौद्ध परम्परा में अनाथपिण्डिक और विशाखा मृगार माता के जीवन-प्रसंग परम्परा-बोध के प्रतीक माने जा सकते हैं। उन्हें यहां क्रमशः दिया जा रहा है। गृहपति आनन्द वाणिज्य ग्राम में जितशत्रु का राज्य था। उसकी ईशान दिशा में बुतिपलाश नामक एक उद्यान भी था। द्युतिपलाश यक्ष का वहाँ आयतन था; अतः उसका वही नामकरण हो गया । गृहपति आनन्द उसी वाणिज्य ग्राम का निवासी था। उसकी पत्नी का नाम शिवानन्दा श्रा। वह अत्यन्त सुरूपा, कला-कुशल व पति-भक्ता थी। गृहपति आनन्द का दाम्पत्यजीवन बहुत ही सुखपूर्ण था। उसके पास प्रचुर सम्पत्ति थी। चार करोड़ हिरण्य उसकी १. विशेष विवरण देखें, 'त्रिपिटकों में निगण्ठ व निगण्ठ नातपुत्त' प्रकरण के अन्त र्गत 'चित्र गृहपति'। २. देखें इसी प्रकरण में 'गृहपति आनन्द' । ३. संयुत्त नकाय, ३६।१।१० ; Dictionary of Pali Proper Names, vol. I, pp. 866. ४. शतक ३, उद्देशक १। ५. अंगुत्तर निकाय-अट्ठकथा (खण्ड २, पृ ३६६) में उसे अभयकुमार का पुत्र माना गया है। 2010 05 Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३६ बागम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड : १ सुरक्षित निधि थी, चार करोड़ हिरण्य ब्याज-व्यवसाय में और चार करोड़ हिरण्य उसके प्रविस्तार (व्यापार) में लगे हुए थे। उसके पास चार व्रज (गोकुल) थे। प्रत्येक व्रज में दस हजार गोएँ थीं। प्रचुर सामग्री व महत्तम गौ-कुलों से वह महद्धिक कहलाता था। आनन्द अपने नगर का विश्वस्त व श्रद्धापात्र था। राजा, युवराज, नगर-रक्षक, सीमान्त प्रदेश के राजा, ग्राम-प्रधान, श्रेष्ठी, सार्थवाह आदि सभी व्यक्ति अपने बहुत सारे कार्यों में, अपनी गुप्त मंत्रणाओं, रहस्यों व व्यवहारों में उससे परामर्श लेते थे। अपने परिवार का वही आधार-स्तम्भ था। निर्ग्रन्थ-प्रवचन में रुचि वाणिज्य ग्राम की उत्तर-पूर्व दिशा में कोल्लाग उपनगर था। वह भी बहुत समृद्ध था। गृहपति आनन्द के वहाँ भी बहुत सारे मित्र व सम्बन्धी रहते थे। एक बार ग्रामानुग्राम विहार करते हुए भगवान्, महावीर वाणिज्य ग्राम पधारे। समवसरण लगा। राजा जितशत्रु और सहस्रों की संख्या में जनता दर्शनार्थ व उपदेश श्रवणार्थ आई। शहर में अदभुत चहलपहल थी। आनन्द ने भी भगवान् महावीर के शुभागमन का संवाद सुना। वह पुलकित व रोमाञ्चित हुआ। भगवान् के दर्शन महाफल-दायक होते हैं; इस मनोरथ के साथ उसने दशनार्थ जाने और पर्युपासना करने का निश्चय किया। उसने स्नान किया, शुद्ध वस्त्र पहने और आभूषणों से सुसज्जित हो, अनुयायी वृन्द से परिवृत्त, वाणिज्य ग्राम के मध्य से पैदल ही चला । उसके छत्र पर कोरंट की माला लगी हुई थी। वह द्युतिपलाश चैत्य पहँचा, जहां कि महावीर ठहरे हुए थे। तीन बार आदक्षिण-प्रदक्षिणापूर्वक उसने वन्दना की और परिषद् के साथ उपदेश-श्रवण में लीन हो गया। धर्मोपदेश सुन कर जनता अपने घर गई। गृहपति आनन्द भगवान महावीर के उस उपदेश से बहुत सन्तुष्ट और प्रसन्न हुआ। उसने निवेदन किया-"भन्ते ! मैं निर्ग्रन्थ-प्रवचन में श्रद्धाशील हूँ। निम्रन्थ-प्रवचन में ही मेरी प्रतीति व रुचि है । जैसे आप कहते हैं, सब वैसे ही हैं। यह सत्य है। मैं इस धर्म की चाह रखता हूँ। पुनः-पुनः चाह रखता हूँ। भन्ते ! आपके पास बहुत से राजा, युवराज, सेनापति, नगर-रक्षक माण्डलिक, कौटुम्बिक, श्रेष्ठी, सार्थवाह मुण्डित होकर आगार-धर्म से अनगार-धर्म में आते हैं। किन्तु, मैं साधु-जीवन की कठिन चर्या में निर्गमन के लिए असमर्थ हूँ; अत: गहि-धर्म के द्वादश व्रत ग्रहण करना चाहता हूँ।" भगवान् महावीर ने कहा-“यथा सुख करो, किंतु, श्रेय में विलम्ब न करा।" निर्ग्रन्थ-धर्म का प्रहण गाथापति आनन्द ने द्वादश व्रत ग्रहण करते हुए निवेदन किया--"भन्ते ! मैं दो करण और तीन योग से स्थूल प्राणातिपात, स्थूल मृषावाद व स्थूल अदत्तादान का प्रत्याख्यान करता हूँ। शिवानन्दा के अतिरिक्त सभी स्त्रियों में मेरी मातृ-दृष्टि होगी। इच्छा-परिणाम व्रत के अन्तर्गत संरक्षित चार हिरण्य कोटि, व्यवसाय में प्रयोजित चार हिरण्य कोटि और धन्य-धान्य आदि के प्रविस्तार में प्रयोजित चार हिरण्य कोटि के अतिरिक्त धन-संग्रह का त्याग करता हूँ। चार व्रज से अधिक नहीं रखूगा। क्षेत्र-भूमि में पांच सौ हल से अधिक नहीं रखंगा। पांच सौ शकट प्रदेशान्तर में जाने के लिए और पांच सौ शकट घरेलू काम के लिए, इस प्रकार एक हजार से अधिक शकट नहीं रखूगा। चार वाहन (जहाज) प्रदेशान्तर में ____ 2010_05 Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा प्रमुख उपासक-उपासिकाएँ २३७ व्यवसाय के लिए और चार वाहन घरेलू काम के लिए, इस प्रकार आठ से अधिक वाहन नहीं रखूगा। स्नान करने के बाद शरीर पोंछने के अभिप्राय से गंधकाषायित वस्त्र के अतिरिक्त अन्य वस्त्र का त्याग करता हूँ । मधु-यष्टि के अतिरिक्त दातून का त्याग करता हूँ। क्षीरामलक के अतिरिक्त सभी फलों का त्याग करता हूँ। क्षोम युगल के अतिरिक्त समस्त वस्त्र पहनने और काणेयक (कान का आभूषण) व नामकित मुद्रिका के अतिरिक्त आभूषण पहनने का प्रत्याख्यान करता हूँ।" भगवान् महावीर ने कहा- 'आनन्द ! जीवाजीव की विभक्ति के ज्ञाता व अपनी मर्यादा में विहरण करने वाले श्रमणोपासक को व्रतों के अतिचार भी जानना चाहिए और उनका परिहार करते हुए ही आचरण करना चाहिए।" अभिग्रह ___ आनन्द की जिज्ञासा पर भगवान् महावीर ने अतिचारों का सविस्तार विवेचन किया। आनन्द ने पांच अणुव्रत और सात शिक्षा-व्रत ग्रहण किये। आनन्द ने एक अभिग्रह ग्रहण करते हए निवेदन किया-"भन्ते ! आज से मैं इतर तंथिकों को, इतर तैथिकों के देवताओं व इतर तैथिकों द्वारा स्वीकृत अरिहन्त-चैत्यों को वन्दन-नमस्कार नहीं करूंगा। उनके द्वारा वार्ता का आरम्भ न होने पर, उनसे वार्तालाप करना, पुनः-पुनः वार्तालाप करना, गुरु-बुद्धि से उन्हें अशन, पान, खादिम, स्वादिम आदि देना मुझे नहीं कल्पता है। मन्ते ! इस अभिग्रह छः अपवाद होंगे-१. राजा, २. गण, ३. बलवान और, ४. देवताओं के अभियोग से, ५. गुरु आदि के निग्रह से तथा ६. अरण्य आदि का प्रसंग उपस्थित होने पर मुझे उन्हें दान देना कल्पता है।" अपनी दढ धार्मिकता व्यक्त करते हए गहपति आनन्द ने कहा- मन्ते ! निर्ग्रन्थो को प्रासुक व एषणीय अशन, पान, खादिम, स्वादिम, वस्त्र, कम्बल, प्रतिग्रह (पात्र), पादप्रोञ्छन, पीठ, फलक, शय्या, संस्तारक, औषध, भैषज का प्रतिलाभ करना मुझे कल्पता में मेरे अभिग्रह-ग्रहण के अनन्तर गहपति आनन्द ने बहत से प्रश्न पूछ और तत्त्व को हृदयंगम किया। तीन बार आदक्षिगा-प्रदक्षिणापूर्वक वन्दना की और अपने घर आया। हर्ष-विभोर होकर शिवानन्द से कहने लगा-"श्रमण भगवान् महावीर के समीप मैंने धर्म को सुना। वह धर्म मुझे बहुत इष्ट है। वह मुझे बहुत रुचिकर प्रतीत हुआ। सुभगे ! तुम भी जाओ। भगवान् महावीर को वन्दना-नमस्कार करो, पर्युपासना करो और उनसे पाँच अणुव्रत और सात शिक्षा-व्रत रूप गृहस्थ-धर्म स्वीकार करो।" पति का निर्देश पाकर शिवानन्दा बहत पुलकित हई। उसने स्नान किया, अल्प भार व बहमूल्य वस्त्राभरण पहने और दासियों के परिकर से घिरी शीघ्रगामी. प्रशस्त व ससज्जित श्रेष्ठ धार्मिक यान पर आरूढ़ होकर द्युतिपलाश चैत्य में भगवान् महावीर के समवसरण में पहुँची। महता परिषद् के साथ भगवान् की देशना सुनी और आत्म-विभोर हुई। भगवान् महावीर के समक्ष उसने द्वादश व्रत रूप गृहस्थ-धर्म स्वीकार किया और अपने आवास लौट आई। गणघर गौतम ने भगवान् महावीर से पूछा-"प्रभो! श्रमणोपासक आनन्द क्या आपके समीप प्रनजित होने में समर्थ है ?" 2010_05 Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३८ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड : १ भगवान् महावीर ने उत्तर दिया-“गौतम ! ऐसा नहीं है । श्रमणोपासक आनन्द बहुत वर्षों तक श्रावक-पर्याय का पालन करेगा और अनशन पूर्वक शरीर-त्याग कर सौधर्म कल्प के अरुणाम विमान में चार पल्योपम की स्थिति से उत्पन्न होगा।" गृह-भार से मुक्ति आनन्द और शिवानन्दा; दोनों ही जीव-अजीब की पर्यायों पर अनुचिन्तन करते हुए सुखपूर्वक रहे । शील व्रत, गुण व्रत, प्रत्याख्यान और पौषधोपवास आदि के माध्यम से अपनी आत्मा को भावित करते हुए उनके चौदह वर्ष बीत गये। पन्द्रहवां वर्ष चल रहा था। एक बार रात्रि के उत्तरार्ध में धर्म-जागरणा करते हुए उसके मन में संकल्प उत्पन्न हआ"वाणिज्य ग्राम नगर के राजा, युवराज, नगर-रक्षक, नगर-प्रधान आदि आत्मीय जनों का मैं आधार हैं। अधिकांश कार्यों में वे सभी मुझसे मन्त्रणा करते रहते हैं। इसी व्यस्तता और व्यग्रता के कारण भगवान् महावीर के समीप स्वीकृत धर्म-प्रज्ञप्ति को पूर्णतया क्रियान्वित करने में मैं अब तक असमर्थ रहा हूँ। कितना सुन्दर हो, कल प्रातःकाल होते ही मित्र, ज्ञाति-स्वजनों को अपने घर निमन्त्रित कर, उन्हें अशन, पान, खादिम, स्वादिम आदि से संतर्पित कर, उनकी उपस्थिति में ज्येष्ठ पुत्र को घर का सारा दायित्व सौंप दं और उन सबकी अनुमति लेकर कोल्लाक सन्निवेशस्थ ज्ञातकुल की पौषधशाला में महावीर की धर्मप्रज्ञप्ति को स्वीकार कर विचरण करूँ।" सूर्योदय होते ही श्रमणोपासक आनन्द ने अपने दढ़ निश्चय को क्रियान्वित किया। अपने प्रांगण में मित्र व ज्ञाति-स्वजनों का सम्मान किया और उनके बीच अपने ज्येष्ठ पुत्र को कुटुम्ब का दायित्व सौंपा और सबसे कहा- भविष्य में मझ से किसी सम्बन्ध में विचार-विमर्षण न करें। मैं एकान्त में धर्म-जागरणा ही करना चाहता हूँ।" अपने स्वजनों से अनुज्ञा ले गहपति आनन्द कोल्लाग सन्निवेशस्थ पोषधशाला में आया। पौषधशाला को पूंजा, उच्चार-प्रसवण की भूमि का प्रतिलेखन किया। दर्म का संस्तारक बिछाया, उस पर बैठा और भगवान् महावीर की धर्म प्रज्ञप्ति को स्वीकार कर विचरने लगा। प्रतिमा-ग्रहण गृहपति आनन्द ने श्रावक की ग्यारह प्रतिमा स्वीकार की। सूत्र के अनुसार, कल्प के अनसार. मार्ग के अनुसार व तत्त्व के अनुसार उसने प्रत्येक प्रतिमा को काया द्वारा ग्रहण किया और उपयोग पूर्वक उनका रक्षण किया। अतिचारों का त्याग करते हुए वह विशुद्ध हआ। प्रत्याख्यान का समय समाप्त होने पर भी वह कुछ समय तक उनमें और भी स्थिर रहा। प्रतिमाओं का स्वीकरण और उनमें होने वाले घोर तपश्चरण से श्रमणोपासक आनन्द का शरीर अत्यन्त कृश हो गया। नसें दिखलाई पड़ने लगीं। धर्म-जागरणा करते हुए एक दिन उसके मन में फिर विचार उत्पन्न हुआ-"इस अनुष्ठान से मैं अस्थियों का पिंजर मात्र रह गया हँ; फिर भी मुझमें अब तक उत्थान, कर्म, वीर्य, पुरुषाकार, पराक्रम, श्रद्धा, धति और संवेग हैं । क्यों न मैं इनकी अवस्थिति में ही अपश्चिम मारणान्तिक संलेखना से युक्त ____ 2010_05 Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा] प्रमुख उपासक-उपासिकाएँ २३६ होकर, भक्त-पान का प्रत्याख्यान करूँ। ऐसा करना ही अब मेरे लिए श्रेयस्कर है।" उसने वैसा ही किया। एक बार शुभ अध्यवसाय, शुभ परिणाम व विशुद्ध होती हुई लेश्याओं से आनन्द के ज्ञानावरणीय कर्म का क्षयोपशप हुआ। उससे उसे सुविस्तृत अवधिज्ञान की प्राप्ति हुई। उस ज्ञान के बल पर वह उत्तर में चूल हेमवन्त पर्वत तक, दक्षिण, पश्चिम और पूर्व में पांच सौ योजन लवण समुद्र तक, ऊपर सौधर्म देवलोक तक और अधो प्रथम नरक के लोलुप नरका. वास तक देखने और जानने जगा। गौतम और अवधिज्ञान उन्हीं दिनों भगवान महावीर वाणिज्य ग्राम आए। गौतम स्वामी बेले की तपस्या पूर्ण कर भगवान महावीर से आज्ञा लेकर भिक्षा के लिए नगर में आए । नगर में आनन्द श्रावक आवरण अनशन की जब चर्चा सुनी तो उनके मन में देखने का भाव उत्पन्न हआ। वे आनन्द की पौषधशाला में आए। आनन्द ने शारीरिक असामर्थ्य के कारण लेटे-लेटे ही वन्दना की और चरण स्पर्श किया। आनन्द ने कहा-"भगवन् गौतम ! क्या आमरण अनशन में गृहस्थ को अवधि ज्ञान उत्पन्न हो सकता है ?" गौतम-"हाँ, हो सकता है।" मानन्द-"मुझे अवधि ज्ञान प्राप्त हुआ है और वह पूर्व और पश्चिम आदि दिशाओं में इतना विशाल है।" गौतम-"आनन्द ! गृहस्थ को इतना विशाल अवधि ज्ञान नहीं मिल सकता । अनशन में तुझ से यह मिथ्या सम्भाषण हुआ है; अतः तू इसकी आलोचना व प्रायश्चित्त कर।" आनन्द-"प्रभो ! महावीर के शासन में सत्याचरण का प्रायश्चित्त होता है या असत्याचरण का?" गौतम-"असत्याचरण का।" आनन्द-'प्रभो ! आप ही प्रायश्चित्त करें। आप ही से असत्याचरण हुआ है।" आनन्द की इस दृढ़तापूर्ण वार्ता को सुनकर गौतम स्वामी ससंभ्रम हुए। वहां से चल कर वे भगवान् महावीर के पास आये और वह सारा वार्तालाप उन्हें सुनाया। भगवान् महावीर ने कहा-“गौतम ! तुझ से ही असत्याचरण हुआ है। तू आनन्द के पास जा और उससे क्षमा-याचना कर।" - गौतम स्वामी तत्काल आनन्द के पास आए और बोले- आनन्द ! भगवान महावीर ने मुझे ही सत्य कहा है। मैं वृथा विवाद के लिए तुझ से क्षमा चाहता हूँ।" गृहपति आनन्द ने बीस वर्ष तक श्रमणोपासक पर्याय का पालन किया। अंतिम समय अनशन, आलोचना आदि कर सौधर्म कल्प के अरुणाभ विमान में उत्पन्न हुआ।' सुलसा राजगृह में नाग रथिक रहता था। उसकी धर्मपत्नी का नाम सुलसा था। दोनों ही निर्ग्रन्थ-श्रावक थे। वे दृढ़धर्मी व प्रियधर्मी के नाम से पुकारे जाते थे। उनकी सम्यक्त्व निर्मल १. उवासगदसाओ, अ० १ के आधार पर । ____ 2010_05 Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४० आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड : १ व सुदृढ़ थी । वे श्रावक के व्रतों का शुद्धतापूर्वक पालन करते थे। सुलसा धर्म में अधिक दृढ़ थी। श्रावक नाग के यह भी नियम था कि अब वह दूसरा विवाह नही करेगा। दोनों ही आनन्दपूर्वक अपना जीवन बिताते हुए धर्माराधन कर रहे थे। पुत्र का अभाव __ एक बार नाग ने किसी सेठ के बालकों को घर के आंगन में खेलते हुए देखा । बच्चे बड़े सुकुमार, चंचल व मनोहारी थे। उनके खेलने से आँगन खिल उठा । श्रावक नाग के हृदय में वह दृश्य समा गया । उसके मन में बार-बार यह विचार उभरता कि वह घर सूना है, जहाँ ऐसे बच्चे न हों। किन्तु, सूने घर की पूर्ति करना किसी के वश की बात तो नहीं है । पुत्र-प्राप्ति की प्रबल इच्छा ने श्रावक नाग को इसके लिए बहुत कुछ सोचने को बाधित कर दिया। वह लौकिक देव, ज्योतिषियों व पण्डे-पुजारियों के चक्कर में घूमने लगा । सुलसा को जब यह ज्ञात हुआ तो उसने स्पष्ट शब्दों में अपने पति से कहा- "पुत्र, यश, धन आदि सभी अपने ही कृत कर्मानुसार प्राप्त होते हैं। मनुष्य के प्रयत्न या देव-कृपा केवल निमित्त मात्र ही हो सकते हैं। किसी वस्तु का प्राप्त न होना, यह तो अपने अन्तराय कर्म से ही सम्बन्धित है । इसे दूर करने के लिए ज्योतिषियों द्वारा बताये गये अनुष्ठान, लौकिक देवो की उपासना व अन्य साधन क्या कर सकेंगे? हमारे लिए यह आवश्यक है कि हम अपना अधिकसे-अधिक समय दान, शील, तपश्चर्या आदि धार्मिक अनुष्ठान में लगायें। इससे कर्म शिथिल होंगे और अपने अभिलषित की प्राप्ति भी हो सकेगी। मुझे लगता है, अब मुझसे आपको पुत्र की प्राप्ति नहीं होगी; अतः कितना सुन्दर हो, आप दूसरा विवाह कर लें।" श्रावक नाग ने उत्तर दिया-"मुझे तुम्हारे ही पुत्र की आवश्यकता है। मैं दूसरा विवाह नहीं करना चाहता।" सुलसा ने अपनी स्वाभाविक भाषा में कहा-“यह तो संयोग-वियोग की बात है। प्राप्ति और अप्राप्ति में हर्ष व शोक दोनों ही नहीं होने चाहिए। जो व्यक्ति इनसे ऊपर उठता है, वह अपने लक्ष्य पर अवश्य पहुँच जाता है।" सुलसा की इस प्रेरणा से नाग के मन में पुत्रअभाव का दुःख कुछ कम हुआ और वह अपने अन्य कार्यों के साथ धार्मिक क्रियाओं में दृढ़ता से संलग्न हो गया। परीक्षा एक बार सुलसा के घर एक साधु आया। उसने सुलसा से रुग्ण साधु के नाम पर लक्षपाक तेल की याचना की। मुलसा अपने घर साधु को देखकर पुलकित हो उठी। तेल लाने के लिए शीघ्रता से अपने कमरे में गई। देव-योग से ज्यों ही बह तेल का बर्तन उठाने लगी, उसके हाथ से वह छूट गया और तीन बार ऐसा ही हुआ। बर्तन भी फूट गया और बहुमूल्य तेल भी बिखर गया। स्वभावतः ही ऐसे अवसर पर व्यक्ति गुस्से से भर जाया करता है, पर, उसके ऐसा न हुआ। घर में तेल के तीन ही बर्तन थे और तीनों ही इस तरह फूट गये । बाहर आकर उसने शान्त भाव से मुनि से सारी घटना कह सुनाई। साधु ने उसे अच्छी तरह से देखा। वह बिल्कुल शान्त थी और इतना होने पर भी उसके मन में साधु के प्रति भक्ति ही उमड़ रही थी। साधु ने अपना स्वरूप बदला और देव के रूप में सुलसा के सम्मुख खड़ा हो गया। सुलसा उसे समझ नहीं पाई। दूसरे ही क्षण देव ने कहा- "देव-सभा में शकेन्द्र ने तेरी ___ 2010_05 Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा प्रमुख उपासक-उपासिकाएँ २४१ क्षमाशीलता की भूरि-भूरि प्रशंसा की थी। शक्रेन्द्र का कहना था कि वह सम्यक्त्व श्रावक-व्रत में में इतनी दृढ़ है कि देव, दानव या मानव कोई भी उसे विचलित नहीं कर सकता। शकेन्द्र के कथन से प्रेरित होकर परीक्षा के निमित्त मैं यहाँ आया । साधु कोई नहीं था, मैं ही था। बर्तन तेरे हाथ से फिसले हैं, पर, उनमें मेरी शक्ति भी लगी है । मैं तेरी दृढ़ धार्मिकता और उपशान्तता से बहुत प्रभावित हुआ हूँ। शक्रेन्द्र का कथन वस्तुतः ठीक ही था। मैं बहुत प्रसन्न हुआ हूँ और तुझे वर मांगने के लिए आह्वान करता हूँ।" । ___ सुलसा ने मुस्कराते हुए उत्तर दिया--"धन, ऐश्वर्य व सम्मान की मेरे लिए कोई कमी नहीं है । जीवन में खलने वाला एक ही अभाव है, जिसे आप भी जानते ही हैं । मैं समझती हुँ, समय आने पर मेरा वह मनोरथ भी स्वतः फलित होगा।" अभाव की पूर्ति देव सुलसा की भावना का बड़ा सम्मान करने लगा। वह उसके सुख-दुःख को अपना ही सुख-दुःख समझने लगा। उसने कहा-"बहिन ! ये लो, बत्तीस गोलियाँ। समय-समय पर एक-एक गोली खाना । तेरे बत्तीस पुत्र होंगे और तेरी कामना फलित होगी। इसके अतिरिक्त और भी जब कोई कभी कार्य हो, मुझे याद करना ।'' सुलसा ने वे बत्तीस गोलियाँ ले लीं और देव अन्तर्धान हो गया। सुलसा के मन में आया, मैं बत्तीस पुत्रों का क्या करूँगी। सूने घर को भरने के लिए तो शुभ लक्षणों वाला एक पुत्र भी पर्याप्त हो सकता है। कितना अच्छा हो, यदि इन गोलियों को एक साथ ही खा लूं । इससे बत्तीस ही शुभ लक्षणों वाला एक पुत्र हो जायेगा। वह सभी गोलियाँ एक साथ ही खा गई। कुछ ही दिनों बाद सुलसा के उदर में भयंकर वेदना आरम्भ हो गई। वह तिलमिला उठी। अपने कष्ट को दूर करने का उसे कोई भी उपाय नहीं सूझा । उसने उसी देव का स्मरण किया। देव उपस्थित हुआ तो सुलसा ने अपनी व्यथा कह सुनाई। देव ने कहा --"तू ने भयंकर भूल की है । इससे एक गर्भ के स्थान पर एक साथ बत्तीस ही गर्भ रह गये हैं। अब तेरे बत्तीस ही सन्तान एक साथ पैदा होंगी और यदि उनमें से एक की भी मृत्यु हो गई तो सबकी ही मृत्यु सम्भावित है।" सुलसा ने कहा---'"आखिर होता तो वही है, जो भवितव्यता होती है । आपके निमित्त से यदि कुछ बन भी गया, तो आखिर उसका परिणाम तो वही आया।" देव ने अनुकम्पावश अपनी विशिष्ट शक्ति से उसका कुछ कष्ट शान्त कर दिया। समय पर सुलसा ने बत्तीस पुत्रों को जन्म दिया । बत्तीसों की समान आकृति थी और समान ही व्यवहार था। उनकी सुकुमारता, भव्यता व चंचलता से प्रत्येक व्यक्ति उनकी ओर आकृष्ट हो जाता था। नाग रथिक का सूना घर एक साथ खिल उठा । जब वह अपने बच्चों की ओर पलक मारता, उसका दिल हिलोरें लेने लगता । बत्तीसों ही कुमार बड़े हुए। यौवन में उनका कुलीन कन्याओं के साथ विवाह कर दिया गया। वे साथ ही रहते व साथ ही सब कार्य करते। राजा श्रेणिक के अंग-रक्षक के रूप में उन सबकी नियुक्ति हो गई। वे युद्ध-कला में पूर्णतः दक्ष थे। राजा श्रेणिक जब चेलणा को लेकर भूमिगत मार्ग से राजगृह की ओर दौड़ा और चेटक ने उसका पीछा किया, तो बत्तीस ही अंग-रक्षकों ने चेटक का मार्ग रोका श्रेणिक वहाँ से अपने महलों में सकुशल पहुँच गया। दोनों ही दलों में घमासान युद्ध हुआ और उसके परिणाम स्वरूप श्रेणिक का एक अंग-रक्षक मारा गया। एक की मृत्यु के साथ ही इकतीस ____ 2010_05 Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४२ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [ खण्ड : १ योद्धा और गिर पड़े और इस तरह श्रेणिक के सारे अंग-रक्षक, सुलसा के सब पुत्र वहाँ काम आ गये । बत्तीस ही पुत्रों की एक साथ मृत्यु से सुलसा को बहुत आघात लगा । वह दृढ़ धार्मिक थी, पर, अपने पुत्रों के अनुराग से विहल हो उठी । प्रधानमन्त्री अभयकुमार उसे ढाढ़स बंधाने के लिए आया । उसने भी उसको बहुत सान्त्वना दी। सुलसा ने अपने विवेक को जागृत किया और धर्म ध्यान में लीन हो गई । महावीर द्वारा प्रशंसा भगवान् महावीर ग्रामानुग्राम विहरण करते हुए एक बार चम्पा नगरी में आये । नगर के बाहर समवसरण की रचना हुई । परिषद् धर्मोपदेश सुनने के लिए आई । राजगृह का अम्बड़ श्रावक भी भगवान् की देशना सुनने व दर्शन करने के लिए आया । वह अपनी विद्या के आधार पर नाना रूप बदल सकता था । देशना के अन्त में उसने भगवान् से निवेदन ---- किया "भन्ते ! आपके उपदेश से मेरा जन्म सफल हो गया । आज मैं राजगृह जा रहा हूँ ।" भगवान् महावीर ने कहा- "राजगृह में एक सुलसा श्राविका है। वह अपने श्रावकधर्म में बहुत दृढ़ है । ऐसे श्रावक विरल ही होते हैं ।" अन्य उपस्थित व्यक्तियों व अम्बड़ श्रावक ने सोचा - "सुलसा सचमुच ही बड़ी पुण्यशालिनी है, जिसको स्वयं भगवान् ने इस प्रकार बताया है ।" अम्बड़ के मन में आया, सुलसा का ऐसा कौन-सा विशेष गुण है, जिसको लेकर भगवान् ने उसे धर्म में दृढ़ बताया । मुझे उसकी परीक्षा तो करनी चाहिए। वह एक परिव्राजक के रूप में सुलसा के घर आया । सुलसा से उसने कहा--"आयुष्मती ! तुम मुझे भोजन दो। इससे तुझे धर्म होगा ।" सुलसा ने उत्तर दिया – “मैं जानती हूँ, किसे देने में धर्म होता है और किसे देने में केवल व्यवहार-साधन ।" अम्बड़ द्वारा परीक्षा अम्बड़ वहाँ से लौट आया। उसने तपस्या आरम्भ कर दी और पद्मासन लगा कर निरालम्ब आकाश में ठहर गया । यह एक अद्भुत चमत्कार था । दर्शकों की अपार भीड़ उमड़ पड़ी। नगर व आस-पास के सहस्रों व्यक्ति वहाँ आने लगे और अम्बड़ की मुक्त कण्ठ से प्रशंसा करने लगे । सुलसा ने भी यह सब घटना सुनी, पर, उसे कोई आश्चर्य नहीं हुआ। वह न वहाँ गई और न उसने उसके बारे में किसी से एक शब्द भी कहा । लोग अम्बड़ की तपस्या से प्रभावित हुए। सभी ने अपने-अपने घर भोजन करने के लिए उसे आमंत्रित किया, पर, उसने किसी का भी निमन्त्रण स्वीकार नहीं किया । आखिर जनता उससे पूछने लगी- "तपस्विन् ! आपके भोजन का लाभ किस सौभाग्यशाली को प्राप्त होगा ?" अम्बड़ ने कहा – “सुलसा को ।" लोग दौड़े-दौड़े सुलसा के घर आये और उसे अत्यधिक बधाइयाँ देने लगे । उन्होंने उसे सूचित किया - " अम्बड़ जैसे महातपस्वी ने तेरी बिना प्रार्थना के भी भोजन करने की स्वीकृति प्रदान कर दी है। अब तुम चलो और उनसे प्रार्थना करो। तुम तो निहाल हो जाओगी ।" सुलसा ने एक ही वाक्य में उन सबको उत्तर देते हुए कहा--" आप इसे तपस्या समझते हैं और मैं इसे ढोंग । " लोगों को सुलसा की बात से आश्चर्य हुआ और उन्होंने अम्बड़ से भी जाकर कहा । अम्बड़ ने यह अच्छी तरह जान लिया कि सुलसा परम सम्यकदृष्टि हैं और वह अरिहन्त व 2010_05 Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा] प्रमुख उपासक-उपासिकाएं २४३ निर्ग्रन्थों के अतिरिक्त किसी को भी देव व गुरु नहीं मानती। उसे इस श्रद्धा से कोई भी शक्ति विचलित नहीं कर सकती । अम्बड़ ने पद्मासन समाप्त कर दिया और एक निर्ग्रन्थ के वेष में वह सुलसा के घर आया। अम्बड़ केवल आकृति से ही निर्ग्रन्थ नहीं बना, अपितु, उसके प्रत्येक क्रिया-कलाप में उसकी सजीव झलक थी। सुलसा ने उसे देखा, तो नमस्कार किया और भक्तिपूर्वक सम्मान भी । अम्बड़ ने अपना असली रूप बनाया और भगवान् महावीर द्वारा की गई उसकी व्रत-प्रशंसा की सारी घटना सुनाई। वह भी उसके मुक्त कंठ से गुण-गान करने लगा।' सम्यक्त्व में दृढ़ होने के कारण सुलसा ने तीर्थङ्कर नाम-गोत्रकर्म का उपार्जन किया। आगामी चौबीसी में वह निर्मम नामक पन्द्रहवाँ तीर्थङ्कर होगी। गृहपति अनाथपिण्डिक प्रथम सम्पर्क गृहपति अनाथपिण्डिक सुदत्त श्रावस्ती के सुमन श्रेष्ठी का पुत्र था। वह राजगृहक श्रेष्ठी का बहनोई था। एक बार किसी प्रयोजन से वह राजगृह आया। उस समय भगवान् बुद्ध भी राजगह के सीत-वन में विहार कर रहे थे। अनाथपिण्डिक ने वहाँ सुना, 'लोक में बुद्ध उत्पन्न हो गए हैं।' उसके मन में तथागत के दर्शनों की उत्कण्ठा जागृत हुई। राजगृहक श्रेष्ठी ने संघ-सहित बुद्ध को अपने घर दूसरे दिन के लिए निमंत्रण दिया था: अतः उसने अपने दास और कर्म करों को ठीक समय पर खिचड़ी, भात और सूप बनाने का निर्देशन दिया। अनाथपिण्डिक ने सोचा, मेरे आगमन से यह गृहपति सब काम छोड़ मेरे ही आगत-स्वागत में लगा रहता था । आज विक्षिप्तचित्त दास व कर्मकरों को भोजन तैयार करने का निर्देशन दे रहा है; क्या यहाँ कोई विवाह होगा, महायज्ञ होगा या मगधराज श्रेणिक बिम्बिसार सपरिकर कल के भोजन के लिए आयेंगे ? राजगहक श्रेष्ठी अनाथपिण्डिक के पास आया और उसे प्रतिसम्मोदन कर एक ओर बैठ गया। अनाथपिण्डिक ने राजगृहक श्रेष्ठी के समक्ष अपनी जिज्ञासा प्रस्तुत की । राजगृहक श्रेष्ठी ने कहा-"मेरे यहाँ कल न विवाह होगा, न कोई यज्ञ होगा और न मगधराज ही भोजन के लिए आमन्त्रित किये गये हैं ; अपितु संघ-सहित भगवान् बुद्ध कल के भोजन के लिए निमत्रित किये गये हैं।" अनाथपिण्डिक सुनते ही बहुत विस्मित हुआ। उसने तीन बार साश्चर्य पूछा-'बुद्ध ?' और राजगृहक श्रेष्ठी ने उत्तर दिया-'हाँ, बुद्ध ।' अनाथपिण्डिक ने कहा- "बुद्ध शब्द का श्रवण भी लोक में बहुत दुर्लभ है। क्या मैं ईस समय उन भगवान् अर्हत् सम्यक् सम्बुद्ध के दर्शनार्थ जा सकता हूँ?" राजगहक श्रेष्ठी ने नकारात्मक उत्तर देते हए कहा-"भगवान के दर्शनों का यह उपयुक्त समय नहीं है।" अनाथपिण्डिक ने ज्यों-त्यों रात बिताई। वह बीच ही में तीन बार उठा, किन्तु, रात्रि की नीरवता को देख, चलने को उद्यत न हो सका। प्रत्यूष से बहुत पूर्व ही उठा। उस समय भी रात्रि की अधिकता थी; फिर भी वह अपनी उत्कण्ठा को रोक न सका। वह चला। नगर के शिवद्वार पर पहुँचा। द्वार बन्द था, किन्तु, उसके वहाँ पहुँचते ही देवों ने १. आवश्यक चूणि, उत्तरार्द्ध पत्र सं० १६४; भरतेश्वर बाहुबलि, पत्र सं० २४०-२, २५५-१ उपदेश प्रासाद, स्तम्भ ३, व्याख्यान ३६ । २. ठाणांग सूत्र, ठा० ६, उ० ३, सूत्र ६६१, पत्र ४५५-२ । 2010_05 Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४४ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [ खण्ड : १ उसे खोल दिया । वह नगर द्वार से बाहर आया। कुछ ही दूर चला होगा, सहसा प्रकाश लुप्त गया और अन्धकार छा गया। अनाथपिण्डिक भीत हुआ, स्तब्ध हुआ और रोमांचित हुआ । उसके बढ़ते हुए चरण रुक गये । शिवक यक्ष ने अन्तरिक्ष में तिरोहित रह कर उसे प्रेरित करते हुए कहा - " गृहपति चल, शीघ्रता से चल । चलना ही तेरे लिए श्रेयस्कर है, लौटना नहीं ।" सहसा अन्धकार नष्ट हो गया । मार्ग प्रकाशित हो गया । भय, स्तब्धता व रोमांच जाता रहा । अनाथपिण्डिक आगे बढ़ा। फिर अन्धेरा छा गया, भय लगने लगा और बढ़ते हुए .. चरण रुक गये । आवाज आई, उससे साहस बढ़ा और अनाथपिण्डिक चल पड़ा। तीन बार ऐसे हुआ । अनाथपिण्डिक आगे बढ़ता गया और सीत-वन पहुँच गया । भगवान् बुद्ध प्रत्यूष काल की खुली हवा में उस समय टहल रहे थे । भगवान् ने अनाथपिण्डिक को दूर से ही आते हुए देखा तो चंक्रमण भूमि से उतर कर बिछे आसन पर बैठ गये और गृहपति को आह्वान किया - " आ सुदत्त ।" नामग्राह आमन्त्रण से अनाथपिण्डिक बहुत हर्षित हुआ । भगवान् के समीप पहुँचा और चरणों में गिर कर नमस्कार किया। कुशल प्रश्न के साथ उसने पूछा"भन्ते ! भगवान् को निद्रा तो सुख से आई ?" बुद्ध ने उत्तर दिया- "निर्वाण प्राप्त ब्राह्मण सदा ही सुख से होता है ।" साथ ही उन्होंने अनाथपिण्डिक को आनुपूर्वी कथा कही । कालिमा-रहित शुद्ध वस्त्र जैसे रंग पकड़ लेता है, उसी प्रकार उसे भी उसी आसन पर बैठे विरज, विमल धर्म चक्षु उत्पन्न हुआ । धर्म-तत्व को जानकर, सन्देह-रहित होकर और शास्ता के शासन में स्वतन्त्र होकर उसने निवेदन किया – “आश्चर्य भन्ते ! आश्चर्य भन्ते ! जैसे उलटे को सीधा कर दे, आवृत्त को अनावृत्त कर दे, मार्ग विस्मृत को मार्ग बता दे, अन्धेरे में तेल का दीपक दिखा दे, जिससे सनेत्र देख सकें; उसी प्रकार भगवान् ने अनेक प्रकार से धर्म को प्रकाशित किया है। मैं भगवान् की शरण ग्रहण करता हूँ, धर्म व भिक्षु संघ की भी । आज से मुझे अञ्जलिबद्ध शरणागत स्वीकार करें और भिक्षु संघ सहित कल के भोजन का निमन्त्रण स्वीकार करें।" भगवान् ने मौन स्वीकृति प्रदान की । अनाथपिण्डिक अभिवादन कर घर चला आया । श्रावस्ती का निमन्त्रण राजगृहक श्रेष्ठी ने अनाथपिण्डिक द्वारा भगवान् को निमंत्रित किये जाने की घटना सुनी, तो वह उसके पास आया और उसने कहा - "गृहपति ! तू अतिथि है; अतः मैं तुझे धन देता हूँ, इससे तू संघ - सहित भगवान् के भोजन की तैयारी कर ।” rateffoss ने उसे अस्वीकार करते हुए कहा- "मेरे पास धन है; अतः आवश्यकता नहीं है ।" अनाथपिण्डिक द्वारा बुद्ध को भोजन के लिए निमंत्रित किए जाने का उदन्त नैगम' ने भी सुना । उसने भी उसे धन देना चाहा, पर, उसने अनावश्यक समझ कर अस्वीकार कर दिया । revosक ने अपने ही व्यय से राजगृहक श्रेष्ठी के घर पर ही भोजन की तैयारी कराई । समय होने पर भगवान् बुद्ध को सूचना दी गई । भगवान् पूर्वाह्न के समय सुआच्छादित हो, पात्र - चीवर हाथ में ले, राजगृहक श्रेष्ठी के घर आये । बिछे आसन पर बैठे । carefulose ने अपने हाथों से भोजन परोसा । जब वे भोजन कर चुके तो गृहपति अनाथ १. श्रेष्ठी या नगर- सेठ उस समय का एक अवैतनिक राजकीय-पद था । नैगम भी इसी प्रकार का एक पद था; जो सम्भवत: नगर-सेठ से उच्चतर गिना जाता था । 2010_05 Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा प्रमुख उपासक-उपासिकाएं २४५ पिण्डिक उनके समीप बैठा और निवेदन किया -"भन्ते ! भिक्षु-संघ के साथ श्रावस्ती में वर्षावास स्वीकार करें।" बुद्ध ने कहा-“गृहपति ! तथागत शून्य आगार में ही अभिरमण करते हैं।" "भन्ते ! मैं समझ गया; सुगत ! मैं समझ गया।" गृहपति अनाथपिण्डिक के राजगृह में बहुत से मित्र थे। वहां वह अपना काम समाप्त कर श्रावस्ती की ओर चला। मार्गवर्ती ग्रामों में सर्वत्र उसने निर्देश दिया—"आर्यो ! प्रत्येक योजन पर आराम बनाओ। विहार प्रतिष्ठित करो । लोक में अब बुद्ध उत्पन्न हो गये हैं। मैंने श्रावस्ती के लिए उन्हें निमंत्रित किया है। वे इसी मार्ग से आयेंगे।" जो मार्गवर्ती धनिक थे, उन्होंने अपने व्यय से आराम बनाया और जो इतने अर्थ-सम्पन्न नहीं थे, उन्हें अनाथपिण्डिक ने धन दिया। अनाथपिण्डिक की प्रेरणा से मार्गवर्ती सभी ग्रामवासियों ने बहत शीघ्र ही आराम बनाये और विहार प्रतिष्ठित किये। जेतवन निर्माण और दान ___ अनाथपिण्डिक ने श्रावस्ती पहुँच कर आराम के उपयुक्त स्थान का चारों ओर पर्यवेक्षण किया। उसने सोचा, स्थान ऐसा होना चाहिए, जो शहर से न अधिक दूर हो, न अधिक समीप । इच्छुक व्यक्तियों को वहाँ पहुँचने में कोई बाधा भी नहीं होनी चाहिए। दिन को वहाँ भीड़ कम हो । रात को अल्प निर्घोष, विजन-वात और एकान्त हो, जो ध्यान के योग्य हो सके । उसने जेत राजकुमार का उद्यान देखा। वह उसे सब तरह से उपयुक्त जंचा । वह जेत राजकुमार के पास आया और उससे कहा-'आर्यपुत्र ! ओराम बनाने के लिए आप अपना उद्यान मुझे दें।" राजकुमार ने कहा-"गृहपति ! कोटि-संथार से भी वह उद्यान अदेय है।" अनाथपिण्डिक ने तत्काल कहा-"आर्यपुत्र ! मैंने उद्यान ले लिवा।" राजकुमार ने उसका प्रतिवाद किया- “गृहपति ! तू ने वह नहीं लिया।" लिया या नहीं, उन्होंने व्यवहार-अमात्यों (न्यायाध्यक्षों) से पूछा, तो उन्होंने कहा"आर्यपुत्र ! क्योंकि तू ने मोल किया ; अतः वह लिया गया।" अनाथपिण्डिक ने उसी समय गाड़ियां भर कर हिरण्य (मोहरें) मँगाया और जेतवन में एक दूसरे से सटा कर बिछाया। इस प्रकार अठारह करोड़ का एक चहवच्चा (छोटा तलगृह) खाली हो गया।" द्वार के कोठे के समीप थोड़ा स्थान रिक्त रह गया । अनाथपिण्डिक ने अपने नौकरों को हिरण्य लाने और उस रिक्त स्थान को भरने का निर्देश दिया। जेत राजकुमार के मन में सहसा विचार उत्पन्न हुआ---"यह गृहपति यदि इतना हिरण्य व्यय कर रहा है, तो यह कार्य भी विशेष महत्वपूर्ण है । क्यों न मैं भी इसमें सम्मिलित होऊँ।" राजकुमार ने तत्काल अनाथपिण्डिक से कहा--"गृहपति ! इस रिक्त स्थान को तू न भर। इसके लिए तू मुझे अवकाश दे। यह मेरा दान होगा।" अनाथपिण्डिक ने सोचा-"जेत राजकुमार गणमान्य पुरुष है । इस धर्म विनय में ऐसे पुरुष का अनुराग होना लाभदायक है।" उसने वह स्थान राजकुमार को दे दिया। राजकुमार ने वहाँ एक बड़ा कमरा बनवाया। अनाथपिण्डिक ने जेतवन में विहार बनवाये। उनके साथ ही परिवेण, कोठरियाँ, उपस्थानशालायें, अग्नि-शालायें, कल्पिक कुटियां, शौचस्थान, मूत्रालय, चंक्रमण-वेदिका, चंक्रमण १. विनय पिटक-अटकथा । 2010_05 Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड : १ शालायें, प्रपा, प्रपागृह, स्नानागार, पुष्करिणी व मण्डप आदि भी बनवाये ।" इस प्रकार आठ करीस भूमि में विहार आदि के निर्माण में आठ करोड़ रुपये व्यय हुए। भगवान् बुद्ध वैशाली आदि में क्रमश: चारिका करते हुए श्रावस्ती आये । अनाथपिण्डिक के जेतवन में ठहरे। सूचना पाकर अनाथपिण्डिक हर्षितचिस आया । भगवान् को अभिवादन कर एक ओर बैठ गया और उसने भिक्षु संघ - सहित दूसरे दिन के भोजन का निमन्त्रण दिया । भगवान् ने मौन रह कर उसे स्वीकार किया। दूसरे दिन अनाथपिण्डिक ने प्रत्यूष काल से ही भोजन की तैयारी आरम्भ की। समय पर संघ सहित बुद्ध आये। उन्हें अपने हाथों भोजन परोसा और संतर्पित किया । भोजन से निवृत्त होकर भगवान् जब एक ओर बैठे, तो अनाथfufuse ने विनम्र निवेदन किया- “ भन्ते ! जेतवन के लिए मैं अब क्या करूँ ?" भगवान् बुद्ध ने उत्तर दिया – “तू इसे आगत-अनागत चातुर्दिश संघ के लिऐ प्रदान २४६ कर दे ।" अनाथपिण्डिक ने बुद्ध के उस निर्देश को शिरोधार्य किया और उसी समय उसने उसे आगत-अनागत चातुर्दिश संघ को समर्पित कर दिया । भगवान् बुद्ध ने अनाथपिण्डिक के उस दान का अनुमोदन किया और आसन से उठ कर चले गये । भगवान् बुद्ध का श्रावस्ती में उसके बाद पुनः पुनः आगमन होता रहा और वे अधिकांशतया अनाथपिण्डिक के उसी जेतवन के विहार में ठहरते रहे। यहीं से उन्होंने भिक्षु संघ के लिए बहुत सारे नये नियमों की संघटना की । मृत्यु शय्या पर जीवन के अन्तिम समय में अनाथपिण्डिक रुग्ण हुआ । बुद्ध से कहलाया - " मैं रुग्ण हूँ । से यहीं मेरा वन्दन स्वीकार हो ।" सारिपुत्र से कहलाया - "कृपया, आप मेरे घर पर आकर दर्शन दें । " सारिपुत्र आनन्द को साथ लेकर अनाथपिण्डिक के घर गये । वह अनेक व्याधियों से पीड़ितथा । सारिपुत्र ने उसे इन्द्रिय-संयम और अनाशक्ति का उपदेश दिया । अनाथपिण्डिक हर्षातिरेक में रो पड़ा । बोला- “भगवन् ! मैंने शास्ता के समीप जीवन भर धर्म-कथाएँ सुनीं । पर, आज की यह धर्म-कथा प्रथम ही है ।" सारिपुत्र लौटे । अनाथपिण्डिक काल-धर्म को कर तुषित-काय ( देवलोक ) में उत्पन्न हुआ । वहाँ से अनाथपिण्डिक देवपुत्र ने जेतवन में आकर शास्ता के दर्शन किये और उनका अभिवादन किया । * अनाथपिण्डिक के अन्तिम समय में सारिपुत्र का उसके घर पहुँचना लगभग वैसा ही है, जैसा गौतम गणधर का आनन्द श्रावक के घर पहुँचना । विशाखा मृगार माता विशाखा का जन्म अंग देशान्तर्गत भद्दिया नगर में हुआ । गृहपति मेण्डक उसके दादा, धनंजय उसके पिता व सुमना देवी उसकी माता थी । गृहपति मेण्डक की गणना जोतिय, जटिल, पुण्णक और काकबलिय के साथ अमित भोग-सम्पन्न पाँच महानुभावों में की जाती ये पाँचों ही मगधराज सेनिय बिम्बिसार के राज्य में थे । पाँचों में प्रत्येक के यहाँ दिव्य बल-सम्पन्न पाँच-पाँच व्यक्ति थे । गृहपति मेण्डक के यहां वह स्वयं, उसकी पत्नी चन्द्रपद्मा, १. विनय पिटक, चुल्लवग्ग, ६-३-१ के आधार पर । २. विनय पिटक अट्ठकथा | ३. विनय पिटक, चुल्लवग्ग, ६-३-६ के आधार पर । ४. मज्झिमनिकाय, अनाथपिण्डिकोवाद सुत्त, ३-५-१ । 2010_05 Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा ] प्रमुख उपासक उपासिकाएं उसका ज्येष्ठपुत्र धनंजय, धनंजय की पत्नी सुमनादेवी व उसका दास पूरण; ये पाँच महापुण्यात्मा थे। दिव्य बल गृहपति मेण्डक स्नान से निवृत्त होकर, धान्यागार को संमार्जित करवा कर, जब उनके द्वार पर बैठता था तो आकाश से अनाज की धारा गिर कर धान्यागार को भर देती थी । चन्द्रपद्मा का दिव्य बल था कि एक आढ़क चावल व सूप से वह अपने समस्त दासदासियों को भोजन परोस सकती थी तथा जब वह वहाँ से नहीं उठती, वह सामग्री समाप्त नहीं होती । धनंजय का दिव्य बल था, एक हजार मुद्राएँ थैली में भर कर वह अपने यहाँ काम करने वाले दास, कर्मकर व सभी पुरुषों को छः मास का वेतन चुका देता था और वह थैली जब तक उसके हाथ में रहती थी, खाली नहीं होती थी । सुमनादेवी का दिव्य बल था, एक बटलोई में चार द्रोण प्रमाण अनाज भर कर दास, कर्मकर व सभी पुरुषों को छ: मास तक का भोजन दे देती थी और जब तक वह वहाँ से नहीं उठती, बटलोई खाली भी नहीं होती थी । दास पूरण का दिव्य बल था कि जब वह हल जोतता तो एक ही साथ सात सीताएं निकलती थीं । मगधराज सेनिय बिम्बिसार ने गृहपति मेण्डक के दिव्य बल के बारे में जब सुना, तो अपने एक सर्वार्थक महामात्य को उसकी पूरी छान-बीन के लिए भेजा । वह सेना के साथ गृहपति मेण्डक के घर आया, सबके दिव्य बल को प्रयोगात्मक विधि से देखा और पुन: लौट कर उसने वृत्त बिम्बिसार को निवेदित किया । २४७ बुद्ध एक बार भद्दिया आये | गृहपति मेण्डक ने सूचना पाकर विशाखा को बुद्ध का स्वागत करने का निर्देश दिया । अपने परिवार की पाँच सौ कन्याओं तथा पाँच सौ दासियों के साथ पाँच सौ रथों पर आरूढ़ होकर विशाखा चली । जहाँ तक रथ जा सकते थे, वहाँ तक रथ से और उसके बाद पैदल ही शास्ता के पास पहुँची । वन्दना की और एक ओर खड़ी हो गई । भगवान् ने उसे देशना दी । देशना के अंत में पाँच सौ कन्याओं के साथ वह स्रोतापत्ति - फल में प्रतिष्ठित हुई । मेण्डक श्रेष्ठी भी बुद्ध के पास आया, देशना सुनी और वह भी स्रोतापत्ति- फल में प्रतिष्ठित हुआ । गृहपति मेण्डक ने अगले दिन के लिए भिक्षु संघ के साथ गौतम बुद्ध को निमंत्रित किया । उत्तम खाद्य-भोज्य से उसने बुद्ध व संध को संतर्पित किया । इसी प्रकार आठ मास तक गृहपति मेण्डक ने महादान किया । शास्ता भद्दिया में यथेच्छ विचरण कर अन्यत्र चले गये । महापुण्य पुरुष का प्रेषण राजा बिम्बिसार और राजा प्रसेनजित् कोशल एक-दूसरे के बहनोई थे । राजा प्रसेनजित् कोशल ने एक बार सोचा, राजा बिम्बिसार के राज्य में पाँच अमित भोग-सम्पन्न महापुण्य व्यक्ति निवास करते हैं । मेरे राज्य में एक भी नहीं है । क्यों न बिम्बिसार से याचना कर एक महापुण्य पुरुष को मैं अपने राज्य में ले आऊँ । प्रसेनजित् कोशल राजगृह आया । बिम्बिसार ने उसका स्वागत किया और आने का कारण पूछा। प्रसेनजित् कोशल ने अपनी भावना व्यक्त की । बिम्बिसार ने कहा- "हम महाकुलों को हटा नहीं सकते ।" १. धम्मपद - अट्ठकथा, ४-८ के आधार पर | २. विनय पिटक, महावग्ग, ६-६-१ व २ के आधार पर । 2010_05 Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४८ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन प्रसेनजित् कोशल ने दृढ़ स्वर में कहा---'"बिना पाये मैं भी नहीं जाऊँगा।" राजा ने अमात्यों से परामर्श किया और निश्चय किया --"जोतिय आदि महाकुलों को कहीं अन्यत्र प्रेषित करना पृथ्वी-प्रकम्प के सदृश है; अतः यह तो उचित नहीं है । मेण्डक महाश्रेष्ठी का पुत्र धनंजय यदि जा सके तो समाधान हो सकता है।" बिम्बिसार ने धनंजय को बुलाया और कहा -“कोशल-राजा एक श्रेष्ठी को अपने राज्य का मुख्य अंग बनाना चाहते हैं । क्या तुम उसके साथ जाओगे ?' धनंजय ने विनम्रता से उत्तर दिया- "यदि आप अनुज्ञा करेंगे तो अवश्य जाऊँगा" बिम्बिसार ने प्रसन्नतापूर्वक निर्देश दिया--"तो तुम अपना प्रबन्ध करो।" धनंजय ने अपनी सारी व्यवस्थाएं कीं और राजा बिम्बिसार के पास उपस्थित हुआ। बिम्बिसार ने उसका बहुत सम्मान किया और राजा प्रसेनजित् कोशल को प्रसन्नतापूर्वक उपहार के रूप में उसे समर्पित किया। कोशल-राजा ने उसे सहर्ष स्वीकार किया और श्रावस्ती की ओर प्रयाण किया। मार्ग में एक रात ठहर कर वे दोनों श्रावस्ती के लगभग निकट पहुँच गये । श्रावस्ती वहां से केवल सात योजन दूर थी। सन्ध्या का समय हो गया था; अतः वहीं डेरा डाला गया। धनंजय ने राजा से पूछा- "यह राज्य किसका है ?'' "श्रेष्ठिन् ! मेरा ही है।" "यहाँ से श्रावस्ती कितनी दूर है?' "सात योजन ।” "नगर में जन-संकुलता अधिक होती है। हमारा परिजन-परिकर अधिक है; अतः यदि अनुज्ञा हो तो हम यहीं बस जायें।" प्रसेनजित् कोशल ने अनुज्ञा दे दी। वहीं नगर बसा दिया गया। राजा ने वह नगर और अन्य चौदह ग्राम धनंजय को प्रदान कर दिये। वहाँ सायं वास किया गया था; अतः उस नगर का साकेत नामकरण हुआ ।' विशाखा का चयन ___ श्रावस्ती में मृगार श्रेष्ठी रहता था। उसके पुत्र का नाम पूर्णवर्द्धन था । जब वह यौवन में आया, उसके विवाह की तैयारियां होने लगी। मृगार श्रेष्ठी ने अपने कुशल पुरुषों को योग्य कन्या की खोज में भेजा। श्रावस्ती में कुमार के उपयुक्त कन्या नहीं मिली । वे साकेत आये । विशाखा उस समय पाँच सौ कुमारियों के साथ एक महावापी पर उत्सव में लीन हो रही थी। वे पुरुष साकेत की गली-गली में घूमे, पर, वहाँ भी उन्हें कोई उपयुक्त कन्या दृष्टिगत नहीं हुई। वे नगर से बाहर आये और नगर-द्वार पर खड़े भावी योजनाओं पर विमर्षण कर रहे थे। सहसा वर्षा आरम्भ हो गई । विशाखा के साथ आई हुई पाँच सौ कन्याएँ भीगने के भय से शीघ्रता से दौड़ कर समीपवर्ती एक शाला में घुस गईं। उन पुरुषों ने उन्हें भी एक-एक कर देखा, पर, उन्हें कोई कन्या उपयुक्त नहीं लगी। विशाखा मन्द गति से चलती हुई उन सब से पीछे आई और शाला में प्रविष्ट हुई । उन पुरुषों ने उसे देखा। उसकी भव्यता और शालीनता से वे आकृष्ट हुए। उन्होंने यह भी सोचा, अन्य कन्याएं भी इतनी रूपवती हो सकती हैं। किसी-किसी का रूप पके नारियल की तरह होता है; अत: देखना चाहिए, वह कितनी मधुर-भाषिणी है। वे विशाखा के पास आये और उससे कहा--- "अम्म ! क्या तुम वृद्धा हो?" १. धम्मपद-अट्ठकथा, ४-८ के आधार पर। 2010_05 Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा] प्रमुख उपासक-उपासिकाएं २४६ विशाखा ने विनम्रता से कहा-"ऐसा आपने क्या देखा?" पुरुषों ने कहा---"तुम्हारे साथ क्रीड़ा करने वाली दूसरी कुमारियाँ भीगने के भय से शीघ्रता से चल कर शाला में दौड़ आई और तुम वृद्धा की तरह मन्द-मन्द चलती रहीं, तुमने साड़ी के भीगने की भी परवाह नहीं की। यदि हाथी या घोड़ा भी तुम्हारा पीछा करे तो भी क्या तुम ऐसा ही करोगी?" विशाखा की वाणी में कोमलता थी। उसने शालीनता से कहा-.-"तातो ! मेरे लिए साड़ियां दुर्लभ नहीं हैं । तरुण स्त्री बिकाऊ बर्तन की तरह होती है । हाथ-पैर टूट जाने से वह विकलांग हो जाती है । लोग उससे घृणा करने लग जाते हैं और उसे कोई ग्रहण नहीं करते, मेरी मन्द गति का यही कारण है।" आगन्तुक लोगों को गहरा सन्तोष हुआ । उन्हें दृढ़ विश्वास हुआ, यह जैसी रूप में है. वैसी ही आलाप में मधर है। सब कछ विचारपर्वक ही कहती है। उन्होंने माला को गुंडेर कर उसके ऊपर से फेंका। विशाखा को अनुभव हुआ, मैं पहले अपरिगृहीता थी और अब पलिहोता हो गई हूँ। वह संकोचवश भूमि पर वहीं बैठ गई। उसे कनात से घेर दिया गया। वह दासियों से परिवत अपने घर लौट आई। मृगार श्रेष्ठी के वे पुरुष धनंजय श्रेष्ठी के घर आये । परस्पर परिचय का आदानप्रदान हुआ । धनंजय श्रेष्ठी ने आगमन का कारण पूछा। उन्होंने अपना उद्देश्य प्रस्तुत करते हुए कहा--- "हमारे सेठ के पूर्णवर्द्धन कुमार है । वह स्वास्थ्य सौन्दर्य और गुण में श्रेष्ठ है। आपकी कन्या और हमारे कुमार यदि प्रणय-सूत्र में आबद्ध हो जायें, तो यह दोनों के लिए ही सौभाग्य वर्धक होगा।" धनंजय ने कहा--"तुम्हारे श्रेष्ठी सम्पदा में हम से न्यून हैं, किन्तु, जाति में समान हैं। सब तरह से समान मिलना तो कठिन है । जाओ, श्रेष्ठी को हमारी स्वीकृति की सूचना दे दो।" मृगार श्रेष्ठी के अनुचर शीघ्रता से लौट आये । उन्होंने उल्लास-वर्धक वह संवाद श्रेष्ठी को सुनाते हुए कहा--- "साकेत में धनंजय श्रेष्ठी की कन्या विशाखा अपने कुमार के अनुरूप है।" मगार श्रेष्ठी को इस संवाद से अत्यन्त प्रसन्नता हुई। महाकुल की कन्या अपने कुमार के लिए है ; अतः उसने धनंजय को उसी समय शासन (पत्र) लिखा। उसमें उसने लिखा-.-"हम इसी समय कन्या को लेने आयेंगे. आप अपना प्रबन्ध करें।" प्रसन्नमना धनंजय ने प्रतिशासन भेजा---"हमारे लिए यह कोई कठिन नहीं है । आप अपनी व्यवस्था करें। . मृगार श्रेष्ठी कोशल-राज के पास आया। उसने निवेदन किया-"देव ! मेरे घर एक मंगल प्रसंग है । धनंजय श्रेष्ठी अपनी कन्या विशाखा पूर्णवर्द्धन को प्रदान करेगा ; अतः मुझे साकेत जाने की आज्ञा प्रदान करें।" राजा ने आज्ञा प्रदान करते हुए पूछा----"क्या मुझे भी चलना है ?" मृगार श्रेष्ठी ने कहा "देव ! हमारा ऐसा सौभाग्य ?" राजा ने कहा ...."महाकुल-पुत्र को सन्तुष्ट करने के अभिप्राय से मैं भी चलूंगा।' विशाखा का विवाह कोशल-राज मृगार श्रेष्ठी के बृहत् परिवार के साथ साकेत आया। धनंजय ने दोनों का हार्दिक स्वागत किया। वास-स्थान, माला, गन्ध, वस्त्र आदि की प्रत्येक के लिए सुन्दर व्यवस्था की गई। सभी यह अनुभव करते थे, धनंजय श्रेष्ठी हमारा ही सत्कार कर रहा है। 2010_05 Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५० आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड :१ इस प्रकार उन्हें वहाँ रहते हुए काफी समय बीत गया। राजा ने एक दिन धनंजय को शासन (पत्र) भेज कर सावधान किया--"तुम हमारा चिरकाल तक भरण-पोषण नहीं कर सकते ; अतः कन्या की विदाई का समय निश्चित करो।" धनंजय ने राजा को प्रतिशासन भेजा--- "वर्षा ऋतु आ गई है। चार मास तक आपका प्रस्थान नहीं हो सकता। आपके परिकर का सारा दायित्व मेरे ऊपर है। जो भी आवश्यक हो, आदेश करें । मेरे निवेदन के अनन्तर ही आप प्रस्थान का निश्चय करें।" साकेत में प्रतिदिन महोत्सव होने लगे । तीन मास बीत गये। विशाखा का महालसा आभूषण तब भी तैयार न हो सका। प्रबन्ध-कर्ता श्रेष्ठी के पास आये और उन्होंने कहा"स्वामिन् ! आपके घर किसी वस्तु की अल्पता नहीं है। भोजन पकाने के लिए ईंधन की अल्पता हो गई।" श्रेष्ठी ने तत्काल निर्देश दिया--"गजशाला, अश्वशाला और गोशाला के स्तम्भ उखाड़ लो और उन्हें ईधन के रूप में काम लो।" वैसा ही किया गया, किन्तु. आधा महीना ही बीता होगा कि ईंधन की फिर अल्पता हो गई । श्रेष्ठी को स्थिति से पुन: परिचित किया गया। श्रेष्ठी ने निर्देश दिया--"इस समय ईबन सुलभता से नहीं मिल सकता ; अतः कपड़े के गोदाम खोल दो। मोटी-मोटी साड़ियों की बत्ती बनाओ, तेल में भिगोओ, उन्हें जलाओ और भोजन पकाओ।" चार मास का समय पूरा हो गया । विशाखा का महालता प्रसाधन भी बन कर तैयार हो गया। दस शिक्षाएं धनंजय ने विशाखा को पतिगृह-प्रेषित करने का निश्चय किया। कन्या को अपने पास बुलाया और उसे पतिकुल का आचार बताते हुए दस शिक्षाएं दी : १. घर की आग बाहर नहीं ले जानी चाहिए। २. बाहर की आग घर में नहीं लानी चाहिए। ३. देने वालों को ही देना चाहिए। ४. न देने वालों को नहीं देना चाहिए। ५. देने वालों को व न देने वालों को भी देना चाहिए। ६. सुख से बैठना चाहिए। .. ७. सुख से खाना चाहिए। ८. सुख से लेटना चाहिए। ... ६. अग्नि की तरह परिचरण करना चाहिए। १०. घर के देवताओं को नमस्कार करना चाहिए । धनंजय विशाखा को जब ये शिक्षाएं दे रहा था ; मृगार श्रेष्ठी ने भी बाहर बैठे यह सब कुछ सुना। दहेज धनंजय ने सभी श्रेणियों को एकत्रित किया और राज-सेना के बीच आठ कौटुम्बिकों (पंचों) को दायित्व सौंपा .. "यदि पति-गृह में मेरी कन्या का कोई अपराध हो जाय, तो आप उसका शोधन करना।" धनंजय ने विशाखा को नौ करोड के य महालता प्रसाधन (एक प्रकार का आभूषण) से विभूषित किया और दहेज में प्रचुर धन-सामग्री दी। वह सामी पचपन सौ गाड़ों में भरी गई । पाँच-पांच सौ गाड़ों में धन, स्वर्ण, रजत और ताम्र के आभूषण, सिक्के व बर्तन थे । पाँच-पाँच सौ गाड़ों में घी, चावल और धान था । पन्द्रह ____ 2010_05 Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा] प्रमुख उपासक-उपासिकाएं २५१ सौ गाड़ों में खेती का सामान था। पांच सौ उत्तम रथ थे, जिनमें प्र.येक में तीन-तीन दासियाँ थीं। पौन गावुत लम्बे और आठ यष्टि चौड़े समतल मैदान में जितने दुधारू पशु समा सकते थे, उतने पशु भी दहेज में दिये गये। जब वे सभी पशु श्रावस्ती की ओर प्रयाण करने लगे, तो धनंजय के साठ हजार वृषभ और साठ हजार गौएं भी अपने-अपने गोष्ठ को छोड़ कर उन पशुओं के पीछे-पीछे हो गई। धनंजय की अधीनता में चौदह ग्राम थे। विशाखा जब ससुराल जाने लगी तो सभी ग्रामों के नागरिक अत्यन्त खिन्न हुए। धनंजय ने घोषणा की--"कोई भी नागरिक विशाखा के साथ जाना चाहे तो जा सकता है ।" विशाखा बहुत लोकप्रिय थी। सारे ही ग्राम खाली हो गये और नागरिक विशाखा के साथ जाने लगे । श्रेष्ठी मृगार ने सोचा, इन सहस्रों लोगों को मैं भोजन कैसे करवा सकूँगा। उसने उन सबको प्रतिविसर्जित कर दिया। श्वसुरालय में पितृ-गृह से प्रस्थान कर बृहत् परिवार के साथ विशाखा श्रावस्ती के नगर-द्वार पर पहुंची। सहसा उसके मन में आया, आवृत्त यान में बैठ कर नगर-प्रवेश करूँ या अनावृत्त यान में खड़े होकर । यदि आवृत्त यान से प्रवेश करूँगी, तो जनता मेरे महालता-प्रसाधन की विशेषता से परिचित नहीं हो सकेगी। उसने अनावृत्त यान से ही नगर-प्रवेश किया। श्रावस्ती के नागरिकों ने विशाखा के सौन्दर्य और ऐश्वर्य को जी-भर कर देखा और भूरिभरि प्रशंसा की। 'बारात में धनंजय ने हमारा बहुत स्वागत किया', इस विचार से नागरिकों ने विशाखा को बहुत सारे उपहार भेंट किये । विशाखा ने उन्हें स्वीकार किया और एकदूसरे कुल में उन्हें वितरित कर दिया। जिस दिन विशाखा श्वसुरालय में आई, उस रात में एक आजन्य घोड़ी को गर्भ-वेदना हई । विशाखा अपने महल से चली। उसके साथ उसका दासी-परिवार भी हाथ में मशाल लिये हुए था। विशाखा ने घोड़ी को गर्म पानी से नहलाया, तेल से मालिश करवाई और प्रसव होने पर वह अपने वास-स्थान लौट आई। निर्ग्रन्थों से घृणा मृगार श्रेष्ठी ने एक साताह तक विवाहोत्सव मनाया । वह निर्ग्रन्थों का अनुयायी था ; अतः उसने इस उपलक्ष पर सातवें दिन बहुत सारे निर्ग्रन्थों को आमन्त्रित किया, किन्तु, गौतम बुद्ध को आमंत्रित नहीं किया। निर्ग्रन्थों से उसका सारा घर भर गया । श्रेष्ठी ने विशाखा को शासन भेजा--"अपने घर अर्हत् आये हैं; अतः तुम आकर उन्हें वन्दना करो।" विशाखा स्रोतापन्न आर्य श्राविका थी। अर्हत् का नाम सुन कर वह बहुत हृष्ट-तुष्ट हुई । वह तत्काल तैयार हुई और वन्दना करने के लिए चली आई। उसने जब नग्न निर्ग्रन्थों को देखा, तो वह सहसा सिहर उठी। उसके मुंह से कुछ शब्द निकल ही पड़े---"क्या अर्हत् ऐसे ही होते हैं ? मेरे श्वसुर ने इन लज्जा-हीन श्रमणों के पास मुझे क्यों बुलाया ? धिक्, धिम् ।" वह उसी क्षण अपने महल में लौट आई। नग्न श्रमण विशाखा के उस व्यवहार से बहुत खिन्न हुए। उन्होंने मृगार श्रेष्ठी को कड़ा उलहाना देते हुए कहा--"श्रेष्ठिन् ! क्या तुझे दूसरी कन्या नहीं मिली ? श्रमण गौतम की इस महाकुलक्षणा श्राविका को अपने घर क्यों लाया ? यह तो जलती हुई गाडर है। शीघ्र ही इसे घर से निकालो।" ____ 2010_05 Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५२ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड : १ मगार श्रेष्ठी असमंजस में पड़ गया। उसने सोचा, विशाखा महाकुल की कन्या है। इनके कथन मात्र से इसे निकाला नहीं जा सकता । न निकालने पर श्रमणों का कोप भी उससे अपरिचित नहीं था। उसने अत्यधिक विनम्रता के साथ उनसे क्षमा मांगी और उन्हें ससम्मान विदा किया । स्वयं बड़े आसन पर बैठा। सोने की कलछी से सोने की थाली में परोसा गया निर्जल मधुर क्षीर भोजन करने लगा। उसी समय एक स्थविर भिक्षु पिण्डचार करता हुआ श्रेष्ठी के गह-द्वार पर आया। विशाखा ने उसे देखा । श्वसुर को सूचित करना उसे उचित नहीं लगा ; अतः वह वहाँ से हट कर एक ओर इस प्रकार खड़ी हो गई, जिससे मृगार श्रेष्ठी भिक्षु को अच्छी तरह से देख सके । मूर्ख श्रेष्ठी स्थविर को देखता हुआ भी न देखते हुए की तरह नीचा मुंह कर पायस खाता रहा। विशाखा ने जब यह सारा दृश्य देखा, तो उससे नहीं रहा गया। स्थविर को लक्ष्य कर वह बोली-“भन्ते ! आगे जायें । मेरा श्वसुर बासी खा रहा है।" श्रेष्ठी का रोष निर्ग्रन्थों के प्रति विशाखा द्वारा हुए असभ्य व्यवहार से ही मृगार श्रेष्ठी बहुत रुष्ट था और जब उसने अपने प्रति 'बासी खा रहा है', यह सुना तो उसके कोप का ठिकाना नहीं रहा। उसने भोजन से हाथ खींच लिया और अपने अनुचरों को निर्देश दिया--"इस पायस को ले जाओ और इसे (विशाखा को) भी घर से निकालो। यह मुझे ऐसे मंगल घर में भी अशुचिभोजी बना रही है।" सभी अनुचर विशाखा के अधिकार में थे और उसके प्रति उनकी गहरी निष्ठा थी। उसे पकड़ने की बात तो दूर रही, उसके प्रति असभ्य शब्द का व्यवहार भी कोई नहीं कर सकता था। विशाखा श्वसुर को सम्बोधित करती हुई बोली-“तात ! मैं ऐसे नहीं निकल सकती । आप मुझे किसी पनिहारिन की तरह नहीं लाये हैं। माता-पिता की वर्तमानता में कन्याओं के साथ ऐसा व्यवहार नहीं किया जा सकता। मेरे पिता ने जिस दिन मुझे अपने घर से विदा किया था, आठ कौटुम्बिकों को मेरे अपराध के शोधन का दायित्व सौंपा था। उन्हें बुला कर पहले आप मेरे दोष का परिशोधन करें।" कौटुम्बिकों के बीच शिक्षाओं का स्पष्टीकरण मृगार श्रेष्ठी ने आठों कौटुंम्बिकों को बुलाया और सरोष वह सारी घटना सुनाई। कौटुम्बिकों ने विशाखा से सारी स्थिति की जानकारी चाही । विशाखा ने कहा- "मेरे श्वसुर अशुचि-भोजी बनना चाहते होंगे । मैंने तो इनके साथ ऐसा कोई व्यवहार नहीं किया। एक पिण्डपातिक (माधुकरी वृत्ति वाले) स्थविर भिक्षु द्वार पर खड़े थे । श्रेष्ठी उनकी ओर ध्यान न देकर निर्जल पायस खाये जा रहे थे । इस दृश्य को लक्षित कर मैंने भिक्षु से कहा था ... भन्ते ! आप आगे जायें । मेरा श्वसुर इस शरीर में पुण्य नहीं करता। पूर्व पुण्य को ही खा रहा है ।' आप ही बतायें, मैंने इसमें क्या अशिष्ट व्यवहार किया ?" कौटुम्बिकों ने विशाखा को निर्दोष प्रमाणित करते हुए निर्णय दिया--"यह दोष नहीं है ; क्योंकि हमारी पुत्री आपकी पुण्यशालिता का यौक्तिक कारण बतलाती है।" श्रेष्ठी ने अन्यमनस्कता के साथ उस प्रसंग को टालते हुए विशाखा पर आरोप मढ़ा - "यह कन्या जिस दिन मेरे घर आई थी; उस दिन मेरे पुत्र का विचार न कर अपनी रुचि के स्थान पर चली गई। क्या यह इसके अनुरूप था ?" स्पष्टीकरण के अभिप्राय से कौटुम्बिकों ने जब विशाखा की ओर देखा तो वह बोली"मैं अपनी रुचि के स्थान पर नहीं गई । इसी घर में आजन्य घोड़ी के प्रसव-समय की ____ 2010_05 Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा] प्रमुख उपासक उपासिकाएं ओर ध्यान न देकर ऐसे ही बैठे रहना अनुचित था ; अतः मशालों सहित दासियों के परिमैं वहाँ गई और मैंने प्रसव उपचार करवाया ।" वार कौटुम्बिकों ने निर्णय दिया – “आर्य ! हमारी पुत्री ने तुम्हारे घर दासियों के भी न करने का काम किया है; अतः इसमें आप क्या दोष देखते हैं ?" मृगार श्रेष्ठी ने आक्रोशपूर्वक कहा - " यह चाहे गुण भी हो, पर, जब यह यहाँ आ रही थी, तब इसके पिता ने इसे शिक्षा दी थी, घर की आग बाहर नहीं ले जानी चाहिए । क्या दोनों ओर पड़ोसियों के घर बिना आग के रह सकते हैं ?" २५३ कौटुम्बिकों ने विशाखा की ओर देखा तो उसने कहा- “मेरे पिता ने इस आग को लेकर नहीं कहा, अपितु इस अभिप्राय से कहा था, घर में सास आदि स्त्रियों की गुप्त बातें दास-दासियों को नहीं कहनी चाहिए। ये बातें धीरे-धीरे उग्र कलह का रूप ले लेती हैं ।" मृगार श्रेष्ठी की बातें ज्यों-ज्यों कटती गईं, त्यों-त्यों वह एक-एक कर अन्य बातें भी कहता गया । उसने कहा - " चाहे यह इसका दोष न भी हो, पर, इसके पिता ने कहा था, बाहर की आग घर में नहीं लानी चाहिए। घर में आग बुझ जाने पर भी क्या बाहर से आग लाये बिना काम चल सकता है ?" कटुकों के संकेत पर विशाखा ने हार्द स्पष्ट करते हुए कहा- - "मेरे पिता ने इस आग के बारे में नहीं कहा था, अपितु उनका अभिप्राय था, कर्मकरों की गल्तियाँ पारिवारिकों को नहीं कहनी चाहिए, क्योंकि उससे कर्मकरों के प्रति अविश्वास की भावना बढ़ती है।" मृगार श्रेष्ठी ने कहा, विशाखा के पिता ने और भी तो कहा था, उसका हार्द क्या था ? मैं उसे भी जानना चाहता हूँ । विशाखा ने उत्तर देना प्रारम्भ किया- 'देते हैं उन्हें ही देना चाहिए', नहीं 'देने वालों को नहीं देना चाहिए - यह मंगनी को लक्षित कर कहा गया था । 'देने वालों को और न देने वालों को भी देना चाहिए'; यह इस अभिप्राय से कहा था कि अमीर व गरीब अपने जाति-मित्रों को; चाहे वे प्रतिदान न भी कर सकें, देना ही चाहिए। 'सुख से बैठना चाहिए' का तात्पर्य था, सास श्वसुर को देख कर उठने के स्थान पर नहीं बैठना चाहिए । 'सुख से खाना चाहिए' का तात्पर्य था, सास- श्वसुर व स्वामी के भोजन करने से पूर्व भोजन नहीं करना चाहिए | सबने भोजन किया या नहीं किया, यह जानकर ही स्वयं को भोजन करना चाहिए । 'सुख से लेटना चाहिए' का तात्पर्य था, सास, श्वसुर व पति की परिचर्या कर, उनके लेटने के बाद लेटना चाहिए । 'अग्नि की तरह परिचरण करना चाहिए' का तात्पर्य था, सास, श्वसुर व पति को अग्नि-पुंज की भाँति समझना चाहिए । 'घर के देवताओं को नमस्कार करना चाहिए' का तात्पर्य था, घर आये प्रव्रजितों को उत्तम खाद्य-भोज्य से सन्तर्पित कर ही भोजन करना चाहिए । टुम्बिकों ने तत्काल मृगार श्रेष्ठी से प्रश्न किया - " क्या आपको प्रव्रजितों को देख कर न देना ही उचित मालूम देता है ?” श्रेष्ठी कुछ भी उत्तर न दे सका । अधोमुख होकर बैठ गया। १ १. इसी प्रकार के पदार्थ - कथानक जैन परम्परा में भी अनेक प्रचलित हैं । 'मुनिवर अजहुँ सवार', 'पुत्र को चार शिक्षाएं' आदि प्रचलित कथानक तुलनात्मक दृष्टि से बहुत ही सरस एवं महत्वपूर्ण हैं । 2010_05 Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम और त्रिपिटक एक अनुशीलन [खण्ड : १ stefani ने सात्विक गौरव की एक अनुभूति करते हुए पूछा - "श्रेष्ठिन् ! हमारी पुत्री में क्या और भी कोई दोष है ?" श्रेष्ठी ने नकारात्मक उत्तर दिया। कौटुम्बिकों ने निर्देशन की भाषा में कहा - "फिर निष्कारण ही हमारी पुत्री को आप घर से क्यों निकलवाते थे ?" २५४ विशाखा का स्वाभिमान चमक उठा। उसने कौटुम्बिकों की ओर इंगित कर सरोष कहा - " श्वसुर के कहने से मेरा जाना उचित न था । मेरे अपराध-शोधन का दायित्व पिताजी ने आप पर छोड़ा था। आपने मुझे दोष मुक्त कर दिया है; अतः अब मैं जा रही हूँ ।" उसने दास-दासियों को निर्देश दिया--" रथ तैयार करो ।” मृगार श्रेष्ठी हतप्रभ सा कौटुम्बिकों की ओर देखने लगा। वह न उगल सका और न निगल सका । अधीर की तरह उसने विशाखा से कहा- " मैंने यह अनजान में कह डाला । तुम मुझे क्षमा करो। " मृगार निर्ग्रन्थ-संघ से बुद्ध-संघ की ओर ' विशाखा ने क्षमा-प्रदान करते हुए अपनी एक शर्त प्रस्तुत की। उसने कहा- "मैं बुद्ध-धर्म में अत्यन्त अनुरक्त कुल की कन्या हूँ। मैं भिक्षु संघ की सेवा के बिना नहीं रह सकती । यदि मुझे भिक्षु संघ की सेवा का यथेच्छ अवसर दिया जाये तो मैं रहूँगी, अन्यथा इस घर में रहने के लिए कतई प्रस्तुत नहीं हूँ ।" मृगार श्रेष्ठी ने विशाखा की शर्त स्वीकार की और एक अपवाद संयोजित किया - "बुद्ध का स्वागत तुझे ही करना होगा। मैं उसमें उपस्थित होना नहीं चाहता ।" विशाखा ने दूसरे ही दिन बुद्ध को ससंघ निमन्त्रित किया । बुद्ध जब उसके घर आये तो सारा घर भिक्षुओं से भर गया । विशाखा ने उनका हार्दिक स्वागत किया । नग्न श्रमणों (निर्ग्रन्थों) ने जब यह वृत्तान्त सुना, तो वे भी दौड़े आये और उन्होंने मृगार श्रेष्ठी के घर को चारों ओर से घेर लिया। विशाखा ने बुद्ध प्रभृति को दक्षिणोदक दिया और श्वसुर के पास शासन भेजा - सत्कार विधि सम्पन्न हो गई है, आप आकर भोजन परोसें श्रेष्ठी निर्ग्रन्थों के प्रभाव में था, अतः नहीं आया । भोजन समाप्त हो चुकने पर विशाखा ने फिर शासन भेजा, श्वसुर बुद्ध का धर्मोपदेश सुनें । अब न जाना अनुचित होगा, यह सोचकर मृगार श्रेष्ठी अपने कक्ष से चला । नग्न श्रमणों (निर्ग्रन्थों) ने आकर उसे रोका और कहा-" श्रमण गौतम का धर्मोपदेश कनात के बाहर रह कर सुनना ।' मृगार श्रेष्ठी ने वैसा ही किया। वह कनात के बाहर से उपदेश सुनने लगा । बुद्ध ने उसे सम्बोधित करते हुए कहा—“तू चाहे कनात के बाहर, दिवाल या पर्वत की आड़ में व चक्रवाल के अन्तिम छोर पर भी क्यों न बैठें, मैं बुद्ध हूँ; अतः तुझे उपदेश सुना सकता हूँ ।". मृगार - माता बुद्ध ने उपदेश प्रारम्भ किया। सुनहले, पके फलों से लदी आम्रवृक्ष की शाखा को झकझोरने पर जैसे फल गिरने लगते हैं, उसी प्रकार श्र ेष्ठी के पाप विनष्ट होने लगे और उपदेश समाप्त होते-होते वह स्रोतापत्ति-फल में प्रतिष्ठित हो गया । उसने तत्काल कनात को हटाया, आगे बढ़ा, पाँचों अंगों को भूतल तक नमाया और शास्ता की चरण-धूलि लेकर नमस्कार किया । शास्ता के सामने ही उसने विशाखा को सम्बोधित करते हुए कहा -- "अम्म ! आज से तू मेरी माता है ।" श्रेष्ठी ने तत्काल उसे माता के स्थान पर प्रतिष्ठित 2010_05 Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा] प्रमुख उपासक-उपासिकाएं २५५ करते हुए उसका स्तन-पान किया। विशाखा के नाम के साथ उस दिन से 'मृगार-माता' शब्द और संयुक्त हो गया। विशाखा के एक पुत्र का नाम भी मृगार रखा गया।' मगार श्रेष्ठी की ओर से मातृ-पद-प्रदान के उपलक्ष में विशाखा मगार-माता का अभिनन्दन किया गया। उस समारोह में बुद्ध को भी ससंघ आमन्त्रित किया गया । सोलह घड़े पुष्पसार से उसे नहलाया गया और मृगार श्रेष्ठी की ओर से एक लाख मूल्य का 'घन मत्थक प्रसाधन' आभूषण विशाखा को भेंट किया गया। विशाखा मगार-माता प्रतिदिन पाँचसौ भिक्षुओं को अपने घर पर भोजन के लिए निमंत्रित करती थी। बुद्ध का प्रतिदिन उपदेश सुनती थी और विहार में जाकर आगन्तुक, प्रतिष्ठासु, रोगी व शैक्ष भिक्षु-भिक्षुणियों की आवश्यकताओं की देख-भाल करती थी। पूर्वाराम-निर्माण उत्सव का दिन था। सभी व्यक्ति विशेष सज्जा के साथ तैयार होकर धर्म-श्रवण के लिए विहार की ओर जा रहे थे । विशाखा ने भी निमंत्रित स्थान पर भोजन किया, महालता प्रसाधन से अलंकृत हुई और जनता के साथ विहार में आई । महालता प्रसाधन तथा अन्य आभूषण उसने उतार कर दासी को दिये और कहा-“शास्ता के पास से लौटते समय मैं इन्हें पहनूंगी।" विशाखा ने धर्मोपदेश सुना और वन्दना कर लौट आई। दासी आभूषणों को वहीं भूल गई । परिषद् के चले जाने पर कुछ भी यदि वहाँ छूट जाता तो आनन्द स्थविर उसे संभालते । महालता प्रसाधन को उन्होंने सम्भाला और शास्ता को उसकी सूचना दी। सास्ता ने उसे एक ओर रख देने का परामर्श दिया। आनन्द ने उसे सीढ़ी के पास रख दिया। विशाखा सुप्रिया दासी के साथ आगन्तुक, गमिक व रोगी आदि की सार-सम्भाल के लिए विहार में घूमती रही। दूसरे द्वार से निकलकर विहार से बाहर आई । दासी से महालता प्रसाधनव अन्य आभूषण माँगे। दासी को अपनी गलती का भान हुआ। उसने अपनी स्वामिनी से वस्तुस्थिति निवेदित की । विशाखा ने कहा- “जा उन्हें अब ले आ। किन्तु, ध्यान रखना, यदि स्थविर आनन्द ने उठाकर कहीं रख दिया हो, तो न लाना। मैं उसे आर्य ही को प्रदान करती हूँ।" दासी विहार में आई । आनन्द स्थविर ने उसे देखा । आगमन का कारण पूछा। सुप्रिया ने अपना उद्देश्य स्पष्ट किया। आनन्द स्थविर ने कहा-"मैंने उसे उठाकर सीढ़ी के पास रख दिया है; तू उसे ले जा।" सुप्रिया यह कहती हुई लौट आई कि आपके हाथ से छू जाने पर ये आभूषण मेरी आयिका के पहनने के अयोग्य हो गये हैं। विशाखा ने जब यह सारा उदन्त सुना तो उसने उसे आर्यों को ही समर्पित कर दिया। किन्तु, आर्यों को उसकी सुरक्षा में दुविधा होगी। उससे कल्प्य वस्तुएं बनवाऊँगी; यह सोचकर दासी के द्वारा उसने उस प्रसाधन को मंगवा लिया। विशाखा ने उसे नहीं पहना । उसने उसे बेचने का संकल्प किया । स्वर्णकारों को बुलाकर उसका मूल्यपूछा गया। उन्होंने नौ करोड़ उसका मूल्य और एक लाख उसकी बनवाई बताई। उसने उस मूल्य पर आभूषण बेच देने को कहा । किन्तु, इतनी बड़ी राशि देकर उसे कोई नहीं खरीद सकता था ; अत: उसने उसे स्वयं खरीदा। नौ करोड़ और एक लाख मुद्राएं गाड़ों १. धम्मपद-अट्ठकथा, ४-८ के आधार पर। २. Dictionary of Pali Proper Names. Vol, II, P.902 ३. जातक (हिन्दी अनुवाद), भाग ४, पृ० १४४ । ४. धम्मपद-अट्ठकथा, पृ० १-१२८ । 2010_05 Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [ खण्ड : १ में भरवा कर वह विहार में आई। शास्ता को नमस्कार कर उसने निवेदन किया “भन्ते ! आनन्द स्थविर के हाथ से मेरा आभूषण छू गया था; अतः मैं इसे नहीं पहन सकती । मैंने इसे आर्यों को समर्पित किया है। आर्यों के कल्प्य की वस्तुएं खरीदने के अभिप्राय से मैंने इसे बेच दिया। इतनी बड़ी राशि देकर अन्य कोई नहीं खरीद सकता था; अतः मैंने ही इसे खरीदा है । भिक्षुओं के चारों प्रत्ययों में से मैं किसे लाऊँ ? २५६ तथागत ने पूर्व-द्वार पर वास स्थान बनाने का सुझाव दिया। विशाखा ने उस सुझाव कोयान्वित किया | नौ करोड़ से उसने भूमि को खरीदा और पूर्वाराम में प्रासाद निर्माण काँ काम आरम्भ हो गया । शास्ता का प्रस्थान शास्ता स्वभावतः ही विशाखा के घर भिक्षा ग्रहण कर, नगर के दक्षिण-द्वार से निर्गमन कर, जेतवन में निवास करते थे और अनाथपिण्डिक के घर भिक्षा ग्रहण कर, नगर के पूर्वद्वार से निर्गमन कर, पूर्वाराम में वास करते थे । जब वे नगर के उत्तर-द्वार की ओर अभिमुख होते, जनता समझ लेती शास्ता चारिका के लिए प्रस्थान कर रहे हैं। विशाखा ने एक दिन शास्ता को उत्तर के द्वार की ओर प्रयाण करते हुए देखा। वह शीघ्र ही शास्ता के समीप आई और वन्दना कर व्यग्रता के साथ बोली- “ भन्ते ! आप चारिका के लिए जाना चाहते हैं ?" "हाँ, विशाखे !" विशाखा का हृदय मूँह की ओर आ गया । उसने रूँधे हुए गले से कहा - " भन्ते ! इतना धन देकर मैं तो आपके लिए विहार बनवा रही हूँ और आप गमन कर रहे हैं ? नहीं, ऐसा नहीं करें, पुनः लौट चलें ।" "यह गमन लौटने का नहीं है ।" "भन्ते ! तो फिर कृत-अकृत के ज्ञाता किसी एक भिक्षु को तो आप मेरे लिए लौटा कर जायें।" "विशाखे ! जिस भिक्षु को तू चाहे, उसका पात्र ले ले ।” विशाखा ने आनन्द स्थविर का पात्र ग्रहण करने की ठानी। दूसरे ही क्षण उसके मन में आया, आयुष्मान् महामौग्गल्लान ऋद्धिमान् हैं। उनके ऋद्धि-बल से विहार-निर्माण का कार्य शीघ्र ही समाप्त हो सकेगा । उसने उनका पात्र ग्रहण कर लिया । मौद्गल्यायन ने शास्ता की ओर देखा । शास्ता ने निर्देश दिया – “मोग्गल्लान ! पाँचसो भिक्षुओं के अपने पूरे परिवार के साथ लौट जाओ ।" मोग्गलान लौट आये। उनके ऋद्धि-बल से प्रासाद- निर्माण का कार्य बहुत सुगम हो गया । विशाखा के कर्मकर पच्चास-साठ योजन से वृक्ष या पाषाण लेकर उसी दिन लौट आते थे । गाड़ियों पर वृक्षों और पाषाणों को लादने में उन्हें कोई कठिनता नहीं होती थी और न गाड़ियों का बुरा ही टूटता था। दो मंजिल का विशाल प्रासाद बनकर शीघ्र ही तैयार हो गया । प्रत्येक मंजिल में पाँच-पाँचसी छोटे-बड़े कमरे थे । विहार के निर्माण में नौ करोड़ की राशि व्यय हुई । मास की अवधि समाप्त होने पर चारिका करते हुए शास्ता पुनः श्रावस्ती आये । विशाखा के प्रसाद निर्माण का कार्य तब तक समाप्त हो चुका था । जेतवन में ठहरने के अभिप्राय से शास्ता उस ओर चले। विशाखा ने जब यह सुना, तो वह शास्ता के पास आई और उन्हें संघ के साथ अपने यहाँ ही चातुर्मासिक प्रवास के लिए अनुनय किया; क्योंकि वह प्रासाद का उत्सव करना चाहती थी । बुद्ध ने उसे स्वीकार किया । 2010_05 Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा] प्रमुख उपासक-उपासिकाएं २५७ सखी का गलीचा विशाखा की एक सखी एक दिन उसके पास आई। वह अपने साथ एक सहस्र मूल्य का गलीचा भी लाई थी। उसने विशाखा से कहा- "मैं यह गलीचा तेरे प्रासाद में कहीं बिछाना चाहती हूँ। तू मुझे स्थान बता।" विशाखा ने कहा- "यदि मैं तुझे कह कि अवकाश नहीं है तो तू समझेगी, मैं तुझे प्रासाद में स्थान देना नहीं चाहती; अतः तू ही दोनों मंजिलों को गौर से देख ले और जहाँ तुझे उचित स्थान मिले, वहाँ अपना गलीचा बिछा दे।" सखी प्रासाद में चारों ओर घूमी, पर, उसे कोई फर्श खाली नहीं मिला। वह जहाँ गई, उसे अपने से अधिक बहुमूल्य गलीचे बिछे मिले । वह दुःखित होकर रो पड़ी। आनन्द स्थविर ने उसे देखा । स्थविर ने उससे पूछा तो उसने अपना हृदय खोल दिया। आनन्द ने उसे सान्त्वना दी और स्थान बताते हुए कहा --"सीढ़ी और पैर धोने के स्थान के बीच इसे पादपोंछन बनाकर बिछा दे। भिक्षु पैर धोकर इससे पोंछेगे और फिर कमरे में प्रवेश करेंगे। इससे तुझे महाफल होगा।" विशाखा का उस स्थान की ओर ध्यान नहीं गया था। प्रासाद का उत्सव विशाखा ने चार ही महीने तक बुद्ध-प्रभृति भिक्षु-संघ को विहार में ही भिक्षा-दान किया । उसने अन्तिम दिन संघ को चीवर-शाटक दिये । सब से नये भिक्षु को दिये गये चीवर का मूल्य सहस्र था। सभी भिक्षुओं को पात्र भरकर भैषज्य (घी, गुड़ आदि) दिया गया। दान देने में नौ करोड़ व्यय हुआ। इस प्रकार भूमि खरीदने में, विहार निर्माण में और विहारउत्सव में विशाखा ने सत्ताईस करोड़ की राशि व्यय को । एक महिला और मिथ्या-दृष्टि के घर में वास करते हुए बुद्ध-शासन में उसने जो दान किया, वैसा दूसरे का नहीं था।' भिक्षओं द्वारा नग्न ही स्नान भगवान् बुद्ध वाराणसी से क्रमशः चारिका करते हुए श्रावस्ती पहुँचे। अनाथपिण्डिक के जेतवन में ठहरे। विशाखा मृगार-माता भगवान् को अभिवादन करने गई। धर्म-कथा द्वारा भगवान् ने उसे समुत्तेजित व सम्प्रहर्षित किया। विशाखा ने भगवान् को भिक्षु-संघ के साथ अगले दिन के भोजन का निमंत्रण दिया। भगवान् ने मौन रहकर उस निमंत्रण को स्वीकार किया। रात बीतने पर चातुर्दीपिक महामेघ बरसाने लगा । बुद्ध ने भिक्षुओं को कहा"जेतवन में जैसे यह मेघ बरस रहा है, वैसे ही चारों द्वीपों में बरस रहा है । यह अन्तिम चातुर्दीपिक महामेघ है; अत: इसमें स्नान करो।" भिक्षुओं ने उस निर्देश को स्वीकार किया और वस्त्र उतार कर नग्न ही स्नान करने लगे। विशाखा ने दासी को भोजन-काल की सूचना के लिए विहार में भेजा । दासी ने नग्न भिक्षुओं को स्नान करते देखा, तो उल्टे पैरों लौट आई और उसने विशाखा को परिस्थिति से अवगत किया--"वहाँ तो शाक्य भिक्षु नहीं हैं, आजीवक भिक्षु हैं; अत: वर्षा में नग्न स्नान कर रहे हैं।" विशाखा चतुर थी। उसने स्थिति को तत्काल भाँप लिया। उसने दासी को काल की सूचना का दूसरी बार निर्देश दिया। दासी पुन: आराम में आई। भिक्षु उस समय स्नान कर, शरीर को शान्त कर, वस्त्र पहन अपनेअपने विहार में चले गए थे। दासी को आराम में कोई भिक्षु नहीं मिला । वह पुन: लौट आई। विशाखा को सारी परिस्थिति से परिचित किया। विशाखा ने सोचा, आर्य लोग स्नान १. धम्मपद-अट्ठकथा, ४-४ के आधार पर। 2010_05 | Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन से निवृत्त होकर निश्चित ही विहार में चले गये होंगे; इसीलिए इसे आराम सूना मिला है। उसने दासी को पुन: भेजा । २५८ भोजन का समय हो जाने पर भगवान् ने भिक्षुओं को पात्र चीवर तैयार करने का निर्देश दिया । भिक्षु शीघ्र ही तैयार हुए। कोई बलशाली पुरुष फैली हुई बाँह को जैसे समेटे और समेटी हुई बाँह को जैसे फैलाये और उसमें उसे किसी प्रयत्न विशेष की आवश्यकता नहीं होती, उसी प्रकार बुद्ध बिना प्रयास ही जेतवन में अन्तर्धान हुए व विशाखा के घर प्रकट हुए और संघ के साथ बिछे आसन पर बैठे । विशाखा ने साश्चर्यं कहा - " तथागत की महद्धिकता स्तुत्य है । सारे शहर में जँघा तक व कही-कही कमर तक पानी भरा है और एक भिक्षु का पैर या चीवर भी नहीं भीगा ।" उसने अतीव हर्षित होकर बुद्ध प्रमुख भिक्षु संघ को उत्तम खाद्य-भोज्य परोसा और उन्हें संतर्पित किया । आठ वर बुद्ध जब भोजन से निवृत्त हो गये, तो वह एक ओर बैठ गई और उसने बुद्ध से कहा“भन्ते ! मैं कुछ वर माँगती हूँ ।" " तथागत वर से दूर हो चुके हैं ।" " भन्ते ! वे कल्प्य और निर्दोष हैं ।” बुद्ध से अनुमति पाकर विशाखा ने वर माँगते हुए कहा १. मैं यावज्जीवन संघ को वर्षा की वार्षिक साटिका देना चाहती हूँ 1 २. मैं यावज्जीवन नवागन्तुकों को भोजन देना चाहती हूँ । ३. मैं यावज्जीवन गमिकों (प्रस्थान करने वाले भिक्षुओं) को भोजन देना चाहती हूँ । ४. मैं यावज्जीवन रोगी को भोजन देना चाहती हूँ । ५. मैं यावज्जीवन रोगी - परिचारक को भोजन देना चाहती हूँ । ६. मैं यावज्जीवन रोगी को औषधि-दान करना चाहती हूँ । ७. मैं यावज्जीवन संघ को प्रतिदिन प्रातः काल यवागू देना चाहती हूँ । ८. मैं यावज्जीवन भिक्षुणी संघ को उदक-साटिका' देना चाहती हूँ । तथागत ने विशाखा से वर माँगने का कारण पूछा तो उसने एक-एक पहलू पर विशद प्रकाश डाला । उसने भिक्षुओं के नग्न ही स्नान करने की घटना सुनाई और कहा १. भन्ते ! नग्नता घृणित, मलिन व बुरी है; अत: मैं यावज्जीवन संघ को वर्षिक साटिका देना चाहती हूँ । २. नवागन्तुक भिक्षु, श्रावस्ती के मार्ग नहीं जानते । थके-माँदे होते हैं । वे मेरे यहाँ भोजन कर गली-कूचों से परिचित हो जायेंगे और थकावट दूर कर भिक्षाचार करेंगे ; अत: मैं यावजीवन संघ के नवागन्तुक भिक्षु को भोजन देना चाहती हूँ । ३. प्रस्थान करने वाले भिक्षुओं का, भोजन की एषणा करते हुए, समय अधिक लग जाता है; अत: वे अपने कारवाँ से विलग हो जाते हैं या अपने लक्षित स्थान पर वे विकाल (अपराह्न) में पहुँचेंगे और थके हुए जायेंगे । मेरे यहाँ भोजन करने वाले गमिक भिक्षुओं १. रजस्वला स्त्रियों के काम में लाया जाने वाला वस्त्र | 2010_05 Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा ] प्रमुख उपासक उपासिकाएं कान कारवाँ छूटेगा और न वे विकाल में पहुँचेंगे। वे मार्ग-श्रम से क्लान्त भी नहीं होंगे। इस उद्देश्य से संघ के गमिक भिक्षुओं को जीवनपर्यन्त भोजन देना चाहती हूँ । २५६ ४. रोगी भिक्षुओं को अनुकूल भोजन न मिलने पर उनके रोग में वृद्धि होती है या मृत्यु हो जाती है । मेरा भोजन करने से न उनका रोग बढ़ेगा और न उनकी मृत्यु होगी । ५. रोगी - परिचारक भिक्षु अपने भोजन की गवेषणा में रोगी के पास विलम्ब से पहुँचेगा या उस दिन वह भोजन न कर सकेगा । रोगी परिचारक भोजन कर यदि रोगी के लिए समय से भोजन ले आयेगा, तो वह भक्तच्छेद भी नहीं कहलायेगा | ६. रोगी भिक्षुओं को अनुकूल भैषज्य न मिलने पर उनका रोग बढ़ता है या उनकी मृत्यु हो जाती है । मेरे भैषज्य को ग्रहण करने पर न उनका रोग बढ़ेगा और न उनकी मृत्यु होगी । ७. अन्धकविंद में भगवान् ने दश गुणों को देख यवागू की अनुमति दी है । उन गुणों को देखकर ही संघ को मैं प्रतिदिन यवागू देना चाहती हूँ । ८. एक बार भिक्षुणियां अचिरवती नदी में वेश्याओं के साथ एक ही घाट पर नंगी स्नान कर रहीं थीं । वेश्याओं ने भिक्षुणियों की ताना कसा--'" "तुम सब युवतियों को ब्रह्मचर्य - वास का क्या प्रयोजन? तुम्हें तो इस अवस्था में भोगों का ही परिभोग करना चाहिए और वार्धक्य में ब्रह्मचर्य - वास । ऐसा करने से तुम्हारे दोनों ही फलितार्थ शुभ होंगे।" भिक्षुणियाँ उन्हें कोई उत्तर न दे सकी। स्त्रियों की नग्नता गर्हास्पद व घृणास्पद होती है; अत: मैं जीवन पर्यन्त भिक्षुणी संघ को उदक-साटिका देना चाहती हूँ ।" वर से उपलब्धि तथागत ने पूछा - "विशाखे ! तुझे इन वरों में किस विशेष गुण की उपलब्धि दृष्टिगत हो रही है ?" विशाखा ने कहा - "नाना दिशाओं में वर्षावास सम्पन्न कर भगवान् के दर्शनार्थ भिक्षु - जन जब श्रावस्ती आयेंगे, भगवान् से पूछेंगे, "अमुक भिक्षु मर गया है । उसकी गति क्या है ? क्या परलोक है ?" उस समय भगवान् स्रोतापत्ति-फल, सकृदागामि-फल या अर्हत्व का व्याकरण करेंगे | मैं उन भिक्षुओं से पूछूंगी, वे मृत भिक्षु श्रावस्ती आये थे या नहीं ? यदि वे मुझे कहेंगे कि वह भिक्षु श्रावस्ती में आया था, तो मैं निश्चय कर लूंगी, उस आर्य ने मेरे यहाँ से वर्षिक साटिका या नवागन्तुक भोजन या गमिक भोजन या रोगी भोजन या रोगीपरिचारक भोजन या नैरन्तरिक यवागू अवश्य ही ग्रहण किया होगा । उसका स्मरण कर मेरे चित्त में प्रमोद होगा, प्रमोद से प्रीति होगी, प्रीति से काया शान्त होगी, काया शान्त होने से मैं सुख का अनुभव करूँगी और सुख का अनुभव होने पर मेरा चित्त समाधि को प्राप्त होगा । यह सारी प्रक्रिया ही मेरी इन्द्रिय-भावना, बल-भावना और बोध्यंग-भावना होगी । इस वरयाचना में मुझे इसी विशेष गुण की उपलब्धि दृष्टिगत हो रही है । तथागत ने विशाखा के विचारों का अनुमोदन किया, उसे साधुवाद दिया और उसे आठों ही वरों की स्वीकृति दी । बुद्ध आसन से उठकर चले एये। बिहार में पहुँच कर उन्होंने 2010_05 Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६० -आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन भिक्षुओं को आमंत्रित किया उन्हें आठों ही कार्यों की अनुमति दी। ___ एक दिन विशाखा मुख पोंछने का वस्त्र ले भगवान् के पास आई और अभिवादन कर एक ओर बैठ गई । उसने वह वस्त्र शास्ता को उपहृत किया और कहा--"आप इसे स्वीकार करें। यह मेरे चिर कालिक हित-सुख के लिए होगा।" शास्ता ने उस वस्त्र को लिया और उसे धार्मिक कथा द्वारा समुत्तेजित व सम्प्रहर्षित किया। विशाखा जब लौट आई, तो शास्ता ने भिक्षुओं को आमंत्रित किया और मुख पोंछने के वस्त्र की अनुमति दी। १. विनय पिटक, महावग्ग, ८-४-५ व ६ के आधार पर। २. विनय पिटक, महावग्ग, ८-३-५ के आधार पर । ____ 2010_05 Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विरोधी शिष्य महावीर और बुद्ध के योग्य पारिपाश्विकों ने अपने उत्सर्ग, अपनी सेवा, अपने समर्पण और अपनी समुज्ज्वल साधना से जैसे नया इतिहास गढ़ा है, वैसे ही कुछ एक विरोधी शिष्यों ने विरोध और संघर्ष का ज्वलन्त इतिहास भी गढ़ा है। वे विरोधी शिष्य थे-गोशालक और देवदत्त । गोशालक का सम्बन्ध महावीर से था और देवदत्त का बुद्ध से। दोनों ही दोनों के दीक्षित शिष्य थे। दोनों ही के पास लब्धि-बल था, पर, अन्त में दोनों ही निस्तेज हो जाते हैं । गोशालक ने अपने को जिन कहा, महावीर को अजिन कहा । देवदत्त ने महती परिषद् के बीच बुद्ध से कहा--"अब आप वृद्ध हो चले हैं, जीर्ण हो चले हैं. भिक्षु-संघ को मुझे सौंप दें। मैं उसका शास्ता बनंगा।" महावीर ने गोशालक की अजिनता व्यक्त की और बद्ध ने देवदत्त को खरार कहा । परिणामतः दोनों ने ही अपने-अपने गुरु को मारने का प्रयत्न किया। महावीर और बुद्ध दोनों के ही शिष्य-परिवार में गोशालक और देवदत्त की हरकतों से चिन्ता परिव्याप्त हुई। उस अवसर पर महावीर ने अपनी दीर्घ जीविता की घोषणा कर आनन्द, सीह आदि शिष्यों को सान्त्वना दी और बताया-"जिन निरुपक्रमी और अबध्य होते हैं।" बुद्ध ने भी अपने शिष्यों से कहा----"भिक्षुओ ! बुद्ध निरुपक्रमी होते हैं । वे अपने मरण-काल में ही मरते हैं। कोई उन्हें मारने में क्षम नहीं होता।" दोनों घटना-प्रसंगों में आपात संयोग यह भी है कि गोशालक भी महावीर के आनन्द भिक्षु को अपना सन्देशवाहक बनाते हैं और देवदत्त भी बुद्ध के आनन्द भिक्षु को। यह भी बहुत समान है कि महावीर और बुद्ध दोनों ही लगभग एक ही प्रकार से वस्तुस्थिति का प्रकाशन करते हैं। दोनों ही विरोधी शिष्य कुछ समय के लिए बहुत प्रभावशाली रहे । गोशालक का अनुयायी-समुदाय बहुत बड़ा था। देवदत्त के पीछे अजातशत्रु का बलथा । वह उनके व्यक्तिगत प्रभाव में था। उल्लेखनीय बात यह है, जीवन के अन्तिम क्षणों में दोनों ही अपने-अपने शास्ता के प्रति श्रद्धाशील होते हैं । दोनों की मृत्यु भी रक्तज और पित्तज निमित्त से होती है। देवदत्त मरकर अवीचि नरक में उत्पन्न हुआ । एक लाख कल्प वह वहाँ रह कर अटिस्सर नामक प्रत्येक बुद्ध होगा व निर्वाण प्राप्त करेगा। गोशालक मरकर अच्युत कल्प स्वर्ग में उत्पन्न हुए। वहाँ से वे पुनः-पुनः नरकादि गतियों में परिभ्रमण करेंगे। अन्त में कैवल्य प्राप्त कर निर्वाणगामी होंगे। महावीर और बुद्ध के विरोधी वातायन में देश, काल, व्यक्ति और परिस्थिति के भेद से असमानता तो स्वाभाविक और मूल-भूत है ही। उन स्वाभाविक असमानताओं में इतनी समानताओं का होना अवश्य विलक्षण है । गोशालक का विवरण भगवती सूत्र का एक प्रमुख ____ 2010_05 Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६२ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड :१ प्रकरण है, जो प्रस्तुत ग्रन्थ के गोशालक अध्याय में समुद्धृत हुआ । देवदत्त का मुख्य विवरण विनय पिटक के चुल्लवग्ग (संघभेदक खन्धक प्रकरण) में है, जो सारांशतः यहाँ प्रस्तुत किया जा रहा है। दोनों ही प्रकरण तत्कालीन विविध धार्मिक मान्यताओं, राजनैतिक व सामाजिक परिस्थितियों और साम्प्रदायिक मनोभावों के पूरे-पूरे परिचायक भी हैं । घटना-वृत्त दोनों ही प्रकरणों का नितान्त विकट और कटुक है। कुल मिलाकर गवेषक दोनों ही प्रकरणों से बहुत कुछ पा सकता है। देवदत्त अजातशत्रु पर प्रभाव भगवान् बुद्ध अनूपिया में चारिका करते हुए कौशाम्बी आये। घोषिताराम में ठहरे । भिक्ष देवदत्त एकान्त में बैठा था। उसके मन में विचार उत्पन्न हुआ-"मैं किसको प्रसादित करूँ. जिसके प्रसन्न होने पर मुझे बड़ा लाभ व सत्कार प्राप्त हो। सहसा उसे अजातशत्रु व याद आई। उसके विषय में उसने सोचा-अजातशत्रु कुमार तरुण है। उसका भविष्य उत्त है। मुझे उसे ही प्रसादित करना चाहिए। ऐसा होने पर मुझे बड़ा लाभ व सत्कार प्राप्त होगा।" देवदत्त शयनासन संभाल कर और पात्र-चीवर आदि लेकर राजगृह की ओर चल पड़ा । वहाँ पहुँच कर उसने अपने रूप का अन्तर्धान किया। एक बालक बन, कटि पर तागड़ी, पहनी और सीधा अजातशत्रु की गोद में प्रादुर्भूत हुआ। इस, अनालोचित दृश्य को देखकर अजातशत्रु भीत, शंकित और त्रस्त हुआ। देवदत्त ने बालक के रूप में अजातशत्रु से कहा''कुमार ! तू मुझसे भय खाता है ?'' "हाँ, भय खाता हूँ। तुम कौन हो ?" "मैं देवदत्त हूँ।" "भन्ते ! यदि आप आर्य देवदत्त हैं, तो अपने स्वरूप में प्रकट हों।" देवदत्त ने कुमार का रूप छोड़ा, संघाटी, पात्र-चीवर धारण किये और अजातशत्र कुमार के सामने अपने मूल रूप में प्रकट हुआ। अजातशत्रु देवदत्त के इस दिव्य चमत्कार से बहुत प्रभावित हुआ। वह प्रतिदिन प्रातः और सायं पाँच सौ रथों के साथ देवदस के उपस्थान के लिए जाने लगा और भोजन के लिए प्रतिदिन पाँच सौ स्थाली-पाक भेजने लगा। ____ लाभ, सत्कार और श्लाघा से अभिभूत देवदत्त के मन में अभिलाषा जागृत हुई-“मैं भिक्षु-संघ का नेतृत्व करूँ।" इस विचार मात्र से ही उसका योग-बल नष्ट हो गया। भगवान् बुद्ध कौशाम्बी से चारिका करते हुए राजगृह आये । कलन्दक निवाप के वेणुवन में ठहरे । बहुत सारे भिक्षु बुद्ध के पास आये । अभिवादन कर एक ओर बैठ गये। उन्होंने बुद्ध से कुमार अजातशत्रु द्वारा विहित देवदत्त के सम्मान के विषय में कहा । बुद्ध ने उत्तर में कहा-“भिक्षुओ ! देवदत्त के लाभ, सत्कार और इलाधा की स्पृहा मत करो। जब तक कुमार अजातशत्र देवदत्त के उपस्थान के लिए आयेगा, तब तक देवदत्त की कुशल धर्मों में हानि ही होगी; वृद्धि नहीं । यह उसके आत्म-वध और पराभव के लिए हुआ है । केला, बाँस और नरकट का फल तथा अश्वतरी का गर्भ जैसे उनके आत्म-वध और पराभव के ____ 2010_05 Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा] विरोधी शिष्य २६३ होता है ; वैसे ही देवदत्त के लिए यह प्रसंग हुआ है।" देव द्वारा सूचना आयुष्मान् महामौद्न का उपस्थाक ककुध नामक कोलिय-पुत्र उन्हीं दिनों मृत्यु प्राप्त कर मनोमय (देव) लोक में उत्पन्न हुआ। उसका शरीर मगध के गाँव के दो-तीन खेतों के बराबर बड़ा था । पर, वह शरीर न उसके लिए पीड़ा-कारक था और न दूसरों के लिए। ककुध देवपुत्र आयुष्मान् मोग्गल्लान के पास आया । अभिवादन कर एक ओर खड़ा हो गया और उन्हें सूचित किया-"भन्ते ! आदत्तचित देवदत्त के मन में इच्छा उत्पन्न हुई है-'मैं भिक्षु संघ का नेतृत्व ग्रहण करूँ।' इस विचार के उभरते ही उसकी ऋद्धि नष्ट हो गई है।” ककुध देवपुत्र यह कहकर तत्काल तिरोहित हो गया। मोग्गल्लान द्वारा पुष्टि मोग्गल्लान बुद्ध के पास आये और ककुध देवपुत्र द्वारा कथित वृत्तान्त उन्हें निवेदित किया। बुद्ध ने मौग्गल्लान से पूछा--"क्या तू ने भी योग-बल से इस वृत्त को उसी प्रकार जाना है ?" विनम्रता से मौग्गल्लान ने कहा "भन्ते ! जो कुछ ककुध देवपुत्र ने कहा है, सब वैसे ही है ; अन्यथा नहीं।" बुद्ध महती परिषद् में धर्म-उपदेश कर रहे थे । राजा अजातशत्र भी उसमें उपस्थित था । देवदत्त अपने आसन से उठा । उत्तरासंग किया और करबद्ध हो, बुद्ध से बोला-"भन्ते ! भगवान् अब जीर्ण, अध्वगत और वयः-अनुप्राप्त हैं; अतः निश्चिन्त होकर इस जन्म के सुखविहार के साथ विहरें । भिक्षु-संघ मुझे सौंप दें। इसे मैं ग्रहण करूँगा।" "बस, देवदत्त ! तुझे भिक्षु-संघ का ग्रहण न रुचे । देवदत्त ने तीन बार अपने कथन को दुहराया। बुद्ध ने उसका प्रतिवाद करते हुए दृढ़ता से कहा --- 'देव त्त ! सारिपुत्र और मौग्गल्लान को भी मैं भिक्षु संघ नहीं देता, फिर तेरे जैसे खखार (श्लेष्म) को तो देने की बात ही क्या ?" देवदत्त मन-ही-मन उबलने लगा और कहने लगा--"इस महती परिषद् में, जिसमें कि राजा भी उपस्थित है, भगवान् ने खखार कहकर मुझे अपमानित किया है और सारिपुत्र और मोग्गल्लान को बढ़ाया है।" वह कुपित हुआ और असन्तुष्ट होकर भगवान् को अभिवादन व प्रदक्षिणा कर चला गया। देवदत्त का यह पहला द्रोह था। प्रकाशनीय कर्म " बुद्ध ने संघ को आमन्त्रित किया और कहा-“भिक्षुओ ! संघ राजगृह में देवदत्त का प्रकाशनीय कर्म करे---- 'देवदत्त पहले अन्य प्रकृति का था और अब अन्य प्रकृति का है । देवदत्त काय व वचन से अब जो कुछ भी करे, बुद्ध, धर्म और संघ उसका उत्तरदायी नहीं है । देवदत्त ही उत्तरदायी है।" "इस प्रकाशनीय कर्म के लिए चतुर व समर्थ भिक्षु संघ को ज्ञप्ति करे, अनुश्रावण करे और उपरोक्त वाक्य को दुहराता हुआ कहे-"संघ इस अभिमत से सहमत है, अत: मौन है । मैं इसकी धारणा करता हूँ।" बुद्ध ने सारिपुत्र को सम्बोधित करते हुए कहा-"सारिपुत्त! तू राजगृह में देवदत्त का प्रकाशन कर।" ___ 2010_05 Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड : १ "भन्ते! मैंने राजगृह में पहले देवदत्त की प्रशंसा करते हुए कहा था-'गोधिपुत्र (देवदत्त) महद्धिक (दिव्य शक्तिधर) है।' भन्ते ! अब मैं उसका प्रकाशन करूं?" "सारिपुत्त ! तू ने देवदत्त की पहले यथार्थ ही तो प्रशंसा की थी न ?" "हाँ, भन्ते !" "सारिपुत्त ! इसी प्रकार यथार्थ ही देवदत्त का राजगृह में प्रकाशन कर।" सारिपुत्त ने बुद्ध का आदेश शिरोधार्य किया । बुद्ध ने भिक्षु-संघ से कहा-'संघ सारिपुत्त को राजगृह में देवदत्त के प्रकाशन-कार्य के लिए चुने ।" उसी समय बुद्ध ने चुनावविधि पर प्रकाश डालते हुए कहा--- "संघ पहले सारिपुत्त को पूछे । उसके अनन्तर चतुर व समर्थ भिक्षु-संघ को सूचित करे और क्रमशः ज्ञप्ति, अनुश्रावण और धारणा करे।" संघ द्वारा चुने जाने के बाद आयुष्मान् सारिपुत्त बहुत से भिक्षुओं के साथ राजगृह आये । वहाँ देवदत्त का प्रकाशन किया। श्रद्धालु, पण्डितों व बुद्धिमानों ने सोचा-"भगवान् राजगृह में देवदत्त का जो प्रकाशन करवा रहे हैं, यह साधारण घटना नहीं है।" अजातशत्रु को पित-हत्या की प्रेरणा देवदत्त कुमार अजातशत्र के पास आया। कुमार से कहा-"मनुष्य पहले दीर्घायु होते थे। अब अल्पायु होते हैं। हो सकता है, तुम कुमार रहते ही मर जाओ। कुमार ! तुम पिता को मार कर राजा हो जाओ और मैं बुद्ध को मार कर बुद्ध होऊँगा।'' अजातशत्र जंघा में छुरा बाँध कर भीत, उद्विग्न, शंकित व त्रस्त की तरह मध्याह्न में सहसा अन्तःपुर में पहुँचा । अन्तःपुर के उपचारक महामात्यों ने तत्काल उसे ज्यों-का-त्यों पकड़ लिया। कुमार से महामात्यों ने पूछा-'सच-सच बताओ, तुम क्या करना चाहते थे?" "पिता को मारना चाहता था ।' "किसने प्रोत्साहित किया ?" "आर्य देवदत्त ने ।" कुछ महामात्यों ने सम्मति दी--"कुमार को भी मारना चाहिए और देवदत्त व भिक्षुओं को भी।" कुछ महामात्यों ने कहा-"न कुमार को मारना चाहिए, न देवदत्त और भिक्षुओं को भी, अपितु राजा को सूचित कर देना चाहिए। वे जैसा चाहेंगे, करेंगे। महामात्य अजातशत्र को लेकर मगधराज श्रेणिक बिम्बिसार के पास गये। उन्हें सारी घटना सुनाई । श्रेणिक ने महामात्यों के परामर्श के बारे में पूछा । उनके विचार भी बताये गये । श्रेणिक ने निर्णय दिया--- "भणे ! इसमें बुद्ध, धर्म और संघ का क्या दोष है ? भगवान् ने तो राजगृह में पहले ही इसका प्रकाशन करवा दिया है। जिन महामात्यों ने कुमार, देवदत्त व भिक्ष ओं को मारने का परामर्श दिया है, उन्हें पद से पृथक कर दिया जाये और जिन्होंने कुमार, देवदत्त व भिक्ष ओं को मारने का परामर्श न देकर मुझे सूचित करने का प्रस्ताव किया है, उसकी पदोन्नति कर दी जाये।" . मगधराज श्रेणिक विम्बिसार ने अजातशत्र से पूछा- "कुमार ! तू मुझे किस प्रयोजन से मारना चाहता था ?" 2010_05 Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा विरोधी शिष्य "देव ! राज्य चाहता हूँ।" बुद्ध-हत्या का षड्यंत्र श्रेणिक ने उस समय अजातशत्र को राज्य-भार सौंप दिया। देवदत्त अजातशत्रु कुमार के पास आया । अपनी योजनाओं से परिचित करते हुए उससे कहा---"महाराज ! अनुचरों को निर्देश दो कि वे श्रमण गौतम का प्राण-वियोजन कर दें। __ अजातशत्र देवदत्त के ऋद्धि-बल से बहुत प्रभावित था ; अतः उसने अपने विश्वस्त चरों को तत्सम्बन्धी सारे निर्देश तत्काल दे दिये । देवदत्त ने एक पुरुष को आज्ञा दी"आवुस ! श्रमण गौतम अमुक स्थान पर विहार करता है। उसका प्राण-वियोजन कर इस रास्ते से चले आओ । उस मार्ग में दो पुरुषों को बैठाया और उन्हें निर्देश दिया- "इस मार्ग से जो अकेला पुरुष आये, उसे जान से मारकर तुम इस मार्ग से चले आओ।" इसी प्रकार चार पुरुषों को उन दो के लिए, आठ पुरुषों को उन चार के लिए और सोलह पुरुषों को उन आठ पुरुषों के वध के लिए निर्देश दिया। सभी निर्दिष्ट मार्ग और स्थान पर सावधान होकर बैठ गये। वह अकेला पुरुष ढाल-तलवार और तीर-कमान ले बुद्ध के पास गया । अविदूर में भीत, उद्विग्न, शंकित शून्य-सा एक ओर खड़ा हो गया। बुद्ध ने उसे देखा । कोमल सम्बोधन करते हुए बुद्ध ने उससे कहा- "आओ, आवुस ! आओ। डरो मत।" उस पुरुष ने ढालतलवार और तीर-कमान एक ओर डाल दिये । बुद्ध के चरणों में शिर से गिरकर बोला"भन्ते ! बाल, मूढ़ व अकुशल की भांति मैंने जघन्य अपराध किया है। मैं दुष्ट चित्त होकर आपके वध के लिए यहाँ आया। मुझे क्षमा करें। भन्ते ! भविष्य में संवर के लिए मेरे इस अपराध को अत्यय (विगत) के रूप में स्वीकार करें।' बुद्ध ने उसे सान्त्वना के शब्दों में कहा-"यद्यपि तूने अपराध किया है, पर, भविष्य के लिए अत्यय के रूप में देखकर तू उसका धर्मानुसार प्रतिकार करता है ; अत: हम उसे स्वीकार करते हैं ।" बुद्ध ने उस समय उसे आनुपूर्वी क : कही । उस पुरुष को उसी आसन पर धर्म-चक्ष, उत्पन्न हो गया । वह बुद्ध से बोला--"भन्ते ! आज से मुझे अञ्जलिबद्ध शरणागत उपासक धारण करें।" बुद्ध ने अपने ऋद्धि-बल से देवदत्त के षड्यन्त्र को जानकर उसके जाने का मार्ग बदलवा दिया। वह पुरुष देवदत्त द्वारा निर्दिष्ट मार्ग से नहीं गया । वे दोनों पुरुष व्यग्रता से उसकी प्रतीक्षा कर रहे थे। जब वह नहीं आया तो वे दोनों उसी दिशा में चले । एक वृक्ष के नीचे उन्होंने बुद्ध को बैठे देखा । अभिवादन कर वे भी एक ओर खड़े हो गये । बुद्ध ने उन्हें आनुपूर्वी कथा कही। उन्हें भी धर्म-चक्ष उत्पन्न हुआ और वे बुद्ध के अञ्जलिबद्ध शरणागत हो गये। इसी प्रकार वे चार, आठ और सोलह पुरुष भी क्रमशः बुद्ध के पास आये । उन्हें भी धर्म-चक्ष उत्पन्न हुआ और वे सभी बुद्ध के अञ्जलिबद्ध शरणागत हो गये । बुद्ध ने क्रमश: उन सब के वापिस जाने के मार्ग को बदलवा दिया। वह अकेला पुरुष देवदत्त के पास आया और वास्तविकता को उद्घाटित करते हुए उसने कहा--- "भन्ते ! मैं उन भगवान् का शरीरान्त न कर सका। वे महद्धिक महानुभाव हैं।' अन्यमनस्कता के साथ देवदत्त ने कहा-"खैर, जाने दो। तू श्रमण गौतम को मत मार, मैं ही उसे मारूंगा।" ____ 2010_05 Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६६ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन खिन्ड:१ देवदत्त द्वारा प्रयत्न बुद्ध गृध्रकूट पर्वत की छाया में चंक्रमण कर रहे थे। देवदत्त पर्वत पर चढ़ा । बुद्ध को कारने के अभिप्राय से एक शिला उन पर फेंकी। दो पर्वत कूटों ने आकर उस शिला को रोका । सहसा एक पपड़ी उछली और वह बुद्ध के पैरों पर पड़ी । पैर से खून बहने लगा। बुद्ध ने ऊपर देखा और देवदत्त से कहा--- "फल्गु पुरुष ! तू ने द्वेषवश तथागत का रुधिर निकालकर बहत-पापकमाया है।" भिक्षुओं को सम्बोधित करते हुए उस कार्य को लक्षित कर, कहा- "देवदत्त ने यह प्रथम आनन्तर्य (मोक्ष का बाधक) कर्म किया है।" भिक्षुओं ने देवदत्त के इस कुत्सित प्रयत्न को सुना, तो वे बुद्ध की गुप्ति के लिए विहार के चारों ओर टहलते हुए उच्च स्वर से स्वाध्याय करने लगे। बुद्ध ने आनन्द के द्वारा भिक्षुओं को अपने पास बुलाया और कहा-"भिक्षुओ ! यह सम्भव नहीं है कि किसी दूसरे के प्रयत्न से तथागत का जीवन छूटे । तथागत किसी दूसरे के उपक्रम से नहीं, अपितु स्वाभाविक मृत्यु से ही परिनिर्वाण को प्राप्त हुआ करते हैं । भिक्षुओ ! तुम अपने-अपने विहार को जाओ। तथागतों की रक्षा की आवश्यकता नहीं है।" नालागिरि हाथी राजगृह में नालागिरि नामक मनुष्य-घातक और बहुत ही चण्ड हाथी था। देवदत्त ने एक दिन गजशाला में आकर महावत को आदेश दिया--"जब श्रमण गौतम इस सड़क से आये, तुम इस हाथी को खोलकर उसके सम्मुख कर देना।" महावतने आदेश शिरोधार्य किया। पूर्वाह्न के समय बुद्ध भिक्ष -संघ के साथ पिंडचार के लिए राजगृह में आये । महावत ने उस दिशा में हाथी छोड़ दिया। सहवर्ती भिक्षु भय-त्रस्त हुए और उन्होंने दो-तीन बार बुद्ध से मार्ग छोड़कर एक ओर हो जाने के लिए प्रार्थना की । उस समय बहुत सारे मनुष्य प्रासादों व हयों की छतों पर चढ़कर उत्कन्धर हो, उस दृश्य को देखने लगे । बहुत सारे अश्रद्धालु व दुर्बुद्धि कहने लगे -"अभिरूप महाश्रमण आज नाग (हाथी) से मारा जायेगा।" श्रद्धालु और पण्डित कहने लगे-"नाग नाग (बुद्ध) से संग्राम करेगा।" बुद्ध ने दूर से आते हुए नालागिरि को मैत्री-भावना से आप्लावित किया। हाथी उससे स्पृष्ट हुआ और सूंड को नीचे किये बुद्ध के पास आकर खड़ा हो गया। बुद्ध ने नालागिरि के कुम्भ का अपने दाहिने हाथ से स्पर्श किया। नालागिरि ने अपने सूंड से बुद्ध की चरण-धूलि उठाई और शिर पर डाली। वापस चला । जहाँ तक बुद्ध उसे दृष्टिगत होते रहे, वह उसकी ओर बिना पीठ किये ही लौटा। गजशाला में जाकर अपने स्थान पर खड़ा हो गया । जनता में चर्चा चल पड़ी-“देवदत्त कैसा पापी और अलक्षणी है, जो ऐसे महद्धिक महानुभाव श्रमण गौतम के वध का प्रयत्न करता है।" देवदत्त का लाभ-सत्कार घटा और बुद्ध का लाभ-सत्कार बढ़ा। १. 'कूलबालक' की प्रसिद्ध जैन कथा में भी ठीक इसी प्रकार का घटना-प्रसंग मिलता है। अविनीत शिष्य कूलबालक अपने गुरु के वध के लिए ऐसा ही उपक्रम करता है और इसी प्रकार गुरु से शाप पाता है । देखें, उत्तराध्ययन सूत्त, लक्ष्मीवल्लभ गणि कृत टीका ५०८-६। ____ 2010_05 Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा] विरोधी शिष्य २६७. संघ-भेद की योजना असफल देवदत्त ने अपनी विद्रोही प्रवृत्तियों को उन कर दिया। वह कोकालिक कटमोरतिस्सक और खण्ड देवी-पुत्र समुद्र दत्त के पास गया । संव-भेद के लिए प्रोत्साहित करते हए उनके समक्ष उसने एक प्रस्ताव रखा--"हम श्रमण गौतम से आग्रह करें कि भिक्ष-संघ के लिए पाँच नये नियम बनायें । उनके अनुसार १. भिक्ष जीवन-भर अरण्य में ही रहे, ग्राम में नहीं; २. जीवन-भर पिण्डपातिक होकर रहे, किन्तु निमंत्रण की भिक्षा स्वीकार न करे; ३. जीवनभर पांसुकूलिक होकर ही रहे । गृहस्थ द्वारा दिये गए चीवर का उपयोग न करे; ४. जीवन-भर वृक्षमूलिक ही रहे; ५. जीवन-भर मछली-मांस न खाये । श्रमण गौतम इस प्रस्ताव को स्वीकार नहीं करेंगे। तब हम जनता को बहुत सहजता में उससे विमुख कर अपनी ओर आकर्षित कर सकेंगे।" देवदत्त परिषद् के साथ बुद्ध के पास गया। अभिवादन कर अपना चिर-चिन्तित प्रस्ताव उनके समक्ष प्रस्तुत किया। बुद्ध ने उत्तर में कहा - "देवदत्त ! अलम् ! मैंने अरण्यवास व ग्राम-वास, पिण्डपातिक व निमन्त्रित भिक्षा, पांसुकूलिक व गृहस्य द्वारा प्रदत्त वस्त्र और आठ मास वृक्षमूल शयनासन की अनुज्ञा दी है। मैंने अदृष्ट,' अश्रु तव अपरिशंकित, इस तीन कोटि से परिशुद्ध मांस की भी अनुज्ञा दी है । मैं इनमें कोई दोस नहीं मानता।" बुद्ध ने जब देवदत्त का प्रस्ताव ठुकरा दिया, तो वह अत्यन्त हर्षित वहाँ से राजगृह में चला आया। जनता के समक्ष बुद्ध की कलई खोलते हुए वह कहने लगा- “भगवान् अल्पेच्छ, सन्तुष्ट, सल्लेक (तप), धुत (त्यागमय रहन-सहन), प्रासादिक, अपचय (त्याग) और वीर्यारम्भ (उद्योग) के प्रशंसक हैं, अतः हमने संप के लिए पाँव नियम बनाने का प्रस्ताव रखा। किन्तु, उन्होंने संघ के लिए इसकी अनुमति नहीं दी। हम इन पाँचों नियमों का अनुवर्तन करते हैं।" अश्रद्धालु और मूर्ख इसे सुन कहने लगे--"यह शाक्यपुत्रीय श्रमण अववत सल्लेखवृति (तपस्वी) हैं । श्रमण गौतम संग्रहशील और संग्रह के लिए ही प्रेरणा देता है।" जो श्रद्धालु व धीमान् थे, वे देवदत्त की इस कुत्सित प्रवृति पर हैरान थे । उनके मुंह से एक ही बात निकल रही थी, “देवदत्त भगवान् के संघ-भेद के लिए ही प्रयत्न कर रहा है।" भिक्षुओं ने इस जन-चर्चा को सुना । उन्होंने आकर बुद्ध से कहा । बुद्ध ने भिक्ष ओं के समक्ष देवदत्त को लक्षित कर कहा--"बस, देवदत्त ! संघ में फूट डालना तुझे रुचिकर न हो । संघ-भेद भारी अपराध है। जो अविभक्त संघ को विभक्त करता है, वह नरक में कल्प भर रहने वाले पाप को कमाता है। कल्प भर नरक में पकता है। जो छिन्न-भिन्न संघ को एक करता है, वह ब्राह्म (उत्तम) पुण्य को कमाता है। कल्प भर स्वर्ग में आनन्द करता है। इसलिए देवदत्त ! संघ में फट डालना तुझे रुचिकर न हो।" ___ आयुष्मान् आनन्द पूर्वाह्न में राजगृह में भिक्षा के लिए गये । देवदत्त ने उन्हें देखा और अपने पास बुलाया। आनन्द से उसने कहा--"आवुस आनन्द ! आज से मैं भगवान् से व भिक्ष -संघ से अलग ही उपोसथ करूगा, अलग ही संघ-कर्म करूँगा।" १. मेरे लिए मारा गया, यह देखा न हो। २. मेरे लिए मारा गया, यह सुना न हो। ३. मेरे लिए मारा गया, यह सन्देह न हो। 2010_05 Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६८ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड भिक्षा से निवृत होकर आनन्द विहार में लौट आये । उन्होंने बुद्ध को सूचित किया"भन्ते ! देवदत्त आज संघ को तोड़ेगा। वह अलग ही सब-कर्म करेगा । जब मैं पिण्डचार के लिए राजगृह में गया, तो उसने मुझे यह सब कुछ कहा।" बुद्ध ने उस समय उदान कहा--"साधु के साथ साधुता सुकर है । पापी के साथ साधुता दुष्कर है। पापी के साथ पाप सुकर है और आर्यों के साथ पाप दुष्कर है।" पांच सौ भिक्षुओं द्वारा शलाका-ग्रहण वैशाली के पांच सौ वज्जिपुत्तक भिक्ष ओं ने उन्हीं दिनों प्रव्रज्या ग्रहण की थी। वे चर्या से पूर्णतः परिचित नहीं थे । उपोसथ के दिन देवदत्त ने उन्हें लक्षित कर कहा-"आवुसो! हमने श्रमण गौतम के समक्ष पाँच नियम प्रस्तुत किए थे। श्रमण गौतम ने उन्हें स्वीकार नहीं किया। हम उसका वर्तन करेंगे। जिस आयुष्मान् को ये पाँच नियम रुचें, वे शलाका ग्रहण करें।" देवदत्त ने उसी समय सबकी ओर शलाकाएँ बढ़ाई। पाँच सौ भिक्ष ओं ने सोवा"यह धर्म है, यह विनय है, यह शास्ता का शासन है।" सबने ही वे शलाकाएँ ले ली । देवदत्त ने संघ को फटा कर पाँच सौ भिक्ष ओं को अपने साथ मिला लिया। सबके साथ चारिका करते हुए गयासीस की ओर प्रस्थान कर दिया। सारिपुत्त और मौग्गल्लान ने बुद्ध को इस घटना से सूचित किया। बुद्ध ने कहा"सारिपुत्त ! तुम लोगों को उन नये भिक्ष ओं पर तनिक दया नहीं आई ? आपत्ति में फंसने से पूर्व ही उन भिक्ष ओं को तुम बचाओ।" सारिपुत्त और मौग्गल्लान द्वारा प्रयत्न सारिपुत्त और मौग्गल्लान तत्काल वहाँ से चले। गयासीस पहुँचे । दवदत्त बड़ी परिषद् के बीच धर्म-उपदेश कर रहा था। उसने उन्हें दूर से ही आते हुए देखा । अत्यन्त प्रसन्न-मुख हो, देवदत्त ने भिक्ष ओं से कहा-“मेरा धर्म कितना सु-अख्यात है। इससे आकृष्ट होकर श्रमण गौतम के प्रधान शिष्य सारिपुत्त और मौग्गल्लान भी मेरे पास आ रहे हैं । वे मेरे धर्म को मानते हैं।" कोकालिक ने देवदत्त के कथन का प्रतिवाद करते हुए कहा-“सारिपुत्त और मोग्गल्लान का विश्वास मत करो। वे पापेच्छ हैं।" देवदत्त ने अपने विचारों को दुहराते हुए कहा-"नहीं, उनका स्वागत है। वे मेर धर्म पर विश्वास करते हैं।" सारिपुत्त और मौग्गल्लान समीप पहुँचे, तो देवदत्त ने सारिपुत्त को अपने आधे आसन का निमन्त्रण दिया। किन्तु, वे दोनों दूसरे ही आसन लेकर एक ओर बैठ गये । देवदत्त ने भिक्षुओं को धर्मोपदेश दिया। बहुत रात बीतने पर भी भिक्षु सुनने में लीन थे। सारिपुत्त से देवदत्त ने कहा - "आत्रुस ! इस समय ये भिक्षु आलस्य व प्रमाद-रहित हैं। तुम इन्हें उपदेश दो । मेरी पीठ अगिया रही है; अतः मैं लेटूंगा।' सारिपुत्त भिक्षुओं को सम्बोधित करने लगे और देवदत्त चौपेती संघाटी बिछाकर दाहिनी करवट से लेट गया। स्मृति व संप्रजन्य-रहित हो जाने से उसे मुहूर्त भर में नींद आ गई। सारिपुत्त और मौग्गल्लान ने अवसर का लाभ उठाया। सारिपुत्त ने आदेशना-प्रातिहार्य व अनुशासनीय-प्रतिहार्य और महा मौग्गल्लान ने ऋद्धि-प्रातिहार्य के साथ भिक्षु ओं को धर्मोपदेश दिया। सभी भिक्ष ओं को उस समय विमल धर्म-चक्षु उत्पन्न हुआ। ____ 2010_05 Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा विरोधी शिष्य २६६ पाँच सौ भिक्ष ओं को साथ लेकर सारिपुत्त और मौग्गल्लान ने वेणुवन की ओर प्रस्थान कर दिया । कोकालिक ने देवदत्त को उठाया और उससे कहा---'मैंने पहले ही कहा था, इन दोनों का विश्वास मत करो। वे अपने पाँच सौ साथियों को फोड़कर चलते बने हैं।" देवदत्त के मुख से वहीं गर्म खून निकल पड़ा। सारिपुत्त और मौग्गलान पाँच सौ भिक्ष ओं के परिवार से बुद्ध के पास पहुँचे। उन्होंने निवेदन किया--"भन्ते ! संध में फूट डालने वाले अनुयायी भिक्ष ओं को पुन: उपसम्पदा प्रदान करें।" बुद्ध ने कहा-“सारिपुत्त ! ऐसे नहीं। पहले इन्हें अपने थुल्लच्चय (बड़े अपराध) की देशना कराओ। जब तक ऐसा नहीं होगा, ये उपसम्पदा के अनधिकारी रहेंगे। बुद्ध ने पूछा-"सारिपुत्त ! देवदत्त ने तुम्हारे साथ कैसा व्यवहार किया ?" सारिपुत्त ने उत्तर दिया-"भन्ते ! बहुत रात बीत जाने तक भगवान् भिक्ष ओं को धर्म-कथा द्वारा समुत्तेजित और संप्रहर्षित करते हैं । बहुत बार भगवान् मुझे आज्ञा देते हैंचित्त व शरीर के आलस्य से रहित भिक्ष-संघ को तू धर्म-कथा कह । मेरी पीठ अगिया रही है; अतः मैं लम्बा होकर लेटूंगा। भन्ते ! उसी प्रकार देवदत्त ने मेरे साथ किया।" बुद्ध ने भिक्ष ओं को सम्बोधित करते हुए कहा-"प्राचीन युग में एक महासरोवर था। वहाँ बहुत सारे हाथी रहते थे। वे प्रतिदिन सरोवर में आते, मृणाल को निकालते और अच्छी तरह धोकर खाते । इससे उनका सौन्दर्य और बल बढ़ता था। वे सब प्रकार के दुःखों से मुक्त रहते थे । कुछ तरुण सियार उन हाथियों का अनुकरण करते थे । वे भी मृणाल खाते थे, पर, उन्हें अच्छी तरह धोते नहीं थे । इससे उनका बल व सौन्दर्य घटता था। यह सारा उपक्रम उनके दुःख का निमित्त बनता था। इसी प्रकार भिक्ष ओ! देवदत्त मेरी नकल कर कृपण होकर मरेगा। वह अपायिक, नैरयिक, कल्पस्थ और अचिकित्स्य है।" गर्म खून निकलने से देवदत्त बहुत ही पीड़ित हुआ । नौ महीने तक उन वेदना भोगता रहा । अन्तिम दिनों में उसे सन्मति आई । खिन्नता के साथ उसने पूछा- आजकल शास्ता कहाँ है ?" उत्तर मिला-"जेतवन में।" देवदत्त ने अपने साथियों से कहा- "मुझे खाट पर डालकर ले चलो और शास्ता के दर्शन कराओ।" साथियो ने वैसा ही किया। जब वे उसे लिए जा रहे थे, जेतवन पुष्करिणी के समीप फटी पृथ्वी में धंसकर वह अविचि नरक में पहुँच गया । एक लाख कल्प तक वहाँ रह कर अपने अग्रिम जन्म में वह अट्टिस्सर नामक प्रत्येक बुद्ध होगा और निर्वाण प्राप्त करेगा। सद्धर्म पुण्डरीक के अनुसार वह देवराज नामक बुद्ध होगा। जमालि महावीर के विरोधी शिष्यों में गोशालक के अतिरिक्त एक उल्लेखनीय विरोधी शिष्य और था। वह था, जमालि । वह महावीर का भानेज भी था और जामाता भी। उसकी दीक्षा का वर्णन पूर्व प्रकरणों में आ ही चुका है। वह पांच सौ क्षत्रिय कुमारों के साथ दीक्षित हुआ था। जमालि की पत्नी (महावीर की पुत्री) प्रियदर्शना भी एक सहस्र स्त्रियों के साथ महावीर १. विनय पिटक, चुल्लवग्ग, खंध-भेदक खंधक के आधार से। २. धम्मपद-अट्टकथा, खण्ड १, पृ० १२५ ३. अध्याय ११ । ____ 2010_05 Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २70 आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन के समवसरण में दीक्षित हुई थी। जमालि के विरोधी होने का इतिहास भगवती' में मिलता। वहीं बताया गया है: "जमालि अनगार एक दिन भगवान महावीर के पास आये। निवेदन किया-"भन्ते ! यदि आपकी अनुज्ञा हो, तो मैं पाँच सौ साधुओं के साथ अन्य प्रदेश में विचरना चाहता हूँ। महावीर ने जमालि का निवेदन सुना, पर, उत्तर नहीं दिया। मौन ल ने अपने कथन को तीन बार दुहराया, फिर भी महावीर ने उत्तर नहीं दिया। जमालि ने पांच सौ साधओं के साथ अन्य प्रदेश में विचरने के लिए प्रस्थान कर दिया। __ "एक बार जमालि अनगार श्रावस्ती के कोष्ठक चैत्य में ठहरे हुए थे । प्रति दिन तुक्ष, नीरस, ठण्डा और अल्प भोजन करने से उनके शरीर में पित्तज्वर हो गया। सारा शरीर दाह व वेदना से पीड़ित रहने लगा। एक दिन उन्होंने अपने सहवर्ती साधुओं से शय्या-संस्तारक लगाने के लिए कहा । साधु तत्काल कार्य में जुट गये । जमालि पीड़ा से अत्यन्त व्याकुल हो रहे थे । एक क्षण का विलम्ब भी उन्हें सह्य नहीं हो रहा था। उन्होंने पुनः पूछा- क्या मेरे लिए शय्या-संस्तारक कर दिया गया है ?' साधुओं ने विनम्र उत्तर दिया- 'अभी तक किया नहीं है, कर रहे हैं। उत्तर सुनते ही जमालि सोचने लगे-भगवान् महावीर को कृतमान को कृत, चलमान को चलित कहा करते हैं ; यह तो गलत है। जब तक शय्या-संस्तारक बिछ नहीं जाता, तब तक उसे बिछा हुआ कैसे माना जा सकता है ? उन्होंने श्रमण-निर्ग्रन्थों को बुलाया और उनके समक्ष अपना मन्तव्य प्रकट किया। कुछ श्रमणों ने उनके सिद्धान्त को स्वीकार किया और कुछ ने स्वीकार नहीं किया। जिन्होंने स्वीकार किया, वे उनके साथ रहे और जिन्होंने स्वीकार नहीं किया, वे भगवान महावीर के पास लौट आये। "कुछ समय पश्चात् अनगार जमालि स्वस्थ हुए। वे श्रावस्ती से विहार कर चम्पा आये। महावीर भी उस समय वहीं पधारे हुएथे। जमालि महावीर के पास आये और बोले'आपके अनेक शिष्य छद्मस्थ हैं, केवलज्ञानी नहीं हैं । परन्तु, मैं तो सम्पूर्ण ज्ञान-दर्शन से युक्त, अर्हत्, जिन और केवली के रूप में विचर रहा हूँ।' गणधर गौतम ने जमालि के कथन का प्रतिवाद करते हुए कहा-"केवल ज्ञानी का दर्शन पर्वत आदि से कभी आच्छन्न नहीं होता। यदि तू केवलज्ञानी है, तो मेरे प्रश्नों का उत्तर दे-'लोक शाश्वत है या अशाश्वत ?, जीव शाश्वत है या अशाश्वत ? ___"जमालि कोई भी प्रत्युत्तर न दे सके। वे मौन रहे। भगवान् महावीर ने कहा-जमालि ! मेरे अनेक शिष्य इन प्रश्नों के उत्तर दे सकते हैं। फिर भी वे अपने को जिन या केवली घोषित नहीं करते हैं।' जमालि को महावीर का कथन अच्छा न लगा । वे वहाँ से उठे और चल दिये । अलग ही रहने लगे और वर्षों तक असत्य प्ररूपणाओं द्वारा मिथ्यात्व का पोषण करते रहे। अन्त में अनशन कर, अपने पाप-स्थान की आलोचना और प्रतिक्रमणा किये बिना ही काल-धर्म को प्राप्त हुए और लान्तक देवलोक में किल्विषिक रूप में उत्पन्न हुए" जमालि की वर्तमानता में ही प्रियदर्शना एक बार अपने साध्वी-परिवार सहित श्रावस्ती गई। वहाँ वह ढंक कुंभकार की शाला में ठहरी । ढंक महावीर का परम अनुयायी था। प्रियदर्शना को प्रतिबोध देने के लिए उसने उसकी संघाटी में आग लगा दी। संघाटी जलने हठात बोल पड़ी-"संघाटी जल गई," "संघाटी जल गई ।" ढंक ने कहा- “आप मिथ्या संभाषण क्यों करती हैं ? संघाटी जली कहाँ, वह तो जल रही है।'' प्रियदर्शना प्रतिबुद्ध हुई । पुनः अपने साध्वी-समूह के साथ महावीर के शासन में प्रविष्ट १. शतक ६, उ० ३३ । २. विशेषावश्यक भाष्य, गा. २३२४-२३३२ । 2010_05 Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ अनुयायी राजा श्रेणिक-बिम्बिसार महावीर और बुद्ध के अनुयायिओं में अनेक राजा लोग भी थे। विस्मय की बात तो यह है कि कुछ एक राजाओं व राजकुमारों को जैन और बौद्ध दोनों ही परम्पराएं अपने-अपने उपासक मानती हैं । ऐसे लोगों में श्रेणिक-बिम्बिसार, कूणिक (अजातशत्रु) और अभयकुमार के नाम प्रमुखता से आते हैं। दोनों ही परम्पराएं इन सबको अपने अनुयायी ही नहीं, दढ़ उपासक भी मानती हैं । आगमों, त्रिपिटकों और दोनों ही परम्पराओं के पुराण-साहित्य में उक्त सभी पात्रों की भरपूर चर्चाएं हैं। गवेषक विद्वानों का ध्यान भी उन चर्चाओं की ओर गया है । नाना निष्कर्ष निकले हैं । कुछ लोग मानते हैं, ये सब महावीर के उपासक थे, तो कुछ मानते हैं, ये सब बुद्ध के उपासक थे । एक विचारधारा है, श्रेणिक पहले बौद्ध था, फिर जैन बना, तो दूसरी विचारधारा है, पहले वह जैन था, फिर बौद्ध बना। वस्तुस्थिति की स्पष्टता के लिए अपेक्षा है, सम्बन्धित पुरावों को बटोर कर किसी एक निष्कर्ष पर पहुँचने का प्रयत्न किया जाये। प्रथम सम्पर्क बौद्ध परम्परा के अनुसार बुद्ध और बिम्बिसार का प्रथम सम्पर्क बोधिलाभ से बहुत पूर्व और प्रव्रज्या-ग्रहण के अनन्तर ही हो जाता है । तरुण भिक्षु बुद्ध भिक्षार्थ राजगृह में प्रवेश करते हैं । बुद्ध के आकर्षक व्यक्तित्व पर सहस्रों नर-नारियों का ध्यान खिंच जाता है। महाकवि अश्वघोष के शब्दों में-"बुद्ध को देखते ही जिनकी आँखें जहाँ लगी, भू पर, ललाट पर, मुख पर, आँखों पर, शरीर पर, हाथों पर, चरणों पर, गति पर, उसकी आँखें वहीं बन्ध गई।" राजगृह में भिक्षाचार करते बुद्ध की आँखें स्थिर थीं। वे जुए की दूरी तक देखकर चलते थे । वे मूक थे। उनकी गति मन्द व नियंत्रित थी। उनका मन संयत था।२ बिम्बिसार ने भी इस दिव्य प्रभाव वाले भिक्षुक को अपने राजमहलों से देखा । वह अत्यन्त आकृष्ट हुआ। भिक्षुक से बात करने को उत्सुक हुआ । राजगृह के पाण्डु (रत्नगिरि) पर्वत पर आकर उसने बुद्ध से साक्षात्कार किया। बिम्बिसार ने बुद्ध से राज्य और भोग-सामग्री के ग्रहण और उपभोग के लिए प्रार्थना की । बुद्ध ने यह सब अस्वीकार करते हुए राजा को काम-विकारों का कुफल बताया और १. 5वी ललाट मुखमीक्षणे वा, वपुः करौ वा चरणौ गति वा। यदेव यस्तस्य ददर्श तत्र, तदेव तस्याथ बबन्ध चक्षु : ॥ -बुद्ध चरित, सर्ग १०, श्लोक ८, २. अलोलचक्षुर्युगत्रमादर्शी, निवृत्तवाग् यंत्रितमन्दयामी । चचार भिक्षां स तु भिक्षुवर्यो निधाय गात्राणि चलं च चेतः॥ -बुद्ध चरित, सर्ग १०, श्लोक १३ 2010_05 Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७२ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड :१ कहा-"मैं राज्य पाने के लिए नहीं, बुद्धत्व पाने के लिए प्रवजित हुआ हूँ।" बिम्बिसार ने कहा--"आपकी कामना सफल हो। बुद्धत्व प्राप्त कर आप मेरे नगर राजगृह में अवश्य आना। जैन परम्परा में श्रेणिक राजा का प्रथम समागम अनाथी मुनि के साथ हुआ, ऐसा प्रतीत होता है । वह समागम भी बहुत कुछ पूर्वोक्त समागम से समानता रखने वाला है। राजगृह के निकट मण्डी कुक्षी उद्यान था। वह नाना कुसुमों से आच्छादित व बहुत ही रमणीय था। एक दिन मगधराज श्रेणिक वन-क्रीड़ा के लिए उस उद्यान में आया। वहाँ उसने एक महानिर्ग्रन्थ को देखा। वह एक घने वृक्ष की छाया में बैठा था। उसकी आकृति सुकोमल और भव्य थी। वय से वह तरुण था । मुख पर असीम शान्ति विराजमान थी । मगधराज श्रेणिक ने ज्यों ही उसे देखा, उसके मुख से निकल पड़ा--"कैसा वर्ण! कैसा रूप! इस आर्य की कैसी सौम्यता! कैसी इसकी क्षमा ! कैसा इसका त्याग ! कैसी इसकी भोग-निस्पृहता !"२ __ मगधराज श्रेणिक उस महानिर्ग्रन्थ के निकट गया और पूछने लगा-'भिक्षुक ! तुम तहण हो, इस भोग-काल में ही कैसे दीक्षित हो गये ?" मुनि-"महाराज ! मैं अनाथ था।" राजा-"भिक्षुक ! तुम्हारे जैसा ऋद्धिमान् अनाथ ? मैं तुम्हारा नाथ होता हूँ। पुनः संसार में प्रवेश करो और मनुष्य-जीवन का आनन्द लूटो।" मुनि-“मगधराज ! तुम तो स्वयं अनाथ हो, मेरे नाथ कैसे हो जाओगे ?" राजा-"मैं अनाथ कैसे ! तुम अनाथ किसे कहते हो भिक्षुक ?" मुनि -"कौशाम्बी नगरी थी । यथानाम तथागुण 'प्रभूत धन संचय' नामक मेरा पिता था। माता, पत्नी, बन्धु, सबका सुखद संयोग था। एक बार मेरी आँखों में भयंकर वेदना उत्पन्न हुई। शरीर में भी दाह-ज्वर उत्पन्न हुआ। वह वेदना निरुपम थी, असह्य थी। कुशल चिकित्सक, अभ्यस्त मंत्रविद् सभी हताश रहे । वेदना शान्त नहीं हुई । राजन् ! मेरा पिता मेरे लिए सब कुछ न्योछावर करने को प्रस्तुत था; फिर भी वह मुझे वेदना-मुक्त नहीं कर सका; यह मेरी अनाथता थी। मेरी माता भीगी आँखों से मुझे निहारती रही, पर, मुझे वेदना-मुक्त नहीं कर सकीं; यह मेरी अनाथता थी। सगे भाई और सगी बहिनें भी मुझे वेदनामुक्त नहीं कर सकीं; यह मेरी अनाथता थी। मेरी पत्नी अनवरत मेरे पास खड़ी ही रहती थी और अपने अश्रुओं से मेरे वक्ष का परिसिंचन करती थी। वह मुझे वेदना-मुक्त नहीं कर सकी; यह मेरी अनाथता थी।" उस महानिर्ग्रन्थ ने मगधराज श्रेणिक को बताया-"राजन् ! मैंने स्वयं को सब तरह से अनाथ पाकर धर्म की शरण ग्रहण की। मैंने संकल्प किया-'मेरी वेदना शान्त हो, तो मैं अनगार धर्म को अंगीकार करूँ।' अगले ही दिन वेदना शान्त हो गई और मैं अनगार बन गया।" ___ अनाथी मुनि और श्रेणिक राजा के इस संलाप का पूरा विवरण उत्तरज्झयणाणि के बीस महानिर्ग्रन्थीय अध्ययन में दिया गया है। अनाथी मुनि ने इसी प्रसंग पर एक दूसरे १. सुत्तनिपात, महावग्ग, पव्वज्जा सुत्त; बुद्ध चरित, सर्ग ११, श्लोक ७२ । २. अहो वण्णो अहो रूवं, अहो अज्जस्स सोमया। अहो खन्ती अहो मुत्ती, अहो भोगे असंगया । उत्तरज्झयणाणि, अ० २०, गा० ६ ____ 2010_05 Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा] अनुयायी राजा २७३ प्रकार की अनाथता का भी परिचय दिया । वह अनाथता थी, प्रवजित होकर भी प्रव्रज्यानियमों के अनुकूल न चलना। शिथिलाचार की तीव्र भर्त्सना करते हुए मुनि कहते हैं "हे राजन् ! अनाथता के अन्य स्वरूप को भी एकाग्र होकर सुन । ऐसे कातर पुरुष भी होते हैं, जो निर्ग्रन्थ धर्म को पाकर भी उसमें शिथिल हो जाते हैं।' ___जैसे पोली मुट्ठी असार होती है और खोटी मुद्रा में भी कोई सार नहीं होता; उसी प्रकार द्रव्य लिंगी मुनि भी असार होता है। जैसे काँच की मणि वैडूर्य मणि की तरह प्रकाश तो करती है, किन्तु विज्ञ पुरुषों के सम्मुख उसका कुछ भी मूल्य नहीं होता; उसी प्रकार बाह्य लिंग से मुनियों की तरह प्रतीत होने पर भी वह द्रव्य लिंगी मुनि विज्ञ पुरुषों के समक्ष अपना कुछ भी मूल्य नहीं रखता।' "जो असाधु पुरुष लक्षण, स्वप्न आदि का प्रयोग करता है, निमित्त और कौतुक कर्म में आसक्त है, इसी प्रकार वह असत्य और आश्चर्य-उत्पादक विद्याओं से जीवन व्यतीत करने वाला है ; पापोदय के समय उसका कोई त्राण नहीं है।' "जो असाधु पुरुष औद्देशिक, क्रीतकृत, नितयपिण्ड और अनैषणीय कुछ भी नहीं छोड़ता, अग्नि की तरह सर्वभक्षी होकर जीता है, वह नरकादि गतियों में जाता है ॥४ संयम-शून्य साधुओं का आचार बताते हुए अनाथी ने मगधराज श्रेणिक से स्पष्ट-स्पष्ट कहा-- सोच्चाण मेहावि सुभासियं इमं अणुसासणं नाणगुणोववेयं । भग्गं फुसीलाण जहाय सव्वं महानियण्ठाण वए पहेणं ॥५१॥ हे मेधाविन् । ज्ञानगुणोपपेत इस सुभाषित अनुशासन को सुनकर और कुशील जनों के मार्ग का सर्वथा परित्याग कर महानिर्ग्रन्थों (तीर्थङ्करों) के पथ पर चल । यह सब सुनकर मगधराज श्रेणिक बहुत तुष्ट हुआ । अंजलिबद्ध होकर कृतज्ञता के शब्दों में उसने कहा : "महामुने ! आपने अनाथता का मुझे सम्यग् दिग्दर्शन कराया। आपका जन्म सफल है । आप ही सनाथ और सबन्धु हैं; क्योंकि आप सर्वोत्तम जिन-मार्ग में अवस्थित हैं। मैंने आपको भोगार्थ आमंत्रित किया, आपके ध्यान में विघ्न किया, इसके लिए मैं क्षमाप्रार्थी हूँ। मैं आपका अनुशासन ग्रहण करता हूँ।"५ १. इमा हु अन्ना वि अणाहया निवा !, तमेगचित्तो निहुओ सुणेहि । नियण्ठधम्म लहियाण व जहा, सीयन्ति एगे बहुकायरा नरा ॥३८॥ २. पोल्ले व मुट्ठी जह से असारे, अयंतिए कूडकहावणे वा। . राढामणी वेरुलियप्पगासे, अमहग्घए होइ य जाणएसु ॥४२॥ कुसीललिंगं इह धारइत्ता, इसिज्झयं जीविय बहइत्ता। असंजए संजयलप्पमाणे, विणिघायमागच्छइ से चिरं पि ॥४३॥ ३. जो लक्खणं सुविण पउंजमाणे, निमित्त कोऊहलसंपगा। कुहेडविज्जासवदारजीवी, न गच्छई सरणं तम्मि काले ॥४५॥ ४. उद्देसि कीयगडं नियागं, न मुंचई किंचि अणेसणिज्ज । अग्गी मिवा सव्वभक्खी भवित्ता, इओ चुइ गच्छ इकट्ठ पावं ॥४७॥ ५. तुट्ठो य सेणिओ राया, इणमुदाहु कयंजली । अणाहत्तं जहाभूयं, सुठ्ठ मे उवदंसियं ॥५४॥ तुझं सुलद्धं खु मणुस्सजम्म, लाभा सुलद्धा य तुमे महेसी । तुब्भे सणाहा य सबंधवा य, जंभे ठिआ मग्गे जिणुत्तमाणं ॥५५॥ 2010_05 Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७४ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन इसी अध्ययन की उपसंहारात्मक गाथा में कहा गया है : "इस प्रकार नरपति सिंह (श्रेणिक) अनगार-सिंह अनाथी मुनि को प्रणाम कर सपरिजन, सबन्धु धर्म में अनुरक्त हुआ। उक्त दोनों घटना-प्रसंगों में यह समानता बहुत ही विस्मयोत्पादक है कि मगधराज तरण भिक्षुक के सौन्दर्य और सौम्यता पर मुग्ध होता है, सांसारिक भोगों के लिए आमन्त्रित करता है और अस्वीकृति मूलक उत्तर पाता है। दोनों प्रकरणों का रचना-ऋम सहसा यह सोचने को विवश करता है कि किसी एक परम्परा ने दूसरी परम्परा का अनुकरण तो नहीं किया है ? 'मंडिकुच्छि' उद्यान का उल्लेख बौद्ध-परम्परा में 'मद्दकुच्छि' नाम से मिलता है। अनाथी मुनि का इस अध्ययन के अतिरिक्त और कहीं वर्णन नहीं मिलता। वे महावीर के संघ में थे या पार्श्व-परम्परा में, इसका भी कोई विवरण नहीं मिलता। वे कभी महावीर से मिले थे, ऐसा भी उल्लेख नहीं है । सम्भवतः इन्हीं कारणों से इतिहासकार डॉ० राधाकुमुद मुकर्जी ने इस सारे प्रकरण को अनाथी के साथ न जोड़ कर 'अनगार-सिंह' शब्दप्रयोग के आधार से महावीर के साथ जोड़ा है। उनका कथन है, श्रेणिक की यह भेंट महावीर के साथ ही हुई थी। ऐसा होने में इस भेंट का ऐतिहासिक महत्त्व तो बढ़ता है, पर, यह मानने के लिए कोई पर्याप्त आधार नहीं है। कौशाम्बी नगरी, प्रभूतधनसंचय श्रेष्ठी, अक्षिवेदना आदि इस घटना-प्रसंग को सर्वाशतः पृथक् व्यक्त करते हैं। दोनों प्रथम सम्पर्कों में उल्लेखनीय अन्तर तो यह है कि बुद्ध को तो श्रेणिक बोधिलाभ के पश्चात् राजगृह आने का आमन्त्रण मात्र ही करता है और अनाथी मुनि के सम्पर्क में श्रेणिक निर्ग्रन्थ-धर्म को सपरिवार स्वीकार करता है। ____ अनाथी निर्ग्रन्थ दूसरे प्रकार की अनाथता का वर्णन करते हुए द्रव्यलिगियों पर तीव्र प्रहार कर राजा के मन को उधर से हटाते हुए प्रतीत होते हैं। उस वर्णन से यह निकाल पाना तो कठिन है कि उनके वे संकेत अमुक पन्थ के लिए हुए हैं और इससे पूर्व श्रेणिक अमुक पन्थ को ही माना करता था। वहाँ मुख्य अभिव्यक्ति शिथिलाचारी निर्ग्रन्थों की प्रतीत होती है, पर, पता नहीं, उस समय कौन से निन्थ इतने शिथिलाचारी हो रहे थे। पार्श्व-परम्परा के शिथिल निर्ग्रन्थों की ओर यदि यह संकेत है, तो इससे इतना तो प्रतीत होता ही है कि यह घटना-प्रसंग महावीर के कैवल्य-लाभ और राजगृह-आगमन से पूर्व का है, जबकि समाज में पाश्वपत्यिक शिथिलाचारी भिक्षओं का बोलबाला था। त्रिपिटक साहित्य में धर्म-चक्षु का लाभ राजा बिम्बिसार के बौद्ध धर्म स्वीकार करने के भी कुछ एक स्पष्ट उल्लेख मिलते तं सि णाहो अणाहाणं, सव्वभूयाण संजया ! । खामेमि ते महाभाग ! इच्छामि अणुसासिउं ॥५६॥ पुच्छिऊण मए तुब्भं, झाणविग्घो उ जो कओ। निमंतिओ य भोगेहि, तं सव्वं मरिसेहि मे ॥५७॥ १. एवं थुणित्ताण स रायसीहो, अणगारसीहं परमाइ भत्तीए। सओरोहो सपरियणो, सबंधवों, धम्माणुरत्तो विमलेण चेयसा ॥५॥ २. दीघ निकाय, महावग्गो, महापरिनिब्बानसुत्त, पृ० ६१ । ३. हिन्दू सभ्यता, पृ०१८५। ____ 2010_05 Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा] अनुयायी राजा २७५ हैं । मूलभूत उल्लेख विनय पिटक का है; जिसमें बताया गया है -- बुद्ध उरुवेल काश्यप आदि सहस्र जटिलों को बौद्ध धर्म में दीक्षित कर राजगृह आये । राजा बिम्बिसार ने यह समाचार सुना । उसने बारह लाख मगध-निवासी ब्राह्मणों और गृहस्थों के साथ बुद्ध के दर्शन किए। बुद्ध उस समय लट्ठिवन में प्रतिष्ठित थे। उन्होंने बिम्बिसार आदि बारह लाख मगध-निवासियों को धर्मोपदेश दिया। धर्मकथा सुन कर उनमें से बिम्बिसार आदि ग्यारह लाख मगध वासियों को उसी आसन पर "जो कुछ पैदा होने वाला है, वह नाशमान है"-यह विरज (=निर्मल) धर्म-चक्षु उत्पन्न हुआ और एक लाख उपासक बने ।' बद्ध के धर्म में विशारद होकर बिम्बिसार ने कहा--"भन्ते! पहले कुमार-अवस्था में मेरी पाँच अभिलाषाएं थीं। वे अब पूरी हो गई। मैं चाहता था-मेरा राज्याभिषेक हो, मेरे राज्य में अर्हत् अर्थात् बुद्ध आयें, उनकी मैं सेवा करू, वे मुझे धर्मोपदेश करें और उन भगवान् को मैं जानूं । आज तक यथाक्रम मेरी पांचों अभिलाषाएं पूरी हो गई हैं। भिक्षु-संघ सहित कल के लिए मेरा निमन्त्रण स्वीकार करें।" अगले दिन मगधराज बिम्बिसार ने बुद्ध-सहित भिक्षु-संघ को अपने हाथ से उत्तम भोजन कराया और अपना वेणुवन उद्यान भिक्षु-संघ के लिए प्रदान किया। इसी प्रकरण की पुष्टि का एक समुल्लेख दीघ निकाय के कटदन्त सत्त' में मिलता है। कूटदन्त विप्र अपने परामर्शक और सहयोगी विप्रों से कहता है-''मैं क्यों न श्रमण गौतम के दर्शनार्थ जाऊँ ? मगधराज श्रेणिक बिम्बिसार पुत्र सहित, भार्या सहित, अमात्य सहित प्राणार्पण से श्रमण गौतम का शरणागत हुआ है।"3 ठीक यही उल्लेख सोणदण्ड सुत्त में प्रसंगोपात्त सोणदण्ड ब्राह्मण करता है। उपोसथ का आरम्भ शरण-ग्रहण के पश्चात् बिम्बिसार का बुद्ध और उनके भिक्षु-संघ के साथ कैसा सम्पर्क रहा, इस बात के द्योतक भी अनेक घटना-प्रसंग उपलब्ध होते हैं। कुछ एक बार और भी बुद्ध व बिम्बिमार के साक्षात् होने के उल्लेख विनय पिटक, महावग्ग में मिलते हैं। एक भेंट में बिम्बिसार प्रस्ताव रखते हैं-'अष्टमी, चतुर्दशी, पूर्णिमा के दिन अन्य धमावलम्बी एकत्र होते हैं, उपदेश करते हैं, क्यों न भन्ते ! हमारा भिक्षु-संघ भी ऐसा करे ।" बुद्ध ने तथारूप अनुमति दी। सैनिकों को दीक्षा-निषेध एक अन्य भेंट में उसने सैनिकों को दीक्षित न करने का अनुरोध बुद्ध से किया। स्थिति यह थी कि बिम्बिसार सैनिकों को सीमा-प्रदेश पर शत्र ओं से लड़ने के लिए भेजता । सैनिक मरने के भय से भिक्षु-संघ में प्रविष्ट हो जाते । बुद्ध ने वह प्रस्ताव स्वीकार किया। ___ एक बार श्रेणिक बिम्बिसार ने अपने अधीनस्थ असीति सहस्र गाँवों के प्रतिनिधियों को अपने पास एकत्रित किया। उन्हें राज, समाज और अर्थ-सम्बन्धी व्यवस्थाएं बताई। अन्त में उसने कहा-"मैंने जो भी बताया है, वह लौकिक है । लोकोत्तर ज्ञान के लिए तुम १. विनय पिटक, महावग्गो, महाखंधक, पृ० ३५-३६ । २. वही, पृ० ३७-३८। ३. दीघ निकाय, १-५, पृ १११-११२ । ४. वही, १-४, पृ० १०८। ____ 2010_05 Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७६ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड : १ सब बुद्ध की शरण में जाओ।" तदनन्तर वे सब गृधकूट पर्वत पर आये और बुद्ध के शरणा गत हए।' श्रेणिक बिम्बिसार ने अपने राज-वैद्य जीवक कौमार भृत्य को बुद्ध और भिक्षु-संघ की चिकित्सा के लिए नियुक्त किया था, जिसका उल्लेख प्रमुख उपासक-उपासिकाये प्रकरण में किया जा चुका है । बिम्बिसार द्वारा भिक्षु-भिक्षुणियों के लिए आवास-निर्माण का भी उल्लेख मिलता है। पेतवत्थ अट्ठकथा के अनुसार श्रेणिक बिम्बिसार प्रतिमास अष्टमी, चतुर्दशी, अमावस्या और पूर्णिमा को उपोसथ करता था।' कारावास में दर्शन महायान के अमितायुान सुत्त के अनुसार अपने जीवन के सांध्य में श्रेणिक बिम्बिसार जब कारावास में था, तब उसे मौग्गल्लान भिक्षु अपने ऋद्धि-बल से वहीं प्रकट होकर दर्शन देते और धर्म सूक्त सुनाते। बिम्बिसार ने वहीं बैठे ऐसा चाहा था और वैसे ही होने लगा। बिम्बिसार की पत्नी वैदेही भी एक पृथक् कारावास में दे दी गई थी। उसकी प्रार्थना पर बुद्ध के वहाँ प्रकट होने का भी उल्लेख है। ___धम्मपद-अट्ठकथा के अनुसार लिच्छवियों के प्रतिनिधि महाली के आमन्त्रण को स्वीकार कर जब बुद्ध वैशाली की ओर चले, तब श्रेणिक बिम्बिसार गंगा-तट तक उन्हें पहुंचाने के लिए आया। उसने इस प्रसंग से राजगृह से गंगा तक नवीन पथ का निर्माण कराया। उसे फूलों से सजवाया, मंजिल-मंजिल पर विश्राम-गृह बनवाये । बुद्ध नौका में बैठे । नौका चली। बिम्बिसार नौका को पकड़े-पकड़े पानी में चला । गले तक पानी आया, तब वापस मुड़ा । जब तक बुद्ध वैशाली से वापस नहीं आये, वहीं गंगा-तट पर डेरे डाल कर रहा। फिर बुद्ध को लेकर राजगृह में आया। ललितविस्तर में बुद्ध और भिक्षु-संघ के लिए नौका-विहार सदा के लिए निःशुल्क कर देने का भी उल्लेख है। पक्कुसाति-प्रतिबोध __मज्झिम निकाय के धातुविभंग सुत्त की अट्ठकथा में बताया गया है-"एक बार बिम्बिसार की राज्य-सभा में तक्षशिला के कुछ व्यापारी आये । प्रसंग से उन्होंने अपने राजा पक्कुसाति की गुण-चर्चा की। उसे गुणों से और वय से बिम्बिसार के समान ही बताया। दोनों राजाओं के बीच सन्देशों के आदान-प्रदान से मैत्री हो गई । राजगृह के व्यापारी तक्षशिला में तथा वहां के यहाँ कर-मुक्त कर दिए गए। पक्कुसाति ने पाँच पंचरगें शाल बिम्बसार को भेंट में भेजे । बिम्बिसार ने एक स्वर्ण-पट पर बुद्ध की प्रशस्ति लिखा कर उसे भेंट में भेजी। पक्कुसाति बुद्ध को देखने राजगृह तक पैदल आया और भिक्षु-संघ में प्रविष्ट हो गया।" १. विनय पिटक, महावग्गो, चम्मखन्धक, पृ० १६६ । २. विनय पिटक, चुल्लवग्ग, क्षुद्र कवस्तुस्कंधक, पृ० ४५८ । ३. गा० २०६ ४. s. b. e., vol. XLIV, p. 166. ५. खंड 3, पृ०४३८ क्रमशः; Dictionary of Pali Proper Names, Vol, II. P., 288, ___ 2010_05 Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा अनुयायी राजा २७७ मृत्यु के बाद दीघ निकाय के जनवसभ सुत्त में बिम्बिसार की लोकोत्तर गति का भी वर्णन है। आनन्द ने कहा-"भन्ते! आपने अनेक देशों के अनेक उपासकों की लोकोत्तर गति का बखान किया है, श्रेणिक बिम्बिसार भी तो धार्मिक, धर्म राजा बुद्ध का शरणागत था । वह मृत्यु-धर्म प्राप्त हो, किस गति, किस लोक में उत्पन्न हुआ, यह उल्लेख भी करें।" आनन्द के इस अनुरोध पर बुद्ध ने ध्यान लगाया। आत्म-शक्ति केन्द्रित की। यह जानने का प्रयत्न किया कि बिम्बिसार किस गति में सुख-दुःख पा रहा है। एक दिव्य यक्ष प्रकट हआ और बोला . "भन्ते ! मैं जनवसभ हुँ, मैं जनवसभ... मैं जनवसभ हूँ। मैं ही बिम्बिसार हूं।" तब बुद्ध ने जाना और आनन्द के सम्मुख प्रकट कियाबिम्बिसार यक्ष-योनि में जनवसभ नामक यक्ष हआ है। थेरी गाथा में बिम्बिसार की एक रानी खेमा का बौद्ध भिक्षु-संघ में दीक्षित होने का भी उल्लेख है, जो महाप्रज्ञाओं में अनगण्या मानी गई है। आगम-साहित्य में पूर्वोक्त सारे ही समुल्लेख अपने आप में सुस्पष्ट हैं । केवल इन्हीं के आधार पर हमें निर्णय करना हो, तो यह निस्सन्देह माना जा सकता है कि श्रेणिक बिम्बिसार बुद्ध का ही उपासक था। आगम-साहित्य की छानबीन में जब हम जाते हैं तो इनसे भी कहीं अधिक इतने ही सुस्पष्ट उल्लेख हमें वहाँ मिल जाते हैं। महावीर के सम्पर्क में मगधराज श्रेणिक को अनाथी निर्ग्रन्थ से धर्म-बोध मिला, यह उल्लेख हम कर आये हैं। दसासुयक्खंध में महावीर के साक्षात् सम्पर्क और उनके प्रति रही असाधारण श्रद्धा का परिचायक एक ज्वलन्त प्रकरण है । वहाँ बताया गया है - "उस काल उस समय में राजगृह नगर था । उसके बाहर गुणशिल उद्यान था। श्रेणिक राजा राज्य करता था। एक दिन अपनी उपस्थान शाला में राज-सिंहासन पर बैठे श्रेणिक ने कौटुम्बिक (राजकर्मचारी) पुरुषों को बुलाया और उनसे कहा-देवानुप्रियो ! तुम जाओ और राजगृह नगर के बाहर जितने ही आराम, उद्यान, शिल्पशालायें, आयतन, देवकुल, सभाएं, प्रपायें, उदकशालायें, पन्यशालायें, भोजनशालाएं, चूने के भठे, व्यापार की मंडियाँ, लकड़ी आदि के ठेके, मूंज आदि के कारखाने है, उनके जो-जो अध्यक्ष हैं, उनसे जाकर कहो--देवानुप्रियो ! श्रेणिक राजा भंभसार आदेश करता है-'जब श्रमण भगवान् महावीर इस नगर में आयें, तुम लोग स्थान, शयनासन आदि ग्रहण करने की उन्हें आज्ञा दो और उनके आने के संवाद को मेरे तक पहुँचाओ।' कौटुम्बिक पुरुषों ने ऐसा ही किया। "उस काल उस समय में श्रमण भगवान् महावीर राजगृह में आए, परिषद् जुटी। आराम आदि के स्वामी एकत्रित हो, श्रेणिक के पास आए और कहने लगे-'स्वामिन् ! जिनके दर्शन को आप उत्सुक हैं, जिनके नाम-गोत्र सुनकर आप हर्षित होते हैं, वे धर्म-प्रवर्तक तीर्थङ्कर, सर्वज्ञ, सर्वदर्शी भगवान् महावीर गुणशिल चैत्य में विराजमान हैं।' "इस संवाद को सुनकर श्रेणिक हर्षित और सन्तुष्ट हुआ। सिंहासन से उठकर सातआठ कदम आगे जा, वहीं से उसने भगवान् महावीर को वंदन किया। तदनन्तर संवादवाहकों को पारितोषिक दे, उसने सेनापति, वाहनाधीश आदि को बुलाया, चतुरङ्गिणी सेना सुसज्जित करने का आदेश दिया और धर्म-रथ सुसज्जित करने को कहा। ____ 2010_05 Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम और त्रिपिटक एक अनुशीलन - 'देवप्रिये ! तथारूप "यह सब करके वह रानी चेलणा के पास आया और बोलाअरिहन्त भगवान् के दर्शन बहुत फलदायक होते हैं । इसलिए हम चलें, श्रमण भगवान् महावीर को वन्दन करें. नमस्कार करें, उनका सत्कार और सम्मान करें । ये महावीर कल्याणकारी, मंगलकारी, देवाधिदेव और ज्ञानी हैं । वहाँ चलकर पर्युपासना करें। यह पर्युपासना हमारे इस लोक के लिए, परलोक के लिए, सुख के लिए, क्षेम के लिए, मोक्ष के लिए यावत् भव-परम्परा में फलदायक होगी ।' यह सब सुनकर चेलणा आनन्दित हुई, प्रफुल्लित हुई । € २७८ “चेलणा स्नानादि कर्म से निवृत्त हुई । बहुमूल्य वस्त्र और आभूषणों से परिसज्जित हुई । राजा श्रेणिक के साथ धार्मिक यान पर आरूढ़ हुई । क्रमशः गुणशिल उद्यान में आई । महावीर के अभिमुख हुई। तीन प्रदक्षिणा से अभिवन्दन किया । कुशल प्रश्न पूछे तथा राजा श्रेणिक को आगे कर महावीर की पर्युपासना में लीन हुई । "महावीर ने धर्म-कथा कही । परिषद् विसर्जित हुई । श्रेणिक की दिव्य ऋद्धिको देखकर कतिपय भिक्षुओं के मन में आया - 'धन्य है यह श्रेणिक भंभसार, चेलणा जैसी रानी और मगध जैसे राज्य को भोग रहा है । हमारी भी तप साधना का कोई फल हमें मिले तो यही कि हम भी आगामी जीवन में ऐसे ही मनोरम काम-भोगों को प्राप्त करें ।' चेलणा की दिव्य ऋद्धि को देखकर कतिपय भिक्षुणियों के भी मन में आया --- ' धन्य है यह चेलणा । हमारी तप साधना का कोई फल हो तो आगामी जीवन में हमें भी ऐसे काम-भोग मिलें ।' खण्ड : १ " महावीर ने भिक्षु भिक्षुणियों के इस निदान को अपने ज्ञान-बल से जाना । उन्हें एकत्रित किया । निदान के कुफल से उन्हें परिचित कराया । भिक्षु भिक्षुणियों ने अपने दुस्संकल्प की आलोचना की । " प्रस्तुत प्रकरण महावीर के प्रति श्रेणिक भंभसार की भक्ति का परिचायक होने के साथ-साथ इस बात का भी संकेत करता है कि यह प्रकरण श्रेणिक और महावीर के प्रथम सम्पर्क का होना चाहिए । इसमें चेलणा आगे होकर महावीर से मिलती है और फिर वह श्रेणिक को आगे कर उनकी पर्युपासना करती है । जैन परम्परा यह मानती है कि श्रेणिक पहले इतर धर्मावलम्बी था । चेलणा अपने पितृ पक्ष से ही निर्ग्रन्थ-धर्म को मानने वाली थी । प्रथम सम्पर्क में ही चलणा का आगे होकर महावीर का साक्षात्कार करना संगत होता है । भिक्षु भिक्षणियों का श्रेणिक और चेलणा को देखकर निदान बद्ध होना भी प्रथम सम्पर्क में अधिक सहज है । अणुतरोववाहसाओ आगम में बताया गया है-- राजा श्रेणिक ने भगवान् के दर्शन किए और देशना के अन्त में पूछा – “भन्ते ! आपके इन्द्रभूति आदि चौदह सहस्र श्रमणों में सर्वाधिक तप करने वाला और सर्वाधिक कर्मों की निर्जरा करने वाला कौन है ?" भगवान् ने कहा - "श्रेणिक ! धन्य अनगार उत्कृष्ट तपस्वी और उत्कृष्ट सुनकर श्रेणिक हर्षित हुआ । धन्य अनगार के पास आया और धन्य हो, कृतपुण्य हो ।" वहां से पुनः भगवान् महावीर को वन्दन निर्जरा- परायण है ।" यह बोला - " देवानुप्रिय ! तुम कर अपने प्रासाद लौटा ।' णायाधम्मकहाओ — के ३ वें अध्ययन में भी श्रेणिक के सदल-बल महावीर के दर्शन करने का उल्लेख है 1 } १. अणुत्तरोववाइदसाओ, तृतीय वर्ग, सू. ४ । 2010_05 Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा अनुयायी राजा २७६ राजकुमारों की दीक्षा मेधकुमार के दीक्षा-प्रसंग पर भी श्रेणिक निर्ग्रन्थ-धर्म की प्रशस्ति में कहता है - "निम्रन्थ-धर्म सत्य है, प्रधान है, परिपूर्ण है, मोक्षमार्ग है, तर्क-सिद्ध है और निरुपम है । उस (भिक्षु-धर्म) का ग्रहण लोहे के चने चबाने की तरह कठिन है।" श्रेणिक के अन्य पुत्र नन्दीसेन ने भी महावीर के समवसरण में दीक्षा ग्रहण की। ऐसा भी उरलेख मिलता है कि श्रेणिक ने एक बार अपने राज-परिवार, सामन्तों तथा मंत्रियों के बीच यह उद्घोषणा की-"कोई भी भगवान् महावीर के पास दीक्षा ग्रहण करे, मैं रोदूंगा नहीं।" कहा जाता है, इस घोषणा से प्रेरित हो, श्रेणिक के जालि, मयालि आदि २३ पुत्र महावीर के पास दीक्षित हुए। नन्दा, नन्दमती आदि १३ रानियां दीक्षित नरक-गमन और तीर्थङ्कर पद । एक बार समवसरण में श्रेणिक महावीर की पर्यपासना कर रहा था। एक कष्ठी भी उसके निकट आ बैठा । महावीर को छींक आई । कुष्ठी बोला-'मर रे।' श्रेणिक को छींक आई। कुष्ठी बोला---'जी रे।' अभयकुमार को छींक आई। कुष्ठी बोला-'जी, चाहे मर।' महाकसाई कालशौरिक ने छींका । कष्ठी बोला-'न मर, न जी।' इस असम्बद्ध प्रलाप पर श्रेणिक के सैनिकों ने उसे पकडना चाहा, पर, वह देखते-देखते अन्तर्धान हो गया। श्रेणिक ने महावीर से इस देव-माया का हाल पछा। महावीर ने कहा--"यह देव था और इसने जो कहा. सब सत्य कहा। मझे मरने के लिए कहा, इसलिए कि मेरे लिए आगे मोक्ष है। तुम्हें जीने के लिए कहा, इसलिए कि तुम्हारे आगे नरक है अर्थात् तुम्हें यहाँ से मर कर नरक पहुंचना है। अभयकुमार यहाँ भी मनुष्य है, धर्मनिष्ठ है । आगे भी उसे देवगति में जाना है; इसलिए उसे कहा-मर, चाहे जी। महाकसाई कालशौरिक यहाँ भी बीभत्स जीवन जीता है, आगे भी उसे नरक मिलना है; इसलिए उसे कहा---न मर, न जी।" श्रेणिक अपने नरक-गमन की बात सुनकर स्तब्ध रहा । बोला - "भगवन्! क्या आपकी उपासना का यही फल सबको मिलता है?'' महावीर बोले-"राजन्! ऐसा नहीं है। तुमने मृगया-गृद्धि के कारण नरक का आयुष्य बहुत पहले से बांध रखा है। मेरी उपासना का फल तो यह है कि जैसे मैं इस चौबीसी का अन्तिम तीर्थङ्कर हूँ, नरक गति से निकलते ही तू आगामी चौबीसी का प्रथम कीर्थङ्कर पद्यनाभ होगा।" श्रेणिक इस महान सँवाद को सुनकर अत्यन्त आनन्दित और प्रफुल्लित हुआ। अपने नरक-गमन को टाल सकने का उपाय भी श्रेणिक ने महावीर से पछा। महावीर ने कहा-"कपिला ब्राह्मणी दान दे तथा कालशौरिक जीव-वध छोड म्हारा नरक-गमन टल सकता है।" श्रेणिक की बात न कपिला ने मानी और न कसाई ने मानी। १. णायाधम्मकहाओ १११। २. त्रिषष्टिशालाकापुरुषचरित्रम्, पर्व १०, सर्ग ६ । विस्तार के लिए देखें, 'भिक्षु-संघ और उसका विस्तार' प्रकरण। ३. आचार्य गुणचन्द्र, महावीर चरियं, पृ.० ३३४-१ । ४. अणुत्त रोववाइदसाओ, वर्ग १, अ० १-१०; वर्ग १, अ० १-१३ । ५. अन्तगडदसाओ, वर्ग ७, अ० १.१३ । ६. पद्मनाभ तीर्थङ्कर का विस्तृत वर्णन, ठाणांग , ठा० ६ उ० ३, सूत्र ६६३ में उप लब्ध है। 2010_05 Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८० आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड : १ बलात् दान दिलवाना प्रारम्भ किया, तो कपिला बोली- “दान मैं नहीं दे रही हूँ, राजा ही दे रहा है।" कालशौरिक को कूएं में डाल दिया गया, तो वहाँ भी ५०० मिट्टी के भैसे बना कर उनका वध किया ।' तात्पर्य, न ये दोनों बातें होने वाली थीं, न नरक टलने वाला था। केवल प्रतिबोध के लिए महावीर ने श्रेणिक को ये दो मार्ग बतलाए थे। राजर्षि प्रसन्नचन्द्र ___महावीर और श्रेणिक के अनेक संस्मरण जैन वाङ्मय में प्रचलित हैं। राजर्षि प्रसन्नचन्द्र का इस सम्बन्ध में एक प्रेरक प्रसंग है। ये पोतनपुर के राजा थे। महावीर के पास दीक्षित हुए। राजगृह में समवसरण के बाहर एक दिन ये ध्यान-मुद्रा में खड़े थे। श्रेणिक की सवारी आयी । दुर्मुख सेनापति ने राजर्षि के विषय में कहा-“यह ढोंगी है और अबुद्ध भी। अल्पवयस्क राजकुमार को राज सौंप प्रव्रज्या का ढोंग रचा है। इसके मंत्री शत्र राजा से मिलकर राज हड़पने लगे हैं।" ध्यानस्थ राजर्षि के कानों में यह शब्द पड़े। मन में उथल-पुथल मच गई । शत्रुओं पर, मंत्रियों पर रोष उमड़ पड़ा। श्रेणिक भी राजर्षि को वन्दन करके महावीर के पास पहुंचा। प्रश्न पूछा-"प्रसन्नचन्द्र मुनि ध्यान-मुद्रा में अभीअभी काल-धर्म को प्राप्त हों तो किस गति को प्राप्त करेंगे?" भगवान् महावीर ने कहा'सप्तम नरक।' राजा विस्मित रहा। कुछ समय ठहर कर उसने और पछ लिया ---"भगवन्! यदि अब वे काल-धर्म को प्राप्त हों तो?" महावीर ने कहा-"सर्वार्थ सिद्ध, जो परमोच्च देव-गति है। राजन्! विस्मय की बात नहीं है। परिणामों की तरतमता ही मूल आधार है। प्रथम प्रश्न के समय उसके मन में द्वन्द्व चल रहा था। दूसरे प्रश्न के समय राजर्षि अपने आपको संभाल चुका है और आत्म-विमर्षण में लग चुका है ।" श्रेणिक का महावीर के साथ यह संलाप चल ही रहा था कि प्रसन्नचन्द्र राजर्षि ने कैवल्य प्राप्त कर लिया। आकाश में देव-दुंदुभि बजने लगी । श्रेणिक अर्हत् शासन की इस महिमा को देख कर झूम उठा। चउपन्न महापुरिस चरियं के अनुसार इन्द्र ने एक प्रशंसा की.-श्रेणिक के समान श्रद्धाशील और धार्मिक अभी कोई नहीं है । इन्द्र की इस बात से रुष्ट हो एक देव श्रेणिक की परीक्षा लेने आया। निर्ग्रन्थ-धर्म में उसे सब से दृढ़ पाकर देव प्रसन्न हुआ। उसी देव ने श्रेणिक को वह ऐतिहासिक अठारहसरा हार दिया, जो आगे चलकर 'रथमूसल संग्राम' व 'महाशिला कंटक संग्राम' का एक निमित्त बना। दिगम्बर मान्यता के अनुसार महावीर की प्रथम देशना राजगह के विपुलाचल पर श्रावण कृष्णा प्रतिपदा को हुई। मगध राज श्रेणिक सपरिवार एवं सपरिकर उस समवसरण में उपस्थित था । वह उपासक-संघ का अग्रणी था तथा साम्राज्ञी चेलणा उपासिका-संघ की अग्रणी थी। जैन या बौद्ध ? । उक्त जैन पुरावों पर ध्यान देते हैं, तो कोई प्रश्न ही नहीं रहता कि श्रेणिक दृढ़धर्मी जैन श्रावक नहीं था, पर, जब बौद्ध और जैन दोनों ओर के पुरावों को सामने रख कर एक १. त्रिषष्टि शालाकापुरुषचरित्रम्, पर्व १०, सर्ग ६ । २. वही। ३. भारतीय इतिहास : एक दृष्टि, पृ० ६५ । 2010_05 Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा] अनुयायी राजा २८१ तटस्थ चिन्तन करते हैं, तो दोनों पलड़े सम हो जाते हैं । श्रेणिक को अपना उपासक व्यक्त करने में किसी और के पुरावों को न्यून या अधिक कह पाना कठिन है, पर, इतना अवश्य कहा जा सकता है कि दोनों ही परम्पराओं के उक्त पुरावों की ऐतिहासिक समीक्षा में जाएं, तो बहुत सारे पुरावे उत्तरकालिक सिद्ध होंगे, जो समय-समय पर पुराण-ग्रन्थों में जोड़े जाते रहे हैं। जैसे, रायस डेविड्स का कहना है -"कूटदन्त सुत्त काल्पनिक प्रतीत होता है। कूटदन्त नामक कोई व्यक्ति था, ऐसा अन्यत्र कोई प्रमाण नहीं मिलता।" एडवर्ड थॉमस का अभिमत है-“बिम्बिसार और बुद्ध की प्रथम भेट का एक जनश्रु ति से अधिक महत्व नहीं है । वह नाना स्थलों पर नाना रूपों में मिलती है । प्राचीन पालि-रन्थों में वह मिलती ही नहीं ।,'२ जैन पुरावों की समीक्षा में जायें, तो उनमें भी कुछ एक जनश्रुतिपरक ही माने जा सकते हैं । अस्तु, पुरावे कुछ भी हों, कैसे भी हों, उनकी वास्तविकता और काल्पनिकता के बीच कोई सीधी रेखा नहीं खींची जा सकती। जिन्हें हम काल्पनिक सोचते हैं, उस सोचने का आधार भी तो हमारी कल्पना ही है । इस स्थिति में वास्तविकता और अवास्तविकता की छान-बीन का मार्ग भी हमें किसी निश्चित बिन्दु पर नहीं पहुंचा सकता। इस विषय में निर्णायक प्रकाश महावीर, बुद्ध और बिम्बिसार के कालक्रम से ही मिल सकता है । 'काल-गणना' प्रकरण में तीनों के कालक्रम पर व्यवस्थित और प्रमाणोपेत विचार कर चुके हैं। उसके अनुसार कैवल्य-प्राप्त महावीर और श्रेणिक की समसामयिकता १३ वर्षों की होती है तथा बोधि-प्राप्त बुद्ध की और बिम्बिसार की समसामयिकता केवल ३ वर्षों की होती है । इन ३ वर्षों में महावीर भी वर्तमान होते हैं। महावीर कैवल्य-प्राप्ति का प्रथम वर्षावास भी राजगृह में करते हैं। उसी वर्षावास के प्रारम्भ में श्रेणिक सम्यक्त्वधम तथा अभयकुमार आदि श्रावक-धर्म स्वीकार करते है। श्रणिक के निग्रेन्य-धर्म स्वीकार करने की बात अनाथी श्रमण के प्रसंग में भी आ चुकी है। हो सकता है, उसी का विधिवत् रूप यहाँ बना हो। अस्तु, श्रेणिक का महावीर के साथ घनिष्ठ सम्पर्क कैवल्य-लाभ के प्रथम वर्ष में ही हो जाता है, इसमें कोई संदेह नहीं। उस घनिष्ठ सम्पर्क का ही परिणाम माना जा सकता है कि वह अपने कुमारों और रानियों को निबाध दीक्षित होने देता है और स्वयं उनके दीक्षा समारोह मनाता है । मेघकुमार और नन्दीसेन की दीक्षा तो इसी प्रथम वर्षावास में हो जाती है। हो सकता है, श्रेणिक की इस असाधारण श्रद्धा के परिणामस्वरूप ही महावीर ने राजगृह में पुनः-पुन: चातुर्मास किए हों। श्रेणिक स्वभाव से ही आध्यात्मिक संस्कारों का व्यक्ति था। बुद्ध के उदय से पूर्व ही महावीर का राजगृह में पुन:-पुनः आगमन होता रहा । इस स्थिति में वह महावीर का १. Dialogues of Buddha, Part 1, P. 163. २. Life of Buddha, PP.68-80. ३. तीर्थङ्कर महावीर, भाग २, पृ० ११ । ४. (क) श्रुत्वा तां देशनां भर्तुः सम्यक्त्वं श्रेणिकोऽश्रयत् । श्रावकम त्वभयकुमाराद्याः प्रपेदिरे ।। -त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्रम्, पूर्व १०, सर्ग ६, श्लोक ३७६ (ख) एमाई धम्मकहं सोउं सेणिय निवाइया भव्वा । समत्तं पडिवन्ना, केई पुण देशविरयाइ ॥ -नेमिचन्द्र रचित, महावीर चरियं, गा० १२६४ ५. तीर्थकर महावीर, भाग २, पृ० ११-१६ । ____ 2010_05 Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८२ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड : १ अनुयायी न बन गया हो, यह सोचा भी नहीं जा सकता । साथ-साथ यह भी सम्भव नहीं लगता कि जीवन के अपने अन्तिम चार वर्षों में महावीर की वर्तमानता में ही वह निर्ग्रन्थ-धर्म को छोड़ कर बौद्ध-धर्म को स्वीकार कर ले, जब कि अनेकानेक रानियाँ और राजकुमार महावीर के पास दीक्षित हो चुके थे । प्रो० दलसुखभाई मालवणिया का यह कथन भी यथार्थ नहीं लगता कि महावीर ने उसका नरक-गमन बताया है, इससे ऐसा प्रतीत होता है कि वह अन्त में बौद्ध-धर्म का अनुयायी हो गया था । ऐसा ही होता तो महावीर नरक-गति के अनन्तर ही श्रेणिक को अपने ही जैसा 'पद्मनाभ' तीर्थङ्कर होने की बात क्यों कहते ? बौद्ध-न्थ महावंश में बताया गया है- बुद्ध बिम्बिसार से ५ वर्ष बड़े थे । वे ३५ वर्ष की आयु में बुद्धत्व प्राप्त कर राजगृह आये । बिम्बिसार १५ वर्ष की आयु में अभिषिक्त हुआ। अपने शासन काल के १६वें तथा अपने जीवन के ३१वें वर्ष में बुद्ध की शरण में आया। तदन्तर ३७ वर्ष बुद्ध की वर्तमानता में वह जीवित रहा । अजातशत्रु के राजगद्दी पर बैठने के ८ वर्ष पश्चात् बुद्ध का परिनिर्वाण हुआ। महावंश का उल्लेख यथार्थ नहीं है। उसकी अयथार्थता पर 'काल-गणना' प्रकरण में विस्तार से विचार किया जा चुका है । श्रेणिक की निर्ग्रन्थ-धर्म की घनिष्ठता का एक प्रमाण यह भी है कि उसकी रानियाँ और राजकुमार महावीर के पास जितनी बड़ी संख्या में दीक्षित हुए हैं, उस अपेक्षा में बुद्ध के पास दीक्षित होने वालों की संख्या नगण्य है। श्रेणिक के परम्परागत जैन होने का भी आधार मिलता है । उसके पिता के सम्बन्ध में बताया ग . है - वह पार्श्व-परम्परा का सम्यग्दृष्टि और अणुव्रती उपासक था। डॉ० काशीप्रसाद जायसवाल के अनुसार श्रेणिक के पूर्वज काशी से मगध में आये थे । यह भी माना जाता है कि काशी का यह वही राजवंश था, जिसमें तीर्थङ्कर पार्श्व पैदा हुए थे। इस आधार पर यह सोचा जा सकता है, श्रेणिक का कुल-धर्म जैन-धर्म ही रहा है। जैन अनुश्रुति के अनुसार भी श्रेणिक अपने कुलधर्म से जैन होते हुए भी अपने निर्वासन-काल में जैन-धर्म से विमुख हो गया था। हो सकता है, उसी समय वह शिथिलाचारी श्रमणों को मानने लगा हो, जिसका संकेत हमें अनाथी श्रमण के प्रसंग में भी मिलता है । अस्तु, जिसके पूर्वज जैन और जिसका पिता जैन उस श्रेणिक का जन्म-जात जैन होना सहज बात है। जीवन के अन्तिम चार वर्षों में उसका सम्बन्ध बुद्ध और बौद्ध भिक्षु-संच से भी रहा, इसमें संदेह नहीं; पर, वह सम्बन्ध सौहार्द और सहानुभूति से अधिक गहरा प्रतीत नहीं होता। __ उक्त तथ्य की पुष्टि में एक सबल प्रणाम यह है कि राजगृह महावीर और निर्ग्रन्थसंघ का ही प्रमुख केन्द्र था। महावीर ने स्वयं वहाँ १४ वर्षावास बिताये । अनेक बार शेषकाल में भी वे वहाँ आते रहे । राजगृह के लोग पहले से भी पार्श्व-परम्परा को मानते आ रहे थे। १. स्थानांग-समवायांग (गुजराती अनुवाद), पृ० ७४१ । २. महावंश, परिच्छेद २, गा०२६-३२ । ३. श्रीमत्पावजिनाधीश-शासनाम्भोजषट्पदः। सम्यग्दर्शन पुण्यात्मा, सोऽणुव्रतधरोभवत् ॥ -त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्रम्, पर्व १०, सर्ग ६, श्लोक ८ ४. भारतीय इतिहास : एक दृष्टि, पृ० ६२ । 2010_05 Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा ] अनुयायी राजा २८३ इसमें संदेह नहीं होना चाहिए कि राजगृह के निर्ग्रन्थ-संघ और महावीर का केन्द्र होने में श्रेणिक की अनुयायिता भी एक प्रमुख आधार थी । बुद्ध और बौद्ध भिक्षु संघ का केन्द्र राजगृह नहीं, श्रावस्ती था । वहीं अनाथपिण्डिक का जेतवन था और वहीं विशाखा मृगारमाता का पूर्वाराम। वहीं बुद्ध का परम अनुयायी राजा प्रसेनजित् था । वहाँ बुद्ध ने स्वयं २६ वर्षावास बिताये, जबकि राजगृह में केवल पाँच । महावीर ने श्रावस्ती में केवल एक वर्षावास बिताया। उल्लेखनीय बात यह है कि महावीर ने जिस प्रकार श्रेणिक के तीर्थङ्कर होने की घोषणा की, वैसे ही बुद्ध ने प्रसेनजित् के लिए बुद्ध होने की घोषणा की। कुल मिलाकर यही यथार्थ लगता है कि श्रेणिक महावीर का अनुयायी था और प्रसेनजित् बुद्ध का । श्रेणिक के विषय में डॉ० वी० ए० स्मिथ का भी अभिमत है " वह अपने आप में जैन-धर्मावलम्बी प्रतीत होता है। जैन-परम्परा उसे राजा संप्रति के समान ही जैन-धर्म का प्रभावक मानती है ।"" उसी ग्रन्थ में वे आगे लिखते हैं- "महावीर अपने मातृक सम्बन्ध के कारण विदेह, मगध और अंग आदि देशों के राजगुरु थे । बिम्बिसार और अजातशत्रु से उनका व्यक्तिगत सम्पर्क था; ऐसे अनेक उल्लेख मिलते हैं । यह भी प्रतीत होता है कि बिम्बिसार और अजातशत्र ू; इन दोनों ने महावीर के सिद्धान्तों का अनुसरण किया था ।' नाम चर्चा भिभिसार आदि जैन आगामों में श्रेणिक के लिए भंभसार, भिभिसार, भिभसार शब्दों का प्रयोग भी बहुतायत से मिलता है ।" उत्तरवर्ती संस्कृत प्राकृत ग्रन्थों में भंभासार शब्द ही मुख्ततः प्रयुक्त १. अनागतवंश; Di tionary of Puli Proper Names, vol 11, P. 174. R. He appears to have been a Jain in religion, and sometimes is coupled by Jain tradition with Asoka's grandson, Samprati, as a notabe petron of the creed of Mahavira. - The Oxford History of India, P, 45 3. Being related through his mother to the reigning kings of Videha, Magadha and Anga, he was in a position to gain official patronage for his teaching, and is recorded, to have been in personal touch with both Bimbisara and Ajatasatru, who seem to have followed his doctrine. ४. ( क ) सेणिए भंभसारे । -- The Orford History of India, P. 51, 52 णायाधम्मक हाओ, श्रु०१, २०१३ ( पत्र १८६ - २ ) दसासुयक्खन्ध, दशा १० सू० १ आदि । (ख) सेणिए भंभसारे, सेणिए भिभसारे । उववाई सुत्त, सू० ७ पृ० २३; सू० पृ० २५; सू० २९ पृ० ११५ (ग) सेणिए भिभिसारे । -- ठाणांग सुत्त, ठा० ६, पत्र ४५८ - २ 2010_05 Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८४ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड:१ हुआ है।' भंभा, भिंभा और भिभि-ये शब्द भेरी के अर्थ में एकार्थवाची माने गए हैं। विविध ग्रन्यों में इस नामकरण का एक ही हार्द बताया गया है ----महलों में आग लग जाने से सभी राजकुमार विविध वस्तुएं लेकर भागे। श्रेणिक ‘भंभा' को ही राजचिह्न के रूप में सारभूत समझकर भागा। इसलिए उसका नाम भंभासार पड़ा। श्री विजयेन्द्र सूरि ने केवल भम्भासार शब्द को ही यथार्थ माना है। अन्य सब नामों को अशुद्ध ठहराने का प्रयत्न किया है, पर, यह उचित नहीं लगता। ये सभी शब्द मूल आगमों में अनेकधा प्रयुक्त हुए हैं । 'भंभा' के अतिरिक्त भिंभ' आदि शब्द भंभावाची न भी होते हों, जैसे कि विजयेन्द्र सूरि का कहना है, तो भी श्रेणिक के नाम के साथ उनका योग तो है ही । अतः ये संज्ञावाची होकर अपने अर्थ के वाचक हो ही जाते है । आर्ष संज्ञाओं के विषय में अशुद्ध होने का कोई प्रश्न बनता ही नहीं। विजयेन्द्र सूरि ठांणांग वृत्ति से प्रमाणित करते हैं -"भभा' ति ढक्का सा सारो यस्य स भंभासारः।" लगता है, यह प्रमाण दृष्टि-दोष से ही उन्होंने अपने पक्ष में प्रयुक्त कर लिया है। वस्तुतः जिस प्रति से उन्होंने यह पंक्ति उद्धृत की है, उस प्रति में तो प्रत्युत यह बताया गया है-"र्भािभ' ति ढक्का सा सारो यस्य स तथा (भिभिसारः)।" जिस पाठ की वहाँ व्याख्या की जा रही है, वह पाठ भी तो स्पष्टतः "सेणिराया भिभिसारे" ही है। वृत्तिकार श्री अभयदेव सूरि उसी प्रसंग में भी तो स्पष्ट करते हैं—'तेन कुमारत्वे प्रदीपनके जयढक्का गेहान्निष्का षिता ततः पित्रा भिभिसार उक्तः। डॉ० पिशल ने भी भिभिसार शब्द को यथार्थ ही माना है। बिम्बिसार बौद्ध परम्परा में श्रेणिक का अन्य नाम बिम्बिसार माना गया है । 'बिम्ब' अर्थात् स्वर्ण । स्वर्ण के समान वर्ण होने के कारण बिम्बिसार नाम पड़ा। तिब्बती-परम्परा में माना गया है -श्रेणिक की माता का नाम बिम्बि था; अतः उसे बिम्बिसार कहा जाता था। ___ भिभिसार और बिम्बिसार नाम एक दूसरे के बहुत निकट प्रतीत होते हैं । इनकी समानता का हार्द अन्वेषणीय है । हो सकता है, एक ही नाम भाषा व उच्चारण आदि के भेद से दो रूपों में चल पड़ा हो । श्रेणिक १. अभिधान चिन्तामणि, काण्ड ३, श्लो० ३७६; उपदेशमाला सटीक, पत्र ३३४; ऋषि मण्डल प्रकरण, पत्र १४३; श्रीभरतेश्वर बाहुबली वृत्ति, प्रथम विभाग, पत्र २२; आवश्यक चूणि, उत्तरार्ध, पत्र १५८ । २. पाइयसद्दमहण्णवो, पृ० ७६४,८०७ । ३. सेणिय कुमारेण पुणो जयढक्का कड्ढिया पविसिऊणं पिऊण तुठेण तओ सी भंभासारो। -उपदेशमाला सटीक, पत्र ३३४-१ ४. तीर्थकर महावीर, भा॰ २, पृ० ६३० से ६३३ । ५. आगमोदय समिति, प्रकाशन-सन् १६२० । ६. पत्र ४६१-१। ७. Grmmatic Derprakrit Sprachen Para. २०१. प्राकृत भाषाओं का व्याकरण, अनु० डॉ हेमचन्द्र जोशी, बिहार राष्ट्र-भाषा परिषद्, पटना, पृ० ३१३ । ८. उदान अट्ठकथा, १०४ । E. W.W. Rockhill, Life of Buddha, P.88. 2010_05 Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा] अनुयायी राजा २८५ श्रेणिक नाम जैन और बौद्ध दोनों ही परम्पराओं में समान रूप से अभिमत है। दोनों परम्पराओं में क्रमशः 'श्रेणिक भिभिसार' और 'श्रेणिक बिम्बिसार' का संयुक्त प्रयोग ही मुख्यतः मिलता है। श्रेणिक शब्द के व्यौत्पत्तिक अर्थ में भी बहुत कुछ समानता है। जैन-परम्परा मानती है._णियों की स्थापना करने से श्रेणिक नाम पड़ा।" बौद्ध-परम्परा मानती है-"पिता के द्वारा अठारह श्रेणियों का स्वामी बनाये जाने के कारण वह श्रेणिक बिम्बिसार कहलाया।"२ दोनों ही परम्पराओं में श्रेणियों की संख्या अठारह है। श्रेणियों के नाम भी बहुत कुछ समान रूप से मिलते हैं। जैनागम जम्बूदीवपण्णत्ति में नव नारु और नव कारु५ श्रेणियों के ये अठारह भेद बहत ही विस्तत रूप में बताये गये हैं। बौद्ध साहित्य में श्रेणियों के नाम एक रूप तथा इतने व्यवस्थित नहीं मिलते। महावस्तु के नाम जम्बूदीवपण्णत्ति के नामों से बहत कुछ मिलने वाले हैं, पर, वे संख्या में तीस कर दिये गये हैं। डाँ० सी० मजूमदार ने विविध ग्रन्थों से एकत्रित कर श्रेणियों के सत्ताइस नाम संजोये हैं। मालूम होता है, उन्होंने जम्बूदीवपण्णत्ति का अवलोकन नहीं किया । नहीं तो उन्हें यह नहीं लिख देना होता कि "ये अठारह श्रेणियाँ कौन थीं, यह बताना सम्भव नहीं है।"" कुछ लोग यह भी मानते हैं कि महती सेना होने से या सेनिय गोत्र होने से, श्रेणिक नाम पड़ा। पिता का नाम श्रेणिक के पिता का नाम श्वेताम्बर-परम्परा के अनुसार प्रसेनजित् ठहरता है ।। दिगम्बर-परम्परा के उत्तरपुराण में उसके पिता का नाम कुणिक बताया गया है, जो स्पष्टतः अयथार्थ है । दिगम्बर आचार्य हरिषेण कृत बृहत् कयाकोष (कथांक, ५५) में श्रेणिक १. श्रेणी : कायति श्रेणिको मगधेश्वर :। --अभिधान चिन्तामणिः, स्वोपज्ञवृत्तिः, मर्त्यकाण्ड, श्लो० ३७६ । २. सपित्राष्टादशसु श्रेणिष्ववतारितः । अतोऽस्यो श्रेण्यो बिम्बिसार इति ख्यातः । -विनय पिटक, गिलगिट मांस्कृप्ट । ३. जम्बूदीवपण्णत्ति, वक्ष० ३; जातक, मूगपक्खजातक, भा०६, जातक संख्या ५३८ । ४. कुंभार, पट्टइल्ला, सुवण्णकारा, सूवकारा य । गंधव्वा, कासवग्गा, मालाकारा, कक्छकरा ॥१॥ तंम्बोलिया य ए ए नवप्पयारा य नारुआ भणिआ। अह णं गवप्पयारे कारुअवण्णे पवक्खामि ॥२॥ चम्मयरु, जंतपीलग, गंछिअ, छिपाय, कंसारे य । सीवग. गुआर, भिल्लग, धीवर, वण्णइ अठ्ठदस ॥३॥ ५. भा० ३, पृ० ११३ तथा ४४२-४४३ । ६. Corporate Life in Ancient India, vol II, P. 18, ७. Dictionary of Pali Proper Names, vol, II, PP. 289. 1284. ६. त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्रम्, पर्व १०, सर्ग ६, श्लो० १। १०. सुनुः कुणिकभूपस्य श्रीमत्यां त्वमभूरसौ। अथान्यदा पिता तेऽसौ मत्पुत्रेषु भवेत्पतिः ॥ -उत्तरपुराण,चतुःसप्ततितमं पर्व, श्लो० ४१८ । ____ 2010_05 Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८६ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [सण्ड:१ के पिता का नाम उपश्रेणिक बताया गया है। श्रीमद् भागवत पुराण में श्रेमिक को विधिसार तथा उसके पिता को क्षेत्र कहा गया है। अन्यत्र उसके भट्टिय, महापद्म, हेमजित्, क्षेत्रोजा, क्षेत्प्रोजा आदि विभिन्म नाम होते हैं । रानियां जैन-साहित्य में श्रेणिक की २५ रानियों के नाम उपनम्ब होते हैं। नन्दा आदि १३ रामियों के नाम तथा काली, सुकाली आदि १० रानियों के नाम अन्तगडसामओ में मिलते हैं। ये श्रेणिक की मृत्यु के पश्चात् महावीर के पास दीक्षित होती हैं । दमासुयसन्ध में चेलणा का साम्राज्ञी के रूप में वर्णन आया ही है। निक्षीय बूणि में श्रेणिक की एक पत्नी का नाम अपतगंधा आया है, जो विशेष प्रसिद्ध नहीं है। पायायामकहाओ में श्रेणिक की धारिणी रानी का विशद वर्णन है। विनय पिटक में राजा बिम्बिसार के ५०० पत्नियां बताई गई हैं । जीवक कोमार मृत्य ने बिम्बिसार के भगन्दर सेग का उपचार एक लेप में कर दिका। प्रसन्न हो, बिम्बिसार ने ५०० स्त्रियों को अलंकृत कर उनके सब आभूषण जीयक को उपहार रूप में दिये। यह निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता, ये ५०० श्रेणिक की रानियाँ ही रही हों। बौद्ध मान्यता के अनुसार राजा प्रसेनजित् को बहिन कोसलदेवी बिम्बिसार की पटरानी थी। इसके दहेज में एक लाख कार्षापण की एक आय वाला एक गांव बिम्बिसार को मिला था। रानी खेमा मद्र-देश की राज-कन्या थी। वह रूप-गविता थी। प्रतिबोध पाकर बुद्ध के पास दीक्षित हुई। उज्जयिनी की गणिका पद्मावती भी श्रेणिक की पत्नी मानी गई है। अमितायुयान सूत्र में वैदेही वासवी के बिम्बिसार की रानी होने का उल्लेख मिलता है। बिम्बिसार की रानियों के विषय में जैन और बौद्ध समुल्लेख परस्पर भिन्न है । लगता १. तथास्ति मगधे देशे पुरं राजगृहं परम् । तत्रोपश्रेणिको राजा तद्भार्या सुप्रभा प्रभा॥१॥ तयोरन्योन्यसंप्रीतिसंलग्नमनसोरभूत् । तनयः श्रेणिको नाम सम्यक्त्व कृतमूषणः ॥२॥ २. स्कन्ध १२, अ० १, पृ० ६०३ । 3. Political History of Ancient India, p. 205 ४. सभाष्य, भा० १, पृ० १७ । ५. णायाधम्मकहाओ, अ० १ सू०८ (पत्र १४-१)। ६. महावग्ग, ८-१-१५। ७. जातक २-४०३; Dictionary of Pali Proper Names, Vol. II, p. 286; संयुत्त निकाय , अट्ठकथा। ८. थेरी गाथा-अट्ठकथा, १३६-१४३ । ६. थेरी गाथा, ३१-३२ । 2010_05 Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा ] अनुयायी राजा २८७ है, बिम्बिसार के बहुत-सी रानियां थीं। मुख्यतः जिस-जिस परम्परा से जिनका सम्बन्ध रहा है, उस परस्परा में उनका ही समुल्लेख मुख्यत: हुआ है । हो सकता है, कुछ एक रानियाँ नामभेद से दोनों परम्पराओं में उल्लिखित हुई हों । राजपुत्र श्रेणिक का उत्तराधिकारी राजपुत्र कूणिक ( अजातशत्रु ) था । बौद्ध परम्परा में कुछ एक पुत्रों का उल्लेख है । अभयकुमार को नर्तकी रानी पद्मावती का पुत्र बताया गया है । " अम्बपाली गणिका से उत्पन्न बिम्बिसार का एक पुत्र विमल कोडञ्ञ था, जो आगे चल कर बौद्ध भिक्षु हुआ । बिम्बिसार के एक अन्य पुत्र सीलवा ( शीलवत् ) ने भी भिक्षु बनकर अर्हत् पद प्राप्त किया था। बिम्बिसार के एक पुत्र का नाम जयसेन था । * जैन परस्परा में कूणिक के अतिरिक्त बहुत सारे राजकुमारों का व्यवस्थित वर्णन मिलता है । अणुत्तरोववाइय में १० राजकुमारों का वर्णन आया है। उनके नाम हैं - १. जाली, २. मयाली, ३. उवयाली, ४ पुरिमसेण, ५. वारिसेण, ६. दिहृदन्त, ७. लट्ठदन्त, . ८. . वेहल्ल, ६. वेहायस और १०. अभयकुमार । इनमें से प्रथम ७ धारिणी के पुत्र थे, वे हल्ल और वेहायस चेलणा के तथा अभयकुमार नन्दा की। उसी आगम में प्रसंगान्तर से १३ राजकुमारों के निम्नोक्त नाम बताये गये हैं१. दीहसेण, २. महासेण, ३. लट्ठदन्त, ४. गूढ़दन्त, ५. शुद्धदन्त, ६ . हल्ल, ७. दुम, ८. दुमसेण, ६. महादुमसेण, १०. सीह, ११. सीहसेण १० महासी हसेण और १३. पुण्णसेण । निरियावलिका में काली, सुकाली आदि रानियों से निम्नोक्त दस राजकुमार माने गये हैं - १. कालकुमार, २. सुकालकुमार, ३. महाकालकुमार, ४. कण्हकुमार, ५. सुकण्हकुमार, ६. महाकण्हकुमार, ७ वीरकण्हकुमार, ८. रमिकण्हकुमार, ६. सेणकण्हकुमार और १०. महासेणकण्हकुमार । मेघकुमार, नन्दीसेन, ये दो राजपुत्र जैन परम्परा में बहुत प्रसिद्ध रहे हैं । जैन आगमों में उक्त राजपुत्रों का नामग्राह उल्लेख मात्र ही नही ; यथास्थान इन सबका व्यवस्थित जीवन-वृत्त भी है। इनमें से कालकुमार आदि दस महाशिलाकण्टक संग्राम में मरे हैं और शेष सभी ने दीक्षा ग्रहण की है । अजातशत्रु कूणिक श्रेणिक की तरह कूणिक ( अजातशत्रु) का भी दोनो परम्पराओं में समान स्थान है । दोनों ही परम्पराएँ उसे अपना-अपना अनुयायी मानती। और इसके लिए दोनों के पास १. थेरी गाथा ३१-३२ । २. थेर गाथा - अट्ठकथा, ६४ । ३. थेर गाथा, ६०८-६१६ । ४. मज्झिमनिकाय - अट्ठकथा, २,६३२ । ५. नवरं सत्त घारिणीसुआ, वेहल्ल वेहासा चेल्लणाओ, अभयस्स णाणत्तं रायगिहे नयरे सेणिये राया नन्दा देवी । 2010_05 - - अनुत्तरोववाइय, वर्गं १ Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [ खण्ड : १ अपने-अपने आधार हैं । बौद्ध परम्परा के अनुसार सामञ्ञाफल सुत्त का सम्पर्क बुद्ध और अजातशत्रु का प्रथम- प्रथम मिलन था । उसी में वह बुद्ध, धर्म और संघ का शरणागत उपासक हुआ ।" बुद्ध के प्रति अजातशत्रु की भक्ति का अन्य उदाहरण उनकी अस्थियों पर एक महान् स्तूप बनवाना है । बुद्ध के मश्मावशेष जब बांटे जाने लगे, उस समय अजातशत्रु ने भी कुशीनारा के मल्लों से कहलाया - "बुद्ध भी क्षत्रिय थे, मैं भी क्षत्रिय हूँ । अवशेषों का एक भाग मुझे अवश्य मिलना चाहिए।" द्रोण विप्र के परामर्श पर उसे एक अस्थि-भाग मिला और उस पर उसने स्तूप बनाया । " २८८ सामञ्ञफल सुत्त में अजातशत्रु कार्तिक पूर्णिमा की रात को अपने राज वैद्य जीवक कौमारभृत्य से बुद्ध का परिचय पाता है और पाँच सौ हाथियों पर पाँच सौ रानियों को लिए उसी रात में बुद्ध का साक्षात् करता है । महावीर से उसका प्रथम साक्षात् कब होता है, यह कहना कठिन है । उनके जितने साक्षात् उनसे मिलते हैं, वे चिर परिचय और अनन्य भक्ति के ही सूचक मिलते । प्रथम उपाङ्ग उववाई आगम मुख्यतः महावीर और कूणिक के सम्बन्धों पर ही प्रकाश डालता है। चम्पा नगरी और कूणिक की राज्य स्थिति का भी वहाँ सुन्दर चित्रण है । कूणिक को महावीर के प्रति भक्ति के विषय में वहाँ बताया गया है— उसके एक प्रवृत्ति-वादक पुरुष था । वह महान् आजीविका पाता था । उसका कार्य था, महावीर की प्रतिदिन की प्रवृत्ति से उसे अवगत करते रहना। उसके नीचे अनेकों कर्मकर रहते थे । वे भी आजीविका पाते थे। उनके माध्यम से महावीर के प्रतिदिन के समाचार उस प्रवृत्ति-वादुक पुरुष को मिलते और वह उन्हें कूणिक को बताता । 3 महावीर के चम्पा आगमन और कूणिक के भक्ति - निदर्शन का विवरण उबवाई सुत में बहुत ही विशद और प्रेरक है । सामञ्ञफल सुत्त की तरह वह भी यदि गवेषकों की समीक्षा का विषय बना होता, तो उतना ही महत्त्व उसका बनता । स्थिति यह है कि जितनी शोध- खोल अब तक त्रिपिटकों पर हुई है, उतनी आगमों पर नहीं । यदि ऐसा हुआ होता तो अनेकों महत्त्वपूर्ण विषयों पर निर्णायक प्रकाश पड़ता । अजातशत्रु कूणिक के विषय में मी जितनी अवगति आगम देते हैं, उतनी त्रिपिटक नहीं । महावीर के आगमन का सन्देश महावीर और कूणिक का यह सम्पर्क चम्पा नगरी में होता है - महावीर ग्रामानुग्राम विहार करते १४ सहस्र भिक्षु ३६ सहस्र भिक्षुणियों के परिवार से चम्पा नगरी के उपनगर में आये । प्रवृत्ति-वादक पुरुष यह संवाद पा, आनन्दित हुआ, प्रफुल्लित हुआ । स्नान कर मंगल वस्त्र पहने, अल्प भार युक्त तथा बहुत मूल्य युक्त आभूषण पहने। घर से निकला । चम्पा नगरी १. एसाहं, भन्ते, भगवन्तं सरणं गच्छामि धम्मं च भिक्खु संघ च । उपासकं मं भगवा धातु अज्जतग्गे पाणुपेतं सरणं गतं । २. बुद्धचर्या, पृ० ५०६ । ३. तस्स णं कोणिअस्स रण्णो एक्के पुरिसे विउलकय-वित्तिए भगवओ पवित्तिवाउए, भगवओ तद्देवसिअं पविति णिवेएइ । तस्स णं पुरिसस्स बहवे अण्णे पुरिसा दिण्णभति- भत्त-वेअणा भगवओ पवित्तिवाउआ भगवओ तद्देवसिअं पवित्ति निवेदेति । — उववाई सुत्त सु०, ८ 2010_05 Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा] अनुयायी राजा २८६ के मध्य होता हुआ भंभसार-पुत्र कूणिक की राजसभा में आया। जय-विजय शब्द से वर्धापना की और बोला--"देवानुप्रिय ! आप जिनके दर्शन चाहते हैं, जिनके दर्शन आपके लिए पथ्य हैं, जिनके नाम-गोत्र आदि के श्रवण से ही आप हृष्ट-तुष्ट होते हैं, वे श्रमण भगवान् महावीर ग्रामानुग्राम विचरते हुए क्रमशः चम्पा नगरी के उपनगर में आये हैं और चम्पा नगरी के पूर्णभद्र चैत्य में आने वाले हैं । यह संवाद आपके लिए प्रिय हो।" भंभसार-पुत्र कूणिक उस प्रवृत्ति-निवेदक से यह संवाद सुनकर अत्यन्त हर्षित हुआ। उसके नेत्र और मुख विकसित हो गये । वह शीघ्रता से राज-सिंहासन छोड़ कर उठा, पादुकाएँ खोलीं। पांचों राज-चिह्न दूर किये। एक साटिक उत्तरासंग किया। अंजलिबद्ध होकर सातआठ कदम महावीर की दिशा में आगे गया। बाँये पैर को संकुचित किया। दाँये पर को संकोच कर धरती पर रखा। मस्तक को तीन बार धरणी-तल पर लगाया। फिर थोड़ा-सा ऊपर उठ कर हाथ जोड़े। अंजलि को मस्तक पर लगा कर णमोत्थुणं से अभिवादन करते हए बोला-'श्रमण भगवान् महावीर जो आदिकर हैं, तीर्थंकर हैं. यावत् सिद्ध गति के अभिलाषुक हैं। मेरे धर्मोपदेशक और धर्माचार्य हैं, उन्हें मेरा नमस्कार हो । यहाँ से मैं तत्रस्थ भगवान् का वन्दन करता हूँ। भगवान् वहीं से मुझे देखते हैं । २ ।। वन्दन-नमस्कार कर राजा पुनः सिंहासनारूढ़ हुआ। उसने प्रवृत्ति-वादुक पुरुष को एक अष्ट सहस्र रजत मुद्राओं का 'प्रीतिदान' दिया और कहा-'भगवान् महावीर जब चम्पा के पूर्णभद्र चैत्य में पधारें, तब मुझे पुनः सूचना देना।" महावीर का चम्पा-आगमन सहन किरणों से सुशोभित सूर्य आकाश में उदित हुआ। प्रभात के उस मनोरम वातावरण में भगवान महावीर जहाँ चम्पा नगरी थी, पूर्णभद्र चैत्य था, वहाँ पधारे । यथारूप स्थान ग्रहण कर संयम और तप से आत्मा को भावित करते हुए विचरने लगे। चम्पा नगरी के श्रृंगाटकों और चतुष्कों पर सर्वत्र यही चर्चा थी-"श्रमण भगवान् महावीर यहां आये हैं, पर्णभद्र चैत्य में ठहरे हैं; उनके नाम-गोत्र के श्रवण से ही महाफल होता है। उनके साक्षात् दर्शन की तो बात ही क्या ? देवानुप्रियो ! चलो, हम सब भगवान् महावीर को वन्दन-नमस्कार करें। वह हमारे इस लोक और आगामी लोक के लिए हितकर और सुखकर होगा।" तदन्तर लोकों ने स्नान किया, वस्त्राभूषणों से सुसज्जित हुए तथा मालाएँ धारण की। कछ घोड़ों पर, कुछ हाथियों पर व कुछ शिविकाओं में आरूढ़ होकर तथा अनेक जनवृन्द पेदल ही भगवान् महावीर के दर्शनार्थ चले। प्रवृत्ति-वादुक पुरुष ने कूणिक को यह हर्ष-संवाद सुनाया। राजा ने साढ़े बारह लाख १. खड्ग, छत्र, मुकुट, उपानत् और चामर। २. णमोऽत्थुणं समणस्स भगवो महावीरस्स आदिगरस्स तित्थगरस्स.."जाव संपाविउ कामस्स मम घम्मायरियस्स धम्मोवदेसगस्स। वंदामि णं भगवन्तं तथगयं रइहगए, पासइ मे (मे से) भगवं तत्थगए इहगयं तिकट्ठ वंदह णमंसइ । -उववाई सुत्त, सू० १२ 2010_05 Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६० आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड : १ रजत-मुद्राओं का 'प्रीतिदान' दिया। तब मंभसार-पुत्र कूणिक ने बलव्याप्त पुरुष (सेनाधिकारी) को बुलाया और कहा-"हस्तिरत्न को सजा कर तैयार करो। चतुरंगिनी सेना को तैयार करो। सुभद्रा आदि रानियों के लिए रथों को तैयार करो। चम्पा नगरी को बाहर और भीतर से स्वच्छ करो। गलियों और राजमार्गों को सजाओ। दर्शकों के लिए स्थानस्थान पर मंच तैयार करो । मैं भगवान महावीर की अभिवन्दना के लिए जाऊँगा।" राजा के आदेशानसार सब तैयारियां हैं। राजा हस्तिरत्न हाथी पर सवार हआ। सुभद्रा प्रभृति रानियाँ रथों पर सवार हुई। इस प्रकार चतुरंगिनी सेना के महान् वैभव के साथ राजा भगवान् महावीर के दर्शनार्थ चला। चम्पा नगरी के मध्य-भाग से होता हुआ पूर्णभद्र चैत्य के समीप आया । श्रमण भगवान् महावीर के छत्र आदि तीर्थंकर-अतिशय दूर से देखे । वहीं उसने हस्तिरत्न छोड़ दिया। पांचो राजचिह्न छोड़ दिये । वहाँ से वह भगवान् महावीर के सम्मुख आया। पंच अभिगमन कर भगवान महावीर को वन्दन-नमस्कार किया। वन्दन-नमस्कार कर मानसिकी, वाचिकी और कायिकी उपासना करने लगा। महावीर का उपदेश भगवान् महावीर ने उपस्थित परिषद् को अर्धमागधी भाषा में देशना दी, जिसमें बताया-"लोक है, अलोक है। इसी प्रकार जीव, अजीव, बन्ध, मोक्ष, पुण्य, पाप, पाश्रव, संवर, वेदना, निर्जरा.. आदि हैं। प्राणातिपात, मृषावाद अदत्तादान, मैथुन, परिग्रह, क्रोध, मान, माया, लोभ... आदि हैं। प्राणातिपात-विरमणमृषावाद-विरमण, अदत्तादान-विरमण मैथुन-विरमण, परिग्रह-विरमण, यावत् मिथ्यादर्शन शल्यविवेक हैं। सभी अस्तिभाव अस्ति में हैं. सभी नास्ति भाव नास्ति में हैं। सुचीर्ण कर्म का सुचीर्ण फल होता है, दुश्चीर्ण कर्म का दुश्चीर्ण फल होता है । जीव पुण्य-पाप का स्पर्श करते हैं। जीव जन्म-मरण करते हैं। पुण्य और पाप सफल हैं। धर्म दो प्रकार का है-आगार धर्म और अनगार धर्म । अनगार धर्म का तात्पर्य है-सर्वतः सर्वारमना मुण्ड होकर गृहावस्था से अगृहावस्था में चले जाना अर्थात् प्राणातिपात आदि से सर्वथा विरमण । अनगार धर्म बारह प्रकार का है—पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत व चार शिक्षाव्रत ।१४ १. मूल प्रकरण में 'रजत' शब्द नहीं है, पर, परम्परा से ऐसा माना जाता है कि चक्रवर्ती का प्रीतिदान साढ़े बारह कोटि स्वर्ण-मुद्राओं का होता है। वासुदेव का प्रीतिदान साढ़े बारह कोटि रजत-मुद्राओं का होता है तथा माण्डलिक राजाओं का प्रीतिदान साढ़े बारह लक्ष रजत-मुद्राओं का होता है। -उववाई (हिन्दी अनुवाद), पृ० १३३ २. कूणिक राजा के वैभव, आडम्बर और अभियान-व्यवस्था के विस्तृत वर्णन के लिए द्रष्टव्य-उववाई सुत्त सू० २८-३१ । ३. वन्दनार्थ जाने की यही वर्णन-शैली आगे चलकर बौद्धों ने भी अपनाई, ऐसा लगता है। महायानी परम्परा के महावस्तु ग्रन्थ में बुद्ध के वन्दनार्थ जाते राजा बिम्बिसार का ठीक ऐसा ही वर्णन किया है। ( Mahavastu, Tr. by J. J.Jones, vol. III, pp. 442-3.) ४. विस्तृत विवेचन के लिए द्रष्टव्य-उपासकदसांग सूत्र, अ०१। ____ 2010_05 Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा] अनुयायी राजा २६१ श्रमण भगवान् महावीर से धर्म का श्रवण कर परिषद् उठी। मंभसार-पुत्र कूणिक भी उठा । वन्दन-नमस्कार कर बोला-"भन्ते ! आपका निर्ग्रन्थ-प्रवचन सु-आख्यात है, सुप्रज्ञप्त है, सुभाषित है, सुविनीत है, सुभावित है, अनुत्तर है। आपने धर्म को कहते हुए उपशम को कहा, उपशम को कहते हुए विवेक को कहा, विवेक को कहते हुए विरमण को कहा, विरमण को कहते हुए पापक्रमों के अकरण को कहा । अन्य कोई श्रमण या ब्राह्मण नहीं है, जो ऐसा धर्म कह सके। इससे अधिक की तो बात ही क्या ?"१ राजा जिस दिशा से आया था, उस दिशा से वापिस गया। जैन या बौद्ध? __ सामंत्रफल सुत्त और इस उववाई प्रकरण को तुलना की दृष्टि से देखा जाये तो उववाई-प्रकरण बहुत गहरा पड़ जाता है : सामंञफल सुत्त में अजातशत्रु के बुद्धानुयायी होने में केवल यही पंक्ति प्रमाणभूत है कि “आज से भगवान् मुझे अंजलिबद्ध शरणागत उपासक समझे।" उववाई-प्रकरण में प्रवृत्ति-वादुक पुरुष की नियुक्ति, सिंहासन से अभ्युत्थान, णमोत्थुणं से अभिवन्दन, भक्ति सूचक साक्षात्कार आदि उसके महावीरानुयायी होने के ज्वलन्त प्रमाण हैं। इन शब्दों से कि "जैसा धर्म आपने कहा, वैसा कोई भी श्रमण या ब्राह्मण कहने वाला नहीं है", उसकी निर्ग्रन्थ धर्म के प्रति पूर्ण आस्था व्यक्त होती है। लगता है, बुद्ध के प्रति अजातशत्रु का समर्पण मात्र औपचारिक था। मूलत: वह बुद्ध का अनुयायी बना हो, ऐसा प्रतीत नहीं होता। बुद्ध से जहां उसने एक ही बार साक्षात् किया, वहां महावीर से अनेक बार साक्षात् करता ही रहा है। यहां तक कि महावीर-निर्वाण के पश्चात् महावीर के उत्तराधिकारी सुधर्मा की धर्म-परिषद् में भी वह उपस्थित होता है। डा० स्मिथ का कहना है- 'बौद्ध और जैन दोनों ही अजातशत्रु को अपना-अपना अनुयायी होने का दावा करते हैं, पर लगता है, जैनों का दावा अधिक आधार-युक्त है।" डा० राधामुकन्द मुखर्जी के अनुसार भी महावीर और बद्ध की वर्तमानता में तो अजातशत्रु महावीर का ही अनुयायी था। उन्होंने यह भी लिखा है-"जैसा प्रायः देखा १. णत्थि णं अण्णे केइ समणे वा माहणेवा जे एरिसं धम्म-माइक्खिन्त्तए । किमंग पुण एत्तो उत्तरतरं? -औपपातिक सूत्र, सू० २५ २. ओपपातिक सूत्र, सू० ३४-३७ के आधार से। 3. Buddhist India, p. 88 ४. ठाणांग वृत्ति, स्था०४, उ० ३। ५. णायाधम्मकहाओ सू० १-५; परिशिष्ट पर्व, सर्ग ४, श्लो० १५-५४ । €. Both buddhists and Jains claimed him as one of themselves. The Jian claim appears to be well-founded. -Oxford History of India, by V.A. Smith Second Edition, Oxford, 1923, p. 51. ७. हिन्दू सभ्यता, पृ० १९०-१। 2010_05 Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६२ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड : १ जाता है, जैन अजातशत्रु और उदायिभद्द दोनों को अच्छे चरित्र का बतलाते हैं; क्योंकि दोनों जैन धर्म को मानने वाले थे। यही कारण है कि बौद्ध-ग्रन्थों में उनके चरित्र पर कालिख पोती गई है।" अजातशत्रु के बुद्धानुयायी न होने में और भी अनेक निमित्त हैं-देवदत्त के साथ घनिष्ठता, जबकि देवदत्त बुद्ध का विद्रोही शिष्य था; वज्जियों से शत्रुता, जबकि वज्जी बुद्ध के अत्यन्त कृपा-पात्र थे; प्रसेनजित् से युद्ध, जबकि प्रसेनजित् बुद्ध का परम भक्त एवं अनुयायी था। बौद्ध-परम्परा उसे पितृ-हतक के रूप में देखती है, जबकि जैन परम्परा अपने कृत्य के प्रति अनुताप कर लेने पर उसे अपने पिता का विनीत कह देती है। ये समुल्लेख भी दोनों परम्पराओं के क्रमशः दूरत्व और सामीप्य के सूचक हैं । अजातशत्रु के प्रति बुद्ध के मन में अनादर का भाव था, वह इस बात से भी प्रतीत होता है कि श्रामण्य-फल की चर्चा के पश्चात् अजातशत्रु के चले जाने पर बुद्ध भिक्षुओं को सम्बोधित कर कहते हैं- इस राजा का संस्कार अच्छा नहीं रहा। यह राजा अभागा है। यदि यह राजा अपने धर्म-राज पिता की हत्या न करता, तो आज इसे इसी आसन पर बैठेबैठे विरज, निर्मल, धर्म-चक्षु उत्पन्न हो जाता।"४ देवदत्त के प्रसंग में भी बुद्ध ने कहा"भिक्षुओ! मगधराज अजातशत्रु, जो भी पाप हैं, उनके मित्र हैं, उनसे प्रेम करते हैं और उनसे संसर्ग रखते हैं।"५ एक बार बुद्ध राज-प्रासाद में बिम्बिसार को धर्मोपदेश कर रहे थे। शिशु अजातशत्रु बिम्बिसार की गोद में था। बिम्बिसार का ध्यान बुद्ध के उपदेश में न लग कर, पुनः-पुनः अजातशत्रु के दुलार में लग रहा था। बुद्ध ने तब राजा का ध्यान अपनी ओर खींचा। एक कथा सुनाई, जिसका हार्द था; तुम इसके मोह में इतने बंधे हो, यही तुम्हारा घातक होगा।६ वज्जियों की विजय के लिये अजातशत्रु ने अपने मंत्री वस्सकार को बुद्ध के पास भेजा। विजय का रहस्य पाने के लिए सचमुच वह एक षड्यन्त्र ही था। अजातशत्रु बुद्ध का अनुयायी होता तो इस प्रकार का छद्म कैसे खेलता? ___ कहा जाता है, मौग्गल्लान के वधक ५०० निगण्ठों का वध अजातशत्रु ने करवाया। इससे उसकी बौद्ध धर्म के प्रति दृढ़ता व्यक्त होती है; पर, यह उल्लख अट्टकथा का है ; अतः एक किंवदन्ती मात्र से अधिक इसका कोई महत्त्व नहीं होता। १. हिन्दू सम्यग, पृ० २६४ । २. दीघ निकाय, सामञफल सुत्त, पृ० ३२ । ३. उववाई सूत्र (हिन्दी अनुवाद), पृ० २६; सेनप्रश्न, तृतीय उल्लास, प्रश्न २३७ । ४. दीघ निकाय, सामञफल सुत्त, पृ० ३२ । ५. विनय पिटक, चुल्लवग्ग, संघभेदक खन्धक,७। ६. जातक अट्ठकथा, थुस जातक, सं० ३३८ । ७. धम्मपद-अट्ठकथा, १०-७। ____ 2010_05 Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा अनुयायी राजा २६३ अट्रकथाओं के और भी कुछ उल्लख हैं। जैसे-'बुद्ध की मृत्यु का संवाद अजातशत्रु को कौन सुनाये, कैसे सुनाये ?' अमात्यवर्ग में यह प्रश्न उठा । सबने सोचा, राजा के हृदय पर आघात न लगे, इस प्रकार से यह संवाद सुनाया जाये। मंत्रियों ने दुःस्वप्न-फल के निवारण का बहाना कर 'चतु-मधुर' स्नान की व्यवस्था की। उस आनन्दप्रद वातावरण में उन्होंने बद्ध के निर्वाण का संवाद अजातशत्रु को सुनाया। फिर भी संवाद सुनते ही अजातशत्रु मूच्छित हो गया। दो बार पुनः 'चतुर-मधुर' स्नान कराया गया। तब उसकी मूर्छा टूटी और उसने गहरा दुःख व्यक्त किया।' एक परम्परा यह भी कहती है --मन्त्री वस्सकार ने जन्म से निर्वाण तक बुद्ध की चित्रावली दिखाकर अजातशत्रु को बुद्ध की मृत्यु से ज्ञापित किया। इस घटना से बुद्ध के प्रति रही अजात शत्रु की भक्ति का निदर्शन मिलता है। बहुत उत्तरकालिक होने से यह कोई प्रमाणभूत आधार नहीं बनता। देवदत्त के शिष्य मिण्डिका-पुत्र उपक ने बुद्ध से चर्चा की। अजातशत्रु के पास आया और बद्ध की गर्दा करने लगा। पर, अजातशत्रु क्रोधित हुआ और उसे चले जाने के लि कहा। अट्ठकथाकार ने इतना और जोड़ दिया है कि अजातशत्रु ने अपने कर्मकरों से उसे गलहत्था देकर निकलवाया। इस प्रसंग से भी अजातशत्रु का अनुयायित्व सिद्ध नहीं होता। अशिष्टता से चर्चा करने वालों को तथा मुखर गर्दा करने वालों को हर बुद्धिमान् व्यक्ति टोकता ही है। यदि उपक अजातशत्रु को बुद्ध का दृढ़ अनुयायी मानता, तो अपनी बीती सुनाने वहाँ जाता ही क्यों ? अपने गुरु देवदत्त का हितैषी समझ कर ही उसने ऐसा किया होगा। उत्तरवर्ती साहित्य में कुछ प्रसंग ऐसे भी मिलते हैं, जो बौद्ध धर्म के प्रति अजातशत्रु का विद्वेष व्यक्त करते हैं । अवदानशतक के अनुसार राजा बिम्बिसार ने बुद्ध की वर्तमानता में ही बुद्ध के नख और केशों पर एक स्तूप अपने राजमहल में बनवाया था। राजमहल की स्त्रियाँ धूप, दीप और फूलों से उसकी पूजा करती थीं। अजातशत्रु ने सिंहासनारूढ़ होते ही पूजा बन्द करने का आदेश दिया। श्रीमती नामक एक स्त्री ने फिर भी पूजा की, तो उसे मृत्यु-दण्ड दिया । थेरगाथा-अट्ठकथा के अनुसार अजातशत्रु ने अपने अनुज सीलवत् भिक्षु को मरवाने का भी प्रयत्न किया। उक्त उदाहरण अजातशत्रु को बौद्ध धर्म का अनुयायी सिद्धन कर, प्रत्युत् विरोधी सिद्ध करते हैं; पर इनका भी कोई आधारभूत महत्त्व नहीं है। बौद्ध साहित्य के मर्मज्ञ राईस डेविडस भी स्पष्टतः लिखते हैं "बातचीत के अन्त में अजातशत्रु ने बुद्ध को स्पष्टतया अपना मार्ग-दर्शक स्वीकार किया और पितृ-हत्या का पश्चात्ताप व्यक्त किया। किन्तु, यह असंदिग्धतया व्यक्त किया गया है कि उसका धर्म-परिवर्तन नहीं किया गया। इस विषय में एक भी प्रमाण नहीं है कि उस हृदयस्पर्शी प्रसंग के पश्चात् भी वह १. धम्मपद-अट्ठकथा, खण्ड २,६०५-६ । २. Ency lopaedia of Buddhism, p. 320. ३. अंगुत्तर निकाय, ४-८-१८८। ४. Encyclopaedia of Buddhism, p. 319. ५. अवदानशतक, ५४। ६. थेरगाथा-अट्ठकथा, गाथा, ६०६-१६। ____ 2010_05 Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड : १ बुद्ध की मान्यताओं का अनुसरण करता रहा हो । जहां तक मैं जान पाया हूं' उसके बाद उसने बुद्ध के अथवा बौद्ध संघ के अन्य किसी भिक्षु के न तो कभी दर्शन किए और न उनके सा धर्म-चर्चा ही की और न मेरे ध्यान में यह भी आता है कि उसने बद्ध के जीवन-काल में भिक्ष संघ को कभी आर्थिक सहयोग भी किया हो। "इतना तो अवश्य मिलता है कि बुद्ध-निर्वाण के पश्चात उसने बुद्ध की अस्थियों की , वह भी यह कहकर कि 'मैं भी बुद्ध की तरह एक क्षत्रिय ही हैं और उन अस्थियों पर फिर उसने एक स्तप बनवाया। दूसरी बात-उत्तरवर्ती ग्रन्थ यह बताते हैं कि बद्धनिर्वाण के तत्काल बाद ही जब राजगृह में प्रथम संगीति हुई, तब अजातशत्रु ने सप्तपर्णी गुफा के द्वार पर एक सभा-भवन बनवाया था, जहां बौद्ध पिटकों का संकलन हुआ। पर, इस बात का बौद्ध धर्म के प्राचीनतम और मौलिक शास्त्रों में लेशमात्र भी उल्लेख नहीं है। इस प्रकार बहुत सम्भव है कि उसने बौद्ध धर्म को बिना स्वीकार किये ही उसके प्रति सहानुभूति दिखाई हो। यह सब उसने केवल भारतीय राजाओं की उस प्राचीन परम्परा के अनुसार ही किया हो कि सब धर्मों का संरक्षण राजा का कर्तव्य होता है।" दोहद और जन्म कुणिक के जन्म और पितृ-द्रोह का वर्णन दोनों ही परम्पराओं में बहुत कुछ समान रूप से मिलता है। जैन आगम निरयावलिया और बौद्ध पिटक दोघ निकाय-अट्ठकथा में एतद् विषयक वर्णन मिलता है । दोनों ही परम्पराओं के अनुसार इसके पिता का नाम श्रेणिक (बिम्बिसार) है। माता का नाम जैन परम्परा के अनुसार चेलणा तथा बौद्ध परम्परा के अनसार कौशल देवी था। माता ने गर्भाधान के अवसर पर सिंह का स्वप्न देखा। बौद्ध परम्परा में ऐसा उल्लेख नहीं है । गर्भावस्था में माता को दोहद उत्पन्न हुआ। जैन परम्परा के अनुसार दोहद था-राजा श्रेणिक के कलेजे का मांस तल कर, भून कर मैं खाऊँ और ऊं। बौद्ध परम्परा के अनुसार दोहद था-राजा श्रेणिक की बाह का रक्त पीऊँ। दोनों ही परम्पराओं के अनुसार राजा ने दोहद की पूर्ति की। जैन परम्परा के अनुसार अभयकुमार ने ऐसा छदम रचा कि राजा के कलेजे का मांस भी न काटना पड़े और रानी को यह अनभव रहे कि राजा के कलेजे का मांस काटा जा रहा है और मुझे दिया जा रहा है। बौद्ध परम्परा के अनुसार वैद्य के द्वारा बाहु का रक्त निकलवा कर दोहद की पूर्ति की। दोहदपूर्ति के पश्चात् रानी इस घटना-प्रसंग से दुःखित होती है और गर्भस्थ बालक को ही नष्टभ्रष्ट करने का प्रयत्न करती है। बौद्ध परम्परा के अनुसार वह ऐसा इसलिए करती है कि ज्योतिषी उसे कह देते हैं-यह पितृहतक होगा। जैन परम्परा के अनुसार वह स्वयं ही सोच लेती है कि जिसने गर्भस्थ ही पिता के कलेजे का मांस माँगा है, न जाने जन्म लकर वह क्या करेगा? श्रेणिक का पुत्र-प्रेम जन्म के अनन्तर जैन परम्परा के अनुसार चेलणा उसे अवकर पर डलवा देती है। १. Buddhist India, pp. 15-16. ____ 2010_05 Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा अनुयायी राजा २६५ वहाँ कोई एक कुर्कुट उसकी कनिष्ठ अंगुली काट लेता है । अंगुली से रक्तश्राव होने लगता है। राजा श्रेणिक इस घटना का पता चलते ही पुत्र-मोह से व्याकुल होकर वहाँ आता है, उसे उठा कर रानी के पास ले जाता है और रक्त व मवाद चूस-चूस कर बालक की अंगुली को ठीक करता है। बौद्ध परम्परा के अनुसार जन्मते ही राजा के कर्मकर बालक को वहाँ से हटा लेते हैं; इस भय से कि रानी कहीं उसे मरवा न डाले। कालान्तर से वे उसे रानी को सौंपते हैं; तब पुत्र-प्रेम से रानी भी उसमें अनुरक्त हो जाती है। एक बार अजातशत्रु की अंगुली में एक फोड़ा हो गया । व्याकुलता से रोते बालक को कर्मकर राजसमा में राजा के पास ले गये। राजा ने उस अंगुली को मुंह में डाला। फोड़ा फूट गया । पुत्र-प्रेम से राजा ने वह रक्त और मवाद उगला नहीं, प्रयुक्त निगल गया। पिता को कारावास पितृ-द्रोह के सम्बन्ध से जैन-परम्परा कहती है, कूणिक के मन में महत्वाकाँक्षा उदित हुई और अन्य भाइयों को अपने साथ मिला कर स्वयं राज-सिंहासन पर बैठा तथा निगड़. बन्धन कर श्रेणिक को कारावास में डलवा दिया। बौद्ध परम्परा के अनुसार अजातशत्रु देवदत्त की प्रेरणा से महत्त्वाकाँक्षी बना और उसने अपने पिता को घूम-गृह (लोह-कर्म करने का घर) में डलवा दिया। पिता का वष जैन परम्परा के अनुसार कूणिक किसी एक पर्व-दिन पर अपनी माता चेलणा के पास पाद-नन्दन करने के लिये गया। माता ने उसका पाद-वन्दन स्वीकार नहीं किया। कारण पूछने पर माता ने श्रेणिक के पुत्र-प्रेम की घटना सुनाई और उसे उस दुष्कृत्य के लिये धिक्कारा । कूणिक के मन में भी पितृ-प्रेम जगा। अपनी भूल पर अनुताप हुआ। तत्काल उसने निगड़ काटने के लिए परशु हाथ में उठाया और पितृ-मोचन के लिये चल पड़ा। श्रेणिक ने सोचा-"यह मुझे मारने के लिए ही आ रहा है । अच्छा हो, अपने आप मैं प्राणान्त कर लूं।" उसने तत्काल तालपुट विष खा अपना प्राण-वियोजन किया। बौद्ध परम्परा में बताया गया है कि धूम-गृह में कोशल देवी के सिवाय अन्य किसी का जाने का आदेश नहीं था। अजातशत्रु राजा को भूखा रख कर मारना चाहता था ; क्योंकि देवदैत्त ने कहा था-"पिता शस्त्र-वध्य नहीं होता; अतः उसे भूखा रख कर ही मारें।" कोशल देवी मिलने के बहाने उत्संग में भोजन छिपा कर ले जाती और राजा को देती। अजातशत्रु को पता चला तो उसने कर्मकरों को कहा-मेरी माता को उत्संग बान्ध कर मत जाने दो। तब वह जूड़े में छिपा कर ऐसा करने लगी। उसका भी निषेध हुआ, तब वह स्वर्ण-पादुका में छिपा कर ऐसा करने लगी। उसका भी निषेध होने पर रानी गन्धोदक से स्नान कर अपने शरीर पर चार मधु का अवलोप कर राजा के पास जाती। राजा उसके शरीर को चाट-चाट कर कुछ दिन जीवित रहा । अन्त में अजातशत्रु ने माता को धूम-गृह में जाने से रोक दिया। अब राजा स्रोतापत्ति के सुख पर जीने लगा। ____ 2010_05 Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [ खण्ड: १ अजातशत्रु ने जब यह देखा कि राजा मर ही नहीं रहा है, तब उसने नापित को बुलवाया और आदेश दिया- "मेरे पिता राजा के पैरों को शस्त्र से चीर कर उन पर नून और तेल का लेप करो और खैर के अंगारों से उन्हें पकाओ ।" नापित ने वैसा ही किया और राजा मर गया । अनुताप श्रेणिक की मृत्यु के बाद कूणिक का अनुतापित होना दोनों ही परम्पराएँ बताती हैं जैन परम्परा के अनुसार तो माता से पुत्र प्रेम की बात सुन कर पिता की मृत्यु से पूर्व ही कूणिक को अनुताप हो चुका था । राजा की आत्म-हत्या के पश्चात् तो वह परशु से छिन्न चम्पक- वृक्ष की तरह भूमितल पर गिर पड़ा। मुहूर्त्तान्तर से सचेत हुआ । फूट-फूट कर रोया और कहने लगा - "अहो ! मैं कितना अधन्य हूँ, कितना अपुण्य हूँ, कितना अकृतपुण्य हूँ, कितना दुष्कृत हूँ | मैंने अपने देव-तुल्य पिता को निगड़-बन्धन में डाला । मेरे ही निमित्त से श्रेणिक राजा कालगत हुआ ।" इस शोक से अभिभूत होकर वह कुछ ही समय पश्चात् राजगृह को छोड़ कर चम्पारानी में निवास करने लगा । उसे ही मगध की राजधानी बना दिया । २६ बौद्ध परम्परा के अनुसार जिस दिन बिम्बसार की मृत्यु हुई, उसी दिन अजातशत्रु के पुत्र उत्पन्न हुआ । संवादवाहकों ने पुत्र जन्म का लिखित संवाद अजातशत्रु के हाथ में दिया । पुत्र- प्रेम से राजा हर्ष-विभोर हो उठा । अस्थि और मज्जा तक पुत्र प्रेम परिणत हो गया । उसके मन में आया, जब मैंने जन्म लिया, तब राजा श्रेणिक को भी इतना ही तो प्रेम हुआ होगा । तत्क्षण उसने कर्मकरों को कहा - "मेरे पिता को बन्धन- मुक्त करो ।" संवादवाहकों ने बिम्बिसार की मृत्यु का पत्र भी राजा के हाथों में दे संवाद पढ़ते ही वह चीख उठा और दौड़ कर माता के पास आया । माता से पूछा - "मेरे प्रति मेरे पिता का स्नेह था ?" माता ने वह अंगुली घूसने की बात अजातशत्रु को बताई । तब वह और भी शोक-विह्वल हो उठा और अपने किये पर अनुताप करने लगा । दिया । पिता की मृत्यु का जीवन-प्रसंग : एक समीक्षा दोहद, अंगुली - ब्रण, कारावास आदि घटना-प्रसंगों के बाह्य निमित्त कुछ भिन्न हैं, पर, घटना-प्रसंग हार्द की दृष्टि से दोनों परम्पराओं में समान हैं। एक ही कथा वस्तु का दो परम्पराओं में इतना-सा भेद अस्वाभाविक नहीं है । प्रत्येक बड़ी घटना अपने वर्तमान में मी नाना रूपों में प्रचलित हो जाया करती है । निरयावलिया आगम का रचना-काल विक्रम संवत् के पूर्व का माना जाता है' तथा अट्ठकथाओं का रचना-काल विक्रम संवत् की पाँचवीं शताब्दी का है । २ यह भी एक भिन्नता का कारण है। जिस-जिस परम्परा में अनुश्रुतियों १. पं० दलसुख मालवणिया, आगम युग का जैन दर्शन, पृ० २६, सन्मति ज्ञानपीठ, आगरा, १६६६ २. दृष्टव्य, भिक्षुधर्म रक्षित, आचार्य बुद्धघोष, पृ० ७, महाबोधि सभा, सारनाथ, वाराणसी, १६५६ । 2010_05 Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा] अनुयायी राजा २६७ से कथा-वस्तु का जो भी रूपक आ रहा था, वह शताब्दिों बाद व शताब्दिों के अन्तर से लिखा गया। वघ-सम्बन्धी समुल्लेखों से यह तो अवश्य व्यक्त होता है कि बौद्ध परम्परा अजातशत्रु की क्रूरता सुस्पष्ट कर देना चाहती है ; जबकि जैन परम्परा उसे मध्यम स्थिति से रखना चाहती है । बौद्ध परम्परा में पैरों को चिरवाने, उनमें नमक भरवाने और अग्नि से तपाने का उल्लेख बहुत ही अमानवीय-सा लगता है। जैन परम्परा में श्रेणिक को केवल कारावास मिलता है। भूखों मारने आदि की यातनाएँ वहाँ नहीं हैं। मृत्यु भी उसकी 'आत्म-हत्या' के रूप में होती है, जबकि बौद्ध परम्परा के अनुसार अजातशत्रु स्वयं पितृवधक होता है । इस सबका हेतु भी यही हो सकता है कि कूणिक जैन परम्परा का अनुयायी-विशेष था। मातृ-परिचय दोनों परम्पराओं में कूणिक की माता के नाम भिन्न-भिन्न हैं। जातक के अनुसार कोशल देवी कोशल देश के राजा महाकोशल की पुत्री अर्थात् कोशल-नरेश प्रसेनजित् की बहिन थी। विवाह-प्रसंग पर काशी देश का एक ग्राम उसे दहेज में दिया गया था। बिम्बिसार के वध से प्रसेनजित् ने वह ग्राम वापस ले लिया। लड़ाई हुई, एक बार हारने के पश्चात् प्रसेनजित् की विजय हुई। भानजा समझ कर उसने अजातशत्रु को जीवित छोड़ा, सन्धि की तथा अपनी पुत्री वजिरा का उसके साथ विवाह किया। वही ग्राम पुन: उसे कन्या-दान में दे दिया। संयुत्त निकाय के इस वर्णन में अजातशत्रु को प्रसेनजित् का भानजा भी कहा है और 'वैदेही पुत्त' भी कहा है। इन दोनों नामों में कोई संगति नहीं है । बुद्ध घोष ने यहाँ 'वैदेही' का अर्थ 'विदेह देश की राज-कन्या' न कर 'पण्डिता' किया है। यथार्थता यह है कि जैन परम्परा में कथित चेलणा वैशाली गणतन्त्र के प्रमुख चेटक की कन्या होने से "वैदेही' थी। प्रसेनजित् की बहिन कोशल देवी अजातशत्रु की कोई एक विमाता हो सकती है । तिब्बती-परम्परा तथा अमितायुान सूत्र के अनुसार अजातशत्रु की माता का नाम 'वैदेही वासवी' था और उसका वैदेही होने का कारण भी यही माना गया है कि वह विदेह देश की राज्य-कन्या थी। 'विदेह' शब्द का प्रयोग तथारूप से अन्यत्र भी बहुलता से मिलता है । भगवान् महावीर को विदेह विदेहदिन्ने विवेहजच्चे कहा गया है। महावीर स्वयं विदेह १. Jataka, Ed. By Fausboll, vol. III, p. 121. २. जातक-अट्ठकथा, सं० २४६, २८३ । ३. संयुत्त निकाय, ३-२-४। ४. वेदेहिपुत्तो ति वेदेहीति पण्डिताधिवचनं एतं, पण्डितिथिया पुत्तो ति अत्थो। -संयुत्त निकाय, अट्ठकथा, १, १२० । ५. Rockhill : Life of Buddha p. 63. ६. S. B. E., vol. XLIX, p. 166. ७. Rockhill: Liafo Buddha p.63 ८. कप्पसुत्त, ११०। 2010_05 Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६८ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [ खण्ड : १ देश में उत्पन्न हुए थे, इसलिये वैदेह; उनकी माता भी विदेह देश में उत्पन्न थी, इसलिए विदेहदत्तात्मज और विदेहों में श्रेष्ठ थे, इसलिये विदेहजात्यः कहे गये हैं । ' महाकवि भास ने अपने नाटक स्वप्नवासवदत्ता में राजा उदायन को 'विदेहपुत्र' कहा हैं; क्योंकि उसकी माता विदेह देश की राज-कन्या थी । जैन परम्परा के अनुसार चेल्लणा और उदायन की माता मृगावती सगी बहिनें थीं। वे वैशाली के राजा चेटक की कन्याएँ थीं । भगवान् महावीर की माता त्रिशला चेटक की बहिन थी। अतः विदेहदिन्न या विदेहपुत्त आदि विशेषण बहुत ही सहज और बुद्धिगम्य हैं । जैन आगमों में भी तो कूणिक को विदेहपुत्त कहा गया है। राईस डेविड्स के मतानुसार भी राजा बिम्बिसार के दो रानियाँ थीं - एक प्रसेनजित् की बहिन कोशल देवी तथा दूसरी विदेह्- कन्या । अजातशत्रु विदेह - कन्या का पुत्र था । ६ राजा बिम्बिसार जब धूम गृह में था, परिचारिका रानी कोशला था, यह अट्ठकथा बताती है । इन्सायक्लोपीडिया ऑफ बुद्धिज्म में परिचारिका रानी का नाम खेमा बताया गया है और उसे कोशल देश की राज कन्या भी कहा है। पर, यह स्पष्टतः भूल ही प्रतीत होती है । खेमा वस्तुतः मद्र देश की थी। लगता है, कोशल देवी के बदले खेमा का नाम दे दिया गया है । अमितायुर्ध्यान सूत्त तथा तिब्बती-परम्परा के अनुसार परिचारिका रानी का नाम 'वैदेही वासवी' था। डॉ० राधाकुमुद मुखर्जी कहते हैं -- "वैदेही वासवी की पहिचान चेलणा से की जा सकती है।" " बौद्ध परम्परा की इन विविधताओं में भी इससे परे की बात नहीं निकलती कि अजातशत्रु विदेह - राज कन्या का पुत्र था और इसीलिए वह 'वैदेहीपुत्त' कहलाता था । न जाने आचार्य बुद्धघोष को क्यों यह भ्रम रहा कि 'वैदेही' नाम 'पण्डिता' का है और अजातशत्रु कोशल देश की राज- कन्या कोशला का पुत्र था । नाम-भेद जैन और बौद्ध दोनों परम्पराओं में नाम-भेद है । जैन परम्परा जहां उसे सर्वत्र 'कूणिक' कहती है, वहाँ बौद्ध परम्परा उसे सर्वत्र 'अजातशत्रु' कहती है । उपनिषद् " और १. S. B. E., vol. XXII; p. 256; वसन्तकुमार चट्टोपाध्याय, कल्पसूत्र ( बंगला अनुवाद), पृ २७ । २. हिन्दू सभ्यता, पृ० १६८ । ३. आवश्यक चूर्णि, भाग २, पत्र १६४ | ४. वही, भाग १, पत्र २५४ । ५. भगवती सूत्र, शतक ७, उद्देशक ६, पृ० ५७६ । ६. Buddhist India, p. 3. Encyclopaedia of Buddhism, P. 316. ७. ८. थेरीगाथा, अट्ठकथा, १३६-४३ । ६. Rockhill : Life of Buddha, P. 63. १०. हिन्दू सभ्यता, पृ० १८३ । ११. Dialogues of Buddha, vol II. P. 78. 2010_05 Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा अनुयायी राजा २६४ पुराणों में भी अजातशत्रु नाम व्यवहृत हुआ है। वस्तुस्थिति यह है कि कूणिक मूल नाम है और अजातशत्र उसका एक विशेषण (epithet) | कभी-कभी उपाधि या विशेषण मल नाम से भी अधिक प्रचलित हो जाते हैं। जैसे-वर्धमान मूल नाम है, महावीर विशेषता-परक ; पर, व्यवहार में 'महावीर' ही सब कुछ बन गया है । भारतवर्ष के सामान्य इतिहास में केवल अजातशत्रु नाम ही प्रचलित है। मथुरा संग्रहालय के एक शिलालेख में 'अजातशत्रु कूणिक' लिखा गया है । वस्तुतः इसका पूरा नाम यही होना चाहिए। नवीन साहित्य में 'अजातशत्रु कूणिक' शब्द का ही प्रयोग किया जाये, यह अधिक यथार्थता बोधक होगा। _ 'अजातशत्रु' शब्द के दो अर्थ किये जाते हैं-न जातः शत्रुर्यस्य अर्थात् 'जिसका शत्रु जन्मा ही नहीं, और अजातोऽपि शत्रुः अर्थात् 'जन्म से पूर्व ही (पिता का) शत्रु'। दूसरा अर्थ आचार्य बुद्धघोष का है और वह अपने आप में संगत भी है, पर, यह युक्ति-पुरस्सर है और पहला अर्थ सहज है। कूणिक बहुत ही शौर्यशील और प्रतापी नरेश था। अनेकों दुर्जय शत्रुओं को उसने जीता था; अत: अजातशत्रु विशेषण गर्दा का द्योतक न होकर उसके शौर्य का द्योतक अधिक प्रतीत होता है। कूणिक' नाम 'कूणि' शब्द से बना है। 'कूणि' का अर्थ है-अंगुली का घाव । 'कूणिक' का अर्थ हुआ-अंगुली के धाव वाला । आचार्य हेमचन्द्र कहते हैं : रूढवणापि सा तस्य कूणिताऽभवदंगुलिः । ततः सपाँशुरमणः सोऽभ्यश्चीयत कूणिका ।। आवश्यक चूर्णि में कूणिक को 'अशोक चन्द्र' भी कहा गया हैं पर, यह विरल प्रयोग महाशिलाकंटक-युद्ध और वज्जी-विजय अजातशत्रु के जीवन का एक ऐतिहासिक घटना-प्रसंग जैन शब्दों में 'महाशिलाकंटकयुद्ध' तथा बौद्ध शब्दों में 'वज्जी-विजय' रहा है। दोनों परम्पराओं में युद्ध के कारण, युद्ध की प्रक्रिया और युद्ध की निष्पत्ति भिन्न-भिन्न प्रकार से मिलती है ; पर, इसका सत्य एक है कि वैशाली गणतन्त्र पर वह मगध की ऐतिहासिक विजय थी। इस युद्ध-काल में महावीर और बुद्ध; दोनों वर्तमान थे। दोनों ने ही युद्ध-विषयक प्रश्नों के उत्तर दिये हैं। दोनों ही १. वायुपुराण, अ० ६६, श्लो० ३१६; मत्स्यपुराण, अ० २७१, श्लो०६। २. Journal of Bihar and Orissa Research Society, vol. V, Part, IV, , PP. 550-51. ३. Dialogues of Buddha, vol. II, P. 78. ४. दीघ निकाय, अट्ठकथा, १, १३३ । ५. Apte s Sanskrit-English Dictionary, vol. I, p. 580. ६. त्रिषष्टिशलाकापूरुषचरित्र. पर्व १०, सर्ग ६, श्लो० ३०६ । ७. असोगवण चंद उत्ति असोगचंदुत्ति नामं च से कतं, तत्थ य कुक्कुडपिच्छेणं काणंगुली से विद्धा सुकुमालिया, सा ण पाउणति सा कुणिगा जाता, ताहे से दासा रव्वेहिं कतं नामं कूणिओत्ति। -आवश्यक चूर्णि, उत्तर भाग, पत्र १६७ । 2010_05 Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन खण्ड:१ परम्पराओं का युद्ध-विषयक वर्णन बहुत ही लोमहर्षक और तात्कालिक राजनैतिक स्थितियों का परिचायक है। जैन विवरण भगवती सूत्र, निरयावलि या सूत्र तथा आवश्यक चूणि में मुख्यतः उपलब्ध होता है । बौद्ध-विवरण वीघ निकाय के महापरिनिधान-सुत्त तथा उसकी अट्ठकथा में मिलता है। महाशिलाकंटक संग्राम चम्पानगरी में आकर कूणिक ने कालकुमार आदि अपने दस भाइयों को बुलाया। राज्य, सेना, घन आदि को ग्यारह भागों में बांटा और आनन्दपूर्वक वहां राज्य करने लगा। कूणिक राजा के दो सगे भाई (चेलणा के पुत्र) हल्ल और विहल्ल थे।' राजा श्रेणिक ने अपनी जीवितावस्था में ही अपनी दो विशेष वस्तुएँ उन्हें दे दी थीं-सेचनक हस्ति और अठारहसरा देवप्रदत्त हार ।२ प्रतिदिन विहल्लकमार सेचनक हस्ती पर सवार हो, अपने अन्तःपुर के साथ जलक्रीड़ा के लिए गंगा-तट पर जाता। उसके आनन्द और भोग को देखकर नगरी में चर्चा उठी"राजश्री का फल तो विहल्लकुमार भोग रहा है, कूणिक नहीं।" यह चर्चा कुणिक की रानी पद्मावती तक पहुँची। उसे लगा-'यदि सेचनक हाथी मेरे पास नहीं, देवप्रदत्त हार मेरे पास नहीं तो इस राज्य-वैभव से मुझे क्या?" कुणिक से उसने यह बात कही। अनेक बार के आग्रह से कूणिक हार और हाथी मांगने के लिए विवश हुआ। हल्ल और विहल्लकुमार को बुलाया और कहा-"हार और हाथी मुझे सौंप दो।" उन्होंने उत्तर दिया-"हमें पिता ने पृथक् रूप से दिये हैं। हम इन्हें कैसे सौंप दें?" कूणिक इस उत्तर से रुष्ट हुआ। हल्ल और विहल्लकुमार अवसर देखकर हार, हाथी और अपना अन्तःपुर लेकर वैशाली में अपने नाना चेटक के पास चले गये। कूणिक को यह पता चला। उसने चेटक राजा के पास अपना दूत भेजा और हार, हाथी तथा हल्ल-विहल्ल को पुनः चम्पा लोटा देने के लिए कहलाया।' -हार और हाथी हल्ल-विहल्ल के हैं। वे मेरी शरण आये हैं। मैं उन्हें वापस नहीं लौटाता। यदि श्रेणिक राजा का पुत्र, चेल्लणा का आत्मज, मेरा नप्तक (दोहिता) कुणिक हल्ल-विहल्ल को आधा राज्य दे, तो मैं हार, हाथी उसे दिलवाऊँ ।" उसने पुन: दूत भेजा और कहलाया "हल्ल और विहल्ल बिना मेरी अनुज्ञा के हार और हाथी ले गये हैं। ये दोनों १. हल्ल और विहल्ल-इन नामों के विषय में सर्वत्र विविधता मिलती है। निरया वलिया मूल में इस सारे घटना-प्रसंग को केवल विहल्ल के साथ ही जोड़ा है। निरयावलिया टीका, भगवती टीका, भरतेश्वर-बाहुबली वृत्ति आदि ग्रन्थों में इसी घटना-प्रसंग के लिए हल्ल और विहल्ल-दो नाम प्रयुक्त हुए हैं। अपुत्तरोववाइय में विहल्ल और वेहायस को चेलणा का पुत्र बताया है तथा हल्ल को धारिणी का। निरयावलिया वृत्ति और भगवती वृत्ति के अनुसार हल्ल और विहल्ल दोनों ही चेलणा के पुत्र हैं । वस्तुस्थिति अन्वेषण का विषय है । २. कहा जाता है-सेचनक हाथी और देवप्रदत्त हार का मूल्य श्रेणिक के पूरे राज्य के बराबर था। (आवश्यक चूर्णि, उत्तरार्ध, पत्र १६७) । ____ 2010_05 Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०१ इतिहास और परम्परा ] वस्तुएँ हमारे राज्य मगध की हैं।" चेटक ने पुनः नकारात्मक उत्तर देकर दूत को विसर्जित किया । दूत ने आकर कूणिक को सारा संवाद कहा। कूणिक उत्तेजित हुआ । आवेश में आया । उसके ओठ फड़कने लगे । आँखें लाल हो गईं। ललाट में त्रिवली बन गई। दूत से कहा"तीसरी बार और जाओ। मैं तुम्हें लिखित पत्र देता हूँ। इसमें लिखा है - "हार, हाथी वापस करो या युद्ध के लिए सज्ज हो जाओ।' चेटक की राजसभा में जाकर उसके सिंहासन पर लात मारो। भाले की अणी पर रख कर मेरा यह पत्र उसके हाथों में दो ।" दूत ने वैसा ही किया । चेटक भी पत्र पढ़कर और दूत का व्यवहार देखकर उसी प्रकार उत्तेजित हुआ । आवेश में आया । दूत से कहा - " मैं युद्ध के लिए सज्ज हूं । कूणिक शीघ्र आये, मैं प्रतीक्षा करता हूँ।” चेटक के आरक्षकों ने दूत को गलहत्था देकर सभा से बाहर किया । कूणिक ने दूत से यह सब कुछ सुना । कालकुमार आदि अपने दस भाइयों को बुलाया । और कहा - " अपने-अपने राज्य में जाकर समस्त सेना से सज्ज होकर यहाँ आओ । चेटक राजा से मैं युद्ध करूँगा ।" सब भाई अपने-अपने राज्यों में गये । अपने-अपने तीन सहस्र हाथी, तीन सहस्र घोड़े, तीन सहस्र रथ और तीन करोड़ पदातिकों को साथ लेकर आये । कूणिक ने भी अपने तीन सहस्र हाथी, तीन सहस्र घोड़ें, तीन सहस्र रथ और तीन करोड़ पदातियों सज्ज किया। इस प्रकार तैंतीस सहस्र हस्ती, तेंतीस सहस्र अश्व, तेंतीस सहस्र रथ और तेंतीस करोड़ पदातिकों की बृहत् सेना को लेकर कृणिक वैशाली पर चढ़ आया । राजा चेटक ने भी अपने मित्र तो मल्लकी, नो लिच्छवी; अट्ठारह काशी-कोशल के राजाओं को एकत्रित किया। उनसे परामर्श माँगा – “श्रेणिक राजा की चेल्लणा रानी का पुत्र, मेरा तृक (दोहिता) कूणिक हार और हाथी के लिए युद्ध करने आया है । हम सब को युद्ध करना है या उसके सामने समर्पित होना है ?" सब राजाओं ने कहा - "युद्ध करना है, समर्पित नहीं होना है ।" यह निर्णय कर सब राजा अपने-अपने देश में गये और अपने-अपने तीन सहस्र हाथी, तीन सहस्र अश्व, तीन सहस्र रथ और तीन करोड़ पदातिकों को लेकर आये । इतनी ही सेना से चेटक स्वयं तैयार हुआ । ५७ सहस्र हाथी. ५७ सहस्र अश्व, ५७ सहस्र रथ और ५७ करोड़ पदातिकों की सेना लिए चेटक भी संग्राम-भूमि में आ डटा । राजा चेटक भगवान् महावीर का उपासक था । उपासक के १२ व्रत उसने स्वीकार किये थे । उसका अपना एक विशेष अभिग्रह था - "मैं एक दिन में एक से अधिक बाण नहीं चलाऊंगा ।" उसका बाण अमोघ था अर्थात् निष्फल नहीं जाता था। पहले दिन अजातशत्रु की ओर से कालकुमार सेनापति होकर सामने आया । उसने गरुड़ व्यूह की रचना की । राजा चेटक ने शकट व्यूह की रचना । भयंकर युद्ध हुआ । राजा चेटक ने अपने अमोघ बाण का प्रयोग किया। कालकुमार धराशायी हुआ । इसी प्रकार एक-एक कर अन्य नो भाई एक-एक दिन सेनापति होकर आये और चेटक राजा के अमोघ बाण से मारे गये । महावीर उस समय चम्पानगरी में वर्तमान थे । कालकुमार आदि राजकुमारों की माताएँ काली आदि दस रानियों ने युद्ध-विषयक प्रश्न महावीर से पूछे । महावीर ने कालकुमार आदि की मृत्यु का सारा वृत्तान्त उन्हें बताया । उन रानियों ने महावीर के पास दीक्षा ग्रहण की । १ १. निरयावलिया सूत्र ( सटीक ), पत्र ६- १ | 2010_05 Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड : १ इन्द्र की सहायता कुणिक ने तीन दिनों का तप किया। शकेन्द्र और चमरेन्द्र की अराधना की। वे प्रकट हुए। उनके योग से प्रथम दिन महाशिलाकंटक संग्राम की योजना हुई। कूणिक शकेन्द्र द्वारा निर्मित अभेद्य बचपतिरूप कवच से सुरक्षित होकर युद्ध में आया ताकि चेटक का अमोघ बाण भी उसे मार न सके । घमासान युद्ध हुआ । कूणिक की सेना द्वारा डाला गया कंकड़, तृण व पत्र भी चेटक की सेना पर महाशिला जैसे प्रहार करता था। एक दिन के संग्राम में ६४ लाख मनुष्य मरे । दूसरे दिन रथ-मूसल-संग्राम की विकुर्वणा हुई। कूणिक चमरेन्द्र देवनिमित स्वयंचालित रथ पर चला। अपने चारों ओर से मूसल की मार करता हुआ सारे दिन वह शत्रु की सेना में घूमता रहा । एक दिन में ६६ लाख मनुष्यों का संहार हुआ। चेटक और नो मल्लकी, लिच्छवी,-ऐसे अट्टारह काशी-कौशल के गणराजाओं की पराजय हुई तथा कूणिक की विजय हुई।' वैशाली प्राकार-भंग __ पराजित होकर राजा चेटक अपनी नगरी में चला गया। प्राकार के द्वार बन्द कर लिये । कूणिक प्राकार को तोड़ने में असफल रहा। बहुत समय तक वैशाली को घेरे वह वहीं पड़ा रहा। एक दिन आकाशवाणी हुई- श्रमण कूलवालक जब मागधिका वेश्या में अनुरक्त होगा, तब राजा अशोकचन्द्र (कूणिक) वैशाली नगरी का अधिग्रहण करेगा।"3 कूणिक ने कूलवालक का पता लगाया। मागधिका को बुलाया। मागधिका ने कपट श्राविका बन कूलवालक को अपने आप में अनुरक्त किया । कूलवालक नैमित्तिक का वेष बना जैसे-तैसे वैशाली नगरी में पहुँचा। उसने जाना कि मुनि सुव्रत स्वामी के स्तूप के प्रभाव से यह नगरी बच रही है। लोगों ने शत्रु-संकट का उपचार पूछा। उसने कहा-“यह स्तूप टूटेगा, तभी शत्रु यहाँ से हटेगा।" लोगों ने स्तूप को तोड़ना प्रारम्भ किया। एक बार तो कूणिक की सेना पीछे हटी; क्योकि वह ऐसा समझा कर आया था । ज्यों ही सारा स्तूप टूटा, कूणिक ने कूलवालक के कहे अनुसार एकाएक आक्रमण कर वैशाली-प्राकार भंग किया। हल्ल और विहल्ल हार और हाथी को लेकर शत्रु से बचने के लिए भगे। प्राकार की खाई में प्रच्छन्न आग थी। हाथी सेचनक इसे अपने विभङ्ग-ज्ञान से जान चुका था। वह आगे नहीं बढ़ा । बलात् बढ़ाया गया तो उसने हल्ल और विहल्ल को नीचे उतार दिया और स्वयं अग्नि में प्रवेश कर गया। मर कर अपने शुभ अध्यवसायों के कारण प्रथम देवलोक में उत्पन्न १. भगवती, शतक ७, उद्दे० ९, सू० ३०१। २. 'कूलवालक' तपस्वी नदी के कूल के समीप आतापन करता था। उसके तप: प्रभाव से नदी का प्रवाह थोड़ा मुड़ गया। उससे उसका नाम 'कूलवालक' हुआ। - (उत्तराध्ययन सूत्र, लक्ष्मीवल्लभ कृत वृत्ति प्रथम खण्ड, पत्र ८, (गुजराती अनु वाद सहित), अहमदाबाद, १६३५।। ३. समणे जह कूलवालए, महगहिरं रमिस्सए । राया अ असोगचंदए, बेसालि नगरी गहिस्सए॥ -वही, पत्र १०। ४. उत्तरज्झयणाणि, लक्ष्मीवल्लभ कृत वृत्ति, पत्र ११ । 2010_05 Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा ] अनुयायी राजा ३०३ हुआ । देव- प्रदत्त हार देवताओं ने उठा लिया । हल्ल और विहल्ल को शासन देवी ने भगवान् महावीर के पास पहुँचा दिया । वहाँ वे निग्गंठ-पर्याय में दीक्षित हो गये । राजा चेटक ने आमरण अनशन व अपने शुभ अध्यवसायों से सद्गति प्राप्त की । " बौद्ध परम्परा - वाज्जियों से शत्रुता गंगा के एक पन के पास पर्वत में रत्नों की एक खान थी। अजातशत्रु और लिच्छ वियों में आधे-आधे रत्न बाँट लेने का समझौता था । अजातशत्रु " आज जाऊँ, कल जाऊँ" करते ही रह जाता । लिच्छवी एकमत हो सब रत्न ले जाते । अजातशत्रु को खाली हाथों वापस लौटना पड़ता । अनेक बार ऐसा हुआ । अजातशत्रु क्रुद्ध हो सोचने लगा- "गण के साथ युद्ध कठिन है, उनका एक भी प्रहार निष्फल नहीं जाता, पर कुछ भी हो, मैं महद्धिक वज्जियों को उच्छिन्न करूँगा, उनका विनाश करूँगा ।" अपने महामंत्री वस्सकार ब्राह्मण को बुलाया और कहा – “जहाँ भगवान् बुद्ध हैं, वहाँ जाओ । मेरी यह भावना उनसे कहो । जो उनका प्रत्युत्तर हो, मुझे बताओ। ५ I उस समय भगवान् बुद्ध राजगृह में गृधकूट पर्वत पर विहार करते थे । वस्सकार वहाँ आया । उस समय अजातशत्रु की ओर से सुख- प्रश्न पूछा और उसके मन की बात कही । भगवान् ने उस समय वज्जियों के सात अपरिहानीय नियम बतलाये : १. वज्जी सन्निपात- बहुल हैं अर्थात् उनके अधिवेशन में पूर्णा उस्थिति रहती हैं । २. वज्जी एकमत से परिषद् में बैठते हैं, एकमत से उत्थान करते हैं, एक हो करणीय कर्म करते हैं । वे सन्निपात भेरी के बजते ही खाते हुए, आभूषण पहनते हुए या वस्त्र पहनते हुए भी ज्यों-के-त्यों एकत्रित हो जाते हैं । ३. वज्जी अप्रज्ञप्त ( अवैधानिक) को प्रज्ञप्त नहीं करते, प्रज्ञप्त का उच्छेद नहीं करते । ४. वज्जी महल्लकों (वृद्धों ) का सत्कार करते हैं, गुरुकार करते हैं, उन्हे मानते हैं, पूजते हैं । ५. वज्जी कुल स्त्रियों और कुल-कुमारियों के साथ बलात् विवाह नहीं करते । ६. वज्जी अपने नगर के बाहर और भीतर के चैत्यों का आदर करते हैं। उनकी मर्यादाओं का लंघन नहीं करते । ७. वज्जी अर्हतों की धार्मिक सुरक्षा रखते हैं, इसलिए कि भविष्य में उनके यहाँ मर्हत् आते रहें और जो हैं, वे सुख से विहार करते रहें । १. भरतेश्वर बाहुबली वृत्ति, पत्र १००-१०१ । २. आचार्य भिक्षु, भिक्षु ग्रन्थ रत्नाकर, खण्ड २, पृ० ८८ । ३. बुद्धचर्या ( पृ० ४८४ ) के अनुसार " पर्वत के पास बहुमूल्य सुगन्ध वाला माल उतरता था।" ४. दीघनिकाय - अट्ठकथा ( सुमंगलविलासिनी), खण्ड २, पृ० ५२६ ; Dr. B. C. Law : Buddha Ghosa p. 111; हिन्दू सभ्यता, पृ० १८७ ॥ ५. दीघनिकाय, महापरिनिव्वाण सुत्त, २३ (१६) । 2010_05 Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [ खण्ड : १ सात अपरिहानीय नियम जब तक उनके चलते रहेंगे, तब तक उनकी अभिवृद्वि ही है; अभिहानि नहीं ।" ३०४ वज्जियों में भेद वस्सकार पुनः अजातशत्रु के पास आया और बोला- “बुद्ध के कथनानुसार तो वज्जी अजेय हैं, पर, उपलापन ( रिश्वत ) और भेद से उन्हें जीता जा सकता है ।" राजा ने पूछा- - "भेद कैसे डालें ?” वस्सकार ने कहा - "कल ही राजसभा में आप वज्जियों की चर्चा करें। मैं उनके पक्ष में कुछ बोलूँगा । उस दोषारोपण में मेरा शिर मुंडवा कर मुझे नगर से निकाल देना । मैं कहता जाऊँगा'मैंने तेरे प्राकार, परिखा आदि बनवाये हैं । मैं दुर्बल स्थानों को जानता हूँ। शीघ्र ही मैं तुम्हें सीधा न कर दूँ तो मेरा नाम वस्सकार नहीं है ।' अगले दिन वही सब घटित हुआ । बात वज्जियों तक भी पहुँच गई । कुछ लोगों ने कहा - "यह ठगी है। इसे गंगा-पार मत आने दो ।" पर, अधिक लोगों ने कहा--"यह घटना बहुत ही अपने पक्ष में घटित हुई है। वस्सकार का उपयोग अजातशत्रु करता था । यह बुद्विमान् है, इसका उपयोग हम ही क्यों न करें ? यह शत्रु का शत्रु है; अतः आदरणीय है ।" इस धारणा पर उन्होंने वस्सकार को अपने यहाँ अमात्य बना दिया । थोड़े ही दिनों में उसने वहाँ अपना प्रभाव जमा लिया। उसने वज्जियों में भेद डालने की बात शुरू की। सारे लिच्छवी एकत्रित होते, वह किसी एक से एकान्त में होकर पूछता "खेत जोतते हो ?” "हाँ, जोतते हैं ।" "दो बैल जोत कर ?" "हाँ, दो बैल जोत कर ।" दूसरा लिच्छवी उस लिच्छवी को एकान्त में ले जाकर पूछता - "महामात्य ने क्या कहा ?" वह सारी बात उसे कह देता; पर, उसे विश्वास नहीं होता कि महामात्य ने ऐसी साधारण बात की होगी । “मेरे पर तुम्हें विश्वास नहीं है, सही नहीं बतला रहे हो ।" यह कह कर सदा के लिये वह उससे टूट जाता । कभी किसी लिच्छवी को वस्सकार कहता –“आज तुम्हारे घर में क्या शाक बनाया था ?" वही बात फिर घटित होती । किसी एक लिच्छवी को एकान्त में ले जाकर कहता- "तुम बड़े गरीब हो।" किसी को कहता- "तुम बड़े कायर हो ।” “किसने कहा ?" पूछे जाने पर उत्तर देता- "अमुक लिच्छवीने, अमुक लिच्छवी ने । " कुछ ही दिनों में लिच्छवियों में परस्पर इतना अविश्वास और मनोमालिन्य हो गया कि एक रास्ते से भी दो लिच्छवी नहीं निकलते। एक दिन वास्सकर ने सन्निपात भेरी बजवाई । एक भी लिच्छवी नहीं आया । तब उसे निश्चय हो गया कि अब वज्जियों को जीतना बहुत आसान है । अजातशत्रु को आक्रमण के लिए उसने प्रच्छन्न रूप से कहला दिया । अजातशत्रु ससैन्य चल पड़ा । वैशाली में भेरी बजी - "आओ चलें, शत्रु को गंगा पार न होने दें । " १. दीघ निकाय, महापरिनिव्वाण सुत्त, २१३ (१६) । 2010_05 Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा] अनुयायी राजा ३०५ कोई नहीं आया। दूसरी भेरी बजी-"आओ चलें, नगर में न घुसने दें। द्वार बन्द करके रहें। कोई नहीं आया। भेरी सुनकर सब यही बोलते-"हम तो गरीब हैं, हम क्या लड़ेंगे?" "हम तो कायर हैं, हम क्या लड़ेंगे?" "जो श्रीमन्त हैं और शौर्यवन्त हैं, वे लड़ेंगे।" खुले ही द्वार अजातशत्रु नगरी में प्रविष्ट हुआ और वैशाली का सर्वनाश कर चला गया। महापरिनिव्वाण सुत्त के अनुसार अजातशत्रु के दो महामात्य सुनीध और वस्सकार ने वज्जियों से सुरक्षित रहने के लिए गंगा के तट पर ही पाटलिपुत्र नगर बसाया । जब वह बसाया जा रहा था, संयोगवश बुद्ध भी वहां आये। सुनीध और वास्सकार के आमन्त्रण पर उनके यहां भोजन किया। चर्चा चलने पर पाटलिपुत्र की प्रशंसा की और उसके तीन अन्तराय बताये-आग, पानी और पारस्परिक भेद । बुद्ध के कथानानुसार त्रयस्त्रिश देवों के साथ मंत्रणा करके सुनील और वस्सकार ने यह नगर बसाया था। समीक्षा दोनों ही परम्पराएं अपने-अपने ढंग से इस मगध-विजय और वैशाली-मंग का पूरापूरा ब्यौरा देती है । युद्ध का निमित्त, युद्ध का प्रकार आदि दोनों परम्पराओं के सर्वथा भिन्न हैं। जैन परम्परा चेटक को लिच्छवी-नायक के रूप में व्यक्त करती है। बौद्ध- परम्परा प्रतिपक्ष के रूप में केवल वज्जी-संघ (लिच्छवी-संघ) को ही प्रस्तुत करती है। जैन परम्परा के कुछ उल्लेख जैसे-कूणिक व चेटक की क्रमशः ३३ करोड़ व ५७ करोड़ सेना, शक्र और असुरेन्द्र का सहयोग, दो ही दिनों में १ करोड ८० लाख मनुष्यों का बध होना, कूलवालक के सम्बन्ध से आकाशवाणी का होना, स्तूप मात्र के टूटने से लिच्छवियों की पराजय हो जाना आदि बातें आलंकारिक जैसे लगती हैं। बौद्ध परम्परा का वर्णन अधिक सहज और स्वभाविक लगता है। युद्ध के निमित्त में एक ओर रत्न-राशि का उल्लेख हैं तो एक ओर महार्य देव प्रदत्तहार का । भावनात्मक समानता अवश्य है। चेटक बाण को जैन परम्परा में अमोघ बताया गया है । बौद्ध-परम्परा का यह उल्लेख कि उन (वज्जिगण) का एक भी प्रहार निष्फल नहीं जाता, उसी प्रकार का संकेत देता है। जैन परम्परा स्तुप के प्रभाव से नगरी की सुरक्षा बताती है । बुद्ध कहते हैं-'जब तक वज्जी नगर के बाहर व भीतर के चैत्यों (स्तूपों) का आदर करेंगे, तब तक उनकी वृद्धि ही है, हानि नहीं।" युद्ध के पात्रों का व्यवस्थित ब्यौरा जितना जैन परम्परा देती है, उतना बौद्ध परम्परा नहीं। चेटक तथा ६ मल्लकी, ६ लिच्छवी, अट्ठारह गणराजाओं का यत्किचित् विवरण भी बौद्ध परम्परा नहीं देती। वैशाली-विजय में छम-भाव का प्रयोग दोनों ही परम्पराओं ने माना है। जैन परम्परा के अनुसार युद्ध के दो भाग हो जाते हैं१. पखवाड़े का प्रत्यक्ष युद्ध और २. प्राकार-भंग दोनों के बीच बहुत समय बीत जाता है। डॉ० राधाकुमुद मुखर्जी की धारणा के १. दीघ निकाय-अट्ठकथा, खण्ड २, पृ० ५२३ । ____ 2010_05 Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०६ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [ खण्ड : १ अनुसार यह अवधि कम से कम १६ वर्षों की हो सकती है ।" बौद्ध परम्परा के अनुसार वस्सकार लगभग तीन वर्ष वैशाली में रहता है और लिच्छवियों में भेद डालता है । इन सबसे यह प्रतीत होता है कि बौद्ध परम्परा का उपलब्ध वर्णन केवल युद्ध का उत्तरार्ध मात्र है । रानियाँ और पुत्र जैन परम्परा में कूणिक की तीन रानियों के नाम मुख्यतया आते हैं- पद्मावती, धारिणी और सुभद्रा । आवश्यक चूर्णि के अनुसार कूणिक ने आठ राज- कन्याओं के साथ विवाह किया था, पर, वहाँ उनका कोई विशेष परिचय नहीं है । बौद्ध परम्परा में कूणिक की रानी का नाम वजिरा आता है । वह कौशल के प्रसेनजित् राजा की पुत्री थी । कूणिक के पुत्र का नाम जैन परम्परा में उदायी और बौद्ध परम्परा में उदायीभद्र आता है । जन परम्परा के अनुसार वह पद्मावती का पुत्र था और बौद्ध परम्परा के अनुसार वह वजिरा का पुत्र था । वजिरा का पुत्र होने में एक असंगति आती है । बौद्ध परम्परा के अनुसार उदायीभद्र का जन्म उसी दिन हुआ, जिस दिन श्रेणिक का शरीरान्त हुआ, जब कि वजिरा का विवाह भी श्रेणिक की मृत्यु के पश्चात् हुआ । मृत्यु कूणिक ( अज्ञातशत्रु) की मृत्यु दोनों परम्पराओं में विभिन्न प्रकार से बताई गई है । जैन परम्परा मानती है - कूणिक ने महावीर से पूछा - "चक्रवती मर कर कहाँ जाते हैं ? " उत्तर मिला – “चक्रवर्ती पद पर मरने वाला सप्तम नरक तक जाता है ।" "मैं मर कर कहाँ जाऊँगा ?" "तुम छठे नरक में जाओगे ।" "क्या मैं चक्रवर्ती नहीं हूँ ?" "नहीं हो ।" कूणिक को चक्रवर्ती बनने की घुन लगी । कृत्रिम चौदह रत्न बनाये । षड्खण्ड-विजय के लिए निकला । तिमिस्रा गुफा में देवता ने रोका और कहा "चक्रवर्ती ही इस गुफा को १. हिन्दू सभ्यता, पृ० १८६ | २. तस्स णं कूणियस्स रण्णो पउमावई नामं देवी... - निरग्रावलिया सुत्त, (पी० एल० वैद्य सम्पादित ) पृ० ४ । ३. तस्स णं कूणियस्स रण्णो धारिणी नामं देवी... 2010_05 उववाई सुत्त ( सटीक ), सू० ७, पत्र २२ । ४. वही, सू० ३३, पत्र १४४ । ५. आवश्यक चूर्णि उत्तरार्ध, पत्र १६७ । ६. आचार्य बुद्धघोष, सुमंगलविलासिनी, खण्ड १, पृ १३७ ॥ ७. जातक अट्ठकथा, खण्ड ४, पृ० ३४३ : Encyclopaedia of Buddhism p. 317 Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा ] अनुयायी राजा पार कर सकता है और चक्रवर्ती बारह हो चुके हैं।" कूणिक ने कहा- - " मैं तेरहवाँ चक्रवर्ती हूँ ।" इस अनहोनी बात पर देव कुपित हुआ और उसने उसे वहीं भस्म कर दिया ।' बौद्ध परम्परा बताती है कि राज्य लोभ से उदायीभद्र ने उसकी हत्या की । दोनों परम्पराओं की इस विषय में समान बात यही है कि कूणिक मर कर नरक में गया। जैन परम्परा जहाँ तमः प्रभा का उल्लेख करती है, वहाँ बौद्ध परम्परा लौहकुम्भीय नरक का उल्लेख करती है। कुल नरक जैनों के अनुसार सात हैं, बौद्धों के अनुसार आठ हैं। बौद्ध परम्परा के अनुसार अजातशत्रु अनेक भवों के पश्चात् विदित विशेष अथवा विजिताबी नामक प्रत्येक बुद्ध होकर निर्वाण प्राप्त करेगा । पूर्व भव ३०७ कूणिक के पूर्व भवों की चर्चा भी दोनों परम्पराओं ने मिलती है । घटनात्मक दृष्टि से दोनों चर्चाएं सर्वथा भिन्न हैं; पर तत्त्व-रूप से वे एक ही मानी जा सकती हैं। दोनों का हार्द है - श्रेणिक के जीव ने कूणिक के जीव का किसी एक जन्म में वध किया था । १. ठाणांग सूत्र वृत्ति, स्था० ४, उ० ३ ; आवश्यक कूणि, उत्तरार्ध, पत्र १७६-१७७ । २. महावंश, ४। १ । ३. दीघ निकाय अट्ठकथा, खण्ड १, पृ० २३७-३८ । ४. रत्नप्रभा, शर्कराप्रभा, बालुप्रभा, पंकप्रभा, घूमप्रभा, तमः प्रभा, महातमः प्रभा ( तमतमाप्रभा) । - भगवती, शतक १, उद्दे० ५ । ५. संजीव, कालसुत, संघात, जालरौरव, धूमरौरव, महा अवीचि, तपन, पतापन | (जातक अट्ठकथा, खण्ड ५, पृ० २६६, २७१) । दिव्यावदान में ये ही नाम हैं, केवल जाल रौरव के स्थान पर रौरव और धूमरीरव के स्थान पर महारीरख मिलता है । (दिव्यावदान, ६७ ) । संयुत्त निकाय, अंगुत्तर निकाय तथा सुत्तनिपात में १० नरकों के नाम आये हैं --अव्बुद, निरव्वुद, अवब, अटट, अहह, कुमुद, सोगन्धिक, उप्पल, पुण्डरीक, पदुम । (सं० नि० ६-१-१०; अं. नि. ( P. T.S.), खन्ड ५, पृ० १७३; सुत्तनिपात, महावग्ग, कोकालिय सुत्त, ३।३६ । ) अट्ठकथाकार के अनुसार ये नरकों के नाम नहीं, पर, नरक में रहने की अवधियों के नाम हैं । आगमों में भी इसी प्रकार के काल-मानों का उल्लेख है । (उदाहरणार्थ देखें- भगवती सूत्र, शतक ६, उद्दे० ७ ) । बौद्ध साहित्य में अन्यत्र ५ नरकों की सूची भी मिलती है । ( मज्झिमनिकाय, देवदत्त सुत्त) तथा जातकों में स्फुट रूप से दूसरे नामों का उल्लेख भी है । 'लोहकुम्भी निरय का उल्लेख भी स्फुट नामों में है ( जातक अट्ठकथा, खण्ड ३, पृ० २२; खण्ड ५, पृ० २६६; सुत्तनिपात अट्ठकथा, खण्ड १, पृ०५९) । ६. Dictionary of Pali Proper Names vol. 2, p. 35. ७. जैन वर्णन – निरयावलिया सूत्र, घासीलालजी महाराज कृत, सुन्दर बेघिनी टीका, पृ० १२६ - १३३; बौद्ध वर्णन - जातक अट्ठकथा, संकिच्च जातक, जातक संख्या ५३० । 2010_05 Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०८ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड:१ अभयकुमार श्रेणिक बिम्बिसार व अजातशत्रु कूणिक से भी अधिक रहस्य का प्रश्न अभयकुमार का है । इसके विषय में दोनों परम्पराएँ अपना-अपना अनुयायी ही होने का आग्रह नहीं करतीं, प्रत्युत अपने-अपने भिक्षु-संघ में दीक्षित होने का भी निरूपण करती हैं। आगमिक उल्लेख के अनुसार वह स्वयं महावीर के पास दीक्षित होता है। श्रपिटक उल्लेख के अनुसार वह स्वयं बुद्ध के पास प्रव्रज्या पाता है। जन्म जैन परम्परा मानती है कि वह श्रेणिक मंभसार की नन्दा नामक रानी से उत्पन्न हुआ था। नन्दा वेन्नातटपुर के धनावह नामक श्रेष्ठी की कन्या थी। श्रेणिक कुमारावस्था में निर्वासित होकर वहां पहुंचा था और उसने नन्दा के साथ पाणि-ग्रहण किया था। अभयकुमार आठ वर्ष तक अपनी माता के साथ ननिहाल ही रहा। उसके पश्चात् माता व पुत्र दोनों ही राजगृह आ गए। बौद्ध-परम्परा में अभयकुमार को सर्वत्र 'अभयराजकुमार' कहा गया है । उसके अनुसार वह उज्जैनी की पद्मावती गणिका से उत्पन्न श्रेणिक बिंबिसार का पुत्र था। पद्मावती की लावण्य-ख्याति बिम्बिसार ने सुनी। वह उसकी ओर आकृष्ट हुआ। अपने मन की बात अपने पुरोहित से कही । पुरोहित की आराधना से कुम्भिर नामक यक्ष प्रकट हुआ। वह यक्ष बिम्बिसार को उज्जैनी ले गया। वहां बिम्बिसार का पद्मावती वेश्या से संसर्ग हुआ। राजकुमार अभय अपने जन्म-काल से सात वर्ष तक उज्जनी में अपनी माता के पास रहा। फिर वह राजगृह में अपने पिता के पास आ गया और अन्य राजकुमारों के साथ रहने लगा। १. (क) तस्स णं से सेणियस्स रन्नो पुत्ते नंदाए देवीए अत्तए अभए नाम कुमारे होत्था। -निरयावलिया, सू० २३ । (ख) तस्स णं सेणियस्स पुत्ते नंदाए देवीए अत्तए अभए नामं कुमारे होत्था। –णायाधम्मकहाओ श्रु० १, अ०१ । (ग) अभयस्स णाणत्तं, रायगिहे नगरे, सेणिए राया, नंदा देवी माया, सेस तहेव। -अणुत्तरोववाइयदसाओ सूत्र, १ ॥१॥ २. वेन्नातट नगर, दक्षिण की कृष्णा नदी जहां पूर्व के समुद्र में गिरती है, वहां पर होना. __ चाहिए । विशेष विवरण के लिये देखें-तीर्थंकर महावीर, भा० २, पृ० ६४१-४३ । ३. भरतेश्वर बाहुवली वृत्ति, पत्र ३६ । ४. गिल्गिट मांस्कृष्ट के अनुसार अभय राजकुमार वैशाली की गणिका आम्रपाली से उत्पन्न बिम्बसार का पुत्र था। (खण्ड ३, २, पृ. २२) श्रेणिक के अम्बपाली से उत्पन्न पुत्र का नाम मूल पालि-साहित्य में 'विमल कोडच' आता है, जो कि आगे चलकर बौद्ध भिक्षु बना। (थेरगाथा-अट्ठकथा, ६४)। ५. थेरीगाथा-अट्ठकथा, ३१-३२ । ____ 2010_05 Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा ] अनुयायी राजा ३०६ : अभयकुमार की माता के विषय में यथार्थता क्या थी, यह कह पाना कठिन है। दोनों ही परम्पराएं दो प्रकार की बात कहती हैं । इतना अवश्य है कि जैन परम्परा का उल्लेख आगमिक है और बौद्ध परम्परा का उल्लेख अट्टकथा पर आधारित है। यक्ष का आना और श्रेणिक को उज्जैनी ले जाना यह सब भी किवदन्ती मात्र से अधिक नहीं ठहरता । प्रवृत्ति और व्यक्तित्व बौद्ध परम्परा अभय को एक सामान्य राजकुमार से अधिक कुछ नहीं मानती । अधिकसे अधिक उसे रथ-विद्या- विशारद के रूप में प्रस्तुत करती है ।" जैन परम्परा बताती है - "श्रेणिक राजा का पुत्र तथा नन्दा देवी का आत्मज अभयकुमार अहोन यावत् सुरूप साम, दण्ड, भेद, उपप्रदान; नीति तथा व्यापार नीति का ज्ञाता था । ईहा, अपोह, मार्गणा, गवेषणा तथा अर्थ - शास्त्र में कुशल था । औत्पातिकी, वैनयिकी, कार्मिकी तथा पारिणामिकी; चार प्रकार की बुद्धियों से युक्त था । वह श्रेणिक राजा के लिये बहुत से कार्यों में, कौटुम्बिक कार्यों में, मन्त्रणा में, गुह्य कार्यों में, रहस्यमय कार्यों में, निश्चय करने में एक बार और बारबार पूछने योग्य था । वह सबके लिए 'मेढीभूत'' था, प्रमाण था, आधार था, आलम्बन था, चक्षुभूत था, सब कार्यों और सब स्थानों में प्रतिष्ठा प्राप्त करने वाला था, सबको विचार देने वाला था, राज्य की धुरा को धारण करने वाला था; वह स्वयं ही राज्य ( शासन ), राष्ट्र (देश), कोष, कोठार ( अन्न भण्डार), सेना, वाहन, नगर और अन्त: पुर की देख-भाल करता रहता था । "3 जैन मान्यता के अनुसार अभयकुमार श्रेणिक भंभसार का मनोनीत मत्रा था । " उसकी हर समस्या का स्वयं में ही वह एक समाधान था। मेघकुमार की माता धारिणी का दोहद तथा कूणिक की माता चेलणा का दोहद अपने बुद्धि-कल से अभयकुमार ने ही पूरा किया। अपनी चूल माता (छोटी माता ) चेलणा और श्रेणिक का विवाह भी अभयकुमार के बुद्धि-बल से हुआ ।" बुद्धि-बल के लिये अभयकुमार जैन परम्परा का प्रसिद्ध पुरुष कहा जा सकता है । अनेकानेक घटना-प्रसंग प्रचलित हैं, जो उसके बुद्धि-वैशिष्ट्य को व्यक्त करते हैं । अभयकुमार ने श्रेणिक के राजनैतिक संकट भी अनेक बार टाल थे। एक बार उज्जैनो के राजा चण्डप्रद्योत ने चौदह राजाओं के साथ राजगृह पर आक्रमण किया। अभयकुमार ने १. मज्झिमनिकाय, अभयराजकुमार सुत्त । २. मेढी - खलियान में गाड़ा हुआ स्तम्भ, जिसके चारों ओर घूम-घूमकर बैल धान्य को रौंदते हैं। ३. णायाधम्मकहाओ, प्रथम श्रुतस्कन्ध, प्रथम अध्ययन । ४. भरतेश्वर बाहुबली वृत्ति, पत्र, ३८ । ५. 'भिक्षु संघ और उसका विस्तार' प्रकरण । ६. देखिये, इसी प्रकरण के अन्तर्गत 'अजातशत्रु कूणिक' । ७. त्रिषष्टिशलाकापुरुष चरित्रम्, पर्व १०, सर्ग ६, श्लो० २२६-२२७, पत्र ७८-२ । 2010_05 Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१० आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन खण्ड:१ जहाँ शत्रु का शिविर लगना था, वहाँ पहले से ही स्वर्ण-मुद्राएं गड़वा दी। जब चण्डप्रद्योत ने राजगृह को घेर लिया, तो अभयकुमार ने उसे एक पत्र लिखा, जिसमें बताया-"मैं आपका हितैषी होकर बता रहा हूं कि आपके सहचर राजा श्रेणिक से मिल गये हैं । वे आपको बाँवकर श्रेणिक को सम्भलाने वाले हैं। उन्होंने श्रेणिक से बहुत धन-राशि ली है। विश्वास के लिए आपका जहाँ शिविर है, वहाँ को भूमि को खुदवा कर देखें।" चण्डप्रद्योत ने भूमि खुदवाई तो हर स्थान पर उसे स्वर्ण मुद्राएँ गड़ी मिलीं। घबराकर वह ज्यों-का-त्यो उज्जैनी लौट गया। अभयकुमार के सम्बन्ध से दोनों परम्पराओं में कोई भी धटना-साम्य नहीं है। केवल एक नगण्य-सी घटना दोनों परम्पराओं में यत्किचित समानता से मिलती है। बौद्ध परम्परा के अनुसार एक सीमा-विवाद को कुशलतापूर्वक निपटा देने के उपलक्ष में बिम्बिसार ने एक सुन्दर नर्तकी उसे उपहार में दी। जैन कथा-वस्तु के अनुसार श्रेणिक राजा के सेणा नामक एक बहिन थी। वह किसी विद्याघर को ब्याही थी। अन्य विद्याधरों ने सेणा को मार डाला और उसकी पुत्री को श्रेणिक के यहाँ भेज दिया। श्रेणिक ने वह कन्या पत्नी के रूप में अभयकुमार को प्रदान की। बौड प्रव्रज्या ___ मज्झिम निकाय के अभयराजकुमार सुत्त में बताया गया है-एक समय भगवान् राजगृह में वेणुवन कलन्दक निवाप में विहार करते थे। तब अभयराजकुमार निगण्ठ नातपुत्त के पास गया। निगण्ठ नातपुत्त ने उससे कहा-"राजकुमार !श्रमण गौतम के साथ शास्त्रार्थ कर, इससे तेरा सुयश फैलेगा। जनता में चर्चा होगी, अभयराजकुमार ने इतने महर्दिक श्रमण गौतम के साथ शस्त्रार्थ किया है।" अभयराजकुमार ने निगण्ठ नातपुत्त से पूछा-"भन्ते ! मैं शस्त्रार्थ का आरम्भ किस प्रकार करूँ?" निगण्ठ नातपुत्त ने उत्तर दिया-"तुम गौतम बुद्ध से पूछना, 'क्या तथागत ऐसा वचन बोल सकते हैं, जो दूसरों को अप्रिय हो?' यदि श्रमण गौतम स्वीकृति में उत्तर दें, तो पूछना, 'फिर पृथग् जन (अज्ञ संसारी जीव) से तथागत का क्या अन्तर हुआ? ऐसे वचन तो पृथग् १. उज्जैनी पहुँचकर चण्डप्रद्योत ने समझ लिया, यह सब अभयकुमार का ही षड्यन्त्र था। क्रुद्ध होकर उसने भी एक षड्यन्त्र रचा और अभयकुमार को अपना बन्दी बनाया। मुक्त होकर अभयकुमार ने उसका बदला लिया। उसने भी छद्म-विधि से चण्डप्रद्योत को बन्दी बनाया। इस सरस वर्णन के लिये देखें, त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्रम्, पर्व १०, सर्ग ११, श्लो० १२४ से २६३ तथा आवश्यक चूणि, उत्तरार्ध, पत्र १५६, से १६३ । २. धम्मपद-अठुकथा, १३-४ । ३. आवश्यक चूर्णि, उत्तरार्ध, पत्र १६० । ४. प्रकरण ७६। ____ 2010_05 Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहाह और परम्परा] अनुयायी राजा जन भी बोल सकता है।' यदि श्रमण गौतम नकारात्मक उत्तर दें, तो पूछना, 'आपने देवदत्त के लिए यह भविष्वाणी क्यों की, वह दुर्गतिगामी, नैरयिक, कल्पभर नरकवासी और अचिकित्स्य है । आपके इस वचन से वह कुपित (असन्तुष्ट) हुआ है।' इस प्रकार दोनों ओर के प्रश्न पूछने पर श्रमण गौतम न उगल सकेगा, न निगल सकेगा। किसी पुरुष के गले में यदि लोहे की बंसी फंस जाती है, तो वह न उगल सकता है, न निगल सकता है ; ऐसी ही स्थिति बुद्ध की होगी।" निगण्ठ नातपुत्त को अभिवादन कर अभय राजकुमार वहाँ से उठा और बुद्ध के पास गया। अभिवादन कर एक ओर बैठ गया। अभयराजकुमार ने समय देख कर सोचा"भगवान् के साथ शास्त्रार्थ करने का आज समय नहीं है । कल अपने घर पर ही शास्त्रार्थ करूँगा।" राजकुमार ने उस समय चार आदमियों के साथ बुद्ध को दूसरे दिन के भोजन का निमंत्रण दिया । बुद्ध ने मौन रह कर उसे स्वीकार किया। अभयराजकुमार अपने राजप्रासाद में चला आया। दूसरे दिन पूर्वाह्न के समय चीवर पहिन कर, पात्र व चीवर लेकर बुद्ध अभयराजकुमार के घर आये । बिछे आसन पर बैठे । अभयराजकुमार ने बुद्ध को उत्तम खाद्य भोज्य से अपने हाथ से तृप्त किया। बुद्ध के भोजन कर चुकने पर, पात्र से हाथ हटा लेने पर अभयराजकुमार एक नीचा आसन लेकर एक ओर बैठ गया और शास्त्रार्थ आरम्भ किया। बोला"भन्ते ! क्या तथागत ऐसा वचन बोल सकते हैं, जो दूसरों को अप्रिय हो ?" बुद्ध ने उत्तर दिया-"राजकुमार ! यह एकान्तिक रूप से नहीं कहा जा सकता।" उत्तर सुनते ही अभयराजकुमार बोल पड़ा-"भन्ते ! निगण्ठ नष्ट हो गये।'' बुद्ध ने साश्चर्य पूछा- "राजकुमार ! क्या तू ऐसे बोल रहा है -'भन्ते ! निगण्ठ नष्ट हो गये।' अभयराजकुमार ने दृढ़ता के साथ कहा--- "हाँ भन्ते ! बात ऐसी ही है । मैं निगण्ठ नातपुत्त के पास गया था। मुझे आपसे यह दुबारा प्रश्न पूछने के लिए उन्होंने ही प्रेरित किया था। उनका कहना था, इस प्रकार पूछने पर श्रमण गौतम न उगल सकेगा और न निगल सकेगा।" अभयराजकुमार की गोद में उस समय एक बहुत ही छोटा व मन्द शिशु बैठा था। उसे लक्षित कर बुद्ध ने कहा-"राजकुमार ! तेरे या धाय के प्रमाद से यह शिशु मुख में काठ या ढेला डाल ले तो तू इसका क्या करेगा ?" राजकुमार ने उत्तर दिया-"भन्ते ! मैं उसे निकाल लूंगा। यदि मैं उसे सीधे ही न निकाल सका, तो बाँये हाथ से सिर पकड़ कर, दाहिने हाथ से अँगुली टेढ़ी कर खून सहित भी निकाल लूंगा ; क्योंकि कुमार पर मेरी दया है।" बुद्ध ने कहा--"राजकुमार ! तथागत अतथ्य, अनर्थ-युक्त और अप्रिय वचन नहीं बोलते । तथ्य-सहित होने पर भी यदि अनर्थक और अप्रिय होता है, तो तथागत वैसा वचन भी नहीं बोलते । दूसरों को प्रिय होने पर भी जो वचन अतथ्य व अनर्थक होता है, तथागत उसे भी नहीं बोलते । जिस वचन को तथ्य व सार्थक समझते हैं, वह फिर प्रिय या अप्रिय भी क्यों न हो, कालज्ञ तथागत बोलते हैं, क्योंकि उनकी प्राणियों पर ___अभयराजकुमार ने कहा--"भन्ते ! क्षत्रिय-पण्डित, ब्राह्मण-पण्डित, गृहपति-पण्डित, श्रमण-पण्डित प्रश्न तैयार कर तथागत के पास आते हैं और पूछते हैं। क्या आप पहले से ही 2010_05 Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१२ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन खण्ड:१ मन में सोचे रहते हैं, जो मुझे ऐसा पूछेगे, मैं उन्हें ऐसा उत्तर दूंगा। बुद्ध ने कहा- "राजकुमार ! मैं तुझे ही एक प्रश्न पूछता हूँ; जैसा जचे, वैसा उत्तर देना। क्या तू रथ के अंग-प्रत्यंग में चतुर है ?" "हाँ, भन्ते ! मैं रथ के अंग-प्रत्यंग में चतुर हूँ।" "राजकुमार ! रथ की ओर संकेत कर यदि तुझे कोई पूछे, रथ का यह कौन-सा अंग-प्रत्यंग है ? तो क्या तू पहले से ही सोचे रहता है, ऐसा पूछे जाने पर मैं ऐसा उत्तर दूंझा या अवसर पर ही यह तुझे भासित होता है ?" भन्ते ! मैं रथिक हूँ। रथ के प्रत्येक अंग-प्रत्यंग का मैं प्रसिद्ध ज्ञाता है; अत: मुझे उसी क्षण भासित हो जाता है।" "राजकुमार ! इसी प्रकार तथागत को भी उसी क्षण उत्तर भासित हो जाता है; क्योंकि उनकी धर्म-धातु (मन का विषय) अच्छी तरह सध गई है।" अभयराजकुमार बोला-"आश्चर्य भन्ते ! अद्भुत भन्ते ! आपने अनेक प्रकार (पर्याय) से धर्म को प्रकाशित किया है । मैं भगवान की शरण जाता हूँ, धर्म व भिक्ष-संघ की भी। आज से मुझे अञ्जलिबद्ध शरणागत उपासक स्वीकार करें।" अभयराजकुमार के बुद्ध से साक्षात् होने का एक घटना-प्रसंग संयुत्त निकाय में अभयसुत्त' का है, जिसमें वह बुद्ध से पूरण काश्यप की मान्यता से सम्बन्धित एक प्रश्न करता अभयकुमार को स्रोतापत्ति-फल तब मिला, जब कि वह नर्तकी की मृत्यु से खिन्न होकर बुद्ध के पास गया और बुद्ध ने उसे धर्मोपदेश किया। थेरगाथा और उसकी अट्रकथा के अनुसार पिता की मृत्यु से खिन्न होकर अभयराजकुमार ने बुद्ध के पास प्रव्रज्या ग्रहण की और कालान्तर से अर्हत्-पद प्राप्त पाया। थेरीगाथा अट्ठकथा में यह भी बताया गया है कि भिक्षु-जीवन में उसने अपनी माता पद्मावती गणिका को उद्बोध दिया। वह भी दीक्षित हुई और उसने भी अर्हत्-पद पाया। जैन-प्रव्रज्या जैन धारणा के अनुसार अभयकुमार महावीर का परम उपासक था। एक बार एक द्रुमक (लकड़हारा) सुधर्मा स्वामी के पास दीक्षित हुआ । जब वह राजगृह में भिक्षा के लिए १. ४४-६-६। २. थेरगाथा अट्ठकथा (१-५८) के अनुसार अभय को स्रोतापत्ति-फल तब मिला, जब कि बुद्ध ने 'तालच्छिगुलुपमसुत्त' का उपदेश दिया था। ३. धम्मपद अट्ठकथा, १३-४ । ४. थेरगाथा, २६ । ५. थेरगाथा अट्ठकथा, खण्ड १, पृ० ८३-४ । ६. वही, ३१-३२। ____ 2010_05 Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१३ इतिहास और परम्परा अनुयायी राजा गया, तो लोगों ने उसका उपहास किया-"ये आये हैं, महात्यागी मुनि । इन्होंने तो धनकंचन सब छोड़ दिया है।" इस लोक-चर्चा से द्रुमक मुनि व्यथित हुआ। आकर सुधर्मा स्वामी से यह व्यतिकर कहा । द्रुमक मुनि की परीषह-निवृत्ति के लिए गणधर सुधर्मा ने अगले ही दिन विहार की ठानी । अभयकुमार को पता चला। उसके निवेदन पर विहार रुका। राजगृह में आकर एक-एक कोटि स्वर्ण-मुद्राओं की तीन राशियाँ उसने स्थापित की। नगर के लोगों को आमंत्रित किया । धन-राशि पाने के लिए सभी लोग ललचाये। अभयकुमार ने कहा-'ये तीन कोटि स्वर्ण-मुद्राएँ वह ले सकता है, जो जीवन भर के लिए स्त्री, अग्नि और पानी का परित्याग करे।" कोई आगे नहीं आया। जब अभय कुमार ने कहा- "द्रुमक मुनि कितना महान् है, उसने आजीवन स्त्री, अग्नि एवं पानी का परित्याग किया है।" इस प्रकार अभय ने वह लोक-चर्चा समाप्त की। अभयकुमार की धर्मानुरागिता के अनेकानेक घटना-प्रसंग जैन परम्परा मे प्रचलित हैं । अभयकुमार की छींक का फल बताते हुए महावीर ने स्वयं उसे धर्मनिष्ठ कहा । अभयकुमार के संसर्ग से ही राजगृह के प्रसिद्ध कसाई कालशौरिक का पुत्र सुलसकुमार निगण्ठ-धर्म का अनुयायी बना । अभयकुमार के उपहार से ही आर्द्रककुमार प्रतिबुद्ध होकर भिक्षु बना था। अभयकुमार की प्रव्रज्या के विषय में बताया गया है-भगवान महावीर राजगृह में आये। अभयकुमार भी वन्दन के लिए उद्यान में गया। देशना के अन्त में अभयकुमार ने पूछा-"भगवन् ! अन्तिम मोक्षगामी राजा कौन होगा ?"५ महावीर ने उत्तर दिया"वीतभयपुर का राजा उदायन, जो मेरे पास दीक्षित हुआ है, वही अन्तिम मोक्षगामी राजा है।" अभयकुमार के मन में आया -"मैं यदि राजा बन कर फिर दीक्षित बनूंगा, तो मेरे लिए मोक्ष हाने का रास्ता ही बन्द हो जायेगा। क्यों न मैं कमारावस्था में ही दीक्षा ग्रहण करूँ !" अभयकुमार श्रेणिक के पास आया । दीक्षा की बात उसे कही। श्रेणिक ने कहा"दीक्षा लेने के दिन तो मेरे हैं, तुम्हारे तो राज्य-ग्रहण करने के दिन हैं।" अभयकुमार के विशेष आग्रह पर श्रेणिक ने कहा-"जिस दिन मैं रुष्ट होकर तुझे कहूँ-दरे वज! मुखं मा वर्शय, उस दिन तुम प्रवजित हो जाना।" १. धर्मरत्नप्रकरण, अभयकुमार कथा, १३० । २. विस्तार के लिये देखें, इसी प्रकरण में श्रेणिक बिम्बिसार' के अन्तर्गत निरक-गमन व तीर्थंकर-पद'। ३. हेमचन्द्र-योगशास्त्र, स्वोपज्ञवृत्ति सहित, अ० १, श्लो० ३०, पृ० ६१-६५ । ४. विस्तार के लिए देखें, समसामयिक धर्य-नायक' प्रकरण के अन्तर्गत 'आर्द्रक मुनि'। ५. यह भी माना जाता है कि अभयकुमार की यह पृच्छा 'मोक्षगामी राजा' के लिए न होकर 'मुकुट बद्ध राजा के दीक्षित होने' के विषय में थी। (देखें, अभिधान राजेन्द्र, खण्ड ३, पृ० ४८१)। ____ 2010_05 Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१४ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड : १ कालान्तर से फिर महावीर राजगृह के उपवन में आये। भीषण शीतकाल का समय था। एक दिन सांय श्रेणिक और चेलणा ने उपवन से आते नदी के तट पर, एक मुनि को ध्यानस्थ खड़े देखा। रात को रानी जगी। मुनि की याद आई। उसके मुंह से सहसा निकला-'आह ! वह क्या करता होगा ?" राजा ने भी यह वाक्य सुन लिया। उसके मन में रानी के प्रलि अविश्वास हुआ । प्रातःकाल भगवद्-वन्दन के लिए जाते-जाते उसने अभयकमार को आदेश दिया-'महल जला डालो। यहाँ दुराचार पलता है।" अभयकुमार ने रानियों को पृथक कर खाली महल को जला डाला। श्रेणिक ने महावीर से जिज्ञासा की और महावीर ने उत्तर दिया- "तुम्हारी चेलणा आदि सब रानियाँ निष्पाप हैं।" राजा को अपने आदेश पर पछतावा हुआ। राजा सहसा वहाँ से चला कि कोई हानि न हो जाये। अभयकुमार रास्ते में ही मिल गया। राजा ने कहा-"तुमने महल का क्या किया ?" अभयकुमार ने उत्तर दिया-"आपके आदेशानुसार जला दिया।" राजा को अत्यन्त दुःख हुआ। अभयकुमार पर रंज भी हुआ। उसके मुँह से सहसा निकल पड़ा-"दूरे वज! सुखं मा दर्शय"--- दूर चला जा, मुंह मत दिखा। अभयकुमार ने पित-वाक्य शिरोधार्य किया और भगवान् महावीर के पास जा प्रवज्या ग्रहण की। राजा ने महल को सम्भाला तो सब रानियाँ सुरक्षित थीं। उसे भान हुआ- "अभयकुमार दीक्षित होगा, मैं उसे रोकूँ।" राजा शीघ्रता से महावीर के पास आया, तो देखा वह तो दीक्षित हो ही गया है। अंतगडदशांग सूत्र में अभय की माता नन्दा के भी दीक्षित होने व मोक्ष जाने का उल्लेख है।२ दीक्षा के अनन्तर भिक्षु अभयकुमार ने ग्यारह अंगों का अध्ययन किया। 'गुणरत्न तप' किया । अत्यन्त कृशकाय हो गया। काल-धर्म को प्राप्त हो विजय अनुत्तर विमान में देव-रूप से उत्पन्न हुआ। वहाँ वह २२ सागरोपम स्थिति का भोग कर महाविदेह-क्षेत्र में उत्पन्न होगा। वहाँ से वह सिद्ध-गति प्राप्त करेगा। उपसंहार अभयकुमार-सम्बन्धी दोनों ओर के पुरावों को देखते हुए लगता है, क्यों न अभयकुमार और राजकुमार अभय को पृथक्-पृथक् दो व्यक्ति माना जाये ? पितृ-साम्य के अतिरिक्त अन्य सभी प्रमाण उनके दो व्यक्ति होने के पक्ष में ही माने जा सकते हैं। बौद्ध परम्परा उसे जीवक कौमार-मृत्यु का जनक मानती है, जबकि जैन परम्परा में इसका कोई आभास नहीं मिलता। इसी प्रकार एक की माता वणिक्-कन्या है, तो एक की गणिका; एक प्रधानमंत्री है, १. भरतेश्वर बाहुबली वृत्ति, पत्र ३८-४० । २. मोदी सम्पादित, पृ० ५१। ३. स्कन्दक संन्यासी को तपः-साधना जैसा ही वर्णन अभयकुमार का है। स्कन्दक मुनि ____ का विवरण देखें-'पारिपाश्विक भिक्ष -भिक्षुणियां' प्रकरण में। ४. अनुत्तरोववाइयदसा, प्रथम वर्ग, अध्ययन १० । ५. देखें, 'प्रमुख उपासक-उपासिकाएं' प्रकरण। ____ 2010_05 Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा ] अनुयायी राजा ३१५ तो एक कुशल रथिक; एक महावीर के पास दीक्षित होता है, तो एक बुद्ध के पास । अभयराजकुमार निगण्ठ-धर्म से बुद्ध धर्म में आता है । यदि अभय एक ही व्यक्ति होता, तो महावीर के पास उसके दीक्षित होने की चर्चा कैसे मिलती ? श्रेणिक बिम्बिसार के अनेकानेक राजकुमार थे । किन्हीं दो का नाम साम्य कोई आश्चर्य का विषय नहीं । वस्तुतः एक ही व्यक्ति के लिए दोनों परम्पराओं की ये सारी चर्चाएँ हों, तो यह स्पष्ट है कि जैन-दीक्षा का उल्लेख अनुत्तरोववाईयदसा आगम का है । यह मूलभूत ग्यारह अंगों में एक है। उसका रचना-काल विक्रम पूर्व दूसरी शताब्दी के पूर्व का ही है। बौद्ध-दीक्षा का उल्लेख अट्ठकथा तथा थेराअपदान का है। अट्ठकथा तो उत्तरकालिक है ही, अपदान भी पिटक - साहित्य में सबसे उत्तरवर्ती माना जाता है | 3 उद्रायण दोनों परम्पराओं में दीक्षित होने वालों में एक नाम राजा उद्रायन का भी है । बोद्धग्रन्थ अवदानकल्पलता के अनुसार इसका नाम उद्रायण तथा दिव्यावदान' के अनुसार रुद्रायण है । उत्तरवर्ती जैन साहित्य में भी इसका नाम 'उद्रायण' मिलता है । दोनों ही परम्पराओं के अनुसार यह सिन्धुसौवीर देश का स्वामी था। महावीर और बुद्ध के सम्पर्क में आने का वर्णन पृथक्-पृथक् प्रकार से मिलता है। राजधानी का नाम जैन मान्यता में बीतभय है और बौद्ध मान्यता में रोक है। धर्म-प्रेरणा दोनों 'परम्पराओं के अनुसार उसकी दिवंगत रानी स्वर्ग से आकर करती है । महावीर मगध से सिन्धुसौवीर जाकर उसे दीक्षित करते हैं, बुद्ध राजा के सिन्धुसौवीर से मगध आने पर उसे दीक्षित करते हैं । दोनों ही परम्पराओं के अनुसार दीक्षित होने के पश्चात् भिक्षु उदायन ( उद्रायण) अपनी राजधानी में जाते हैं और दुष्ट अमात्यों की प्रेरणा से राजा उनका वध करवा देता है । जैन मान्यता के अनुसार दीक्षा से पूर्व उद्रायण ने अपना राज्य अपने भानेज केशी को सौंपा था, इसलिए कि मेरा पुत्र अभीचकुमार राजा होकर नरकगामी न बने । बौद्ध मान्यता के अनुसार उसने अपना राज्य अपने पुत्र शिखण्डी को सौंपा था। दोनों ही परम्पराओं के अनुसार राजा केवली या अर्हत् होकर निर्वाण प्राप्त करता है और दैवी प्रकोप से नगर घुलिसात् हो जाता है । " १. पं० दलसुख मालवणिया, आगम-युग का जैन दर्शन पृ० २८ । २. थेरा अपदान, भद्दियवग्गो, अभयत्थेरअपदानं । ३. भिक्षु जगदीश काश्यप, खुद्दक निकाय, खण्ड ७, नालन्दा, Introduction, P. v. ४. अवदान, ४० । ५. वही, ३७ । ६. उद्दायण राया, तावसभत्तो - आवश्यकचूर्ण, पूर्वार्ध, पत्र ३६६ । ७. जैन विवरण के लिए देखें, 'भिक्षु संघ और उसका विस्तार' प्रकरण के अन्तर्गत 'उदायन' तथा बौद्ध विवरण के लिए देखें, दिव्यावदान, रूद्रायणावदान, ३७ । 2010_05 Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बागम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन खण्ड : रूद्रायणाववान प्रकरण पालि-साहित्य में नहीं है और न वह हीनयान-परम्परा के अन्य कथा-साहित्य में भी कहीं मिलता है। दिव्यावदान और अवदानकल्पता; ये दोनों ही ग्रन्थ महायान-परम्परा के हैं । महायानी त्रिपिटक मूलतः संस्कृत में ही हैं और वे उत्तरकालिक हैं ।' दिव्यावदान स्वयं में एक संकलन मात्र है और इसका रचना-काल ईस्वी २०० से ३५० तक का माना जाता है। ऐसी स्थिति में बहुत सम्मव है ही कि उद्रायन के जैन आख्यान को रूद्रायणावदान के रूप में परिवर्तित किया गया है। एक ही राजा महावीर और बुद्ध दोनों के पास दीक्षा ले और मोक्ष प्राप्त करे, यह सम्भव भी कैसे हो सकता है ? इस कथानक की कृत्रिमता इससे भी व्यक्त होती है कि राजा बिम्बिसार और उद्रायण कामैत्री-सम्बन्ध ठीक उसी प्रकार से कराया जाता है, जैसा कि जैन परम्परा में अभयकुमार और आर्द्रककुमार का कराया जाता है तथा बौद्ध परम्परा में बिम्बिसार और पक्कुसाति का कराया जाता हैं। इस अवदान से यह भी भलीभांति स्पष्ट हो जाता है कि महावीर और बुद्ध दोनों के पास एक ही व्यक्ति के दीक्षित होने के जो अन्य प्रकरण हैं, वे भी एक-दूसरी परम्परा में रूपान्तरित किये गये हो सकते हैं। ख्यातनामा व्यक्ति को अपने-अपने धर्म में समाहित करने का ढर्रा बहुत पहले से रहा है। यही तो कारण है कि राम वैदिक, बौद्ध व जैन ; सभी परम्पराओं के एक आदर्श पुरुष बन रहे हैं । सभी परम्पराओं ने अपने-अपने ढंग से उनकी जीवन-कथा गढ़ी है। उदायन का जैन आख्यान जैन आगम भगवती में मिलता है। उत्तरज्झयणाणि मे६ इसका संक्षिप्त उल्लेख है। इन प्राकृत ग्रन्थों के अतिरिक्त यह कथानक उत्तरवर्ती टीका व चूर्णि-साहित्य में भी चर्चित हुआ है। . जैन आगम उदायन के पुत्र अभीचकमार को भी निगण्ठ-उपासक मानते हैं। राज्य न देने के कारण पिता के प्रति उसके मन में द्रोह बना रहा ; अतः वह असुर-योनि में उत्पन्न हुआ। चण्ड-प्रद्योत युद्ध-प्रियता श्रेणिक बिम्बिसार और अजातशत्रु कूणिक के अतिरिक्त जिस राजा का नाम दोनों परम्पराओं में आता है, वह है-चण्ड-प्रद्योत । दोनों ही परम्पराओं के अनुसार वह राजा प्रारम्भ में बहुत चण्ड, युद्ध-प्रेमी, व्यसनी व अनीति-परायण था। दोनों ही परम्पराओं में उसके १. दिव्यावदान, सम्पा० पी०एल० वैद्य, प्रस्तावना। २. वही, पृ० १७। ३. देखें, 'गोशालक' प्रकरण के अन्तर्गत 'आर्द्रककुमार'। ४. देखें, इसी प्रकरण के अन्तर्गत 'श्रेणिक बिम्बिसार'। ५. शतक १३, उद्देशक ६। ६. अ० १८, गा०४८ । ७. भगवती सूत्र, शतक १३, उद्देशक ६ । ____ 2010_05 Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा] अनुयायी राजा ३१७ युद्धों के अनेक उल्लेख मिलते हैं । वत्स देश के राजा उदयन और चण्ड-प्रद्योत का युद्ध-विवरण दोनों परम्पराओं में बहुत कुछ समानता से मिलता है।' इस युद्ध का पुराण-साहित्य में भी समुल्लेख है। उसी घटना-प्रसंग पर महाकवि भास ने प्रसिद्ध नाटक स्वप्नवासवदत्ता लिखा है। __जैन परम्परा के अनुसार चण्ड प्रद्योत ने सिन्धुसौवीर के राजा उदायन के साथ, वत्स-नरेश शतानीक के साथ, मगध के राजा बिम्बिसार के साथ तथा पांचाल देश के राजा दुम्मह के साथ युद्ध किया। उदायन के साथ स्वर्ण-गुलिका दासी के लिए, शतानीक के साथ रानी मृगावती के लिए दुम्मह के साथ 'द्विमुख-अवभासक' मुकुट के लिए तथा श्रेणिक के साथ उसके बढ़ते हुए प्रभाव को न सह सकने के कारण उसने युद्ध किया। उक्त सारे ही घटनाप्रसंग रोचकता और अद्भुतता से भरे-पूरे हैं। ___ मज्झिम निकाय के अनुसार अजातशत्रु ने भी चण्ड-प्रद्योत के भय से राजगृह में किल्लाबन्दी की थी। उक्त अन्य युद्धों के उल्लेख बौद्ध-परम्परा में नहीं हैं। किस धर्म का अनुयायी? जैन धारणा के अनुसार चण्ड-प्रद्योत जैन धर्म की आराधना तो तब आरम्भ कर देता है, जब धर्मनिष्ठ श्रावक उदायन राजा के द्वारा बन्दी-अवस्था से मुक्त किया जाता है। इससे पूर्व तो वह यही कहता था- "मेरे माता-पिता श्रावक थे।" महावीर के समवसरण में शतनीक राजा की पत्नी मृगावती तथा चण्ड प्रद्योत की शिवा आदि ८ पत्नियाँ दीक्षित हुई तब स्वयं चण्ड-प्रद्योत भी वहाँ उपस्थित था। वही उसका महावीर से प्रथम साक्षात्कार था और उसी में उसने विधिवत जैन धर्म स्वीकार किया था।" बौद्ध मान्यता के अनुसार चण्ड-प्रद्योत को धर्म-बोध भिक्षु महाकात्यायन के द्वारा मिला । ये भिक्ष -जीवन से पूर्व चण्ड-प्रद्योत के राज-पुरोहित थे। चण्ड-प्रद्योत ने उन्हें बुद्ध को १. धम्मपद अट्ठकथा, २-१; त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र, पर्व १०, सर्ग ११, श्लोक १८४ २६५ । २. कथासरित्सागर, १२।१६।६। ३. त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र, पर्व १०, सर्ग ११,, श्लोक ४४५-५६७; उत्तराध्ययन सूत्र, अ० १८, नेमिचन्द्र कृत वृत्ति; भरतेश्वर-बाहुबली वृत्ति, भाग १, पत्र १७७-१। ४. त्रिषष्टिशालाकापुरुषचरित्र, पर्व १०. सर्ग ११, श्लोक १८४-२६५ । ५. वही, पर्व १०, सर्ग ११, श्लोक १७२-२६३ । ६. उत्तराध्ययन सूत्र, अ०६, नेमिचन्द्र कृत टीका ७. ३-१-८, गोपक भोग्गलान सुत्त। ८. ततः प्रद्योतनो राजा जैन धर्म शुद्धमारराध । -मरतेश्वर-बाहुबली-वृत्ति, भाग १, पत्र १७७ । ६. श्रावको पितरौ मम। ___ -त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र, १०११११५६७ । १०. भरतेश्वर-बाहुबली-वृत्ति, द्वितीय विभाग, प० ३२३ । ११. ततश्चण्डप्रद्योतो धर्ममङ्गीकृत्य स्वपुरम् ययौ । -वही, २-३२३। ___ 2010_05 Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [ खण्ड : १ आमंत्रित करने के लिए भेजा था। बुद्ध स्वयं नहीं आये। महाकात्यायन को दीक्षित कर उज्जनी भेज दिया। उस प्रसंग पर चण्ड-प्रद्योत बुद्ध का अनुयायी बना। बुद्ध से उसके साक्षास्कार का कोई घटना-प्रसंग बौद्ध-साहित्य में नहीं मिलता। दोनों ही परम्पराओं के आधारभूत ग्रन्थों में चण्ड-प्रद्योत के सम्बन्ध में धर्मानुयायी होने का कोई उल्लेख नहीं है। कथा-साहित्य में ही मुख्यतः सारा विवरण मिलता है । वह महावीर और बुद्ध का अनुयायी कैसे रहा, यह एक प्रश्न ही रह जाता है। हो सकता है, पहले वह एक का अनुयायी रहा हो, फिर दूसरे का। यह भी सम्भव है, दोनों ही परम्पराओं से रहे यत्किचित् सम्पर्क को भी बढ़ावा देकर कथाकारों ने अपना-अपना अनुयायी बना लिया हो। उदयन कौशाम्बी का राजा उदयन भी एक ऐतिहासिक व्यक्ति रहा है। जैन, बौद्ध और वैदिक, तीनों ही परम्पराओं में इसका जीवन-वृत्त यत्किचित् भेद-प्रभेद से मिलता है। इस राजा के पास हाथिओं की बहुत बड़ी सेना थी। वीणा बजाकर यह हाथिओं को पकड़ा करता था। आगमों में जैनागम भगवती में बताया गया है, "उस समय वहाँ राजा सहस्रानीक का पौत्र, शतानीक का पुत्र, वैशाली के राजा चेटक की पुत्री मृगावती देवी का आत्मज, श्रमणोपासिका जयन्ती का भतीजा, उदयन नामक राजा राज्य करता था। भगवान् महावीर कौशाम्बी में पधारे। यह संवाद पाकर राजा उदयन हृष्ट-तुष्ट हुआ। उसने कौटुम्बिक पुरुष को बुलाया और कूणिक की तरह सब आज्ञाएँ दीं। "कूणिक की तरह ही साजसज्जा से वह भगवान महावीर के समवसरण में गया। उसके साथ उसकी माता मृगावती तथा बूआ जयन्ती* गई। सब ने धर्म-देशना सुनी।" जैन आगम विपाक में उसकी रानी पद्मावती की दुराचार कथा का वर्णन है । गौतम महावीर से इस सम्बन्ध में अनेक प्रश्न करते हैं और महावीर विस्तार से उनका उत्तर देते हैं। विपाक सूत्र में भी इस राजा को हिमालय की तरह महान् और प्रतापी बताया गया है। जैन कथा-साहित्य में चण्ड-प्रद्योत के साथ होने वाले युद्ध तथा वासवदत्ता-सम्बन्धी वर्णन भी विस्तार से मिलता है । १. विशेष विस्तार के लिए देखें, 'भिक्षु-संघ और उसका विस्तार' प्रकरण के अन्तर्गत 'महाकात्यायन' ; तथा थेरगाथा-अट्ठकथा, भाग १, पृ० ४८३ । २. शतक १२, उद्देशक २। ३. विशेष विवरण के लिए देखें, इसी प्रकरण के अन्तर्गत 'अजातशत्रु कूणिक'। ४. विशेष विवरण के लिए देखें, 'भिक्षु-संघ और उसका विस्तार' प्रकरण के अन्तर्गत _ 'जयन्ती'। ५. श्रुतस्कन्ध १, अध्ययन ५। ____ 2010_05 Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परपरा] अनुयायी राजा ३१६ त्रिपिटकों में बौद्ध मान्यता के अनुसार उदयन प्रारम्भ में बुद्ध और उनके भिक्षु-संघ का विरोधी था। एक बार घोषक, कुक्कुट और पावारिय; इन तीन श्रेष्ठिओं ने बुद्ध को कौशाम्बी में आमंत्रित किया। बुद्ध का उपदेश सुनने के लिए श्यामावती रानी की परिचारिका खुज्जुत्तरा जाया करती थी। बुद्ध के उपदेशों का वह अनुवचन भी करने लगी। उसके सम्पर्क से रानी श्यामावती भी बुद्ध के प्रति श्रद्धाशील हो गई। जब बुद्ध राजप्रासाद के निकट से होकर जाते, तो गवाक्षों से वह उन्हें प्रणाम करती। उसकी सौत मागन्दिया रानी ने यह सब उदयन को बता दिया। उदयन बुद्ध और भिक्षु-संघ का विरोधी था। वह श्यामावती से अप्रसन्न हो गया। उसने उसके वध का भी प्रयत्न किया। दैवी घटना से वह बच गई। राजा का क्रोध शान्त हुआ । उसने श्यामावती के अनुरोध पर बौद्ध भिक्षुओं को राजप्रासाद में भोजन कराने की भी अनुज्ञा दी। भोजन के उपरान्त राजप्रासाद की महिलाएँ भिक्षुओं को वस्त्र-दान करतीं। उदयन ने इसका भी विरोध किया। आनन्द के समझाने पर उसने वस्त्र-दान की उपयोगिता मानी।। उदयन का बुद्ध से कभी साक्षात् हुआ, ऐसा उल्लेख नहीं मिलता। संयुत्त निकाय के अनुसार पिण्डोल भारद्वाज से उसने कौशाम्बी के घोषिताराम में मेंट की । 'तरुण लोग कैसे भिक्षु हो जाते हैं ?' इस विषय पर चर्चा की और अन्त में कहा-"मैं भगवान् की शरण जाता हूँ, धर्म की शरण जाता हूँ और भिक्षु-संघ की शरण जाता हूँ। भारद्वाज ! आज से आजन्म मुझे शरणागत उपासक स्वीकार करें।" समीक्षा उदयन-सम्बन्धी सभी जैन समुल्लेख श्लाघापरक ही हैं, जब कि प्रारम्भ के सभी बौद्ध समुल्लेख अश्लाघापरक हैं। एक बार उसने पिंडोल भारद्वाज पर लाल चीटियां भी छुड़वाईं, ऐसा भी वर्णन मिलता है। बुद्ध ने भी उस घटना-प्रसंग को सुनकर कहा-"यह उदयन इसी जीवन में नहीं, पिछले जीवन में भी भिक्षुओं के लिए कष्ट कारक रहा है।" इस स्थिति में यह तो निश्चित रूप से कहा ही जा सकता है कि उदयन पहले महावीर का अनुयायी रहा है। इस तथ्य के समर्थन में केवल इतना ही आधार नहीं है कि जैन परम्परा में इसका वर्णन श्लाघापरक है और बौद्ध परम्परा में अश्लाघापरक ; परन्तु, उसके जनक शतानीक, उसकी माता मृगावती तथा बूआ जयन्ती का जैन होना भी उदयन के जैन होने को पुष्ट करता है। बुद्ध के प्रति उदयन के मन में निरादर का भाव बना रहा, उसका एक निमित्त मागन्दिका रानी भी थी। वह अपनी कुमारावस्था से ही बुद्ध के प्रति कुपित थी। उसका १. ये तीनों श्रेष्ठी पहले इतर भिक्षुओ को मानते थे। फिर बौद्ध बने । अपने-अपने नाम से आराम बनाये । विशेष विवरण देखें, धम्मपद-अट्ठकथा, २.१ । २. धम्मपद अट्ठकथा, २-१ के आधार से ; तथा डॉ० नलिनाक्षदत्त, उत्तर प्रदेश में बौद्ध धर्म का विकास, पृ० ११४ । ३. ३४.३-३-४। ४. घटना का विस्तार एवं पूर्व-जन्म सम्बन्धी वृत्तान्त देखें, जातक अट्ठकथा, मातंग जातक सं०४६७। ____ 2010_05 Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२० आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड : १ पिता चाहता था, मेरी कन्या जितनी सुन्दर है, उतना ही सन्दर उसे पति मिले। इस आतुरता में उसने बुद्ध से मागन्दिका के साथ पाणि-ग्रहण करने की प्रार्थना कर दी। बुद्ध ने उसे बुरा माना और कहा-"तुम इस मल-मूत्र से भरी पुतली को सुन्दर कहते हो ? मैं इसे पैर से छूना भी पसन्द नहीं करता।"१ वह मागन्दिका उदयन को ब्याही गई, पर, अपने निरादर के कारण बुद्ध के प्रति उसके मन में सदा ही घृणा का भाव रहा। उदयन उसके प्रभाव में था ही ; अतः वह बुद्ध का अनुयायी कैसे हो पाता? शरणागत उपासक होने आदि के उल्लेखों से अवश्य यह प्रतीत होता है कि शनैः शनैः बुद्ध और बौद्ध संघ के प्रति रही उदयन की घृणा मिटती गई और वह उनके निकट होता गया। ___ महावीर के पश्चात् बुद्ध २५ वर्ष जीये, २ इस स्थिति में यह अधिक सम्भव है ही कि बौद्ध भिक्षु-संघ के बढ़ते हुए प्रभाव से उदयन प्रभावित हुआ और पिण्डोल भारद्वाज के सम्पर्क से बुद्ध का अनुयायी भी बना हो। इसके पुत्र बोधिराजकुमार का वर्णन केवल त्रिपिटक-साहित्य में ही मिलता है, और उसके जनक शतानीक आदि का वर्णन आगम साहित्य में मिलता है, तो यह भी उदयन के पहले जैन और फिर बौद्ध होने का एक ठोस आधार है। प्रसेनजित् बुद्ध का अनुयायी कोसल-राज प्रसेनजित् भी महावीर और बुद्ध के समसामयिक राजाओं में एक ऐतिहासिक राजा रहा है। वह पहले वैदिक धर्म का अनुयायी था। बड़े-बड़े यज्ञ-याग कराता था । संयुत्त निकाय के अनुसार उसने एक यज्ञ के लिए ५०० बैल, ५०० बछड़े, ५०० बछड़ियां ५०० बकरियां, ५०० भेड़ आदि एकत्रित किये थे। बुद्ध के उपदेश से उन सब का बिना वध किये ही यज्ञ का विसर्जन कर दिया। इस प्रकार अनेक बार के सम्पर्क से वह बुद्ध का दृढ़ अनुयायी बन गया। यह सुविदित है ही कि बुद्ध ने अपने अन्तिम २५ वर्षावास श्रावस्ती के ही जेतवन और पूर्वाराम विहार में बिताये थे। प्रसेनजित् का बुद्ध से सतत सम्पर्क बना रहना स्वाभाविक ही था। वह बुद्ध से अनेक छोटे-बड़े प्रश्न पूछता ही रहता था। संयुत्त निकाय में एक कोसलसंयुत्त पूरा प्रसेनजित् राजा के प्रश्नों का ही है। इसी प्रकरण का एक उल्लेखनीय संस्मरण है- "उस समय कोसल-राज प्रसेनजित् १. धम्मपद अट्ठकथा, २।१; तस्मादिमां मूत्रपुरीषपूणां स्प्रष्टुं हि यत्तामपि नोत्सहेयम् । -दिव्यावदान, ३६ । २. देखें, 'काल निर्णय' प्रकरण के अन्तर्गत 'महावीर और बुद्ध की समसायिकता'। ३. बोधिराजकुमार उसकी रानी वासवदत्ता का पुत्र था और बुद्ध का परम उपासक था। विशेष विवरण देखें, मज्झिम निकाय, बोधिराजकुमार सुत्त, २।४।५; मज्झिम निकाय-अट्ठकथा, २।४।५। ४. कोसल संयुत्त, यञ सुत्त, ३-१-६ । ५. धम्मपद-अट्ठकथा, ५-१; Buddhist Legends, vol. II, p. 104 ff. 2010_05 Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा ] अनुयायी राजा ३२१ द्रोण भर भोजन करता था । तब कोसल राज प्रसेनजित् भोजन कर, लम्बी-लम्बी सांस लेते, जहाँ भगवान् थे, वहाँ आया और भगवान् का अभिवादन कर एक ओर बैठ गया । तब, कोसल- राज प्रसेनजित् को भोजन कर लम्बी-लम्बी सांस लेते देखकर भगवान् के मुँह से उस समय यह गाथा निकल पड़ी - मनुजस सदा सतीमतो मत्तं जानतो लद्धभोजने । तनु तस्स भवन्ति वेदना सणिकं जीरति आयु पालयं ॥ सदा स्मृतिमान् रहने वाले, प्राप्त भोजन में मात्रा जानने वाले, उस मनुष्य की वेदनायें कम होती हैं, ( वह भोजन ) आयु को पालता हुआ धीरे-धीरे हजम होता है । उस समय सुदर्शन माणवक राजा तब राजा ने सुदर्शन माणवक को तुम यह गाथा सीख लो। मेरे भोजन करने के प्रतिदिन तुम्हें सौ कहा पण ( = कार्षापण ) मिला करेंगे । के पीछे खड़ा था । "महाराज ! बहुत अच्छा", कह, सुदर्शन माणवक ने राजा को उत्तर दे, भगवान् से... उस गाथा को सीख, राजा के भोजन करने के समय कहा करता— आमंत्रित किया— तात सुदर्शन ! भगवान् से समय यह गाथा पढ़ना । इसके लिए बराबर 2010_05 सदा स्मृतिमान् रहने वाले, प्राप्त भोजन में मात्रा जानने वाले, उस मनुष्य की वेदनायें कम होती हैं, ( वह भोजन ) आयु को पालता हुआ धीरे-धीरे हजम होता है । तब, राजा···क्रमशः नालि भर ही भोजन करने लगा । तब कुछ समय के बाद राजा का शरीर बड़ा सुडौल और गठीला हो गया । अपने गालों पर हाथ फेरते हुए राजा के मुँह से उस समय उदान के यह शब्द निकल पड़े १. सुत्त निकाय ३-२-३ । “अरे ! •••भगवान् ने दोनों तरह से मुझपर अनुकम्पा की है; इस लोक की बातों में और परलोक की बातों में भी । "" इसके अतिरिक्त त्रिपिटक - साहित्य में विविध स्थलों पर राजा प्रसेनजित् के विविध घटना-प्रसंग मिलते हैं, जिनमें से कुछ एक प्रस्तुत ग्रंथ में चर्चे किए जा चुके हैं । - उस युग का प्रसिद्ध डाकू अंगुलिमाल प्रसेनजित् के राजगुरु गग्ग का ही पुत्र था । अंगुलिमाल जब प्रव्रजित हो बुद्ध के पास बैठा था, तभी प्रसेनजित् ५०० अश्वारोहियों के साथ उसे खोजने जा रहा था। बुद्ध ने भिक्षु अंगुलिमाल का हाथ पकड़कर उसे प्रसेनजित् के Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [ खण्ड : १ सामने कर दिया । "यह अंगुलिमाल ! " इतना जानते ही राजा भयभीत हुआ, रोमांचित हुआ; स्तब्ध हुआ; उसके शरीर से स्वेद बह निकला। बुद्ध ने कहा- राजा ! डरो मत । अब इससे तुम्हें भय नहीं है ।" वस्तु-स्थिति समझ लेने के पश्चात् प्रसेनजित् ने इस अद्भुत सफलता के लिए बुद्ध की भूरि-भूरि प्रशंसा की । ' ३२२ बुद्ध में अनुरक्ति के कारण बुद्ध के द्वारा यह पूछे जाने पर, "राजन् ! मुझ में ही तुम इतने अनुरक्त क्यों रहते हो ?" प्रसेनजित् ने मुख्यतः दो उत्तर दिये १. "अनेक संन्यासियों को जानता हूँ जो २० से ४० वर्ष तक गृह त्यागी रहकर पुनः गृहस्थ जीवन में लौट आये और विषय भोग में पड़ गये । परन्तु किसी बौद्ध भिक्षु को ऐसा करते मैंने नहीं देखा । मैंने पिता, माता और पुत्र को तथा राजाओं और उनके सामन्तों को परस्पर लड़ते देखा है, परन्तु, बौद्ध भिक्षुओं को सदा शान्ति और मेल से रहते पाया है । मैंने ऐसे संन्यासियों को देखा है, जो रुग्ण होकर पीले पड़ गये हैं, परन्तु बौद्ध भिक्षुओं में किसी को ऐसा नहीं पाया। मैंने न्यायालयों में लोगों को अनर्गल प्रलाप करते हुए सुना है, किन्तु, जिस सभा में बुद्ध का प्रवचन होता है, उसमें मैंने कभी किसी को खाँसते हुए भी नहीं सुना । वहाँ कोई प्रश्न भी नहीं करता, जैसे कि मैंने अन्य धर्माचार्यों की सभा में लोगों को करते देखा है ।" २. " भगवान् भी क्षत्रिय हैं, मैं भी क्षत्रिय हूं, भगवान् भी कोसलक (= कोसलवासी, कोसल - गोत्रज) हैं, मैं भी कोसलक हूँ । भगवान् भी अस्सी वर्ष के, मैं भी अस्सी वर्ष का । इसलिए योग्य ही है, भगवान् का परम सम्मान करना, विचित्र गौरव प्रदर्शित करना । २ प्रसेनजित् की एक प्रमुख रानी मल्लिका थी। वह बुद्ध की परम भक्ता थी । बुद्ध की ओर राजा को प्रभावित करने में वह भी सदा प्रेरक रहती थी । अजातशत्रु को व्याही जाने वाली वजिरा उसकी ही कन्या थी । विडूडभ प्रसेनजित् ने बुद्ध से सामीप्य बढ़ाने के निमित्त शाक्यों से एक राज- कन्या माँगी । शाक्यों ने जाति में अपने से हीन मानकर कन्या देना न चाहा; 'पर वह बलवान् है' इस भय से महानाम शाक्य की दासी से उत्पन्न कन्या वासभ- खत्तिया का विवाह उसके साथ कर दिया । प्रसेनजित् को इसका पता न चले, इसलिए महानाम स्वयं दासी-सुता के साथ भोजन करने बैठा । भोजन का प्रथम ग्रास हाथ में लेते ही पूर्व योजना अनुसार सन्देश वाहक आया और महत्वपूर्ण सन्देश का बहाना बनाकर वह भोजन किये बिना बीच में ही उठ गया । प्रसेनजित् ने उसे क्षत्रिय - कन्या मान अग्रमहिषी बना दिया। इससे विडूडम कुमार का जन्म हुआ । वह बहुत शौर्यशाली था । अल्पावस्था में ही सेनापति बता दिया गया । वह १६ वर्ष की आयु में बड़े जन-समूह के साथ अपनी ननिहाल गया । शाक्यों ने उससे छोटी आयु वाले जितने १. मज्झिमनिकाय, अंगुलिमाल, सुत्तन्त, २।४।६ | २. मज्झिमनिकाय, २-२-६ । 2010_05 Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा] अनुयायी राजा ३२३ राजपुत्र थे, उन्हें नगर के बाहर भेज दिया । बड़े-बड़े उसके स्वागत में एकत्रित हुए। विडूडभ ने एक-एककर सबको प्रणाम किया, पर उसे प्रणाम करने वाला एक भी नहीं मिला। वह मन में सन्देहशील हुआ। वहां से उसके प्रस्थान करने पर उसके बैठने का काष्ठपीठ दूध और पानी से धुलवाया। उसके कर्मकर को इस बात का पता चला। उसने श्रावस्ती जाते विडूडभ को सारा वृत्तान्त बताया। वह यह जानकर कि 'मैं दासी का पुत्र हूं, इसलिए ही किसी शाक्य ने मुझे नमस्कार नहीं किया और मेरे आसन को दूध व पानी से धुलवाया, अत्यन्त क्रोधित हुआ और प्रतिज्ञा की-'शाक्यों का समूल नाश करूंगा।' प्रसेनजित् को जब यह पता चला कि वासभ-खत्तिया दासी कन्या है, उसने उसे और विडूडभ को दास-दासियों की श्रेणी में डाल दिया। बुद्ध ने उसे समझाया-"राजन् ! वासभ खत्तिया महानाम शाक्य से उत्पन्न हुई है, विडूडम तुमसे उत्पन्न हुआ है। इस स्थिति में मातृ-कुल का कोई महत्व नहीं रह जाता।" राजा ने उन दोनों को पुनः यथास्थान स्थापित किया। दीर्घकारायण प्रसेनजित् का सेनापति था। उसके मातुल को मरवाकर उसे सेनापति बनाया था । अन्तरंग में वह राजा का विद्रोही था। एक बार प्रसेनजित् बुद्ध के दर्शनार्थ गया। बुद्ध के निकट जाते मुकुट और तलवार दीर्घकारायण के हाथ में थमाए। वह उन्हें लेकर चुपचाप वहाँ से खिसका और विडूडभ से मिलकर उसे ही राजा बना दिया। धर्म-चर्चा के पश्चात् राजा को इस बात की अवगति हुई। वह अजातशत्रु से सहयोग पाने राजगृह आया। नगर के द्वार बन्द मिले। उसने नगर के बाहर धर्मशाला में रात काटने का विचार किया। राजा थका-माँदा था। धूप और लू से उत्पीड़ित था । रात को वहीं उसका प्राणान्त हो गया। प्रातः अजातशत्रु को इस बात का पता चला, तो उसने ससम्मान उसकी अन्त्येष्टि क्रिया की। विड्डम ने शाक्यों पर चढ़ाई की। शाक्य उसके पराक्रम से घबरा गये। किसी ने मंह में तृण लिया, किसी ने नल (जलवेत)। वे बच गये। शेष दुध-मुंहे बच्चों तक का उसने संहार किया और उनके रक्त से अपना काष्ठ-पीठ धुलवाया। कहा जाता है, इस संदर्भ में ७७००० शाक्य मारे गये। इतिहासकारों का अभिमत है कि इसी घटना-प्रसंग के साथ शाक्यगणतन्त्र का अन्त हुआ।२ । वहाँ से श्रावस्ती लौटते अचीरवती नदी में अकस्मात् बाढ़ आ जाने से वह और उसकी सारी सेना निधन को प्राप्त हुई ।' है सारिपुत्त को अनागत बुद्ध का उपदेश करते बुद्ध ने प्रसेनजित् के लिए चतुर्थ बुद्ध होने की घोषणा की। १. अवदानकल्पलता; Dictionary of Pali Proper Names, vol. II p. 877 foot note. २. हिन्दू सभ्यता, पृ० १६४; Buddhist India, p. 11. ३. धम्मपद-अट्ठकथा, ४-३ के आधार से। ४. अनागतवंश; Dictionary of Pali Proper Names, vol. II, p. 174. ____ 2010_05 Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२४ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड : १ जैन आगमों में इस प्रसेनजित् का नाम आगम-ग्रन्थों में कहीं भी नहीं मिलता। श्रावस्ती के राजा का नाम जितशत्रु आता है ।' महावीर से उसका साक्षात् हुआ, यह भी स्पष्ट नहीं है। महावीर के दो प्रमुख श्रावक श्रावस्ती के थे—नन्दिनीपिआ और साहिलीपिआ। उनके लिए आया है-जहा आणन्दे तहा निग्गए । इस 'तहा' (तथा) शब्द से जितशत्रु के भी वन्दनार्थ जाने का अर्थ निकाला जाता है, पर, वह बहुत ही दूरान्वयी लगता है। आगम-रचयिताओं ने वाणिज्य ग्राम, चम्पा, वाराणसी, आलम्भिया आदि अनेक नगरियों के राजा का नाम जितशत्रु माना है। लगता है, उस युग में 'जितशत्रु' एक ऐसा गुणवाचक शब्द था, जो किसी भी राजा के लिए प्रयुक्त किया जा सकता था। रायपसेणिय आगम में श्रावस्ती के राजा जितशत्रु का कुछ विस्तृत वर्णन आता है, पर, महावीर के साथ उसका कोई सम्बन्ध हो, ऐसा उल्लेख नहीं है। दीघ निकाय के अनुसार राजा प्रदेशी प्रसेनजित्त के अधीन था। रायपसेणिय आगम के अनुसार जितशत्रु प्रदेशी राजा का अन्तेवासी था। कौन किसके अधीन था, इस चर्चा में हम न भी जाएं, तो भी इतना निष्कर्ष तो इन उल्लेखों से निकल ही जाता है कि प्रसेनजित् को ही जैन परम्परा में जितशत्रु कहा गया है। यह भी बहुत सम्भव है कि वह बुद्ध का परम अनुयायी था, इसलिए ही आगम-रचयिताओं न उसके जीवन-सम्बन्धी घटनाओं का उल्लेख किया है और न उसके प्रसेनजित् नाम का ही; वर्णन-शैली के अनुसार जहाँ श्रावस्ती के राजा का नाम अपेक्षित हुआ, वहाँ से उसे उपेक्षा-भाव से 'जितशत्रु' कह दिया है। इसका तात्पर्य यह तो नहीं लेना चाहिए। अन्य जिन-जिन राजाओं को जितशत्रु कहा गया है, उन सबका भी यही निमित्त हो।। श्रावस्ती का राजा भले ही महावीर का अनुयायी न रहा हो, पर, इसमें सन्देह नहीं कि श्रावस्ती निर्ग्रन्थों का भी मुख्य केन्द्र थी। केशीकुमार और गौतम की चर्चा यहीं होती है। महावीर के साथ गोशालक का विवाद यहीं होता है । श्रावस्ती के उपासक महावीर के दर्शनार्थ समूह रूप में कयंगला गये, ऐसा भी उल्लेख है।४ चेटक जिस प्रकार प्रसेनजित् का उल्लेख आगम-ग्रंथों में नहीं मिलता, उस प्रकार राजा चेटक का उल्लेख त्रिपिटक ग्रंथों में नहीं मिलता। प्रसेनजित् की तरह वह भी उस युग का एक ऐतिहासिक व्यक्ति था। त्रिपिटक ग्रन्थों में उसका उल्लेख न होने का कारण भी यही हो सकता है कि वह भगवान् महावीर का परम उपासक था। जैन-परम्परा राजा चेटक को दृढ़धर्मी उपासक के रूप में मानती है। यह भी कहा जाता है कि सार्मिक राजा के अति. रिक्त अन्य राजा को अपनी कन्या न ब्याहने का उसका प्रण था; पर, आगम ग्रन्थों में तो १. उवासगदशाओ अ०६,१०रायपसेणिय सुत्तं । २. देखें, उवसगदसाओ के क्रमशः अ० १, २, ३, ५ इत्यादि । ३. दीघ निकाय, २।१०।। ४. भगवती, सूत्र शतक, २, उद्देशक १। ____ 2010_05 Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा अनुयायी राजा ३२५ चेटक के निर्ग्रन्थ उपासक होने का कहीं भी उल्लेख नहीं है । आवश्यक चूर्णि आदि उत्तर कालिक ग्रंथों में ही उसे श्रावक बताया गया है ।" साथ-साथ उसके निर्ग्रन्थ उपासक होने में जैन व जैनेतर परम्परा में कोई विरोधी प्रमाण नहीं मिलता । इस स्थिति में वह निर्विवाद रूप से ही जैन राजा माना जा सकता है । परिवार भगवान् महावीर की माता त्रिशला राजा का चेटक की सगी बहन थी । उसकी कन्याएं भी प्रख्यात राजाओं को ब्याही गईं थी और वे स्वयं भी बहुत प्रख्यात थीं । वे क्रमशः - प्रभावती वीतभय के राजा उदायन को, पद्मावती अंग देश के राजा दधिवाहन को, मृगावती इस देश के राजा शतानीक को, शिवा उज्जैन के राजा चन्ड प्रद्योत को, ज्येष्ठा महावीर के भ्राता नन्दीवर्धन को और चेलना मगध के राजा बिम्बिसार को ब्याही थीं। एक कन्या सुज्येष्ठा महावीर के पास प्रव्रजित हो गई । वैशाली - गणतन्त्र चेटक का राज्य वैशाली - गणतन्त्र के नाम से प्रसिद्ध था । उस समय छोटे-बड़े अनेक गणतंत्र राज्य थे । ये 'संघ राज्य' या 'संघ' भी कहलाते थे । जातक अट्ठ कथा के अनुसार वैशाली-गणतन्त्र के ७७०७ सदस्य थे । वे सब राजा कहलाते थे । महावीर के पिता राजा सिद्धार्थ भी इनमें से एक थे; ऐसा माना गया है। पाणिनी के अनुसार इन राजाओं का अभिषेक होता था और वे अपने-अपने क्षेत्र के अधिपति होते थे । अभिषिक्त राजाओं की प्रचलित संज्ञा 'राजन्य' थी । ललित विस्तर में बताया गया है कि लिच्छवी परस्पर एक-दूसरे को छोटा या बड़ा नहीं मानते थे । सभी समझते - अहं राजा, अहं राजा । प्रत्येक राजा के अपने-अपने उपराजा, सेनापति, माण्डारिक आदि होते । वैशाली में इनके पृथक्-पृथक प्रासाद, आराम आदि थे । ७७०७ राजाओं की शासन - सभा 'संघ सभा' कहलाती थी और इनका गणतन्त्र ' वज्जी - संघ' या 'लिच्छत्री - संघ' कहलाता था । गणतंत्र में नौ-नौ लिच्छवियों की दो उपसमितियाँ थीं। एक न्याय -कार्य को संभालती थी और एक परराष्ट्र कार्य को । इस दूसरी समिति ने ही मल्लकी, लिच्छवी और काशीकोशल के गणराजाओं का संगठन बनाया था, जिसके अध्यक्ष महाराज चेटक थे 1 १. (क) सो चेडवो सावओ । — आवश्यक चूर्णि, उत्तरार्ध, पत्र १६४ । (ख) चेटकस्तु श्रावको । - त्रिषष्टिशलाका पुरुषचरित्र, १०-६-१८८ । २. हिन्दू सभ्यता, पृ० १६३ । ३. भाग १, पृ० ३३६; (भारतीय ज्ञानपीठ, काशी) । ४. तीर्थंकर महावीर, भा० १, पृ० १६ । ५. पाणिनि व्याकरण, ६।२।३४ । ६. ३।२३ । 2010_05 Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२६ आगम और त्रिपिटक: एक अनशीलन [खण्ड : १ जितशत्रु, सिंह और चेटक ___डॉ० हर्नले ने अपने उवासगदसाओ आगम के अनुवाद में वाणिज्य ग्राम के राजा जितशत्रु और चेटक को एक ही बता दिया है, पर यह यथार्थ नहीं है। वैशाली-गणतन्त्र में जब ७७०७ पृथक्-पृथक् राजा थे, तब उन दोनों को एक मानने का कोई कारण नहीं रह जाता। डॉ० ओटो स्टीन ने भी इस विषय को अनेक प्रकार से स्पष्ट किया है।' कुछ लोग कल्पना करते हैं कि बौद्ध-परम्परा में उल्लिखित सिंह सेनापति और जनपरम्परा में उल्लिखित राजा चेटक एक ही व्यक्ति थे। इस धारणा का आधार संभवतः यह हो सकता है कि तिब्बती परम्परा के अनुसार राजा बिम्बिसार की रानी वासवी की सेनापति की पुत्री थी और वही अजातशत्रु की माता थी। पर, इस बात की पुष्टि तिब्बती परम्परा के अतिरिक्त और कहीं से नहीं होती। बिम्बिसार का श्वसुर और अजातशत्रु का नाना सिंह सेनापति होता, तो त्रिपिटक-साहित्य में अवश्य इस सम्बन्ध का उल्लेख मिलता; अतः तिब्बती अनुश्रुति का एक उत्तरकालिक दन्तकथा से अधिक कोई महत्त्व नहीं ठहरता। इसके अतिरिक्त बौद्ध साहित्य में सिंह को सर्वत्र 'सेनापति' कहा है, जबकि चेटक वैशालीगणराज्य का राजा था। यह भी सम्भव नहीं है कि राजा को ही सेनापति कह दिया हो; क्योंकि तत्कालीन व्यवस्था में राजा और सेनापति का स्थान सर्वथा पृथक-पृथक् बताया गया है। डॉ. ज्योति प्रसाद जैन का कहना है-"महाराजा चेटक के दस पुत्र थे, जिनमें से ज्येष्ठ पुत्र सिंह अथवा सिंहभद्र वज्जिगण के प्रसिद्ध सेनापति थे।"५ जीवन-परिचय राजा चेटक के जीवन का अधिकतम परिचय जैन-आगम निरयावलिया और भगवती में मिलता है, जो 'अजातशत्रु कूणिक' प्रकरण के अंतर्गत लिखा ही जा चुका है। अन्य राजा उक्त राजाओं के अतिरिक्त अनेक राजाओं का उल्लेख दोनों ही परम्पराओं में आता है। उनमें से कुछ-एक राजाओं का वर्णन 'भिक्षु-संघ और उसका विस्तार' प्रकरण में लिखा १. Jinist Studies, Ed by Muni Jina vijayji, Pub. by Jain Sahitya Sansodhka Studies, Ahmedabad, 1948. २. उदाहरणार्थ देखें, जयभिक्खु लिखित गुजराती उपन्यास, नरकेसरी, पृ० २३४ टिप्पणी। ३. Rokhill, Life of Buddha p. 63. तथा देखें, इसी प्रकरण के अन्तर्गत 'अजात___ शत्रु कूणिक।' ४. उदाहरणार्थ देखें, 'त्रिपिटकों में निगंठ व निगंठ नातपुत्त' प्रकरण के अंतर्गत 'सिंह सेनापति' का प्रसंग। ५. भारतीय इतिहास : एक दृष्टि, पृ० ५६ । 2010_05 Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा अनुयायी राजा जा चुका है और कुछ-एक का अन्य प्रकरणों में प्रसंगोपात्त वर्णन किया जा चुका है। ये सब राजा ऐसे हैं, जो असंदिग्ध रूप से महावीर या बुद्ध के अनुयायी हैं। क्योंकि उनका वर्णन अपनी-अपनी परम्परा में ही मिलता है । अन्य भी अनेक राजा दोनों परम्पराओं में उल्लिखित हैं; पर, तुलनात्मक अध्ययन की दृष्टि से उनका विशेष महत्त्व नहीं है; अत: यहां उनका उल्लेख अनपेक्षित है। चार प्रत्येक बुद्ध राजाओं का वर्णन दोनों परम्पराओं में मिलता है। उनका विवरण व विवेचन यथा-प्रसंग किया जाना है। 2010_05 Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५ महावीर का परिनिर्वाण पावा में और बुद्ध का परिनिर्वाण कुशीनारा में हुआ। दोनों क्षेत्रों की दूरी के विषय में दीघ निकाय - अट्ठकथा ( सुमंगलविलासिनी ) बताती है - पावानगरतो तो गावतानि कुसिनारानगरं अर्थात् पावानगर से तीन गव्यूत ( तीन कोस) कुसिनारा था । बुद्ध पावा से मध्याह्न में बिहार कर सायंकाल कुसिनारा पहुँचते हैं । वे रुग्ण थे, असक्त थे; विश्राम ले लेकर वहाँ पहुँचे। इससे भी प्रतीत होता है कि पावा से कुशीनारा बहुत ही निकट था । कपिलवस्तु ( लुम्बिनी) और वैशाली (क्षत्रिय - कुण्डपुर ) के बीच २५० मील की दूरी मानी जाती है ।' जन्म की २५० मील की क्षेत्रीय दूरी निर्वाण में केवल ६ ही मील की रह गई । कहना चाहिए, साधना से जो निकट थे, वे क्षेत्र से भी निकट हो गये । परिनिर्वाण दोनों की ही अन्त्येष्टि-क्रिया मल्ल-क्षत्रियों द्वारा सम्पन्न होती है । महावीर के निर्वाण प्रसंग पर नौ मल्लकी, नौ लिच्छवी; अठारह काशी - कौशल के गणराजा पौषध-व्रत में होते हैं और प्रातःकाल अन्त्येष्टि-क्रिया में लग जाते हैं । बुद्ध के निर्वाण-प्रसंग पर आनन्द कुशीनारा में जाकर संस्थागार में एकत्रित मल्लों को निर्वाण की सूचना देते हैं । आनन्द ने बुद्ध के निर्वाण के लिए कुशीनारा को उपयुक्त भी नहीं समझा था; इससे प्रतीत होता है कि मल्ल बुद्ध की अपेक्षा महावीर के अधिक निकट रहे हों । इन्द्र व देव-गण दोनों ही प्रसंगों पर प्रमुखता से भाग लेते हैं । महावीर की चिता को अग्निकुमार देवता प्रज्वलित करते हैं और मेघकुमार देवता उसे शान्त करते हैं । बुद्ध की चिता को भी मेघकुमार देवता शान्त करते हैं। दोनों के ही दाढ़ा आदि अवशेष ऊर्ध्वलोक और पाताल लोक के इन्द्र ले जाते हैं। दोनों ही प्रसंगों पर इन्द्र व देवता शोकातुर होते हैं । इतना अन्तर अवश्य है कि महावीर की अन्त्येष्टि में देवता ही प्रमुख होते हैं, मनुष्य गौण । बुद्ध की अन्त्येष्टि में दीखते रूप में सब कुछ मनुष्य ही करते हैं, देवता अदृष्ट रह कर योगभूत होते हैं; देवता क्या चाहते हैं, कैसा चाहते हैं, यह अर्हत् भिक्षु मल्लों को बताते रहते हैं । देवताओं के सम्बन्ध में बौद्धों की उक्ति परिष्कारक लगती है । 2010_05 १. राहुल सांकृत्यायन, सूत्रकृतांग सूत्र की भूमिका, पृ० १; प्र० सूत्रागम प्रकाशन समिति, गुड़गांव, १६६१ । Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा परिनिर्वाण ३२९ अन्तिम वर्ष का विहार दोनों का ही राजगृह से होता है। महावीर पावा वर्षावास करते हैं और कार्तिक अमावस्या की शेष रात में वहीं निर्वाण प्राप्त करते हैं। पावा और राजगृह के बीच का कोई घटनात्मक विवरण नहीं मिलता और न कोई महावीर की रुग्णता का ही उल्लेख मिलता है। बद्ध का राजगह से कशीनारा तक का विवरण विस्तत रूप से मिलता है। उनका शरीरान्त भी सुकरमद्दव से उद्भूत व्याधि से होता है। उनकी निर्वाण-तिथि वैशाखी पूर्णिमा मुख्यतः मानी गई है; पर, सर्वास्तिवाद-परम्परा के अनुसार तो उनकी निर्वाण-तिथि कार्तिक पूर्णिमा है।' निर्वाण से पूर्व दोनों ही विशेष प्रवचन करते हैं। महावीर का प्रवचन दीर्घकालिक होता है और बुद्ध का स्वल्प-कालिक । प्रश्नोत्तर-चर्चा दोनों की विस्तृत होती है। अनेक प्रश्न शिष्यों द्वारा पूछे जाते हैं और दोनों द्वारा यथोचित उत्तर दिये जाते हैं। दोनों ही परम्पराओं के कुछ प्रश्न ऐसे लगते हैं कि वे मौलिक न होकर पीछे से जुड़े हुए हैं। लगता है, जिन बातों को मान्यता देनी थी, वे बातें महावीर और बुद्ध के मुंह से कहलाई गईं। अन्तिम रात में दोनों ही क्रमशः राजा हस्तिपाल और सुभद्र परिव्राजक को दीक्षा प्रदान करते हैं। निर्वाण-गमन जानकर महावीर के अन्तेवासी गणधर गौतम मोहगत होते हैं और रुदन करते हैं-बुद्ध के उपस्थापक आनन्द मोहगत होते हैं और रुदन करते हैं। गौतम इस मोहप्रसंग के अनन्तर ही केवली हो जाते हैं; आनन्द कुछ काल पश्चात् अर्हत् हो जाते हैं। ___ आयुष्य-बल के विषय में महावीर और बुद्ध; दोनों सर्वथा पृथक् बात कहते हैं। महावीर कहते हैं- "आयुष्य-बल बढ़ाया जा सके, न कभी ऐसा हुआ है और न कभी ऐसा हो सकेगा।" बुद्ध कहते हैं-"तथागत चाहें तो कल्पभर जी सकते हैं।" ___महावीर का निर्वाण-प्रसंग मूलतः कप्पसुत में उपलब्ध होता है । कप्पसुत से ही वह टीका, चूणि व चरित्र-ग्रन्थों में पल्लवित होता रहा है। कप्पसुत्त महावीर के सप्तम पट्टधर आचार्य भद्रबाहु द्वारा संकलित माना जाता है । वैसे कप्पसुत्त में देवद्धि क्षमाश्रमण तक कुछ संयोजन होता रहा है, ऐसा प्रतीत होता है। देवद्धि क्षमाश्रमण का समय ईस्वी सन् ४५३ माना गया है; पर, इसमें तनिक भी सन्देह नहीं कि महावीर का निर्वाण-प्रसंग उस सूत्र का मूलभूत अंग ही है । भद्रबाहु का समय ईसा पूर्व ३७१-३५७ का माना गया है। बुद्ध की निर्वाण-चर्चा दीघ निकाय के महापरिनिध्वानसुत्त में मिलती है । महापरिनिव्वानसुत्त में निर्वाण-प्रसंग के अतिरिक्त अन्य भी बहुत सारी चर्चाएँ हैं, जो अन्य त्रिपिटक ग्रन्यों में यत्र-तत्र मिलती हैं । इससे ऐसा लगता है कि यह भी संगृहीत प्रकरण है। 'दीघ निकाय मूल त्रिपिटक-साहित्य का अंग है, पर, महापरिनिव्यानसुत्त के विषय में ह्रीस डेविड्स, ई० जे. थॉमस और विटरनिट्ज का भी अभिमत है कि वह कुछ काल पश्चात् संयोजित हुआ १. E. J. Thomas, Life of Buddha, p. 158. २. Rhys Davids, Dialogues of Buddha, Vol. II, p. 72. 3. E. J. Thomes, Life of Buddha, p. 156. ४. History of Indian Literature, Vol. II, p. 38-42. ___ 2010_05 Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड : १ है। इसका अर्थ यह भी नहीं कि महापरिनिव्वानसत्त बहुत अर्वाचीन है। दोनों प्रकरणों की भाव, भाषा और शैली से भी उनकी काल-विषयक निकटता व्यक्त होती है। आलंकारिकता और अतिशयोक्तिवाद भी दोनों में बहुत कुछ समान है। महावीर का निर्वाण-प्रसंग बहुत संक्षिप्त व कहीं-कहीं अक्रमिक-सा प्रतीत होता है। कुछ घटनाएँ काल-क्रम की शृखला में जुड़ी हुई-सी प्रतीत नहीं होती। बहुत सारी घटनाएँ केवल यह कह कर बता दी गई हैं---"उस रात को ऐसा हुआ।" बुध का निर्वाण-प्रसंग अपेक्षाकृत अधिक सुयोजित लगता है। वह विस्तृत भी है। प्रस्तुत प्रकरण में महावीर और बुद्ध; दोनों के निर्वाण-प्रसंग क्रमशः दिये जाते हैं। मूल प्रकरणों को संक्षिप्त तो मुझे करना ही पड़ा है। साथ-साथ यह भी ध्यान रखा गया है कि प्रकरण अधिक से अधिक मूलानुरूपी रहे। महावीर के निर्वाण-प्रसंग में कप्पसुत्त के अतिरिक्त भगवती, जम्बूदीवपण्णत्ती, सौभाग्यपंचम्यादि पूर्व कथा संग्रह, महावीर चरियं आदि ग्रन्थों का भी आधार लेना पड़ा है। बुद्ध के निर्वाण-प्रसंग में महापरिनिवाण सुत्त ही मूलभूत आधार रहा है । महत्त्वपूर्ण उक्तियों के मूल पाठ भी दोनों प्रसंगों के टिप्पणी में दे दिये गये हैं। महावीर अन्तिम वर्षावास . राजगृह से विहार कर महावीर अपापा (पावापुरी') आये । समवसरण लगा। भगवान् ने अपनी देशना में बताया "तीर्थङ्करों की वर्तमानता में यह भारतवर्ष धन-धान्य से परिपूर्ण, गांवों और नगरों से व्याप्त स्वर्ग-सदृश होता है । उस समय गांव नगर जैसे, नगर देवलोक जैसे, कौटुम्बिक राजा जैसे और राजा कुबेर जैसे समृद्ध होते हैं। उस समय आचार्य इन्द्र समान, माता-पिता देव समान, सास माता समान और श्वसुर पिता समान होते हैं । जनता धर्माधर्म के विवेक से युक्त, विनीत, सत्य-सम्पन्न, देव और गुरु के प्रति समर्पित और सदाचार-युक्त होती है। विज्ञजनों का आदर होता है। कुल, शील तथा विद्या का अंकन होता है। ईति, उपद्रव आदि नहीं होते । राजा जिन-धर्मी होते हैं। "अब जब तीर्थङ्कर, चक्रवर्ती, वासुदेव आदि अतीत हो जायेंगे, कैवल्य और मनःपर्यव ज्ञान का भी विलोप हो जायेगा, तब भारतवर्ष की स्थिति क्रमशः प्रतिकूल ही होती जायेगी। मनुष्य में क्रोध आदि बढ़ेंगे; विवेक घटेगा; मर्यादाएँ छिन्न-भिन्न होंगी; स्वैराचार बढ़ेगा; धर्म घटेगा; अधर्म बढेगा। गाँव श्मशान जैसे, नगर प्रेत-लोक जैसे, सज्जन दास जैसे १. यह कौन-सी पावा थी, कहाँ थी, आदि वर्णन के लिए देखें, 'काल-निर्णय' प्रकरण के अन्तर्गत, 'महावीर का निर्वाण किस पावा में ?' ___ 2010_05 Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा] परिनिर्वाण ३३१ व दुर्जन राजा जैसे होने लगेंगे। मत्स्य-न्याय से सबल दुर्बल को सताता रहेगा। भारतवर्ष बिना पतवार को नाव के समान डांवाडोल स्थिति में होगा। चोर अधिक चोरी करेंगे, राजा अधिक कर लेगा व न्यायाधीश अधिक रिश्वत लेंगे। मनुष्य धन-धान्य में अधिक आसक्त होगा। "गुरुकुलवास की मर्यादा मिट जायेगी। गुरु शिष्य को शास्त्र-ज्ञान नहीं देंगे। शिष्य गुरुजनों की सेवा नहीं करेंगे । पृथ्वी पर क्षुद्र जीव-जन्तुओं का विस्तार होगा। देवता पृथ्वी से अगोचर होते जायेंगे । पुत्र माता-पिता की सेवा नहीं करेंगे; कुल वधुएँ आचार-हीन होंगी। दान, शील, तप और भावना की हानि होगी। भिक्षु-भिक्षुणियों में पारस्परिक कलह होंगे। झूठे तौल-माप का प्रचलन होगा। मंत्र, तंत्र, औषधि, मणि, पुष्प, फल, रस, रूप, आयुष्य, ऋद्धि, आकृति, ऊँचाई; इन सब उत्तम बातों में ह्रास होगा। "आगे चल कर दुःषम-दुषमा नामक छठे आरे में तो इन सब को अत्यन्त हानि होगी। पंचम दुःषमा आरे के अन्त में दुःप्रसह नामक आचार्य होंगे, फल्गुश्री साध्वी होगी, नागिल श्रावक होगा, सत्यश्री श्राविका होगी। इन चार मनुष्यों का ही चतुर्विध संघ होगा। विमिलवाहन और सुमक नामक क्रमशः राजा और मंत्री होंगे। उस समय मनुष्य का शरीर दो हाथ परिमाण और आयुष्य बीस वर्ष का होगा। उस पंचम आरे के अन्तिम दिन प्रातः काल चारित्रधर्म, मध्याह्न में राज-धर्म और अपराह्न में अग्नि का विच्छेद होगा। २१००० वर्ष के पंचम दुःषम आरे के व्यतीत होने पर इतने ही वर्षों का छठा दुःषम दुःषमा आरा आयेगा। धर्म, समाज, राज-व्यवस्था आदि समाप्त हो जायेंगे। पिता-पुत्र के व्यवहार भी लुप्त-प्रायः होंगे। इस काल के आरम्भ में प्रचण्ड वायु चलेगी तथा प्रलयंकारी मेघ' बरसेंगे। इससे मानव और पशु बीज-मात्र ही शेष रह जायेंगे । वे गंगा और सिंधु' के तट-विवरों में निवास करेंगे। मांस और मछलियों के आधार पर वे अपना जीवन-निर्वाह करेंगे। "इस छठे आरे के पश्चात् उत्सर्पिणी काल-चक्रार्घ का प्रथम आरा आयेगा । यह ठीक वैसा ही होगा, जैसा अवसर्पिणी काल-चक्रार्घ का छठा आरा था। इसका दूसरा आरा उसके पंचम आरे के समान होगा। इसमें शुभ का प्रारम्भ होगा। इसके आरम्भ में पुष्कर संवर्तक. मेघ बरसेगा, जिससे भूमि की ऊष्मा दूर होगी। फिर क्षीर-मेघ बरसेगा, जिससे धान्य का तद्भव होगा। तीसरा घृत-मेघ बरसेगा, जो पदार्थों में स्निग्धता पैदा करेगा। चौथा अमतमेघ बरसेगा, इससे नाना गुणोपेत औषधियां उत्पन्न होंगी। पाँचवाँ रस-मेघ बरसेगा, १. भगवती सूत्र, शतक ७, उद्देशक ६ में इन मेघों को अरसमेघ, विरसमेघ, क्षारमेघ, खट्टमेघ, ___ अग्निमेघ, विज्जुमेष, विषमेघ, अशनिमेघ आदि नामों से बताया है। २. उस समय गंगा और सिंधु का प्रवाह रथ-मार्ग जितना ही विस्तृत रह जायेगा। -भगवती सूत्र, शतक ७, उद्देश०६। 2010_05 Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड : जिससे पृथ्वी में सरसता बढ़ेगी। ये पाँचों ही मेघ सात-सात दिन तक निरन्तर बरसने वाले होंगे। "वातावरण फिर अनुकूल बनेगा। मनुष्य उन तट-विवरों से निकल कर मैदानों में बसने लगेंगे। क्रमशः उनमें रूप, बुद्धि, आयुष्य आदि की वृद्धि होगी। दुःषम-सुषमा नामक तृतीय आरे में ग्राम, नगर आदि की रचना होगी। एक-एक कर तीर्थङ्कर होने लगेंगे। इस उत्सर्पिणी-काल के चौथे आरे में योगलिक-धर्म का उदय हो जायेगा। मनुष्य युगल रूप में पैदा होंगे, युगल रूप में मरेंगे। उनके बड़े-बड़े शरीर और बड़े-बड़े आयुष्य होंगे। कल्पवृक्ष उनकी आशापूर्ति करेंगे। आयुष्य और अवगाहना से बढ़ता हुआ पाँचवाँ और छठा आरा आयेगा । इस प्रकार यह उत्सर्पिणी-काल समाप्त होगा। एक अवसर्पिणी और एक उत्सर्पिणी काल का एक काल-चक्र होगा। ऐसे काल-चक्र अतीत में होते रहे हैं और अनागत में होते रहेंगे। जो मनष्य धर्म की वास्तविक आराधना करते हैं, वे इस काल-चक्र को तोड़ कर मोक्ष प्राप्त करते हैं, आत्म-स्वरूप में लीन होते हैं।"२ भगवान् महावीर ने अपना यह अन्तिम वर्षावास भी पावापुरी में ही किया। वहीं हस्तिपाल नामक राजा था। उसकी रज्जुक सभा' (लेखशाला) में वे स्थिरवास से रहे। कार्तिक अमावस्या का दिन निकट आया। अन्तिम देशना के लिए अन्तिम समवसरण की रचना हुई। शक ने खड़े होकर भगवान् की स्तुति की। तदनन्तर राजा हस्तिपाल ने खड़े होकर स्तुति की। अन्तिम देशना व निर्वाण भगवान् ने अपनी अन्तिम देशना प्रारम्भ की। उस देशना में ५५ अध्ययन पुण्य-फल विपाक के और ५५ अध्ययन पाप-फल विपाक के कहे; वर्तमान में जो सुख-विपाक और दुःखविपाक नाम से आगम रूप हैं। ३६ अध्ययन अपृष्ट व्याकरण के कहे५, जो वर्तमान में १. क्रमश: दो मेघों के बाद सात दिनों का 'उघाड़' होगा। इस प्रकार तीसरे और चौथे मेघ के पश्चात् फिर सात दिनों का 'उघाड़' होगा। कुल मिला कर पांचों मेघों का यह ४६ दिनों का क्रम होगा। -जम्बूदीवपण्णती सुत्त, वक्ष २, काल अधिकार। २. नेमिचन्द्र सूरि कृत महावीर चरियं के आधार से । ३. इसका अर्थ शुल्क-शाला भी किया जाता है। ४. समवायांग सूत्र, सम० ५५; कल्पसूत्र, सू० १४७ । ५. कल्पसूत्र, सू० १४७; उत्तराध्ययन चूर्णि, पत्र २८३। उत्तराध्ययन के अन्तिम अध्ययन की अन्तिम गाथा भी इस बात को स्पष्ट करती है __इइ पाउकरे बुद्धे, नायए परिनिव्वुए। छत्तीसं उत्तरज्झाए, भवसिद्धीयसम्मए। यह विशेष उल्लेखनीय है कि यहाँ महावीर को 'बुद्ध' भी कहा गया है। ____ 2010_05 Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा ] परिनिर्वाण उत्तराध्ययन आगम कहा जाता है। प्रधान नामक मरुदेवी माता का अध्ययन कहते-कहते भगवान् पर्यङ्कासन ( पद्मासन) में स्थिर हुए।' तब भगवान् ने क्रमशः बादर काय योग में स्थित रह, बादर मनो-योग और वचन - योग को रोका। सूक्ष्म काय योग में स्थित रह बादर काय योग को रोका; वाणी और मन के सूक्ष्म योग को रोका। इस प्रकार शुक्ल ध्यान का 'सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति' नामक तृतीय चरण प्राप्त किया । तदनन्तर सूक्ष्म काय-योग को रोक कर 'समुच्छिन्न क्रियाऽनिवृत्ति' नामक शुक्ल ध्यान का चतुर्थ चरण प्राप्त किया। फिर अ, इ, उ, ऋ, लृ के उच्चारण-काल जितनी शैलेशी अवस्था को पार कर और चतुविधि अघाती कर्म-दल का क्षय कर भगवान् महावीर सिद्ध, बुद्ध, मुक्त अवस्था को प्राप्त हुए । वह वर्षा ऋतु का चतुर्थ मास था, कृष्ण पक्ष था, पन्द्रहवाँ दिवस था, पक्ष की चरम रात्र अमावस्या थी । एक युग के पाँच संवत्सर होते हैं, 'चन्द्र' नामक वह दूसरा संवत्सर था। एक वर्ष के बारह मास होते हैं, उनमें वह 'प्रीतिवर्द्धन' नाम का चौथा मास था । एक मास में दो पक्ष होते हैं, वह 'नन्दीवर्धन' नाम का पक्ष था । एक पक्ष में पन्द्रह दिन होते हैं, उनमें 'अग्निवेश्य' नामक वह पन्द्रहवां दिन था, जो 'उपशम' नाम से भी कहा जाता है । पक्ष में पन्द्रह रातें होती हैं, वह 'देवानन्दा' नामक पन्द्रहवीं रात थी, जो 'निरति' नाम से भी कही जाती है। उस समय अर्च नाम का लव था, मुहूर्त्त नाम का प्राण था, सिद्ध नाम का स्तोक था, नाग नाम का करण था । एक अहोरात्र में तीस मुहुर्त होते हैं, वह सर्वार्थसिद्ध नामक उन्नतीसवाँ मुहूर्त्त था । उस समय स्वाति नक्षत्र के साथ चन्द्र का योग था । - १. संपलियंक निसणे – सम्यक् पद्मासनेनोपविष्टः । - कल्पसूत्र, कल्पार्थबोधिनी, पत्र १२३ । २. तेणं कालेणं तेणं समए णं.. बावर्त्तारं वासाई सव्वाउयं पाल इत्ता, खीणे वेयणिज्जाउयनामगोत्ते, इमीसे ओसप्पिणीए दूसमसुसमाए समाए बहुवी इक्कंताए, तिहि वासेहिं अद्धनवमेहिय मासेहिं सेसएहि पावाए मज्झिमाए हत्थिपालगस्स रज्जो रज्जुयगसभाए एगे अबीए छट्ठे भत्तेणं अपाणएणं, साइणा नक्ख तेणं जोगमुवागएणं पच्चूसकालसमयं सि, संपलिक निसन्ने, पणपन्नं अज्झयणाई कल्लाणफलविवागाइं पणपन्नं अज्झयणाइं पावफलविवागाइं छत्तीसं च अपुट्ठ-वागरणाई वागरित्ता पधाणं नाम अज्झयणं विभावेमाणे विभावेमाणे कालगए वितिक्कंते समुज्जाए छिन्न- जाइ-जरा-मरण-बंघणे सिद्धे बुद्धे मुते अंतकडे परिनिव्वुडे सन्वदुक्खप्पहीणे । ३. ७ प्राण = १ स्तोक ७ स्तोक = १ लव ७७ लव = १ मुहूर्त्त । ५. संवत्सर, मास, पक्ष, दिन, रात्रि, मुहूर्त्त इनके कल्पार्थबोधिनी, पत्र ११३ । टीकाकार ने इन अभिहित किया है । - भगवती ४. शकुन्यादिकरण चतुष्के तृतीयमिदम् । अमावस्योत्तरार्द्धेऽवश्यं भवत्येतद् । 2010_05 ३३३ - कल्पसूत्र, सू० १४७ । सू०, शतक ६, उद्दे० ७ । — कल्पार्थबोधिनी, पत्र, ११२ । समग्र नामों के लिए देखें; कल्पसूत्र, समग्र नामों को 'जैन- शैली' कह कर Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३४ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन प्रश्न चर्चाएँ भगवान् महावीर की यह अन्तिम देशना सोलह प्रहर की थी ।' भगवान् छट्ट. भक्त से उपोसित थे । देशना के अन्तर्गत अनेक प्रश्न- चर्चाएं हुईं। राजा पुण्यपाल ने अपने ८ स्वप्नों का फल पूछा । उत्तर सुनकर संसार से विरक्त हुआ और दीक्षित हुआ । हस्तिपाल राजा भी प्रतिबोध पा कर दीक्षित हुआ । [खण्ड : १ इन्द्रभूति गौतम ने पूछा - "भगवन् ! आपके परिनिर्वाण के पश्चात् पाँचवाँ आरा क लगेगा ?" भगवान् ने उत्तर दिया- "तीन वर्ष साढ़े आठ मास बीतने पर ।" गौतम के प्रश्न पर आगामी उत्सर्पिणी-काल में होने वाले तीर्थङ्कर, वासुदेव, बलदेव, कुलकर आदि का भी नाम-ग्राह परिचय भगवान् ने दिया । गणधर सुधर्मा ने पूछा - "भगवन् ! कैवल्य रूप सूर्य कब तक अस्तंगत होगा ? " भगवान् ने कहा – “मेरे से बारह वर्ष पश्चात् गौतम सिद्ध गति को प्राप्त होगा, मेरे से बीस वर्ष पश्चात् तुम सिद्ध-गति प्राप्त करोगे, मेरे से चौसठ वर्ष पश्चात् तुम्हारा शिष्य जम्बू अनगार सिद्ध-गति को प्राप्त करेगा । वही अन्तिम केवली होगा । जम्बू के पश्चात् क्रमशः प्रभव, शय्यम्भव, यशोभद्र, संभूतिविजय, भद्रबाहु, स्थूलभद्र, चतुर्दश पूर्वधर होंगे। इनमें से शय्यम्भव पूर्व - ज्ञान के आधार पर दसवेयालिय आगम की रचना करेगा । ४ शक्र द्वारा आयु वृद्धि की प्रार्थना जब महावीर के परिनिर्वाण का अन्तिम समय निकट आया, इन्द्र का आसन प्रकम्पित हुआ। देवों के परिवार से वह वहाँ आया । उसने अश्रुपूरित नेत्रों से महावीर को निवेदन किया--"भगवन् ! आपके गर्भ, जन्म, दीक्षा और केवलज्ञान में हस्तोत्तरा नक्षत्र था । इस समय उसमें भस्म - ग्रह संक्रान्त होने वाला है। आपके जन्म-नक्षत्र आकर वह ग्रह दो सहस्र वर्षों तक आपके संघीय प्रभाव के उत्तरोत्तर विकास में बहुत बाधक होगा। दो सहस्र वर्षों के पश्चात् जब वह आपके जन्म-नक्षत्र से पृथक् होगा, तब श्रमणों का, निर्ग्रन्थों का उत्तरोत्तर पूजा - सत्कार बढ़ेगा । अतः जब तक वह आपके जन्म-नक्षत्र में संक्रमण कर रहा है, तब तक आप अपने आयुष्य बल को स्थित रखें। आपके साक्षात् प्रभाव से वह सर्वथा निष्फल हो जायेगा ।" इस अनुरोध पर भगवान् ने कहा- - "शक्र ! आयुष्य कभी बढ़ाया नहीं १. ( क ) षोडश प्रहरान् यावद् देशनां दत्तवान् । – सौभाग्यपञ्चम्यादि पर्व कथा संग्रह, पत्र १०० । (ख) सोलस प्रहराइ देसणं करेइ ! 2010_05 २. कल्पसूत्र, सू० १४७ ; नेमिचन्द्र कृत महावीर चरित्र, पत्र ६६ । ३. सौभाग्यपञ्चम्यादि पर्व, कथा संग्रह, पत्र १०० १०२ । ४. सौभाग्यपञ्चम्पादि पर्व, कथा संग्रह, पत्र १०६ । इस ग्रन्थ के रचयिता ने महावीर की इस भविष्यवाणी को क्रमशः हेमचन्द्राचार्य तक पहुँचा दिया है । - विविधतीर्थंकल्प, पृ० ३६ । Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा] परिनिर्वाण ३३५ नहीं जा सकता । ऐसा न कभी हुआ है, न कभी होगा। दुःषमा-काल के प्रभाव से मेरे शासन में बाघा तो होगी ही।' गौतम को कैवल्य भगवान महावीर ने उसी दिन अपने प्रथम गणधार इन्द्रभूति गौतम को देवशर्मा ब्राह्मण को प्रतिबोध देने के लिए अन्यत्र भेज दिया । अपने चिर अन्तेवासी शिष्य को दूर भेजने का कारण यह था कि मृत्यु के समय वह अधिक स्नेह-विह्वल न हो। इन्द्रभूति ने देवशर्मा को प्रतिबोध दिया। उन्हें भगवान् के परिनिर्वाण का संवाद मिला। इन्द्रभूति के श्रद्धाविभोर हृदय पर वज्राघात-सा लगा। अपने आप बोलने लगे-'भगवन् ! यह क्या किया ? इस अवसर पर मुझे दूर किया ! क्या मैं बालक की तरह आपका अंचल पकड़ कर आपको मोक्ष जाने से रोकता ? क्या मेरे स्नेह को आपने कृत्रिम माना ? मैं साथ हो जाता, तो क्या सिद्ध-शिला पर संकीर्णता हो जाती ? क्या मैं आपके लिए भार हो जाता ? मैं अब किसके चरण-कमलों में प्रणाम करूँगा? किससे अपने जगत् और मोक्षविषयक प्रश्न करूँगा? किसे मैं 'भदन्त' कहूँगा ? मुझे अब कौन ‘गौतम ! गौतम !' कहेगा?" इस भाव-विह्वलता में बहते-बहते इन्द्रभूति ने अपने-आपको सम्भाला। सोचने लगे"अरे ! यह मेरा कैसा मोह ? वीतरागों के स्नेह कैसा? यह सब मेरा एक-पाक्षिक मोहमात्र है । बस ! अब मैं इसे छोड़ता हूँ। मैं तो स्वयं एक हूं। न मैं किसी का हूँ। न मेरा यहाँ कुछ भी है। राग और द्वेष विकार-मात्र हैं। समता ही आत्मा का आलम्बन है।" इस प्रकार आत्म-रमण करते हुए इन्द्रभूति ने तत्काल कैवल्य प्राप्त किया।२ भगवान महावीर का जिस रात को परिनर्वािण हुआ, उस रात को नौ मल्लकी, नौ लिच्छवी; अठारह काशी-कोशल के गणराजा पौषध-व्रत में थे। १. जिनेश ! तव जन्मक्षं गन्ता भस्मकदुर्ग्रहः । बाधिष्यते स वर्षाणां, सहस्रो द्वेतु शासनम् ॥ तस्य संक्रामणं यावद्विलम्बस्व ततः प्रभो। भवत्प्रभाप्रभावेण स यथा विफलो भवेत् ॥ स्वाम्यूचे शक ! केनाऽपि नायुः सन्धीयते क्वचित् । दुःषमाभावतो बाधा, भाविनी मम शासने ॥ -कप्पसुत्त, कल्पार्थबोधिनी पत्र, १२१ । २. कप्पसुत्त, कल्पार्थबोधिनी, पत्र ११४। ३. जं रयणि च णं समणे भगवं महावीरे कालगए जाव सव्वदुक्खप्पहीणे, तं रयणि च णं नव मल्लई नव लिच्छई कासी-कोसलगा अट्ठारस-वि गणरायाणो अमावासाए पाराभोयं पोसहोववासं पट्ठवइंसु । -कप्पसुत्त, सू० १३२। ___ 2010_05 Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन खण्ड:१ निर्वाण-कल्याणक भगवान् की अन्त्येष्टि के लिए सुरों के, असुरों के सभी इन्द्र अपने-अपने परिवार से वहाँ पहुँचे। सबकी आँखों में आंसू थे। उनको लगता था-हम अनाथ हो गये हैं। शक के आदेश से देवता नन्दन-वन आदि से गोशीर्ष चन्दन लाये। क्षीर-सागर से जल लाये । इन्द्र ने भगवान के शरीर को क्षीरोदक से स्नान कराया, विलेपन आदि किये, दिव्य वस्त्र ओढाये। तदनन्तर भगवान् के शरीर को दिव्य शिविका में रखा। इन्द्रों ने वह शिविका उठाई। देवों ने जय-जय ध्वनि के साथ पुष्प-वृष्टि की। मार्ग में कुछ देवांगनाएं और देव नृत्य करते चलते थे, कुछ देव मणिरत्न आदि से भगवान् की अर्चा कर रहे थे। श्रावक-श्राविकाएं भी शोक-विह्वल होकर साथ-साथ चल रहे थे। यथास्थान पहँच कर शिविका नीचे रखी गई। भगवान के शरीर को गोशीर्ष चन्दन की चिता पर रखा गया। अग्निकुमार देवों ने अग्नि प्रकट की। वायुकुमार देवों ने वायु प्रचालित की। अन्य देवों ने घृत और मधु के घट चिता पर उड़ेले । जब प्रभु का शरीर भस्मसात् हो गया, तो भेषकुमार देवों ने क्षीर-सागर के जल से चिता शान्त की। शकेन्द्र तथा ईशानेन्द्र ने ऊपर की दा बाई दाढ़ों का संग्रह किया। चमरेन्द्र और बलीन्द्र ने नीचे की दाढ़ों का संग्रह किया। अन्य देवों ने अन्य दाँत और अस्थि खण्डों का संग्रह किया। मनुष्यों ने भस्म लेकर सन्तोष माना। अन्त में चिता-स्थान पर देवताओं ने रत्नमय स्तूप की संघटना की। दीपमालोत्सव भगवान का जिस दिन परिनिर्वाण हुआ, देव और देवियों के गमनागमन से भू-मण्डल आलोकित हुआ। मनुष्यों ने भी दीप संजोये। इस प्रकार दीप-माला पर्व का प्रचलन हुआ। भगवान् का जिस रात को परिनिर्वाण हुआ, उस रात को सूक्ष्म कुंथु जाति का उद्भव हुआ । यह इस बात का संकेत था कि भविष्य में सूक्ष्म जीव-जन्तु बढ़ते जायेंगे और संयम दुराराध्य होता जायेगा। अनेक भिक्षु-भिक्षुणियों ने इस स्थिति को समझ कर उस समय आमरण अनशन किया। १. त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र, पर्व १०, सर्ग १३ के आधार से। २. कप्पसुत्त, सू० १३०-१३१ । ३. सौभाग्यपञ्चम्यादि पर्व कथा संग्रह, पत्र १००-११० । ४. कप्पसुत्त, सू० १३६-३७ । ____ 2010_05 Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा परिनिर्वाण ३३ अन्तिम वर्षावास बुद्ध राजगह से वैशाली आए। वहाँ कुछ दिन रहे। वर्षावास के लिए समीपस्य वेलुवग्राम (वेणु-ग्राम) में आये। अन्य भिक्षुओं को कहा-“तुम वैशाली के चारों ओर मित्र, परिचित आदि देखकर वर्षावास करो।" यह बुद्ध का अन्तिम वर्षावास था। वर्षावास में मरणान्तक रोग उत्पन्न हुआ। बुद्ध ने सोचा, मेरे लिए यह उचित नहीं कि मैं उपस्थाकों और भिक्षु-संघ को बिना जतलाये ही परिनिर्वाण प्राप्त करूं। उन्होंने जीवनसंस्कार को दृढ़तापूर्वक धारण किया। रोग शान्त हो गया। शास्ता को निरोग देख कर आनन्द ने प्रसन्नता व्यक्त की और कहा-"भन्ते ! आपकी अस्वस्थता से मेरा शरीर शून्य हो गया था । मुझे दिशाएँ भी नहीं दिख रही थीं। मुझे धर्म का भी भान नहीं होता था।" बुद्ध ने कहा- "आनन्द ! मैं जीर्ण, वृद्ध, महल्लक, अध्वगत, वयःप्राप्त हूँ। अस्सी वर्ष की मेरी अवस्था है। जैसे पुराने शकट को बाँध-बूंघ कर चलाना पड़ता है, वैसे ही मैं अपने-आपको चला रहा हूँ। मैं अब अधिक दिन कैसे चलूंगा ? इसलिए आनन्द ! आत्मदीप, आत्मशरण, अनन्यशरण ; धर्मदीप, धर्मशरण, होकर विहार करो।"१ आमन्द की भूल एक दिन भगवान् चापाल-चैत्य में विश्राम कर रहे थे। आयुष्मान् आनन्द उनके पास बैठे थे। आनन्द से भगवान् ने कहा-'आनन्द ! मैंने चार ऋद्धिपाद साधे हैं । यदि चाई तो मैं कल्प-भर ठहर सकता हैं।" इतने स्थल संकेत पर भी आनन्द न समझ सके। उन्होंने प्रार्थना नहीं की-"भगवन् ! बहुत लोगों के हित के लिए, बहुत लोगों के सुख के लिए आप कल्प-भर ठहरें।" दूसरी बार और तीसरी बार भी भगवान् ने ऐसा कहा, पर, आनन्द नहीं समझे। मार ने उनके मन को प्रभावित कर रखा था। अन्त में भगवान ने बात को तोड़ते हुए कहा-"जाओ, आनन्द ! जिसका तुम काल समझते हो!" मार द्वारा निवेदन आनन्द के पृथक होते ही पापी मार भगवान् के पास आया और बोला-"भन्ते ! आप यह बात कह चुके हैं--'मैं तब तक परिनिर्वाण को प्राप्त नहीं करूंगा, जब तक मेरे भिक्ष, भिक्षुणियां, उपासक, उपासिकाएं आदि सम्यक् प्रकार से धर्मारूढ़, धर्म-कथिक और आक्षेपनिवारक नहीं हो जायेंगे तथा यह ब्रह्मचर्य (बुद्ध-धर्म) सम्यक् प्रकार से ऋद्ध, स्फीत व बहुजन-गृहीत नहीं हो जायेगा।' भन्ते ! अब यह सब हो चुका है । आप शीघ्र निर्वाण को प्राप्त करें।" भगवान् ने उत्तर दिया-"पापी ! निश्चिन्त हो। आज से तीन माह पश्चात् मैं निर्वाण प्राप्त करूंगा।" १. अत्तदीपा विहरथ, अत्तसरणा अनअसरणा, धम्मदीवा, धम्मसरणा, अननसरणा। ____ 2010_05 Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड : १ भूकम्प बुद्ध ने चापाल-चैत्य में उस समय स्मृति-संप्रजन्य के साथ आयु-संस्कार को छोड़ दिया। उस समय भयंकर भूकम्प हुआ। देव-दुन्दुभियां बजीं। आनन्द भगवान् के पास आये और बोले- आश्चर्य भन्ते ! अद्भुत भन्ते ! इस महान् भूचाल का क्या हेतु है ? क्या प्रत्यय है ?" भगवान् ने कहा-"भूकम्प के आठ हेतु होते हैं। उनमें से एक हेतु तथागत के द्वारा जीवन-शक्ति का छोड़ा जाना है। उसी जीवन-शक्ति का विसर्जन मैंने अभी-अभी चापाल-चैत्य में किया है। यही कारण है, भूकम्प आया, देव-दुन्दुभियां बजीं।" आनन्द को यह सब सुनते ही समझ आई; उसने कहा-'भन्ते ! बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय आप कल्प-भर ठहरें।" बुद्ध ने कहा-"अब मत तथागत से प्रार्थना करो। अब प्रार्थना करने का समय नहीं रहा।" आनन्द ने क्रमश: तीन बार अपनी प्रार्थना को दुहराया। बुद्ध ने कहा-"क्यों तथागत को विवश करते हो? रहने दो इस बात को। आनन्द ! मैं कल्प भर नहीं ठहरता; इसमें तुम्हारा ही दोष है । मैंने अनेक बार तथागत की क्षमता का उल्लेख तुम्हारे सामने किया, पर, तुम मूक ही बने रहे।" भगवान वहां से उठ कर महावन-कूटागार शाला में आये । वहां आनन्द को आदेश दिया-"वैशाली के पास जितने भिक्षु विहार करते हैं, उन्हें उपस्थान-शाला में एकत्रित करो।" भिक्षु एकत्रित हुए । बुद्ध ने कहा- "हन्त भिक्षुओ! तुम्हें कहता हूँ, संस्कार (कृतवस्तु) नाशमान हैं। प्रमाद-रहित हो, आदेय का सम्पादन करो। अचिर-काल में ही तथागत का परिनिर्वाण होगा, आज से तीन मास पश्चात् ।" अन्तिम यात्रा भगवान् वैशाली से कुशीनारा की ओर चले। भोगनगर के आनन्द-चैत्य में बुद्ध ने कहा-"भिक्षुओ! कोई भिक्षु यह कहे-'आवुसो ! मैंने इसे भगवान् के मुख से सुना; यह धर्म है, यह विनय है, यह शास्ता का उपदेश है।' भिक्षुओ ! उस कथन का पहले न अभिनन्दन करना, न निन्दा करना । उस कथन की सूत्र और विनयं में गवेषणा करना । वहाँ वह न हो, तो समझना यह इस भिक्षु का ही दुगहीत है। सूत्र और विनय में वह कथन मिले, तो समझना अवश्य यह तथागत का वचन हैं।" भगवान् विहार करते क्रमशः पावा पहुँचे। चुन्द कर्मार-पुत्र के आम्र-वन में ठहरे। चुन्द कर्मार-पुत्र ने भिक्षु-संघ-सहित बुद्ध को अपने यहां भोजन के लिए आमंत्रित किया। पहली रात को भोजन की विशेष तैयारियां कीं। बहुत सारा 'सूकर-मद्दव'' तैयार किया। १. बुद्धघोष ने (उदान-अट्ठकथा, ८।५) 'सूकर-मद्दव' शब्द की व्याख्या करते हुए कहा है-"ना-तितरूणस्स नातिजिण्णस्स एक जेट्टकसूकरस्स पवत्तमंसं अर्थात् 'न अति तरुण, न अति वृद्ध एक (वर्ष) ज्येष्ठ सूअर का बना मांस ।' "सूकर-मद्दव' के अन्य अमांसपरक अर्थ भी किये जाते हैं, पर मांसपरक अर्थ में भी कोई विरोधाभास नहीं लगता । अन्य किसी प्रसंग पर उग्ग गृहपति के अनुरोध पर बुद्ध ने सूकर का मांस ग्रहण किया, ऐसा अगुत्तर निकाय (पञ्चक निपात) में उल्लेख है । ____ 2010_05 Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा] परिनिर्वाण यथासमय भगवान् पात्र-चीवर ले चुन्द कर्मार-पुत्र के घर आये और भोजन किया। भोजन करते भगवान् ने चुन्द को कहा-"अन्य भिक्षुओं को मत दो यह सूकर. मद्दव । ये इसे नहीं पचा सकेंगे।" भोजन के उपरान्त भगवान् को असीम वेदना हुई। बिरेचन पर विरेचन होने लगा और वह भी रक्तमय। उग्र व्याधि में भी भगवान् पावा से कुशीनारा की ओर चल पड़े । क्लान्त हो रास्ते में बैठे। आनन्द से कहा-"निकट की नदी से पानी लाओ। मुझे बहुत प्यास लगी है।" आनन्द ने कहा- भगवन् ! अभी-अभी ५०० गाड़े इस निकट की नदी से निकले हैं। यह छोटी नदी है। सारा पानी मट-मैला हो रहा है। कुछ ही आगे ककुत्था नदी है । वह स्वच्छ और रमणीय है। वहाँ पहुँच कर भगवान् पानी पीयें।" भगवान् ने दूसरी बार और तीसरी बार वैसे ही कहा, तो आनन्द उठ कर गए । देखा, पानी अत्यन्त स्वच्छ और शान्त है। आनन्द भगवान् के इस ऋद्धि-बल से आनन्द-विभोर हुए। पात्र में पानी ला भगवान् को पिलाया। आलार-कालाम के शिष्य से भेंट भगवान् के वहाँ बैठे आलार-कालाम का शिष्य पुक्कुस मल्ल-पुत्र मार्ग चलते आया। एक ओर बैठ कर बोला-“भन्ते ! प्रव्रजित लोग शान्ततर विहार से विहरते हैं। एक बार आलार-कालाम मार्ग के समीपस्थ वृक्ष की छाया में विहार करते थे। ५०० गाड़ियाँ उनके पीछे से गई। कुछ देर पश्चात् उसी सार्थ का एक आदमी आया। उसने आलार-कालाम से पूछा "भन्ते ! गाड़ियों को जाते देखा ?" "नहीं आवुस !" "भन्ते ! शब्द सुना ?" "नहीं आवुस !" "भन्ते ! सो गये थे?" "नहीं आवुस।" "भन्ते ! आपकी संघाटी पर गर्द पड़ी है ?" "हाँ, आवुस ।" तब उस पुरुष को हुआ-आश्चर्य है ! अद्भुत है ! प्रवजित लोग आत्मस्थ होकर कितने शान्त विहार से विहरते हैं !" भगवान ने कहा-"पुक्कुस ! एक बार मैं आतुमा के भूसागर में विहार करता था। उस समय जोरों से पानी बरसा । बिजली कड़की। उसके गिरने से दो किसान और चार बैल मरे। उस समय एक आदमी मेरे पास आया और बोला-"भन्ते ! मेघ बरसा, बिजली कड़की, किसान और बैल मरे। आपको मालूम पड़ा, भन्ते ?" "नहीं, आवुस !" "आप कहां थे?" "यहीं था।" "बिजली कड़कने का शब्द सुना, भन्ते?" ____ 2010_05 Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ •३४० आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड :१ "नहीं, आवुस !" "क्या आप सोये थे ?" "नहीं, मावुस !" "आप सचेतन थे ?" "हाँ, आवुस !" "पुक्कुस ! तब उस आदमी को हुआ-"आश्चर्य है, अद्भुत है, यह शान्त विहार !" पुक्कुस मल्ल-पुत्र यह बात सुन कर बहुत प्रभावित हुआ और बोला-"भन्ते ! यह बात तो पांच सौ गाड़ियां, हजार गाड़ियाँ और पांच हजार गाड़ियां निकल जाने से भी बड़ी है। आलार-कालाम में मेरी जो श्रद्धा थी, उसे आज मैं हवा में उड़ा देता हूँ, शीघ्र धार वाली नदी में बहा देता हूँ। आज से मुझे शरणागत उपासक धारण करें।" तब पुक्कुस ने चाकचिक्य पूर्ण दो सुनहरे शाल भगवान् को भेंट किए; एक भगवान् के लिए और एक आनन्द के लिए। पुक्कुस मल्ल-पुत्र चला गया। आनन्द ने अपना शाल भी भगवान् को ओढ़ा दिया। भगवान् के शरीर से ज्योति उद्भूत हुई । शालों का चाकचिक्य मन्द हो गया। आनन्द के पूछने पर भगवान् ने कहा- "तथागत की ऐसी वर्ण-शुद्धि बोधि-लाभ और निर्वाण; इन दो अवसरों पर होती है। आज रात के अन्तिम प्रहर में कुशीनारा के मल्लों के शाल-बन में शाल वृक्षों के बीच तथागत का परिनिर्वाण होगा।" ककुत्था नदी पर भगवान् भिक्ष-संघ सहित ककुत्था नदी पर आये। स्नान किया। नदी को पार कर तटवर्ती आम्रवन में पहुंचे। विश्राम करते भगवान् ने कहा- "आनन्द ! चुन्द कर्मारपुत्र को कोई कहे-'आवुस चुन्द ! अलाभ है तुझे, दुर्लाभ है तुझे; तथागत तेरे पिण्डपात को खाकर परिनिर्वाण को प्राप्त हुए'; तो तू चुन्द के इस अपवाद को दूर करना । उसे कहना-"आवुस चुन्द ! लाभ है तुझे, सुलाभ है तुझे, तथागत तेरे पिण्डपात को खाकर परिनिर्वाण को प्राप्त हुए' और उसे बताना--'दो पिण्डपात समान फल वाले होते हैं; जिस पिण्डपात को खाकर तथागत अनुत्तर सम्यक् सम्बोधि प्राप्त करते हैं तथा जिस पिण्डपात को खाकर तथागत निर्वाण-धर्म को प्राप्त करते हैं।" कुशीनारा में __ककुत्था के आम्र-वन से विहार कर भगवान् कुशीनारा की ओर चले। हिरण्यवती नदी को पार कर कुशीनारा में जहाँ मल्लों का 'उपवत्तन' शाल-वन है, वहाँ आये । जुड़वें शाल-वृक्षों के बीच भगवान् मंचक (चारपाई) पर लेटे । उनका सिरहाना उत्तर की ओर था। उस समय आयुष्यमान् उपवान भगवान् पर पंखा हिलाते भगवान् के सामने खड़े थे। भगवान् ने अकस्मात् कहा-"हट जाओ, भिक्षु ! मेरे सामने से हट जाओ।" आनन्द ने तत्काल पूछा -- “ऐसा क्यों भगवन् ?' भगवान् ने कहा-"आनन्द ! दशों लोकों के देवता 2010_05 Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४१ इतिहास और परम्परा] परिनिर्वाग तथागत के दर्शन के लिए एकत्रित हुए हैं। इस शाल-वन के चारों ओर बारह योजन तक बाल की नोंक गड़ाने-भर के लिए भी स्थान खाली नहीं है। देवता खिन्न हो रहे हैं कि यह पंखा झलने वाला भिक्षु हमारे अन्तराय भूत हो रहा है।" आनन्द ने कहा- "देवता आपको किस स्थिति में दिखलाई दे रहे हैं ?" “आनन्द ! कुछ बाल खोलकर रो रहे हैं, कुछ हाथ पकड़ कर चिल्ला रहे हैं, कुछ कटे वृक्ष की भांति भूमि पर गिर रहे हैं। वे विलापात कर रहे हैं--'बहुत शीघ्र सुगत निर्वाण को प्राप्त हो रहे हैं, बहुत शीघ्र चक्षुष्मान् लोक से अन्तर्धान हो रहे हैं।" आनन्द के प्रश्न __ आनन्द ने पूछा--"भगवन् ! अब तक अनेक दिशाओं में वर्षावास कर भिक्ष आपके दर्शनार्थ आते थे। उनका सत्संग हमें मिलता था। भगवन् ! भविष्य में हम किसका सत्संग करेंगे, किसके दर्शन करेंगे?" "आनन्द ! भविष्य में चार स्थान संवेजनीय (वैराग्यप्रद) होंगे : १. जहाँ तथागत उत्पन्न हुए (लुम्बिनी)। २. जहाँ तथागत ने सम्बोधि-लाभ किया (बोधिगया)। ३. जहाँ तथागत ने धर्म-चक्र का प्रवर्तन किया (सारनाथ) । ४. जहाँ तथागत ने निर्वाण प्राप्त किया (कुशीनारा)। "भन्ते ! स्त्रियों के साथ कैसा व्यवहार हो ?" ''अदर्शन।" ''दर्शन होने पर, भगवन् !" 'अनालाप।" "आलाप आवश्यक हो, वहाँ मन्ते !" "स्मृति को संभाल कर अर्थात् सजग होकर आलाप करें।" 'भन्ते ! तथागत के शरीर की अन्त्येष्टि कैसे होगी?" "जैसे चक्रवर्ती के शरीर की अन्त्येष्टि होती है।" "वह कैसे होती है, भगवन् !" 'आनन्द ! चक्रवर्ती के शरीर को नये वस्त्र से लपेटते हैं । फिर क्रमशः रुई में लपेटते हैं: नये वस्त्र से लपेटते हैं; तेल की लोह-द्रोणी में रखते हैं; सुगंधित काष्ठ की चिता बना कर चक्रवर्ती के शरीर को प्रज्वलित करते हैं । तदनन्तर चौराहे पर चक्रवर्ती का स्तूप बनाते हैं।" आनन्द का रुदन आयुष्यमान् आनन्द विहार में जाकर कपिशीर्ष (खूटी) को पकड़ कर रोने लगे--. "हाय मैं रोक्ष्य हूं। मेरे शास्ता का परिनिर्वाण हो रहा है।" भगवान् ने भिक्षुओं से पूछा"आनन्द कहाँ है ?" "भगवन् ! वे विहार के कक्ष में रो रहे हैं।" "उसे यहां लायो।" 2010_05 Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४२ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड : १ तब आयुष्यमान् आनन्द वहाँ आये। भगवान् ने कहा-'मत आनन्द ! शोक करो, मत आनन्द ! रोओ। मैंने कल ही कहा था, सभी प्रियों का वियोग अवश्यंभावी है। आनन्द ! तू ने चिरकाल तक तथागत की सेवा की हैं । तू कृतपुण्य है। निर्वाण-साधन में लग। शीघ्र अनाश्रव हो।" कुशीनारा ही क्यों? आनन्द ने कहा-'भन्ते ! मत इस क्षुद्र नगरक में, शाखा नगरक में, जंगली नगरक में, आप परिनिर्वाण को प्राप्त हों । अनेक महानगर हैं-चम्पा, राजगृह, श्रावस्ती, साकेत, कौशाम्बी, वाराणसी; वहाँ आप परिनिर्वाण को प्राप्त करें। वहाँ बहुत से धनिक क्षत्रिय, धनिक ब्राह्मण, तथा अन्य बहुत से धनिक गृहपति भगवान् के भक्त हैं । वे तथागत के शरीर की पूजा करेंगे।" "आनन्द ! मत ऐसा कहो। कुशीनारा का इतिहास बहुत बड़ा है। किसी समय यह नगर महासुदर्शन चक्रवर्ती की कुशावती नामक राजधानी था। आनन्द ! कुशीनारा में जाकर मल्लों को कह-वाशिष्टो ! आज रात के अन्तिम प्रहर तथागत का परिनिर्वाण होगा। चलो वाशिष्टो! चलो वाशिष्टो ! नहीं तो फिर अनुताप करोगे कि हम तथागत के बिना दर्शन के रह गए।" आनन्द ने ऐसा ही किया। मल्ल यह संवाद पा चिन्तत व दुःखित हुए । सब के सब भगवान् के वन्दन के लिये आये । आनन्द ने समय की स्वल्पता को समझ कर एक-एक परिवार को क्रमशः भगवान् के दर्शन कराये। इस प्रकार प्रथम याम में मल्लों का अभिवादन सम्पन्न हुआ। द्वितीय याम में सुभद्र की प्रव्रज्या सम्पन्न हुई।' अन्तिम आदेश १. तब भगवान् ने कहा "आनन्द ! सम्भव है, तुम्हें लगे कि शास्ता चले गये, अब उनका उपदेश है, शास्ता नहीं है। आनन्द ! ऐसे समझना, मैंने जो धर्म कहा है, मेरे बाद वही तुम्हारा शास्ता है। मैंने जो विनय कहा है, मेरे बाद वही तुम्हारा शास्ता है। २. "आनन्द ! अब तक भिक्षु एक-दूसरे को 'आवुस' कह कर पुकारते रहे हैं। मेरे पश्चात् अनुदीक्षित को 'आवुस' कहा जाये और पूर्व दीक्षित को 'भन्ते' या 'आयुष्यमान्' कहा जाये। ३. "आनन्द ! मेरे पश्चात् चाहे तो संघ छोटे और साधारण भिक्षु-नियमों को छोड़ १. पूरे विवरण के लिए देखें, 'काल-निर्णय' प्रकरण के अन्तर्गत 'श्री श्रीचन्द रामपुरिया' तथा 'त्रिपिटकों में निगण्ठ व निगण्ठ नातपुत्त' प्रकरण के अन्तर्गत २५ वा प्रसंग। ____ 2010_05 Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिनिर्वाण ४. "आनन्द ! मेरे पश्चात् छन्न नामक भिक्ष ु को ब्रह्म-दण्ड करना चाहिए।" तब भगवान् ने उपस्थित भिक्षुओं से कहा - "बुद्ध, धर्म और संघ में किसी को आशंका हो, तो पूछ ले। नहीं तो फिर अनुताप होगा कि मैं पूछ न सका ।" भगवान् के एक दो बार और तीन बार कहने पर भी सभी भिक्षु चुप रहे । बार, आनन्द ने कहा- "भगवन् ! इन पांच सौ भिक्षुओं में कोई सन्देहशील नहीं है । सब बुद्ध, धर्म और संघ में आश्वस्त हैं ।' भगवान् ने कहा- “हन्त ! भिक्षुओ ! अब तुम्हें कहता हूँ । संस्कार (कृत वस्तु ) व्ययधर्मा हैं । अप्रमाद से जीवन के लक्ष्य का संपादन करो। यह सथागत का अन्तिम वचन है ।' 119 निर्वाण-गमन इतिहास और परम्परा ] भगवान् तब प्रथम ध्यान को प्राप्त हुए । प्रथम ध्यान से उठ कर द्वितीय ध्यान को प्राप्त हुए। इसी प्रकार क्रमश: तृतीय व चतुर्थ ध्यान को । तब भगवान् आकाशान्त्याय तन को प्राप्त हुए, तदनन्तर विज्ञानान्त्यायतन को, आकिंचन्यायातन को, नैवसंज्ञानासंज्ञायतन को, संज्ञा वेदयित-निरोध को प्राप्त हुए । आयुष्यमान् आनन्द ने आयुष्यमान् अनुरुद्ध से कहा—“क्या भगवान् परिनिर्वृत्त हो गये ?" अनुरुद्ध ने कहा - "नहीं, आनन्द ! भगवान् संज्ञा वेदयित-निरोध को प्राप्त हुए हैं।" तब भगवान् संज्ञावेदयित-निरोध- समापत्ति (चारों ध्यानों के ऊपर की समाधि) से उठ कर नैवसंज्ञानासंज्ञायतन नासंक्षाय को प्राप्त हुए । तब क्रमश: प्रतिलोम से पुनः सब श्रेणियों को पार कर प्रथम ध्यान को प्राप्त हुए । तदनन्तर क्रमश: चतुर्थ ध्यान में आये और उसे पार कर भगवान् परिनिर्वाण को प्राप्त हुए। उस समय भयंकर भूचाल आया, देवदुन्दुभियाँ बज्रीं । ३४३ निर्वाण के अनन्तर सहम्पति ब्रह्मा ने, देवेन्द्र शक्र ने, आयुष्मान् अनुरुद्ध तथा ने आयुष्मान् आनन्द ने स्तुति - गाथाएं कहीं । अवीतराग भिक्षु उस समय क्रन्दन करने लगे, रोने लगे, कटे वृक्ष की तरह भूमि पर गिरने लगे । अनुरुद्ध ने उनका मोह-निवारण किया । आयुष्मान् आनन्द कुशीनारा में गए । संस्थागार में एकत्रित मल्लों को उन्होंने कहा - "भगवान् परिनिर्वृत्त हो गये हैं । अब जिसका तुम काल समझो।" इस दु:खद संवाद से सारा कुशीनारा शोक सन्तप्त हुआ । कुशीनारा के मल्लों ने ६ दिन तक निर्वाणोत्सव मनाया । अन्त्येष्टि की तैयारियाँ कीं। सातवें दिन आठ मल्ल प्रमुखों ने भगवान् के शरीर को उठाया । देवता और मनुष्य नृत्य करते साथ चले । मल्लों का जहाँ मुकुट-बन्धन नामक चैत्य था, वहाँ सब आये । आनन्द से मार्ग-दर्शन पाकर चक्रवर्ती की तरह भगवान् का अंत्येष्टि- कार्य सम्पन्न करने लगे । उसी क्रम से भगवान् के शरीर को चिता पर रखा । १. हन्द यानि, भिक्खवे आमन्तयामि वो - वयषम्मा सङ्घारा, अप्पमादेन सम्पादेया ति । 2010_05 Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४४ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन महाकाश्यप का आगमन मल्लों ने उस समय चिता को प्रज्ज्वलित करना चाहा। पर, वे वैसा न कर सके। आयुष्मान् अनुरुद्ध ने इसका कारण बताया--"वाशिष्टो। तुम्हारा अभिप्राय कुछ और है तथा देवताओं का अभिप्राय कुछ और । देवता चाहते हैं, भगवान् की चिता तब जले, जब आयुष्मान् महा काश्यप भगवान् का चरण-स्पर्श कर लें।" "कहाँ हैं भन्ते ! आयुष्मान् महाकाश्यप ?" अनुरुद्ध ने उत्तर दिया-पांच सौ भिक्षुओं के साथ वे पावा और कुशीनारा के बीच रास्ते में आ रहे हैं।" मल्लों ने कहा-"भन्ते ! जैसा देवताओं का अभिप्राय है, वैसा ही हो।" आयुष्यान् महाकाश्यप मुकुट-बन्धन चैत्य में पहुंचे। उन्होंने चीवर को एक कन्धे पर कर, अंजलि जोड़, तीन बार चिता की परिक्रमा की। वस्त्र हटा कर अपने सिर से चरणस्पर्श किया। सार्धवर्ती पांच सौ भिक्षुओं ने भी वैसा ही किया। यह सब होते ही चिता स्वयं जल उठी । जैसे घी और तेल के जलने पर कुछ शेष नहीं रहता, वैसे ही भगवान् के शरीर में जो चर्म, मांस आदि थे, उनकी न राख बनी, न कोयला बना। केवल अस्थियाँ ही शेष रहीं। भगवान् के शरीर के दग्ध हो जाने पर आकाश में मेघ प्रादुर्भूत हुआ और उसने चिता को शान्त किया। उस समय मल्लों ने भगवान् की अस्थियां अपने संस्थागार में स्थापित की। सुरक्षा के लिए शक्ति-पंजर' बनवाया। धनुष प्राकार बनवाया। अस्थियों के सम्मान में नृत्य, गीत आदि प्रारम्भ किये। धातु-विभाजन उस समय मगधराज अजातशत्रु ने दूत भेज कर मल्लों को कहलाया-"भगवान् क्षत्रिय थे; मैं भी क्षत्रिय हूँ। भगवान् की अस्थियों का एक भाग मुझे मिले । मैं स्तूप बनवाऊँगा और पूजा करूँगा।" इसी प्रकार वैशाली के लिच्छवियों ने, कपिलवस्तु के शाक्यों ने, अल्ल. कप्प के बुलियों ने, राम-गाम के कोलियों ने, बेठ-दीप के ब्राह्मणों ने तथा पावा के मल्लों ने भी अपने पृथक्-पृथक् अधिकार बतला कर अस्थियों की मांग की। कुशीनारा के मल्लों ने निर्णय किया-"भगवान् हमारे यहाँ परिनिर्वृत्त हुए हैं; अत: हम किसी को अस्थियों का भाग नहीं देंगे।" द्रोण ब्राह्मण ने मल्लों से कहा—'यह निर्णय ठीक नहीं। भगवान् क्षमावादी थे, हमें भी क्षमा से काम लेना चाहिए । अस्थियों के लिए झगड़ा हो, यह ठीक नहीं । आठ स्थानों पर भगवान् की अस्थियाँ होंगी, तो आठ स्तूप होंगे और अधिक लोग बुद्ध के प्रति आस्थाशील बनेंगे।" १. हाथ में माला लिए पुरुषों का घेरा। २. हाथ में धनुष लिए पुरुषों का घेरा। ____ 2010_05 Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा] परिनिर्वाण मल्लों ने इस प्रस्ताव को स्वीकार किया। तदनन्तर द्रोण ब्राह्मण ने अस्थियों के आठ विभाग कर सबको एक-एक भाग दिया । जिस कुम्भ में अस्थियाँ रखी थीं, वह अपने पास रखा। पिप्पलीवन के मौर्य आये । अस्थियां बंट चुकी थीं। वे चिता से अंगार (कोयला) ले गये। सभी ने अपने-अपने प्राप्त अवशेषों पर स्तूप बनवाये। भगवान् की एक दाढ़ स्वर्गलोग में पूजित है और एक गन्धारपुर में। एक कलिंगराजा के देश में और एक को नागराज पूजते हैं। चालीस केश, रोम आदि को एक-एक करके नाना चक्रवालों में देवता ले गये।' १. एका हि दाण तिदिवेहि पूजिता, एका पन गन्धारपुरे महीयति । कालिङ्गरज्ञो विजिते पुनेकं, एकपन नागराजा महेति ॥... चतालीस समा दन्ता, केसा लोमा च सब्बसो। देवा हरिसं एकेक, चक्कवालपरम्परा ति ।। 2010_05 Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ विहार और वर्षावास दोनों युग-पुरुष विहार और वर्षावास की दृष्टि से बहुत ही अभिन्न रहे हैं। मगध, विदेह, काशी, कोशल, वत्स, अङ्ग, वज्जी, मल्ल आदि जनपद दोनों के प्रमुख विहार-क्षेत्र रहे हैं। राजगृह, मिथिला, वाराणसी, श्रावस्ती, कौशाम्बी, चम्पा, वैशाली, पावा-ये नगरियाँ क्रमश: इन जनपदों की राजधानियाँ थीं और ये महावीर और बुद्ध; दोनों के ही गमनागमन की केन्द्र रहीं हैं। अधिकांश राजधानियों में दोनों ने वर्षावास भी किये हैं। प्रस्तुत ग्रन्थ की काल-गणना के अनुसार राजगृह में दो वर्षावास दोनों के एक साथ होते हैं। ___ महावीर ने कहां कितने वर्षावास किये, यह ब्योरा कप्पसुत्त' में मिलता है। वर्षावास के अतिरिक्त किन-किन ग्रामों में महावीर रहे, यह ब्यौरा आगम-ग्रन्थों में घटना-प्रसंगों के साथ प्रकीर्ण रूप से मिलता है । छद्मस्थ-अवस्था के द्वादश वर्षों का क्रमिक ब्योरा आवश्यक की नियुक्ति, चूणि, भाष्य और टीका में, कप्पसुत्त की टीका में तथा आचार्य नेमिचन्द्र, गुणचन्द्र तथा हेमचन्द्र द्वारा लिखे गए महावीर-चरित्रों में मिलता है। शेष वर्षावास और विहार का क्रमिक रूप क्या था, यह न कापसुत्त में ही मिलता है और न इतर साहित्य में। वर्तमान के कुछ विद्वानों ने महावीर के विहार और वर्षावासों को ऋमिक रूप देने का प्रयत्न किया है, जिनमें मुनि कल्याणविजयी व आचार्य विजयेन्द्र सूरि के नाम उल्लेखनीय हैं। बुद्ध के विहार और वर्षावासों का क्रमिक विवरण मूल पिटक ग्रन्थों में नहीं मिलता। अंगुत्तर निकाय अट्ठकथा में बोधि-लाम के उत्तरवर्ती वर्षावासों का क्रमिक सन्धान किया गया है। ह्रीस डेविड्स, राहुल सांकृत्यायन, डा० भरतसिंह उपाध्याय" प्रभृति विद्वानों ने १. सू० १२२ । २. श्रमण भगवान् महावीर । ३. तीर्थंकर महावीर (२ भाग)। ४.२-४-५। ५. Buddhism | ६. बुद्धचर्या । ७. बुद्धकालीन भारतीय भूगोल, प्र. हिन्दी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग, १९६१ । ____ 2010_05 Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा ] विहार और वर्षावास बुद्ध के समग्र वर्षावासों और विहारों का क्रमिक रूप प्रस्तुत किया है। अनुमान पर आधारित इस सन्धान में मतभेदों का होना तो स्वाभाविक है ही । कुल मिला कर अभाव को सद्भाव में परिणत करने का यह आयास उपयोगी ही है । इससे दोनों युग-पुरुषों के वर्षावासों और विहारों का मोटा खाका सर्व साधारण के सम्मुख आ ही जाता है । ३४७ आचार्य विजयेन्द्र सूरि और राहुल सांकृत्यायन द्वारा संयोजित दोनों युग-पुरुषों के विहार और वर्षावासों का क्रमिक ब्यौरा यहां दिया जा रहा है। वह तुलनात्मक अनुसन्धित्सा की दृष्टि से बहुत उपयोगी हो सकेगा, ऐसी आशा है । उक्त ब्योरे को प्रस्तुत ग्रन्थ की काल-गणना के साथ भी संगत कर दिया गया है । सुविधा और स्पष्टता के लिए प्रस्तुत तालिकाओं का एक प्रामाणिक तुलनात्मक विवरण मी बना दिया गया है, जो यहाँ अगले पृष्ठ में दिया जा रहा है : 2010_05 Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६८ ५६८ r ३४८ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड : १ महावीर-विहार सन् ई० पू० वर्ष छद्मस्थावस्था वर्षावास ५६६ कुण्डग्राम, ज्ञातखण्डवन, कारग्राम, कोल्लाग अस्थिक ग्राम सन्निवेश, मोराक सन्निवेश, दूइज्जंतग-आश्रम, (वर्धमान) अस्थिक ग्राम (वर्धमान)। मोराक सन्निवेश, वाचाला, दक्षिण-वाचाला, नालन्दा सन्निवेश सुवर्ण वालुका (नदी), रुप्य वालुका (नदी), कनकखल आश्रमपद, उत्तर-वाचाला, श्वेताम्बी, सुरभिपुर, गंगा नदी, थूणाक सन्निवेश, राजगृह, नालन्दा सन्निवेश। ५६७ ३ कोल्लाग सन्निवेश, सुवर्ण खल, ब्राह्मणग्राम, चम्पानगरी चम्पानगरी। कालाय सन्निवेश, पत्त कालाय कुमारक सन्नि- पृष्ठ चम्पा वेश, चोराक सन्निवेश, पृष्ठ चम्पा। ५६५ ५ कयंगला सन्निवेश, श्रावस्ती, हलिदुयं, जंगला, भद्दिया नगरी आवत्ता, चोराय सन्निवेश, कलंकबुका सन्निवेश, राढ देश (अनार्य भूमि), पूर्णकलश (अनार्य गाँव), मलय प्रदेश , भद्दिया। ५६४ कयली समागम, जम्बूसंड, तंबाय सन्निवेश, कूपिय भद्दिया नगरी सन्निवेश, वैशाली, ग्रामाक सन्निवेश शालीशीर्ष, भदिया। ५६३ मि, आलंभिया। आलंभिया ५६२ ८ कुण्डाल सन्निवेश, मदन सन्निवेश, बहुसालग, राजगृह शालवन, लोहार्गला, पुरिमताल, शकटमुख उद्यान, उन्नाग (तुन्नाक), गोभूमि, राजगृह । ५६१६ लाढ, वज्रभूमि और सुम्हभूमि, अनार्य देश। वज्रभूमि ५६० १० सिद्धार्थपुर, कूर्मग्राम, सिद्धार्थपुर, वैशाली, गंडकी श्रावस्ती नदी (मंडकी), वाणिज्य ग्राम, श्रावस्ती। 2010_05 | Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४६ वर्षावास वैशाली इतिहास और परम्परा] विहार और वर्षावास सन् ई० पू० वर्ष छद्मस्थावस्था ५५६ ११ सानुलठ्यि सन्निवेश, दृढभूमि, पोलास-चैत्य वालुका, सुभोग सुच्छेता, मलय, हत्थिसीस, तोसलि, सिद्धार्थपुर, बजगाँव, आलंभिया, सेयविया, श्रावस्ती, कौशाम्बो, वाराणसी, राजगृह, मिथिला, वैशाली, काम महावन । ५५८ १२ सुंसमारपुर, भोगपुर, नन्दिग्राम, में ढिय ग्राम, कौशाम्बी, सुमंगल, सुच्छेता, पालक, चम्पा । ५५.७ १३ जंभियग्राम, में ढिय, छम्माणि, मध्यम अपापा, जभियग्राम, ऋजुवालुका (नदी)। चम्पा कैवल्यावस्था ५५७१ ऋजुवालुका, पावापुरी, राजगृह । २ राजगृह, ब्राह्मणकुण्ड, वैशाली। राजगृह वैशाली ५५५ वाणिज्यग्राम ३ वैशाली, कौशाम्बी, श्रावस्ती, वाणिज्यग्राम । ४ वाणिज्य ग्राम, राजगृह । राजगृह ५५३ ५ राजगृह, चम्पा, वीतभय, वाणिज्यग्राम । वाणिज्यग्राम ५५२ ६ वाणिज्य ग्राम, वाराणसी, आलंभिया, राजगृह । राजगृह ५५१ राजगृह वैशाली ७ राजगृह । ८ राजगृह, आलंभिया, कौशाम्बी, वैशाली। ६ वैशाली, मिथिला, काकंदी, कांपिल्यपुर, पोलासपुर, वाणिज्यग्राम, वैशाली। ५४९ वैशाली ५४८ १० वैशाली, राजगृह । राजगृह ____ 2010_05 2010_05 Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५० [खण्ड ! १ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन कैवल्यावस्था सन् पू० ई० वर्ष वर्षावास वाणिज्यग्राम ११ राजगृह, कृतंगला, श्रावस्ती, वाणिज्यग्राम । १२ वाणिज्यग्राम, ब्राह्मणकुण्ड, कौशाम्बी, राजगृह । राजगृह ५४७ ५४६ ५४५ ५४४ राजगृह चम्पा १३ राजगृह, चम्पा, राजगृह । १४ राजगृह, काकन्दी, मिथिला, चम्पा । १५ चम्पा, श्रावस्ती, मेढियग्राम, चम्पा, मिथिला। १६ मिथिला, हस्तिनापुर, मोकानगरी, वाणिज्यग्राम । मिथिला 12 वाणिज्य ग्राम ५४१ १७ वाणिज्यग्राम, राजगृह । राजगृह १८ राजगृह, पृष्ठचम्पा, चम्पा, दर्शाणपुर, वाणिज्यग्राम। वाणिज्यग्राम ५३६ वैशाली १६ वाणिज्यग्राम, काम्पिल्यपुर, वैशाली। २० वैशाली, वाणिज्यग्राम, वैशाली। ५३८ वैशाली ५३७ २१ वैशाली, राजगृह, चम्पा, पृष्ठचम्पा, राजगृह । राजगृह २२ राजगृह, नालन्दा। नालन्दा वैशाली ५३५ २३ नालन्दा, वाणिज्यग्राम, वैशाली। २४ वैशाली, साकेत, वैशाली। वैशाली ५३३ २५ वैशाली, राजगृह । राजगह ५३२ २६ राजगृह, नालन्दा । नालन्दा 2010_05 Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और पम्परा ] सन् ई० पू० वर्ष ५३१ ५३० ५२६ ५२८ २७ नालन्दा, मिथिला । मिथिला । २६ मिथिला, राजगृह । २८ ३० विहार और वर्षावास कैवल्यावस्था 2010_05 राजगृह, अपापापुरी ( निर्वाण ) । वर्षावास मिथिला मिथिला ३५१ राजगृह अपापापुरी ( पावा ) Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम और त्रिपिटिक : एक अनुशीलन [खण्ड : १ सन वर्षावास बुद्ध-विहार सापनावस्था ई०पू० वर्ष ५५३ १ कपिलवस्तु, अनूपिया (मल्ल), राजगृह, उरूवेला (अथवा कपिलवस्तु, वैशाली, राजगृह, उरूवेला)।' ५५२ २ उरुवेला । उरुवेला (सेनानीग्राम) उरुवेला ५५० ४ ॥ ५४६ ५ ५४८ ६ बुद्धावस्था ५४७ १ उरूवेला, गया, ऋषिपत्तन (वाराणसी)। ऋषिपत्तन (वाराणसी) राजगृह राजगृह ५४६ २ ऋषिपत्तन, उरूवेला, गया, राजगृह, (अथवा वैशाली, कपिलवस्तु, अनूपिया, राजगृह)* । ५४५ ३ राजगृह, कपिलवस्तु, अनूपिया (मल्ल), नल कपान (कोशल). राजगृह (अथवा राजगृह, वैशाली, श्रावस्ती, कीटागिरि, आलवी, राजगृह) ।* ५४४ ४ राजगृह, वैशाली, श्रावस्ती, राजगृह* । ५४३ ५ राजगृह, कपिलवस्तु, वैशाली। ५४२ ६ वैशाली, मंकुलपर्वत । ५४१ ७ मंकुलपर्वत, राजगृह, श्रावस्ती त्रयस्त्रिश। ५४० ८ त्रयस्त्रिश, संकाश्यनगर, श्रावस्ती, राजगृह, वैशाली, सुंसुमारगिरि। ५३६ ६ सुंसुमारगिरि, कौशाम्बी, बालक लोणकार, प्राचीन वंश दाव (अथवा कौशाम्बी—कम्पासदम्म (कुरु)* । राजगृह वैशाली मंकुलपर्वत त्रयस्त्रिश सुंसुमारगिरि कौशाम्बी १. महायान परम्परा के अनुसार। * डा० भरतसिंह उपाध्याय के अनुसार । ____ 2010_05 Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा] विहार और वर्षावास वर्षावास पारिलेयक नाला वेरंजा चालियपर्वत श्रावस्ती कपिलवस्तु सन् वर्ष बुद्धावस्था ई०पू० ५३८ १० प्राचीन वंश दाव, पारिलेयक, श्रावस्तो। ५३७ ११ नाला (एकनाला)*। ५३६ १२ नाला, नालंदा, पं वशाला, कम्मासदम्म (कुरु), मथुरा, वेरंजा (अथवा श्रावस्ती, वेरंजा)*। ५३५ १३ वेरंजा, वाराणसी, वैशाली, चालियपर्वत (अथवा वेरंजा, मथुरा, वेरंजा, कोरेय्य, संकस्स, कण्णकुज्ज, पयागपतिट्ठान, वाराणसी, वैशाली, श्रावस्ती, चालियपर्वत)*। ५३४ १४ चालियपर्वत, वैशाली, भद्दिया, आपण (अंगुत्तराप), कुसि नारा, आतुमा, श्रावस्ती। ५३३ १५ श्रावस्ती, मनसाकट (कोसल), इच्छानंगल (कोसल), ओप साद, खाणुमत्त (मगघ), चम्पा, कपिलवस्तु । ५३२ १६ कपिलवस्तु, कीटागिरि, आलवी । ५३१ १७ आलवी, राजगृह (अथवा आलवी, श्रावस्ती, आलवो, राजगृह)*। ५३० १८ राजगृह, चालियपर्वत । ५२६ १६ चालिय पर्वत, चम्पा, काजगला, शिलावती (सुह्म), सेतकणिक (सुह्म), चालियपर्वत (अथवा चालियपर्वत, आलवी चालियपर्वत)*। ५२८ २० चालियपर्वत, राजगृह । ५२७ २१ राजगृह, श्रावस्ती, कपिलवस्तु, सामगाम, पावा वैशाली+। ५२६- २२- अंग, मगध, काशी, कोसल, वज्जी, वंस, चेदि, पंचाल, कुरु, ५०३ ४५ विदेह, शाक्य, कोलिय, मल्ल आदि जनपदों के विभिन्न स्थान । ५०२ ४६ श्रावस्ती, राजगृह, वैशाली, पावा और कुसिनारा (निर्वाण)। आलवी राजगृह चालियपर्वत चालियपर्वत राजगृह श्रावस्ती श्रावस्ती वेलुव । (वैशाली) * डा० भरतसिंह उपाध्याय के अनुसार । + सामगाम, पावा की यात्रा राहुलजी के अनुसार परिनिर्वाण से दो वर्ष पूर्व की थी, पर हमारी काल-गणना के अनुसार यह संगत नहीं है। x डा० भरतसिंह उपाध्याय के अनुसार (द्रष्टव्य, बुद्धकालीन भारतीय भूगोल प०११२-११८) ____ 2010_05 Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७ त्रिपिटकों में निगण्ठ व निगण्ठ नातपुत्त आगमों में जहाँ बुद्ध के नामोल्लेख की भी अल्पता है, वहाँ त्रिपिटकों में महावीर सम्बन्धी घटना-प्रसंगों की बहुलता है। वहां उन्हें 'निगण्ठ नातपुत्त'' कहा गया है। निगण्ठ' शब्द सामान्यतः जैन भिक्षु का सूचक है। नातपुत्त शब्द भगवान महावीर के लिए आगमसाहित्य में भी प्रयुक्त है। वे घटना-प्रसंग कहाँ तक यथार्थ हैं, इस चिन्ता में यदि हम न जायें, तो निस्सन्देह कहा जा सकता है कि वे बहुत ही सरस, रोचक और प्रेरक हैं। दोनों धर्म-संघों के पारस्परिक सम्बन्धों, सिद्धान्तों व धारणाओं पर वे पूरा प्रकाश डालते हैं। महावीर और बुद्ध का एक-दूसरे से कभी साक्षात् हुआ, ऐसा कोई उल्लेख नहीं मिलता। एक समय में एक ही नगर के विभिन्न उद्यानों में वे रहे, ऐसे अनेक उल्लेख अवश्य मिलते हैं । गृहपति उपालि के चर्चा-प्रसंग व असिबन्धक पुत्र ग्रामणी के चर्चा-प्रसंग पर दोनों धर्मनायक नालंदा में थे। सिंह सेनापति के चर्चा-प्रसंग पर दोनों वैशाली में थे। अभयराजकुमार की चर्चा में दोनों के राजगृह में होने का उल्लेख है। महासकुलदायी सत्तन्त में तो सातों धर्मनायकों का एक ही वर्षावास राजगृह में होने का उल्लेख है । 'दिव्यशक्ति-प्रदर्शन' के घटनाप्रसंग पर सातों धर्मनायकों के एक साथ राजगृह में होने का उल्लेख है। साम्प्रदायिक संकीर्णता (odium theologicum) त्रिपिटकों में आये सभी समुल्लेख भाव-भाषा से बुद्ध की श्रेष्ठता और महावीर की न्यूनता व्यक्त करते हैं। जातक-अट्ठकथा और धम्मपद-अट्ठकथा के कुछ प्रसंग इस साम्प्रदायिक संकीर्णता (Odium theologicum) उत्कृष्ट उदाहरण हैं। एक प्रसंग ऐसा भी है, जो सामान्य अवलोकन में बहुत निम्न श्रेणी का लगता है, पर, मूलत: वह ऐसा नहीं है। १. कहीं-कहीं निगण्ठ नाथपुत्त और निगण्ठ नाटपुत्त भी है। २. दसवेयालिय, सू०६।२० । ३. देखिये ; इसी प्रकरण में क्रमशः प्रसंग-संख्या २,६,१,३,१३, और १७ । ४. इस प्रकरण की प्रसंग-संख्या ३५,३६,३७ । ५. इस प्रकरण की प्रसंग-संख्या १८,१६,४१ । ____ 2010_05 Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा] त्रिपिटकों में निगण्ठ व निगण्ठ नातपुत्त महावीर के निर्वाण-संवाद को लेकर पहुंचने वाले भिक्षु चुन्द समणुद्देश को बुद्ध के पास ले जाते हुए आनन्द कहते हैं : अस्थि खो, इवं, 'आवुसो चुन्द, कथापाभतं भगवन्तं दस्सनाय' अर्थात् आवुस चुन्द ! भगवान् के दर्शन में यह संवाद कथा-प्रामृत (उपहार) होगा। सामान्यतः यह लगता ही है कि महावीर का निधन-संवाद पाकर आनन्द को कितना हर्ष हुआ है और उसने उसे उपहार रूप माना है। मैंने अपने एक प्राक्तन निबन्ध में उसकी तथारूप आलोचना भी की है।' पर, सारिपुत्र के मृत्यु-संवाद को लेकर भी वही चुन्द आनन्द के पास आता है, वहां पर भी आनन्द कहते हैं : 'अत्थि खो, आवुस चुन्द कथापाभतं भगवन्तं दस्सनाय' ।२ इससे प्रमाणित होता है कि यह बौद्ध-परम्परा की या उस युग की उक्ति-मात्र है। इससे कुत्सा अभिव्यक्त नहीं होती। पालि वाङ्मय में प्रायः सभी समुल्लेख निगण्ठ नातपुत्त व निगण्ठ-धर्म के प्रति आक्षे. पात्मक हैं। इसका तात्पर्य यह नहीं कि वे बौद्धों और निगण्ठों के अधिकतम मतभेद की सूचना देते हैं। बहुधा होता यह है, जो सम्प्रदाय जिस सम्प्रदाय से जितना निकट है, उतना ही अधिक उसका आलोचक होता है। दूर के भेद क्षम्य होते हैं, निकट के अक्षम्य । यही उक्त मनोवृत्ति का कारण हो सकता है। आज के सम्प्रदायों में भी यही स्थिति है। जैन सम्प्रदाय जितने परस्पर एक-दूसरे के आलोचक हैं, उतने बौद्ध या वैदिक धर्मों के नहीं। प्रसंगों की समप्रता प्रस्तुत प्रकरण में त्रिपिटक-साहित्य के वे समुल्लेख संगृहीत किये गये हैं, जिनमें किसी-न-किसी रूप में महावीर का सम्बन्ध आता है। साथ-साथ वे समुल्लेख भी ले लिये गये हैं, जो निर्ग्रन्थ सम्प्रदाय के सम्बन्ध से हैं। अनेक समुल्लेख पिछले प्रकरणों में प्रसंगोपात्त उद्धत हुए हैं, पर, समग्रता की दृष्टि से उन्हें इस प्रकरण में भी पुनः ले लिया गया है। डॉ० हर्मन जेकोबी ने 'जैन सूत्रों की भूमिका में त्रिपिटकों में आये महावीर व निर्ग्रन्थों सम्बन्धी समुल्लेखों का समीक्षात्मक संकलन प्रस्तुत किया है । वे समुल्लेख ११ हैं। डॉ० जेकोबी की धारणा में तब तक की प्रकाशित सामग्री का वह समग्र संकलन है। प्रस्तुत प्रकरण में वे समुल्लेख ११ की अपेक्षा ५१ हो गये हैं। इन नवीन प्रसंगों में से कुछ उन ग्रन्थों के हो सकते हैं, जो उस समय तक प्रकाशित न हुए हों, पर, कुछ समुल्लेख ऐसे भी हैं जो डॉ. जेकोबी की निगाह से बच रहे थे ; क्योंकि एक ही ग्रन्थ के कुछ समुल्लेख डॉ. जेकोबी के संकलन में भाये हैं और कुछ नहीं। डा० मलशेकर ने भी 'निगण्ठ नातपुत्त' शब्द पर जो संदर्भ आकलित किये हैं, वे भी परिपूर्ण नहीं हैं। १. भिक्षु स्मृति ग्रन्थ, खण्ड २, पृ० ६ से १०, 'पालि वाङ्मय में भगवान् महावीर' शीर्षक लेख, श्री जैन श्वेता० तेरापंथी महासभा, कलकत्ता, १९६० । २. संयुत्त निकाय, चुन्द सुत्त, ४५-२-३ । 3. S. B. E., vol. XIV, introduction, pp. XIV to XXIII. 8. Dictionary of Pali Proper Names vol., II. pp. 61-65. ____ 2010_05 Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५६ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड :१ प्रस्तुत संकलन में इतनी जागरूकता विशेषतः बरती गई है कि त्रिपिटकों में से कोई भी प्रसंग विलग न रह जाये । अट्ठकथाओं व इतर ग्रन्थों के प्रसंग भी यथासम्भव इस संकलन में ले लिये गये हैं। कहा जा सकता है, प्रस्तुत प्रकरण त्रिपिटकों में निगण्ठ व निगण्ठ नातपुत्त विषयक प्रसंगों' का भरा-पूरा और प्रामाणिक आकलन बन गया है, जो सम्बन्धित विषय के पाठकों व गवेषकों के लिए महत्त्वपूर्ण और उपयोगी सिद्ध हो सकता है। वर्गीकरण व भाषा प्रसंग मूल रूप में प्रकीर्ण हैं। प्रस्तुत आकलन में उन्हें तीन विभागों में बांटा गया है१. चर्चा-प्रसंग, २. घटना-प्रसंग और ३. उल्लेख-प्रसंग । इन प्रसंगों की संख्या क्रमशः १३,८ और ३० हैं । समुल्लेखों पर यथास्थान समीक्षात्मक टिप्पण भी दे दिये गये हैं। भाषा की दृष्टि से यह ध्यान तो रखा ही गया है कि अधिक-से-अधिक मूलानुसारी रहे; पर, पुनरुक्ति व विस्तार के भय से बहुत स्थानों पर भावमात्र ले लिया गया है। कुछ एक प्रसंग विविध विषयों से सम्बन्धित थे; उनसे मुख्यतया यहाँ इतना ही अंश लिया गया है, जो निगण्ठ नातपुत्त या निर्ग्रन्थ-धर्म से सम्बन्धित था। समी प्रसंगों के मूल पालि पाठ परिशिष्ट में दिये गये हैं।' 1. चर्चा-प्रसंग 1. सिंह सेनापति एक बार भगवान् वैशाली के महावन की कूटागारशाला में विहार कर रहे थे। उस समय प्रतिष्ठित लिच्छवी संस्थागार में एकत्र हो, बुद्ध धर्म और संघ का गुणोत्कीर्तन कर रहे थे। निगंठों का श्रावक सिंह सेनापति भी वहाँ बैठा था। गुणोत्कीर्तन से वह बहुत प्रभावित हआ। उसने सोचा-"निःसंशय भगवान् बुद्ध अर्हत् सम्यक् सम्बुद्ध होंगे। इसीलिए बहुत सारे प्रतिष्ठित लिच्छवी उनका यशोगान कर रहे हैं। क्यों न मैं भी उन भगवान के दर्शन करूँ?" __ सिंह सेनापति निगंठ नाटपुत्त के पास आया और उन्हें अपने संकल्प से सूचित किया। निगंठ नाटपुत्त ने कहा -"सिंह ! क्रियावादी होते हुए भी तू अक्रियावादी श्रमण गौतम के दर्शनार्थ जाएगा ? वह तो श्रावकों को अक्रियावाद का ही उपदेश करता है।" सेनापति की भावना शान्त हो गई। दूसरी बार फिर एक दिन बहुत सारे प्रतिष्ठित लिच्छवी संस्थागार में एकत्रित हुए। सिंह सेनापति भी वहाँ उपस्थित था। बुद्ध, धर्म और संघ का गुणोत्कीर्तन सुन, वह पुन: प्रभावित हुआ। उसके मन में बुद्ध के दर्शनों की पुनः उत्कण्ठा जागृत हुई। निगंठ नाटपत्त के पास आया और अपनी भावना व्यक्त की। निगंठ नाट पुत्त ने पुनः उसी बात को दुहराया । सेनापति ने बुद्ध के पास जाने का विचार त्याग दिया। तीसरी बार संस्थागार में पुन: वही प्रसंग उपस्थित हुआ। इस बार सिंह सेनापति ने मन-ही-मन विमर्षण १. देखिए, परिशिष्ट.१ । 2010_05 Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा] त्रिपिटकों में निगण्ठ व निगण्ठ नातपुत्त ३५७ किया-"पूछू या न पूछ ? निगंठ नातपुत्त मेरा क्या करगे ? क्यों न मैं उन्हें बिना पूछे ही उन भगवान् के दर्शनार्थ जाऊँ ?" दोपहर को सिंह सेनापति पाँच सौ रथों के साथ बुद्ध के दर्शनार्थ वैशाली से चला। जहाँ तक रथ पहुँच सकते थे, वहाँ तक रथ से और बाद में पैदल ही आराम में प्रविष्ट हुआ। भगवान के पास गया और अभिवादन कर एक ओर बैठ गया। विनम्रता से निवेदन किया"भन्ते ! मैंने सुना है कि श्रमण गौतम अक्रियावादी है, अक्रिया के लिए ही धर्मोपदेश करता है और शिष्यों को उसी ओर ले जाता है । भन्ते ! जो ऐसा कहता है, क्या वह आपके बारे में ठीक कहता है ? मिथ्या ही भगवान् की निन्दा तो नहीं करता ? धर्मानुसार ही धर्म को कहता है ? इस प्रकार के वाद-विवाद से धर्म की निन्दा तो नहीं होती? भन्ते ! हम भगवान् की निन्दा करना नहीं चाहते।" 'सिंह ! इसका कारण है, जिससे मुझे ऐसा कहा जाता है।" 'भन्ते ! इसका क्या कारण है ?" ‘सिंह ! मैं काय-दुश्चरित , वचन-दुष्चरित, मन-दुश्चरित और तथाप्रकार की अनेक बराइयों को अक्रि या कहता हूँ तथा उनके निवारण के लिए जनता को उपदेश देता है। अतः मुझे लोग अक्रियावादी कहते हैं।" सिंह ! 'मुझे बहुत सारे लोग क्रियावादी भी कहते हैं। वे कहते हैं, मैं क्रिया के लिए धर्मोपदेश करता है और उसी ओर श्रावकों को ले जाता हूँ। उसका भी कारण तूने खोजा होगा?" "भन्ते ! मैं उस कारण को जानना चाहता हूँ।" "सिंह ! मैं काय सुचरित, वाक् सुचरित, मन :--सुचरित और तथाप्रकार के अनेक धर्मों की क्रिया कहता हूँ; अत: मुझे लोग क्रिया वादी कहते हैं। इसी प्रकार मुझे उच्छेदवादी, जुगुप्सु, वैनयिक तपस्वी व अपगर्भ भी कहते हैं।" "सिंह! मुभे अस्ससंत (आश्व संत) भी कहते हैं । उसका तात्पर्य है, मैं परम आश्वास से आश्वासित हूँ। आश्वास के लिए धर्मोपदेश करता हूँ और आश्वास के मार्ग से ही श्रावकों को ले जाता हूँ।" सिंह सेनापति के मुख से सहसा उदान निकला- "आश्चर्य भन्ते ! आश्चर्य भन्ते ! मुभे आप उपासक स्वीकार करें।" बुद्ध ने उत्तर दिया--"सिंह ! सोच-समझ कर कदम उठाओ। तुम्हारे जैसे सम्भ्रान्त व्यक्ति के लिए सोच-समझ कर ही निश्चय करना उचित है।" सिंह सेनापति बोला-"मन्ते! भगवान् के इस कथन से मैं और भी सन्तुष्ट हुआ हूँ। दूसरे तैर्थिक तो मेरे जैसा शिष्य पाकर फूले नहीं समाते हैं । सारी वैशाली में पताका उड़ाते हैं-'सिंह सेनापति हमारा शिष्य (श्रावक) हो गया है। किन्तु भगवान् तो मुझे यह परामर्श देते हैं—सिंह ! सोच समझ कर ही ऐसा करो।' भन्ते ! मैं दूसरी बार भगवान् की शरण जाता हूँ, धर्म व भिक्षु-संध की शरण जाता हूँ।" ___ "सिंह ! तेरा घर दीर्घ काल से निगंठों के लिए प्याऊ की तरह रहा है। तेरे घर आने पर उन्हें पिण्ड न देना चाहिए, ऐसा मत समझना।" ____ 2010_05 Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड : १ "भन्ते ! इससे मैं और भी प्रसन्न मन, सन्तुष्ट और अभिरत हुआ हूँ। मैंने सुना था, श्रमण गौतम कहता है- 'मुझे ही दान देना चाहिए।' किन्तु भगवान् तो मुझे निगंठों को भी दान देने के लिए कहते हैं । भन्ते ! हम भी उपयुक्त समझते हैं। मैं तीसरी बार भगवान् की शरण ग्रहण करता हूँ।" गौतम बुद्ध ने सिंह सेनापति को आनुपूर्वी कथा कहते हुए दान-शील व स्वर्ग-कथा, कामभोगों के दोष, अपकार व क्लेश, और निष्कामता का माहात्म्य प्रकाशित किया। बुद्ध ने जब सिंह सेनापति को अरोग-चित्त, मृदु-चित्त, अनाच्छादित-चित्त, उदग्र-चित्त, प्रसन्न-चिर्स जाना, तो बुद्धों की स्वयं उठाने वाली धर्म-देशना से उसे प्रकाशित किया। शुद्ध वस्त्र जिस प्रकार सहजता से रंग पकड़ लेता है, उसी प्रकार सिंह सेनापति को उसी आसन पर विमल, विरज धर्म-चक्षु उत्पन्न हुआ। सिंह सेनापति दृष्ट-धर्म, प्राप्त-धर्म, विदित-धर्म, पर्यवगाढ़-धर्म, संदेह-रहित, वादविवाद-रहित, विशारदता-प्राप्त, शास्ता के शासन में स्वतंत्र हो भगवान् से बोला"भन्ते ! भिक्षु-संघ के साथ मेरा कल का भोजन स्वीकार करें।" गौतम बुद्ध ने मौन के साथ उस निमंत्रण को स्वीकार किया । सिंह सेनापति आसन से उठा और अभिवादन कर व प्रदक्षिणा कर चला गया। सिंह सेनापति ने अपने एक अनुचर को निर्देश दिया-'यदि कहीं तैयार मांस मिलता हो तो ले आ।" रात बीतने पर वह स्वयं उठा । उत्तम भोजन तैयार करवाये और भगवान् को काल की सूचना दी। पूर्वाह्न के समय बुद्ध चीवर पहन, पात्र-चीवर ले सिंह सेनापति के घर आये। भिक्षु-संघ के साथ बिछे आसन पर बैठे। उस समय बहुत सारे निगंठ (जैन-साधु ) वैशाली के राजमार्गों व चौराहों पर ऊर्ध्व बाहु होकर चिल्ला रहे थे- सिंह सेनापति ने आज एक बहुत बड़े पशु को मार कर श्रमण गौतम के लिए भोजन बनाया है । श्रमण गौतम जान-बूझकर अपने ही उद्देश्य से बनाये गये उस मांस को खाता है।" शहर में इस उदन्त को सुनकर एक पुरुष सिंह सेनापति के पास गया। उसके कान में सारी बात कही। सिंह सेनापति ने उपेक्षा दिखाते हुए कहा-"जाने दो आर्य ! ये आयुष्यमान् (निगंठ) चिरकाल से बुद्ध, धर्म व संघ की निन्दा चाहने वाले हैं। ये भगवान की असत, तुच्छ, मिथ्या निन्दा करते हुए भी नहीं शरमाते। हम तो अपने लिए भी जान-बूझकर किसी का प्राण-वियोजन नहीं करेंगे।" सिंह सेनापति ने बुद्ध-सहित भिक्षु-संघ को अपने हाथों उत्तम भोजन परोसा । उन्हें सन्तर्पित कर परिपूर्ण किया। पात्र से हाथ खींच लेने पर सिंह सेनापति एक ओर बैठ गया। बुद्ध ने उसे धार्मिक कथा द्वारा संदर्शित किया और आसन से उठकर चल दिये। भिक्षओं को सम्बोधित करते हुए बुद्ध ने कहा- "जान-बूझकर अपने उद्देश्य से बने मांस को नहीं खाना चाहिए। जो खाये, उसे दुक्कट का दोष। भिक्षुओ, अदृष्ट, अश्रुत व अपरिशंकित; इन तीन कोटि से परिशुद्ध मांस खाने की मैं अनुज्ञा देता है।" विनयपिटक महावग्ग, भैषज्य खन्धक, ६-४-८ के आधार से ____ 2010_05 Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा] त्रिपिटकों में निगण्ठ व निगण्ठ नातपुत्त ३५९ समीक्षा सिंह सेनापति और तथाप्रकार के उदन्त का आगम-साहित्य में कहीं आभास नहीं मिलता। महावीर के किसी अनुयायी का बुद्ध की शरण में आ जाना और बुद्ध के किसी अनुयायी का महावीर की शरण में आ जाना, कोई अद्भुत व असम्भव बात नहीं है, पर, जनपरम्परा में इस घटना का यत्किचित् भी समुल्लेख होता तो वह पूर्णतया ही ऐतिहासिक रूप ले लेती। असंभव की कोटि में मानने का तो अब भी कोई आधार नहीं है। गजराती साहित्यकार श्री जय भिक्खू ने अपने ऐतिहासिक उपन्यास नरकेसरी में सिंह सेनापति को महावीर के परम अनुयायी चेटक होने की सम्भावना व्यक्त की है, पर, वह यथार्थ नहीं है।' सिंह सेनापति का विस्तृत वर्णन बौद्ध साहित्य में भी नहीं मिलता। इस घटना-प्रसंग के अतिरिक्त उसका नामोल्लेख अंगुत्तर निकाय में बुद्ध से की गई दान-सम्बन्धी चर्चा में आता है या थेरीगाथा में सिंहा भिक्खुणी के पितृव्य के रूप में आता है। उक्त प्रकरण में महावीर को क्रियावादी व्यक्त किया गया है। क्रियावाद शब्द उस समय में बहुत व्यापक अर्थ का वाची रहा है । क्रियावाद, अक्रियावाद, अज्ञानवाद और विनयवाद के ३६३ भेद जैन परम्परा में माने गए हैं। पर, क्रियावाद और अक्रियावाद के इन भेदों में महावीर का अभिमत नहीं है। वे सब पर-मत की चर्चा हैं। महावीर को जो क्रियावादी कहा गया है, अपेक्षा-भेद से यह भी यथार्थ माना जा सकता है। इसका आधार सूयगडांग से मिलता है। वहाँ बताया गया है कि जो आत्मा को जानता है, जो लोक को जानता है, जो गति और अन्तर्गति को जानता है, जो नित्य-अनित्य, जन्म-मरण और प्राणियों के गति-क्रम को जानता है, जो सत्त्वों की वेदना को जानता है, जो आश्रव और संवर को जानता है. जो दुःख को तथा निर्जरा को जानता है, वही क्रियावाद को यथार्थ रूप से कह सकता है। जो इन तत्त्वों को जानता है अर्थात् स्वीकार करता है, वही क्रियावादी है। इसी प्रकार आयारंग १. विशेष चर्चा देखें, 'अनुयायी राजा' प्रकरण के अन्तर्गत 'चेटक' । २. The Book of Gradual Sayings. Vol III, p. 38; Vol. IV, p. 69. ३. थेरीगाथा ७७-८१। ४. सूयगडांग, श्रु० १, गा० १, नियुक्ति गा० ११६-१२१ । अत्ताण जो जाणति जो य लोग, गइंच जो जाणइ णागई च । जो सासयं जाण असासयं च, जातिं च मरणं च जणोववायं ।। अहोऽवि सत्ताण विउट्ठणं च, जो आसवं जाणति संवरं च । दुक्खं च जो जाणति निज्जरं च, सो भासिउमरिहइ किरियवादं । सूयगडांग, श्रु० १, अ० १२, गा० २०.२१ । ६. 'यश्चैतान् पदार्थान् ‘जानाति' अभ्युपगच्छति स परमार्थतः क्रियावादं जानाति ।' सूयगडांग वृत्ति, श्रु० १, अ० १२, गा० २१ । ____ 2010_05 Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड : १ में आत्मवादी को क्रियावादी कहा है।' वस्तुतः तो भगवान महावीर अनेकान्तवादी थे । उनका दर्शन तो आहेसु विज्जाचरणं पमोक्खं की उक्ति में व्यक्त होता है, जिसका हार्द है, ज्ञान और क्रिया की युगपत् स्थिति में ही मोक्ष की सम्भावना है। - उक्त प्रसंग में बुद्ध ने भी तो मनो-दुश्चरित, मन:-सुचरित आदि के अपेक्षा-भेद से स्वयं को क्रियावादी और अक्रियावादी दोनों ही बताने का प्रयत्न किया है। बौद्ध भिक्षु और भिक्षुणियों के लिए मांसाहार का स्पष्ट विधान इसी घटना-प्रसगै से बना है। अदृष्ट, अश्रुत व अपरिशंकित मांस को बुद्ध ने ग्राह्य कहा है । निगंठों ने यहाँ उद्दिष्ट मांस का विरोध किया है । आर्द्रककुमार प्रकरण में भी उद्दिष्ट मांस को गहस्पिद कहा है। 2. गृहपति उपालि एक समय भगवान् बुद्ध नालन्दा में प्रावारिक के आम्र-वन में विहार करते थे। उस समय निगण्ठ नातपुत्त भी निगंठों (जन-साघुओं) की महती परिषद् के साथ नालन्दा में विहार कर रहे थे। एक दीर्घ तपस्वी निर्ग्रन्थ नालन्दा में भिक्षाचार कर, पिण्डपात समाप्त कर प्रावारिक के आम्र-वन में बुद्ध के पास आया। उन्हें कुशल-प्रश्न पूछा और एक ओर खड़ा हो गया। दीर्घ तपस्वी निर्ग्रन्थ से बुद्ध ने कहा-"तपस्विन् ! आसन तैयार है, यदि इच्छा हो तो बैठ जाओ।" दीर्घ तपस्वी एक नीचा आसन लेकर एक ओर बैठ गया। बद्ध ने उससे कहा-"पाप कर्म करने के लिए, पाप-कर्म की प्रवृत्ति के लिए निर्ग्रन्थ नातपुत्त कितने कर्मों का विधान करते हैं?" "आवस गौतम ! 'कर्म' का विधान करना निर्ग्रन्थ ज्ञातपुत्र की परम्परा के विरुद्ध है। वे तो 'दण्ड' का ही विधान करते हैं।" __ "तपस्विन् ! तो पाप-कर्म की प्रवृत्ति के लिए निगंठ नातपुत्त कितने 'दण्ड' का विधान करते हैं ?" “गौतम ! वे काय-दण्ड, वचन-दण्ड और मन-दण्ड; इन तीन दण्डों का विधान करते हैं।" "तपस्विन् ! क्या वे भिन्न-भिन्न हैं ?" "हाँ, गौतम ! वे भिन्न-भिन्न हैं।" १. से आयावादी लोयावादी किरियावादी कम्मवादी । -आयारंग ॥११० २. सूयगडांग श्रु० १, अ० १२, गा० ११ । ३. थूल उरब्भं इह मारियाणं, उदिट्ठभत्तं ए पगप्पएत्ता। सूयगडांग, श्रु० २, अ० ६, गा० ३७ । ____ 2010_05 Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा] त्रिपिटकों में निगण्ठ व निगण्ठ नातपुत्त ३६१ 'तपस्विन् ! तीन दण्डों में से निगण्ठ नातपुत्त ने किस दण्ड को महादोष-युक्त कहा है?" "आवुस गौतम! काय-दण्ड को।" "तपस्विन् ! काय-दण्ड को !" "आवुस गौतम ! हो, काय-दण्ड को।" गौतम बुद्ध ने तपस्वी निर्ग्रन्थ से वही प्रश्न तीन बार पूछा और तपस्वी ने वही उत्तर दिया। इस प्रकार बुद्ध ने तपस्वी निर्ग्रन्थ को एक ही कथा-वस्तु में तीन बार प्रतिष्ठापित किया। दीर्घ तपस्वी निर्ग्रन्थ ने बुद्ध से पूछा-"आवुस गौतम ! पाप-कर्म करने के लिए, पाप कर्म की प्रवृत्ति के लिए तुम कितने 'दण्ड' का विधान करते हो?" ___ "तपस्विन् ! 'दण्ड' का विधान करना तथागत की परम्परा के विरुद्ध है। वे तो 'कर्म' का ही विधान करते हैं।" "आवस गौतम ! तुम कितने कर्मों का विधान करते हो?" "तपस्विन् ! मैं तो तीन कर्म बतलाता हूँ-काय-कर्म, वचन-कर्म और मन-कर्म।" "क्या वे भिन्न-भिन्न हैं ?" "हाँ, वे भिन्न-भिन्न हैं।" "इस प्रकार विभक्त इन तीन कर्मों में तुम किसको महादोषी ठहराते हो ?" "मन-कर्म को महादोषी बतलाता हूँ।" "मन-कर्म को?" "हां, मन-कर्म को।" तपस्वी निर्ग्रन्थ ने बुद्ध से वही प्रश्न तीन बार पूछा और बुद्ध ने वही उत्तर दिया। इस प्रकार तपस्वी निर्ग्रन्थ ने बुद्ध को उसी कथा-वस्तु (विवाद) में तीन बार प्रतिष्ठापित किया। वहाँ से उठा और निगंठ नातपुत्त के पास चला आया। निगंठ नातपुत्त उस समय महती गृहस्थ.परिषद् से घिरे थे । बालक लोणकार-निवासी उपालि भी उसमें उपस्थित था। दूर से आते हुए दीर्घ तपस्वी निर्ग्रन्थ को देख कर निगंठ नातपुत्त ने पूछा-"तपस्विन् ! मध्याह्न में तू कहां से आ रहा है ?" "भन्ते । श्रमण गौतम के पास से आ रहा हूँ।" "श्रमण गौतम के साथ क्या तेरा कुछ कथा-संलाप हुआ ?" "हो, भन्ते !" निगंठ नातपुत्त के निर्देश से दीर्घ तपस्वी निर्ग्रन्थ ने वह सारा कथा-संलाप सुनाया। निगंठ नातपुत्त ने दीर्घ तपस्वी निम्रन्थ को साधुवाद देते हुए उसके पक्ष का प्रबल समर्थन किया और कहा-"शास्ता के शासन (उपदेश) का सम्यग् ज्ञाता, बहुश्रुत श्रावक काय-दण्ड को ही महादोषी बतलायेगा; वचन-दण्ड व मन-दण्ड को उस श्रेणी में नहीं।" उपालि गृहपति ने भी निगंठ नातपुत्त के कथन का समर्थन किया और दीर्ष तपस्वी निर्ग्रन्थ को साधुवाद दिया। साथ ही उसने यह भी कहा-"भन्ते ! यदि आप अनुज्ञा दें, तो मैं जाऊँ और इसी कथा-वस्तु में श्रमण गौतम के साथ शास्त्रार्थ करूं ? श्रमण गौतम ने 2010_05 Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम और त्रिपिटकों में निगण्ठ नातपुत्त [खण्ड : १ दीर्घ तपस्वी निम्रन्थ के समक्ष जिस प्रकार अपने पक्ष का समर्थन किया, वैसे ही यदि यह मेरे सामने करेगा, तो जैसे कोई बलिष्ठ पुरुष भेड़ के लम्बे-लम्बे केशों को पकड़ कर उसे निकालता है, घुमाता है, फफेड़ता है; उसी प्रकार मैं उसके वाद को निकालूंगा, घुमाऊँगा और फफेडूंगा। भन्ते ! जैसे कोई शौण्डिक कर्मकर शौण्डिका-किलंज को तालाब में फेंक कर उसके कानों को पकड़ कर निकालता है, घुमाता है, डुलाता है ; उसी प्रकार मैं श्रमण गौत्तम के वाद (सिद्धान्त) को निकालूंगा, घुमाऊँगा और डुलाऊँगा । साठ वर्षीय पुष्ट हाथी गहरी पुष्करिणी में घुस कुर जैसे सन-धोवन खेल खेलता है, वैसे ही मैं श्रमण गौतम को सन-धोवन खेल खिलाऊँगा । आप मुझे अनुज्ञा दें । मैं जाता हूँ और शास्त्रार्थ करता हूँ।" निमंठ नातपुत्त ने उपालि को सहर्ष अनुज्ञा दी और शास्त्रार्थ की प्रेरणा दी। साथ ही उन्होंने एक प्रश्न भी उपस्थित कर दिया - "गृहपति ! गौतम के साथ मैं शास्त्रार्थ करूँ, दीर्व तपस्वी निर्ग्रन्थ करे या तू करेगा?" दीर्घ तपस्वी निम्रन्थ ने प्रस्ताव रखा- "भन्ते ! गृहपति उपालि का श्रमण गौतमके पास जाना और शास्त्रार्थ करना उचित नहीं है। वह मायावी है। आवर्तनी माया के माध्यम से वह मति-भ्रम कर देता है और दूसरे तैथिकों के श्रावकों को अपने प्रभाव में ले लेता है।" निगंठ नातपुत्त ने उस प्रस्ताव का विरोध करते हुए कहा-"तपस्विन् ! यह संभव नहीं है कि- गृहपति उपालि श्रमण गौतम का श्रावक हो जाए । मुझे तो यही संभव लगता है कि श्रमण गौतम ही गृहपति उपालि का श्रावक हो जाए।" गृहपति उपालि की ओर अभिमुख होकर उन्होंने निर्देश दिया- गृहपति ! जाओ और श्रमण गौतम के साथ शास्त्रार्थ करो।" उपालि ने उस निर्देश को सहर्ष शिरोधार्य किया और निगंठ नातपुत्त को अभिवादन व प्रदक्षिणा कर प्रावारिक आम्र-वन में भगवान् बुद्ध के पास आया। अभिवादन कर एक ओर बैठ गया। उपालि द्वारा पूछे जाने पर बुद्ध ने दीर्घ तपस्वी निम्रन्थ के साथ हुए सारे कथा-संलाप-को सविस्तार सुनाया। उपालि ने कहा-"यह ठीक ही है । यह निर्जीव मनदण्ड महान् काय-दण्ड के समक्ष नगण्य है। पाप-कर्म की प्रवृत्ति के लिए काय-दण्ड ही महादोषी है।" गृहपति ! यदि तू सत्य में स्थिर होकर मंत्रणा करे तो हम दोनों का संलाप हो।" "भन्ते ! मैं सत्य में स्थिर हूँ। आप आरम्भ करें।" “गृहपति ! भयंकर रोग से ग्रस्त, शीतल जल का परित्यागी व ऊष्ण जल का सेवी एक निमंठ पानी के अभाव से काल-कवलित हो जाता है, तो निगंठ नातपुत्त उसकी पुनः उत्पत्ति कहां बतलायेंगे ?' "मन्ते ! वह निगंठ मनः-सत्त्व देवालय में उत्पन्न होगा; क्योंकि वह मन से बंधा मृत्यु प्राप्त हुआ है।" - "गृहपति ! थोड़ा चिन्तन कर। तेरे पूर्व पक्ष से यह पक्ष और इस पक्ष से पूर्व पक्ष बाधित होता है।" 2010_05 Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा ] त्रिपिटकों में निगण्ठ व निगण्ठ नातपुत्त ३६३ अपने पक्ष के समर्थन में श्रमण गौतम ने आगे कहा- "गृहपति ! चातुर्याम' संवर से संवृत्त, सर्व वारि के निवारण में तत्पर एक निर्ग्रन्थ गमनागमन में बहुत सारे छोटे-छोटे प्राणि समुदाय को मारता है । निगंठ नातपुत्त इसका क्या फल बतलाते हैं ?' " " "भन्ते ! निगंठ नातपुत्त अज्ञात को महादोषी नहीं कहते ।' "यदि ज्ञात हो तो ?" “भन्ते ! तब महादोष होगा ।" "निगंठ नातपुत्त ज्ञान की गणना किस दण्ड में करते हैं ?" "भन्ते ! मन दण्ड में ।" "गृहपति ! थोड़ा चिन्तन कर । तेरे पूर्व पक्ष से यह पक्ष और इस पक्ष से पूर्व पक्ष बाधित होता है ।" एक अन्य युक्ति प्रस्तुत करते हुए गौतम बुद्ध ने कहा- " गृहपति ! एक पुरुष नंमी तलवार लेकर आये और कहे- 'नालन्दा के सभी नागरिकों को एक ही क्षण व एक ही मुहूर्त में मैं प्रेत्य-धाम पहुँचाऊँगा और खलियान में उनके मांस का एक ढेर बनाऊँगा ।" गृहपति ! क्या वह व्यक्ति ऐसा कर सकता है ?" "भन्ते ! दस-बीस, चालीस-पचास व्यक्ति भी ऐसा नहीं कर सकते, वह एक पामर व्यक्ति क्या कर सकेगा ?" "गृहपति ! एक बुद्धिमान् श्रमण या ब्राह्मण आये, जिसने अपने चित्त को वश में किया है, और कहे - " मैं इस नालन्दा को मानसिक क्रोध से भस्म कर दूंगा, तो क्या वह ऐसा कर सकता है ?" " भन्ते ! एक नालन्दा ही क्या ; इस प्रकार के पचासों नगरों को वह भस्म कर सकता है ।" गृहपति ! थोड़ा चिन्तन कर क्या तेरा यह कथन पूर्व पक्ष से मेल खाता है ?" गौतम बुद्ध ने अपने पक्ष के समर्थन में एक अन्य उपमा प्रस्तुत करते हुए उपालि से पूछा - "गृहपति ! तू ने दण्डकारण्य, कलिंगारण्य, मेध्यारण्य, मातंगारण्य की घटनाएँ सुनी हैं ? वे अरण्य किस प्रकार हुए ?" "भन्ते ! ऋषियों के मानसिक कोप के श्राप से ।" गृहपति ! तेरे ही कथन से तेरा पक्ष बाधित होता है और मेरा पक्ष प्रमाणित । तूने महले कहा था- सत्य में स्थिर होकर मंत्रणा करूंगा । तू अपनी प्रतिज्ञा का स्मरण कर ।" "भन्ते ! भगवान् की प्रथम उपमा से ही मैं सन्तुष्ट और अभिरत हो गया था । पटिभान (विचित्र प्रश्नों के व्याख्यान) को और अधिक सुनने के अभिप्राय से मैंने आपको प्रतिवादी बनाया था । आश्चर्य भन्ते ! आश्चर्य भन्ते ! जैसे उलटे को सीधा कर दे, आवृत्त १. (क) प्राणियों की हिंसा न करना, न करवाना और न अनुमोदन करना; (ख) चोरी न करना, (ग) झूठ न बोलना, (घ) भावित ( कामभोग) न चाहना । २. सचित्त शीतल जल या पाप रूपी जल । 2010_05 Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड:१ को अनावृत्त कर दे, मार्ग-विस्मृत को मार्ग बता दे, अन्धेरे में तेल का दीपक दिखा दे, जिससे सनेत्र देख सकें; उसी प्रकार भगवान् ने अनेक प्रकार से धर्म को प्रकाशित किया है । मैं भगवान् की शरण ग्रहण करता हूँ, धर्म व भिक्षु-संघ की भी। आज से मुझे अञ्जलि-बद्ध शरणागत स्वीकार करें।" बुद्ध ने कहा- "गृहपति ! सोच-समझ कर कदम उठाओ। तुम्हारे जैसे सम्भ्रान्त व्यक्ति के लिए सोच-समझ कर ही निश्चय करना उचित है।" भन्ते ! भगवान् के इस कथन से मैं और भी प्रसन्न-मन, सन्तुष्ट और अभिरत हुआ हैं। मन्ते ! दूसरे तंर्थिक तो मेरे जैसा श्रावक पाकर फूले नहीं समाते। सारे नालन्दा में पताका उड़ाते फिरते हैं-'उपालि गृहपति हमारा श्रावक हो गया है ।' किन्तु, भगवान् तो मझे सोच-समझ कर ही कदम उठाने का परामर्श देते हैं। भन्ते ! मैं दूसरी बार भगवान की शरण जाता है, धर्म व भिक्षु-संघ की शरण जाता हूँ। "गहपति ! तेरा घर दीर्घ-काल से निगंठों के लिए प्याऊ की तरह रहा है । घर आने पर उन्हें पिण्ड न देना चाहिए, ऐसा मत समझना।" "मन्ते ! इससे मै और ही प्रसन्न-मन, सन्तुष्ट और अभिरत हुआ हूँ। मैंने सुना था, श्रमण गौतम कहता है--'मुझे ही दान देना चाहिए, दूसरों को नहीं । मेरे ही श्रावकों को दान देना चाहिए, अन्य को नहीं। मुझे व मेरे श्रावकों को ही दान देने का महाफल होता है, दूसरों को देने से नहीं।' किन्तु, भगवान् तो मुझे निगंठों को भी दान देने के लिए कहते हैं। भन्ते ! हम भी इसे उपयुक्त समझते हैं। मैं तीसरी बार भगवान् की शरण जाता हूँ, धर्म व भिक्षु-संघ की भी।" गौतम बुद्ध ने गृहपति उपालि की आनुपूर्वी कथा कही। शुद्ध वस्त्र जिस प्रकार सहजता से रंग पकड़ लेता है, उसी प्रकार उपालि को उसी आसन पर विमल विरज धर्मचक्ष उत्पन्न हुआ। गौतम बुद्ध से अनुमति लेकर उपालि अपने घर आया। अपने द्वारपाल को उसने निर्देश दिया-"सौम्य ! आज से मैं निगंठों और निर्गठियों के लिए अपना द्वार बन्द करता हैं। भगवान् के भिक्षु-भिक्षुणी, उपासक और उपासिकाओं के लिए द्वार खोलता हूँ। यदि कोई निर्ग्रन्थ आये तो उसे द्वार पर रोक कर स्पष्ट शब्दों में मेरा यह निर्देश सुना देना। यदि वे पिण्ड चाहते हों तो उन्हें द्वार पर ही रोके रहना और घर से लाकर वहाँ दे देना।" दीर्घ तपस्वी निर्ग्रन्थ ने जब यह सुना कि गृहपति उपालि श्रमण गौतम का श्रावक हो गया है, तो वह निगंठ नातपुत्त के पास आया और उन्हें सारी घटना सुनाई। निगंठ नातपुत्त ने दृढ़ता के साथ अपने उसी अभिमत को दुहराते हुए कहा- “गृहपति उपालि श्रमण गौतम का उपासक हो जाए, यह असम्भव है। श्रमण गौतम ही उसका श्रावक हो जाए, यही सम्भव है।" दीर्घ तपस्वी निर्ग्रन्थ ने अपने अभिमत को तीन बार दुहराया और निगंठ नातपुत्त ने अपने अभिमत को। दीर्घ तपस्वी निगंठ नातपुत्त से अनुमति लेकर यह जानने के लिए कि ___ 2010_05 Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा] त्रिपिटकों में निगण्ठ व निगण्ठ नातपुत्त उपालि श्रमण गौतम का श्रावक बना या नहीं, गृहपति के घर आया। द्वारपाल ने उसे वहीं रोका और कहा-'गृहपति उपालि आज से श्रमण गौतम का श्रावक हो गया है । उसने निगंठों की उपासना छोड़ दी है। यदि तुम्हें पिण्ड चाहिए, तो यहीं ठहरो। हम यहीं ला "मुझे पिण्ड नहीं चाहिए' ; यह कहता हुआ दीर्घ तपस्वी निर्ग्रन्थ वापस मुड़ गया और निगंठ नातपुत्त के पास आया। उसने सविस्तार उक्त घटना सुनाते हुए कहा-"भन्ते ! मैंने पहले ही कहा था कि गृहपति उपालि को गौतम के साथ शास्त्रार्थ करने के लिए न भेजें। वह आवर्तनी माया जानता है । भन्ते ! वही हुआ । उपालि को श्रमण गौतम ने अपना श्रावक बना ही लिया है।" निगंठ नातपुत्त ने अपने उसी मत को दुहराते हुए कहा-"तपस्विन् ! यह असम्भव है। उपालि श्रमण गौतम का श्रावक नहीं हो सकता। श्रमण गौतम ही उसका श्रावक हो सकेता है।" दीर्घ तपस्वी निर्ग्रन्थ ने कहा-"भन्ते ! ऐसा नहीं है। वह तो उनका श्रावक हो गया है । मैं उसके घर से अभी लौटा हूँ। उसके दौवारिक ने मुझे स्पष्ट कहा है।" दीर्घ तपस्वी निग्रंन्थ ने अपनी बात को दो-तीन बार दुहराया और निगंठ नातपुत्त ने अपनी बात को। अन्ततः निगंठ नातपुत्त ने तपस्वी से कहा- "तो मैं जाता हूँ और स्वयं ही यह जानने का प्रयत्न करूँगा कि उपालि श्रमण गौतम का श्रावक बना या नहीं ?" निगंठ नात पुत्त निर्ग्रन्थों की महती परिषद् के साथ उपालि गृहपति के घर गए। द्वार. पाल ने दूर से आते हुए उन्हें देखा। आगे आकर मार्ग रोकते हुए उन्हें कहा-"भन्ते ! घर में प्रवेश न करें । गृहपति उपालि अब से श्रमण गौतम का श्रावक हो गया है। यदि पिण्ड चाहिए तो हम यहीं ला देंगे।" निगंठ नातपुत्त ने कहा- "तुम गृहपति उपालि के पास जाओ और उसे सूचित करो, निगंठ नातपुत्त एक महत्ती निर्ग्रन्थ परिषद् के साथ द्वार के बाहर खड़े हैं और आपको देखना चाहते हैं।" दौवारिक ने शीघ्रता से गृहपति उपालि को सूचना दी। उपालि ने दौवारिक को मा-शाला में आसन बिछाने का निर्देश दिया। दोवारिक ने वैसा ही किया । उपालि वहाँ माया और श्रेष्ठ व उत्तम आसन पर स्वयं बैठा । दौवारिक से कहा-"निगंठ नातपुत्त चाहें, तो उन्हें प्रवेश करने दो।" द्वारपाल का संकेत पाकर निगंठ नातपुत्त महती परिषद् के साथ मध्य-शाला में आये। निगंठ नातपुत्त जब कभी गृहपति उपालि के घर आते थे, तो वह दूर से उन्हें देखते ही • उनके स्वागत में दौड़ पड़ता था। श्रेष्ठ व उत्तम आसनों को चद्दर से स्वयं पोंछ कर उन्हें उन पर बैठाता था। आज उनके आगमन पर वह न खड़ा हुआ, न उनका स्वागत किया और न श्रेष्ठ व उत्तम आसनों के लिए उन्हें निवेदन ही किया। स्वयं बैठा ही रहा और निगंठ नातपुत्त जब समीप आये, तो सामान्य आसनों की ओर संकेत करते हुए केवल इतना ही कहा-“मन्ते ! आसन तैयार है, यदि चाहें, तो बैठे।" ____ 2010_05 Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६६ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड : १ निगंठ नातपुत्त ने उपालि से कहा- "गृहपति ! तू उन्मत्त हो गया है ? जड़ हो गया है ? तू ने मुझे कहा था, 'मैं बुद्ध के पास शास्त्रार्थ करूँगा, उसे परास्त करूँगा और स्वयं बड़े भारी वाद के संघाट (जाल) में फंस कर लौटा है । अण्डकोश-हारक जैसे निकाले हुए अण्डों के साथ और अक्षि-हारक जैसे निकाली हुई अक्षि के साथ लौटता है, वैसे ही गृहपति ! तू श्रमण गौतम के साथ शास्त्रार्थ करने गया था और तू ही स्वयं उसके वाद-संघाट (जाल) में फंस कर लौटा है। श्रमण गौतम ने आवर्तनी माया से तेरी बुद्धि में विभ्रम पैदा कर दिया है। गृहपति ने उत्तर दिया-'भन्ते ! यह आवर्तनी माया सुन्दर है, कल्याणी है, मेरे प्रिय जाति भाई भी यदि इस आवर्तनी माया द्वारा फेर लिए जायें, तो यह उनके चिरकाल तक हित-सुख के लिए होगा। यदि सभी क्षत्रिय, सभी ब्राह्मण, सभी वैश्य, सभी शूद्र, देव-मारब्रह्मा सहित सारा लोक, श्रमण-ब्राह्मण-देव मनुष्य सारी प्रजा इस आवर्तनी माया के द्वारा फेर ली जाये, तो यह चिरकाल तक उनके हित-सुख के लिए होगा।" गृहपति उपालि ने कहा-"भन्ते ! मैं अपने अभिमत को एक उपमा द्वारा और स्पष्ट करना चाहता हूँ। पूर्व काल में किसी जीर्ण महल्लक ब्राह्मण की एक नव वयस्का माणविका पत्नी आसन्न-प्रसवा हुई। उसने ब्राह्मण को कहा-'बाजार से बन्दर के बच्चे का एक खिलौना लाओ। वह मेरे कुमार का खिलौना होगा।' ब्राह्मण ने उत्तर दिया-'कुमार का जन्म होते ही मैं खिलौना ला दूंगा। आप इतनी शीघ्रता क्यों करती हैं ?' किन्तु माणविका ने उसकी एक नहीं सुनी। उसने हठ-पूर्वक अपनी बात को दो-तीन बार दुहराया। ब्राह्मण उसमें अनुरक्त-चित्त था; अत: वह बाजार से मर्कट-शावक का खिलौना ले आया और उसे सौंप दिया। माणविका ने कहा-'आप इसे लेकर रजक-पुत्र के पास जायें और उसे आप पीले रंग से रंगने, मलने व चमक युक्त करने के लिए निर्देश दें।' ब्राह्मण ने वैसा ही किया, किन्तु, रजक-पुत्र ने उसे लौटाते हुए कहा-'यह खिलौना न रंगने के योग्य है, न मलने के योग्य है और न चमक करने योग्य ही।' इसी प्रकार भन्ते ! बाल (नक्त) निगंठों का सिद्धान्त बालों के रंजन के लिए ही है; पण्डितों के लिए नहीं। यह तो न परीक्षा (अनुयोम) के योग्य है और न मीमांसा के योग्य । __ "वही ब्राह्मण एक धुस्सा लेकर रजक-पुत्र के पास गया। उसने उसे रंगने, मलने और चमक-युक्त करने के लिए दिया। रजक-पुत्र ने उसे ले लिया और कहा- "यह तुम्हारा धुस्सा अवश्य रंगने, मलने व चमक करने के भी उपयुक्त है। इसीलिए भन्ते ! उन भगवान् अर्हत् सम्यक् सम्बुद्ध का वाद (सिद्धान्त) पण्डितों के रंजन के योग्य हैं ; बालों के लिए नहीं। वह परीक्षा और मीमांसा के योग्य भी है।" निगंठ नातपुत्त ने कहा- "गृहपति ! राजा और सारी जनता जानती है कि उपालि गृहपति निगंठ नातपुत्त का श्रावक है। अब तुझे किसका श्रावक समझना चाहिए ?" गृहपति तत्काल आसन से उठा। उसने उत्तरासंग को एक कन्धे पर किया। जिस दिशा में भगवान् गौतम थे, उस ओर बद्धाञ्जलि होकर निगंठ नातपुत्त मे बोला-'मैं उन भगवान् का श्रावक हूँ, जो विगतमोह, निर्दुःख, विश्व के तारक, अनुत्तर, क्षेमकर, ज्ञानी, मुक्त, दान्त, आर्य, भावितात्मा, स्मृतिमान्, महाप्राज्ञ, तथागत, सुगत, महान्, उत्तम यशप्राप्त हैं।" ____ 201005 For Private &Personal Use Only Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा] त्रिपिटकों में निगण्ठ व निगण्ठ नातपुत्त ३६७ गपति ! श्रमण गौतम के गण तझे कब ज्ञात हए ?" "भन्ते ! पुष्प-राशि लेकर जैसे कोई माली या उसका शिष्य विचित्र माला गूंथे ; उसी प्रकार मन्ते! वे भगवान अनेक वर्ण (गुण) वाले, अनेक शत वर्ण वाले हैं। मन्ते ! प्रशंसनीय की प्रशंसा कौन नहीं करेगा?" श्रमण गौतम के सत्कार को सह न सकने से निगंठ नातपुत्त के मुंह से गर्म खून निकल आया। -मज्झिम निकाय, उपालि सुत्तन्त, २-१-६ के आधार से समीक्षा ___ उलि नामक कोई वरिष्ठ उपासक महावीर का था, ऐसा उल्लेख आगम साहित्य में कहीं नहीं मिलता है। जैन भिक्षु इतर भिक्षुओं के प्रति कुशल प्रश्न करे, ऐसी भी परम्परा नहीं है। दीर्घ तपस्वी निन्थ और बुद्ध के बीच हुए वार्तालाप और सम्बोधन आदि से यह भी प्रतिध्वनित होता है कि बुद्ध युवा हैं और दीर्घ तपस्वी निर्ग्रन्थ वयोवृद्ध । इससे महावीर का ज्येष्ठ होना और बुद्ध का छोटा होना भी पुष्ट होता है। ___ 'दण्ड' और 'कर्म' की चर्चा में दोनों ही शब्द एक दूसरे के पर्यायवाची हैं। दण्ड शब्द का उपयोग आगमों में भी इसी अर्थ में मिल जाता है।' 'मनः कर्म आदि का जैन परम्परा में कोई विरोध नहीं है। महावीर के मत को एकान्त रूप से कायिक-कर्म-प्रधान बतलाना ययार्थ नहीं है। पाप-पुण्य के विचार में जैन-पद्धति के अनुसार मनः, वचन और काय ; इन तीनों की ही सापेक्षता है। मन:-कर्म की मान्यता के पोषक अनेक आधार जैनपरम्परा में प्रसिद्ध हैं। प्रसन्नचन्द्र राजर्षि का मनोद्वन्द्व, तण्डुल मत्स्य की मानसिक हिंसा, स्कन्दक मुनि का अपने प्राग्भव में काचर (फल विशेष) का छीलना आदि इसके ज्वलन्त उदाहरण हैं। आगम तो यहाँ तक कहते हैं, एकेन्द्रिय प्राणियों के वध में और पंचेन्द्रिय प्राणियों के वध में इन्द्रियों के आधार पर पाप की न्यूनाधिकता कहना, अनार्य वचन है। डॉ. जेकोबी ने उपालि के घटना-प्रसंग पर समीक्षा करते हुए लिखा है-"महावीर का कायिक पाप को बड़ा बताना आगम-सम्मत ही है । सूयगडांग (२, ४ तथा २, ६) में इस अभिमत की पुष्टि मिलती है।"४ डॉ. जेकोबी की यह समीक्षा-यथार्थ नहीं है। क्योंकि वहाँ जो कहा गया है, इसका हार्द इससे अधिक नहीं है कि काय-दण्ड भी एक पाप-बन्ध का प्रिमित्त है और उपहास मनोदण्ड की एकान्तवादिता का किया गया है। इस प्रसंग में निर्ग्रन्थ १. स्थानांग, स्था० ३, सू० १२६ ; आवश्यक सूत्र, चतुर्थ अध्ययन । २. देखिए; 'अनुयायी राजा' प्रकरण के अन्तर्गत 'श्रेणिक बिम्बिसार'। ३. अहिंसा पर्यवेक्षण, पृ०६७। ४. S. B.E. Vol. XLV, introduction, p.XVII. ५. देखें; सम्बन्धित विवरण, समसामयिक धर्म-नायक' प्रकरण के अन्तर्गत 'आईक मुनि।' ___ 2010_05 Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मागम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन को शीतजल का परित्यागी व उष्ण जलसेवी बताया है; जो जन-साधुनों की क्रिया से सुसंगत ही है। ३. अभय राजकुमार एक समय भगवान् राजगृह के वेणु-वन कलन्दक निवाप में विहार करते थे। अभय राजकुमार निगंठ नातपुत्त के पास गया। निगंठ नातपुत्त ने उससे कहा--"राजकुमार ! श्रमण गौतम के साथ शास्त्रार्थ कर, इससे तेरा सुयश फैलेगा। जनता में चर्चा होगी, 'अभय राजकुमार ने इतने महद्धिक श्रमण गौतम के साथ शास्त्रार्थ किया है।" अभय राजकुमार ने निगंठ नातपुत्त से पूछा-"भन्ते ! मैं शास्त्रार्थ का आरम्भ कैसे निगंठ नातपुत्त ने उत्तर दिया-"तुम गौतम बुद्ध से पूछना, 'क्या तथागत ऐसा वचन बोल सकते हैं, जो दूसरों को अप्रिय हो।' यदि श्रमण गौतम स्वीकृति में उत्तर दे तो पूछना, 'फिर पृथग जन (अज्ञ संसारी जीव) से तथागत का क्या अन्तर हुआ? ऐसे वचन तो पृथग् जन भी बोल सकता है ।' यदि श्रमण गौतम नकारात्मक उत्तर दे तो पूछना, 'आपने देवदत्त के लिए यह भविष्यवाणी क्यों की, वह दुर्गतिगामी, नैरयिक, कल्प भर नरकवासी और अचिकित्स्य है । आपके इस कथन से वह कुपित (असन्तुष्ट) हुआ है। इस प्रकार दोनों ओर के प्रश्न पूछने पर श्रमण गौतम न उगल सकेगा, न निगल सकेगा। किसी पुरुष के गले में यदि लोहे की बंसी फंस जाती है तो वह न उगल सकता है, न निगल सकता है। ऐसी ही स्थिति बुद्ध की होगी।" निगंठ नातपुत्त को अभिवादन कर अभय राजकुमार वहाँ से उठा और बुद्ध के पास गया। अभिवादन कर एक ओर बैठ गया। अभय राजकुमार ने समय देख कर सोचा'भगवान् के साथ शास्त्रार्थ करने का आज समय नहीं है। कल अपने घर पर ही शास्त्रार्थ करूँगा।" राजकुमार ने उस समय चार आदमियों के साथ बुद्ध को दूसरे दिन के भोजन का निमंत्रण दिया। बुद्ध ने मौन रह कर उसे स्वीकार किया । अभय राजकुमार अपने राजप्रासाद में चला आया। दूसरे दिन पूर्वाह्न के समय चीवर पहिन कर, पात्र व चीवर लेकर बुद्ध अभय राज. कुमार के घर आये। बिछे आसन पर बैठे। अभय राजकुमार ने बुद्ध को उत्तम खाद्य-मोज्य से अपने हाथ से तृप्त किया। बुद्ध के भोजन कर चुकने पर, पात्र से हाथ हटा लेने पर अभय राजकुमार एक नीचा आसन लेकर एक ओर बैठ गया और शास्त्रार्थ आरम्भ किया। बोला-"भन्ते ! क्या तथागत ऐसा वचन बोल सकते हैं, जो दूसरों को अप्रिय हो ?" बुद्ध ने उत्तर दिया-"राजकुमार ! यह एकान्तिक रूप से नहीं कहा जा सकता।" उत्तर सुनते ही अभय राजकुमार बोल पड़ा-“मन्ते ! निगंठ नष्ट हो गये।" बुद्ध ने साश्चर्य पूछा-"राजकुमार ! क्या तू ऐसे बोल रहा है-'भन्ते ! निगंठ नष्ट हो गए' अभय राजकुमार ने दृढ़ता के साथ कहा-"हाँ, भन्ते ! बात ऐसी ही है। मैं निगंठ नातपुत्त के पास गया था। मुझे आपसे यह दुबारा प्रश्न पूछने के लिए उन्होंने ही प्रेरित ____ 2010_05 Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा ] त्रिपिटकों में निगण्ठ व निगष्ठ नातपुत्त ३६६ किया था। उनका कहना था, इस प्रकार पूछने पर श्रमण गौतम न उगल सकेगा और न निगल सकेगा । " अभय राजकुमार की गोद में उस समय एक बहुत ही छोटा व सुस्त शिशु बैठा था । उसे लक्षित कर बुद्ध ने कहा - "राजकुमार ! तेरे या धाय के प्रमोद से यह शिशु मुख में काठ या ढेला डाल ले तो तू इसका क्या करेगा ?" राजकुमार ने उत्तर दिया- “भन्ते ! मैं उसे निकाल लूंगा । यदि मैं उसे सीधे ही न निकाल सका तो बांये हाथ से सिर पकड़ कर, दाहिने हाथ से अंगुली टेढ़ी कर खून सहित भी निकाल लूंगा; क्योंकि कुमार पर मेरी दया है ।" बुद्ध ने कहा - "राजकुमार ! तथागत अतथ्य, अनर्थ-युक्त और अप्रिय वचन नहीं बोलते । तथ्य सहित होने पर भी यदि अनर्थक और अप्रिय होता है तो तथागत वैसा वचन नहीं बोलते। दूसरों को प्रिय होने पर भी जो वचन अतथ्य व अनर्थक होता है, तथागत उसे भी नहीं बोलते । जिस वचन को तथ्य व सार्थक समझते हैं, वह फिर प्रिय या अप्रिय भी क्यों न हो; कालज्ञ तथागत बोलते हैं; क्योंकि उनकी प्राणियों पर दया है ।" अभय राजकुमार ने कहा - "भन्ते ! क्षत्रिय- पण्डित, ब्राह्मण पण्डित, गृहपतिपण्डित, श्रमण- पण्डित प्रश्न तैयार कर तथागत के पास आते हैं मोर पूछते हैं। क्या आप पहले से ही मन में सोचे रहते हैं, जो मुझे ऐसा पूछेगा, मैं उन्हें ऐसा उत्तर दूँगा ।" बुद्ध ने कहा - "राजकुमार ! मैं तुझे ही एक प्रश्न पूछना चाहता हूं, जैसा जचे, वैसा उत्तर देना। क्या तू रथ के अंग-प्रत्यंग में चतुर है ?" "हाँ मन्ते ! मैं रथ के अंग-प्रत्यंग में चतुर हूँ ।" "राजकुमार ! रथ की ओर संकेत कर यदि तुझे कोई पूछे, रथ का यह कौन-सा अंग-प्रत्यंग है ? तो क्या तू पहले से ही सोचे रहता है, ऐसा पूछा जाने पर मैं ऐसा उत्तर दूंगा या अवसर पर ही यह तुझे मासित होता है ?" "भन्ते ! मैं रथिक हूँ । रथ के प्रत्येक अंग-प्रत्यंग का मैं प्रसिद्ध ज्ञाता हूँ; अतः मुझे उसी क्षण मासित हो जाता है।" "राजकुमार ! इसी प्रकार तथागत को भी उसी क्षण उत्तर भासित हो जाता है; क्योंकि उनकी धर्म - धातु (मन का विषय ) अच्छी तरह सध गई है ।" अभय राजकुमार बोला – “आश्चर्य भन्ते ! अद्भुत मन्ते ! आपने अनेक प्रकार (पर्याय) से धर्म को प्रकाशित किया है। मैं भगवान् की शरण जाता हूँ, धर्म व भिक्षु संघ की मी । आज से मुझे अंजलिबद्ध शरणागत उपासक स्वीकार करें ।" - मज्झिमनिकाय, अभय राजकुमार सुत्तन्त, २-१-८ के आधार से समीक्षा अभय राजकुमार का समीक्षात्मक वर्णन किया जा चुका है।' १. देखें, 'अनुयायी राजा' प्रकरण के अन्तर्गत 'अभयकुमार' । 2010_05 Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड : १ 'अपवान' में भी अभय और महावीर के इसी घटना-प्रसंग का उल्लेख हुआ है। वहां अभय राजकुमार अपने अतीत जीवन की गाथा में महावीर से विलग होकर बुद्ध की शरण में जाने की बात कहता है। उल्लेखनीय यह है कि बुद्ध की स्तुति में भी वह वहाँ कित्तयित्वा जिनवरं, कित्तितो होमि सचदा ही कहता है । ४. कर्म-चर्चा एक समय भगवान् बुद्ध शाक्यों के देवदह निगम में विहार करते थे। भगवान में भिक्षुओं को आमंत्रित किया और उनसे कहा-"कुछ एक श्रमण-ब्राह्मणों का यह सिद्धान्त' है-'यह पुरुष सुख-दु:स्त्र या असुख या अदुःख जो कुछ भी अनुभव करता है, वह पूर्वकृत के कारण ही करता हैं। पूर्वकृत कर्मों का तपस्या द्वारा अन्त करने से व नये कर्मों के अकरण से चिस भविष्य में विपाक-रहित (अनास्रव) हो जाता है। विपाक-रहित होने से कर्म-क्षय, कमसय से दुःख-क्षय, दुख:क्षय से वेदना-क्षय और वेदना-क्षय से सभी दुख निजीर्ण हो जाते हैं। "भिक्षुओं ! उन निगंठों को जब मैं इस सिद्धान्त के बारे में पूछता हूँ, तो वे इसे ठीक बताते हैं । उनसे मैं पुनः पूछता हूँ -- 'क्या तुम यह जानते हो कि हम विगत में थे ही या नहीं थे? हमने विगत में पाप-कर्म किया ही है या नहीं किया है ? अमुक-अमुक पाप-कर्म किया है ? क्या यह भी जानते हो, इतना दु:ख-नाश हो गया है, इतना दुःख-नाश अभी करना है और इतना दुःख-नाश हो जाने पर सब दुःख का नाश हो जायेगा? क्या तुम यह भी जानते हो कि इसी जन्म में अकुशल धर्म का प्रहाण और कुशल धर्म का लाभ होना है ?' निगंठों ने मेरे इन प्रश्नों के उत्तर में अपनी अनभिज्ञता व्यक्त की। तब मैंने उनसे कहा-'जब तुम्हें यह ज्ञात ही नहीं है, तो तुम्हारा यह सिद्धान्त युक्त नहीं है । यदि तुम्हें उपर्युक्त प्रश्नों का ज्ञान होता, तो तुम्हारा सिद्धान्त युक्त हो सकता था। जैसे कोई पुरुष विष से उपलिप्त दृढ़ शर के फन से विद्ध हो जाने पर दुःखद, कटु व तीव्र वेदना का अनुभव करता है, उसके मित्र व सगे-सम्बन्धी उसे शल्य-चिकित्सक के पास ले जाते हैं । चिकित्सक उसके घाव को चीरता है। इससे वह और भी अधिक वेदना का अनुभव करता है। चिकित्सक शलाका से शल्य का परिशोधन करता है । शल्य को निकालता है। इन सभी क्रियाओं में उसे तीव्र वेदना की अनुभूति होती है। घाव पर दवा लगाने से वह क्रमशः नीरोग, सुखी व स्ववशी होकर यथेच्छ घूमने लगता है। उसे यह ज्ञात होता है, मैं शल्य से विद्ध हुआ था और क्रमशः इस प्रकार नीरोग और सुखी हुआ हूँ। यदि इसी प्रकार तुम्हें भी यह ज्ञात होता कि हम पूर्व में थे, पाप-कर्म किये थे और अमुक-अमुक किये थे आदि; तो तुम्हारा सिद्धान्त ठीक होता। किन्तु ऐसा नहीं है। अतः यह सिद्धान्त युक्त नहीं है।' 'निगंठों ने उत्तर में कहा-'आवुस ! निगंठ नातपुत्त सर्वज्ञ ; सर्वदर्शी, अखिल ज्ञानदर्शन को जानते हैं। चलते, खड़े रहते, सोते, जागते सदा-सर्वदा उन्हें ज्ञान-दर्शन उपस्थित रहता है। वे ऐसा कहते हैं—'आवुसो निगंठो ! जो तुम्हारे पूर्वकृत कर्म हैं, उन्हें इस कड़वी १. अपदान, ५५-७-२१६ से २२१ । २. निगंठ नातपुत्त का सिद्धान्त। ____ 2010_05 Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा] त्रिपिटकों में निगण्ठ व निगण्ठ नातपुत्त ३७१ दुष्कर तपस्या से नष्ट करो। इस समय काय, वचन व मन से तुम संवृत्त हो, यह तुम्हारे भविष्य के पाप का अकारण है। इस प्रकार प्राचीन कर्मों की तपस्या से समाप्ति होने पर व नये कर्मों के अनागमन से भविष्य में तुम अनास्रव हो जाओगे। भविष्य में अनास्रव होने से क्रमश: कर्म-क्षय, दुःख-क्षय, वेदना-क्षय और सभी दुःख निर्जीर्ण हो जायेंगे।' यह सिद्धान्त हमें रुचिकर लगता है। इससे हम सन्तुष्ट हैं।" ____ "निगंठों से मैंने कहा--'आवुसो! १. श्रद्धा, २. रुचि, ३. अनुश्रव, ४. आकारपरिवितर्क, ५. दृष्टि-निध्यान-क्षान्ति; ये पाँच धर्म इसी जन्म में दो विपाक वाले हैं। अतीत अंशवादी शास्ता (निगंठ नातपुत्त ) में क्या आपकी श्रद्धा, रुचि, अनुश्रव, आकार परिवितर्क और दष्टि-निध्यान-शान्ति है ?' भिक्षुओ ! निगंठों के पास मैं इसका भी कोई वाद-परिहार नहीं देखता। "भिक्षुओ ! उन निगंठों से मैं फिर पूछता हूँ-'जिस समय तुम्हारा उपक्रम तीव्र होता है, उस समय उस उपक्रम-सम्बन्धी दुःखद, तीन व कटुक वेदना का अनुभव करते हो ? जिस समय तुम्हारा उपक्रम तीव्र नहीं होता, उस समय उस उपक्रम-सम्बन्धी दु:खद, तीव्र व कटुक वेदना का अनुभव करते हो ?' निगंठ मुझे उत्तर देते हैं-'जिस समय हमारा उपक्रम तीव्र होता है, उस समय हम उस उपक्रम-सम्बन्धी दुःखद, तीव्र व कटुक वेदना का अनुभव करते हैं और जिस समय उपक्रम तीव्र नहीं होता, उस समय हम तीव्र वेदना का अनुभव नहीं करते।' निगंठों के इस कथन व उपर्युक्त सिद्धान्त में विरोध बताते हुए मैंने उनसे कहा-'उपक्रम की तीव्रता से वेदना में तीव्रता की अनुभूति का होना और तीव्रता के अभाव में वैसा न होना; यदि तुम यही अनुभव करते हो तो अविद्या, अज्ञान व मोह से उस सिद्धान्त को उल्टा समझ रहे हो।' भिक्षुओ ! निगंठों की ओर से इसका भी मुझे कोई उत्तर नहीं मिला। __ "भिक्षओ ! मैंने उनसे और भी कई प्रश्न पूछे और उन्होंने सब में ही अनभिज्ञता व्यक्त की। मैंने उनसे पूछा-'निगंठो ! जो इसी जन्म में वेदनीय (भोग्य) कर्म हैं, क्या उन्हें दूसरे जन्म में भी वेदनीय किया सकता है ?' 'नहीं, आवुस !' 'जन्मान्तर वेदनीय-कर्म को उपक्रम-विशेष से क्या इसी जन्म के लिए वेदनीय किया जा सकता है ?' 'नहीं, आवुस !' 'सुख-वेदनीय-कर्म को उपक्रम-विशेष से क्या दुःख-वेदनीय-कर्म किया जा सकता है ?' 'नहीं, आवुस !' 'दुःख-वेदनीय-कर्म को उपक्रम-विशेष से क्या सुख-वेदनीय कर्म किया जा सकता है ?' 'नहीं, आवुस !' परिपक्व वेदनीय-कर्म को उपक्रम-विशेष से क्या अपरिपक्व वेदनीय कर्म किया जा सकता है ?' 'नहीं, आवुस !' 'अपरिपक्व वेदनीय-कर्म को उपक्रम-विशेष से क्या परिपक्व-वेदनीय-कर्म किया जा सकता है ? ____ 2010_05 Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७२ आगम और त्रिपिटक एक अनुशीलन 'नहीं, आवुस ! ' 'बहु- वेदनीय कर्म को उपक्रम विशेष से क्या अल्प- वेदनीय कर्म किया जा सकता है ? ' 'नहीं, आवुस !' 'अल्प- वेदनीय कर्म को उपक्रम- विशेष से क्या बहु- वेदनीय कर्म किया जा सकता है ?" 'नहीं, आबुस !" [ खण्ड : १ 'वेदनीय कर्म को उपक्रम - विशेष से क्या अवेदनीय कर्म किया जा सकता है ? ' 'नहीं, आवुस!' 'अवेदनीय कर्म को उपक्रम - विशेष से क्या वेदनीय कर्म किया जा सकता है ? ' 'नहीं, आवुस ! ' "अपने प्रश्नों का उपसंहरण करते हुए मैंने उनसे कहा - " उपक्रम - विशेष से उपरोक्त कार्यों में से जब कुछ भी नहीं किया जा सकता, तो आयुष्मान् निगंठों का उपक्रम और दृढ़ उद्योग निष्फल हो जाता है ।" “भिक्षुओ ! निगंठ ऐसे सिद्धान्त को मानते हैं । ऐसे सिद्धान्तवादी धर्मानुसार दस स्थानों में निन्दनीय होते है : १. यदि प्राणी पूर्व विहित कर्मों के अनुसार ही सुख-दुख भोगते हैं, तो निगंठों ने विगत में अवश्य ही बुरे कर्म किये थे, जिनसे वे वर्तमान में इस प्रकार दुःखद, तीव्र व कटु वेदनाएं भोग रहे हैं । २. यदि प्राणी ईश्वराधीन ही सुख-दुःख भोगते हैं, तो निगंठ अवश्य ही पापी ईश्वर द्वारा बनाए गए हैं, जो वर्तमान में इस प्रकार दुःखद, तीव्र व कटु वेदनाएँ भोग रहे हैं । णीय हैं । ३. यदि प्राणी संगति ( भवितव्यता ) के अनुसार सुख-दुःख भोगते हैं, तो निगठ अवश्य ही बुरी संगति वाले हैं, जो वर्तमान में इस प्रकार दुःखद, तीव्र व कटु वेदनाएँ भोग रहे हैं । ४. यदि प्राणी अभिजाति (जन्म) के कारण सुख-दुःख अभिजात अवश्य ही बुरी है, जो वर्तमान में इस प्रकार दुःखद, रहे हैं । ५. यदि प्राणी इसी जन्म के उपक्रम विशेष से सुख-दु:ख भोगते हैं, तो निगंठों का इस जन्म का उपक्रम भी बुरा है, जो वर्तमान में इस प्रकार दुःखद, तीव्र व कटु वेदनाएँ भोग रहे हैं। ६. यदि प्राणी पूर्व विहित कर्मों के कारण सुख-दुःख भोगते हैं, तो निगंठ गर्ह भोगते हैं, तो निगंठों की तीव्र व कटु वेदनाएँ भोग 2010_05 ७. यदि प्राणी ईश्वर - निर्मिति से सुख - दुःख भोगते हैं, तो निगंठ गर्हणीय हैं । 5, यदि प्राणी भवितव्यता के अनुसार सुख-दुःख भोगते हैं, तो निगंठ गर्हणीय हैं । & यदि प्राणी अभिजाति के कारण सुख-दुःख भोगते हैं, तो निगंठ गर्हणीय हैं । १०. यदि प्राणी इसी जन्म के उपक्रम के कारण सुख-दुःख भोगते हैं, तो निगंठ गर्ह णीय हैं । Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७३ इतिहास और परम्परा] त्रिपिटकों में निगण्ठ व निगण्ठ नातपुत्त ३७३ "पांच उपक्रम, दृढ़ उद्योग सफल हैं : १. दुःख से अनभिभूत भिक्षु शरीर को दुःख से अभिभूत नहीं करता। २. भिक्षु धार्मिक सुख का परित्याग नहीं करता। ३. भिक्षु उस सुख में अधिक मूच्छित नहीं होता। ४. भिक्षु ऐसा जानता है, इस दुःख कारण के संस्कार के अभ्यास-कर्ता को, उस संस्काराभ्यास से विराग होता है। ५. भिक्षु ऐसा जानता है, इस दुःख-निदान की उपेक्षा करने वाले को उस भावना से विराग होता है । ....... "कोई पुरुष किसी स्त्री में अनुरुक्त, प्रतिबद्ध-चित्त व तीव्र रागी है। यदि वह पुरुष उस स्त्री को किसी अन्य पुरुष के पास खड़े, बातें करते व हास्य-विनोद करते हुए देखता है, तो उसे बहुत शोक व दुःख होता है । वह पुरुष उस प्रसंग से शिक्षा ग्रहण कर अपने मन को वश में कर लेता है तथा उस स्त्री से अपना अनुराग-भाव हटा लेता है। उसके बाद वही पुरुष उस स्त्री को यदि अन्य पुरुष के साथ खड़े, बातें करते हुए व हास्य-विनोद करते हुए देखता है तो उसे शोक व दुःख नहीं होता; क्योंकि वह पुरुष उस स्त्री से वीतराग हो चुका है। इसी प्रकार जो भिक्षु दुःख से अनभिभूत शरीर को दुःख से अभिभूत नहीं करता, धार्मिक सुख का परित्याग नहीं करता, उस सुख में मूच्छित नहीं होता, इत्यादि प्रकारों से उसका दःख जीर्ण होता है और उसका उपक्रम व दृढ़ उद्योग सफल होता है। "सुख-विहार करते हुए किसी भिक्षु को ऐसा अनुभव होता है कि मेरे अकुशल धर्म बढ़ रहे हैं और कुशल धर्म क्षीण हो रहे हैं; अतः क्यों न मैं अपने को दःख में नियोजित कलं? वह अपने को कष्ट-कारक क्रियाओं में लगा देता है। उसके परिणाम-स्वरूप उसके अकुशल धर्म क्षीण होने लगते हैं और कुशल धर्म बढ़ने लगते हैं। जब सब तरह से वह अपने को कुशल धर्मों में प्रतिष्ठित पाता है, तो उन कष्ट-कारक क्रियाओं को छोड़ देता है; क्योंकि उसका प्रयोजन फलित हो गया । एक इषुकार अंगारों पर बाण-फल को तपाता है, उसे सीधा करता है; किन्तु जब वह पूर्णतः तप जाता है, सीधा हो जाता है, तो वह उसे पुनः अंगारे पर नहीं रखता; क्योंकि उसका प्रयोजन फलित हो गया। इसी प्रकार अकुशल धर्म की क्षीणता और कुशल धर्मों की वृद्धि हो जाने पर भिक्षु कायिक कष्ट से उपराम ले लेता है। उसका उपक्रम फलित होता है। है ....भिक्षुओ ! तथागत का यह वाद है । इस वाद के उद्गाता तथागत की प्रशंसा के दस स्थान होते हैं : १. यदि प्राणी पूर्व-विहित कर्मों के अनुसार ही सुख-दुख भोगते हैं, तो तथागत विगत में अवश्य ही पुण्य-कर्म करने वाले हैं, जो वर्तमान में आस्रव-विहीन सुख-वेदना का अनुभव करते हैं। २. यदि प्राणी ईश्वराधीन हो सुख-दुख भोगते हैं, तो तथागत अवश्य ही अच्छे ईश्वर द्वारा निर्मित हैं, जो वर्तमान में आस्रव-विहीन सुख-वेदना का अनुभव करते हैं । ३. यदि प्राणी संगति के अनुसार सुख-दुख भोगता है, तो तथागत अवश्य ही उत्तम संगति वाले हैं, जो वर्तमान में आस्रव-विहीन सुख-वेदना का अनुभव करते हैं। 2010_05. Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड : १ पदि प्राणी अभिजाति के अनुसार सुख-दुख भोगते हैं, तो तथागत अवश्य ही उत्तम अभिजाति वाले हैं, जो वर्तमान में आनव-विहीन सुख-वेदना का अनुभव करते हैं। ५. यदि प्राणी इसी जन्म के उपक्रम-विशेष से सुख-दुख भोगते हैं, तो तथागत अवश्य ही सुन्दर उपक्रम वाले हैं, जो वर्तमान में आस्रव-विहीन सुख-वेदना का अनुभव करते हैं। ६. यदि प्राणी पूर्वकृत कर्मों के अनुसार सुख-दुख अनुभव करते हैं, तो तथागत प्रशंसनीय हैं; यदि पूर्वकृत कर्मों के अनुसार सुख-दुःख का अनुभव नहीं करते, तो भी तथागृत प्रशंसनीय हैं। ७. यदि प्राणी ईश्वर-निर्मिति से सुख-दुख अनुभव करते हैं या नहीं करते, तो भी तथागत प्रशंसनीय हैं। ८. यदि प्राणी संगति के कारण सुख-दुख की अनुभूति करते हैं या नहीं करते, तो भी तथागत प्रशंसनीय हैं। .. . यदि प्राणी अभिजाति के कारण सुख-दुख की अनुभूति करते हैं या नहीं करते, तो भी तथागत प्रशंसनीय हैं। १०. यदि प्राणी इसी जन्म के कारण सुख-दुःख की अनुभूति करते हैं या नहीं करते, तो भी तथागत प्रशंसनीय हैं।" भिक्षुओं ने सन्तुष्ट हो भगवान् के भाषण का अभिनन्दन किया। -मज्झिम निकाय, देवदह सुत्तन्त, ३-१-१ के आधार से समीक्षा उक्त प्रकरण में सर्वज्ञता और कठोर तपश्चर्या का वर्णन तो लगभग वैसा ही है, जैसा चुलदुक्खक्खन्धक सुतन्त में किया गया है। इस प्रसंग की नवीन चर्चा वेदनीय अवेदनीयकर्म की है। सभी प्रश्नों का उत्तर निगंठों से निषेध की भाषा में दिलाया गया है। वस्तुस्थिति यह है कि जैन-कर्मवाद में निकाचित कर्मावस्था की अपेक्षा से तो उक्त निषेध यथार्थ माने जा सकते हैं, किन्तु, अन्य उद्वर्तन, अपवर्तन, उदीरणा, संक्रमण आदि कर्मावस्थाओं की अपेक्षाओं से अधिकांश निषेध अयथार्थ प्रमाणित होते हैं।' ५. निर्ग्रन्थों का तप एक समय भगवान् बुद्ध शाक्य देश में कपिलवस्तु के न्यग्रोधाराम में विहार करते थे। महानाम शाक्य भगवान् के पास आया और अभिवादन कर एक ओर बैठ गया। भगवान् ने उसे सम्बोधित करते हुए कहा-..."महानाम ! एक बार मैं राजगृह के गृघकूट पर्वत पर विहार कर रहा था। उस समय बहुत सारे निगंठ (जैन साधु) ऋ षि-गिरि की काल १. इसी प्रकरण का पांचवा प्रसंग । २. कर्मावस्था के भेद-प्रभेद के लिए देखें-ठाणांग सुत्त, ठा० ४। ___ 2010_05 Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा] त्रिपिटकों में निगण्ठ व निगण्ठ नातपुत्त शिला पर खड़े रहने का ही व्रत ले, आसन छोड़ उपक्रम करते थे। वे दुःखद, कटु व तीव्र वेदना झेल रहे थे।' मैं सन्ध्याकालीन ध्यान समाप्त कर एक दिन उनके पास गया। मैंने उनसे कहा-'आवुसो! निगंठो तुम खड़े क्यों हो? आसन छोड़कर दुःखद, कटु व तीव्र वेदना क्यों झेल रहे हो ? निगंठों ने मुझे तत्काल उत्तर दिया-'आवुस ! निगंठ नातपुत्त सर्वज्ञ सर्वदर्शी हैं । वे अपरिशेष ज्ञान-दर्शन को जानते हैं। चलते, खड़े रहते, सोते, जागते; सर्वदा उन्हें ज्ञान-दर्शन उपस्थित रहता है। वे हमें प्रेरणा देते हैं : 'निगंठो ! पूर्वकृत कर्मों को इस कड़वी दुष्कर क्रिया (तपस्या) से समाप्त करो। वर्तमान में तुम काय, वचन व मन से संवृत हो; अतः यह अनुष्ठान तुम्हारे भावी, ताप-कर्मों का अकारक है। इस प्रकार पूर्वकृत कर्मों का तपस्या से अन्त हो जाने पर और नवीन कर्मों के अनागमन से तुम्हारा चित्त भविष्य में अनास्रव होगा; आस्रव न होने से कर्म-क्षय होगा, कर्म-क्षय से दुख-क्षय, दुख-क्षय से वेदना क्षय और वेदना-क्षय से सभी दुख नष्ट हो जायेंगे।' हमें यह विचार रुचिकर प्रतीत होता है। अतः हम इस क्रिया से सन्तुष्ट हैं।' "महानाम ! मैंने उनसे कई प्रश्न पूछे-'क्या तुम जानते हो, हम पहले थे ही या नहीं थे ? हमने पूर्व समय में पाप कर्म किये ही हैं या नहीं किये हैं ? क्या तुम यह भी जानते हो, अमुक-अमुक पाप-कर्म किये हैं ? क्या तुम यह भी जानते हो, इतना दुःख नाश हो गया है, इतना दुःख नाश करना है और इस दुःख नाश होने पर सब दुखों का नाश हो जायेगा ? क्या तुम यह भी जानते हो, इसी जन्म में अकुशल धर्मों का प्रहाण और कुशल धर्मों का लाभ होगा?' उन्होंने मुझे नकारात्मक उत्तर दिया और इस विषय में अपनी सर्वथा अनभिज्ञता व्यक्त की। मैंने उनसे कहा-'अतएव लोक में जो रुद्र, रक्तपाणि, क्रूरकर्मा और निकृष्ट जाति वाले मनुष्य हैं, वे ही निगंठों में प्रवजित होते हैं।' “निगंठों ने मेरे कथन के प्रतिवाद में कहा-'आवुस ! गौतम ! सुख-से-सुख प्राप्य नहीं है; दुःख से सुख प्राप्य है । यदि सुख से सुख प्राप्य होता, तो राजा मागध श्रेणिक बिम्बिसार अधिक सुख प्राप्त करता । राजा मागध आयुष्यमान से बहुत सुख-विहारी हैं।' ___“मैंने उनसे कहा-'आयुष्यमान निगंठों ने अवश्य बिना कुछ सोचे ही शीघ्रता में बात कह दी। आप लोगों को तो मुझे ही पहले-पहल यह प्रश्न पूछना चाहिए था।' निगंठों ने अपनी गलती स्वीकार की और कहा-'हमने अवश्य ही शीघ्रता में यह बात कह डाली। इसे जाने दीजिए। हम अब आयुष्यमान् गौतम से पूछते हैं, दोनों में अधिक सुख-विहारी कौन है ?' * मैंने प्रतिप्रश्न प्रस्तुत करते हुए कहा-'निगंठो ! एक बात मैं तुमसे पूछता हूँ। जैसा तुम्हें उपयुक्त लगे, उत्तर देना । निगंठो ! राजा विम्बिसार बिना हिले-डुले और मौन रखते हुए सात अहोरात्र एकान्त सुख का अनुभव करते हुए विहार कर सकता है ?' 'नहीं, आवुस !' 'छः अहोरात्र ।' 'नहीं, आवुस !' 'पांच अहोरात्र, चार अहोरात्र, तीन अहोरात्र, दो अहोरात्र और एक अहोरात्र भी ऐसा अनुभव कर सकता है ?' 'नहीं, आवुस !' ___ 2010_05 Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड:१ 'किन्तु निगंठो ! मैं बिना हिले-डुले और मौन रहकर एक अहोरात्र, दो अहोरात्र, तीन अहोरात्र, चार अहोरात्र, पांच अहोरात्र, छः अहोरात्र और सात अहोरात्र तक भी एकान्त सुख का अनुभव करता हुआ विहार कर सकता हूँ। इससे तुम सहज ही अनुमान कर सकते हो कि ऐसा होने पर राजा बिम्बिसार और मेरे बीच, दोनों में कोन अधिक सुखविहारी है ? “निगंठों ने एक स्वर से उत्तर दिया- 'ऐसा होने पर तो आयुष्मान् गौतम अधिक सुख-विहारी हैं।" भगवान् बुद्ध से यह सारा उदन्त सुनकर महानाम शाक्य सन्तुष्ट हुआ और उसने भगवान् के भाषण का अभिनन्दन किया। -मज्झिम निकाय, चूलदुक्खक्खन्ध सुत्तन्त, १-२-४ के आधार से समीक्षा यहाँ सर्वज्ञता और कठोर तपश्चर्या का जो दिग्दर्शन कराया गया है, वह जन मान्यता से प्रतिकूल नहीं है । अन्य वितर्क तो साम्प्रदायिक पद्धति के हैं ही। ६. असिबन्धक पुत्र प्रामणी एक समय भगवान् गौतम नालन्दा में प्रावारिक आम्र-वन में विहार करते थे। निगंठों का शिष्य असिबन्धक पुत्र ग्रामणी भगवान् के पास आया। एक ओर बैठ गया। भगवान् ने उससे पूछा- "ग्रामणी ! निगंठ नातपुत्त अपने श्रावकों (शिष्यों) को क्या धर्मोपदेश करता है ?" "भन्ते ! जो प्राणों का अतिपात करता है, अदत्त ग्रहण करता है, व्यभिचार में आसक्त होता है, झूठ बोलता है, वह नरक में पड़ता है। जो व्यक्ति इन कार्यों को जितना अधिक करता है, उसकी वैसी ही गति होती है । निगंठ नातपुत्त अपने श्रावकों को यही धर्मोपदेश करता है।" “ग्रामणी ! निगंठ नातपुत्त के सिद्धान्तानुसार तो कोई भी व्यक्ति नरकगामी नहीं होगा?" "कैसे भन्ते !" "ग्रामणी ! एक व्यक्ति रह-रह कर दिन या रात में प्राणों का अतिपात करता ही रहता है ; फिर भी तुम बतलाओ उसका समय जीव-हिंसा करने में अधिक लगता है या जीव. हिंसा नहीं करने में ?" "भन्ते ! यह तो स्पष्ट ही है । उसका अधिकांश समय तो जीव-हिंसा के उपराम में ही व्यतीत होगा।" "ग्रामणी ! तो फिर 'जो-जो अधिक करता है, उसकी वैसी ही गति होती है'; निगंठ नातपुत्त का यह सिद्धान्त यथार्थ कैसे ठहरेगा ?" "ग्रामणी ! एक व्यक्ति रह-रह कर दिन में या रात में झूठ बोलता है, अदत्त-ग्रहण करता है या व्यभिचार करता है। फिर भी तुम बतलाओ उसका अधिक समय झूठ बोलने में, ____ 2010_05 Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा] त्रिपिटकों में निगण्ठ व निगण्ठ नातपुत्त ३७७ अदत्त-ग्रहण में या व्यभिचार में लगता है अथवा झूठ न बोलने में, अदत्त-ग्रहण न करने में, व्यभिचार न करने में?" ___ "भन्ते ! यह भी स्पष्ट ही है। उसका अधिकांश समय झूठ न बोलने में, अदत्त-ग्रहण न करने में और व्यभिचार के उपराम में ही व्यतीत होगा।" "ग्रामणी ! निगंठ नातपुत्त का सिद्धान्त इस प्रकार यथार्थता से दूर जाता है। कुछ एक आचार्य ऐसा मानते हैं और उपदेश करते हैं - 'जो जीव-हिंसा करता है, झूठ बोलता है। वह नरक में जाता है ।' उस आचार्य के प्रति श्रावक बड़े श्रद्वालु होते हैं।" 'श्रावक के मन में चिन्तन उभरता है, मेरे आचार्य का ऐसा वाद है कि 'जो जीव हिंसा करता है, वह अपाय-गामी होता है।' मैंने भी प्राण-हिंसा की है; अतः मैं भी अपायगामी हूँ। ग्रामणी ! जब तक वह इस सिद्धान्त, चिन्तन व दृष्टि का परित्याग नहीं करेगा; मर कर अपाय में जायेगा। "ग्रामणी ! संसार में अर्हत्, सम्यक् सम्बुद्ध, विद्या-चरण-सम्पन्न, सुगति-प्राप्त, लोकविद, अनुत्तर, पुरुष-दम्य साथी, देवताओं और मनुष्यों के गुरु भगवान् बुद्ध उत्पन्न होते हैं। वे अनेक प्रकार से जीव-हिंसा की निन्दा करते हैं और जीव-हिंसा से विरत रहने का उपदेश देते हैं। वे ऐसे ही अनेक प्रकार से झूठ बोलने, अदत्त-ग्रहण करने व व्यभिचार की निन्दा करते हैं और झूठ, अदत्त-ग्रहण व व्यभिचार से विरत होने का उपदेश देते हैं । उनके प्रति श्रावक श्रद्धालु होते हैं । "वह श्रावक ऐसा सोचता है-'भगवान् ने अनेक प्रकार से जीव-हिंसा से उपरत रहने का उपदेश दिया है। क्या मैंने भी कभी कुछ जीव-हिंसा की है ? हाँ, मैंने भी जीव-हिंसा की है। वह उचित नहीं है, सम्यक् नहीं है । उसी कारण मुझे पश्चात्ताप करना होगा। मैं उस पाप से अछूता नहीं रहूँगा।' इस प्रकार चिन्तन करता हुआ वह जीव-हिंसा छोड़ देता है और भविष्य में भी उससे विरत रहता हुआ पाप से बच जाता है। उसका यही चिन्तन अदत्त-ग्रहण, व्यभिचार व असत्य-भाषण के बारे में होता है। ___"वह जीव-हिंसा छोड़, उससे विरत रहता है; असत्य भाषण छोड़, उससे विरत रहता है; पैशुन्य छोड़, उससे विरत रहता है; कठोर वचन छोड़, उससे विरत रहता है; द्वेष छोड़, उससे विरत रहता है और मिथ्यादृष्टि छोड़, सम्यक् दृष्टि से युक्त होता है । "ग्रामणी ! ऐसा यह आर्य-श्रावक लोभ-रहित, द्वेष-रहित, असम्मूढ़, संप्रज्ञ, स्मृतिमान्, मैत्री-सहगत चित्त से एक दिशा को व्याप्त कर, वैसे ही दूसरी दिशा को, तीसरी व चौथी दिशा को; ऊर्ध्व, अधो व तिर्यक् दिशाओं को और सब ओर से सारे लोक को विपुल, अप्रमाण, निर्वैर, अव्यापाद, मैत्री-सहमत चित्त से व्याप्त कर विहार करता है। __ "कोई बलिष्ठ शंख-वादक अपने अल्प बल-प्रयोग से चारों दिशाओं को गुंजा देता है। वैसे ही मैत्री चेता विमुक्ति के अभ्यास-कर्ता के समक्ष संकीर्णता में डालने वाले कर्म ठहर नहीं पाते। "इसी प्रकार वह आर्य श्रावक लोभ-रहित, द्वेष-रहित, असम्मूढ़..., करुणा सहमत चित्त से...,मुदिता सहगत चित्त से..., उपेक्षा सहगत चित्त से समस्त दिशाओं को व्याप्त कर विहार करता है। संकीर्णता में डालने वाले कर्म उसके समक्ष ठहर नहीं पाते।" 2010_05 Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७5 आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड : १ ___ असिबन्धक पूत्र ग्रामणी भगवान से बहत प्रभावित हआ। उसने निवेदन किया"आश्चर्य, भन्ते ! आश्चर्य, भन्ते ! जैसे औंधे को सीधा कर दे, आवत को अनावृत कर दे, मार्ग-विस्मृत को मार्ग बता दे, अन्धेरे में तेल का दीपक जला दे; जिससे सनेत्र देख सकें; उसी प्रकार भगवान् ने अनेक प्रकार से धर्म को प्रकाशित किया। मैं भगवान् की शरण ग्रहण करता हूँ, धर्म व भिक्षु-संघ की भो। आज से मुझे अंजलिबद्ध शरणागत उपासक स्वीकार करें। -संयुत्त निकाय, संखसुत्त, ४०-१८ के आधार से - समीक्षा आगम-साहित्य में असिबन्धक पुत्र ग्रामणी नाम का कोई व्यक्ति नहीं मिलता। त्रिपिटक-साहित्य में भी 'ग्रामणी संयुत्त' के अतिरिक्त और कहीं इसकी चर्चा विशेषतः नहीं मिलती। 'ग्राम का अगुआ' इस अर्थ में इसे 'ग्रामणी' कहा गया है। अहिंसा, सत्य आदि चार यमों की चर्चा यहाँ की गई है। बुद्ध ने इनका खण्डन किया है, पर, यथार्थ में वाक्-चातुर्य से अधिक वह कुछ नहीं । वस्तुतः तो बुद्ध स्वयं अहिंसा, सत्य आदि को इसी प्रकरण में उपादेय बतलाते हैं । पंचशील में भी चार शील चतुर्याम धर्म रूप ही तो है।' प्रस्तुत प्रकरण में मैत्री, करुणा आदि चार भावनाओं का सम्मुल्लेख हुआ है, जो पातञ्जल योगदर्शन तथा जैन-परम्परा में भी अभिहित हैं। ७. नालन्दा में दुभिक्ष भगवान बुद्ध एक बार कौशल में चारिका करते हुए बृहद् भिक्षु-संघ के साथ नालन्दा आये और प्रावारिक आम्रवन में ठहरे। नालन्दा में उन दिनों भारी दुर्भिक्ष था। आजपाल में जनता के प्राण निकल रहे थे। जनता सूखकर शलाका बन गई थी, मृत मनुष्यों की उजली हड़ियाँ यत्र-तत्र बिखरी हुई थीं। निगंठ नातपुत्त निगंठों की बृहद् परिषद के साथ उस समय वहीं वास करते थे। असिबन्धक पुत्र ग्रामणी निगंठ नातपुत्त का श्रावक था। वह अपने शास्ता के पास गया और अभिवादन कर एक ओर बैठ गया। निगंठ नातपुत्त ने उससे कहा- "ग्रामणी ! तू श्रमण गौतम के साथ शास्त्रार्थ कर। इससे दूर-दूर तक तेरा सुयश फैलेगा। जनता कहेगी, असिबन्धक पुत्र ग्रामणी इतने बड़े ऋद्धिमान् तेजस्वी श्रमण गौतम के साथ शास्त्रार्थ कर रहा है।" १. “यो पाणं नातिपातेति मुसावादं न भासति, लोके अदिन्नं नादियति परदारं न गच्छति, सुरामेरयपानं च यो नरो न नुपुञति, पहाय पञ्च वेरानि सीलवा इति वुच्चति ।।' -अंगुत्तर निकाय, पंचकनिपात, ५।१६।१७८ २. समाधिपाद, १।३३। ३. शान्तसुधारस भावना, १३ से १६ । ____ 2010_05 Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा] त्रिपिटकों में निगण्ठ व निगण्ठ नातपुत्त ३७६ ___ “भन्ते ! इतने बड़े ऋद्धिमान् तेजस्वी श्रमण गौतम के साथ मैं शास्त्रार्थ कैसे करूगा?" "ग्रामणी ! श्रमण गौतम के पास जा और उससे पूछ-'भन्ते ! भगवान् तो अनेक प्रकार से कुलों के उदय, अनुरक्षा और अनुकम्पा का वर्णन करते हैं ?' श्रमण गौतम इस प्रश्न का यदि स्वीकारात्मक उत्तर दे तो तू उसे पुनः पूछना- 'भन्ते ! दुभिक्ष के इस विकाठ समय में भी आप इतने बड़े भिक्षु-संघ के साथ यहाँ चारिका कर रहे है, तो क्या आप कुल्ले के नाश व उनके अहित के लिए तुले हुए हैं ?' इस प्रकार पूछने पर श्रमण गौतम न उगल सकेगा और न निगल सकेगा।" असिबन्धक पुत्र ग्रामणी निगंठ नातपुत्त को अभिवादन व प्रदक्षिणा कर चला और गौतम बुद्ध के पास आया 1 अभिवादन कर एक ओर बैठ गया। ग्रामणी ने भगवान् से उक्त प्रश्न किया और कहा-"क्या आप इस प्रकार कुलों के नाश व उनके अहित के लिए तुले हुए हैं ?" भगवान् ने उत्तर दिया- "ग्रामणी ! आज से एकानवे कल्प तक का मैं स्मरण करता हूँ, किन्तु एक कुल को भी ऐसा नहीं पाता, जो घर में पके भोजन में से भिक्षा देने के कारण उपहत हो गया हो, अपितु जो कुल आढय, महाधन-सम्पन्न, महाभोग-सम्पन्न, स्वर्ण-रजत सम्पन्न, वस्तु-उपकरण-सम्पन्न व धन-धान्य-सम्पन्न हैं, वे सभी दान, सत्य और श्रामण्य के फल से हुए हैं। कुलों के उपघात के तो आठ हेतु होते हैं : १. राजा द्वारा कुल नष्ट कर दिया जाता है, २. चोर द्वारा कुल नष्ट कर दिया जाता है, ३. अग्नि द्वारा कुल नष्ट कर दिया जाता है, ४. पानी द्वारा कल नष्ट कर दिया जाता है. ५. गड़े धन का अपने स्थान से चला जाना, ६. अच्छे तौर से न की हुई खेती नष्ट हो जाती है, ७. कुल-अंगार पैदा हो जाने से, जो सम्पत्ति को फूंक देता है, चौपट कर देता है, विध्वंस कर देता है और ८. सभी पदार्थों की अनित्यता। "ग्रामणी ! ये आठ हेतु कुलों के उपघात के लिए हैं। इनके होते हुए भी जो मुझे यह कहे- 'भगवान् कुलों के सताने व उनके उपघात के लिए तुले हुए हैं, वह इस बात को बिना छोड़े, इस विचार को बिना छोड़े, इस धारणा का बिना परित्याग किये, मरते ही नरक में जायेगा।" असिबन्धक पुत्र ग्रामणी भगवान् के इस कथन से बहुत प्रभावित हुआ। सहसा उसके मुख से उदान निकला-"आश्वर्य, भन्ते ! आश्चर्य, भन्ते ! ... आज से मुझे अञ्जलिबद्ध शरणागत उपासक स्वीकार करें।" -संयुत्त निकाय, कुलसुत्त, ४०-१-६ के आधार से ____ 2010_05 Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८० आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड : १ समीक्षा आगम साहित्य में नालन्दा की दुभिक्ष-स्थिति का कोई उल्लेख नहीं है। प्रस्तुत प्रकरण से इतना तो स्पष्ट होता ही है कि महावीर और बुद्ध एक ही काल में अपनी-अपनी भिक्षु-परिषद् सहित नालन्दा में थे। यहाँ यह आशंका भी होती है कि जब प्रामीण बुद्ध का शरणागत उपासक हो गया था, तो पुनः वह कैसे निगण्ठ नातपुत्त का श्रावक बताया गया है। ८. चित्र गृहपति निगंठ नातपुत्त अपनी बृहत् परिषद् के साथ उस समय मच्छिकासण्ड में ठहरे हुए थे। गहपति चित्र ने जब यह सुना तो कुछ उपासकों के साथ वह उनके पास आया और कुशल क्षेम पूछकर एक ओर बैठ गया। गृहपति चित्र से निगंठ नातपुत्त ने पूछा-“गृहपति ! क्या तुझे यह विश्वास है कि श्रमण गौतम भी अवितर्क-अविचार समाधि लगाता है? क्या उसके वितर्क और विचार का निरोध होता है ?" ___“भन्ते ! मैं श्रद्धा से ऐसा नहीं मानता हूँ कि भगवान् को अवितर्क-अविचार समाधि लगती है।......" निगंठ नातपुत्त ने अपनी परिषद् की ओर देखकर कहा-"देखो, गृहपति चित्र कितना सरल, सत्यवादी और निष्कपट है। वितर्क और विचार का निरोध कर देना मानो हवा को जाल से बझाना है अथवा केवल मुष्टि से गंगा के स्रोत को रोकना है।" "भन्ते! आप ज्ञान को बड़ा समझते हैं या श्रद्धा को ?" ! श्रद्धा से तो ज्ञान ही बड़ा है।" "भन्ते ! जब मेरी इच्छा होती है, मैं प्रथम ध्यान, द्वितीय ध्यान, तृतीय ध्यान या चतुर्थ ध्यान में विहार करता हूँ; अतः मैं स्वयं ही जान लेता हूँ और देख लेता हैं। किसी श्रमण या ब्राह्मण की श्रद्धा से मुझे जानने की आवश्यकता नहीं होती।" निगंठ नातपुत्त ने अपनी परिषद् की ओर देखकर कहा-“गृहपति चित्र कितना वक्र, शठ व धूर्त है।" गृहपति चित्र ने निगंठ नातपुत्त को कीलते हुए कहा-“मन्ते ! अभी-अभी आपने कहा था-'गृहपति चित्र सरल, सत्यवादी और निष्कपट है' और अभी-अभी आप कह रहे हैं-'गृहपति चित्र वक्र, शठ व धूर्त है।' यदि आपका पहला कथन सत्य है, तो दूसरा कथन मिथ्या है और यदि दूसरा कथन सत्य है, तो पहला कथन मिथ्या है।" ति चित्र ने अपनी वार्ता के सन्दर्भ में आगे और कहा-“भन्ते ! धर्म के दस प्रश्न आते हैं। जब आपको इनका उत्तर ज्ञात हो, तो आप मुझे और अपनी परिषद को अवश्य बतायें। वे प्रश्न हैं: १. जिसका प्रश्न एक का हो, जिसका उत्तर भी एक का हो, २. जिसका प्रश्न दो का हो, जिसका उत्तर भी दो का हो, ३. जिसका प्रश्न तीन का हो, जिसका उत्तर भी तीन का हो, ४. जिसका प्रश्न चार का हो, जिसका उत्तर भी चार का हो, ५. जिसका प्रश्न पाँच का हो, जिसका उत्तर भी पाँच का हो, 2010_05 Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा] त्रिपिटकों में निगण्ठ व निगण्ठ नातपुत्त ३८१ ६. जिसका प्रश्न छः का हो, जिसका उत्तर भी छः का हो, ७. जिसका प्रश्न सात का हो, जिसका उत्तर भी सात का हो, ८. जिसका प्रश्न आठ का हो, जिसका उत्तर भी आठ का हो, ६. जिसका प्रश्न नौ का हो, जिसका उत्तर भी नौ का हो; और १०. जिसका प्रश्न दस का हो, जिसका उत्तर भी दस का हो।" गृहपति चित्र ने निगंठ नातपुत्र के समक्ष प्रश्न उपस्थित किया और उठकर चला गया। -संयुत्त निकाय, निगंठ सुत्त, ३६-८ के आधार से समीक्षा अवितर्क-अविचार समाधि का उल्लेख शुक्ल ध्यान के द्वितीय चरण के रूप में जैन दर्शन में भी आता है। चित्र गृहपति मच्छिकासण्ड ग्राम का निवासी व कोषाध्यक्ष था। धर्म-कथा में वह बहुत कुशल था। इसने महक, कामभू, गोदत्त, अचेल काश्यप आदि अनेक लोगों से चर्चा की थी। बुद्ध ने उसे धर्म-कथिकों में अग्रगण्य कहा। ६. कुतूहलशाला सुत्त ___ वत्स गोत्र परिव्राजक भगवान् बुद्ध के पास आया और कुशल-क्षेम पूछ कर एक ओर बैठ गया। भगवान् से बोला-“गौतम ! बहुत समय पूर्व की बात है। एक दिन कुतूहलशाला में एकत्रित विभिन्न मतावलम्बी श्रमण, ब्राह्मण और परिव्राजकों के बीच चर्चा चली—'पूरण काश्यप संघी, गणी, गणाचार्य, प्रसिद्ध, यशस्वी, तीर्थंकर और बहुजन-सम्मानित हैं। वे अपने मृत श्रावकों के बारे में सही-सही बता देते हैं कि अमुक वहाँ उत्पन्न हुआ है और अमुक वहाँ । उनका जो उत्तम पुरुष, परम पुरुष, परम-प्राप्ति-प्राप्त श्रावक है, वह भी मत श्रावकों के बारे में सही-सही बता देता है कि अमुक यहाँ उत्पन्न हुआ है और अमुक यहाँ।' मक्खलि गोशाल, निगंठ नातपुत्त, संजय वेलठ्ठिपुत्र, प्रक्रुध कात्यायन और अजित केशकम्बल भी संघी, गणी, गणाचार्य, प्रसिद्ध, यशस्वी, तीर्थङ्कर और बहुजन-सम्मानित हैं। वे सभी मृत श्रावकों के बारे में इस प्रश्न का सही-सही उत्तर देते हैं। उनका परम-प्राप्तिप्राप्त श्रावक भी इस प्रश्न का सही उत्तर दे सकता है। मन्ते ! आपके बारे में भी वहाँ चर्चा चली-'श्रमण गौतम भी संघी, गणी, बहुजन-सम्मानित हैं और मृत श्रावकों के बारे में सही-सही उत्तर देते हैं। उनके परम-प्राप्ति-प्राप्त श्रावक भी इस प्रश्न को सहज ही समाहित कर देते हैं। इसके साथ बुद्ध यह भी बता देते हैं—'अमुक ने तृष्णा का उच्छेद कर डाला है, १. जैन सिद्धान्त दीपिका, १३४ । २. Dictionary of Pali proper Names, vol. I, p. 865. ३. संयुत्त निकाय, शलायतनवग्ग, चित्तसंयुत्त।। ४. अंगुत्तर निकाय, एतदग्गवग्ग सुत्त, देखें, प्रमुख 'उपासक-उपासिकाएं' प्रकरण। ५. वह गृह, जहाँ नाना मतावलम्बी एकत्र होकर धर्म-चर्चा करते हैं और जिसे सभी उपस्थित मनुष्य कुतूहलपूर्वक सुनते हैं। ____ 2010_05 Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८२ आगम और त्रिपिटक एक अनुशीलन [खण्ड : १ बन्धन मुक्त हो गया है व मान को अच्छी तरह जान कर दुःख का अन्त कर दिया है ।' तब मुझे आपके धर्म को जानने की विचिकित्सा व उत्सुकता हुई।" गौतम बुद्ध ने कहा - " वत्स ! विचिकित्सा स्वाभाविक ही थी । जो वर्तमान में उपादान से युक्त है, मैं उसी की उत्पत्ति के बारे में बतलाता हूँ । जो उपादान से मुक्त हो गया है, उसकी उत्पत्ति के विषय में नहीं । उपादान के सद्भाव में ही जैसे अग्नि जलती है, अभाव में नहीं, वैसे ही मैं उपादान से युक्त की उत्पत्ति के बारे में ही बतलाता हूँ, उपादान से मुक्त के विषय में नहीं ।" 茹 " गौतम ! जिस समय अग्नि की लपट उड़ कर दूर चली जाती है, उस समय उसका उपादान आप क्या बतलाते हैं ?" "वत्स ! हवा ही उसका उपादान है ।" "गौतम ! इस शरीर त्याग और दूसरे शरीर ग्रहण के बीच सत्त्व का उपादान क्या होता है ?" वत्स ! तृष्णा ही उसका उपादान है ।" - संयुक्त निकाय, कुतूहलशाला सुत्त, ४२-६ के आधार से । समीक्षा जैन धारणा के अनुसार मृत की गति का जान लेना बहुत साधारण बात है। महावीर तो कैवल्य-सम्पन्न थे । मृत की गति तो अवधिज्ञान से भी जानी जा सकती है । १०. अमय लिच्छवी एक समय आयुष्मान् आनन्द वंशाली के महावन में कूटागारशाला में विहार करते थे। उस समय अभय लिच्छवी व पण्डितकुमार लिच्छवी ने आयुष्मान् आनन्द से कहा"भन्ते ! निगन्ठ नातपुत्त का कहना है कि वे सर्वज्ञ हैं, सर्वदर्शी हैं और उन्हें असीम ज्ञानदर्शन प्राप्त है। उनका कहना है— मुझे चलते, खड़े रहते, सोते, जागते, सतत ज्ञान-दर्शन उपस्थित रहता है। उनका कहना है-तपस्या से प्राचीन कर्मों का नाश होता है और कर्मों के अकरण से नवीन कर्मों का घात होता है । इस प्रकार कर्म-क्षय से दुःख-क्षय, दुःखक्षय से वेदना क्षय, वेदना-क्षय से समस्त दुःखों की निर्जरा होगी। इस प्रकार सांदृष्टिक निर्जरा - विशुद्धि से दुःख का अतिक्रमण होता है । भन्ते ! भगवान् इस विषय में क्या कहते हैं ?" आयुष्मान् आनन्द ने उत्तर दिया- "उन भगवान्, ज्ञानी, दर्शी, अर्हत्, सम्यक्सम्बद्ध के द्वारा शोक व रोने-पीटने के अतिक्रमण के लिए, दुःख दौर्मनस्य के नाश के लिए, ज्ञान की प्राप्ति के लिए तथा निर्वाण के साक्षात्कार के लिए तीन निर्जरा विशुद्धियाँ सम्यक् प्रकार कही गई हैं । " "भन्ते ! वे तीन कौन सी हैं ?" "अभय ! भिक्षु सदाचारी, प्रातिमोक्ष के नियमों का पालन करने वाला, आचारगोचर से युक्त, अणु-मात्र दोष से भी भीत होने वाला और शिक्षापदों के नियमों का पालन 2010_05 Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा ] त्रिपिटकों में निगण्ठ व निगण्ठ नातपुत ३८३ करने वाला होता है । यह नया कर्म नहीं करता और प्राचीन कर्म के फल को भोग कर समाप्त कर देता है । यह सांदृष्टिक निर्जरा है और देश-काल की सीमाओं से रहित है । इसके लिए कह सकते हैं, आओ, स्वयं परीक्षा करो। यह स्वयं निर्वाण की ओर ले जाने वाली है । प्रत्येक विज्ञ पुरुष इसका साक्षात् कर सकता है । "अभय ! इस प्रकार वह शील-सम्पन्न भिक्षु काम-भोगों से दूर हो, सुख व दुःख के परित्याग से सौमनस्य व दौर्मनस्य के पूर्व ही अस्त हो जाने से, सुख-दुःख-रहित चतुर्थ ध्यान को प्राप्त कर विहार करता है। वह नया कर्म नहीं करता और प्राचीन कर्म के फल को भोग कर समाप्त कर देता है। यह सांदृष्टि निर्जरा है और देश-काल की सीमाओं से रहित है ।......प्रत्येक विज्ञ पुरुष इसका साक्षात् कर सकता है । "अभय ! इस प्रकार वह शील-सम्पन्न भिक्षु शील-सम्पन्न, समाधि सम्पन्न तथा प्रज्ञा सम्पन्न होकर आस्रवों का क्षय कर अनास्रव चित्त-विमुक्ति व प्रज्ञा-विमुक्ति को इसी शरीर में जान कर, साक्षात्कार कर और प्राप्त कर विहार करता है। वह नवीन कर्म नहीं करता और प्राचीन कर्म के फल को भोग कर समाप्त कर देता है । यह सांदृष्टिक निर्जरा है और देश काल की सीमाओं से रहित है । प्रत्येक विज्ञ पुरुष इसका साक्षात् कर सकता है। "अभय ! उन भगवान्, ज्ञानी, दर्शी, अर्हत्, सम्यक् सम्बुद्ध के द्वारा शोक तथा रोनेपीटने के अतिक्रमण के लिए, दुःख - दौर्मनस्य के नाश के लिए, ज्ञान की प्राप्ति के लिए तथा निर्वाण के साक्षात्कार के लिए ये तीन निर्जरा-विशुद्धियाँ सम्यक् प्रकार कही गई हैं ।" पण्डितकुमार लिच्छवी ने अभय लिच्छवी से पूछा - "सौम्य ! अभय ! आयुष्मान् आनन्द के सुभाषित का सुभाषित के रूप में अनुमोदन क्यों नहीं करता ?" "सौम्य ! मैं इससे परे नहीं हूँ । जो व्यक्ति आयुष्मान् आनन्द के सुभाषित का अनुमोदन नहीं करेगा, उसका सिर भी गिर सकता है।" - अंगुत्तर निकाय, तिकनिपात ७४, (हिन्दी अनुवाद) पृ० २२७-२८ के आधार से । समीक्षा अभय लिच्छवी का उल्लेख प्रस्तुत प्रकरण के अतिरिक्त साल्ह सुत्त' में भी आता है । वहाँ भी वह साल्ह लिच्छवी के साथ बुद्ध से चर्चा करने के लिए प्रस्तुत होता है । यहाँ यह स्वयं प्रश्न करता है, वहाँ उसका सहवर्ती साल्ह लिच्छवी । अंगुत्तर निकाय के अंग्रेजी अनुवाद में डॉ० वुडवार्ड ने अभय लिच्छवी और अभय राजकुमार को एक ही मान लिया है । " पर वस्तुतः ये दोनों ही व्यक्ति पृथक्-पृथक् हैं। अभय राजकुमार राजगृह का निवासी तथा राजा बिम्बिसार का पुत्र होता है और अभय लिच्छवी वैशाली का कोई क्षत्रिय कुमार है । प्रस्तुत प्रकरण में तप-विषयक जो चर्चा की है, वह जैन- धारणा के सर्वथा अनुकूल ही है । 'निर्जरा' शब्द का उपयोग बहुत यथार्थ है । १. अंगुत्तर निकाय, चतुक्कनिपात, महावग्ग, साल्ह सुत्त, ४ २०-१६६ । २. The Book of Gradual Sayings vol. I, p. 200. 2010_05 Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८४ ११. लोक सान्त-अनन्त दो लोकायतिक ब्राह्मण भगवान् के पास आये । आकर शास्ता का अभिवन्दन किया और एक ओर बैठ गये । एक ओर बैठे उन्होंने भगवान् से कहा - " हे गौतम ! पूरण कस्सप सर्वज्ञ, सर्वदर्शी, निखिल ज्ञान दर्शन का अधिकारी है। वह मानता है कि मुझे चलते, खड़े रहते, सोते जागते भी निरन्तर ज्ञान दर्शन उपस्थित रहता है । वह ऐसा कहता है— मैं अपने अनन्त ज्ञान से अनन्त लोक को जानता, देखता व विहरता हूँ ।' हे गौतम ! यह निगंठ नातपुत्त भी सर्वज्ञ, सर्वदर्शी, निखिल ज्ञान-दर्शन का अधिकारी है । वह मानता है - 'मुझे चलते, खड़े रहते, सोते, जागते भी निरन्तर ज्ञान दर्शन उपस्थित रहता है।' वह ऐसा कहता है - " मैं अपने अनन्त ज्ञान से अनन्त लोक को जानता, देखता, विहरता हूँ ।' इन परस्पर विरोधी ज्ञानवादों में हे गौतम! कौन सा सत्य है और कौन सा असत्य ?" बोले आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन "रहने दो, ब्राह्मणो ! 'इन परस्पर विरोधी ज्ञानवादों में कौन सा सत्य है और कौन सा असत्य' इस बात को । ब्राह्मणो ! मैं तुम्हें धर्मोपदेश करता हूँ, उसे सुनो, सम्यक् प्रकार से ध्यान दो ।" "अच्छा, भगवन् !" इस प्रकार कह ब्राह्मणों ने उसे स्वीकार किया और भगवन् - सुत्तपिटके, अंगुत्तर निकाय पालि, नवक-निपातो, महावग्गो, लोकायतिक सुत्तं, ६-४-७ के आधार से । [...] समीक्षा उक्त प्रकरण में लोकायतिक पूरण कस्सप और निगंठ नातपुत्त के लोक- सिद्धान्त की चर्चा करते हैं । उस चर्चा में सान्तता और अनन्तता का मतभेद भी व्यक्त होता है ; पर उक्त प्रकरण में एक मौलिक असंगति यह है कि लोक-सम्बन्धी धारणा में दोनों का मतभेद भी बताया जाता है और दोनों की धारणा समान रूप से अनन्त भी बताई जाती है। दोनों की धारणाओं में लोक अनन्त है, तो मतभेद कैसा ? इसी प्रकरण के अंग्रेजी अनुवाद में ई० एम० हेर पूरण कस्सप का लोक सान्त और निगंठ नातपुत्त का लोक अनन्त बतलाते हैं । ' अनुवादक ने एक पाठान्तर के आधार पर ऐसा किया है। पर, यह भी सही नहीं लगता । एक दूसरा पाठान्तर जो अनुवादक ने टिप्पण में दिया है, उसमें पूरण कस्सप के साथ अनन्तं और निगण्ठ नातपुत्त के साथ अन्तवन्तं पाठ है ।" वह सही लगता है; क्योंकि महावीर की लोक-सम्बन्धी धारणा के वह नितान्त अनुकूल बैठता है । महावीर ने लोक को सान्त और अलोक को अनन्त माना है । महावीर ने द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा से लोक की पृथक्-पृथक् व्याख्या की है । अर्थात् - द्रव्य की अपेक्षा लोक - सान्त १. The Book of Gradual Sayings, vol. IV, pp. 287-288. R. Ibid., p, 288 fn. ३. भगवती सूत्र, ११-१०-४२१ । 2010_05 [ खण्ड : १ Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा त्रिपिटिकों में निगष्ठ व निगण्ठ नातपुत्त ____३८५ ३८५ क्षेत्र की अपेक्षा लोक-सान्त काल की अपेक्षा लोक-अनन्त भाव की अपेक्षा लोक--अनन्त ।' दो लोकायतिकों की लोक-चर्चा क्षेत्रिक अपेक्षा से ही प्रतीत होती है; अतः खेत्तओ लोए सअंते यह आगम-पाठ अंगुत्तर निकाय के दूसरे पाठान्तर की पुष्टि कर देता है। ____ इस प्रश्न को बुद्ध ने बिना अपना मन्तव्य व्यक्त किये ही टाला है। वस्तुस्थिति यह है कि बुद्ध ने इसे तथा इस प्रकार के अनेकों प्रश्नों की मज्झिम निकाय आदि में 'अव्याकृत' कहा है। वे प्रश्न हैं १. क्या लोक शाश्वत है ? २. क्या लोक अशाश्वत है ? ३. क्या लोक अन्तमान है ? ४. क्या लोक अनन्त है ? ५. क्या जीव और शरीर एक हैं ? ६. क्या जीव और शरीर भिन्न हैं ? ७. क्या मरने के बाद तथागत नहीं होते ? ८. क्या मरने के बाद तथागत होते भी हैं और नहीं भी होते ? ६. क्या मरने के बाद तथागत न होते हैं और न नहीं होते हैं ? १२. वप्प जैन-श्रावक एक समय भगवान् शाक्य जनपद में कपिलवस्तु के न्यग्रोधाराम में विहार करते थे। उस समय निगण्ठ नातपुत्त का श्रावक वप्प जहाँ आयुष्मान् महामौद्गल्यायन थे, वहाँ गया। १. एवं खलु मए खंदया ! चउविहे लोए पन्नते, तं जहा-दव्वओ खेत्तओ कालओ भावओ दव्वओ णं एगे लोए सअंते ? खेत्तओ णं लोए असंखेज्जाओ जोयणकोडाकोडीओ आयामविक्खं भेणं असंखेज्जाओ जोयणकोडाकोडीओ परिक्खेवेणं पन्नत्ता, अत्थि पुण सते 2। कालओ णं लोए न कयाविन आसी, न कयावि न भवति, न कयावि न भविस्सति, भविंसु य भवति य भविस्सइ य, धुवे णितिए सासते अक्खए अव्वए अवट्टिए णिच्चे, णत्थि पुण से अन्ते ३ । भावओ णं लोए अणता वण्णपज्जवा गंधपज्जवा रसपज्जवा फासपज्जवा अणंता संठाणपज्जवा अणंता गरुयलहुयपज्जवा अणंता अगरुयलहुयपज्जवा, नत्थि पुण से अन्ते ।। से तं खंदगा ! दव्वओ लोए सअंते, खेत्तओ लोए सते, कालतो लोए अणंते, भावमओ लोए अणंते।" -भगवती सूत्र, २-१-६० । २. (क) मज्झिम निकाय, चूलमालूक्य सुत्त, ६३ । (ख) दीघ निकाय, पोट्टपाद सुत्त ११९ । ____ 2010_05 Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८६ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [ खण्ड : १ पास पहुँच, महामौद्गल्यायन को अभिवादन कर एक ओर बैठ गया। एक ओर बैठे हुए निगण्ठ नातपुत्त के श्रावक वप्प को महामौद्गल्यायन ने यह कहा - " वप्प ! एक आदमी शरीर, वाणी तथा मन से संयत हो, वह अविद्या से विरक्त हो और विद्याला भी हो । वप्प ! क्या तुझे इसकी सम्भावना दिखाई देती है कि उस पुरुष को पूर्व जन्म के दुःखद आस्रवों की प्राप्ति हो ? "भन्ते ! मैं इसकी सम्भावना देखता हूँ कि आदमी ने पूर्व जन्म में पाप कर्म किया हो, किन्तु, उस पाप कर्म का फल न भुगता हो, तो ऐसी हालत में उस पुरुष को पूर्व जन्म के दुःखद आस्रवों की प्राप्ति हो ।' आयुष्मान् मौद्गल्यायन के साथ निगण्ठ श्रावक वप्प शाक्य की यह बातचीत हुई । भगवान् उस समय संध्या कालीन ध्यान से उठ, जहाँ उपस्थानशाला थी, वहाँ पहुँचे । पहुँच कर बिछे आसन पर बैठे । बैठकर भगवान् ने आयुष्मान् मौद्गल्यायन से पूछा - "मौद्गल्यायन ! इस समय बैठे क्या बातचीत कर रहे थे ? इस समय क्या बातचीत चालू थी ?" "भन्ते ! मैंने निगण्ठ श्रावक वप्प शाक्य को यह कहा - 'वप्प ! एक आदमी शरीर, वाणी तथा मन से संयत हो, वह अविद्या से विरक्त हो और विद्याला भी हो । वप्प ! क्या तुझे इसकी सम्भावना दिखाई देती है कि उस पुरुष को पूर्व जन्म के आस्रवों की प्राप्ति हो ?" भन्ते ! ऐसा कहने पर निगण्ठ श्रावक वप्प शाक्य ने मुझे ऐसा कहा - 'भन्ते ! मैं इसकी सम्भावना देखता हूँ कि आदमी ने पूर्व जन्म में पाप कर्म किया हो, किन्तु, उस पाप कर्म का फल न भुगता हो, तो ऐसी हालत में उस पुरुष को पूर्व जन्म के दुःखद आस्रवों की प्राप्ति हो ।' भन्ते ! निगष्ठ श्रावक वप्प शाक्य के साथ मेरी यह बातचीत चल रही थी कि भगवान् आ पहुँचे ।" भगवान् ने निगण्ठ श्रावक वप्प शाक्य से कहा - " वप्प ! जो बात तुझे मान्य हो, उसे मानना, जो बात तुझे स्वीकार करने योग्य न जंचे, उसे स्वीकर मत करना । यदि मेरी कोई बात समझ में न आये, तो मुझ से ही उसका अर्थ पूछ लेना कि भन्ते ! इसका क्या अर्थ है ? अब हम दोनों की बातचीत हो ।" "भन्ते ! भगवान् की जो बात मुझे मान्य होगी, उसे मानूंगा, जो बात स्वीकार करने योग्य न जँचेगी, उसे स्वीकार नहीं करूँगा । यदि कोई बात मेरी समझ में न आयेगी तो मैं भगवान् से ही उसका अर्थ पूछ लूंगा कि भन्ते ! इसका क्या अर्थ है ? हम दोनों की बातचीत हो ।" "वप्प ! तो क्या मानते हो शारीरिक क्रियाओं के परिणाम स्वरूप जो दुःखद आस्रव उत्पन्न होते हैं, शारीरिक क्रियाओं से विरत रहने से दुःखद आस्रव उत्पन्न नहीं होते ? वह नया कर्म नहीं करता । पुराने कर्म को भुगत-भुगत कर क्षीण कर देता है - यह क्षीण करने वाली क्रिया सांदृष्टिक निर्जरा ( क्षयी) है, अकालिक है, इसके बारे में कहा जा सकता है, आओ और स्वयं देख लो' (निर्वाण की ओर) ले जाने वाली है, प्रत्येक विज्ञ पुरुष द्वारा जानी जा सकती है । वप्प ! क्या तुझें इसकी सम्भावना दिखाई देती है कि उस पुरुष को पूर्वजन्म के दुःखद आस्रवों की प्राप्ति हो ?” " भन्ते ! नहीं ।" "वप्प ! तो क्या मानते हो, वाणी की क्रियाओं के परिणाम स्वरूप जो दुःखद आस्रव उत्पन्न होते हैं; वाणी की क्रियाओं से विरत रहने से वे दुःखद आस्रव उत्पन्न नहीं होते ? 2010_05 Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा] त्रिपिटकों में निगण्ठ व निगण्ठ नातपुत्तं ३८७ वह नया कर्म नहीं करता। पुराने कर्म को भुगत-भुगत कर क्षीण कर देता है---यह क्षीण कर देने वाली क्रिया सांदृष्टिक निर्जरा (=क्षयी) है, अकालिक है, इसके बारे में कहा जा सकता है, 'आओ और स्वयं देख लो', (निर्वाण की ओर) ले जाने वाली है, प्रत्येक विज्ञ पुरुष द्वारा जानी जा सकती है। वप्प ! क्या तुझे इसकी सम्भावना दिखाई देती है कि उस पुरुष को पूर्व-जन्म के दुःखद आस्रवों की प्राप्ति हो ?" "मन्ते ! नहीं।" "वप्प ! तो क्या मानते हो मन की क्रियाओं के परिणाम-स्वरूप जो दु:खद आस्रव उत्पन्न होते हैं ; मन की क्रियाओं से विरत रहने से वे दुःखद आस्रव उत्पन्न नहीं होते ? वह नया कम नहीं करता । पुराने कर्म को भुगत-भुगत कर क्षीण कर देता है—यह क्षीण कर देने वाली क्रिया सांदृष्टिक निर्जरा(--क्षयी ) है, अकालिक है, इसके बारे में कहा जा सकता है, 'आओ और स्वयं देख लो', (निर्वाण की ओर) ले जाने वाली है, प्रत्येक विज्ञ पुरुष द्वारा जानी जा सकती है। वप्प ! क्या तुझे इसकी सम्भावना दिखाई देती है कि उस पुरुष को पूर्व-जन्म के दुःखद आस्रवों की प्राप्ति हो ?" "भन्ते ! नहीं।" "वप्प ! तो क्या मानते हो अविद्या के परिणाम-स्वरूप जो दुःखद आस्रव उत्पन्न होते हैं ; अविद्या के विनष्ट हो जाने से, विद्या के उत्पन्न हो जाने से दुःखद आस्रव उत्पन्न नहीं होते ? वह नया कर्म नहीं करता। पुराने कर्म को भुगत-भुगत कर क्षीण कर देता हैयह क्षीण करने वाली क्रिया सांदृष्टिक निर्जरा (-क्षयी) है, अकालिक है, इसके बारे में कहा जा सकता है, आओ और स्वयं देख लो', (निर्वाण की ओर) ले जाने वाली है, प्रत्येक विज्ञ पुरुष द्वारा जानी जा सकती है । वप्प ! क्या तुझे इसकी सम्भावना दिखाई देती है कि उस पुरुष को पूर्व-जन्म के दुःखद आस्रवों की प्राप्ति हो ?" "भन्ते ! नहीं।" "वप्प ! इस प्रकार जो भिक्षु सम्यक् रीति से विमुक्त हो गया है, उसे छह शान्तविहरण सिद्ध होते हैं । वह आँख से रूप देखने पर प्रसन्न न होता है, न अप्रसन्न होता है, वह उपेक्षायुक्त रहता है, स्मृतिमान् तथा ज्ञानी। कान से शब्द सुन कर.. नाक से गंध संघ कर ....जिह्वा से रस चख कर''काय से स्पष्टव्य का स्पर्श करके तथा मन से धर्म (मन के विषयों) को जान कर न प्रसन्न होता है, न अप्रसन्न होता है, वह उपेक्षायुक्त रहता है, स्मृतिमान् तथा ज्ञानी। वह जब तक पंचेन्द्रियों से अनुभव की जाने वाली सुख-दुःखमय वेदनाओं का अनुभव करता है, तब तक वह जानता है कि मैं पंचेन्द्रियों से अनुभव की जाने वाली सुख-दुःखमय वेदनाओं का अनुभव कर रहा हूँ। वह जब तक जीवनपर्यन्त मन से अनुभव की जाने वाली वेदनाओं का अनुभव करता है, तब तक यह जानता है कि मैं मन से अनुभव की जाने वाली वेदनाओं का अनुभव करता हूँ। वह यह भी जानता है कि शरीर के न रहने पर, जीवन की समाप्ति हो जाने पर सभी वेदनायें, सभी अच्छी-बुरी लगने वाली अनुभूतियाँ यहीं ठण्डी पड़ जायेंगी। वप्प ! जैसे खम्भे के होने से उसकी प्रतिच्छाया दिछाई देती है। एक आदमी कुदाल और टोकरी ले कर आये। वह उस खम्भे को जड़ से काट दे, जड़ से काट कर उसे खने, उसे खन कर जड़ें उखाड़ दे, यहाँ तक की खसकी जड़ पट्ट पतली-पतली जड़ें भी। फिर वह आदमी उस खम्भे के टुकड़े-टुकड़े करके उन्हें फाड़ डाले, फाड़ कर उसके छिलटे-छिलटे कर दे, छिलटे-छिलटे करके उसे हवा-धूप में सुखा डाले, हवा-धूप में सुखा ____ 2010_05 Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८८ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [ खण्ड : १ कर आग से जला डाले, आग से जला कर राख कर दे, राख करके या तो हवा में उड़ा दे अथवा नदी के शीघ्रगामी स्रोत में बहा दे । इस प्रकार वप्प ! जो उस खम्भे के होने से प्रतिच्छाया थी, उसकी जड़ जाती रहेगी। वह कटे वृक्ष की-सी हो जायेगी, वह लुप्त हो जायेगी, वह फिर भविष्य में प्रकट न होगी । इसी प्रकार वप्प ! जो भिक्षु सम्यक् रीति से विमुक्त चित्त हो गया है, उसे छः शान्त विहरण सिद्ध होते हैं । वह आँख से रूप देखने पर न प्रसन्न होता है, न अप्रसन्न होता है, वह उपेक्षा युक्त रहता है, स्मृतिमान् तथा ज्ञानी । कान से शब्द सुन कर नाक से गंध सूंघ कर जिह्वा से रस च कर काय से स्पृष्टव्य का स्पर्श करके तथा मन से धर्म ( मन के विषयों) को जान कर न प्रसन्न होता है, न अप्रसन्न होता है, वह उपेक्षा युक्त रहता है, स्मृतिमान् तथा ज्ञानी । वह जब तक पंचेन्द्रियों से अनुभव की जाने वाली सुख-दुःखमय वेदनाओं का अनुभव करता है, तब तक वह जानता है कि मैं पंचेन्द्रिय से अनुभव की जाने वाली सुख-दुःखमय वेदनाओं का अनुभव कर रहा हूँ । वह जब तक जीवनपर्यन्त मन से अनुभव की जाने वाली वेदनाओं का अनुभव करता है, तब तक वह जानता है कि मैं मन से अनुभव की जाने वाली वेदनाओं का अनुभव कर रहा हूँ । वह यह भी जानता है कि शरीर के न रहने पर जीवन की समाप्ति हो जाने पर, सभी वेदनाएँ, सभी अच्छी-बुरी लगने वाली अनुभूतियाँ यहीं ठण्डी पड़ जायेंगी ।" ऐसा कहने पर निठ श्रावक वप्प शाक्य ने भगवान् से यह कहा – “भन्ते ! जैसे कोई आदमी हो वह अपने धन की वृद्धि चाहता हो, वह बछेरों का पालन-पोषण करे । उसके धन की वृद्धि तो न हो, बल्कि वह क्लेश तथा हैरानी को ही प्राप्त हो। इसी प्रकार भन्ते ! मैं अभिवृद्धि की कामना से मूर्ख निगंठों की संगति की। मेरी अभिवृद्धि तो नहीं हुई, प्रत्युत मैं क्लेश और हैरानी का भागीदार हो गया । इसलिए भन्ते ! आज के बाद से निगंठों के प्रति मेरी जो भी श्रद्धा रही, उसे मैं या तो हवा में उड़ा देता हूँ अथवा तीव्रगामी नदी के वेग में बहा देता हूँ । भन्ते ! बहुत सुन्दर है भन्ते ! भगवान् मेरे प्राण रहने तक मुझे अपना उपासक स्वीकार करें।" · - सुत्तपिटके, अंगुत्तर निकाय पालि, चतुक्क निपात, महावग्गो, वप्पसृत्त, ४.२०-५ ( हिन्दी अनुवाद) पृ० १८८-१६२ के आधार से । समीक्षा वप्प शाक्य राजा था और स्वयं बुद्ध का चूलपिता ( पितृव्य ) था। हालांकि जैन परम्परा में इस सम्बन्ध से कोई उल्लेख नहीं है । उल्लेखनीय बात यह है कि बुद्ध ने जो कुछ वप्प को समझाया है, लगभग वह सव निर्ग्रन्थ धर्मगत ही है । आस्रव, निर्जरा आदि शब्दों के प्रयोग भी ज्यों के त्यों हुए हैं। श्रीमती राईस डेविड्स ने पंचवर्गीय वप्प और इस शाक्य वप्प के एक होने की सम्भावना व्यक्त की है; पर यह नितान्त असंभव है। दोनों वप्प कपिलवस्तु के थे, पर, १. अंगुत्तर निकाय अटुकथा, खण्ड २, पृ० ५५६ । R. It is quite in the range of possibility that the Vappa in Sutta 195 is one of those five friends in whom the Sakyamuni sought fellow helpers. - The Book of Gradual Sayings, vol. II, introduction, p. XIII. 2010_05 Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा] त्रिपिटकों में निगण्ठ व निगण्ठ नातपुत्त ३८६ एक वशिष्ठ गोत्री ब्राह्मण था और दूसरा शाक्यवंशीय क्षत्रिय। पंचवर्गीय वप्प बुद्ध से बहुत पूर्व दीक्षित हो चुका था। बुद्ध के बोधि-लाम के पश्चात् अपने साथियों-सहित वह अर्हत-पद को प्राप्त हुआ। बुद्ध के पितृव्य का निर्ग्रन्थ-धर्म में होना महावीर की ज्येष्ठता और निर्ग्रन्थ-धर्म की व्यापकता का भी परिचायक है । बुद्ध के विचारों में निर्ग्रन्थ-धर्म का यत्किचित् प्रभाव आने का भी यह एक निमित्त हो सकता है। १३. सकुल उदायी एक समय भगवान् बुद्ध राज गृह के कलन्दक निवाप में विहार करते थे। सकुल उदायी परिव्राजक भी अपनी महती परिषद् के साथ परिव्राजिकाराम में वास करता था। पूर्वाह्न समय भगवान् सकुल उदायी के पास गये। उदायी ने उनका हार्दिक स्वागत किया और बैठने के लिए आसन की प्रार्थना की। भगवान् एक ओर बैठ गये। उदायी भी एक नीचा आसन लेकर बैठ गया। भगवान् ने पूछा- "उदायी ! क्या कथा चल रही थी ?" "भन्ते ! इस कथा-चर्चा को जाने दीजिए। जब मैं इस परिषद् के पास नहीं होता हूँ; यह परिषद् अनेक प्रकार की व्यर्थ कथाएँ करती रहती हैं। जब मैं इस परिषद् के बीच होता हूँ यह मेरी ओर ही टकटकी बाँधे रहती है और जो कुछ मैं कहता हूँ, तन्मय होकर उसे सुनती है। भगवान् जब इस परिषद् के बीच होते हैं, तो हम सभी भगवान की ओर ही टकटकी बाँधे रहते हैं और भगवान् के धर्मोपदेश को सुनने के लिए समुत्सुक रहते हैं।" "उदायी! आज तू ही कुछ सुना।" "भन्ते ! पिछले दिनों मेरी एक शास्ता से भेंट हुई, जो अपने को सर्वज्ञ, सर्वदर्शी व निखिल ज्ञान-दर्शन का अधिकारी मानते हैं। वे यह भी मानते हैं कि मुझे चलते, खडे रहते. सोते, जागते भी निरन्तर ज्ञान-दर्शन उपस्थित रहता है। मेरे द्वारा आरम्भ के विषय में प्रश्न पूछे जाने पर वे इधर-उधर जाने लगे और बाहर की कथाओं द्वारा मुझे विलमाने लगे। उन्होंने कोप, द्वेष और अविश्वास व्यक्त किया। मुझे उस समय भगवान् के प्रति ही प्रीति उत्पन्न हुई। मुझे यह सुनिश्चित अनुभूति हुई कि भगवान् सुगत हैं, जो इन धर्मों में कुशल "उदायी ! वह सर्वज्ञ, सर्वदर्शी कौन है ?" "भन्ते ! निगंठ नातपुत्त।" "उदायी ! जो अनेक पूर्व जन्मों का ज्ञाता है, वह मुझे पूर्वान्त (आरम्भ) के विषय में प्रश्न पूछे और उससे मैं प्रश्न पूछू । उत्तर देकर वह मुझे सन्तर्पित करे और में उसे सन्तर्पित करूँ। जो दिव्य चक्षु से सत्त्वों को च्युत होते व उत्पन्न होते देखता है, वह मुझे दूसरे छोरा (अपर-अन्त) के बारे में प्रश्न पूछे । मैं भी उससे दूसरे छोर के बारे में प्रश्न पूछं। वह मुझे उत्तर देकर सन्तर्पित करे और मैं उसे सन्तर्पित करूँ। उदायी ! पूर्व और अपर-अन्त का प्रसंग जाने दो। मैं तुझे धर्म बतला दूं-ऐसा होने पर यह होता है ; इसके उत्पन्न होने से १. विनय पिटक, महावग्ग, महाखन्धक । देखें, भिक्षु संघ और उसका विस्तार प्रकरण के अन्तर्गत पंचवर्गीय भिक्षु । 2010_05 Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६० आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड : १ यह होता है। इसके न होने पर यह नहीं होता, इसके निरोध होने पर यह निरुद्ध होता है ।" -मज्झिमनिकाय, खूलसुकुलदायि सुत्तन्त, २-३-९ के आधार से | है । समीक्षा इस प्रकरण में 'कर्म - चर्चा' प्रकरण की तरह सर्वज्ञता की ही कुछ प्रकार भेद से चर्चा घटना-प्रसंग १४. निर्वाण - संवाद - १ एक बार भगवान् शाक्य देश में सामगाम में विहार करते थे । निगंठ नातपुत्त की कुछ समय पूर्व ही पावा में मृत्यु हुई थी। उनकी मृत्यु के अनन्तर ही निगंठों में फूट हो गई, दो पक्ष हो गये, लड़ाई चल रही थी और कलह हो रहा था । निगंठ एक-दूसरे को वचन - वाणों से बघते विवाद कर रहे थे. हुए 'तू इस धर्म - विनय को नहीं जानता, मैं इस धर्म - विनय को जानता हूँ' । 'तू मला इस धर्म-विनय को क्या जानेगा ? तू मिथ्यारूढ़ है, मैं सत्यारूढ़ हूँ" । मेरा कथन सार्थक है, तेरा कथन निरर्थक है' । 'पूर्व कथनीय बात तूने पीछे कही और पश्चात् कथनीय बात पहले कही' । 'तेरा वाद बिना विचार का उल्टा है' । 'तू ने वाद आरम्भ किया, किन्तु, निगृहीत हो गया'। 'इस वाद से बचने के लिए इधर-उधर भटक' । 'यदि इस वाद को समेट सकता है, तो समेट' । नातपुत्तीय निगण्ठों में मानो युद्ध ही हो रहा था । निगण्ठ नातपुत्त के श्वेत वस्त्रधारी गृहस्थ शिष्य भी नातपुत्तीय निगण्ठों में वैसे ही विरक्त-चित्त हो रहे थे, जैसे कि वे नातपुत्त के दुराख्यात, दुष्प्रवेदित, अनैर्याणिक, अन्-उपशम संवर्तनिक, अ-सम्यक् सम्बद्ध- प्रवेदित, प्रतिष्ठा-रहित, भिन्न स्तूप, आश्रय-रहित धर्म - विनय में थे । चुन्द समणुद्देस पावा में वर्षावास समाप्त कर सामगाम में आयुष्मान् आनन्द के पास आये और उन्हें निगण्ठ नातपुत्त की मृत्यु तथा निगण्ठों में हो रहे विग्रह की विस्तृत सूचना दी | आयुष्मान् आनन्द बोले – “आवुस चुन्द ! भगवान् के दर्शन के लिए यह कथा भेंट रूप है । आओ, हम भगवान् के पास चलें और उन्हें निवेदित करें।" आयुष्मान् आनन्द और चुन्द समणुद्देस भगवान् के पास आये । अभिवादन कर एक ओर बैठ गए। आयुष्मान आनन्द ने चुन्द समणुद्देस द्वारा सुनाया गया सारा घटना वृत्त भगवान् बुद्ध को सुनाया । १ - मज्झिमनिकाय, सामगाम सुत्तन्त, ३-१-४ के आधार से । १. विशेष समीक्षा के लिए देखें, 'काल-निर्णय' प्रकरण के अन्तर्गत 'महावीर - निर्वाणप्रसंग' ( पृ० ८०-८२ ) । 2010_05 Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा ] १५. निर्वाण - संवाद - २ भगवान् बुद्ध शाक्य देश में वेधञ्ञा नामक शाक्यों के आम्र-वन- प्रसाद में बिहार कर रहे थे । निगण्ठ नातपुत्त की कुछ ही समय पूर्व पावा में मृत्यु हुई थी। उनकी मृत्यु के अनन्तर ही निगण्ठों में फूट हो गई, दो पक्ष हो गए, लड़ाई चल रही थी और कलह हो रहा था । निगण्ठ एक-दूसरे को वचन वाणों से बींधते हुए विवाद कर रहे थे – 'तुम इस धर्म - विनय को नहीं जानते, मैं इस धर्म - विनय को जानता हूँ । तुम भला इस धर्म-विनय को क्या जानोगे ? तुम मिथ्या प्रतिपन्न हो, मैं सम्यक् प्रतिपन्न हूँ। मेरा कहना सार्थक है, तुम्हारा कहना निरर्थक है । जो बात पहले कहनी चाहिए थी, वह तुमने पीछे कही ; जो पीछे कहनी थी, वह तुमने पहले कही । तुम्हारा विवाद बिना विचार का उल्टा है । तुमने वाद रोपा है, तुम निग्रहस्थान में आ गए। तुम इस आक्षेप से बचने के लिए यत्न करो, यदि शक्ति है तो इसे सुलझाओ।' मानो निगण्ठों में युद्ध हो रहा था । निगण्ठ नातपुत्त के श्वेत वस्त्रधारी गृहस्थ शिष्य भी नातपुत्तीय निगण्ठों में वैसे ही विरक्त-चित्त हो रहे थे, जैसे नातपुत्त के दुराख्यात, दुष्प्रवेदित, अनैर्याणिक, अन् उपशमसंवर्तनिक, अ- सम्यक् सम्बुद्ध प्रवेदित, प्रतिष्ठा रहित, भिन्न स्तूप, आश्रय-रहित धर्म में अन्यमनस्क, खिन्न और विरक्त हो रहे थे । त्रिपिटकों में निगण्ठ व निगण्ठ नातपुत्त सुनायी । चुन्द समणुद्देस पावा में वर्षावास कर सामगाम में आयुष्मान् आनन्द के पास गए और उन्हें निगंठ नातपुत्त की मृत्यु तथा निगण्ठों में परिव्याप्त फूट की विस्तृत सूचना दी। आयुष्मान् आनन्द बोले – “आवुस चुन्द ! यह कथा भेंट रूप है । हम भगवान् के पास चलें और उनसे यह निवेदित करें।" चुन्द समणुद्देस आनन्द के साथ भगवान् बुद्ध के पास गए और उन्हें सारी कथा ३६१ - -दीघ निकाय, पासादिक सुत्त, ३१६ के आधार से । 2010_05 १६. निर्वाण चर्चा पावा-वासी मल्लों का उन्नत व नवीन संस्थागार उन्हीं दिनों बना था । तब तक वहाँ किसी श्रमण-ब्राह्मण ने वास नहीं किया था। भगवान् बुद्ध मल्ल में चारिका करते हुए पावा पहुँचे और चुन्द कर्मार पुत्र के आम्र-वन में ठहरे । जब पावा-वासी मल्लों को इसकी सूचना हुई तो वे उन्हें अपने संस्थागार के लिए आमंत्रित करने के लिए आए। उन्होंने निवेदन किया - " संस्थागार का सर्व प्रथम आप ही परिभोग करें। उसके अनन्तर उसका हम परिभोग करेंगे। यह हमारे दीर्घरात्र तक हित-सुख के लिए होगा ।" बुद्ध ने मौन रह कर स्वीकृति दी । मल्ल वापस शहर में आए। उन्होंने संस्थागार को अच्छी तरह सजाया । सब जगह फर्श बिछाया और आसन स्थापित किए। पानी के मटके रखे और तेल के दीपक जलाए । बुद्ध के पास आए और उन्हें सूचित किया । बुद्ध पात्रचीवर लेकर भिक्षु संघ के साथ संस्थागार में आये । पावा-वासी मल्लों को बुद्ध ने बहुत रात १. विशेष समीक्षा के लिए देखें, 'कालनिर्णय' प्रकरण के अन्तर्गत 'महावीर - निर्वाणप्रसंग' ( पृ० ८० - ८२ ) । Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६२ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [ खण्ड : १ तक धार्मिक कथा से संदर्शित, समुत्तेजित और संप्रहर्षित कर विसर्जित किया । भिक्षु संघ को तृष्णीभूत देख कर भगवान् ने सारिपुत्त को आमंत्रित किया और निर्देश दिया - "सारिपुत्त ! भिक्षु संघ स्त्यान-मृद्ध रहित है । तुम उन्हें धर्म - कथा कहो । मेरी पीठ अगिया रही है, मैं लेदूंगा । " सारिपुत्त ने बुद्ध का निर्देश शिरोधार्य किया । बुद्ध ने चोपेती संघाटी बिछवा, दहिनी करवट के बल, पैर पर पैर रख, स्मृति-संप्रजन्य के साथ उत्थान संज्ञा मन में कर सिंह- शय्या लगाई । निगण्ठ नातपुत्त की कुछ ही समय पूर्व पावा में मृत्यु हुई थी। उनके काल करने से निगण्ठों में फूट पड़ गई और दो पक्ष हो गये। दोनों विवाद में पड़, एक-दूसरे पर आक्षेपप्रत्याक्षेप करते हुए कह रहे थे - 'तू इस धर्म - विनय को नहीं जानता, मैं इस धर्म - विनय को जानता हूँ ।' 'तू इस धर्म को क्या जानेगा ?' 'तू मिथ्यारूढ़ है, मैं सत्यारूढ़ हूँ' । 'मेरा कथन -अर्थसहित है, तेरा नहीं है' ।' 'तू ने पहले कहने की बात पीछे कही और पीछे कहने की बात पहले कही' । 'तेरा विवाद बिना विचार का उल्टा है । तू ने वाद आरम्भ किया, किन्तु, निगृहीत, हो गया' । 'इस वाद से बचने के लिए इधर-उधर भटक' । 'यदि इस वाद को समेट सकता है, तो समेट' । निगण्ठों में मानो युद्ध ही हो रहा था । निगण्ठ नातपुत्त के श्वेत वस्त्रधारी गृहस्थ शिष्य भी नातपुत्तीय निगण्ठों में वैसे ही विरक्त चित्त हो रहे थे, जैसे कि वे नातपुत्त के दुराख्यात, दुष्प्रवेदित, अ-नैर्याणिक, अन्उपशम-संवर्तनिक, अ- सम्यक् सम्बुद्ध प्रवेदित, प्रतिष्ठा-रहित, आश्रय-रहित धर्म में हैं । आयुष्मान् सारिपुत्र ने भिक्षुओं को आमंत्रित किया और उन्हें निगंठ नातपुत्त की मृत्यु का संवाद तथा निगण्ठों की फूट की विस्तृत जानकारी देते हुए कहा - "हमारे भगवान् का यह धर्म सु-आख्यात, सुप्रवेदित, नैर्याणिक, उपशम-संवर्तनिक, सभ्यक्-सम्बुद्ध-प्रवेदित है । यहाँ सबको ही अविरुद्ध भाषी होना चाहिए । विवाद नहीं करना चाहिए, जिससे कि यह ब्रह्मचर्यं अध्वनिक ( चिरस्थायी ) हो और वह बहुजन हितार्थ, बहुजन सुखार्थ, लोक की अनुकम्पा के लिए तथा देव व मनुष्यों के हित व सुख के लिए हो ।' दीघनिकाय, संगीति- पर्याय- सुत्त, ३ १०-१,२,३ के आधार से । १७. निगण्ठ नातपुत्त की मृत्यु का कारण वह नातपुत्त तो नालन्दा-वासी था । वह पावा में कैसे कालगत हुआ ? उपालि गृहपति को सत्य का प्रतिबोध हुआ और उसने दस गाथाएं बुद्ध के उत्कीर्तन में कहीं। उस बुद्धकीर्ति को सहन न करते हुए नातपुत्त ने अपने मुँह से उष्ण रक्त उगल दिया । उस अस्वस्थ स्थिति में वह पावा ले जाया गया; अतः वहीं वह कालगत हुआ । -मज्झिम निकाय अट्ठकथा, सामगाम सुत्त वण्णना, खण्ड ४, पृ० ३४ के आधार से । समीक्षा जैन कथा वस्तु में तो उक्त प्रकार की घटना का उल्लेख है ही नहीं । मूल मज्झिम १. विशेष समीक्षा के लिए देखें, 'कालनिर्णय' प्रकरण के अन्तर्गत 'महावीर - निर्वाणप्रसंग ( पृ ८०-८२) । 2010_05 Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा] त्रिपिटकों में निगण्ठ व निगण्ठ नातपुत्त ३६३ निकाय के उपालि सुत्त में भी इस घटना को महावीर की मृत्यु से नहीं जोड़ा गया है। यह नितान्त अट्ठकथा का ही परिवर्द्धन है। जैन उल्लेख के अनुसार महावीर राजगृह से विहार कर पावा जाते हैं। वहाँ वे वर्षावास करते हैं और कार्तिक अमावस्या को निर्वाण प्राप्त करते हैं। इतनी प्रलम्ब अस्वस्थता उनकी रही होती, तो अवश्य उसका कहीं उल्लेख मिलता। इस अवधि में उनकी अस्वस्थता का कहीं उल्लेख नहीं है। १८. दिव्य-शक्ति-प्रदर्शन उस समय राजगृह के एक श्रेष्ठी को एक महायं चन्दनसार की चन्दन गाँठ मिली। श्रेष्ठी ने सोचा-"क्यों न मैं इसका पात्र बनवाऊँ ? चूरा मेरे काम आयेगा और पात्र का दान करूँगा।" पात्र तैयार हुआ। श्रेष्ठी ने उसे सींके में रख कर, उस सीके को एक पर एक, इस प्रकार अनेक बाँस बाँध कर, सबसे ऊँचे बांस के सिरे पर लटका दिया। उसने यह घोषणा भी कर दी-"जो श्रमण, ब्राह्मण, अर्हत् या ऋद्धिमान् हो; उसे यह दान दिया जाता है । वह इस पात्र को उतार कर ले ले।" पूरणकस्सप श्रेष्ठी के पास आया और उसने अपने को अर्हत् व ऋद्धिमान् बतलाते हुए उस पात्र की याचना की। श्रेष्ठी ने कहा-'भन्ते ! यदि आप वस्तुतः अर्हत् व ऋद्धिमान हैं, तो पात्र को उतार कर ले लें। मैंने आपको दिया।" किन्तु पूरणकस्सप उसे उतारने में सफल नहीं हुआ। मक्खली गोशाल, अजित केसकम्बली, पकुध काच्यायन, संजय वेलट्टिपुत्त व निगण्ठ नातपुत्त भी क्रमशः श्रेष्ठी के पास आए और उन्होंने भी अपने को अर्हत् व ऋद्धिमान् बतलाते हुए पात्र की याचना की। श्रेष्ठी का उनको भी वही उत्तर मिला। पात्र को उतारने में कोई भी सफल नहीं हुआ। __ आयुष्मान मौग्गलान व आयुष्मान् पिण्डोल भारद्वाज पूर्वाह्न को सु-आच्छादित हो, पात्र-चीवर ले, राजगृह में भिक्षा के लिए प्रविष्ट हुए। उन्होंने भी पात्र-सम्बन्धी यह सारी घटना सनी। पिण्डोल भारद्वाज ने मौग्गलान को और मौग्गलान ने पिण्डोल भारद्वाज को पात्र उतार लाने के लिए कहा। पिण्डोल भारद्वाज इस कार्य के लिए तैयार हुए। वे आकाश में उड़े। उस पात्र को लिया और उस पात्र-सहित राजगृह के तीन चक्कर लगाये। श्रेष्ठी पुत्रदारा सहित अपने आवास पर चढ़ा। करबद्ध होकर नमस्कार किया और अपने आवास पर ही उतरने की उनसे प्रार्थना की। पिण्डोल भारद्वाज ने उस प्रार्थना को स्वीकार किया और वहीं उतरे । श्रेष्ठी ने उनके हाथ से पात्र लिया और महार्य खाद्य से उसे भर कर उन्हें भेंट किया। पिण्डोल भारद्वाज यात्र-सहित आराम को लौट आए। पात्र को उतार लाने की घटना कुछ ही क्षणों में शहर में फैल गई। कुछ लोग कोलाहल करते हुए ही पिण्डोल भारद्वाज के साथ-साथ आराम में प्रविष्ट हुए। बुद्ध ने जब उस कोलाहल को सुना, तो आयुष्मान् आनन्द से उसके बारे में पूछा। आनन्द ने सारा घटनावृत्त जाना और भगवान् को निवेदित किया। भगवान् ने उसी समय भिक्षु-संघ को एकत्रित किया और सब के बीच पिण्डोल भारद्वाज से पूछा--"क्यों, तू ने सचमुच राजगृह श्रेष्ठी का पात्र उतारा?" "हाँ, भगवन् !" बुद्ध ने उन्हें धिक्कारते हुए कहा-"भारद्वाज ! यह अनुचित है, प्रतिकूल है, श्रमण के अयोग्य है और अकरणीय है । एक नगण्य से काष्ठ-पात्र के लिए गृहस्थों को उत्तर मनुष्य ___ 2010_05 Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६४ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [ खण्ड : १ धर्मऋद्धि प्रातिहार्यं तू ने कैसे दिखाया ? न यह (आचरण) अप्रसन्नों को प्रसन्न करने के लिए है और न प्रसन्नों (श्रद्धालुओं) को अधिक प्रसन्न करने के लिए; अपितु अप्रसन्नों को (और भी) अप्रसन्न करने के लिए तथा प्रसन्नों में से भी किसी किसी को उलट देने के लिए है । " भिक्षुओं को सम्बोधित करते हुए भगवान् बुद्ध ने कहा - "गृहस्थों को उत्तर मनुष्यधर्म- ऋद्धि प्रातिहार्य नहीं दिखाना चाहिए। जो दिखाये, उसे दुक्कट का दोष । इस पात्र के टुकड़े-टुकड़े कर भिक्षुओं को अञ्जन पीसने के लिए दे दो ।" 著 उसी प्रसंग पर भिक्षुओं के पात्र सम्बन्धी नियम का विधान करते हुए बुद्ध ने कहा"भिक्षुओं को स्वर्ण, रौप्य, मणि, वैडूर्य, स्फटिक, काँस्य, काँच, रांगा, सीसा, ताम्रलेह व काष्ठ का पात्र नहीं रखना चाहिए। जो रखे, उसे दुक्कट का दोष । केवल लोहे और मिट्टी के पात्र की मैं अनुज्ञा "देता हूँ ।" - विनय पिटक, चुल्लवग्ग, ५-१-१० ; धम्मपद - अट्ठकथा, ४-२ समीक्षा यह सारा उदन्त अतिशयोक्ति से मरा है । पिण्डोल भारद्वाज का चन्दन- पात्र के लिए ऋद्धि प्रातिहार्य का दिखलाना बुद्ध के द्वारा गृहर्य बताया गया है । यह कल्पना भी कैसे की जा सकती है कि निगण्ठ नातपुत्त उस चन्दन पात्र को लेने के लिए ललचाये होंगे और इस कौतुक में प्रयत्नशील हुए होंगे। जैन परम्परा में तो किसी भी ऋद्धि-प्रदर्शन का सर्वथा वर्जन है ।' लगता है, पिटकों में जहाँ भी इतर तंथिकों की न्यूनता व्यक्त करने का प्रसंग होता है, वहीं निगण्ठ नातपुत्त, पूरण कस्सप आदि सारे नाम दुहरा दिये जाते हैं । १६. छः बुद्ध ने पूरण कस्सप, मक्खली गौशाल, निगण्ठ नातपुत्त, संजय वेलट्ठिपुत्त, पकुध कच्चायन, अजित केसकम्बली आदि छहों शास्ता आचार्यों की सेवा से चिन्तामणि आदि विद्याओं में प्रवीण हो, 'हम बुद्ध हैं' यह घोषित करते हुए देश-देशान्तर में विचर रहे थे। वे चारिका करते हुए क्रमशः श्रावस्ती पहुंचे । उनके भक्तों राजा को सूचित किया, पूरण कस्सप आदि छः शास्ता बुद्ध हैं, सर्वज्ञ हैं और अपने नगर में आये हैं । राजा ने उन्हें, छहों शास्ताओं को निमंत्रित कर अपने राज-प्रासाद में लाने का निर्देश दिया। भक्तों ने अपने-अपने शास्ता को राजा का निमंत्रण दिया और राजा के यहाँ भिक्षा ग्रहण करने के लिए उन्हें बाध्य किया । उन सभी में वहाँ जाने का साहस नहीं था । भक्तों द्वारा पुनः पुनः आग्रह किये जाने पर वे एक साथ ही राजप्रासाद की ओर चले । राजा ने उनके लिए बहुमूल्य आसन बिछवा दिये थे । छहों शास्ता उन आसनों पर नहीं बैठे। वे धरती पर ही बैठे । उन आसनों पर बैठने से निर्गुणों के शरीर में राज-तेज छा जाता है; ऐसी उनकी मान्यता थी । राजा ने इससे निर्णय किया, इनमें शुक्ल धर्म नहीं है । राजा ने उन्हें भोजन प्रदान नहीं किया। इस प्रकार वे ताड़ से गिरे तो थे ही और राजा ने मुंगरे की मार जैसा एक प्रश्न उनसे और कर लिया- "तुम बुद्ध हो या नहीं ?” सारे ही शास्ता घबरा गये । उन्होंने सोचा - "यदि हम बुद्ध होने का दावा करेंगे, १. देखें, जयाचार्य कृत प्रश्नोत्तर तत्त्वबोध, गोशालाधिकार, पृ० १६० । 2010_05 के आधार से । Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा] त्रिपिटकों में निगण्ठ व निगण्ठ नातपुत्त ३९५ तो राजा हम से बुद्ध के बारे में नाना प्रश्न पूछेगा। यदि हम उनका समुचित उत्तर नहीं दे सकेंगे, तो राजा यह कहकर कि 'बुद्ध न होते हुए भी तुम अपने को बुद्ध कह कर जनता को ठगते फिरते हो, ; क्रुद्ध होकर हमारी जिह्वा भी कटवा सकता है तथा अन्य भी अनर्थ कर सकता है।" सभी ने उत्तर दिया-"हम बुद्ध नहीं हैं।" राजा ने रुष्ट होकर उन्हें राज-प्रासाद से निकलवा दिया। बाहर खड़े भक्त उत्सुकता से उनकी प्रतीक्षा कर रहे थे। ज्यों ही वे राज-प्रासाद से बाहर आये, भक्तों ने घेर लिया और पूछा----"राजा ने आप से प्रश्न पूछ कर आप को सत्कृत किया ? राजा ने आप से क्या प्रश्न किया ?" छहों आचार्यों ने वास्तविकता पर आवरण डालते हुए उत्तर दिया-'राजा ने हम से पूछा- 'तुम बुद्ध हो या नहीं ?' हमने निषेध में उत्तर दिया। उसकी पृष्ठभूमि में हमारा तात्पर्य था, राजा बुद्ध के बारे में अनभिज्ञ है । यदि हम स्वीकृति-सूचक उत्तर देते, तो हमारे प्रति राजा का मन दूषित होता। हमने राजा पर अनुग्रह कर ऐसा उत्तर दिया। वैसे तो हम बुद्ध ही हैं । हमारा बुद्धत्व पानी से धोने पर भी नहीं जा सकता।" -संयुत्त निकाय-अट्ठकथा, ३-१-१ के आधार से। समीक्षा एक अतिरंजित कथा के अतिरिक्त इस अट्ठकथा का कोई महत्त्व नहीं लगता। २०. मृगार श्रेष्ठी श्रावस्ती में मृगार श्रेष्ठी रहता था। उसके पुत्र पूर्णवर्धन का विवाह साकेत के धनञ्जय श्रेष्ठी की पुत्री विशाखा के साथ हुआ। मृगार सेठ ने एक सप्ताह तक विवाहोत्सव मनाया । वह निम्रन्थों का अनुयायी था ; अतः उसने इस उपलक्ष्य पर सातवें दिन बहुत सारे निम्रन्थों को आमंत्रित किया, किन्तु, गौतम बुद्ध को आमंत्रित नहीं किया। निम्रन्थों से उसका सारा घर भर गया। श्रेष्ठी ने विशाखा को शासन भेजा, अपने घर अर्हत् आये हैं ; अतः तुम आकर उन्हें वन्दना करो। विशाखा स्रोतापन्न आर्य श्राविका थी। अर्हत् का नाम सुनकर वह बहुत हृष्ट-तुष्ट हुई। वह तत्काल तैयार हुई और वन्दना करने के लिए चली आई। उसने जब नग्न निर्ग्रन्थों को देखा तो वह सहसा सिहर उठी। उसके मुंह से कुछ शब्द निकल ही पड़े- क्या अर्हत् ऐसे ही होते हैं ? मेरे श्वसुर ने इन लज्जाहीन श्रमणों के पास मुझे क्यों बुलाया ? धिक्, धिक् ।" वह उसी क्षण अपने महल में लौट आई। __ नग्न श्रमण विशाखा के उस व्यवहार से बहुत खिन्न हुए। उन्होंने मृगार श्रेष्ठी को कड़ा उल्हाना देते हुए कहा-“श्रेष्ठिन् ! क्या तुझे दूसरी कन्या नहीं मिली ? श्रमण गौतम की इस महाकुलक्षणा श्राविका को अपने घर क्यों लाया? यह तो जलती हुई गाडर है। शीघ्र ही इसे घर से निकालो।" मृगार श्रेष्ठी असमंजस में पड़ गया। उसने सोचा, विशाखा महाकुल कन्या है । इनके कथन-मात्र से इसे निकाला नहीं जा सकता। न निकालने पर श्रमणों का कोप भी उससे अपरिचित नहीं था। उसने अत्यधिक विनम्रता के साथ उनसे क्षमा माँगी और उन्हें ससम्मान विदा किया। ____ 2010_05 Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६६ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड : १ __ स्वयं बड़े आसन पर बैठा। सोने की कलछी से सोने की थाली में परोसा गया निर्जल मधुर क्षीर भोजन करने लगा। उसी समय एक स्थविर (बौद्ध) भिक्षु पिण्डचार करता हुआ श्रेष्ठी के गृह-द्वार पर आया। विशाखा ने उसे देखा। श्वसुर को सूचित करना उसे उचित नहीं लगा, अतः वह वहाँ से उठकर एक ओर इस प्रकार खड़ी हो गई, जिससे मृगार श्रेष्ठी भिक्षु को अच्छी तरह देख सके । मूर्ख श्रेष्ठी स्थविर को देखता हुआ भी न देखते हुए की तरह नीचा मुंह कर पायस खाता रहा । विशाखा ने जब यह सारा दृश्य देखा तो उससे नहीं रहा गया। स्थविर को लक्ष्य कर वह बोली-“भन्ते ! आग जायें। मेरा श्वसुर बासी खा रहा है।" निर्ग्रन्थों के प्रति विशाखा द्वारा हुए असभ्य व्यवहार से ही मृगार श्रेष्ठी बहुत रुष्ट था और जब उसने अपने प्रति 'बासी खा रहा है'; यह सुना तो उसके कोप का ठिकाना नहीं रहा। उसने भोजन से हाथ खींच लिया और अपने अनुचरों को निर्देश दिया-"इस पायस को ले जाओ और इसे (विशाखा को) भी घर से निकालो। यह मुझे ऐसे मंगल घर में भी अशुचि-भोजी बना रही है।" सभी अनुचर विशाखा के अधिकार में थे और उसके प्रति उनकी गहरी निष्ठा थी। उसे पकड़ने की बात तो दूर रही, उसके प्रति असभ्य शब्द का व्यवहार भी कोई नहीं कर सकता था। विशाखा श्वसुर को सम्बोधित करती हुई बोली- 'तात ! मैं ऐसे नहीं निकल सकती। आप मुझे किसी पनिहारिन की तरह नहीं लाये हैं। माता-पिता की वर्तमानता में कन्याओं के साथ ऐसा व्यवहार नहीं किया जा सकता। मेरे पिता ने जिस दिन मुझे अपने घर से विदा किया था ; आठ कौटुम्बिकों को मेरे अपराध के शोधन का दायित्व सौंपा था। उन्हें बुला कर आप मेरे दोष का परिशोधन करें।" विशाखा ने क्षमा प्रदान करते हुए अपनी एक शर्त प्रस्तुत की। उसने कहा- मैं बुद्ध-धर्म में अत्यन्त अनुरक्त कुल की कन्या हूँ। मैं भिक्षु की सेवा के बिना नहीं रह सकती। यदि मुझे भिक्षु-संघ की सेवा का यथेच्छ अवसर दिया जाये तो मैं रहँगी; अन्यथा इस घर में रहने के लिए कतई प्रस्तुत नहीं हूँ।" मृगार श्रेष्ठी विशाखा की शर्त स्वीकार की और एक अपवाद संयोजित किया- "बुद्ध का स्वागत तुझे ही करना होगा। मैं उसमें उपस्थित होना नहीं चाहता।" विशाखा ने दूसरे ही दिन बुद्ध को ससंघ निमंत्रित किया । बुद्ध जब उसके घर आये तो सारा घर भिक्षुओं से भर गया। विशाखा ने उनका हार्दिक स्वागत किया। नग्न श्रमणों (निर्ग्रन्थों) ने जब यह वृतान्त सुना तो वे भी दौड़े आये और उन्होंने मृगार श्रेष्ठी के घर को चारों ओर से घेर लिया। विशाखा ने बुद्ध प्रभृति संघ को दक्षिणोदक दिया और श्वसुर के पास शासन भेजा, सत्कार-विधि सम्पन्न हो गई है, आप आकर भोजन परोसें। श्रेष्ठी निर्ग्रन्थों के प्रभाव में था ; अतः नहीं आया। भोजन समाप्त हो चुकने पर विशाखा ने फिर शासन भेजा. श्वसुर बुद्ध का धर्मोपदेश सुनें । अब न जाना अनुचित होगा, यह सोच कर मगार श्रेष्ठी अपने कक्ष से चला । नग्न श्रमणों (निर्ग्रन्थों) ने आकर रोका और कहा- 'श्रमण गौतम का धर्मोपदेश कनात के बाहर रह कर सुनना।" मृगार श्रेष्ठी ने उसे छूट सम्बोधित करते हुए कहा १. विस्तृत कथा-वृत्त देख, 'प्रमुख उपासक-उपासिकाएं' प्रकरण के अन्तर्गत, पृ०२७६-८६। ___ 2010_05 Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा] त्रिपिटकों में निगण्ठ व निगण्ठ नातपुत्त ३९७ "तू चाहे कनात के बाहर, दीवाल या पर्वत की आड़ में व चक्रवाल के अन्तिम छोर पर भी क्यों न बैठे, मैं बुद्ध हूँ; अतः तुझे उपदेश सुना सकता हूँ।" बुद्ध ने उपदेश प्रारम्भ किया। सुनहले, पके फलों से लदी हुई आम्र-वृक्ष की शाखा को झकझोरने पर जैसे फल गिरने लगते हैं, उसी प्रकार श्रेष्ठी के पाप विनष्ट होने लगे और उपदेश समाप्त होते-होते वह स्रोतापत्ति-फल में प्रविष्ट हो गया।' -धम्मपद-अट्ठकथा, ४-४ के आधार से। समीक्षा यह सारा प्रसंग धम्मपद अट्ठकथा का है; अत: अतिरंजित होना तो सहज है ही। आगमों में किसी भी मृगार नामक गृहपति के निगण्ठ-श्रावक होने का उल्लेख नहीं मिलता। मूल त्रिपिटकों में भी उक्त घटना-प्रसंग का कोई विवरण नहीं है। (२१) गरहदिन्न और सिरिगुत्त श्रावस्ती में दो मित्र रहते थे। एक का नाम सिरिगुत्त था और दूसरे का गरहदिन्न था। सिरिगुत्त बुद्ध का उपासक था, गरहदिन्न निगण्ठों का। दोनों में धार्मिक चर्चाएं होती। गरहदिन्न चाहता था, सिरिगुत निगण्ठों का उपासक बने। वह कहता, निगण्ठ सर्वज्ञ. सर्वदर्शी होते हैं। वे चलते, उटा, सोते सब कुछ जानते हैं, देखते हैं। सिरिगृत्त ने एक दिन अपने यहां 500 निगण्ठ साधुओं को आमन्त्रित किया। उनकी सर्वज्ञता की परीक्षा के लिए उसने अपने घर में एक गर्त खुदवाया। गर्त में उसने विष्ठा भरवाया। उस गड्ढे पर एक जाल बांधा। उस पर आसनादि बिछा दिये। निगण्ठ आये, बिछे आसन पर ज्यों ही बैठे, गर्त में घस गये। गरहदिन्न इस घटना से बहुत असन्तुष्ट हुआ। उसके मन में प्रतिशोध की भावना जगी। कालान्तर से उसने अपने यहाँ भिक्षु-संघ-सहित बुद्ध को आमंत्रित किया। उसने भी उसी तरह एक गर्त बनवाया और उसमें अंगारे भरवाये। उसी तरह जाल बिछाया और आसन लगाये । बुद्ध ने आते ही अपने ज्ञान-बल से सब कुछ समझ लिया। अपने ऋद्धि-बल से अंगारों के स्थान में कमल उत्पन्न कर दिए। कमल तत्काल ऊपर उठ आये। तब कमलों पर ५०० भिक्षुओं के साथ बैठकर बुद्ध ने धर्मोपदेश किया। गरह दिन्न, सिरिगुत्त तथा अन्य अनेक लोग स्रोतापत्ति-फल को प्राप्त हुए। -धम्मपद - अट्ठकथा, ४-१२ के आधार से । समीक्षा लगता है, साम्प्रदायिक मनोभावों से अनेक कथाएं गढ़ी जाती रही हैं। उनमें से १. प्रस्तुत कथा-वस्तु अनाथपिण्डिक की कन्या चूल सुभद्दा के सम्बन्ध से भी ज्यों की त्यों मिलती है । (देखें धम्मपद अट्ठकथा, २१-८)। ____ 2010_05 Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड: १ एक यह भी है। ठीक इसी प्रकार की एक कथा जैन परम्परा में भी बहुत प्रचलित है। उसके अनुसार राजा श्रेणिक बौद्ध मत को मानने वाला था और रानी चेलणा जैन मत को मानने वाली थी। दोनों एक-दूसरे को अपने धर्म में लाने के लिए प्रयत्नशील थे। श्रेणिक के आग्रह पर चेलणा ने बौद्ध भिक्षुओं को भोजन के लिए आमन्त्रित किया। भिक्षु आये। श्रेणिक उन्हें महाज्ञानी मानता था। चेलणा ने बौद्ध-गुरु की चर्म-उपानत् उठाकर मंगवा ली और उनकी कतरनें करके 'सांगरी का रायता' बनवा दिया। रायता अनेक सुगन्धित पदार्थों से भानित था। वह बौद्ध गुरुओं को बहुत अच्छा लगा। इस प्रकार वे अपनी सारी जूती रायते के साथ खा गये। लौटते समय जब बौद्ध-गुरु की जूती नहीं मिली, तब चेलणा ने सारा भेद खोला। बौद्ध भिक्षु बेचारे शरमायें। राजा श्रेणिक इस बात से बहुत क्रोधित हुआ और उसने प्रतिशोध लेने की बात मन में ठानी। राजा ने एक दिन सायंकाल वन-क्रीड़ा से आते एक शून्य देवालय में एक निगण्ठ मुनि को ध्यानस्थ देखा । तत्काल एक वेश्या को बुला, उसे भी उस देवालय में बिठा दिया। राजमहल में जा, चेलणा से चर्चा की कि निगण्ठ मुनि वेश्याओं के साथ रात बिताते हैं। मैं सबेरे तुम्हें यह बात बताऊँगा। बात नगर में फैल चुकी थी। सबेरे राजा रानी को लेकर देवालय पर आया। सहस्रों लोग और भी इकट्ठे हुए। निगण्ठ मुनि राजा की इस करतूत को समझ चुका था। उसने अपने तपोबल से अपना रूप बदल कर बौद्ध भिक्षु का रूप बना लिया। दरवाजा खुलते ही बौद्ध भिक्षु और वेश्या सबको दिखलाई दिये। रानी की विजय हुई। राजा ने अपने धर्म का उपहास और घृणा-भाव नगर में करा लिया। समीक्षा अन्य धर्मों के सम्बन्ध से भी इस प्रकार के अनेक कथानक दोनों परम्पराओं में मिलते हैं तथा इन दोनों परम्पराओं के सम्बन्ध में इतर धर्मों में भी ऐसे ही कथानक मिलते हैं। लगता है, कोई युग ही आया था। जिसमें ऐसे कथानक गढ़ने की होड़ लगी थी। मिलिन्द पञ्हो में कहा गया है-गरहदिन्न के घर बुद्ध के धर्मोपदेश करते समय ५४००० व्यक्तियों को स्रोतापत्ति-फल मिला।' यह भी प्रस्तुत कथानक की अयथार्थता का एक प्रमाण है। उल्लेख-प्रसंग २२. श्रामण्य-फल एक समय बुद्ध राजगृह में जीवक कौमार-भृत्य के आम्रवन में साढ़े बारह सौ भिक्षुओं के वृहद् संघ के साथ विहार कर रहे थे। पूर्णमासी के उपोसथ का दिन था। चातुर्मासिक कौमुदी से युक्त पूर्णिमा की रात को, राजा मगध अजातशत्रु वैदेहीपुत्र, राजअमात्यों से घिरा हुआ, उत्तम प्रासाद पर बैठा था। उस समय अजातशत्रु ने उदान कहा- "अहो ! कैसी १. मिलिन्द प्रश्न, ३५० । ___ 2010_05 Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा] त्रिपिटकों में निगण्ठ व निगण्ठ नातपुत्त ३६६ रमणीय चांदनी रात है ! कैसी सुन्दर दर्शनीय, प्रासादिक व लाक्षणिक रात है ! किस श्रमण या ब्राह्मण का सत्संग करें, जो हमारे चित्त को प्रसन्न करे।" एक राजमंत्री ने कहा-"महाराज पूरण-कस्सप गणनायक, गणचार्य, ज्ञानी, यशस्वी, तीर्थङ्कर, बहुजन-सम्मानित, अनुभवी, चिरप्रव्रजित व वयोवृद्ध हैं। आप उनसे धर्म चर्चा करें। उनका अल्पकालिक सत्संग भी आपके चित्त को प्रसन्न करेगा।" राजा अजातशत्रु ने सुना किंतु मौन रहा। दूसरे मन्त्री ने उक्त विशेषणों को दुहराते हुए मक्खलि गोशाल का सुझाव दिया। राजा अजातशत्रु मौन रहा । इस प्रकार विभिन्न मंत्रियों ने इसी उक्ति के साथ क्रमश: अजित केसकम्बली, पकुध कच्चायन, निगण्ठ, नातपुत्त व संजय वेल ट्ठिपुत्त का सुझाव दिया। अजातशत्रु ने यह सब कुछ सुना, किंतु मौन रहा । जीवक कौमार भृत्य भी अजातशत्रु के पास मौन बैठा था। राजा ने उससे कहा--"सौम्य जीवक ! तुम मौन क्यों हो? तुम भी अपना सुझाव दो।" जीवक ने कहा--''महाराज ! मेरे आम्र-उद्यान में साढ़े बारह सौ भिक्षुओं के बहद् संघ के साथ भगवान् अर्हत् सम्यक् सम्बुद्ध विहार कर रहे हैं। उनका मंगल यश फैला हुमा है। वे भगवान् अर्हत्, परमज्ञानी विद्या और आचरण से युक्त, सुगत, लोकविद्, पुरुषों को सन्मार्ग पर लाने के लिए अनुपम अश्व नियन्ता, देव व मनुष्यों के शास्ता तथा बुद्ध हैं। महाराज! आप उनके पास चलें और उनसे धर्म चर्चा करें। कदाचित् आपका चित्त प्रसन्न हो जायेगा।" ___ अजातशत्रु जीवक के सुझावानुसार बुद्ध के दर्शनार्थ चला। सुसज्जित पाँच सौ हाथियों पर उसकी पाँच सौ रानियाँ थी। स्वयं भी पट्टहस्ती पर आरूढ़ हुआ। मशालों की रोशनी से घिरा, राजकीय विपुल आडम्बर के साथ चला । उद्यान के समीप पहुंचते ही राजा का मन भय व आशंका से भर गया। रोमांचित होकर उसने जीवक से कहा- "कहीं तुम मुझे धोखा तो नहीं दे रहे हो ? मेरे साथ विश्वासघात तो नहीं कर रहे हो ? कहीं तुम मुझे शत्रुओं के हाथ तो नहीं दे रहे हो ? साढ़े बारह सौ भिक्षुओं के इतने बड़े संघ की अवस्थिति पर भी किसी के थूकने, खाँसने तक का तथा अन्य किसी दूसरे प्रकार का शब्द तक नहीं हो रहा है।" जीवक ने सस्मित उत्तर दिया-"महाराज! मैं आपको धोखा नहीं दे रहा है और न मैं आपको शत्रुओं के हाथों ही दे रहा हूँ। आप आगे चलें। सामने देखें, मण्डप में दीपक जल रहे हैं।" , जहाँ तक हाथी जा सकता था, वहाँ तक अजातशत्रु हाथी पर गया। उसके बाद पैदल ही मण्डप द्वार पर पहुँचा । क्रमशः मण्डप में प्रविष्ट हुआ। अद्भुत शान्ति को देखकर वह बहुत प्रभावित हुआ। सहसा उसने उदान कहा-'मेरा कुमार उदयभद्र भी इस प्रकार की शान्ति में सुस्थिर हो।" अजातशत्रु भगवान् को अभिवादन कर व भिक्षु-संघ को करबद्ध नमस्कार कर एक ओर बैठ गया। राजा ने प्रश्न पूछने की अनुमति ली और पूछा-"भन्ते ! विविध शिल्पों के माध्यम से व्यक्ति जीविका उपार्जन कर प्रत्यक्षतः सुखी होता है; क्या उसी प्रकार इसी जीवन में श्रामण्य का प्रत्यक्ष फल भी पाया जा सकता है?" "महाराज ! क्या यह प्रश्न तुमने दूसरे श्रमण-ब्राह्मणों से भी पूछा है ? यदि पूछा हो, 2010_05 Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०० आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन तो उन्होंने क्या उत्तर दिया, बताओ।" अजातशत्रु ने बताया- 'मैं पूरण कस्सप, मक्खलि गोशाल, अजित केसकम्बली, पकुध कच्चायन व संजय वेलठ्ठिपुत्त के पास गया । जैसे कि भन्ते ! पूछे आम और उत्तर दे कटहल ; पूछे कटहल और उत्तर दे आम । उसी प्रकार भन्ते ! उन सभी ने सांदृष्टिक श्रामण्यफल पूछे जाने पर क्रमशः अक्रियवाद, दैववाद, उच्छेदवाद, अकृतावाद व अनिश्चिततावाद' का उत्तर दिया। मैंने उनके कथन का न तो अभिनन्दन ही किया और न निन्दा ही की। मैंने उनके सिद्धान्त को न स्वीकार ही किया और न निरादर ही किया। आसन से उठकर चला आया। "भन्ते ! मैं निगण्ठ नातपुत्त के पास भी गया और उनसे भी सांदृष्टिक श्रामण्य-फल के बारे में पूछा। उन्होंने उसके उत्तर में मुझे चातुर्याम संवरवाद बतलाया। उन्होंने कहा'निगण्ठ चार संवरों से संवृत्त रहता है-1. वह जल के व्यवहार का वर्जन करता है, जिससे जल के जीवन मर, २. वह सभी पापों का वर्जन करता है, ३. सभी पापों के वर्जन से धूतपाप होता है और ४. सभी पापों के वर्जन में लगा रहता है। इसीलिए वह निर्ग्रन्थ, गतात्मा, यतात्मा और स्थितात्मा कहलाता है।' भन्ते ! मेरा प्रश्न तो था, प्रत्यक्ष श्रामण्य फल के बारे में और निगण्ठ नात पुत्त ने वर्णन किया चार संवरों का। भन्ते ! यह भी वैसा ही था, जैसे पूछे आम और उत्तर दे कटहल ; पूछे कटहल और उत्तर दे आम। मैंने उनके कथन का भी न अभिनन्दन किया और न ही निन्दा की। उनके सिद्धान्त को न मैंने स्वीकार किया और न उसका निरादर ही किया। आसन से उठकर चला आया।" बुद्ध ने राजा अजातशत्रु के प्रश्न का दृष्टान्त, युक्ति व सिद्धांत के माध्यम से सविस्तार उत्तर दिया। अजातशत्रु उससे बहुत प्रभावित हुआ। बोला--"आश्चर्य भन्ते ! अद्भुत भन्ते ! जैसे उल्टे को सीधा कर दे, आवृत्त को अनावृत्त कर दे, मार्ग-विस्मृत को मार्ग बता दे, अंधेरे में तेल का दीपक दिखा देजिससे सनेत्रदेख सकें; उसी प्रकार भगवान् ने अनेक प्रकार से धर्म को प्रकाशित किया है। मैं भगवान् की शरण ग्रहण करता हूँ, धर्म व भिक्ष संघ की भी। आज से यावज्जीवन मुछे शरणागत उपासक स्वीकार करें।" अजातशत्र ने अपना आत्मालोचन करते हुए कहा-"भन्ते ! मैंने एक बड़ा भारी अपराध किया है । मैंने अपनी मूढ़ता, मूर्खता और पापों के कारण राज्य लोभ से प्रेरित होकर धर्मराज पिता की हत्या की है । भन्ते ! भविष्य में संभलकर रहूँगा । आप मेरे जैसे अपराधी को क्षमा करें।" बुद्ध ने उत्तर में कहा-'"चूंकि महाराज! तुम अपने पाप को समझकर, भविष्य में सावधान रहने की प्रतिज्ञा करते हो; अतः मैं तुमको क्षमा प्रदान करता हूँ। आर्य धर्म में यह वृद्धि (लाभ) की बात समझी जाती है, यदि कोई अपने पाप को समझकर और स्वीकार कर भविष्य में वैसा न करने और धर्माचरण करने की प्रतिज्ञा करता है।" अजातशत्रु बुद्ध के कथन का अभिनन्दन व अनुमोदन कर आसन से उठा और वन्दनाप्रदक्षिणा कर चला आया । बुद्ध ने भिक्षुओं को सम्बोधित किया--"इस राजा का संस्कार अच्छा नहीं रहा। यह राजा अभागा है। यदि यह राजा अपने धर्मराज पिता की हत्या १. इन मतवादों के विस्तृत उल्लेख के लिए देखें; 'समसामयिक धर्म नायक' प्रकरण । २. देखें; 'समसामयिक धर्म-नायक' प्रकरण । ____ 2010_05 Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा ] त्रिपिटकों में निंगण्ठ व निगण्ठ नातपुत ४०१ नहीं करता, तो आज इसे इसी आसन पर बैठे-बैठे विरज, विमल घर्म चक्षु उत्पन्न हो जाता ।" -दीघ निकाय, सामञ्जफल सुत्त, १-२ के आधार से । समीक्षा सामञ्जफल सुत्त की समीक्षा पूर्व के समसामयिक धर्म-नायक व काल निर्णय प्रकरणों में अनेक पहलुओं से की जा चुकी हैं । महावीर को चातुर्याम धर्म का निरूपक बतलाना इस बात की ओर संकेत करता है कि बौद्ध भिक्षु पार्श्वनाथ' की परम्परा से संपृक्त रहे हैं और महावीर के धर्म को भी उन्होंने उसी रूप में देखा है, जबकि वह पञ्चशिक्षात्मक था । चार याम जो यहाँ बताये गए हैं, वे यथार्थ नहीं हैं । तथाप्रकार की व्रत- परिकल्पना और भी किसी नाम से जैन- परम्परा में नहीं मिलती। इतना अवश्य कहा जा सकता है कि शीतोदक- वर्जन आदि के रूप में ये चार निषेध जैन- परम्परा से विरुद्ध नहीं हैं । चूलसुकुलदायि सुत्त और ग्रामणी संयुत्त में प्राणातिपात, अदत्तादान, कामेसुमिच्छाचार व मुसावाद से निवृत्त होने का उल्लेख है, पर, वहाँ 'चातुर्याम' शब्द का प्रयोग नहीं है । महावीर का नाम अजातशत्रु को किस मंत्री ने सुझाया, यह उक्त प्रसंग में नहीं है, पर, महायान - परम्परा के अनुसार उक्त सुझाव अभयकुमार ने दिया था । यहाँ अन्य सभी धर्म - नायकों को चिर-प्रव्रजित और वयोऽनुप्राप्त कहा गया है, पर, बुद्ध के लिए जीवक ने इन विशेषणों का प्रयोग नहीं किया है। इससे सूचित होता है, इन सबकी अपेक्षा में बुद्ध तरुण थे । २३. बुद्ध : धर्माचार्यों में कनिष्ठ 1 एक बार भगवान् बुद्ध श्रावस्ती में अनाथपिण्डिक के जेतवन में विहार कर रहे थे राजा प्रसेनजित् कौशल भगवान् के पास गया, कुशल प्रश्न पूछे और जिज्ञासा व्यक्त की"गौतम ! क्या आप भी अधिकार- पूर्वक यह कहते हैं, आपने अनुत्तर सम्यग् सम्बोधि को प्राप्त कर लिया है ?" भगवान् ने उत्तर दिया- "महाराज ! यदि कोई किसी को सचमुच सम्यग् कहे तो वह मुझे ही कह सकता है । मैंने ही अनुत्तर सम्यग् सम्बोधि का साक्षात्कार किया है।" राजा प्रसेनजित् कौशल ने कहा - " गौतम ! दूसरे श्रमण-ब्राह्मण, जो संघ के अधिपति, १. चाउज्जामो य जो धम्मो, जो इमो पंचसिक्खिओ । देसिओ वद्धमाणेण, पासेण य महामुनी ॥ - उत्तराध्ययन सूत्र, अ० २३, गाथा २३ २. मज्झिमनिकाय, ७६ तथा इसी प्रकरण में सम्बन्धित प्रसंग - संख्या १३ । ३. इसी प्रकरण में सम्बन्धित प्रसंग - संख्या ६ । 2010_05 Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०२ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड : १ गणाधिपति, गणाचार्य, प्रसिद्ध, यशस्वी, तीर्थङ्कर और बहुजन-सम्मत, पूरणकस्सप, मक्खलि गोशाल, निगण्ठ नातपुत्त, संजय वेलट्ठिपुत्त, पकुघ कच्चायन, अजित केसकम्बली आदि से भी ऐसा पूछा जाने पर, वे अनुत्तर सम्यग् सम्बोधि-प्राप्ति का अधिकार-पूर्वक कथन नहीं करते हैं। आप तो अल्पवयस्क व सद्यः प्रवजित हैं। फिर यह कैसे कह सकते हैं ?" बुद्ध ने कहा- "क्षत्रिय, सर्प, अग्नि व भिक्षु को अल्पवयस्क समझकर कभी भी उनका परिभव व अपमान नहीं करना चाहिए। कुलीन, उत्तम, यशस्वी क्षत्रिय को अल्प-वयस्क समझना भूल है । हो सकता है, समयान्तर से वह राज्य-प्राप्त कर मनुष्यों का इन्द्र हो जाये और उसके बाद तिरस्कर्ता का राज-दण्ड के द्वारा प्रतिशोध ले। अपने जीवन की रक्षा के लिए इससे बचना आवश्यक है। गांव हो या अरण्य, सर्प को भी छोटा नहीं समझना चाहिए। सर्प नाना रूपों से तेज में विचरता है। समय पाकर वह नर, नारी, बालक आदि को डंस सकता है। जीवन रक्षा के निमित्त इससे बचना मी आवश्यक है। बहभक्षी कृष्णवर्मा पावक को दहर नहीं समझना चाहिए। सामग्री पाकर वह अग्नि सुविस्तृत होकर नर-नारियों को जला देती है; अत: जीवन रक्षा के निमित्त इससे बचना भी आवश्यक है। अग्नि वन को जला देती है। अहोरात्र बीतने पर वहाँ अंकुर उत्पन्न हो जाते हैं । किन्तु, शील-सम्पन्न भिक्षु अपने तेज से जिसे जला डालता है, उसके पुत्र, पशु तक भी नहीं होते। उसके दायाद भी धन नहीं पाते। वह निःसंतान और निर्धन सिर कटे ताल वृक्ष जैसा हो जाता है। अतः पण्डितपुरुष अपने हित का चिन्तन करता हुआ भुजंग, पावक, यशस्वी क्षत्रिय और शील-सम्पन्न भिक्ष के साथ अच्छा व्यवहार करे।" राजा प्रसेनचित् कौशल ने कहा- "आश्चर्य भन्ते ! आश्चर्य भन्ते ! जैसे औंधे को सीधा कर दे, आवृत्त को अनावृत्त कर दे, मार्ग-विस्मृत को मार्ग बता दे, अंधेरे में तेलप्रदीप दिखा दे, जिससे सनेत्र देख सकें, वैसे ही भन्ते ! भगवान् ने अनेक प्रकार से धर्म को प्रकाशित किया है। भन्ते ! मैं भगवान की शरण जाता हूँ, धर्म की शरण जाता हूँ और भिक्ष-संघ को शरण जाता हूँ। आज से जीवन-पर्यन्त मुझे शरणागत उपासक स्वीकार करें, -संयुत्त निकाय, दहरसुत्त, ३-१-१ के आधार से। समीक्षा सब धर्मनायकों में बुद्ध की कनिष्ठता का यह एक ज्वलन्त प्रमाण है। महावीर और बुद्ध की समसामयिकता के निर्णय में डा० जेकोबी आदि ने इस प्रसंग को छूआ तक नहीं है। यह उन्हें सुलभ हुआ होता, तो संभवतः वे भी महावीर की ज्येष्ठता निर्विवाद सिद्ध करते। २४. सभिय परिव्राजक एक बार भगवान् बुद्ध राजगृह में वेलुवन कलन्दक निवाप में विहार कर रहे थे। १. इस प्रसंग पर विशेष चर्चा के लिए देखें, 'काल निर्णय' प्रकरण के अन्तर्गत 'महावीर की ज्येष्ठता' (पृ० ८६-७)। 2010_05 Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा त्रिपिटकों में निगण्ठ व निगण्ठ नातपुत्त सभिय परिव्राजक के एक हितैषी देव ने उसे कुछ प्रश्न सिखाये और कहा--"जो श्रमणब्राह्मण इन प्रश्नों का उत्तर दे, उसी के पास तुम ब्रह्मचर्य स्वीकार करना।" ____सभिय परिव्राजक प्रातःकाल उठा। वह संघी, गणी, गणाचार्य, प्रसिद्ध, यशस्वी तीर्थङ्कर, बहुजन-सम्मत पूरण कस्सप, मक्खलि गोशाल, अजित केसकम्बली, पकुध कच्चायन, संजय वेल द्विपुत्त और निगण्ठ नातपुत्त के पास क्रमशः गया और उनसे प्रश्न पूछे। सभी तीर्थङ्कर उसके प्रश्नों का उत्तर नहीं दे सके; अपितु वे कोप, द्वेष और अप्रसन्नता ही व्यक्त करने लगे तथा उल्टे उससे ही प्रश्न पूछने लगे । सभिय बहुत असंतुष्ट हुआ। उसका मन नाना ऊहापोहों से भर गया और उसने निर्णय किया-अच्छा हो, गृहस्थ होकर सांसारिक आनन्द लूटूं। सभिय परिव्राजक के मन में ऐसा भी विचार उत्पन्न हुआ-श्रमण गौतम भी संघी, गणी, गणाचार्य बहुजन सम्मत हैं, क्यों न मैं उनसे भी ये प्रश्न पूछ्, उसका मन तत्काल ही आशंका से भर गया। उसने सोचा, पूरण कस्सप, मक्खलि गोशाल, अजित केसकम्बली, पकुध कच्चायन, संजय वेलठ्ठिपुत्त और निगण्ठ नातपुत्त जैसे जीर्ण, वृद्ध, वयस्क, उत्तरावस्था को प्राप्त, वयोतीत, स्थविर, अनुभवी, चिर प्रवजित, संघी, गणी, गणाचार्य, प्रसिद्ध, यशस्वी, तीर्थंकर, बहुजन-सम्मानित श्रमण-ब्राह्मण भी मेरे प्रश्नों का उत्तर न दे सके ; न दे सकने पर कोप, द्वेष व अप्रसन्नता व्यक्त करते हैं और मुझसे ही इनका उत्तर पूछते हैं। श्रमण गौतम क्या मेरे इन प्रश्नों का उत्तर दे सकेंगे? वे तो आयु में युवा और प्रव्रज्या में नवीन हैं। फिर भी श्रमण युवक होता हुआ भी महद्धिक और तेजस्वी होता है। अत: श्रमण गौतम से भी मैं इन प्रश्नों को पूछू। सभिय परिव्राजक राजगृह की ओर चला। क्रमश: चारिका करता हुआ वेलुवन कलन्दक निवाप में भगवान् के पास पहुँचा। कुशल-संवाद पूछकर एक ओर बैठ गया। सभिय ने भगवान् से निवेदन किया--"भन्ते ! संशय और विचिकित्सा से प्रेरित होकर मैं प्रश्न पूछने के अभिप्राय से आया हूँ। धार्मिक-रीति से उत्तर देकर मेरी उन शंकाओं का निरसन करें।" बुद्ध ने उत्तर दिया- “सभिय ! प्रश्न पूछने के अभिप्राय से तुम दूर से आये हो। तुम एक-एक कर मुझसे पूछो। मैं उनका समाधान कर तुम्हें संशय-मुक्त कर सकता हूँ।" सभिय परिव्राजक ने सोचा-आश्चर्य है ! अद्भुत है ! अन्य श्रमण-ब्राह्मणों ने जिन 'प्रश्नों के पूछने के लिए अवकाश तक नहीं दिया, वहाँ श्रमण गौतम मुझे उनके निरसन का विश्वास दिलाते हैं। प्रसन्न व प्रमुदित होकर उसने पूछना आरम्भ किया। ....... गौतम बुद्ध ने उनका सविस्तार उत्तर दिया। ...... सभिय परिव्राजक ने भगवान् के भाषण का अभिनन्दन किया, अनुमोदन किया और आनन्दित होकर आसन से उठा। उत्तरीय को एक कन्धे पर संभाल कर उसने भगवान् बुद्ध की स्तुति में कुछ गाथाएं कहीं । भगवान् के पादपद्मों में नतमस्तक होकर कहने लगा-'आश्चर्य है गौतम ! अद्भुत है गौतम ! जैसे औंधे को सीधा कर दे, आवृत को अनावृत्त कर दे, मार्ग-विस्मृत को मार्ग बता दे, अन्धेरे में तेल का दीपक जला दे, जिससे सनेत्र देख सकें, उसी प्रकार आप गौतम ने अनेक प्रकार से धर्म को प्रकाशित किया है। मैं भगवान गौतम की शरण ग्रहण करता हूँ, धर्म व भिक्षु-संघ की भी। मैं आपके पास प्रव्रज्या तथा उपसम्पदा ग्रहण करना च 2010_05 Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड : बुद्ध ने उत्तर दिया- "सभिय ! कोई अन्य तीथिक इस धर्म-विनय में प्रव्रज्या और उपसम्पदा की आकांक्षा करता है, तो उसके लिए सामान्य नियम यह है कि उसे पहले चातुर्मासिक परिवास करना होता है। परिवास में सफल होने पर भिक्षु-जन प्रव्रज्या और उपसम्पदा प्रदान करते हैं। कुछेक व्यक्तियों के लिए इसमें अपवाद भी किया जा सकता है।" सभिय ने विनम्रता से उत्तर दिया-"भन्ते ! मैं इसके लिए भी प्रस्तुत हूँ। भिक्षु मुझे प्रवजित करें, उपसम्पदा प्रदान करें।" सभिय परिव्राजक ने भगवान् के पास प्रव्रज्या व उपसम्पदा प्राप्त की। कुछ समय पश्चात् सभि य एकान्त में अप्रमत्त, उद्योगी तथा तत्पर हो, जिस प्रयोजन के लिए कुलपुत्र सम्यक् प्रकार से घर से बेघर हो विहार करता है, उस अनुत्तर ब्रह्मचर्य के अन्त को इसी जीवन में स्वयं जानकर और साक्षात्कार कर विहार करने लगे। उन्होंने जान लिया-"जन्म क्षीण हुआ, ब्रह्मचर्य पूर्ण हुआ, कृतकृत्य हो गया और पुनर्जन्म समाप्त हो गया।" आयुष्मान् सभि य अर्हतों में से एक हुए। -सुत्त निपात, महावग्ग, सभिय सुत्त के आधार से। समीक्षा उक्त प्रसंग महावीर की ज्येष्ठता का अनन्य प्रमाण है। यहां बुद्ध की अपेक्षा सभी धर्म-नायकों को जिण्ण, बुड्ढा, महल्लका, अद्धगता, वयो अनुपत्ता, थेरा, रत्त, चिर पम्वजिता अर्थात् जीर्ण, वृद्ध, वयस्क, चिरजीवी, अवस्था-प्राप्त, स्थविर, अनुभवी, चिरप्रव्रजित कहा गया है। यह समुल्लेख सुत्त निपात का है, इस दृष्टि से भी अधिक प्राचीन और अधिक प्रामाणिक है।२ सभिय परिव्राजक के विषय में थेरगाथा-अट्ठकथा आदि ग्रन्थ विस्तृत ब्यौरा देते हैं। एक सुभट-कन्या अपने अभिभावकों के आदेश से किसी एक परिव्राजक के पास शास्त्रादि का अध्ययन करती थी। उसी संसर्ग में उसके गर्भाधान हुआ। वह घर से निकाली गई। चौराहों पर फिरते उसने एक शिशु को जन्म दिया। सभा अर्थात् लोक-समूह के बीच जन्म होने के कारण उस बालक का नाम सभिय पड़ा और वह बड़ा होकर परिव्राजक बना। इन्हीं अट्ठकथाओं में इसके पूर्वजन्म-सम्बन्धी विस्तृत चर्चा भी है। 25. सुभद्र परिव्राजक __ कुसिनारा में सुभद्र परिव्राजक रहता था। उसने सुना, आज रात के अन्तिम प्रहर में श्रमण गौतम का परिनिर्वाण होगा। उसने सोचा, मैंने वृद्ध आचार्य-प्राचार्य परिव्राजकों से यह सुना है कि तथागत सम्यक् सम्बुद्ध कभी-कभी ही उत्पन्न हुआ करते हैं। आज रात १. विशेष समीक्षा के लिए देखें, 'काल निर्णय' प्रकरण के अन्तर्गत पृ० ८६ । २. Fausbolls. B.E., vol.X. part II introduction. ३. थेरगाथा अट्ठकथा, १,३८१; सुत्त निपात अट्ठकथा, २,४१६ । ____ 2010_05 Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा] त्रिपिटकों में निगण्ठ व निगण्ठ नातपुत्त ४०५ को गौतम का परिनिर्वाण होगा। मेरे मन में कुछ संशय है। मैं श्रमण गौतम के प्रति श्रद्धाशील हैं । वे मुझे ऐसा धर्मोपदेश कर सकते हैं, जिससे मेरे संशयों का निवारण हो जाएगा। - सभद्र परिव्राजक मल्लों के शाल-वन उपवत्तन में आया। आयुष्मान् आनन्द के समीप पहुँचा। श्रमण गौतम के दर्शन करने के अपने अभिप्राय से उन्हें सूचित किया। आयुष्मान् आनन्द ने उससे कहा- "आवुस ! सुभद्र ! तथागत को कष्ट न दो । भगवान् थके हुए हैं।" सुभद्र ने अपनी बात को दो-तीन बार दुहराया। भगवान् ने उस कथा-संलाप को सुन लिया । आनन्द से उन्होंने कहा--'सुभद्र को मत रोको। सुभद्र को तथागत के दर्शन पाने दो। यह जो कुछ भी पूछेगा, वह परम ज्ञान की इच्छा से ही पूछेगा; कष्ट देने के अभिप्राय से नहीं प्रश्न के उत्तर में इसे जो कुछ भी बताऊँगा, वह शीघ्र ही ग्रहण कर लेगा।" आनन्द से अनुज्ञा पा कर सुभद्र तथागत के पास आया। उन्हें संमोदन कर एक ओर बैठ गया। वार्तालाप का आरम्भ करते हुए बोला- “गौतम ! जो श्रमण-ब्राह्मण संघी, गणी गणाचार्य, प्रसिद्ध, यशस्वी, तीर्थकर, बहुत लोगों द्वारा उत्तम माने जाने वाले हैं ; जैसे कि पूरण कस्सप, मक्खलि गोशाल, अजित केसकम्बली, पकुध कच्चायन, संजय वेलट्टिपुत्त, निगण्ठ नातपुत्त ; क्या वे सभी अपने पक्ष को तद्वत् ही जानते हैं या तद्वत् नहीं जानते हैं, या कोई-कोई तद्वत् जानते हैं या कोई-कोई तद्वत् नहीं जानते हैं ?" बुद्ध ने उस प्रश्न को बीच ही में काटते हुए कहा-“उन सभी पक्षों को तू जाने दे। मैं तुझे धर्मोपदेश करता हूँ। उसे तू अच्छी तरह सुन और उस पर मनन कर।" सुभद्र तन्मय हो कर बैठ गया। बुद्ध ने कहा-"सुभद्र ! जिस धर्म-विनय में अष्टांगिक मार्ग उपलब्ध नहीं होता, उसमें प्रथम श्रमण (स्रोत आपन्न), द्वितीय श्रमण (सकृदागामी), तृतीय श्रमण (अनागामी), चतुर्थ श्रमण (अर्हत्) भी उपलब्ध नहीं होता। सभद्र ! इस धर्मविनय में ऐसा होता है ; अतः यहाँ चारों प्रकार के श्रमण हैं। दूसरे मत श्रमणों से दूर हैं। यदि यहाँ भिक्षु ठीक से विहार कर, तो लोक अर्हतों से शून्य न हो। . "सभद्र ! उनतीस वर्ष की अवस्था में कुशल का गवेषक होकर मैं प्रव्रजित हा था। अब मुझे इसमें इक्यावन वर्ष हो चुके हैं। न्याय-धर्म के एक देश को देखने वाला भी यहाँ से बाहर नहीं है।" आश्चर्याभिभूत होकर सुभद्र परिव्राजक ने कहा- "आश्चर्य भन्ते ! आश्चर्य भन्ते ! मैं भगवान् की शरण जाता हूँ, धर्म और भिक्षु-संघ की भी शरण जाता हूँ। मुझे भगवान से प्रव्रज्या मिले, उपसम्पदा मिले।" -दीघ निकाय, महापरिनिव्वाण सुत्त, २-३ के आधार से। समीक्षा यहाँ बुद्ध की अन्तिम अवस्था तक महावीर के वर्तमान होने की बात मिलती है, पर, यह यथार्थ नहीं है।' १. विशेष समीक्षा के लिए देखें, 'काल-निर्णय' प्रकरण के अन्तर्गत पृ० ७०-१। 2010_05 Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०६ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड : १ २६. राजगृह में सातों धर्म-नायक एक बार भगवान् बुद्ध राजगृह में वेलुवन कलन्दक निवाप में विहार कर रहे थे। उस समय अनुगार-वरचर और सकुल-उदायी आदि बहुत सारे प्रसिद्ध परिव्राजक मोरनिवाप परिव्राजकाराम में वास करते थे। पूर्वाह्न समय भगवान् पहिनने का वस्त्र पहिन कर, पात्र-चीवर ले राजगृह में पिण्डचार के लिए प्रविष्ट हुए। उन्हें अनुभव हुआ, पिण्डचार के लिए अभी बहुत सबेरा है। वे वहाँ से सकुल-उदायी से मिलने के अभिप्राय से मोर-निवाफ परिव्राजकाराम की ओर आगे बढ़े। सकुल-उदायी उस समय राज-कथा, चोर-कथा, माहात्म्य-कथा, सेना-कथा, भय-कथा, युद्ध-कथा, अन्न-कथा, पान-कथा, वस्त्र-कथा, आदि कथाओं व निरर्थक कथाओं के माध्यम से कोलाहल करने वाली बड़ी परिषद् से घिरा बैठा था। सकुल-उदायी ने दूर ही से गौतम बुद्ध को अपनी ओर आते हुए देखा। परिषद् को सावधान करते हुए कहा-"आप सब चुप हो जायें। शब्द न हो। श्रमण गौतम आ रहे हैं। ये आयुष्मान् निःशब्द-प्रेमी व अल्प शब्द-प्रशंसक हैं । परिषद् को शान्त देख कर सम्भवतः इधर भी आयें।" सभी परिव्राजक शान्त हो गये । भगवान् सकुल-उदायी के पास गए। सकुल-उदायी ने भगवान् का स्वागत करते हुए कहा-"आइए भन्ते ! स्वागत भन्ते ! बहुत समय बाद आप यहाँ आये। बैठिये, यह आसन बिछा है।" भगवान् बुद्ध बिछे आसन पर बैठे। सकुल-उदायी एक नीचा आसन लेकर एक ओर बैठ गया। वार्ता का आरम्भ करते हुए भगवान् ने कहा-"उदायी ! किस कथा में संलग्न थे ? क्या वह कथा अधूरी ही रह गई है ?" सकुल-उदायी ने उस प्रसंग को बीच ही में काटते हुए कहा-"भन्ते ! इन कथाओं को आप यहीं छोड़ दें। आपके लिए इन कथाओं का श्रवण अन्यत्र भी दुर्लभ नहीं होगा। विगत दिनों की ही घटना है। कुतूहलशाला में एकत्रित नाना तीर्थों के श्रमण-ब्राह्मणों के बीच यह कथा चली-आज कल अङ्ग-मागधों का अच्छा लाभ मिल रहा है। क्योंकि यहाँ राजगह में संघपति, गणी, गणाचार्य, प्रसिद्ध, यशस्वी, बहुजन-सम्मानित और तीर्थङ्कर वर्षावास के लिए आये हैं । पूरणकस्सप, मक्खलि गोशाल, अजित केसकम्बली, पकुध कच्चायन, संजयवेलट्ठिीपुत्त और निगंठ नातपुत्त उनमें प्रमुख हैं। श्रमण गौतम भी वर्षावास के लिए यहाँ आये हुए हैं। इन सब श्रमण-ब्राह्मणों में श्रावकों (शिष्यों) द्वारा कौन अधिक सत्कृत व पूजित है ? श्रावक किसे अधिक सत्कार, गौरव, मान व पूजा प्रदान करते हैं ? “उपस्थित सभी व्यक्तियों में मुक्त चर्चा होने लगी। किसी ने कहा- 'पूरण कस्सप संघी, गणी, गणाचार्य, प्रसिद्ध, यशस्वी, बहुजन-सम्मत व तीर्थकर कहे जाते हैं, किन्तु, वे न तो श्रावकों द्वारा सत्कृत हैं और न पूजित ही। इन्हें श्रावक सत्कार, गौरव, मान व पूजा प्रदान नहीं करते। एक बार की घटना है। पूरण कस्सप सहस्रों की सभा को धर्मोपदेश कर रहे थे। उनके एक श्रावक ने जोर से वहाँ कहा- 'आप लोग ये बात पूरण कस्सप से न पूछे। ये इसे नहीं जानते । इसे हम जानते हैं। यह बात हमें पूछे। हम आप लोगों को बतायेंगे।" पूरण कस्सप उस समय बाँह पकड़ कर चिल्लाते थे-'आप सब चुप रहें, शब्द न करें। ये लोग आप सब से नहीं पूछ रहे हैं। हमारे से पूछते हैं। इन्हें हम ही बतलायेंगे।' किन्तु, वे उस परिषद् को शान्त न कर सके। पूरण कस्सप के बहुत सारे श्रावक वहाँ से विवाद करते 2010_05 Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा] त्रिपिटकों में निगण्ठ व निगण्ठ नातपुत्त 4०७ हुए निकल पड़े-'तू इस धर्म-विनय को नहीं जानता, में इस धर्म-विनय को जानता हूँ।' 'तू इस धर्म-विनय को क्या जानेगा ?' 'तू मिथ्यारूढ़ है, मैं सम्यग प्रतिपन्न हूँ।' 'मेरा कथन सार्थक है, तेरा निरर्थक है।' 'तू ने पूर्व कथनीय बात को पीछे कहा और पश्चात् कथनीय बात को पहले कहा।' 'अविचीर्ण को तू ने उलट दिया।' तेरा वाद निग्रह में आ गया।' 'बाद छुड़ाने के लिए यत्न कर।' 'यदि सामर्थ्य है तो इसे खोज ले।' इस प्रकार पूरण कस्सप श्रावकों द्वारा न सत्कृत हैं, न गुरुकृत है, न पूजित हैं, न मानित हैं बल्कि परिषद् के द्वारा वे तो धिक्कृत हैं। "किसी ने वहाँ उपरोक्त प्रकार से मक्खलि गोशाल की चर्चा की तो किसी ने अजित केसकम्बली की और किसी ने पकुध कच्चायन, संजय वेलठ्ठिपुत्त व निगंठ नागपुत्त की चर्चा की। सभी आचार्यों को उन्होंने असत्कृत, अगुरुकृत- अपूजित और अमानित ही ठहराया। "एक अन्य व्यक्ति ने कहा-'श्रमण गौतम संघी, गणी, गणाचार्य, प्रसिद्ध, यशस्वी, बहुजन-सम्मानित व तीर्थङ्कर हैं। वे श्रावकों द्वारा सत्कृत, गुरुकृत, मानित और पूजित हैं तथा उन्हें गौरव प्रदान कर, उनका आलम्बन ले विचरते हैं। एक समय की घटना है कि श्रमण गौतम सहस्रों की सभा को धर्मोपदेश कर रहे थे। श्रमण गौतम के एक शिष्य ने वहाँ खाँसा। दूसरे सब्रह्मचारी ने उसका पैर दबाते हुए कहा-'आयुष्मन् ! चुप रहें, शब्द न करें। शास्ता हमें धर्मोपदेश कर रहे हैं।' जिस समय श्रमण गौतम सहस्रों की परिषद् को धर्मोपदेश करते हैं, उस समय श्रावकों के थूकने व खाँसने का भी शब्द नहीं होता। जनता उनकी प्रशंसा करती है और प्रत्युत्थान करती हुई कहती है—'भगवान् हमें जो धर्मोपदेश करेंगे, उसे सुनेंगे।' श्रमण गौतम के जो श्रावक सब्रह्मचारियों के साथ विवाद कर, भिक्षु-नियमों को छोड़ गृहस्थआश्रम को लौट आते हैं ; वे भी शास्ता के प्रशंसक होते हैं, धर्म के प्रशंसक होते हैं, संघ के प्रशंसक होते हैं। वे दूसरों की नहीं, अपनी ही निन्दा करते हुए कहते है-'हम भाग्यहीन हैं, जो ऐसे स्वाख्यात धर्म में प्रवजित हो, परिपूर्ण व परिशुद्ध ब्रह्मचर्य का जीवन-पर्यन्त पालन नहीं कर सके।' इसके अतिरिक्त आराम-सेवक हो या गृहस्थ (उपासक) हो, पाँच शिक्षापदों को ग्रहण कर विचरते हैं। इस प्रकार श्रमण गौतम श्रावकों द्वारा सत्कृत, गुरुकृत, मानित और पूजित हैं और श्रावक उन्हें गौरव प्रदान कर, उनका आलम्बन ले विचरते हैं।" -मझिम निकाय, महासकुलदायि सुत्तन्त, २-३-७ के आधार से । समीक्षा इस उदन्त में उल्लेखनीय अभिव्यक्ति यही है कि सातों धर्म-नायकों का एक साथ राजगृह में वर्षावास बताया गया। २७ निगण्ठ उपोसथ एक बार भगवान् बुद्ध श्रावस्ती में विशाखा मृगार-माता के पूर्वाराम-प्रासाद में विहार कर रहे थे। विशाखा मृगार-माता उपोसथ के दिन भगवान् के पास आई। अभिवादन कर एक ओर बैठ गई। विशाखा से भगवान् ने पूछा- "दिन चढ़ते ही आज कैसे आई ?" 2010_05 Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०८ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन "भन्ते ! आज मैंने उपोसथ (व्रत) रखा है।" “विशाखे ! उपोसथ तीन प्रकार का होता है : ( १ ) गोपाल - उपोसथ, (२) निर्ग्रन्थ-उपोसथ तथा (३) आर्य - उपोसथ ।" “भन्ते ! गोपाल- उपोसथ किसे कहते हैं ?" [खण्ड : १ "विशाखे ! कोई ग्वाला सन्ध्या होने पर गौओं को अपने-अपने स्वामियों को सौंपने के बाद सोचता है, इन गौओं ने आज अमुक-अमुक स्थान पर चराई की और अमुक-अमुक्क स्थान पर पानी पीया । ये गौएं कल अमुक-अमुक स्थान पर चरेंगी तथा अमुक-अमुक स्थान पर पानी पीयेंगी । इसी प्रकार उपोसथ त्रती सोचता है - आज मैंने अमुक पदार्थ खाया है और कल अमुक पदार्थ खाऊँगा । वह अपना सारा दिन लोभ-युक्त चित्त से व्यतीत कर देता है । यह गोपाल - उपोसथ होता है। इसका न महान् फल होता है, न महान् परिणाम होता है, न महान् प्रकाश होता है और न महान् विस्तार होता है।" "भन्ते ! निर्ग्रन्थ- उपोसथ किसे कहते हैं ?" "विशाखे ! निर्ग्रन्थ नामक श्रमणों की एक जाति है । वे अपने अनुयायिओं को व्रत दिलाते हैं - हे पुरुष ! तू यहाँ है । पूर्व दिशा में सौ योजन तक जितने प्राणी हैं, उन्हें तू दण्ड- मुक्त कर । इसी प्रकार पश्चिम दिशा, उत्तर दिशा और दक्षिण दिशा में सौ-सौ योजन तक जितने भी प्राणी हैं उन्हें भी तू दण्ड- मुक्त कर । इस प्रकार कुछ प्राणियों के प्रति दया व्यक्त करते हैं और कुछ प्राणियों के प्रति दया व्यक्त नहीं करते हैं । उपोसथ के दिन वे अपने श्रावकों को व्रत दिलाते हैं- पुरुष ! तू इधर आ । सभी वस्त्रों का परित्याग कर तू व्रत ग्रहण कर — न मैं कहीं, किसी का, कुछ हूँ और न मेरा कहीं कोई, कुछ है । किन्तु उसके माता-पिता जानते हैं, यह मेरा पुत्र है और पुत्र मी जानता है, ये मेरे माता-पिता हैं । पुत्र- स्त्री आदि उसके पारिवारिक भी जानते हैं, यह हमारा स्वामी है और वह भी जानता है, पुत्र स्त्री आदि ये मेरे पारिवारिक हैं। उसके दास, नौकर, कर्मकर भी जानते हैं, यह हमारा स्वामी है और वह भी जानता है, ये मेरे दास, नौकर, कर्मकर आदि हैं । जिस समय वे व्रत लेते हैं, झूठ का अवलम्बन लेते हैं । मैं कहता हूँ, इस प्रकार वे मृषा वादी हैं । रात्रि व्यतीत हो जाने पर वे उन व्यक्त वस्तुओं को बिना किसी के दिये ही उपभोग में लाते हैं । इस प्रकार वे चोरी करने वाले भी होते हैं । यही निर्ग्रन्थ-उपोसथ होता है । इस प्रकार के उपोसथ व्रत का न महान् फल होता है, न महान् परिणाम होता है, न महान प्रकाश होता है तथा न महान् विस्तार होता है ।" 1 भन्ते ! आर्य-उपोसथ किसे कहते हैं ?" 2010_05 “विशाखे ! आर्य-श्रावक चित्त की निर्मलता के लिए तथागत का अनुस्मरण करता है - भगवान् अर्हत् हैं, सम्यक् सम्बुद्ध हैं, विद्या-आचरण से युक्त हैं, सुगत हैं, लोक के ज्ञाता हैं, सर्वश्रेष्ठ हैं, कुमार्गगामी पुरुषों का दमन करने वाले उत्तम सारथी हैं, तथा देवताओं और मनुष्यों के शास्ता हैं । वे भगवान् बुद्ध हैं । इस प्रकार आर्य श्रावक ब्रह्म-उपोसथ व्रत रखता है और ब्रह्म के साथ रहता है । ब्रह्म के सम्बन्ध से उसका चित्त प्रसन्न होता है, मोद बढ़ता है और चित्त के मैल का प्रहाण होता है । “आर्य-श्रावक धर्म का अनुस्मरण करता है - यह धर्म भगवान् द्वारा सुप्रवेदित है, यह धर्म इहलोक-सम्बन्धी है, इस धर्म का पालन सभी देशों तथा सभी कालों में किया जा सकता है । यह धर्म निर्वाण तक ले जाने में समर्थ है तथा प्रत्येक बुद्धिमान् इस धर्म का Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा] त्रिपिटकों में निगण्ठ व निगण्ठ नातपुत्त ४०१ साक्षात् कर सकता है। इस प्रकार आर्य-श्रावक धर्म-उपोसथ-व्रत रखता है और धर्म के साथ रहता है। धर्म के सम्बन्ध से उसका चित्त प्रसन्न होता है, मोद बढ़ता है और चित्त के मल का.प्रहाण होता है। "आर्य-श्रावक संघ का अनुस्मरण करता है-भगवान् का श्रावक-संघ सुन्दर, सरल, न्याय व समीचीन मार्ग पर चलने वाला है। इस संघ में आठ प्रकार के सत्पुरुषों का समावेश होता है । यह संघ आदरणीय है, आतिथ्य के योग्य है, दान-दक्षिणा के योग्य है और करवद्ध नमस्कार के योग्य है। यह लोगों के लिए सर्वश्रेष्ठ पुण्य क्षेत्र है। इस प्रकार संघ का अनुस्मरण करने वाले का चित्त प्रसन्न होता है, मोद बढ़ता है और चित्त के मल का प्रहाण होता है। "आर्य-श्रावक अपने शील का स्मरण करता है-यह अखण्डित, अछिद्र, मालिन्यरहित, पवित्र, शुद्ध, विज्ञपुरुषों द्वारा प्रशंमित, अकलंकित व समाधि की ओर ले जाने वाला है। इस प्रकार सील के अनुस्मरण से चित्त प्रसन्न होता है, मोद बढ़ता है और चित्त के मैल का प्रहाण होता है। कार्य-श्रावक चातुर्महासज़िक, त्रयस्त्रिश, याम, तुषित्, निर्माण-रति, परनिर्मितसमवर्ती, बझकायिक देवता और इससे आगे के देवताओं का अनुस्मरण करता है जिस प्रकार की श्रद्धा, शील, श्रुत (मान), त्याग और प्रजा से युक्त वे देवता यहाँ से मर कर वहां उत्पन्न हुए हैं, मेरे में भी उसी प्रकार की श्रद्धा, शील, श्रुत, त्याय और अजय है। उन देवताओं की श्रद्धा, शील, श्रुत, त्याग और प्रज्ञा का अनुस्मरण करने वाले का चित्त प्रसन्न होता है, मोद बढ़ता है और चित्त के मैल का प्रहाण होता है। ''उपोसाथ के दिन वह आर्य-श्रावक चिन्तन करता है १. अर्हत जीवन-पर्यन्त प्राण-वियोजन से विरत हो, दण्ड-त्यागी, शस्त्र-व्यापी, पर भीर, दयावान होकर सभी प्राणियों का हित और उन पर अनुकम्पा करते हुए विचरते है। मैं भी आज बहोरात्र तक प्राण-वियोजन से विरत हो, दण्ड-त्यागी, शस्त्र-त्यागी, पापश्रीज व दयावान् होकर सभी प्राणियों का हित और उन पर अनुकम्पा करते हुए विहार करूं। इस अंश में भी मैं बहतों का अनुकरण करूँगा तथा मेरा उपोसथ (व्रत) पूर्ण होगा। २. 'अर्हत् जीवन-पर्यन्त अदत्त से विरत रह, केवल दत्त के ही ग्राहक, दत्त.के ही आकांक्षी होकर पवित्र जीवन व्यतीत करते हैं। मैं भी आज अहोरात्र तक अदत्त से विरत जो केवल दत्त का ही ग्राहक, दत्त का ही आकांक्षी होकर पवित्र जीवन बिताऊँ। इस अंश में श्री में अर्हतों का अनुकरण करूँगा तथा मेरा उपोसथ पूर्ण होगा। ३. अर्हत् जीवन-पर्यन्त अब्रह्मचर्य का त्याग कर, ब्रह्मचारी, अनाचार-रहित, मैथुन साबधर्म से विरत रहते हैं। मैं भी आज अहोरात्र तक अब्रह्मचर्य का त्याग कर, ब्रह्मचारी, समाचार-रहित, मैथुन ग्राम्य-धर्म से विरत हो कर रहँ। इस अंश में भी मैं अहंतों का अनकरण करूँगा तथा मेरा उपोसथ पूर्ण होगा। ४. अर्हत जीवन-पर्यन्त मषावाद का त्याग कर, सत्यवादी, विश्वसनीय, स्थिर, निर्भर तथा लोक में असत्य न बोलने वाले होकर रहते हैं। मैं भी आज अहोरात्र तक मषावाद का त्याग कर, सत्यवादी, विश्वसनीय, स्थिर, निर्भर तथा लोक में असत्य न बोलने वाला हो कर रहूँ। इस अंश में भी मैं महंतों का अनुकरण करूँगा तथा मेरा उपोसय म होगा। 2010_05 Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१० आगम और त्रिपिटक: [खण्ड : १ ५. अर्हत् जीवन-पर्यन्त सुरा आदि प्रमाद-कारक वस्तुओं का परित्याग कर उनसे विरत होकर रहते हैं। मैं भी आज अहोरात्र तक सुरा आदि प्रमाद-कारक वस्तुओं से विरत हो कर रहूँ। इस अंश में भी मैं अर्हतों का अनुकरण करूँगा तथा मेरा उपोसथ पूर्ण होगा। .....६. अर्हत् जीवन-पर्यन्त एकाहारी, रात्रि-भोजन-त्यागी, विकाल भोजन से विरत हो कर रहते हैं। मैं भी आज का अहोरात्र एकाहारी, रात्रि-भोजन-त्यागी, विकाल भोगन से विरत होकर बिताऊँ। इस अंश में भी मैं अर्हतों का अनुकरण करूँगा तथा मेरा उपोसथ पूर्ण होगा। ७. अर्हत् जीवन-पर्यन्त नृत्य संगीत, वाद्य, मनोरंजक दृश्य देखने, माला, गन्ध, विलेपन, शृङ्गारिक परिधान आदि से विरत रहते हैं। मैं भी आज का अहोरात्र नृत्य, संगीत, वाद्य, मनोरंजक दृश्य देखने, माला, गन्ध, शृङ्गारिक परिधान आदि से विरत हो कर बिताऊँ। इस अंश में भी मैं अर्हतों का अनुसरण कर पाऊँगा तथा मेरा उपोसथ पूर्ण होगा। ८. अर्हत् जीवन-पर्यन्त ऊँची व महान् शय्या का त्याग कर, उससे विरत होकर चारपाई या चटाई का नीचा आसन ही काम में लेते हैं। मैं भी आज अहोरात्र ऊँची व महान् शय्या का त्याग कर, उससे विरत हो, चटाई या नीचा आसन ही काम में लूं। इस अंश में मैं अर्हतों का अनुसरण कर पाऊँगा तथा मेरा उपोसथ पूर्ण होगा। "विशाखे! उपरोक्त विधि से रखे गये उपोसथ का महान् फल होता है, महान परिणाम होता है, महान् प्रकाश होता है तथा महान् विस्तार होता है।" "भन्ते ! उस उपोसथ से कितना महान् फल, कितना महान् परिणाम, कितना महान् प्रकाश तथा कितना महान् विस्तार होता है ?" "विशाखे ! महान् सप्त रत्न-बहुल अंग, मगध, काशी, कोशल, वज्जी, मल्ल, चेदी, बंग, कुरु, पंचाल, मत्स्य, शौरसेन, अश्मक, अवन्ती, गन्धार तथा कम्बोज आदि महाजनपदों का ऐश्वर्य भी अष्टांग उपोसथ-व्रत के सोलहवें अंश के बराबर भी नहीं होता; क्योंकि दिव्य सुख के समक्ष मानुषी राज्य का कोई मूल्य नहीं है। अष्टांगिक उपोसथ का पालन करने वाले स्त्री या पुरुष शरीर छूटने के अनन्तर चातुर्महाराजिक, त्रयस्त्रिश, याम, तुषित्, निर्माण-रति, परनिर्मित-वशवी देवताओं का सहवासी हो जाये। ... चन्द्रमा और सूर्य दोनों सुदर्शन हैं । जहाँ तक सम्भव होता है, वे प्रकाश फेंकते हैं और अन्धकार का नाश करते हैं । वे अन्तरिक्ष-गामी हैं ; अतः आकाश की सभी दिशाओं को आलोकित करते हैं। जहाँ जो कुछ भी मुक्ता, मणि, वैडूर्य, जात रूप व हाटक कहलाने वाला स्वर्ण, चन्द्रमा का प्रकाश तथा सभी तारागण उपोसथ के सोलहवें अंश के सदृश भी नहीं होते। सदाचारी नर-नारी उपोसथ का पालन कर, सुख-दायक पुण्य-कर्म कर, आनन्दित रह स्वर्ग स्थान को प्राप्त होते हैं।" -अंगुत्तर निकाय, तिकनिपात, ७० के आधार से । समीक्षा जैन-श्रावक के बारह व्रतों में ग्यारहवाँ "पौषध व्रत" है। प्रस्तुत प्रकरण में उसका 2010_05 | Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा] त्रिपिटकों में निगण्ठ व निगण्ठ नातपुत्त ४११ विकृत ही चित्रण हुआ है और विकृत ही समीक्षा हुई है। पूर्व-पश्चिम आदि दिशाओं में १०० योजन उपरान्त पाप न करना, 'छ? दिग्वि रति व्रत' का सूचक है। इसमें कुछ की हिंसा और कछ की दया का दोष बताना अयथार्थ है। यथाशक्य विरमण का अर्थ कुछ जीवों की हिंसा व कुछ जीवों की दया नहीं होता। पौषध-व्रत में असत्य और चौर्य का दोष भी बताया गया, पर, यह वाग् विरोध मात्र है। यथार्थ में पौषध का अभिप्राय है - एक अहोरात्र के लिए निर्ग्रन्थ-जीवन जीना। उसमें भी इतना विशेष कि वह अहोरात्र श्रावक निर्जल और निराहार बिताये । बुद्ध ने स्वयं जिस तीसरी कोटि के उपोसय का प्ररूपण किया है, उसकी भावना में और निर्ग्रन्थ-उपोसथ की भावना में मुख्यतः कोई अन्तर प्रतीत नहीं होता। उन्होंने आर्य-उपोसथ में एकाहारी रहने की बात कही है और निग्रन्थ-उपोसथ में निराहारी रहने की बात है। बुद्ध ने भी तो उपोसथ ना यही मानी है कि उपासक एक अहोरात्र के लिए अर्हत-जीवन जीएँ। उसमें हिंसा असत्य, अदत्त आदि के अहोरात्रिक त्याग बतलाये हैं। यदि जैन-उपोसथ में हिंसा, असत्य, अदत्त आदि के दोष आयेंगे तो फिर बौद्ध-उपोसथ में क्यों नहीं आयेंगे? बौद्ध-उपासक भी तो अहोरात्र के पश्चात् माता को माता और पिता को पिता मानता है तथा अपने धन आदि का उपभोग-परिभोग आदि करता है ; जबकि अहोरात्र के लिए अर्हत्-जीवन जीते समय उस सब व्यवहार का वर्जन हो गया था। लगता है, उस युग की यह भी एक मुख्य चर्चा रही है। जैन-आगम भगवती-सूत्र' के अनुसार आजीवकों ने निगण्ठ स्थविरों को ऐसे ही अनेक प्रश्न पूछे। गौतम ने उन्हीं प्रश्नों को महावीर के सम्मुख प्रस्तुत किया। महावीर ने सविस्तार उन प्रश्नों का उत्तर दिया। वे प्रश्नोत्तर इस प्रकार है : "भन्ते ! उपाश्रय में कोई श्रावक सामायिक-व्रत लेकर बैठा हो। कोई अन्य पुरुष उसके भण्डोपकरण ले जाए । सामायिक पूर्ण कर वह श्रावक अपने भण्डोपकरणों की खोज करता है या दूसरों के भण्डोपकरणों की ?" ___ "गौतम ! वह अपने भण्डोपकरणों की गवेषणा करता है, अन्य के भण्डोपकरणों की नहीं।" "भन्ते ! शीलवत, गुणवत, विरमणव्रत, प्रत्याख्यान और पौषधोपवास में क्या श्रावक के भण्ड अभण्ड नहीं होते हैं ?" "गौतम! वे अभण्ड होते हैं।" "भन्ते ! ऐसा फिर किसलिए कहा गया कि वह अपने भण्ड की गवेषणा करता "गौतम ! सामायिक करने वाले श्रावक के मन में आता है, 'यह हिरण्य मेरा नहीं है, यह स्वर्ण मेरा नहीं है। इसी प्रकार यह कांस्य, वस्त्र, धन, कनक, रत्न, मणि, मुक्ता, शंख, शील, प्रबाल, विद्रुम, स्फटिक आदि द्रव्य मेरे नहीं हैं।' सामायिक-व्रत पूर्ण होने पर ममत्व भाव के कारण वह अपरिज्ञात बनता है। इसलिए हे गौतम ! यह कहा गया कि वह अपने भण्ड की गवेषणा करता है, पर-भण्ड की नहीं।" १. ८।५।६७७ । 2010_05 Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड: "भन्ते ! उपाश्रय में सामायिक-व्रत करते श्रावक की भार्या का कोई अन्य पुरुष भोग करता है, तो वह उसकी भार्या को भोगता है या अभार्या को ?" "गौतम ! वह उसकी भार्या को भोगता है।" "भन्ते ! शीलव्रत, गुणवत, पोषधोपवास आदि के समय क्या भार्या अभार्या नहीं होती ?" “गौतम ! होती है।" "भन्ते ! तो यह कैसे कहा गया कि वह उसकी भार्या को भोगता है ?" "गौतम ! शीलवत, पौषधोपवास आदि के समय श्रावक के मन में यह विचार होता है--'यह मेरी माता नहीं है, यह मेरा पिता नहीं है, यह मेरा भाई नहीं है, यह मेरी बहिन नहीं है, यह मेरी स्त्री नहीं है, यह मेरा पुत्र नहीं है, यह मेरी पुत्री नहीं है, यह मेरी पुत्र-वधू नहीं है।' गौतम ! यह सोचते समय भी उसका प्रेम-बन्धन न्युच्छिन्न नहीं होता। इसलिए अन्य पुरुष उसकी भार्या का ही भोग करता है।" कुल मिला कर ये सब आपेक्षिक कथन हैं। संगत अपेक्षा में सोचने से ये सब संगत हैं और असंगत अपेक्षा में सोचने से ये सब विरूप लगते हैं। बौद्धों ने प्रस्तुत सुत्त में असंगत अपेक्षाएँ सामने रख कर निगण्ठ उपोसथ का उपहास किया है। २८. छः अभिजातियों में निर्ग्रन्थ एक बार भगवान् राजगृह में गृध्रकूट पर्वत पर विहार करते थे। आयुष्मान् मानन्द भगवान् के समीप आए, अभिवादन किया और एक ओर बैठ गए। एक ओर बैठे आनन्द ने भगवान से कहा-"भन्ते ! पूरण कस्सप ने छः अभिजातियों का निरूपण किया हैकृष्ण अभिजाति, नील अभिजाति, लोहित अभिजाति, हरिद्र अभिजाति, शुक्ल अभिजाति और पस्म शुक्ल अभिजाति । पूरण कस्सप ने कृष्ण अभिजाति में कसाई, आखेटक, लुब्धक, मत्स्य-घातक, चोर, लुण्टाक, कारागृहिक और इस प्रकार के अन्य क्रूर कर्मान्तक लोगों को गिनाया है। नील अभिजाति में कण्टकवृत्तिक भिक्षुक और अन्य कर्मवादी, क्रियावादी लोगों को गिनाया है। लोहित अभिजाति में एक शाटक (एक वस्त्रधारी) निर्ग्रन्थों को गिनाया है। हरिद्र अभिजाति में श्वेत वस्त्रधारी गृहस्थ व अचेलक (निर्ग्रन्थ) श्रावकों (भिक्षुओं) को गिनाया है। शुक्ल अभिजाति में आजीवक और उनके अनुयायियों को गिनाया है। परम शुक्ल अभिजाति में नन्द वत्स, कृश-सांकृत्य और मक्खलि गोशाल को गिनाया -अंगुत्तर निकाय, ६-६-५७ के आधार से। समीक्षा छः अभिजातियां यहां पूरण कस्सप के नाम से बताई गई हैं ; पर मूलतः यह गोशा. ____ 2010_05 Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा] त्रिपिटकों में निगण्ठ व निगण्ठ नातपुत्त ४१३ लक द्वारा निरूपित हैं । दीघ निकाय के सामञफल सुत्त में, संयुत्त निकाय के खन्धवग्ग में और मज्झिम निकाय के सन्दक सुत्त में इन्हें गोशालक द्वारा निरूपित बताया गया है। पूरणकाश्यप के नाम से इनको प्रस्तुत प्रकरण के अतिरिक्त और कहीं नहीं बताया गया है। तीन समुल्लेख जब समान रूप से मिलते हैं तो इस चतुर्थ समुल्लेख के सम्बन्ध में यथार्थता यही लगती है कि शास्त्र-संकलयिताओं की भूल ही से ऐसा हुआ है। इस प्रकार की भूलों के और भी अनेक प्रमाण त्रिपिटक-साहित्य में मिलते हैं। जैसे गोशालक के अहेतुवाद को संयुत्त निकाय' में पूरण कस्सप का बता दिया गया है। जातक अट्ठकथा में पूरण कस्सप के अभिमत को निगण्ठ नातपुत्त के नाम से बता दिया गया है। संयुत्त निकाय में गोशालक के समग्र मतवाद का उल्लेख पकुध कच्चा के बाद के अन्तर्गत कर दिया गया है। वहाँ ये छ: अभिजातियाँ भी पकुध कच्चा की बात दी गई हैं । यहाँ तक कि त्रिपिटकों के तिब्बती संस्करण में छः अभिजातियाँ अजित केसकम्बली के नाम से उल्लिखित हुई हैं । त्रिपिटकों के व्याख्याता आचार्य बुद्धघोष ने भी अनेक स्थलों पर अभिजातियों का सम्बन्ध केवल गोशालक से जोड़ा है। मूलत: अभिजातियों के गोशालक की होने में एक प्रमुख प्रमाण जैन आगम भगवती का है। वहाँ गोशालक अपने प्रवृत्त-परिहार का उल्लेख करते हुए बताता है कि उदायी के पोट्ट-परिहार में मेरी शुक्ल-अभिजाति थी। अभिजातियों सम्बन्धी जितने प्रकरण त्रिपिटकों में हैं, उसमें सबसे अधिक प्रामाणिक सामाफल सुत्त को ही माना है। इससे भी यह पुष्ट होता गया है कि अभिजातियों का सम्बन्ध १. संयुत्त निकाय, खन्धक संयुत्त, मज्झिम पण्णासक, उपयवर्ग, महालिसुत्त, २१-२-१-८ (हिन्दी अनुवाद), पृ० ३५२ । २. डॉ० वडवार्ड का भी कहना है-By a quite curious carelessness, the editors of the Kindred Sayings have imputed to Purana Kassapa... the teaching imputed in the Dihga (1-53) to makkhali gosala. He denied hetupaccyo, condition and cause, the efficacy of Karmas. He is ahetuvado, non-causationist. --Book of Kindred Sayings, vol. II, p. 618 ३. खण्ड, ५, पृ० २२७ । ४.२३-१-८। 4. Dr. A.L. Basham, History and Doctrines of Ajivikas p. 22. ६. सुमंगलविलासिनी, खण्ड १, पृ० १६२। ७. शतक १५, सूत्र ५५० । 5. That is the Dihga Nikaya shows a completeness and consistency lacking in the rest, and perhaps represents the original source of the other sources. -Dr. A.L. Basham, op. cit., p. 23. 2010_05 Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१४ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड : १ मूलतः गोशालक से है और यही तो कारण है कि अभिजातियों में सर्वोपरि स्थान आजीवकों और आजीवक-प्रवर्तकों का रहा है। डॉ० बाशम का अभिमत है—पूरण कस्सप वयोवृद्ध धर्म-नायक था। गोशालक उस समय तरुण था। पूरण कस्सप ने अपने मत का ह्रास और गोशालक के मत का उदय देख • नवोदित मत की श्रेष्ठता स्वीकार कर ली। वह छः अभिजातियों का समुल्लेख भी करने लगा। डॉ० बाशम की यह धारणा यदि सही है, तब तो त्रिपिटक-साहित्य में पूरण कस्सः के नाम से अभिजातियों का उल्लेख होना स्वाभाविक है ही, जैसा कि प्रस्तुत प्रकरण में हुआ है। अर्थभेद अभिजातियों के अर्थ में भी कुछ-कुछ भेद डाला जाता है । तीसरी लोहित अभिजाति में निगंठा एकशाटका' ऐसा पाठ है। डॉ० हेर ने अपने अंग्रेजी अनुवाद में उसका अर्थ 'जैन और कौपीन (एक वस्त्र) धारी लोक' किया है। डॉ० बाशम', डॉ. हर्नले* और आचार्य बुद्धघोष ने इसका अर्थ 'एक वस्त्र पहनने वाले निम्रन्थ' किया है और यही यथार्थता के अधिक समीप लगता है। अन्यत्र भी सर्वत्र निर्ग्रन्थों का उल्लेख बौद्ध-साहित्य में मिलता है। 8. We may tentatively reconstruct the relations of the prophets as follows: Purana, a heretical leader of long standing, maintaining a fatalistic doctarine with tendencies to antionomianism, came in contant with Makhali Gosala, a younger teacher with doctrines much the same as lis own, but with a more successful appeal to the public, recognising his eclipse, adimitted the superiority of the new teacher and accepted the sixfold classification of men. -bid.p. 90 २. Jains and loin cloth folk. --The Book of Gradual Sayings vol. III, p. 273 ३. Red (Lohita)-niganthas, who wear a single garment. -~-Op. cit., p. 243. ४. Encyclopaedia of Religion and Ethics, vol. I, p.262. ५. The Book of Kindred Sayings, vol. III, p. 17 fin. ६. E.W. Burlinghame, Budhist Legends, vol. III, p. 176. ____ 2010_05 Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा] त्रिपिटकों में निगण्ठ व निगण्ठ नातपुत्त ४१५ चतुर्थ हरिद्र अभिजाति में गिही ओदातवसना अचेलक सावका ऐसा पाठ है। डॉ० बाशम ने इसका अर्थ 'अचेलकों के शिष्य-श्वेत वस्त्रधारी शिष्य' किया है।' 'अचेलक' शब्द से उन्होंने आजीवकों का ग्रहण किया है। उनका कहना है--"अन्य सभी भिक्षुओं से आजीवक गृहस्थों को यहाँ ऊँचा बताया गया है।" इस पाठ से आचार्य बुद्धघोष ने 'निर्ग्रन्थ श्रावकों' का अर्थग्रहण किया है । उनका अभिमत है—निर्ग्रन्थ गृहस्थ श्रावक आजीवक भिक्षुओं को भी दान देते थे; अत: उनका स्थान निर्ग्रन्थ भिक्षुओं से भी ऊँचा रखा गया है। डॉ० हेर के अनुसार इस पाठ का अर्थ है-'श्वेत वस्त्रधारी गृहस्थ और नग्न साधुओं के अनुयायी।"५ कुल मिला कर यथार्थ तो यह लगता है कि 'अवदातवसन-गृही' और 'अचेलक श्रावक' ये दो शब्द हैं । गिही ओदातवसना पाठ सामगाम सुत्त, पासादिक सुत्त व संगीति पर्याय-सुत्त में भी आया है और वहाँ निगंठ नातपुत्तस्य सावका उनका परिचायक विशेषण है। इससे यह फलित सहज ही स्पष्ट हो जाता है कि ये 'अवदातवसन-गही' भी निगण्ठ नातपत्त के श्रावक हैं। यह कहना कठिन है कि बौद्ध परम्परा का यह समुल्लेख कौन से श्रावक समुदाय की ओर संकेत करता है। क्योंकि जैन-साहित्य में श्वेत-वस्त्रधारी गृहस्थ श्रावकों का कोई उल्लेख नहीं है। हो सकता है, स्थविरकल्पी मुनियों के लिए यह संकेत हुआ हो । प्रमुखता जिनकल्पी साधुओं की रही हो; अतः उन्हें निग्रंन्थ शिष्य तथा स्थविरकल्पी मुनियों को श्वेतवस्त्रधारी गृहस्थ शिष्य कह दिया हो । यद्यपि 'अचेलक.श्रावक' का अर्थ डॉ० हेर ने 'अचेलकअनुयायी' किया है, पर, यहाँ श्रावक शब्द का अर्थ 'अचेलक भिक्षुओं का अनुयायी' ही होना चाहिए। बौद्ध परम्परा में 'श्रावक' शब्द भिक्षु और उपासक ; इन दोनों अर्थों में प्रयुक्त होता है। नग्न भिक्षुओं का अर्थ 'निर्ग्रन्थ भिक्षु' ही इसलिए संगत होता है कि आजीवक भिक्षुओं को तो पांचवीं अभिजाति में पृथक् से गिना ही दिया गया है। 8. The householder clad in white robs, the disciples of the Achelakas. -op. cit. p. 139. २. bid. p. 243 3. This passage also has its obscurities, but seems to refer to Ajivika laymen who are promoted above the ascetics of other communities. -op. cit. p. 243. ४. अयं अत्तनो पच्चय-दायके निगंठे हि पि जेट्ठकतरे करोति । --सुमंगलविलासिनी, खण्ड १, पृ० १६३ तथा Basham op. cit. p. 139. ५. White robed householders and followers of naked ascetics, --The Book of Gradual Sayings, vol. III, p. 273. ६. मज्झिम निकाय, ३-१-५। ७. दीघ निकाय, ३।६। ८. वही, ३।१०। 2010_05 Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड : १ पंचम शुक्ल अभिजाति में गिनाये गये आजीवक आजीवकिनियों का अर्थ डॉ० बाशम ने 'आजीविक भिक्ष और भिक्षुणियों किया है, जबकि डॉ० हेर ने 'आजीवक और उनके अनुयायी' किया है । डॉ० हेर का अर्थ अधिक संगत लगता है। : লয়া जैन परम्परा की छः लेश्याएँ भाव-भाषा में छ: अभिजातियों के साथ बहुत कुछ समानता रखती हैं। इनके नाम हैं-कृष्ण लेश्या, नील लेश्या, कापोत लेश्या, तेजो लेख्या, पद्म लेश्या और शुक्ल लेश्या । विचार और प्रवृत्ति की दृष्टि से प्राणियों का विभागीकरण छः लेश्याओं में निम्न प्रकार से होता है पाँच आस्रवों में प्रवृत्त, तीनों गुप्तियों से अगुप्त, षट्काय की हिंसा में आसक्त, उत्कट भावों से हिंसा करने वाला, क्षुद्र बुद्धि, बिना विचारे कार्य करने वाला, निर्दयी, नृशंसपाप कृत्यों में शंका-रहित और अजितेन्द्रिय मनुष्य कृष्ण लेश्या के अन्तर्गत हैं। ईर्ष्यालु, कदाग्रही, असहिष्णु, अतपस्त्री, अविद्वान्-~अज्ञानी, मायावी, निर्लज्ज, विषयी-लम्पट, द्वेषी, शठ-धूर्त, प्रमादी, रसलोलूपी, सुख-गवेषक, आरम्भी, अविरत, क्षुद्र और साहसिक मनुष्य नील लेश्या के अन्तर्गत हैं। वक्र वचन बोलने वाला, वक्र आचरण करने वाला, छल करने वाला, असरल, अपने दोषों को छिपाने वाला, मिथ्यादृष्टि, अनार्य, मर्म-भेदक दुष्ट वचन बोलने वाला, चोरी व असूया करने वाला मनुष्य कापोत लेश्या के अन्तर्गत है। __ नम्रतायुक्त, अचपल, अमायी, अकुतूहली, विनययुक्त, दान्त, स्वाध्याय में रत, उपधान आदि तप करने वाला, धर्मप्रेमी, दृढ़धर्मा, पापभीरु तथा हितैषी-मुक्ति-पथ का गवेषक मनुष्य तेजी लेश्या के अन्तर्गत है। ___ अल्प क्रोध, मान, माया, लोभ वाला, प्रशान्त चित्त, दान्तात्मा, योग और उपधान वाला, अत्यल्पभाषी, उपशान्त और जितेन्द्रय मनुष्य पद्मलेश्या के अन्तर्गत हैं। आतं-रौद्र ध्यानों को त्याग कर धर्म-शुक्ल ध्यानों का आसेवन करने वाला, प्रशान्त चित्त, दान्तात्मा, पांच समितियों से समति, तीन गुप्तियों से गुप्त, अल्परागवान् अथवा वीतरागी, उपशान्त और जितेन्द्रिय पुरुष शुक्ल लेश्या के अन्तर्गत हैं। ___ आगम-साहित्य में लेश्याओं का एक व्यवस्थित और विस्तृत सिद्धान्त है । पृथकपृथक लेश्याओं के वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श बताये गये हैं। द्रव्य लेश्या, भाव लेश्या आदि भेद बताये गये हैं । देव, नारक, तिर्यञ्च, मनुष्य आदि में कितनी-कितनी लेश्याएं सम्भव हैं, इसका पूरा ब्यौरा है। इनमें प्रथम तीन अशुभ हैं और अग्रिम तीन शुभ हैं । छ: अभिजातियों का इतना व्यवस्थित और विस्तृत स्वरूप कहीं नहीं मिलता। १. White (Sukka)-Ajivikas and Ajivinis (the latter called in the Anguttara Ajivikiniyo). Ajivika ascetics of both sexes. -0p. cit., p. 243. २. Fakirs and their disciples, -op. cit., d. 273. ३. उत्तराध्ययन सूत्र, अ० ३४, गा० २१-३२ । ____ 2010_05 Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहा और परम्परा] त्रिपिटकों में निगण्ठ व निगण्ठ नातपुत्त ४१७ लेश्या-सिद्धान्त के अनुसार वैमानिक देवों में वर्ण की अपेक्षा से क्रमशः तीन शुभ लेश्याएं हैं। आगमिक उल्लेख के अनुसार आजीवक भिक्षु मृत्यु के पश्चात् बारहवें स्वर्ग तक भी पहुँच सकते हैं। तात्पर्य हुआ, वे तेजस्, पम और शुक्ल; तीनों शुभ लेश्याएँ पा सकते हैं । आजीवकों के कथनानुसार निगण्ठ लोहित और हरिद्र अभिजाति में हैं ही। तेजस् और पप-लोहित और हरिद्रा वर्ण के ही पर्यायवाची हैं। डॉ. हर्मन जेकोबी तथा डॉ. बाशम का अभिमत है कि महावीर ने लेश्याओं का सिदान्त गोशालक को अभिजातियों पर ही खड़ा किया है। पर, कल्पना से अधिक उसका कोई आधार नहीं लगता। महावीर की लेश्याओं से गोशालक ने छः अभिजातियाँ ली हों, यह भी तो उतनी ही सम्भव कल्पना है । 'महावीर ने गोशालक से बहुत कुछ सीखा' इस विचार का निराकरण 'गोशालक' प्रकरण में किया ही जा चुका है। डॉ० बाशम का तर्क है कि लेश्या सिद्धान्त बहुत विस्तृत और व्यवस्थित है, इसलिए भी सोचा जा सकता है कि वह छः अभिजातियों का विकसित रूप है। सम्भव स्थिति तो यह लगती है कि पार्श्व-परम्परा के अनेक सिद्धान्त आजीवक, बौद्ध, जैन आदि श्रमण-परम्पराओं में आये हैं, उनमें एक यह भी हो सकता है। पौड मभिजातियां पुरुषों के कर्म के आधार पर वर्गीकरण का विचार उस समय बहुत प्रचलित था। गोशालक और महावीर की तरह बुद्ध ने भी वैसा वर्गीकरण किया । आनन्द ने पूरणकस्सप द्वारा अभिहित छः अभिजातियों के विषय में बुद्ध से पूछा, तो उन्होंने कहा- यह मूर्ख और अबुद्धिमान लोगों के लिए है। मैं छ: अभिजातियां इस प्रकार कहता हूँ १. कृष्ण अभिजाति-कृष्णधर्म-कोई पुरुष नीच कुल में पैदा होता है; चण्डालकूल में, वेन-कल में निषाद-कूल में, रथकार-कूल में, पूक्कस-कूल में, दरिद्र और बडी तंगी से रहने वाले निर्धन-कुल में, जहाँ खाना-पीना बड़ी तंगी से मिलता है। वह दुर्वर्ण, न देखने लायक, नाटा और मरीज होता है। वह काना, लूल्हा, लँगड़ा या लुंज होता है । उसे अन्न, पान, वस्त्र, सवारी, माला, गन्ध, विलेपन, शय्या, घर, प्रदीप कुछ प्राप्त नहीं होता है। वह शरीर से दुराचरण करता है, वचन से दुराचरण करता है, मन से दुराचरण करता है। इन दुराचरणों के कारण यहाँ से मर कर अपाय में पड़, बड़ी दुर्गति को प्राप्त करता है। यह 'कृष्ण-अभिजाति-कृष्ण-धर्म' वाला है। * २. कृष्ण-अभिजाति-शुक्ल-धर्म-कोई पुरुष नीच कुल ..... प्राप्त नहीं होता। वह शरीर से सदाचार करता है, वचन से सदाचार करता है, मन से सदाचार करता १. देखें ‘गोशालक' प्रकरण के अन्तर्गत, पृ० ४२-३१ । २. डॉ० बाशम ने 'हरिद्रा' का अर्थ 'हरा' (Green) किया है। (OP. cit p. 243); वस्तुतः 'हरिद्रा' का अर्थ 'पीत, होना चाहिए। R. S. B. E., vol XIV, introduction, p. XXX. ४, OP. citi, p. 245. 2010_05 Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१८ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [ खण्ड : १ है । इन सदाचारों के कारण यहाँ से मर कर स्वर्ग में उत्पन्न हो सुगति को प्राप्त करता है । यह 'कृष्ण- अभिजाति - शुक्ल धर्म' वाला है । ३. कृष्ण अभिजाति-न कृष्ण, न शुक्ल (धर्म) अर्थात् निर्वाण को प्राप्त करने वाला - कोई पुरुष नीच कुल में पैदा होता है और दाढ़ी-केश मुंडवा कर, घर से बेघर हो प्रव्रजित होता है और नाना साधनाओं से निर्वाण प्राप्त करता है । यह कृष्ण अभिजातिनिर्वाण -न शुक्ल, न कृष्ण प्राप्त करने वाला है । ४. शुक्ल अभिजाति – कृष्ण धर्म – कोई पुरुष ऊँचे कुल में उत्पन्न होता है, ऊँचे क्षत्रिय कुल में, ब्राह्मण कुल में गृहपति कुल में, धनाढ्य, महाधन, महाभोग वाले कुल में। वह सुन्दर, दर्शनीय, साफ और बड़ा रूपवान् होता है । अन्न-पान यथेच्छ लाभ करता है । वह शरीर से दुराचरण आदि कर दुर्गति को प्राप्त होता है । ५. शुक्ल अभिजाति - शुक्ल-धर्म- कोई पुरुष ऊँचे कुल में उत्पन्न हो, शरीर से सदाचार आदि कर सुगति को प्राप्त होता है । ६. शुक्ल अभिजाति - निर्वाण अर्थात् न कृष्ण, न शुक्ल — कोई पुरुष ऊँचे कुल में उत्पन्न हो, प्रव्रजित हो कर निर्वाण प्राप्त करता है। गोशालक की अभिजातियाँ वर्तमान जीवन से ही सम्बन्धित हैं, जब कि महावीर का लेश्या विचार तथा बुद्ध की अभिजातियाँ परलोक से भी सम्बन्धित हैं । बुद्ध ने छ: अभिजातियाँ कहाँ से लीं, इसका उत्तर अपने आप में स्पष्ट है ही कि वातावरण में अभिजातियाँ की चर्चा थी; अतः बुद्ध ने भी प्रकारान्तर से उनका निरूपण किया । २६. सच्चक निगण्ठपुत्र एक समय भगवान् गौतम वैशाली की महावन की कूटागारशाला में विहार कर रहे थे । भगवान् पूर्वाह्न के समय वस्त्र धारण कर, पात्र चीवर ले भिक्षा के लिए वैशाली में प्रविष्ट होना चाहते थे । सच्चक निगण्ठपुत्र जंघा - विहार के लिए अनुविचरण करता हुआ कूटागारशाला में गया | आयुष्मान् आनन्द ने उसे दूर से ही आते हुए देखा । भगवान् को इसकी सूचना दी और कहा - "भन्ते ! सच्चक निगण्ठपुत्र आ रहा है। यह बहुत प्रलापी, पण्डितमानी व बहुजन सम्मानित है । यह बुद्ध, धर्म व संघ की निन्दा चाहने वाला है । अच्छा हो, यदि थोड़े समय भगवान् कृपा कर यहीं ठहरें ।" भगवान् बिछे आसन पर बैठ गये । सच्चक निगण्ठपुत्र भगवान् के पास आया । भगवान् से यथायोग्य कुशल प्रश्न पूछ कर एक ओर बैठ गया । नाना टेढ़े मेढ़े प्रश्न पूछे और गहरी चर्चा चली। भगवान् बुद्ध ने उन सबका ही सविस्तार उत्तर दिया । गौतम बुद्ध के उत्तरों से वह बहुत प्रभावित हुआ । उसने कहा-" आश्चर्य है, भो गौतम ! अद्भुत है, मो गौतम ! मैंने आपको चिढ़ा-चिढ़ा कर ताने दे दे कर चुभने वाले वचन प्रयोग से प्रश्न पूछे, किन्तु आपका मुख वर्ण वैसा ही स्वच्छ व प्रसन्न है, जैसा कि अर्हत् सम्यक् सम्बुद्ध का होता है । गौतम ! मैंने पूरणकस्सप मक्खलि गोशाल अजित के सकम्बली, पकुध कच्चायना संजय वेलट्ठिपुत्र व निगण्ठ नातपुत्त के साथ भी शास्त्रार्थ किया है । वे दूसरी- दूसरी बातें ही करते हैं, विषय से बाहर निकल जाते हैं और कोप, द्वेष तथा अप्रसन्नता प्रकट करने लगते हैं । किन्तु आपको मैंने इतना चिढ़ा-त्रिढ़ा कर भी कहा, तथापि आपका मुख वर्णं स्वच्छ व प्रसन्न है । गौतम ! अब हम जायेंगे। हमें बहु- करणीय हैं ।" 2010_05 Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा त्रिपिटकों में निगण्ठ व निगण्ठ नातपुत्त ४१६ सच्चक निगण्ठपुत्र भगवान् के भाषण का अभिनन्दन व अनुमोदन कर आसन से उठ कर चला गया। -मज्झिम निकाय, महासच्चक सुत्तन्त, १-४-६ आधार से। समीक्षा जन-परम्परा में इस नाम का कोई व्यक्ति नहीं मिलता। मज्झिम निकाय में बताया गया है- सच्चक निगंठपुत्त प्रलापी, पण्डितमानी और बहुत लोगों से सम्मानित था। वह कहा करता था-'मैं ऐसे किसी श्रमण, ब्राह्मण, संघपति, गणाचार्य व स्वयं को अर्हत् सम्यग् सम्बद्ध कहने वाले को भी नहीं देखता, जो मेरे साथ वाद-विवाद में कम्पित, संप्रकम्पित न हो, जिसकी काँख से पसीना न छूटने लगे। यदि मैं अचेतन स्तम्भ से भी शास्त्रार्थ करूं, तो वह भी कम्पित, संप्रकम्पित, संप्रवेधित होगा। मनुष्य की तो बात ही क्या ?' बुद्ध के साथ महती परिषद् में उसने शास्त्रार्थ किया । अन्त में वही निरुत्तर रहा। बुद्ध ने कहा- देख, मेरे तो शरीर में पसीना नहीं है, तेरे ललाट पर पसीना आया है।" अन्त में बुद्ध के प्रति नतमस्तक हो, उसने बुद्ध को अपने यहाँ भोजन के लिए आमंत्रित किया। लिच्छवियों ने उसी रात पाँच सौ स्थालीपाक (सीधा) उसके आराम में भेज दिये। उसने भोजन बनवा. बद्ध व भिक्ष-संघ को तप्त किया। साथ-साथ यह भी कहा -“भगवन् ! इस दान का फल लिच्छवियों को मिले।" बुद्ध ने कहा-'अवीतराग, अवीतद्वेष व अवीतमोह को देने में जो पुण्य होता है, वह उन्हें मिलेगा और वीतराग, वीतद्वेष व वीतमोह को देने में जो पुण्य होता है, वह तुझे मिलेगा अर्थात् उन्होंने यह दान तुझे दिया है और तूने यह दान मुझे दिया है। मझिम निकाय अट्ठकथा में आचार्य बुद्धघोष ने बताया है-''एक निगंठ और निगंठी बहत विवादशील थे। दोनों में विवाद ठना । एक-दूसरे को कोई न हरा सका । लिच्छवियों ने समझौते के रूप में दोनों का विवाह करा दिया। चार पुत्रियाँ हुईं, जो सारिपुत्र से विवाद में परास्त हो भिक्षुणियां बन गई। उसी निगंठ-दम्पती की पांचवीं सन्तान के रूप में यह सच्चक पैदा हुआ। निगंठ-निगंठी का पुत्र होने से वह सच्चक निगंठपुत्र कहलाया।"२ बद्ध ने इसे सम्बोधन में सर्वत्र ही 'अग्निवैश्यायन' कहा है। यह इसका गोत्र था। महावीर को भी पिटक-साहित्य में कुछ एक स्थलों पर 'अग्निवैश्यायन' कहा गया है। हो सकता है, पिटकों के संकलन-काल में निगंठपुत्र के अग्निवैश्यायन नाम का विपर्यास महावीर के साथ हो गया हो। डॉ० जेकोबी का कहना है-सुधर्मा के अग्निवश्यायन गोत्री होने के कारण यह विपर्यास हुआ है। पर 'निगण्ठ नातपुत्र' और 'निगण्ठपुत्र' के नाम-साम्य में इस विपर्यास की अधिक सम्भवता लगती है। १. मज्झिम निकाय, चूलसच्चक सुत्त। २. मज्झिम निकाय, अट्ठकथा, १-४५० । ३. दीघ निकाय, सामञफल सुत्त। 8. S, B. E., vol XLV, introduction, p. XXI. 2010_05 Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२० आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन खण्ड:१ सच्चक निगण्ठपुत्र ने जो विस्तृत चर्चाएं बुद्ध के साथ की हैं, उन चर्चाओं से यह जरा भी प्रतीत नहीं होता कि वह कोई निगंठ-मान्यता का अनुयायी रहा हो। कायिक और मानसिक भावना की चर्चा में भी उसने कायिक भावना का सम्बन्ध गोशालक से जोड़ा है। प्रस्तुत महासच्चक सुत्त में तो सच्चक ने महावीर की कुत्सा ही अभिव्यक्त की है। जैनपरम्परा से सम्बन्धित यह कोई महत्त्वपूर्ण व्यक्ति होता, तो अवश्य कहीं आगम-साहित्य या कथा-साहित्य में उल्लिखित होता। इस स्थिति में बुद्धघोष की धारणा किंवदन्ती से अधिक महत्त्व नहीं रखती। ३०. अनाश्वासिक ब्रह्मचर्य-वास एक बार भगवान बुद्ध कौशाम्बी के घोषिताराम में विहार कर रहे थे। उस समय पाँच सौ परिव्राजकों की महापरिषद् के साथ सन्दक परिव्राजक प्लक्ष गुहा में वास करता था। आयुष्मान् आनन्द सायंकालीन ध्यान से निवृत्त हो भिक्षु-परिवार के साथ देवकट सोन्म को देखने के लिए गये । सन्दक परिव्राजक अपनी परिषद् से घिरा बैठा था और चारों ओर नाना प्रकार की कथाओं से कोलाहल हो रहा था। सन्दक परिव्राजक ने दूर ही से आयुष्मान् आनन्द को अपनी ओर आते हुए देखा । अपनी परिषद् को सावधान करते हुए कहा-"आप सब चुप हो जायें। शब्द न हो । श्रमण गौतम का श्रावक श्रमण आनन्द आ रहा है। श्रमण गौतम के कौशाम्बी में जितने श्रावक वास करते हैं, उनमें श्रमण आनन्द भी एक है। ये श्रमण निःशब्द-प्रेमी व अल्प शब्द-प्रशंसक हैं। परिषद् को शान्त देख कर सम्भवतः ये इधर भी आयें।" सभी परिव्राजक शान्त हो गये । आयुष्मान् आनन्द सन्दक परिव्राजक के पास आये। सन्दक ने उनका स्वागत किया और कहा-"बहुत समय बाद आप इधर आये हैं। यह आसन बिछा है, आप बैठें।" आयुष्मान् आनन्द आसन पर बैठ गये । सन्दक परिव्राजक भी नीचा आसन लेकर बैठ गया। वार्ता का आरम्भ करते हुए आनन्द ने पूछा-"सन्दक ! किस कथा में बैठे थे? क्या वह कथा अधूरी ही रह गई ?" सन्दक परिव्राजक ने उस प्रसंग को बीच ही में काटते हुए कहा--"इन कथाओं को आप यहीं छोड़ दीजिये। आपके लिए इन कथाओं का श्रवण अन्यत्र भी दुर्लभ नहीं होगा। अच्छा हो, आप ही अपनी आचार्यक विषयक कथाएं कहें।" आयुष्मान् आनन्द ने कहना आरम्भ किया-"सन्दक ! ज्ञाता, द्रष्टा, सम्यक् सम्बुद्ध भगवान ने चार अब्रह्मचर्य-वास और चार अनाश्वासिक-ब्रह्मचर्य-वास बतलाये हैं, जिनमें विज्ञ पुरुष ब्रह्मचर्य-वास स्वीकार नहीं करता और स्वीकार करने पर वह न्याय तथा कुशल धर्म को नहीं पाता।" प्रथम, द्वितीय, तृतीय और चतुर्थ अब्रह्मचर्य-वास का विस्तृत विवेचन करते हुए आयुष्मान् आनन्द ने क्रमशः अजित केसकम्बली, पूरण कस्सप, मक्खलि गोशाल और पकुध कच्चायन के मतवादों का उल्लेख किया और उन्हें ही उक्त अब्रह्मचर्य-वासों में गिनाया। चार आनाश्वासिक बह्मचर्य-वास का वर्णन करते हुए प्रथम अनाश्वासिक ब्रह्मचर्य-वास के अन्तर्गत आनन्द ने निगण्ठ नातपुत्त के मतवाद का उल्लेख किया। उन्होंने कहा-"यहाँ एक शास्ता ऐसा है, जो सर्वज्ञ, सर्वदशी, अशेष ज्ञान-दर्शन-युक्त होने का अधिकारपूर्वक कथन करता है। उसके ____ 2010_05 Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा] त्रिपिटकों में निगण्ठ व निगण्ठ नातपुत्त ४२१ अनुसार उसे चलते, खड़े, सोते, जागते सदा-सर्वदा ज्ञान प्रत्युपस्थित रहता है। तो भी वह सूने घर में जाता है और वहाँ भिक्षा नहीं पाता। उसे कुक्कुट भी काट खाता है। चण्ड हाथी, चण्ड घोड़े और चण्ड बैल से भी उसका सामना हो जाता है। सर्वज्ञ होने पर भी वह स्त्री-पुरूषों के नाम-गोत्र पूछता है, ग्राम निगम का नाम और मार्ग पूछता है । जब उन्हें यह पूछा जाता है कि सर्वज्ञ होकर आप क्या कहते हैं, तो वे उत्तर देते हैं-'सूने घर में जाना हमारा प्रारब्ध था, अतः गये । भिक्षा न मिलना भी प्रारब्ध था, अत: न मिली । कुक्कुट का काटना भी प्रारब्ध था,। चण्ड हाथी, घोड़े और बैल का मिलना भो प्रारब्ध था।' सन्दक ! विज्ञ पुरुष का तब यह चिन्तन उभरता है कि जहाँ शास्ता ऐसे दावा करते हैं, वहाँ ब्रह्मचर्य-वास अनाश्वासिक है और उससे उसका मन उदास होकर हट जाता है । यह प्रथम अनाश्वासिक-ब्रह्मचर्यवास है।" इसी प्रकार आयुष्मान् आनन्द ने द्वितीय, तृतीय और चतुर्थ आनाश्वासिक ब्रह्मचर्यवास का वर्णन किया और चतुर्थ में संजय वेलट्ठिपुत्त के बाद का उल्लेख किया। -मज्झिम निकाय, सन्दक सुत्तन्त, २-३-६ के आधार से। समीक्षा यहां अजित केशकम्बली आदि चार को अब्रह्मचर्य वास में माना है । अब्रह्मचर्य-वास का अभिप्राय है- असंन्यास । महावीर को अनाश्वासिक ब्रह्मचर्य-वास में माना है अर्थात् वह संन्यास तो है, पर, निर्वाण का आश्वासन देने वाला नहीं। कुल मिला कर यह तो कहा ही जा सकता है, बुद्ध की दृष्टि में निगण्ठ नातपुत्त अन्य धर्मनायकों की अपेक्षा तो श्रेष्ठ ही थे। सर्वज्ञता-सम्बन्धी समुल्लेखों की समीक्षा प्राक्तन प्रकरणों में की जा चुकी है।' ३१. विभिन्न मतों के देव एक बार भगवान् बुद्ध राजगृह के वेलुवन कलन्दक निवाप में विहार कर रहे थे। दूसरे मतावलम्बी श्रावक देवपुत्र, असम, सहली, निक, आकोटक, बेटम्बरी और माणव गामिय रात बीतने पर वेलुवन को चमत्कृत करते हुए भगवान् के पास आये और अभिवादन कर एक और खड़े हो गये। ___असम देवपुत्र ने पूरण कस्सप की स्तुति में कहा- “यदि कोई पुरुष किसी को मारता है या किसी को नष्ट करता है तो पूरण कस्सप उसमें कोई पुण्य-पाप नहीं समझते। उनके बताये हुए सिद्धान्त विश्वसनीय हैं। वे महान सम्मान के पात्र हैं।" सहली देवपुत्र ने मक्खलि गोशाला की स्तुति में कहा-"वे कठिन तपश्चरण और पाप-जुगुप्सा से संयत, मौनी, कलह-त्यागी, शान्त, दोष-विरत, सत्यवादी है । उनके जैसे पुरुष कभी पाप नहीं कर सकते।" निक देवपुत्र ने निगण्ठ नातपुत्त की स्मृति में कहा-"वे पापों से घृणा करने वाले, चतुर, भिक्षु, चार यामों से सुसंवृत्त हैं । दृष्ट व श्रुत का आख्यान करते हैं। उनमें क्या पाप का अवकाश हो सकता है ?" ' देखें- 'कैवल्य और बोधि' प्रकरण के अर्न्तगत 'अवलोकन' (पृ० १९२-३) 2010_05 Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२२ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड : १ आकोटक देवपुत्र ने नाना तैर्थिकों की स्तुति में कहा-"पकुध कात्यायन, निगण्ठ नातपुत्त, मक्खलि गोशाल, पूरण कस्सप आदि श्रामण्य-पर्याय में रमण करने वाले गणनायक हैं । सत्पुरुषों से ये कैसे दूर जा सकते हैं ?" __ वेटम्बरी देवपुत्र ने आकोटेक देवपुत्र का प्रतिरोध करते हुए कहा-'हुंआ-हुँआ कर रोने वाला तुच्छ सियार सिंह के सदृश नहीं हो सकता। नग्न, असत्यवादी ये गणाचार्य, जिनके चलने में सन्देह किया जा सकता है, सज्जनों के सदृश कभी नहीं हो सकते।" मार ने वेटम्बरी देवपुत्र में प्रवेश कर भगवान् के समक्ष कहा-"जो तप और दुष्कर क्रिया के अनुष्ठान में लगे हैं और उनका विचारपूर्वक पालन करते हैं तथा जो सांसारिक रूप में आसक्त हैं, देवलोक में आनन्द लूटने वाले हैं, वे ही परलोक को बनाने का अच्छा उपदेश देते हैं।" भगवान् बुद्ध समझ गये, यह मार बोल रहा है। उन्होंने उत्तर में कहा-"राजगृह के पर्वतों में जैसे विपुल पर्वत, हिमालय के शिखरों में श्वेत' पर्वत, आकाश-गामियों में सूर्य, जलाशयों में समुद्र, नक्षत्रों में चन्द्रमा श्रेष्ठ हैं; वैसे ही देवगण-सहित समग्र लोक में बुद्ध अग्रगण्य हैं।" -संयुत्त निकाय, नानातित्थिय सुत्त, २-३-१० के आधार से। समीक्षा देवों के धर्म-चर्चा में रस लेने का उल्लेख आगमों में भी यत्र-तत्र मिलता है। कुण्ड. कोलिक से चर्चा करने वाला देव गोशालक की धर्म-प्रज्ञप्ति को मानने वाला था, जब कि कुण्डकोलिक महावीर की धर्म-प्रज्ञप्ति में विश्वास करता था। शकडालपुत्र को सन्देश देने वाला देव महावीर का अनुयायी प्रतीत होता है, जब कि तब तक शकडालपुत्र गोशालक का अनुयायी था। ३२. पिंगलकोच्छ ब्राह्मण एक समय भगवान बुद्ध श्रावस्ती में अनाथपिण्डिक के जेतवन में विहार कर रहे थे। पिंगलकोच्छ ब्राह्मण भगवान् के पास गया । कुशल-प्रश्न पूछ कर एक ओर बैठ गया। पिंगलकोच्छ ने भगवान से कहा- "गौतम ! पूरणकस्सप, मक्खलि गोशाल, अजित केस कम्बली, पकुध कच्चायन, संजय वेलट्ठिपुत्त और निगंठ नातपुत्त संघपति, गणपति, गणाचार्य, प्रसिद्ध, यशस्वी, तीर्थङ्कर हैं। क्या ये सभी अपने वाद को समझते हैं या नहीं समझते या कोई-कोई समझते हैं या कोई-कोई नहीं समझते हैं ?" बुद्ध ने उत्तर दिया- "ब्राह्मण ! इस प्रसंग को यहीं रहने दो। मैं तुझे उपदेश देता हूँ। तू उसे सुन और हृदयंगम कर।" १. 'कैलाश'-संयुत्त निकाय अट्ठकथा। २. देखें, 'गोशालक' प्रकरण के अन्तर्गत पृ० ३३-४। ____ 2010_05 Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा ] त्रिपिटकों में निगण्ठ व निगष्ठ नातापुत्त ४२३ पिंगलकोच्छ ब्राह्मण लीन होकर बैठ गया और भगवान् बुद्ध ने उसे विस्तार से धर्म -मज्झिमनिकाय, चूल सारोपम सुत्तन्त, १-३-१० के आधार से । कथा कही । समीक्षा यह बुद्ध की अपनी विशेष शैली रही है कि उलझन भरे प्रश्नों को वे बड़ी चतुरता से टाल देते । अनेक स्थलों पर उन्होंने ऐसा किया है । ३३. जटिल सुत्त एक बार भगवान् बुद्ध श्रावस्ती में विशाखा मृगार-माता के पूर्वाराम प्रासाद में विहार कर रहे थे। बुद्ध सायंकालीन ध्यान सम्पन्न कर बाहर बैठे हुए थे । कोशल- राज प्रसेनजित् भगवान् के पास आया और अभिवादन कर एक ओर बैठ गया । उस समय काँख में केश व नाखून बढ़ाये सात जटिल, सात निगण्ठ, सात नग्न, सात एकशाटिक और सात परिव्राजक नाना सामग्री लिए भगवान् के निकट से गुजरे। प्रसेनजित् कौशल आसन से उठा, एक कन्धे पर उत्तरीय को व्यवस्थित किया, दाहिने घुटने को भूमि पर टिका जटिल, निगण्ठ आदि जिस ओर जा रहे थे, उस ओर उसने करबद्ध हो तीन बार अपना नाम सुनाया। उनमें से कोई नहीं रुका। सभी चले गए । राजा पुनः भगवान् के पास आया और उसने पूछा - "भन्ते ! लोक में जो अर्हत् या अर्हत्-मार्ग पर आरूढ़ हैं, क्या ये उनमें से भी एक हैं ?" बुद्ध ने उत्तर दिया – “महाराज ! आपने तो गलत समझ लिया । ये तो गृहस्थ, काम भोगी, बाल-बच्चों में रहने वाले, काशी का चन्दन लगाने वाले, माला- गन्ध व उबटन का प्रयोग करने वाले और परिग्रह बटोरने वाले हैं । अर्हत् या अर्हत्-मार्ग पर आरूढ़ इनमें से कोई नहीं है । राजन् ! साथ रहने से, बहुत समय तक साथ रहने से और सदैव इस ओर ध्यान रखने से प्रज्ञावान् पुरुष के द्वारा ही किसी का शील जाना जा सकता है । इसी प्रकार व्यवहार से ही किसी की प्रामाणिकता का, विपत्ति आने पर स्थिरता का और वार्तालाप से ही प्रज्ञा का प्रज्ञावान् पुरुष अनुमान लगा पाता है ।" राजा ने सहसा कहा - "भन्ते ! आश्चर्य है । आपने सम्यक् ही बतलाया । इनमें से कोई भी अर्हत् या अर्हत्-मार्ग पर आरूढ़ नहीं है । ये तो मेरे गुप्तचर हैं । कहीं का भेद ले कर आ रहे हैं । इनसे मैं भेद ले लेता हूँ और वैसा ही समझता हूँ । अब ये भस्म आदि को घो डालेंगे, स्नान करेंगे, उबटन करेंगे, बाल बनवायेंगे, उज्ज्वल वस्त्र पहनेंगे और पांच प्रकार के काम-गुणों का उपभोग करेंगे ।" भगवान् के मुँह से गाथाएं निकालीं- वेश-भूषा से मनुष्य नहीं जाना जाता । बाह्य आवरण को देख कर ही किसी में विश्वास मत करो । संयम का स्वांग रच कर दुष्ट लोग भी विचरण करते हैं । नकली, मिट्टी या लोहे के बने और सोने के झोल चढ़े कुण्डल के समान कितने ही व्यक्ति साधुता का दोंगा पहिन कर घूमते हैं । वे अन्दर से मैले और बाहर से चमकते हैं । संयुक्त निकाय, जटिलसुत्त, ३-२-१ के आधार से । 2010_05 Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२४ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड : १ समीक्षा यह प्रसंग तात्कालिक राज-व्यवस्था का बहुत ही गूढ़ परिचय देता है। गुप्तचर विभिन्न मतों के साधु बन कर गुप्तचरता करते, यह एक अद्भुत-सी बात है। ३४. पम्मिक उपासक ऐसा मैंने सुना एक समय भगवान् श्रावस्ती में अनाथपिण्डिक के जेतवनाराम में विहार करते थे, उस समय धम्मिक उपासक पाँच सौ उपासकों के साथ जहां भगवान् थे, वहाँ गया। पास जा भगवान् को अभिवादन कर एक ओर बैठ गया। एक ओर बैठे धम्मिक उपासक ने गाथाओं में भगवान् से कहा "महाप्रज्ञ गौतम ! मैं आपसे पूछता हूँ कि किस आचारण का श्रावक अच्छा होता है ? घर से निकल कर बेघर होने वाला या गृहस्थ उपासक ? "देव-सहित लोगों की गति और विमुक्ति को आप ही जानते हैं । आपके समान निपुण अर्थदर्शी कोई नहीं है। (लोग) आप ही को उत्तम बुद्ध बताते हैं । "आपने धर्म-सम्बन्धी पूरा ज्ञान प्राप्त कर अनुकम्पा-पूर्वक प्राणियों को (वह) प्रकाशित किया है। सर्वदर्शी ! आप (अविद्या-रूपी) पर्दे से मुक्त हैं, निर्मल रूप से सारे संसार में सुशोभित हैं। "आपको 'जिन' सुन कर 'ऐरावण' नामक हस्तिराज आपके पास आया था। वह भी आपसे वार्तालाप कर (धर्म) सुन कर प्रसन्न हो, प्रशंसा कर चला गया। ___ "राजा वैश्रवण कुबेर भी धर्म पूछने के लिए आपके पास आया था। धीर ! आपने उसके प्रश्न का भी उत्तर दिया और वह भी (आप की बात) सुन कर प्रसन्न हो चला गया। "जितने भी वादी तैथिक, आजीवक और निग्रन्थ हैं, वे सब प्रज्ञा में आपको वैसे ही नहीं पा सकते, जैसे कि शीघ्र चलने वाले को खड़ा रहने वाला।" -सुत्तनिपात, चूलवग्ग, धम्मिक सुत्त (हिन्दी अनुवाद), पृ० ७५,७७ के आधार से । समीक्षा यहाँ बुद्ध की प्रशंसा करते हुए निगण्ठों का उल्लेख मात्र किया गया है। सुत्त निपातअटकथा के अनुसार ये पांच सौ बौद्ध उपासक आकाशगामिनी विद्या के धारक थे व 'अनागामी' थे। ३५. महाबोधिकुमार वाराणसी में ब्रह्मदत्त का राज्य-शासन था। काशी राष्ट्र में अस्सी करोड़ की सम्पत्ति वाला महाधनिक उदीच्य ब्राह्मण-कुल था। बोधिसत्त्व उस कुल में उत्पन्न हुए। उनका नाम बोधिकुमार रखागया । बड़े होने पर वे तक्षशिला गये, शिल्प सीखा और घर लौट आये । 2010_05 Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा] त्रिपिटकों में निगण्ठ व निगण्ठ नातापुत्त ४२५ बहुत वर्षों बाद सांसारिक सुखों को ठुकरा कर वे हिमालय चले गये । परिव्राजक बन कर फल-मूल खाते हुए वहाँ रहने लगे। बहुत वर्ष बीत गये । एक बार वर्षा ऋतु में हिमालय से उतरे। चारिका करते हुए क्रमशः वाराणसी पहुंचे। राजा के उद्यान में ठहरे । अगले दिन परिव्राजक-विधि से भिक्षाटन करते हुए राज-द्वार पर पहुँचे। गवाक्ष में खड़े राजा ने उन्हें दूर से ही देखा, तो वह उनकी शान्त प्रकृति से बहुत प्रभावित हुआ। उन्हें अपने भवन में लाया और राज-सिंहासन पर बिठाया। कुशल-क्षेम के अनन्तर धर्मोपदेश सुना और श्रेष्ठ भोजन परोसा। बोधिसत्त्व जब भोजन कर रहे थे, उन्होंने सोचा-'राज-कुल में दोष बहुत होते हैं। शत्रु भी बहुत रहते हैं । आपत्ति आने पर यहाँ मेरी रक्षा कौन करेगा ?' उन्होंने चारों ओर दृष्टि डाली। कुछ ही दूरी पर खड़ा, राज-प्रिय एक पिंगल वर्ण कुत्ता उन्हें दिखलाई दिया। बोधिसत्त्व भात का एक बड़ा गोला उसे देना चाहते थे। राजा ने उनके इस इंगित को समझ लिया। उसने कुत्ते का बर्तन मँगवाया और उसमें मात डाला । बोधिसत्त्व ने अपने हाथों वह बर्तन कुत्ते को दिया और अपना भोजन समाप्त किया। राजा ने बोधिसत्त्व से अपने यहां नैरन्तरिक प्रवास की भावमरी प्रार्थना की। बोधिसत्त्व ने उसे स्वीकार किया। राजा ने उनके लिए राजोद्यान में पर्णशाला बनवाई, परिव्राजक की समस्त आवश्यकताओं से उसे पूर्ण किया और उन्हें वहाँ बसाया। राजा प्रतिदिन दो-तीन बार उनकी सेवा में आता। भोजन के समय उन्हें राज-सिंहासन पर ही बैठाता और वे राजा का भोजन ही ग्रहण करते । क्रमशः बारह वर्ष बीत गये। राजा के पांच अमात्य थे, जो राज्य की अर्थ और धर्म-सम्बन्धी अनुशासना करते थे। वे क्रमश: अहेतुवादी, ईश्वर-कर्तृत्ववादी, पूर्वकृतवादी, उच्छेदवादी तथा क्षतविधवादी थे। अहेतुवादी जनता को सिखलाता था; ये प्राणी संसार में ऐसे ही उत्पन्न होते हैं। ईश्वरकर्तृत्ववादी जनता को सिखलाता था; यह संसार ईश्वर द्वारा निर्मित है। पूर्वकृतवादी जनता को सिखलाता था; प्राणियों को जो सुख-दुःख की अनुभूति होती है, वह पूर्वकृत कर्मों के अनुसार ही होती है। उच्छेदवादी जनता को सिखलाता था; यहाँ से कोई परलोक नहीं जाता। इस लोक का यहीं उच्छेद हो जाता है । क्षतविधवादी की शिक्षा थी; माता-पिता को मार कर भी अपना स्वार्थ-साधन करना चाहिए। राजा के द्वारा वे न्यायाधीश के पदों पर नियुक्त थे। रिश्वत खा कर वे असत्य निर्णय देते थे। एक द्वारा अधिकृत वस्तु या भूमि को अन्य के अधीन कर देते थे। इस तरह वे सत्य का गला घोंट रहे थे और अपना अर्थ-भण्डार भी भरते जा रहे थे। एक बार एक व्यक्ति ने किसी व्यक्ति पर झूठा अभियोग लगाया। उन न्यायाधीशों ने वास्तविकता के विरुद्ध निर्णय दिया। सच्चा हार गया । बोधिसत्त्व भिक्षा के लिए राजगृह में प्रवेश कर रहे थे। उस ने उन्हें देखा तो रोता हुआ वह उनके पास आया और प्रणाम करते हुए कहा-"भन्ते ! आप राज-गृह में भोजन करते हैं। न्यायाधीश रिश्वत लेकर जब संसार का विनाश कर रहे हैं तो आप उपेक्षाशील क्यों हैं ? पाँचों न्यायाधीशों ने झूठे अभियोक्ता से रिश्वत ले कर मुझे अपने स्वामित्व से वंचित कर दिया है।" बोधिसत्त्व ने उसके प्रति करुणा दिखलाई । न्यायालय में गये, उचित निर्णय करवाया और उसे अपना स्वामित्व दिलवाया। जनता गगन-भेदी शब्दों में एक बार 'साधु', 'साधु' पुकार उठी। जनता का कोलाहल राजा के कानों तक पहुंचा। राजा ने उसके बारे में जिज्ञासा 2010_05 Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२६ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन खण्ड:१ की । अनुचरों ने परिस्थिति से उसे अवगत किया । बोधिसत्त्व जब भोजन कर चुके तो राजा ने उनके उपपात में बैठ कर पूछा--"भन्ते ! क्या आज आपने किसी अभियोग का निर्णय दिया था ?" "हाँ, महाराज !" "भन्ते ! यदि आप इस कार्य को अपने हाथ में ले लें, तो जनता की उन्नति होगी। मेरा निवेदन है, अब से आप ही न्यायाधीश का पद सम्भालें।" “महाराज ! हम प्रवजित हैं। यह हमारा कार्य नहीं है।' "भन्ते ! जनता पर अनुग्रहशील हो कर ऐसा करें। आप पूरा समय इस कार्य में न लगायें। प्रातः उद्यान से यहाँ आते समय और भोजन कर उद्यान को लौटते समय चार-चार अभियोगों का निर्णय दें। इस प्रकार जनता की अभिवृद्धि होगी।" राजा के पुन:-पुनः अनुरोध करने पर बोधिसत्त्व ने उस प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया। वे प्रतिदिन आठ-आठ अभियोगों का निर्णय देने लगे। बोधिसत्त्व की उपस्थिति से झूठे अभियुक्तों की दाल गलनी बन्द हो गई और अमात्यों के रिश्वत के द्वार सर्वथा बन्द हो गये। क्रमश: वे निर्धन होते गये। अमात्यों ने बोधिसत्त्व के विरुद्ध एक षड़यंत्र रचा। वे राजा के पास आये और उनसे कहा-"बोधि-परिव्राजक आपका अहित-चिन्तक है।" राजा ने इस कथन पर कोई ध्यान नहीं दिया। उपेक्षा दिखाते हुए कहा-"यह सदाचारी है, ज्ञानी है, ऐसा कभी नहीं हो सकता।" अमात्यों ने पुनः कहा-'आप चाहे हमारे कथन पर विश्वास न करें, किन्तु, उसने सारे नगर-वासियों को अपनी मुट्ठी में कर लिया है । हम पांचों को वह अपना समर्थक नहीं बना सका है। यदि आपको हमारे कथन पर विश्वास न हो तो जब वह इस ओर आये, उसके अनुयायियों की ओर आप एक दृष्टि डालें।" राजा असमंजस में पड़ गया। कभी वह सोचता, बोधि परिव्राजक ऐसा नहीं हो सकता। कभी सोचता, अमात्य भी मुझे अन्यथा परामर्श नहीं दे सकते। किन्तु, बोधि परिव्राजक जब राज-महलों की ओर आये तो राजा ने उनके मार्ग की ओर देखा। जन-समूह की अच्छी भीड़ लगी हुई थी। वे सभी बोधि परिव्राजक से अपने-अपने मुकद्दमों का निपटारा चाहते थे। राजा ने उन्हें उनका अनुयायी-वर्ग समझा। राजा का मन विषाक्त हो गया। अमात्यों को बुलाया और पूछा-"क्या करें ?" "देव ! इन्हें गिरफ्तार कर लें।" "बिना किसी विशेष दोष के ऐसा कैसे कर सकते हैं ?" "तो महाराज! आप इसका आदर-सत्कार करना छोड़ दें। स्वागत के अभाव में यह स्वतः समझ जायेगा और बिना किसी को सूचित किये ही चला जायेगा।" राजा ने बोधि परिव्राजक के स्वागत में क्रमशः न्यूनता प्रारम्भ कर दी। पहले ही दिन उन्हें राज-सिंहासन पर न बैठा कर नंगे पल्यंक पर बैठाया गया। बोधिसत्त्व ने परिस्थिति को तत्काल भांप लिया। उद्यान से लौटते ही उन्होंने प्रस्थान का विचार किया। फिर उनका चिन्तन उभरा, निश्चयात्मक रूप से जान कर ही यहां से जाऊँगा। वे नहीं गये। अगले दिन उन्हें नंगे पल्यंक पर बैठाया गया और राजा के लिए बने चावलों में सामान्य चावल मिश्रित कर उन्हें परोसा गया। तीसरे दिन भी जब बोधिसत्त्व भोजन के लिए आये तो उन्हें ऊपर 2010_05 Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा] त्रिपिटकों में निगण्ठ व निगण्ठ नातपुत्त की मंजिल में चढ़ने से रोका गया और सीढ़ियों में ही मिश्रित भात दिये गये । वे उद्यान लौट आये और वहाँ भोजन किया। चौथे दिन उन्हें प्रासाद पर नहीं चढ़ने दिया गया । नीचे ही कण वाले भात उन्हें दिये गये । उद्यान में आकर उन्हें भी उन्होंने खाया | सारे घटना चक्र को देखते हुए राजा असमंजस में पड़ गया । बोधि परिव्राजक को निकालने का प्रयत्न करने पर भी वे नहीं निकले। राजा ने अमात्यों को बुलाया और कहा"महाबोधि कुमार का सत्कार घटा दिया, फिर भी वे नहीं जा रहे हैं ।" अमात्यों ने अवसर का लाभ उठाया । उन्होंने राजा से कहा- - "महाराज ! वह भात के लिए नहीं घूम रहा है। वह छत्र पाने के प्रयत्न में है । यदि उसके सामने भात का ही प्रश्न होता तो वह यहाँ से कभी का चला जाता । " "तो अब क्या करें ?" राजा घबराया। उसने अमात्यों को पूछाअमात्यों ने कुछ गंभीर हो कर कहा - "महाराज ! अब आपको कुछ कठोरता से काम लेना होगा । आप उसे मरवा दें ।” राजा ने अमात्यों के हाथों में तलवार थमाते हुए कहा - "कल भिक्षा के समय तुम सब छुप कर द्वार के समीप खड़े हो जाना । ज्योंही वे प्रवेश करें, सिर काट डालना और टुकड़े-टुकड़े कर शौचालय के कुएं में फेंक देना । स्नान कर मेरे पास आना । पर इस कार्य का किसी को पता न चले।" आमात्यों ने राजा का आदेश शिरोधार्य किया और प्रसन्नचित अपने-अपने घर लौट आये । ४२७ के सायंकाल भोजन से निवृत्त हो कर राजा शय्या पर लेटा था । सहसा उसे बोधिसत्त्व गुण याद आये । उसका मन शोक से भर गया और पसीने से तर-बतर हो गया। बेचैनी से वह लोट-पोट होने लगा । अग्रमहिषी से राजा ने बात तक नहीं की । पूर्णतः स्तब्धता छाई हुई थी। रानी ने मौन भंग करते हुए पूछा - "महाराज ! क्या मैं अपराधिनी हूँ ? आप मेरे से बोलते तक नहीं ।' 1 राजा ने अपने को सम्भालते हुए कहा - "देवि ! ऐसी बात नहीं है । मैं तो दूसरे ही विचारों में खोया हुआ हूँ । बोधि परिव्राजक मेरा शत्रु हो गया है । पाँचों मंत्रियों की मैंने उसे मार डालने की आज्ञा दे दी है। वे उसे मार कर, टुकड़े-टुकड़े कर शौचालय के कुएँ में डाल देंगे । उसने बारह वर्ष तक हमें धर्मोपदेश किया था। मैंने उसका एक भी प्रत्यक्ष दोष नहीं देखा । दूसरों के कथन पर विश्वास कर मैंने उसके वध का निर्देश दिया है। ज्यों ही यह स्मृति होती है, मैं सिहर उठता हूँ ।" - रानी ने राजा को आश्वस्त करते हुए कहा - "देव ! यदि वह शत्रु ही तो उसके वध में इतना क्या विचार है ? पुत्र भी यदि शत्रु हो जाये तो उसे भी अपना हित साधन करना चाहिए। आप चिन्ता न करें ।" 2010_05 श्रेष्ठ पिंगल वर्ण श्वान ने राजा और रानी का ज्यों ही यह वार्तालाप सुना, मन में संकल्प किया—“अपने कौशल से कल मैं बोधि परिव्राजक के प्राणों की रक्षा करूँगा । अगले दिन सूर्योदय होते ही वह प्रासाद से उतर आया। मुख्य द्वार की देहली पर वह सिर रख कर लेट गया और बोधिसत्त्व के आगमन की व्यग्रता के साथ प्रतीक्षा करने लगा । खड्गधारी अमात्य भी प्रातःकाल आकर द्वार के भीतर छिप कर खड़े हो गये । बोधिसत्त्व अपने समय पर हो गया है मरवा कर Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२८ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन खण्ड:१ उद्यान से राज-द्वार के समीप आये। कुत्त ने मुह बाया, चारों दांत बाहर निकले और अपनी भाषा में चिल्लाना आरम्भ किया-"मन्ते ! क्या आपको सारे जम्बूद्वीप में अन्यत्र कहीं भिक्षा नहीं मिलती है ? हमारे राजा ने आपके वध के लिए पांच अमात्यों को नियुक्त किया है। नंगी तलवारें लेकर वे द्वार के पीछे छुपे खड़े हैं । अपने प्राणों को हथेली में रख कर आप आगे न बढ़ें। शीघ्र ही लौट जायें।" ___ बोधि परिव्राजक को सभी बोलियों का ज्ञान था ; अतः वे उसे भली-भांति समझ गये। कुछ क्षण वहीं रुके और उद्यान की और लौट आये। प्रस्थान के अभिप्राय से वे अपनी आवश्यक सामग्री को एकत्रित करने जुट पड़े। राजा गवाक्ष में खड़ा सब देखता रहा। उसने सोचा, यदि यह मेरा शत्रु होगा तो उद्यान में लौटते ही सेना को एकत्र कर युद्ध की तैयारी करने लगेगा; अन्यथा अपनी वस्तुओं को बटोर कर प्रस्थान में संलग्न हो जायेगा। मुझे इस बारे में जानकारी करनी चाहिए। वह उद्यान पहुंचा। बोधिसत्त्व अपनी सामग्री बटोर रहे थे । वे उस समय पर्णशाला से निकल चंक्रमण के चबूतरे पर थे। राजा ने प्रणाम किया और एक ओर खड़े हो कर गाथा में कहा : किं नु वण्डं कि अजिनं किं छत्तक उपाहनं कि अंकुसं चपत्त व संघाटि चापि ब्राह्मण । तारमाणरूपो गण्हासि किं नु पत्थयसे दिसं ॥१॥ ब्राह्नण ! दण्ड, अजिन, छत्री, उपानह, थैला, पात्र और संघाटी को शीघ्रता से क्यों बटोर रहे हो ? क्या प्रतिष्ठासु हो? । ___ बोधित्त्व ने सोचा, यह मेरे क्र्तृत्व से अनभिज्ञ है। मुझे इसे बोध देना चाहिए। उन्होंने गाथा में कहा : ददासेतानि वस्सानि वुसितानि तवन्तिके नाभिजानानि सोनेन पिङ्गलेन अभिनिकूजितं ।।२॥ स्वायं वित्तो व नवति सुक्कदाहं विवंसयं ।। सव सुत्वा समरिस्स वीतसद्धस्स मम पति ॥ ३॥ राजन ! बारह वर्ष तक मैं तेरे पास रहा । मैं नहीं जानता, पिंगल कुत्ते ने कभी भौंका हो। किन्तु, अब यह जान कर कि तेरी तथा तेरी पत्नी को मेरे प्रति श्रद्धा नहीं रही, वह क्रुद्ध हो कर, दाँत बाहर निकाल कर भौंकता है। राजा ने अपना दोष स्वीकार किया और क्षमा मांगते हुए कहा : अहु एस कतो दोसो, यथा भाससि ब्राह्मण, एस मिय्यों पसीवामि, वस ब्राह्मण मा गम ॥४॥ ब्राह्मण ! जैसे तुम कहते हो, वैसा मेरे से सदोष आचरण हो गया है। अब मैं और अधिक श्रद्धवान् हूँ । यही रहें, प्रस्थान न करें। "महाराज ! बिना प्रत्यक्ष देखे दूसरों की बात मानने वाले के साथ पण्डितजन नहीं रहते"; बोधिसत्त्व ने यह कहते हुए उसका प्रस्ताव ठुकरा दिया और उसका अनाचार प्रका 2010_05 Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा] त्रिपिटकों में निगण्ठ व निगण्ठ नातपुत्त ४२६ शित करते हुए कहा-"अर्धचन्द्राकार देकर निकाल दिये जाने से पूर्व स्वयं ही चला जाना अच्छा है। जल-रहित कुंओं के समान अश्रद्धावान् के आश्रय में नहीं रहना चाहिए। जल-रहित कुंए को खने भी तो उसका पानी कीचड़ की गन्ध वाला ही होगा। श्रद्धावान् के आश्रय में ही रहे । .........'अत्यन्त साथ रहने से, साथ न रहने से तथा असमय ही मांग बैठने से मित्रता नष्ट हो जाती है ; अतः न तो निरन्तर जाये, न अति विलस्ब से जाये और न असमय ही मांगे इस प्रकार मित्रता टूटती नहीं है। अति चिरकाल तक साथ रहने से प्रिय मनुष्य भी अप्रिय हो जाता है। तेरे अप्रिय बनने से पूर्व ही हम तुझे सूचना देकर जाते हैं।" राजा ने निवेदन किया-"यदि आप हमारी प्रार्थना स्वीकार नहीं करते हैं, अपने अनुयायियों की बात नहीं रखते हैं तो यह वचन दें, फिर शीघ्र ही आयेंगे।" बोधिसत्त्व ने उत्तर दिया-"महाराज! इस प्रकार विचरते हुए मेरे अथवा तुम्हारे शरीर को हानि न हुई तो सम्भव है कुछ दिनों बाद फिर हम एक-दूसरे को देखें।" बोधिसत्व ने राजा को धर्मोपदेश दिया-"महाराज ! अप्रमादी रहें।" बोधिसत्त्व ने उद्यान से प्रस्थान किया । अनुकूल स्थान पर भिक्षाटन कर वाराणसी से भी निर्गमन कर दिया । क्रमशः चारिका करते हुए हिमालय पहुंचे। कुछ समय वहाँ रहे और नीचे उतरे। एक प्रत्यन्त-ग्राम के आश्रय से जंगल में रहने लगे। __ महाबोधिकमार परिव्राजक के चले जाने पर अमात्यों की पांचों अंगुलियां घी में हो गई। वे न्यायाधीश हो कर फिर लूट मचाने लगे। साथ ही वे सोचने लगे-"महाबोधि कुमार यदि पुनः यहाँ आ गया तो हम नहीं बच पायेंगे। ऐसा उपक्रम करना चाहिए, जिससे वह पुनः यहाँ न आ सके।" उन्होंने चिन्तन किया, प्राणी प्राय: आसक्ति के स्थान को छोड़ नहीं सकता। यहां उसकी किसमें आसक्ति है ? उन्होंने अनुमान लगाया, महारानी में उसकी आसक्ति है; अत: सम्भव है, इसी कारण से वह पुन: आये। इसे पहले ही मरवा दें। अमात्य हिल, मिल कर राजा के पास आये। गंभीरतापूर्वक बोले-"देव! नगर में एक चर्चा है।" "क्या ?" "महाबोधि परिव्राजक और महारानी के बीच अवांछनीय पत्राचार चलता है।" "किस प्रकार का?" , महाबोधि परिव्राजक ने देवी को लिखा है-"क्या तू राजा को मरवा कर मुझे छत्रपति बनवा सकती है ?" रानी ने उसे उत्तर में लिखा है-"राजा को मारने का दायित्व मेरे पर है। शीघ्र चले आओ।" __ अमात्यों के पुनः पुनः कहने से राजा को उस कथन पर विश्वास हो गया। उसने पूछा-"क्या करें?" "देवी को मरवा डालना चाहिए।" राजा ने निर्देश दिया- "उसे मार डालो और टुकड़े-टुकड़े कर शौचालय के कुएं में डाल दो।" अमात्यों ने राजा के आदेश को क्रियान्वित किया। रानी के वध की बात सारे शहर में फैल गई। चारों राजकुमार राजा के इसीलिए शत्रु हो गये। राजा बहुत भयभीत हुआ। 2010_05 Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३० आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [ खण्ड : १ समस्या बहुत उलझ गई । सारी घटना बोधिसत्त्व तक पहुँची । उन्होंने सोचा -- कुमारों को समझा कर और राजा को भी अपने दोष की अनुभूति करा कर मुझे इस समस्या को सुलझाना चाहिए। मैं राजा को जीवन-दान दूँगा और कुमारों को इस पाप से बचाऊँगा । बोधिसत्त्व अगले दिन भिक्षाटन के लिए प्रत्यन्न ग्राम में गये तो मनुष्यों ने उन्हें बन्दर का मांस दिया। उन्होंने उसे खा लिया। उन्होंने बन्दर का चर्म भी माँग कर ले लिया। आश्रम में ला कर उन्होंने उसे सुखाया, गन्ध रहित कर ओढ़ा, पहिना और कन्धे पर भी रखा। ऐसा करने का उनका तात्पर्य था कि वे यथार्थ कह सकें कि बन्दर बहुत उपकारी था। वे उसका चर्म लेकर क्रमश: वाराणसी पहुँचे । कुमारों के समीप जाकर उन्होंने कहा -- "पितृ-हत्या दारुण कर्म है । कभी मत करना। कोई प्राणी अजर-अमर नहीं है । मैं तुम्हारा पारस्परिक मेल करवाने के लिए आया हूँ । जब सन्देश भेजू, चले आना ।" वे वहाँ से चले और नगर के आभ्यन्तरिक उद्यान में आये । शिला पर बन्दर का चमड़ा बिछा कर बैठ गये । माली ने राजा को यह सूचना दी। राजा बहुत हर्षित हुआ और अमात्यों के साथ उद्यान में पहुँचा । प्रणाम किया और कुशल-क्षेम पूछा। बोधिसत्त्व राजा के साथ बात न कर केवल उस चमड़े को ही मलते रहे । राजा को आघात-सा लगा । उसने पूछा"भन्ते ! आप मेरी उपेक्षा कर इस चमड़े को ही सहलाते जा रहे हैं, क्या यह मेरी अपेक्षा बहुत उपकारी है ?” I सहज स्वाभिमान से बोधिसत्त्व ने राजा की ओर देखा और कहा - "हाँ, महाराज ! यह बन्दर मेरा बहुत उपकारी है। इसकी पीठ पर बैठ कर मैं बहुत घूमा हूँ । यह मेरे लिए पानी का घड़ा लाया है । इसने मेरा वास स्थान प्रमार्जित किया है। इसने मेरी सामान्य सेवा की है। मैं अपने चित्त की दुर्बलता से इसका माँस खा कर उपचित हुआ हूँ । इसकी चमड़ी सुखा, फला, उस पर बैठता हूँ और उस पर लेटता हूँ । महाराज ! इस प्रकार यह मेरा बहुत उपकारी है ।" उद्देश्य से पीठ पर बोधिसत्त्व ने अमात्यों के मत का निरसन करने के बानर - चर्म के स्थान पर बानर शब्द का उपयोग किया। उन्होंने उसे पहिना; अतः चढ़कर घूमा' कहा । उसे कन्धे पर रखकर पानी का घड़ा लाये थे; अतः 'पानी का घड़ा लाया' कहा। उस चर्म से भूमि का प्रमार्जन किया था; अत: 'वास स्थान प्रमार्जित किया' कहा । लेटते समय पीठ का और उठ कर चलते समय पैरों का स्पर्श हुआ; अत: 'मेरी सामान्य सेवा की' कहा । भूख लगने पर उसका मांस मिल जाने से खा गये; अतः 'अपनी दुर्बलता के कारण मांस खाया' कहा । अमात्यों ने ताली बजाकर उनका उपहास किया और कहा – “प्रव्रजित के कर्म को देखो । बन्दर का वध कर; मांस खा चमड़ी को लिए घूमता है ।" बोधिसत्त्व ने सब कुछ देखा । वे सोचने लगे, ये अज्ञ हैं । ये नहीं जानते कि मैं इनके मत का निरसन करने के लिए ही यह चर्म लेकर आया हूँ । मैं यह प्रकट नहीं होने दूँगा । उन्होंने अहेतुवादी को बुलाया और पूछा"आयुष्मान् तुमने मेरा उपहास क्यों किया ?" ” "क्योंकि यह मित्र - द्रोही-कर्म और प्राण-वध "जो तेरे में और तेरे मत में श्रद्धा रखता है, उसके लिए दुःख की क्या बात है ? तेरा तो सिद्धान्त है कि स्वभाव से ही सब कुछ होता है । अनिच्छा से ही करणीय तथा अकरणीय किया जाता है । यदि यह मंत्र कल्याणकारी है, अकल्याणकारी नहीं है और यदि 2010_05 Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परो] त्रिपटिकों में निगण्ठ व निगण्ठ नातपुत्त ४३१ सत्य ही है तो बन्दर की हत्या ठीक ही हुई है। यदि अपने मत के दोष को समझ सकेगा तो मेरी निन्दा नहीं कर सकेगा; क्योंकि तेरा सिद्धान्त ऐसा ही है।" बोधिसत्त्व ने अहेतुवादी का विग्रह कर उसे हतप्रभ कर दिया। राजा भी परिषद् में बैठा था। वह भी हतप्रभ हो अध:सिर बैठा रहा। बोधिसत्त्व ने ईश्वर-कर्तृत्ववादी से कहा-"आयुष्मान् ! यदि तू ईश्वर-कर्तृत्व में विश्वास करता है तो तूने मेरा उपहास क्यों किया ? यदि ईश्वर ही सारे लोक की जीविका की व्यवस्था करता है, उसी की इच्छानुसार मनुष्य को ऐश्वर्य मिलता है, उस पर विपत्ति आती है, वह भला-बुरा करता है और मनुष्य ईश्वर का ही आज्ञाकारी है, तो ईश्वर ही दोषी ठहरता है । यदि यही मत है तो अपने दोष को समझो। मेरी निन्दा मत करो।" इस प्रकार जैसे आम की मोगरी से ही आम गिराये जाते हैं; उसी प्रकार उसके हेतुओं से ही उसके सिद्धान्त का निरसन किया। ईश्वर-कर्तृत्ववादी को हतप्रभ कर बोधिसत्त्व ने पूर्वकृतवादी को पूछा- "आयुष्मन् ! यदि तू पूर्वकृत को ही सत्य मानता है तो तू ने मेरा उपहास क्यों किया ? यदि पूर्वकृत-कर्म के कारण ही सुख-दुःख होता है, यदि यहाँ का पाप-कर्म प्राचीन पाप-कर्म से ऋण-मुक्ति का कारण होता है, तो यहां पाप किसे स्पर्श करता है ? यदि यही मत है तो अपने दोष को समझो । मेरी निन्दा मत करो।' उच्छेदवादी को सम्बोधित करते हुए कहा- "आयुष्मन् ! यदि यहां किसी का किसी से सम्बन्ध नहीं है; अत: प्राणियों का यहीं उच्छेद हो जाता है, कोई भी परलोक नहीं जाता, तो फिर तू ने मेरा उपहास क्यों किया? पृथ्वी आदि चार महाभूतों से ही प्राणियों के रूप की उत्पत्ति होती है। जहाँ से रूप उत्पन्न होता है, वहीं वह विलीन हो जाता है। जीव यहीं जीता है, परलोक में विनष्ट हो जाता है। पण्डित और मूर्ख सभी का यहीं उच्छेद हो जाता हैं। यदि ऐसा है तो यहाँ पाप किसे स्पर्श करता है ? यदि यही मत है तो अपने दोष को समझो । मेरी निन्दा मत करो।" । क्षतविधवादी को सम्बोधित करते हुए कहा- "आयुष्मन् ! जब तेरा यह मत है कि माता-पिता और ज्येष्ठ बन्धु को भी मार कर अपना स्वार्थ-साधन करना चाहिए और वैसा प्रयोजन हो तो पुत्र और स्त्री की भी हत्या कर देनी चाहिए, तो तू ने मेरा उपहास क्यों किया?" सब मतों का निराकरण करने के अनन्तर बोधि परिव्राजक ने कहा -"हमारी तो यह मान्यता है, जिस वृक्ष की छाया में बैठे अथवा लेटे, उसकी शाखा तक को न तोड़े। मित्रद्रोह पातक है। तुम्हारा मत है, प्रयोजन होने पर उसे जड़ से भी उखाड़ दो। मेरे तो पाथेय का प्रयोजन था; अत: बानर की हत्या को मैं समुचित ही मानता हूँ।" पांचों अमात्यों के हतप्रभ व हतबुद्धि हो जाने पर बोधिसत्त्व ने राजा को सम्बोधित करते हुए कहा-"महाराज ! राष्ट्र के इन पाँच लुटेरों को आप आश्रय दे रहे हैं; अत: आप कितने बड़े मूर्ख हैं। ऐसे व्यक्तियों के संसर्ग से ही आदमी इस लोक में तथा परलोक में महान् दु.ख का अनुभव करता है। ये अहेतुवादी, ईश्वर कर्तृत्वादी, पूर्वकृतवादी, उच्छेदवादी और क्षतविधवादी लोक में असत्पुरुष हैं; जो मूर्ख होते हुए भी अपने आपको पण्डित मानते हैं। ये स्वयं भी पाप करते हैं और दूसरों से भी करवाते हैं। असत्पुरुष की संगति दुःखद तथा कटुक फल देने वाली होती है। पूर्व समय में मेंढ़े से मिलता-जुलता एक भेड़िया रहता था। वह ____ 2010_05 Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३२ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड : १ निश्शंक होकर बकरियों के झुण्ड में पहुंच जाता था। वहाँ भेड़ों, बकरियों तथा बकरों को मार कर आनन्दपूर्वक खाता था और यथेच्छ घूमता रहता था। इसी प्रकार कुछ श्रमण-ब्राह्मण स्वांग रच कर जनता को ठगते हैं। उनमें से कोई अनाहारी होते हैं, कोई कठोर भूमि पर सोते हैं, कोई पांसुकूलिक होते हैं, कोई उकड़ ही बैठते हैं, कोई सप्ताह या पक्ष में एक बार भोजन करते हैं, कोई निर्जल रहते हैं और कोई पापाचरण करते हुए भी अपने को अर्हत् बतलाते हैं। पण्डितमानी ये सभी मूर्ख असत्पुरुष हैं। ..." बोधिसत्त्व ने राजा को धर्मोपदेश दिया। चारों राजकुमारों को अपने पास बुलाया और उन्हें भी धर्म-देशना से प्रभावित किया। राजा के कारनामों को प्रकाशित करते हुए कुमारों से कहा- "तुम राजा को क्षमा कर दो।" सबके बीच ही राजा से कहा-'अब कभी अविचारित कार्य न करना और इस प्रकार का दुस्साहस भी न करना ।" कुमारों से कहा"तुम भी राजा से द्वेष न रखना।" राजा ने कहा-"भन्ते ! मैंने इन पांच अमात्यों ल में फंस कर आप के तथा देवी के प्रति पाप-कर्म किया है। इन पांचों को अब मरवाता हूँ।" "महाराज ! ऐसा नहीं कर सकते।" "तो इनके हाथ-पांव कटवा देता हूं।" "नहीं, महाराज ! यह भी नहीं कर सकते।" राजा ने अमात्यों की सम्पत्ति का अपहरण करवा लिया और सिर में डा कर, तोबरा बान्ध उन्हें अपमानित किया और देश से बहिष्कृत कर दिया। बोधिसत्त्व वहाँ कुछ दिन ठहरे और राजा को अप्रमादी रहने का उपदेश देकर हिमालय की ओर ही चले गये। वहाँ ध्यान-अभिज्ञा प्राप्त की, जीवन-पर्यन्त ब्रह्मविहारों की भावना से अनुप्राणित होकर ब्रह्मलोकगामी हुए। . शास्ता ने धर्म-देशना के सन्दर्भ में कहा- "भिक्षुओ! न केवल वर्तमान में ही अपितु विगत में शास्ता प्रज्ञावान् तथा अन्य वादियों के सिद्धान्तों का मर्दन करने वाले ही रहे हैं। जातक का मेल बैठाते हुए उन्होंने कहा-"उस समय के पांच मिथ्यादृष्टि अमात्य पूरणकस्सप, मक्खलि गोशाल, पकुध कच्चायन, अजित केसकम्बली और निगण्ठ नातवृत्त थे। पिंगल वर्ण कुत्ता आनन्द था। महाबोधि परिव्राजक तो मैं ही था।" -जातक-अट्ठकथा, महाबोधि जातक, २२८ (हिन्दी अनुवाद), पृ० ३१२ से ३३० के आधार से। समीक्षा यह महाबोधि जातक तथा इस प्रकार के अन्य कथानक यही अभिव्यक्त करते हैं कि बौद्धों ने अपने प्रतिपक्षियों को हीन व तुच्छ प्रमाणित करने के लिए अनेक अनगढ़ कथानक रचे हैं। (३६) मयूर और काक बुद्ध के उत्पन्न होने से पूर्व तैथिकों को लाभ और यश की प्राप्ति थी, किन्तु, उनके उत्पन्न होने पर उनका लाभ और यश जाता रहा। उनकी दशा वैसी ही हो गई, सूर्योदय ____ 2010_05 Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा ] त्रिपिटकों में निगण्ठ व निगण्ठ नातपुत्त ४३३ के समय जैसी कि जुगनुओं की होती है । धर्म सभा में इस प्रसंग पर चर्चा चल पड़ी । शास्ता ने आकर पूछा- ''भिक्षुओ ! बैठे-बैठे अभी क्या बातचीत कर रहे थे ?" भिक्षुओं ने उपर्य ुक्त वार्तालाप - प्रसंग सुनाया, तो शास्ता ने फिर कहा-' - " भिक्षुओ ! न केवल अभी, पूर्व में भी जब तक गुणवान् उत्पन्न नहीं हुए थे, गुणहीनों को श्रेष्ठ लाभ और श्रेष्ठ यश मिलता रहा था। गुणवानों के अवतरित होने पर गुणहीनों का लाभ सत्कार चला जाता रहा था । "पूर्व समय में वाराणसी में ब्रह्मदत्त के राज्य-काल में बोधिसत्त्व मोर की योनि में उत्पन्न हुए थे । बड़े हुए और सुन्दरता से अलंकृत हो, जंगल में विचरने लगे । उस समय कुछ व्यापारी दिशा-काक' को साथ लेकर बावेरु राष्ट्र की ओर चले । बावेरु राष्ट्र में उन दिनों पक्षी नहीं होते थे । वहाँ के निवासी पिंजरे में आबद्ध उस कौए को देख कर अत्यन्त चकित हुए । उसकी ओर संकेत करते हुए वे परस्पर एक-दूसरे को कहने लगे “इसकी चमड़ी के वर्ण को देखो। इसकी चोंच गले तक है। इसकी आँखें मणि की गोलियों जैसी हैं । " कोए की इस प्रकार प्रशंसा करते हुए उन्होंने उन व्यापारियों से याचना की - "आर्यो ! यह पक्षी हमें दे दो। हमें इसकी आवश्यकता है । तुम्हें तो अपने राष्ट्र में अन्य भी मिल जायेंगे ।" " मूल्य चुका कर इसे ले लो ।" "पाँच कार्षापण लेकर दे दें ।" "नहीं देंगे।" मूल्य बढ़ता हुआ क्रमशः सौ कार्षापण तक पहुँच गया । आगन्तुक व्यापारियों ने कहा – “यद्यपि हमारे लिए यह बहुत उपयोगी है; फिर भी आपकी मंत्री से आकर्षित होकर हम इसे प्रदान कर रहे हैं ।" बावेरु वासियों ने सौ कार्षापण में उसे खरीद लिया। उन्होंने उसे सोने के पिंजरे में रखा । नाना प्रकार के मछली- माँस व फलाफल से उसे पाला । दूसरे पक्षियों के अभाव में वह दुर्गुणी कौआ भी वहाँ समाहत होकर श्रेष्ठलाभी हुआ । दूसरी बार वे व्यापारी एक मोर लेकर वहाँ आये । वह बहुत शिक्षित था । ज्यों ही चुटकी बजती, केका हो उठती और ज्यों ही ताली बजती, वह नाचने लगता । जनता के एकत्रित होने पर नौका की धुरा पर खड़ा हो परों को फैलाता, मधुर स्वर से केका करता और नाचने लगता । बावेरु- वासी उससे भी बहुत आकर्षित हुए। याचना करते हुए उन्होंने कहा - "आर्यो ! यह सुन्दर व सुशिक्षित पक्षी राज हमें दे दें ।" आगन्तुक व्यापारियों ने कहा – “पहले हम कौआ लेकर आये, आपने उसे ले लिया । अब जबकि हम मयूरराज लेकर आये हैं; आप लोग इसे भी लेना चाहते हैं । आपके राष्ट्र में पली लेकर आना कठिनता से भरा रहता है ।" बावेरु - वासियों ने कहा- "जो भी हो, यह पक्षी तो हमें देना होगा । आपके देश में तो दूसरा भी दुर्लभ नहीं है । यह तो हमें दे दीजिये । " मूल्य बढ़ता हुआ क्रमशः हजार कार्षापण तक पहुँच गया। बावेरु-वासियों ने वह मूल्य चुका दिया और उसे ले लिया। मोर को सात रत्नों वाले पिंजरे में रखा गया। मछली, मांस, फल, दूध, खील तथा शर्बत से उसे पाला । मोर-राज को वहाँ श्रेष्ठ लाभ और यश १. स्थल की दिशा जानने के लिए जहाजों पर रखा जाने वाला कौआ । 2010_05 Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३४ आगम और त्रिपिटक एक अनुशीलन [ खण्ड : १ मिला। जब से वह वहाँ पहुँचा, कौए का लाभ सत्कार घट गया । कोई भी व्यक्ति उस ओर देखना भी नहीं चाहता था । कौए को जब खाना मिलना बन्द हो गया, बह 'काँव-काँव' चिल्लाता हुआ अवकर पर जा गिरा। शास्ता ने दोनों कथाओं को मिलाते हुए कहा : अदस्सनेन मोरस्स सिखिनो मज्जुभाषिनो, काकं तत्थ अपुजेसं मंसेन च फलेन च ॥१॥ यदा च सरसम्पन्नो मोरो बाबेरु मागमा, अथ लाभो च सक्कारो वायसस्स अहायथ ॥२॥ यानुपज्जति बुद्धो धम्मराजा पभङ्करो, ताव अजे अपूजेसं पुथु समणब्राह्मणे || ३ || यदा च सरसम्पन्नो बुद्धो धम्मं अदेयसि, अथ लाभो च सक्कारो तित्थियान अहायथ ॥४॥ जब तक मधुर भाषी मोर से परिचित न थे, तब तक वहाँ माँस और फल से कौए का समादर हुआ । स्वर-युक्त मयूर जब बावेरु राष्ट्र पहुँचा, कोए का लाभ सत्कार न्यून हो गया। इसी तरह जब तक प्रभङ्कर धर्मराज पैदा नहीं हुए, दूसरे अनेक श्रमण-ब्राह्मणों -की पूजा हुई ; किन्तु, जब स्वर-युक्त बुद्ध ने धर्मोपदेश दिया तो तैथिकों का लाभ - सत्कार नष्ट हो गया । 2010_05 उस समय कौआ निगण्ठ नातपुत्त था और मोर-राज तो मैं ही था।" - जातक अट्ठकथा, बावेरु जातक, ३३९ ( हिन्दी अनुवाद), भा० ३, पृ० २८६ से २६१ के आधार से । समीक्षा कथा नितान्त आक्षेपात्मक और गर्दा सूचक है और परिपूर्ण साम्प्रदायिक मनोभावों से गढ़ी हुई है । यह कथा मूल त्रिपिटकों की नहीं है, इसलिए इसका अधिक महत्त्व नहीं है। मूल जातक में भी गुणी की वर्तमानता में अवगुणी की पूजा का उल्लेख है । यह उदन्त जातक अट्ठकथा का है; इसलिए भी काल्पनिक कथानक से अधिक इसका कोई महत्त्व नहीं दीख पड़ता । ३७. मांसाहार चर्चा सिंह सेनापति भगवान् बुद्ध की शरण में आया । अगले दिन के लिए भोजन का निमन्त्रण दिया । बुद्ध ने मौन रह कर उसे स्वीकार किया, सिंह सेनापति ने अन्य भोजन के साथ मांस भी बनाया । निगण्ठों ने जब यह सुना तो वे कुपित व असन्तुष्ट हुए । तथागत को व्यथित करने के अभिप्राय से उन्होंने गाली दी -- "श्रमण गौतम जान-बूझ कर अपने लिए बनाये गये मांस को खाता है।" धर्म सभा में भिक्षुओं ने गौतम बुद्ध का इस ओर ध्यान Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा] त्रिपिटकों में निगण्ठ व निगण्ठ नातपुत्त ४३५ आकर्षित किया और कहा-"निगण्ठ नातपुत्त आपको मांसाहार की गाली देता हुआ घूमता है।" बुद्ध ने उत्तर दिया-"निगण्ठ नातपुत्त न केवल वर्तमान में ही मेरी निन्दा करता है; बल्कि उसने पहले भी ऐसा ही किया है।" बुद्ध ने पूर्व-जन्म की कथा सुनाते हुए कहा-"पूर्व समय में वाराणसी में ब्रह्मदत्त के राज्य-काल में बोधिसत्त्व ब्राह्मण-कुल में उत्पन्न हुए। बड़े होने पर ऋषि-प्रव्रज्या के अनुसार प्रविजत हुए । हिमालय में वास करने लगे। एक बार नमक-खटाई खाने के अभिप्राय से वे वाराणसी आये । अगले दिन भिक्षा के लिए नगर में प्रवेश किया। एक गृहस्थ ने तपस्वी को तंग करने के उद्देश्य से उन्हें अपने घर बुलाया, बिछे आसन पर बिठाया और मत्स्य-मांस का भोजन परोसा। भोजन कर चुकने पर उस गृहस्थ ने कहा- 'यह मांस तुम्हारे ही उद्देश्य से प्राणियों का वध कर निष्पन्न किया गया था; अतः इसका पाप केवल हमें ही न लगे, अपितु तुम्हें भी लगे।' उसने गाथा कही हन्त्वा झत्वा बधित्वा च देति दानं असञतो। एविसं मत्त भुञ्जमानो स पापेन उपलिप्पति ।। मार कर, परितापित कर, वध कर असंयमी दान देता है । इस प्रकार का भोजन करने वाला पाप-भागी होता है।' उत्तर में बोधिसत्त्व ने गाथा कही पुतदारम्मि चे हत्वा देति दान असोतो। भुञ्जकानोदि सप्पो न पापेन उपलिप्पति । अन्य मांस की तो चर्चा छोड़ो। यदि कोई दुःशील अपने पुत्र व स्त्री को मार कर भी उनके मांस का दान करता है, तो प्रज्ञावान्, क्षमा-मैत्री आदि गुणों से युक्त पुरुष उसे ग्रहण कर पाप से लिप्त नहीं होता। बोधिसत्त्व धर्मोपदेश कर आसन से उठ कर चले गये। शास्ता ने जातक का मेल बैठाते हुए कहा- "उस समय गृहस्थ निगण्ठ नातपुत्त था और तपस्वी तो मैं ही था।" -जातक अट्ठकथा, तेलोवाद जातक, २४६ के आधार से समीक्षा विनय पिटक और अंगुत्तर निकाय में जहाँ सिंह सेनापति की इस घटना का उल्लेख है, वहाँ चौराहों पर मांसाहार की निन्दा करने के प्रसंग में निगण्ठ नातपुत्त का नाम न होकर केवल निगण्ठों का ही नामोल्लेख है । लगता है, अट्ठकथाकार ने जातक गाथाओं के साथ पूर्व-जन्म की घटना को जोड़ने के लिए निगण्ठ नातपुत्त की ही नगर-चर्चा का पात्र १. देखें, इसी प्रकरण का प्रथम प्रसंग। 2010_05 Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड : १ बना दिया है। अन्य अट्ठकथाओं की तरह इस अट्टकथा का भी काल्पनिक कथानक से अधिक महत्त्व नहीं लगता। ३८. चार प्रकार के लोग भिक्षुओ ! दुनियां में चार प्रकार के लोग विद्यमान हैं। कौन से चार तरह के ? भिक्षुओ, एक आदमी अपने को तपाने वाला होता है, अपने को कष्ट देने में ही लुगा हुआ ; भिक्षुओ, एक आदमी दूसरों को तपाने वाला होता है, दूसरों को कष्ट देने में ही लगा हुआ ; भिक्षुओ, एक आदमी अपने को तपाने वाला, अपने को कष्ट देने में लगा हुआ है तथा दूसरों को भी तपाने वाला, दूसरों को कष्ट देने में ही लगा हुआ होता है ; भिक्षुओ, एक आदमी न अपने को तपाने वाला, न अपने को कष्ट देने में ही लगा होता है और न दूसरों को तपाने वाला, दूसरों को कष्ट देने में ही लगा होता है। जो न अपने को अनुतप्त करने वाला होता है, न दूसरों को अनुतप्त करने वाला होता है, वह इसी शरीर में तृष्णा-विहीन होकर, निवृत्त हो कर शान्तभाव को प्राप्त होकर, सुख का अनुभव करता हुआ श्रेष्ठ जीवन व्यतीत करता है। भिक्षुओ, एक आदमी अपने को तपाने वाला, अपने को कष्ट देने में ही लगा रहने वाला कैसे होता है ? भिक्षुओ, एक आदमी नग्न होता है, शिष्टाचार-शून्य, हाथ चाटने वाला, 'भदन्त आयें' कहने पर न आने वाला, 'भदन्त खड़े रहें' कहने पर खड़ा न रहने वाला, लाया हुआ न खाने वाला, उद्देश्य से बनाया हुआ न खाने वाला और निमंत्रण भी न स्वीकार करने वाला होता है । वह न घड़े में से दिया हुआ लेता है, न ऊखल में से दिया हुआ लेता है, न किवाड़ की ओट से दिया हुआ लेता है, न मोड़े के बीच में आ जाने से दिया हुआ, न डण्डे के बीच में पड़ जाने से लेता है, न मूसल के बीच में आ जाने से लेता है। वह दो जने खाते हों, उनमें से एक उठ कर देने पर नहीं लेता है, न गमिणी का दिया लेता है, न बच्चे को दूध पिलाती हुई का दिया लेता है, न पुरुष के पास गई हुई का लेता है, न संग्रह किये हुए अन्न में से पकाया हुआ लेता है, न जहाँ कुत्ता खड़ा हो, वहाँ से लेता है, न जहाँ मक्खियां उड़ती हों, वहाँ से लेता है, वह न मछली खाता है, न मांस खाता है, न सुरा पीता है, न मेरय पीता है, न चावल का पानी पीता है। वह या तो एक ही घर में लेकर खाने वाला होता है या एक ही कौर खाने वाला, दो घर से लेकर खाने वाला होता है या दो ही कौर खाने वाला, सात घरों से लेकर खाने वाला होता या सात कौर खाने वाला। वह एक ही छोटी तश्तरी से भी गुजारा करने वाला होता है। वह दिन में एक बार भी खाने वाला होता है, दो दिन में एक बार भी खाने वाला होता है. सात दिन में एक बार भी खाने वाला होता है ; इस प्रकार वह पन्द्रह दिन में एक बार खाकर भी रहता है। वह शाक खाने वाला भी होता है, श्यामाक (धान) खाने वाला भी होता है, नीवार (धान खाने वाला भी होता है, ददल (धान) खाने वाला भी होता है, हट (शाक) खाने वाला भी होता है, कणाज (भात) खाने वाला भी होता है । वह आचाम खाने वाला होता है, खली खाने वाला भी होता है, तिनके (घास) खाने वाला भी होता है, गोबर खाने वाला भी होता है, जंगल के पेड़ों से गिरे फल-मूल को खाने वाला भी होता है। 2010_05 Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा ] त्रिपिटकों में निगण्ठ व निगण्ठ नातपुत ४३७ वह सन के कपड़े भी धारण करता है, सन- मिश्रित कपड़े भी धारण करता है, शववस्त्र (कफन ) भी पहनता है, फेंके हुए वस्त्र भी पहनता है, वृक्ष-विशेष की छाल के कपड़े भी पहनता है, अजिन (मृग ) की खाल भी पहनता है, अजिन (मृग ) की चमड़ी से बनी पट्टियों बुना वस्त्र भी पहनता है, कुश का बना वस्त्र भी पहनता है, छाल ( वाक) का वस्त्र भी पहनता है, कलक (छाल) का वस्त्र भी पहनता है, केशों से बना कम्बल भी पहनता है, पूंछ के बालों का बना कम्बल भी पहनता है, उल्लू के परों का बना वस्त्र भी पहनता है । से वह केश-दाढ़ी का लुंचन करने वाला भी होता है । वह बैठने का त्याग कर, निरन्तर खड़ा ही रहने वाला भी होता है । वह उकडूं बैठ कर प्रयत्न करने वाला भी होता है । वह काँटों की शय्या पर सोने वाला भी होता है । प्रातः मध्याह्न, सायं-दिन में तीन बार पानी में जाने वाला होता है। इस तरह वह नाना प्रकार से शरीर को पीड़ा पहुँचाता हुआ विहार करता है । भिक्षुओ, इस प्रकार एक आदमी अपने को तपाने वाला, अपने को कष्ट देने में ही लगा रहने वाला होता है । - अंगुत्तर निकाय (हिन्दी अनुवाद), भाग २, पृ० १६७ से १६६ के आधार से समीक्षा इस प्रसंग में नामग्राह निर्ग्रन्थों का उल्लेख नहीं है, पर आचार बहुत कुछ निर्ग्रन्थों का ही बताया गया है । कुछ एक आचार तो दशव यालिय से शब्दशः मिलते हैं । ' इस प्रथम भंग में निर्ग्रन्थों के अतिरिक्त आजीवक तथा पूरण कस्सप के अनुयायियों के भी कुछ नियम बताये गये हैं, ऐसा प्रतीत होता है । "न वह मांस खाता है, न वह मछली खाता है, न वह सुरा पोता है, न वह मेरय पीता है" - यह आचार मी निर्ग्रन्थ- आचार के संलग्न ही बताया गया है। जैन साधुओं के मांसाहार के विपक्ष में यह एक अच्छा प्रमाण बन सकता है । १. दुण्हं तु मुञ्ञमाणाणं एगो तत्थ निमंतए । दिज्जमाणं न इच्छिज्जा, छंद से पडिलेहए ॥ गुब्विणीए उवण्णत्थं, विविह पाणभोअणं । भुंजमाणं विविज्जिज्जा, भुत्तसेसं पडिच्छए । सिआय समणट्ठाए गुब्विणी कालमासिणी । उआ वा निसीइज्जा, निसन्ना वा पुणट्टए ॥ तं भवे भत्तपाणं तु, संजयाण अकप्पियं । दिति पडिआइक्खे, न मे कप्पइ तारिसं ॥ थणगं पिज्जमाणी, दारगं व कुमारिअं । तं निक्खिवित्तु रोवंतं, आहरे पाणमोयणं ॥ तं भवे भत्तपाणं तु •• तारिसं ॥ 2010_05 - दशवेकालिक सूत्र, ५।१।३७-४३| Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड : १ ३६. निम्रन्थों के पांच दोष भिक्षुओ, जिस आजीवक में ये पाँच बातें होती हैं, वह ऐसा ही होता है, जैसा लाकर नरक में डाल दिया गया हो। कौन-सी पाँच बातें? प्राणी-हिंसा करने वाला होता है, चोरी करने वाला होता है, अब्रह्मचारी होता है, झूठ बोलने वाला होता है, सुरा-मेरय आदि नशीली चीजों का सेवन करने वाला होता है। भिक्षुओ, जिस आजीवक में ये पाँच बातें होती हैं, वह ऐसा ही होता है, जैसा लाकर नरक में डाल दिया गया हो। भिक्षुओ, जिस निगण्ठ (=निम्रन्थ) में...जिस वृद्ध-श्रावक में.. जिस जटिलक में.. जिस परिव्राजक में जिस मागन्दिक में...जिस दण्डिक में जिस आरुद्धक में...जिस गोतमक में.. जिस देव धम्मिक में ये पांच बातें होती हैं, वह ऐसा ही होता है, जैसा लाकर नरक में डाल दिया गया हो। कौन-सी पाँच बातें? वह प्राणी हिंसा करने वाला..'नरक में डाल दिया गया हो। -अंगुत्तर निकाय, ५-२८-८-१७ (हिन्दी अनुवाद), भाग २, पृ० ४५२ के आधार से। समीक्षा यह उल्लेख 'उपसम्पदा वर्ग' का है। इसमें आजीवक, जटिलक, परिव्राजक आदि के लिए भी ये ही पाँच बातें कही गई हैं। ४०. वस्त्रधारी निर्ग्रन्थ श्रावस्ती की घटना है। कुछ बौद्ध-भिक्षुओं ने निगण्ठों को जाते देखकर परस्पर बातें की-"भिक्षुओ, ये निगण्ठ उन अचेलक भिक्षुओं से तो अच्छे ही हैं, जो थोड़ा भी वस्त्र नहीं रखते। ये बेचारे कम-से-कम अपने अग्रभाग को तो आच्छादित रखते हैं। लगता है, इन श्रमणों में तो सभ्यता और लोक-व्यवहार का कुछ ध्यान है।" बौद्ध भिक्षुओं की इस चर्चा को सुन कर निगण्ठ श्रमणों ने कहा-'हम लोक-व्यवहार और सभ्यता के लिए वस्त्र नहीं रखते । धूल और गन्दगी भी जीव हैं । हमारे भिक्षा-पात्र में पड़ कर उनकी हिंसा न हो; इसलिए हम वस्त्र पहनते हैं।" बौद्ध और निगण्ठ, दोनों भिक्षुओं में लम्बी चर्चा चली। तत्पश्चात् बौद्ध भिक्षु जेतवन में भगवान् बुद्ध के पास आये । बुद्ध को अपना चर्चा-प्रसंग बताया। तब बुद्ध ने ये गाथाएँ कहीं: अलज्जिता ये लज्जन्ति लज्जिता ये न लज्जरे । 'मिच्छादिट्ठिसमादाना सत्ता गच्छन्ति दुग्गति ।। अभये च भयदस्सिनो भये च अभयवस्सिमो। मिच्छादिद्विसमादाना सत्ता गच्छन्ति दुग्गति ॥ ___ 2010_05 Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा] त्रिपिटकों में निगण्ठ व निगण्ठ नातपुत्त लज्जा न करने की बात में जो लज्जित होते हैं और लज्जा करने की बात में लज्जित नहीं होते हैं ; वे प्राणी मिथ्या-दृष्टि को ग्रहण करने से दुर्गति को प्राप्त होते हैं। भय न करने की बात में भय देखते और भय करने की बात में भय नहीं देखते; वे प्राणी मिथ्या-दृष्टि को ग्रहण करने से दुर्गति को प्राप्त होते है। __ --धम्मपद-अट्ठकथा, २२-८ के आधार से । समीक्षा इस घटना-प्रसंग में निगण्ठों के वस्त्र धारण की चर्चा है, पर, यह स्पष्ट नहीं होता कि किस प्रकार का वस्त्र वे धारण करते थे और उसका क्या प्रयोजन था? पर, इससे इतना तो स्पष्ट होता ही है कि बौद्ध-परम्परा को सचेलक और अचेलक; दोनों ही प्रकार के निगण्ठों का परिचय है। ४१. मोग्गलान का वध एक समय तैथिक लोग एकत्रित हो सलाह करने लगे-'जानते हो, आवुसो ! किस कारण से, किसलिए, श्रमण गौतम का बहुत लाभ-सत्कार हो गया है ?'... 'एक महा-मौद्गल्यायन के कारण हुआ है। वह देवलोक भी जाकर देवताओं के काम को पूछ कर, आकर मनुष्यों को कहता है। नरक में उत्पन्न हुओं के भी कर्म को पूछ कर आकर, मनुष्यों को कहता है। मनुष्य उसकी बात को सुनकर बड़ा लाभ-सत्कार प्रदान करते हैं। यदि उसे मार सकें, तो वह लाभ-सत्कार हमें होने लगेगा...।' तब (उन्होंने अपने सेवकों को कह कर एक हजार कार्षापण पाकर, मनुष्य मारने वाले गुण्डों को बुलवा कर-'महामौद्गल्यायन स्थविर काल-शिला में वास करता है, वहाँ जाकर उसे मारो' (कह) उन्हें कार्षापण दे दिये। गुंडों (=चोरों) ने धन के लोभ से उसे स्वीकार कर लिया स्थविर को मारने के लिए वे गये और उन्होंने उनके वास-स्थान को घेर लिया। स्थविर उनके घेरने की बात को जान गये । वे कुंजी के छिद्र से (बाहर) निकल गये। उन्होंने स्थविर को न देख, फिर दूसरे दिन जाकर घेरा। स्थविर जान कर छत फोड़ कर आकाश में चले गये । इस प्रकार वह न प्रथम मास में, न दूसरे मास में ही स्थविर को पकड़ सके । अन्तिम मास प्राप्त होने पर, स्थविर अपने किये कर्म का परिणाम जान कर स्थान से नहीं हटे। घातकों ने जानकर स्थविर को पकड़ कर उनकी हड्डी को तंडुल-कण जैसा करके मार डाला। तब उन्हें मरा जान कर एक झाड़ी के पीछे डाल कर चले गए। स्थविर ने 'शास्ता को देखकर ही मारूँगा' (सोच), शरीर को ध्यान रूपी वेष्टन से वेष्टित कर, स्थिर कर, आकाश-मार्ग से शास्ता के पास जा, शास्ता को वन्दना कर "भन्ते ! परिनिर्वृत होऊँगा'-कहा। "परिनिर्वृत होओगे, मौग्गलान !" "भन्ते ! हाँ।" "कहाँ जाकर ?" "भन्ते ! काल-शिला-प्रदेश में।" (मोग्गलान).. शास्ता को वंदना कर काल-शिला जा परिनिर्वृत हुए।... 2010_05 Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड : १ स्थविर के परिनिर्वत होने का समाचार जब राजा अजातशत्र को मिला, तब उसने चर-पुरुषों को नियुक्त करके पांच सौ चोरों तथा नगर के सब तैथिकों को पकड़वा मँगाया और उन्हें नाभी भर गहरे गड्ढों में गड़वा कर जीवित ही जलवा दिया। -धम्मपद-अट्ठकथा, १०१७ के आधार से। समीक्षा यहाँ वृत्तान्त दो स्थानों में उपलब्ध होता है--- जातक अटकथा और घम्मपद-अट्ठकथा। जातक अट्ठकथा में मौग्गल्यायन के वध-प्रसंग में निगण्ठों का उल्लेख है और धम्मपद-अट्ठकथा में ताथकों का । यथार्थ दोनों ही नहीं लगते । निगण्ठों व तैथिकों को गहित करने का ही सारा उपक्रम लगता है। डॉ० मललशेकर ने Dictionary of Pali Proper Names' में तथा एच० जी० ए० वान भैयट ने Encyclopaedia of Buddhism२ में लिखा है-"अजातशत्रु ने ५०० निगण्ठों का वध करवाया; इसलिए ही निगण्ठों का अभिप्राय अजातशत्रु के प्रति अच्छा नहीं रहा।" यह लिखना यथार्थ नहीं है। वस्तुस्थिति तो यह है कि बौद्ध-परम्परा अजातशत्रु की बहुत स्थलों पर उपेक्षा करती है। जबकि जैन-परम्परा मुख्यतया उसे सम्मानित स्थान देती है। अजातशत्रु निगण्ठों का वध कराये, यह जरा भी सम्भव नहीं लगता। ४२. मिलिन्द प्रश्न जम्बूद्वीप के सागल नगर में मिलिन्द राजा हुआ। वह पण्डित, चतुर, बुद्धिमान और योग्य था । भूत, भविष्य और वर्तमान सभी योग-विधान में वह सावधान रहता था। उन्नीस विद्याओं में पारंगत था। शास्त्रार्थ करने में अद्वितीय और श्रेष्ठ था। वह सभी तीर्थंकरों (आचार्यों) में श्रेष्ठ समझा जाता था। राजा मिलिन्द के समान प्रज्ञा, बल, वेग, वीरता, धन और भोग में जम्बूद्वीप में दूसरा कोई नहीं था। वह महासम्पत्तिशाली और उन्नतिशील था। उसकी सेनाओं और वाहनों का अन्त नहीं था। राजा मिलिन्द एक दिन चतुरंगिनी अनन्त सेना को देखने के अभिप्राय से नगर के बाहर आया। सेनाओं की गणना करने के अनन्तर वाद-प्रिय राजा ने शास्त्रार्थ करने के अभिप्राय से उत्सुकतापूर्वक आकाश की ओर देखा और अपने अमात्यों को सम्बोधित किया १. Vol I, p.35 २. P. 320. ३. विशेष वर्णन देखें; 'अनुयायी राजा' प्रकरण के अन्तर्गत 'अजातशत्रु (पृ० ३३३ ४. इन्दोग्नीक सम्राट मिनान्दर (Minander) ही राजा मिलिन्द था, जिसकी राजधानी सागल (वर्तमान-स्यालकोट) थी; ऐसा विद्वानों का अभिमत है। देखें; मिलिन्द प्रश्न (हिन्दी अनुवाद), पृ० ४। 2010_05 | Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा] त्रिपिटकों में निगण्ठ व निगण्ठ नातापुत्त ४४१ "अभी बहुत समय अवशिष्ट है। क्या यहाँ नगर में कोई ऐसा पण्डित सम्यक्-सम्बुद्ध के सिद्धान्तों का ज्ञाता, श्रमण-ब्राह्मण या गणाचार्य है, जिसके साथ वार्तालाप करूँ, जो मेरी शंकाओं का समाधान कर सके।" पांच सौ यवनों ने राजा से निवेदन किया-"महाराज ! ऐसे छः पण्डित हैं; १. पूरण कस्सप, २. मक्खलि गोशाल, ३. निगण्ठ नातपुत्त, ४. संजय वेलट्ठिपुत्र, ५. अजित केस-कम्बली और ६. पकुध कच्चायन । वे संघ-नायक, गण-नायक, गणाचार्य, प्राज्ञ और तीर्थंकर हैं। जनता में उनका बड़ा सम्मान है। महाराज ! आप उनके पास जायें और अपनी शंकाओं को दूर करें। ...वे भिक्षु के तुमती विमान में महासेन देवपुत्र के रूप में उत्पन्न हुए। राजा मिलिन्द के प्रश्नों को समाहित करने के लिए संघ द्वारा विशेष प्रार्थना किये जाने पर वे हिमालय के पास ब्राह्मणों के काजंगल ग्राम में सोनुत्तर ब्राह्मण के घर अवतरित हुए। उनका नाम नागसेन रखा गया। आगे चलकर यही आचार्य नागसेन हुए, जिन्होंने राजा मिलिन्द के प्रश्नों को समाहित किया। - मिलिन्द प्रश्न (हिन्दी-अनुवाद), अनु० भिक्षु जगदीश काश्यप, पृ० ४.६ के आधार से। समीक्षा राजा मिलिन्द बुद्ध-निर्वाण के ५०० वर्ष पश्चात् हुआ, ऐसा बताया गया है। यहाँ भी बुद्ध के अतिरिक्त छहों धर्मनायकों के नाम गिनाये गये हैं। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि बौद्ध-साहित्य में ऐसी एक प्रथा ही रही है कि निगण्ठ, आजीविक प्रभूति भिक्षुओं के सम्बन्ध से भी कुछ कहना हो, तो उनके प्रवर्तक निगण्ठ नातपुत्त, मक्खलि गोशाल के नाम से ही कह दिया जाये। निगण्ठ नातपुत्त की वर्तमानता में भी जहाँ-तहाँ उनका नाम आया है, अनेक स्थलों पर घटना का सम्बन्ध निगण्ठ भिक्षुओं से ही हो सकता है । इसी घटना-प्रसंग पर भिक्षु जगदीश काश्यप का कहना है-"मालूम होता है कि इन (छहों तीर्थंकरों) की अपनी-अपनी गद्दियाँ इन्हीं नामों से चलती होंगी, जैसे—मारतवर्ष में 'शंकराचार्य' की गद्दी अभी तक बनी है। किन्तु इन गद्दियों का कब आरम्भ हुआ और कब अन्त; इसका पता नहीं।" शंकराचार्य की तरह एक ही नाम से इन सब की गद्दियाँ चलती हों, इसका तो कोई आधार नहीं है, पर, उन मतों के सम्बन्ध में यह एक कहने की पद्धति (Stock Phrase) रही है, ऐसा अवश्य बैंगता है। ४३. लंका में निर्ग्रन्थ राजा पाण्डुकामय का राज्याभिषेक हुआ। उसने सुवर्णपाली को अग्रमहिषी के पद पर व चन्द्रकुमार को पुरोहित के पद पर अभिषिक्त किया।...... राजा ने पाँच सौ चण्डाल १. मिलिन्द प्रश्न (हिन्दी-अनुवाद), अनु० भिक्षु जगदीश काश्यप, पृ० ४ । २. वही बोधिनी, पृ०६। 2010_05 Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४२ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [ खण्ड : १ नगर की सफाई के लिए, दो सौ चण्डाल नालियों की सफाई के लिए, डेढ़ सौ चण्डाल मुर्दे उठाने के लिए और डेढ़ सौ ही श्मशान में प्रातिहारिक के रूप में नियुक्त किये। श्मशान की पश्चिमोत्तर दिशा में चण्डालों का ग्राम बसाया गया । चण्डाल- ग्राम की पूर्वोत्तर दिशा में चण्डालों के लिए एक नीचा श्मशान बनाया गया । श्मशान के उत्तर और पाषाण-पर्वत के बीच शिकारियों के लिए घरों की कतार बनवाई। उसके उत्तर में ग्रामणी वापी तक अनेक तपस्वियों के लिए आश्रम बनवाये । उसी श्मशान के पूर्व में राजा ने जोतिय निगण्ठ के लिए घर बनवाया । उसी स्थान पर गिरि नामक निगष्ठ तथा अन्य भी अनेक मतों के बहुत सारे श्रमण रहते थे । वहीं राजा ने कुम्भण्ड निगण्ठ के लिए एक देवालय बनाया, जो उसके नाम से ही विश्रुत हुआ । 1 देवालय के पश्चिम में तथा शिकारियों के घरों से पूर्व की ओर पाँच सौ अन्य मतावलम्बी' परिवार बसते थे । जोतिय के घर से उस ओर और ग्रामणी वापी से इस ओर परिव्राजकों के लिए एक आश्रम बनवाया । आजीविकों के लिए घर, ब्राह्मणों के लिए निवासस्थान, यत्र-तत्र प्रसूतिका गृह और रोगी - गृह भी बनवाये । - महावंश, परिच्छेद १०, श्लो० ७७-७६ व ६१ से १०२ के आधार से । समीक्षा इस समुल्लेख से यह झलक मिलती है कि निर्ग्रन्थ-धर्म समुद्रों पार विदेशों में भी गया था । पाण्डुका भय ( ई० पू० ३७०-३०० ) राजा सम्राट् अशोक से भी लगभग १०० वर्ष पूर्व होता है । महेन्द्र और संघमित्रा से बहुत पूर्व की यह घटना है । जैन साहित्य में इन निगण्ठों की कोई चर्चा नहीं हैं । उक्त घटना-प्रसंग से यह भी स्पष्ट नहीं होता है कि ये निगण्ठ गृही थे या भिक्षुक । जोतिय निगण्ठ को महावंश टीका में 'नगर वर्धकी' कहा गया है । ४४. वैशाली में महामारी उस समय हिमालय की उपत्यका में एक कुण्डला नामक यक्षिणी रहती थी । उसके सहस्र पुत्र थे । कुण्डला मर गई । सहस्र यक्ष मनुष्यों के बल का अपहरण करते और महामारी फैलाते । वे दो प्रकार की महामारी फैलाते - एक मण्डलक और एक अधिवास । मण्डलक परिवार के लोगों में फैलती और अधिवास प्रदेश भर के लोगों में। एक बार ये सहस्र यक्ष वैशाली आये । मनुष्यों के बल का अपहरण किया । अधिवास महामारी फैली । उत्तरोत्तर लोग मरने लगे । एक-एक कर अनेक देवताओं की लोगों ने आराधना की, पर, रोग शान्त नहीं हुआ । तब लोगों ने एक-एक कर क्रमशः काश्यप पूरण, मस्करी गोशालिपुत्र, ककुद कात्यायन, अजित केस कम्बली सञ्जयिन् वेरट्टिपुत्र और निर्ग्रन्थ ज्ञातिपुत्र को बुलाया । तब भी रोग १. मिथ्या दृष्टि वाले । 2010_05 Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा ] त्रिपिटकों में निगण्ठ व निगण्ठ नातापुत्त ४४३ शान्त नहीं हुआ । महामारी में जो लोग मरे थे, उनमें से कुछ देवगति में उत्पन्न हुए । उन्होंने आ कर वैशाली - वासियों से कहा--" अनेक कल्पों के पश्चात् लोक में बुद्ध उत्पन्न हुए हैं । वे जहाँ रहते हैं, वहाँ महामारी आदि रोग उत्पन्न नहीं होते ।" तब तोमर लिच्छवी राजगृह से बुद्ध को लेकर आया । उनके प्रवेश मात्र से महामारी रोग शान्त हुआ । सहस्र यक्ष पराभूत हो वंशाली छोड़ गये । — Mahavastu, Tr. by J. J. Jones, vol I. pp. 208 to 209 के आधार से । समीक्षा कथा सारी की सारी बुद्ध की श्लाघा में गढ़ी गई है । जहाँ बुद्ध रहते हैं, वहाँ महामारी आदि रोग नहीं होते; इस विषय में जैन परम्परा की मान्यता है - "जहाँ जिन रहते हैं, वहाँ चारों दिशाओं में पच्चीस-पच्चीस योजना तथा ऊर्ध्व और अधो दिशा में साढ़े बारह योजना तक इति, महामारी, स्वचक्रभय, परचक्रभय, अतिवृष्टि, अनावृष्टि, दुर्भिक्ष, उपपात आदि नहीं होते ।” ४५. नमो बुद्धस्स, नमो अरहन्तानं राजगृह में एक सम्यग् - दृष्टि बालक और एक मिथ्या दृष्टि बालक रहता था । जब वे गुल्ली-डण्डा खेलते, तो सम्यग्दृष्टि बालक कहता- 'नमो बुद्धस्स और मिथ्या-दृष्टि बालक कहता – नमो अरहन्तानं । जीत सदा सम्यग् - दृष्टि बालक की होती । मिथ्या दृष्टि बालक के मन में भी बुद्ध के प्रति श्रद्धा जगी और वह भी नमो बुद्धस्स कहने लगा । एक दिन वह अपने पिता के साथ काष्ठ की भरी गाड़ी लेकर जंगल से आ रहा था । मार्ग में श्मशान के पास उन दोनों ने विश्राम किया। बैलों को भी गाड़ी से खोल दिया । खुले बैल नगर में चले गये । कुछ समय पश्चात् पिता भी बैलों को खोजते खोजते नगर में चला गया । वह बैलों को लेकर वापस लौटने लगा, तो नगर-द्वार बन्द मिला । श्मशान में लड़का अकेला ही रात भर रहा। रात को दो भूत आये । एक सम्यग् - दृष्टि था, एक मिथ्या-दृष्टि | मिथ्या दृष्टि भूत ने बालक को कष्ट देना चाहा, पर, बालक के मुँह से निकला - 'नमो बुद्धस्स भूत भयभीत हो कर दूर हट गया। दोनों भूतों के मन में बालक के प्रति प्यार उत्पन्न हुआ । राजा बिम्बिसार के राजप्रासाद से वे स्वर्ण थाल और पकवान लाये । बालक के माता-पिता का ही रूप बना कर उन्होंने उसे भोजन कराया । स्वर्ण थाल को उन्होंने वहीं बैलगाड़ी में छोड़ दिया । प्रातः राजा के आरक्षक स्वर्ण थाल के चोर की खोज में निकले । लड़के को पकड़ कर राजा के पास लाये और कहा - " राजन् ! यही स्वर्ण थाल का चोर है ।" लड़के ने सहज रूप से जो उसे अवगत था, कहा । लड़के के मूल माता-पिता भी वहाँ पहुँच गये । वस्तुस्थिति सबकी समझ में आ गई । १. समवायांग सूत्र, समवाय ३४ । 2010_05 Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड : राजा बालक को ले कर बुद्ध के पास आया और बोला- “भन्ते ! बुद्धानुस्मृति से ही इस बालक की रक्षा हुई है ।" - धम्मपद अट्ठकथा, २१-५ के आधार से । ४४४ समीक्षा नमो बुद्धस्स और नमो अरहन्तानं का शब्द प्रयोग तुलनात्मक अध्ययन के लिए बहुत ही रोचक हो जाता है । दोनों परम्पराओं का वन्दन सूक्त बहुत ही समान शैली से प्रसूत हुआ है | 'सम्यग्दृष्टि' और 'मिथ्या दृष्टि' के शब्द प्रयोग भी दोनों परम्पराओं की समान धारणाओं के सूचक हैं । जैन परम्परा भी उक्त अभिप्राय में 'सम्यग् दृष्टि' और 'मिथ्या दृष्टि' का प्रयोग करती है । प्रस्तुत घटना-प्रसंग का शेष महत्त्व एक दन्तकथा के रूप में ही रह जाता है । ४६. निर्ग्रन्थों को दान राजगृह में एक ब्राह्मण रहता था । वह सारिपुत्त का मामा था । सारिपुत्त स्थविर ने एक बार अपने मामा से पूछा - "विप्रवर ! कोई पुण्य कर्म करते हो ?" “भन्ते ! ब्रह्मलोक जाने के लिए प्रति मास एक सहस्र मुद्राएं व्यय कर निर्ग्रन्थों को दान देता हूँ ।' सारिपुत्र ब्राह्मण को साथ लेकर बुद्ध के पास आये । ब्राह्मण से कहा - "ब्रह्मलोक जाने का मार्ग बुद्ध से पूछो।” ब्राह्मण ने वैसा ही किया । भगवान् ने कहा - "इस प्रकार के सौ वर्ष तक दिये गये दान से भी मेरे भिक्षुओं को मुहूर्तमात्र प्रसन्न चित्त से देखना या उन्हें कुड़छी भर मिक्षा देना श्रेष्ठ है। - धम्मपद अट्ठकथा, ८-५ के आधार से । समीक्षा धम्मपद - अट्ठकथा के रचयिता ने धम्मपद की प्रत्येक गाथा पर कोई एक कथा लिख देना आवश्यक ही समझा है, ऐसा लगता है। बहुत सम्भव है, इस हेतु उन्हें बहुत सारी कथाएं अपनी ओर से ही गढ़ देनी पड़ी हों । निर्ग्रन्थ अपने लिए पकाया व अपने लिए खरीदा अन्न, वस्त्र आदि ग्रहण नहीं करते। इस स्थिति में यह कथा वस्तु संदिग्ध ही रह जाती है । १. मासे मासे सहस्सेन यो यजेथ सतं समं । एकञ्च भावितत्तानं मुहुत्तमपि पूजये । सा देव पूजना सेय्यो यं चे पस्ससतं हुतं ।। 2010_05 - धम्मपद, १०६ Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा] त्रिपिटकों में निगण्ठ व निगण्ठ नातपुत्त सारिपुत्त के मामा को यहाँ निर्ग्रन्थ-उपासक माना गया है । बुद्ध के चाचा निर्ग्रन्थउपासक थे ही। इससे इतना तो प्रतीत होता ही है कि निर्ग्रन्थ-धर्म और बौद्ध-धर्म अनेक परिवारों में घुले-मिले ही चलते थे। लगता है, दोनों परम्पराओं की दान-विषयक धारणा बहुत कुछ समान रही है। अपने-अपने भिक्षुओं को दिया गया दान ही दोनों परम्पराओं में पात्र-दान माना गया है । फिर भी निर्ग्रन्थों को देने से ब्रह्मलोक ही मिले, ऐसा कोई विशेष उल्लेख निर्ग्रन्थ-परम्परा में नहीं मिलता। ४७. नालक परिव्राजक असित ऋषि ने नालक परिव्राजक से कहा-"लोक में बुद्ध उत्पन्न हुए हैं। जिज्ञासाओं के समाधान के लिए तुम वाराणसी चले जाओ।" वह वहाँ गया। वहाँ उसने एक-एक कर काश्यपपूरण यावत् निर्ग्रन्थ ज्ञातिपुत्त से तत्त्व-चर्चा की। किसी से उसे सन्तोष नहीं हुआ। अन्त में बुद्ध के पास गया और अपनी जिज्ञासा का समाधान पा कर सन्तुष्ट हुआ। -Mahavastu, Tr. by J. J. Jones, vol III, p. 379-388 के आधार से । समीक्षा यह प्रसंग महायान-परम्परा का है। हीनयान-परम्परा में भी नालक सुत्त' में यही कथा-प्रसंग उपलब्ध होता है, पर, वहाँ बुद्ध के अतिरिक्त अन्य धर्म-नायकों का उल्लेख नहीं ४८. जिन-श्रावकों के साथ एक बार बुद्ध श्रावस्ती में विहार कर रहे थे। भिक्षुओं को आमंत्रित कर बोले"भिक्षुओ ! मैं प्रवजित हो, वैशाली गया। वहाँ अपने तीन सौ शिष्यों के साथ आराड़-कालाम रहते थे। मैं उनके पास गया। वे अपने जिन-श्रावकों को कहते- 'त्याग करो, त्याग करो।' जिन श्रावक कहते—'हम त्याग करते हैं हम त्याग करते हैं।' "मैंने आराड़-कालाम से कहा- 'मैं भी आपका शिष्य होना चाहता हूँ।' उन्होंने कहा-'जैसे तुम चाहते हो, वैसा करो।' मैं शिष्य रूप में वहाँ रहने लगा। जो उन्होंने सिखाया, वह मैंने सीखा । मेरी मेधा से वे प्रभावित हुए। उन्होंने कहा- 'जो मैं जानता हूँ वही यह गौतम जानता है । अच्छा हो, गौतम ! हम दोनों मिल कर संघ का संचालन करें।' इस तरह कह उन्होंने मुझे सम्मानित पद दिया। "मुझे लगा-'इतना-सा ज्ञान पाप-नाश के लिए पर्याप्त नहीं है। मुझे और गवेषणा करनी चाहिए।' यह सोच मैं राजगृह आया। वहाँ अपने सात सौ शिष्यों के परिवार से उद्रक १. सुत्तनिपात, ३७ । 2010_05 Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड : १ रामपुत्र रहते थे। वे भी अपने जिन श्रावकों को वैसा ही कहते थे । मैं उनका भी शिष्य बना। उनसे भी मैंने बहुत कुछ सीखा। उन्होंने भी मुझे सम्मानित पद दिया। पर, मुझे लगा-'इतना ज्ञान भी पाप-क्षय के लिए पर्याप्त नहीं है। मुझे और अन्वेषण करना चाहिए।' यह सोच मैं वहाँ से भी चल पड़ा।" -Mahavastu Tr. by j. j. jones vol, II, p p. 114-117 के आधार से। समीक्षा यहाँ 'जिन-श्रावक' शब्द का प्रयोग आराड़ कालाम, उद्रक रामपुत्र व उनके अनुयायियों का निगण्ठ धर्मी होना सूचित करता है। यह प्रकरण महावस्तु ग्रन्थ का है, जो महायान का प्रमुख ग्रन्थ है । महायान के त्रिपिटक पालि में न होकर संस्कृत में हैं। पालि त्रिपिटकों में जिस अभिप्राय में 'निगण्ठ' शब्द आता है, उसी अर्थ में यहाँ 'जिन-श्रावक शब्द आया है।' इस प्रसंग से यह तो विशेष रूप से स्पष्ट होता ही है कि बुद्ध ने 'जिन-श्रावकों के साथ रह कर बहुत कुछ सीखा व पाया। ४६. भद्रा कुण्डलकेशा भद्रा कुण्डलकेशा राजगृह के एक श्रीमन्त की कन्या थी। उसका पिता राजकीय कोषाध्यक्ष था। भद्रा सुरूप व गुणवती थी। एक दिन प्रासाद में बैठे उसने देखा, आरक्षक एक सुन्दर तरुण को बन्दी बनाये वध-स्थान की ओर ले जा रहे हैं। भद्रा उस तरुण के लावण्य पर मुग्ध हई। उसने हठ पकड़ा-“मेरा विवाह इसी तरुण के साथ हो।' माता पिता ने बहुत समझायाः पर, वह नहीं मानी। उसके पिता ने आरक्षकों को धन देकर प्रच्छन्न रूप से उस वध्य को बचा लिया। वह राजगृह के राज पुरोहित का पुत्र था। उसका जन्म भी उसी दिन हुआ, जिस दिन भद्रा का हुआ था। वह चोर नक्षत्र में जन्मा था, इसलिए उसका नाम सत्थुक था। चोरी के अपराध में ही उसे प्राण-दण्ड मिला था। दोनों का विवाह हो गया। कुछ दिन ही गृह-जीवन सुख से चला। सत्थुक के मन में फिर चोरी करने की आने लगी। एक दिन उसने भद्रा से कहा- मैंने प्राण-दण्ड के समय देवार्चा की मनौती की थी। बहुत दिन हुए, अब उसे पूरी करना है। सुन्दर वस्त्र आभूषण पहन तुम मेरे साथ चलो। हम पर्वत पर चलेंगे।" भद्रा ने वैसा ही किया। पर्वत पर पहुँच कर सत्थुक ने भद्रा से कहा"सब आभूषण खोल दो और मरने के लिए-तैयार हो जाओ। मैं जन्म-जात चोर हूँ। तुम निरी मूर्ख हो, जो मेरे साथ लगी।" भद्रा सहम गई। उसने कहा-"प्राणेश! मेरा अब कोई सहारा नहीं है । तुम सुझे मारोगे और आभूषण लोगे । तुम्हारे से अन्तिम विदा लेती हुई मैं एक बात चाहती हूँ; पूरी करोगे? मैं सर्वांग आलिंगन चाहती हूँ। फिर मुझे मरना भी सुखकर होगा।"सत्थुक इसके लिए सहमत हुआ। भद्रा ने पीठ की ओर से आलिंगन करते, उसे ऐसा धक्का दे मारा कि पर्वत शिखर से लुढ़कते वह बहुत ही गहरे गर्त में जा गिरा। १. Cf. Mahavastu, Tr. By J.J. Jones, vol. II, pp. 114n, ____ 2010_05 Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा] त्रिपिटकों में निगण्ठ व निगण्ठ नातपुत्त भद्रा ने सोचा-."अब मैं नगर में अपने माता-पिता को कैसे मुंह दिखाऊँगी ? मैंने सब के रोकते-रोकते सत्थुक के साथ विवाह किया और उसका परिणाम यह निकला ।"वह पर्वत से नीचे उतर कर एक श्वेत वस्त्र धारी निगण्ठों के संघ में प्रव्रजित हो गई। वहाँ उसका लुंचन हुआ । लुचन के पश्चात् उसके मस्तक पर कुण्डलाकार केश आये; अतः उसका नाम भद्रा कुण्डल केशा पड़ा। उसने शास्त्राभ्यास किया । तर्क-वितर्क में कुशल हुई । निगण्ठ धर्म से असन्तुष्ट हो कर स्वतंत्र विहार करने लगी। प्रत्येक गाँव में वह पण्डितों को शास्त्रार्थ के लिए चुनौती देती। चुनौती का उसका प्रकार था नाम के बाहर धूलि जमा कर जामुन की शाखा रोप देती। लोगों से कहती-"जो इसे बालकों से रौंदवा देगा, वह मुझ से शास्त्रार्थ करेगा।" उसने अनेक विद्वानों को पराजित किया। एक बार थावस्ती में अग्रश्रावक सारिपुत्त से उसका शास्त्रार्थ हुआ। सारिपुत्त से उसने अनेक प्रश्न पूछे। सारिपुत ने उनका यथार्थ उत्तर दिया। अन्त में सारिपुत्त ने उससे एक प्रश्न किया - "एक सत्य क्या है, जो सब के लिए मान्य हो ?"भद्रा उतर नहीं दे सकी। श्रद्धापूर्वक उसने कहा-"भन्ते ! मैं आपकी शरण हूँ।' सारिपुत्त ने कहा - "शास्ता की शरण लो, तुम्हें शान्ति मिलेगी।" __वह बुद्ध के पास गई। बुद्ध ने उसे कहा-"अनर्थ पदों से युक्त सौ गाथाएँ कहने की अपेक्षा धर्म का एक पद भी कहना श्रेष्ठ है, जिसे सुन कर उपशम होता है।" यह सुनकर शास्ता ने उसे प्रवजित किया। भद्रा अर्हत् हुई।' -धम्मपद अट्ठकथा, ८/३ थेरीगाथा अटकथा, पृ० ६६ के आधार से । शास्ता के उपदेशों का विस्तार करती वह मगध, कोसल, काशी, वज्जी, अंग आदि देशों में विहार करती रही। 'बुद्ध ने उसे प्रखर प्रतिभा में अग्रगण्या कहा ।२ समीक्षा प्रसंग बहुत ही सरस व घटनात्मक है । बुद्ध की प्रमुख शिष्या का पहले निगण्ठ-संघ में दीक्षित होना, एक विशेष बात है। केश-लुंचन व श्वेत वस्त्रधारी निगण्ठों का उल्लेख ऐतिहासिक महत्त्व का है। 50. ज्योतिविद् निगण्ठ . गंगा नदी के किनारे एक ब्रह्मचारी निगण्ठ रहता था। उसके ५०० अनुयायी थे। वह ज्योतिर्मण्डल का ज्ञाता था । वह ग्रहों और नक्षत्रों के उदयास्त देखकर भविष्य बताता एक दिन गंगा नदी के किनारे अपने अनयायिओं के साथ वह भाग्य-सम्बन्धी चर्चा कर रहा था। उस चर्चा-प्रसंग में प्रश्न उठा--"भाग्य कहते किसे हैं ?" उन्हें परस्पर के संलाप से कोई सन्तोषजनक समाधान नहीं मिला, तब वे सब बोधि-वृक्ष के पास आये और उन्होंने तथागत से यह प्रश्न पूछा । तथागत को कुछ ही समय पूर्व यहाँ बोधि-लाभ हुआ था। शास्ता ने संयम, १. थेरी गाथा, १०७-११ । २. अंगुत्तर निकाय, एकक्कनिपात, १४ । ____ 2010_05 Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४८ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड : १ साधना आदि गुणों का कथन किया और कहा-इन्हें जो धारण किये रहता है, वह भाग्यशाली है। शास्ता के इस उत्तर से सब प्रभावित हुए और शास्ता के पास प्रवृजित हुए। --चीनी धम्मपद कथा के आधार पर; S. Beal, Dhammapada. (Tr. from Chinese) pp. 103-4 Susil Gupta (India) Ltd, Calcutta, 1952. समीक्षा जैन कथा-साहित्य में इस प्रकार के घटना-प्रसंग का कोई उल्लेख नहीं है। यह घटना इतना अवश्य व्यक्त करती है कि बुद्ध के बोधि-लाभ से पूर्व भी निगण्ठ लोग बड़े-बड़े समुदायों में विद्यमान थे। जैन कथा-साहित्य में ऐसे प्रसंग बहुत अल्प हैं, जिनमें बौद्ध-भिक्ष निगण्ठ-शासन में प्रवेश करते हैं, जब कि बौद्ध-कथा-साहित्य में प्रस्तुत प्रकार के कथाप्रसंगों की बहुलता है। इससे निगण्ठों की पूर्ववर्तिता स्पष्टतः व्यक्त होती है । बुद्ध से महावीर के ज्येष्ठ होने का भी यह एक स्पष्ट आधार बनता है। 51. धूलि-धूसरित निगण्ठ उत्तरवर्ती प्रदेश में उस समय ५०० ब्रह्मण रहते थे। उन्होंने सोचा, गंगा के किनारे एक निगण्ठ साधु रहता है। वह तपस्वी है, अपने शरीर को धूलि-धूसरित रखता है। ज्ञानप्राप्ति के लिए हमें उसके पास चलना चाहिए। वे वहाँ से चले। घने जंगल में वे प्यासे हो गये । प्यास से पीड़ित हो क्रन्दन करने लगे। उस वन के एक वृक्ष से एक भूत प्रकट हुआ। उसने सबको पानी पिलाया। ब्राह्मणों के सम्मुख उसने बुद्ध की प्रशंसा की । वे ब्राह्मण निगण्ठ के पास न जाकर, बुद्ध के पास श्रावस्ती आ गये। बुद्ध ने कहा-नंगे रहने से जटा रखने से, धूलि-धूसरित होने से, उपवास करने से, भूमि पर सोने से किसी का कल्याण नहीं होगा। कल्याण तो आत्म-गुणों के विकास से होता है। यह सब सुन कर 500 ब्राह्यण वौद्ध बन गये। -चीनी धम्मपद की कथा के आधार पर; S. Beal, op cit 54. -चाना चा ___ 2010_05 Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ आचार-ग्रन्थ और आचार-संहिता आचार और परम्परा का पहलू भी दोनों धर्म-संघों के तुलनात्मक अन्वेषण का सुन्दर विषय बनता है। आचार और परम्परा की चर्चा समग्र आगम और त्रिपिटक साहित्य में छितरी पड़ी है, पर, मुख्यत: जैनाचार की सूचना मिसीह देता है और बौद्ध-आचार की सूचना विनय पिटक। णिसीह जैन-आगम प्रचलित विभाग-क्रम के अनुसार चार प्रकार के हैं-1. अङ्ग, 2. उपाङ्ग 3. मूल और 4. छेद । छेद-विभाग में णिसीह एक प्रमुख आगम है। इसकी अपनी कुछ स्वतंत्र विशेषताएँ हैं। इसका अध्ययन वही साधु कर सकता है, जो तीन वर्ष से दीक्षित हो और गाम्भीर्य गुणोपेत हो । प्रौढ़ता की दृष्टि से कक्षा में बाल वाला १६ वर्ष का साधु ही णिसीह का वाचक हो सकता है। णिसीह का ज्ञाता हुए बिना कोई साधु अपने सम्बन्धियों के घर भिक्षार्थ नहीं जा सकता और न वह उपाध्यायादि पद के उपयुक्त भी माना जा सकता है।' साधु-मण्डली का अगुआ होने में और स्वतन्त्र विहार करने में भी णिसीह का ज्ञान आवश्यक माना गया है। निशीथज्ञ हुए बिना कोई साधु प्रायश्चित देने का अधिकारी नहीं हो सकता। इन सारे विधि-विधानों से णिसीह की महत्ता भली-भांति व्यक्त हो जाती है। रचना-काल और रचयिता परम्परागत धारणाओं के अनुसार सभी आगम महावीर की वाणीरूप हैं । अङ्ग आगमों का संकलन पंचम गणधर व महावीर के उत्तराधिकारी श्री सुधर्मास्वामी के द्वारा १. निशीथ चूणि, गा० ६२६५; व्यवहार सूत्र, उद्दे० १०, गा०-२०-२१ तथा व्यवहार ___ भाष्य, उद्दे० ७, गा० २०२-३ । २. व्यवहार सूत्र, उद्दे० ६, सू० २,३ । ३. वही, उद्दे० ३, सू० ३ । ४. वही, उद्द० ३ सू० १। 2010_05 Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५० आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [ खण्ड : १ हुआ । अङ्ग तर आगमों का संकलन बहुश्रुत व ज्ञान स्थविर मुनियों द्वारा हुआ। जिसीह भी अङ्ग तर आगम है; अत: वह स्थविर-कृत है, यह कहा जा सकता है। पर, इसका तात्पर्य यह नहीं कि वह महावीर की वाणी से कहीं दूर चला गया है । अर्थागम रूप से सभी आगम भगवत्प्रणीत हैं । सूत्रागम रूप से वे गणधर - कृत या स्थविर - कृत हैं । आगम-प्रणेता स्थविर भी पूर्वधर होते हैं । उनका प्रणयन उतना ही मान्य है, जितना गणधरों का । अब प्रश्न रहता है, रचयिता के नाम और रचना काल का । भाष्य, चूर्णि व निर्युक्ति से रचयिता के सम्बन्ध में अनेक अभिमत निकलते हैं । निशीथ का अन्य नाम आचार प्रकल्प व आयारंग ( आचरांग ) है । आयारंग चूर्णि के रचयिता ने इस सम्बन्ध से चर्चा करते हुए ' स्थविर' शब्द का अर्थ 'गणधर ' किया है । ' आयारंग नियुक्ति की थेरेहिं ( गा० २८७ ) के स्थविर शब्द की व्याख्या आचार्य शीलांक ने इस प्रकार की है - स्थविरैश्रुतवद्धं श्चतुर्दशपूर्वविद्भिः । यहाँ श्रुतवृद्धचतुर्दश पूर्वघर मुनि को स्थविर कहा है। पंचकल्प भाष्य की चूर्णि में बताया गया है- - "इस आचार प्रकल्प का प्रणयन भद्रबाहु स्वामी ने किया है ।" निशीथ सूत्र की कतिपय प्रशस्ति गाथाओं के अनुसार इसके रचयिता विशाखाचार्य प्रमाणित होते हैं । इस प्रकार णिसीह के सम्बन्ध से किसी एक ही कर्त्ता विशेष को पकड़ पाना कठिन है । तत्सम्बन्धी मतभेदों का कारण णिसीह की अपनी अवस्थिति भी हो सकती है । ऐतिहासिक गवेषणाओं से यह स्पष्ट होता है कि मिसीह सुत्त प्रारम्भ में आयारंग सूत्र की चूला रूप था । ऐतिहासिक आधारों से यह भी स्पष्ट होता है, आयारंग स्वयं पहले नव अध्ययनों तक ही गणधर - रचित द्वादशांगी का प्रथम अंग था । क्रमशः स्थविरों ने इसके आचार-सम्बन्धी विधि-विधानों का पल्लवन किया और प्रथम, द्वितीय, तृतीय चूलिकाओं के रूप में उन्हें इस अंग के साथ संलग्न किया। साधुजन आचार-सम्बन्धी नियमों का उल्लंघन करे, तो उनके लिए प्रायश्चित विधान का एक स्वतन्त्र प्रकरण स्थविरों ने बनाया और चूला के रूप में आयारंग के साथ जोड़ दिया । यह प्रकरण नवम पूर्व के आचार वस्तु विभाग से निकाला गया था। इसका विषय आयारंग से सम्बन्धित था; अत: वहीं वह एक चूला के रूप में संयुक्त किया गया । जिसीह का एक नाम आयार भी है । हो सकता है, वह इसी बात का प्रतीक हो । आगे चल कर स्थविरों द्वारा गोप्यता आदि कारणों से वह चूला आयारंग से पुनः पृथक् हो गई । उसका नाम जिसीह रखा गया और वह स्वतंत्र आगम के रूप में छेद सूत्र का एक प्रमुख अंग बन गया । कर्त्ता के सम्बन्ध में नाना १. एयाणि पुण आयारग्गाणि आयार चेव निज्जूढाणि । के णिज्जूढानि ? थेरेहिं ( २८७ ) थेरा - गणधरा ॥ २. दंसणचरितजुत्तो, जुत्तो गुत्तीसु सज्जणहिएसु । नामेण विसाहगणी महत्त रओ, गुणाम मंजूसा ॥ १ ॥ कित्तीकंतिपिढो, जसपत्तो (दो) पड़हो तिसागरनिरुद्धो । पुरूत्तं भाई भहिं, ससिव्व गगणं गुणं तस्स ||२|| तस्स लिहियं निसीहं, धम्मधुरावरणपवर पुज्जस्स । आरोग्गं धाएणिज्जं, सिस्सप सिस्सोव भोज्जं च ॥३॥ 2010_05 - आयारंग चूर्णि, पृ० ३६६ - निशीथ सूत्रम्, चतुर्थं विभाग, पृ० ३९५ Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा] आचार-ग्रन्थ और आचार-संहिता ४५१ धारणाएँ चूणि और भाष्य में मिल रही हैं । विभिन्न अपेक्षाओं से हो सकता है, वे सभी सही हों। इस घटनात्मक इतिहास में किसी अपेक्षा से उसके कर्ता भद्रबाहु मान लिये गये हों और किसी अपेक्षा से विशाखाचार्य । ऐतिहासिक दृष्टिपात से णिसीह सूत्र का रचना-काल बहुत प्राक्तन प्रणाणित होला है। प्रो. दलसुख मालवणिया के मतानुसार यह भद्रबाहु कृत हो या विशाखाचार्य कृत, वीर निर्वाण से १५० या १७५ वर्षों के अन्तर्गत ही रचा जा चुका था। अस्तु, यह माना जा सकता है, यह ग्रन्थ अर्थागम रूप से २५०० वर्ष तथा सूत्रागम रूप से २३०० वर्ष प्राचीन है। णिसीह शब्द का अभिप्राय णिसीह शब्द का मूल आधार निसीह शब्द है। कुछ एक ग्रन्थकारों ने णिसिहिय, मिसीहिय और णिसेहिय नाम से इस आगम को अभिव्यक्त किया है तथा इसका सम्बन्ध संस्कृत के निषिधिका शब्द से जोड़ा है। इसका अभिप्राय होता है, निषेधक शास्त्र। यह व्याख्या मुख्यतः दिगम्बीय दिगम्बरीय षवला, जय धवला, गोम्मटसार टीका आदि ग्रन्थों की है। पश्चिमी विद्वान वेबर ने भी इसी अर्थ को मान्यता दी है। तत्त्वार्थ भाष्य में निसीह शब्द का संस्कृत रूप 'निशीथ' माना है। नियुक्तिकार ने भी यही अर्थ अभिप्रेत माना है। चूर्णिकार के मतानुसार निशीथ शब्द का अर्थ है-अप्रकाश आचार्य हेमचन्द्र कहते हैं : निशीथस्त्वर्धरात्रो अर्थात् निशीथ शब्द का अर्थ है-अर्थ रात्रि । सारांश यह हुआ एक परम्परा के अनुसार इस आगम का नाम है-निषेधक' तो एक मान्यत के अनुसार इसका नाम है-'अप्रकाश्य'। णिसीह सूत्र के अन्तर्गत जो विषय है. उस दोनों ही नामों की संगति बैठ सकती है। परिषद में इसका वाचन न किया जाये. इस चिर. मान्यता के अनुसार वह अप्रकाश्य ही है और इसमें अकरणीय कार्यों की तालिका है: अत: यह निषेधक भी है। फिर भी यथार्थ रूप में निषेधक आगम आयारंग को ही मानना चाहिए. जिसकी भाषा है—साधु ऐसा न करें। णिसीह की भाषा आदि से अन्त तक एक रूप है और वह यह कि साधु अमुक कार्य करे तो अमुक प्रकार का प्रायश्चित्त। इस दृष्टि से 'निषेधक' की अपेक्षा 'अप्रकाश्य' अर्थ १. निशीथ सूत्रम्, चतुर्थ भाग में 'निशीथ: एक अध्ययन, पृ० २५, प्र० सन्मतिज्ञानपीठ, आगरा, १६६०। २. The name (निसीह) is explained strangely enough by Nishitha though the character of the contents would lead us to expect Nishedha (निषेध)। -Indin Antiquary, Vol. 21, p. 97. ३. णिसीहमप्रकाशम् । -निशीथ चूणि, गा० ६८, १४८३ ४. मभिधान चिन्तामणि कोश (नाममाला), २-५६ । ___ 2010_05 Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५२ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड : १ यथार्थता के कुछ निकट हो जाता है। णिसीह में काम-भावना-सम्बन्धी कुछ एक प्रकरण ऐसे हैं, जो सचमुच ही गोप्य हैं । इस दृष्टि से भी उसका 'अप्रकाश्य' अर्थ संगत ही है। मूल और विस्तार णिसीह सूत्र मूलतः न अति विस्तृत है, न अति संक्षिप्त । इसमें २० उद्देशक हैं। प्रत्येक उद्देशक का विषय कुछ सम्बद्ध है, कुछ प्रकीर्णक है। अन्तिम उद्देशक में प्रायश्चित्त करने के प्रकारों पर प्रकाश डाला गया है। भाषा अन्य जैन-आगमों की तरह अर्धमागधी है। बहुत सारे स्थलों पर भाव अति संक्षिप्त हैं। उनकी यथार्थता को समझने के लिए अपेक्षाएं खोजनी पड़ती हैं । उदाहरणार्थ-जो साधु अपने आँखों के मैल को, कानों के मैल को, दाँतों के मैल को व नाखूनों के मैल को निकालता है, विशुद्ध करता है, निकालते व विशुद्ध करते किसी अन्य को अच्छा समझता है तो उसे लघु मासिक प्रायश्चित्त आता है। जो साधु अपने शरीर का स्वेद, विशेष स्वेद, मैल, जमा हुआ मैल निकाले, शुद्ध करे, निकालते हुए को, विशुद्ध करते हुए को अच्छा जाने तो वह मासिक प्रायश्चित्त का भागी होता है। जो साधु दिन का लाया हुमा आहार दिन को भोगे, तो वह गुरु चातुर्मासिक प्रायश्चित्त का भागी होता है। यहाँ शोभा, आसक्ति, प्रथम प्रहर का चतुर्थ प्रहर में आदि निमित्त ऊपर से न जोड़े जायें, तो भाव बुद्धिगम्य नहीं बनते । बीस उद्देशकों में कुल मिला कर १६५२ बोल हैं अर्थात् इतने कार्यों पर प्रायश्चित्त-विधान है। भाव-भाषा संक्षिप्त है, इसलिए आगे चलकर आचार्यों द्वारा इस पर चूणि, निर्य क्ति, भाष्य आदि लिखे गये। इस प्रकार कुल मिलाकर यह एक महाग्रन्थ बन जाता है। तथापि आगम रूप से मूल णिसीह ही माना जाता है। व्याख्याएँ कहीं-कहीं तो मूल आगम की भावना से बहुत ही दूर चली गई हैं; अतः वे जैन-परम्परा में सर्व मान्य नहीं हैं। प्रस्तुत प्रकरण में मल आगम ही विवेचन और समीक्षा का विषय है। विनय पिटक बौद्ध-धर्म के आधारभूत तीन पिटकों में एक विनय पिटक है। पारम्परिक धारणाओं के अनुसार बुद्ध-निर्वाण के अनन्तर ही महाकाश्यप के तत्त्वावधान में प्रथम बौद्ध संगीति हुई और वहीं त्रिपिटक साहित्य का प्रथम प्रणयन हुआ है। विनय पिटक के अन्तिम प्रकरण १. जे भिक्खु अप्पणो अत्थिमलं वा कण्णमलं वा दंतमलं वा, णपमलं वा णहिरेज्ज वा, विसोहेज्ज वा, णिहरंतं वा, विसोहंतं वा, साइज्जइ। जे भिक्खु अप्पणो कायाओ सेयं वा, जलं वा, पंकं वा, मलं वा णिहरेज्ज वा, विसोहेज्ज वा, णिहरंतं वा, विसोहंतं वा, साइज्जइ। -णिसीह सुत्त उ० ३, बोल ६९-७० २. जे भिक्खु दिया असणं वा, ४ पडिग्गहित्ता दिया मुंज इ, दिया मुंजंतं वा साइज्जइ। णिसीह सुत्त उ०११, बोल १७६ 2010_05 Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा] आचार-ग्रन्थ और आचार-संहिता ४५३ चुल्लवग्ग के पंचशतिका खंधक में विनय पिटक की रचना का ब्यौरा देते हुए बताया गया है : आयुष्मान् महाकाश्यप ने भिक्षुओं को सम्बोधित करते हुए कहा- "एक समय में पांच सौ भिक्षुओं के साथ पावा और कुसिनारा के बीच जंगल में था। मार्ग से हट कर एक वक्ष के नीचे बैठा था। एक आजीवक उस समय मन्दार-पुष्प लेकर पावा के उसी मार्ग से जा रहा था। मैंने उससे पूछा-'आवुस! हमारे शास्ता को जानते हो ?' “आजीवक ने उत्तर दिया--हां, आवुस ! जानता हूँ, श्रमण गौतम को परिनिर्वाण प्राप्त हुए एक सप्ताह हुआ है । मैंने यह मन्दार-पुष्प वहीं से लिया है।" "श्रमण गौतम की स्मृति मात्र से कुछ अवीतराग भिक्षु बाँह पकड़ कर रोने लगे, कुछ कटे वृक्ष के सदृश गिर पड़े, लोटने लगे और कहने लगे, भगवान् बहुत शीघ्र ही परिनिर्वाण को प्राप्त हो गये । किन्तु, जो वीतराग भिक्षु थे, वे स्मृति-सम्प्रजन्य के साथ उसे सहन कर रहे थे और सचित्त होकर सोच रहे थे, संस्कार (कृत वस्तुएँ) अनित्य हैं। वे अब कहाँ मिलेंगे? "सुभद्र नामक एक वृद्ध परिव्राजक भी उस समय उस परिषद् में बैठा था। उसने कहा-"भिक्षुओ ! शोक मत करो। रोओ मत । श्रमण गौतम की मृत्यु से हम सुयुक्त हो गये। उससे हम बहुधा पीड़ित रहा करते थे। वह हमें पुनः पुनः कहा करता था; यह तुम्हें विहित है और यह विहित नहीं है । अब हम स्वतंत्र हैं। जो चाहेंगे, करेंगे, नहीं चाहेंगे, नहीं करेंगे।" "अच्छा हो, अब हम धर्म और विनय का संगायन करें। अधर्म प्रकट हो रहा है और धर्म को हटाया जा रहा है; अविनय प्रकट हो रहा है और विनय को हटाया जा रहा है। अधर्मवादी बलवान हो रहे हैं और धर्मवादी दुर्बल हो रहे हैं। विनयवादी हीन हो रहे हैं और अविनयवादी पुष्ट हो रहे हैं।" भिक्षुओं ने समवेत स्वर से प्रस्ताव रखा-'तो भन्ते ! आप स्थविर भिक्षुओं का चुनाव करें।" महाकाश्यप ने उस प्रस्ताव को स्वीकार किया और चार सौ निन्नानवे अर्हत् भिक्षुओं का चुनाव किया। भिक्षुओं ने महाकाश्यप से निवेदन किया-“भन्ते ! यद्यपि आनन्द शेक्ष्य (अन-अर्हत् ) हैं, फिर भी छन्द (राग), द्वेष, मोह, भय, अगति (कुमार्ग) पर जाने के अयोग्य हैं। इन्होंने भगवान् के पास बहुत धर्म और विनय प्राप्त किया है। अत: इन्हें भी चुनें।" आयुष्यान् महाकाश्यप ने आनन्द को भी चुना। इस प्रकार पांच सौ भिक्षुओं का चुनर्षि सम्पन्न हो गया। स्थान का विमर्षण करते हुए स्थविर भिक्षुओं ने राजगृह का निर्णय लिया; क्योंकि यह नगर महागोचर' और विपुल शयनासन-सम्पन्न था। वहीं वर्षावास करते हुए धर्म और विनय के संगायन का निश्चय किया। साथ ही यह भी निर्णय लिया कि अन्य भिक्षु इस अवधि में राजगृह न आयें। १. आराम के निकट सघन बस्ती वाला। 2010_05 Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [ खण्ड : १ आयुष्मान् महाकाश्यप ने संघ को ज्ञापित किया और अनुश्रावण किया। संघ जब मौन रहा तो महाकाश्यप ने दूसरी बार और तीसरी बार भी वैसे ही किया । 'संघ इन पाँच भिक्षुओं के राजगृह में वर्षावास करने, धर्म व विनय का संगायन करने तथा वहीं अन्य भिक्षुओं के अनागमन से सहमत है; अत: चुप है, यह में धारणा करता हूँ । ४५४ संघ से अनुमति पाकर स्थविर भिक्षु धर्म और विनय के संगायन के लिए राजगृह आये। उनके मन में आया, भगवान् ने कहा है, सर्व प्रथम टूटे-फूटे को सुसज्ज करो; अतः प्रथम मास में यही करेंगे और द्वितीय मास में एकत्रित होकर संगायन करेंगे । आयुष्मान् आनन्द ने सोचा, शैक्ष्य रहते हुए मैं सन्निपात ( गोष्ठी) में जाऊँ ; यह मेरे लिए उचित नहीं होगा। रात का अधिकांश समय उन्होंने काय स्मृति में बिताया । प्रातः काल लेटने के अभिप्राय जब शरीर को फैलाया; पैर भूमि तक नहीं पहुँच पाये थे और सिर उपधान तक; इसी बीच उनका चित्त आस्रवों से मुक्त हो गया। आयुष्मान् आनन्द अर्हत् होकर सन्निपात में गय । "आवुसो ! संघ सुने, यदि संघ आयुष्मान् महाकाश्यप ने संघ को ज्ञापित कियाचाहता हो, तो मैं आयुष्मान् द्वारा पूछे गये विनय पूछू ।" आयुष्मान् उपालि ने भी संघ को ज्ञापित किया - "भन्ते ! संघ सुने, यदि संघ चाहता हो, तो मैं आयुष्मान् महाकाश्यप द्वारा पूछे गये विनय का उत्तर दूं ।" आयुष्मान् महाकाश्यप ने आयुष्मान् उपालि को कहा "आवुस ! उपालि ! प्रथम पाराजिका कहाँ प्रज्ञप्त की गई ?" "भन्ते ! राजगृह में । " " किसको लक्षित कर ?" "सुदिन्न कलन्द - पुत्त को लक्षित कर ।" " किस विषय में ? " "मैथुन धर्म में ।” महाकाश्यप ने उसके अनन्तर उपालि से प्रथम पाराजिका की कथा भी पूछी, निदान भी पूछा, पुद्गल (व्यक्ति) भी पूछा, प्रज्ञप्ति (विधान) भी पूछी, अनुप्रज्ञप्ति ( सम्बोधन ) भी पूछी, आपत्ति ( दोष-दण्ड) भी पूछी और अनापत्ति भी पूछी। "उपालि ! द्वितीय पाराजिका कहाँ प्रज्ञापित हुई ?" “भन्ते ! राजगृह में ।" " किसको लक्षित कर ?" "धनिय कुम्भकार - पुत्त को लक्षित कर ।" "किस विषय में ?" "अदत्तादान में ।" इसके साथ ही उपालि से द्वितीय पाराजिका की कथा, निदान, पुद्गल, प्रज्ञप्ति, अनुप्रज्ञप्ति, आपत्ति और अनापत्ति भी पूछी । "उपालि ! तृतीय पाराजिका कहाँ प्रज्ञप्त की गई ?" "भन्ते ! वैशाली में ।" " किसको लक्षित कर ?" "बहुत से भिक्षुओं को लक्षित कर ।" "किस विषय में ?" "मनुष्य-विग्रह ( नर - हत्या ) के विषय में । " 2010_05 Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा ] आचार-ग्रन्थ और आचार-संहिता ४५५ इसके साथ ही तृतीय पाराजिका की कथा, निदान, पुद्गल, प्रज्ञप्ति, अनुप्रज्ञप्ति, आपत्ति और अनापत्ति भी पूछी और उपालि ने उन सबका सविस्तार उत्तर दिया । "उपालि ! चतुर्थ पाराजिका कहाँ प्रज्ञापित हुई ?' "भन्ते ! वैशाली में ।" " किसको लक्षित कर ?" "वग्गु-मुदा-तीरवासी भिक्षुओं को लक्षित कर ।" "किस विषय में ?" "उत्तर मनुष्य धर्म (दिव्य शक्ति) में ।" आयुष्मान् महाकाश्यप ने इसके साथ ही चतुर्थ पाराजिका की कथा, निदान, पुद्गल, प्रज्ञप्ति, अनुप्रज्ञप्ति, आपत्ति और अनापत्ति भी पूछी और उपालि ने उनका सविस्तार उत्तर दिया । इसी प्रकार महाकाश्यप ने भिक्षु भिक्षुणियों के विनयों को पूछा और उपालि ने उन सबका उत्तर दिया । ऐतिहासिक दृष्टि प्राचीन धर्म-ग्रन्थों के रचना-सम्बन्ध से पारम्परिक, कथन और गवेषणात्मक ऐतिहासिक, कथन बहुधा भिन्न-भिन्न ही तथ्य प्रस्तुत करते हैं । विनय पिटक की भी यही स्थिति है । कुछ एक विद्वानों की राय में तो प्रथम संगीति की बात ही निर्मूल है । ओल्डनवर्ग का कथन है कि महापरिनिव्वाण सुत्त में उक्त संगीति के विषय में कोई उल्लेख नहीं है; अतः इसकी बात एक कल्पनामात्र ही रह जाती है। फेंक भी इसी बात का समर्थन करते हुए कहते हैं- - प्रथम संगीति को मानने का आधार केवल चुल्लवग्ग का ग्यारहवाँ, बारहवाँ प्रकरण है । यह आधार नितान्त पारम्परिक है और इसका महत्त्व मनगढ़न्त कथा से अधिक नहीं है ।"२ परन्तु डॉ० हर्मन जेकोबी उक्त कथन से सहमत नहीं हैं । उनका कहना है, महापरिनिव्वाण सुत्त में इस प्रसंग का उल्लेख करना कोई आवश्यक ही नहीं था। कुछ विद्वान् यह भी मानते हैं कि चुल्लवग्ग के उक्त दो प्रकरण वस्तुतः महापरिनिष्वाण सुत्त के ही अंग थे और किसी समय चुल्लवग्ग के प्रकरण बना दिये गये हैं । * वस्तुस्थिति यह है कि चुल्लवग्ग के उक्त दो प्रकरण भाव- भाषा की दृष्टि से उसके साथ नितान्त असम्बद्ध से हैं | महापरिनिव्वाण सुत्त के साथ भाव-भाषा की दृष्टि से उनका मेल अवश्य बैठता है । 3 १. Introduction to the Vinaya Pitaka, XXIX, Zeitschrift der Deutschen Morgenlandischen Gesellschaft, 1898, pp. 613-94. 2. Journal of the Pali Text Society, 1908, pp. 1- 80. ३. Zeitschrift der Deutschen Morgenlandischen Gesellschaft, 1880, p. 184 ff. ४. Finst & Obermiller, Indian Historical Quarterly, 1923; S. K. Dutt, Early Buddhist Monachism, p. 337. 2010_05 Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५६ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड : १ संयुक्त वस्तु नामक ग्रन्थ में परिनिर्वाण और संगीति का वर्णन एक साथ मिलता है। इससे यह यथार्थ माना जा सकता है कि उक्त दो प्रकरण महापरिनिव्वाण सुत्त के ही अङ्गरूप थे। इन आधारों से संगीति की वास्तविकता संदिग्ध नहीं मानी जा सकती, पर, उस संगीति के कार्यक्रम के विषय में अवश्य कुछ चिन्तनीय रह जाता है। उस संगीति में क्या-क्या संगहीत हआ, इस सम्बन्ध से विद्वत-समाज में अनेक धारणाएं हैं। प्रो० जी० सी० प कथनानुसार विनय पिटक व पिटक सुत्त का समन प्रणयन उस सीमित समय में हो सका, यह असम्भव है। निष्कर्ष रूप में यह कहा जा सकता है कि विनय पिटक में दो संगीतियों की उल्लेख है, पर, तीसरी संगीति का नहीं; जिसका समय ईसा पूर्व तीसरी शताब्दी माना जाता है। सम्राट अशोक का भी इसमें कोई वर्णन नहीं है, जो कि ई० पू० २६६ में राजगद्दी पर बैठे थे। अतः इससे पूर्व ही विनय पिटक का निर्माण हो चुका था, यह असंदिग्ध-सा रह जाता है। विनय पिटक का वर्तमान विस्तृत स्वरूप प्रो० जी० सी० पाण्डे के मतानुसार कम से कम पांच बार अभिवधित होकर ही बना है। निसीह सूत्र का रचना-काल महावीर के निर्माण-काल से १५० या १७५ वर्ष बाद के लगभग प्रमाणित होता है, जो कि ई० पू० ३७५ या ३५० का समय था। विनय पिटक का समय ई० पू० ३०० के लगभग का प्रमाणित होता है। तात्पर्य हुआ, दोनों ही ग्रन्थ ई० पू० चौथी शताब्दी के हैं। भाषा-विचार जैन आगमों की भाषा अर्धमागधी और बौद्ध त्रिपिटकों की भाषा पालि कही जाती है। दोनों ही भाषाओं का मूल मागधी है। किसी युग में यह प्रदेश विशेष की लोकभाषा थी। आज भी विहार की बोलियों में एक का नाम 'मगही' है। महावीर का जन्म-स्थान वैशाली (उत्तर क्षत्रिय कुण्डपुर) और बुद्ध का जन्म-स्थान लुम्बिनी था। दोनों स्थानों में सीधा अन्तर २५० मील का माना जाता है। आज भी दो स्थानों की बोली लगभग एक है। वैशाली की बोली पर कुछ मैथिली भाषा का और लुम्बिनी (नेपाल की तराई में रुमिनदेई' नाम का गाँव) की बोली पर अवधी भाषा का प्रभाव है। दोनों स्थानों की भाषा मुख्यतः ‘भोजपुरी' कही जाती है। आज मगही और भोजपुरी को विद्वान् प्राचीन मागधी की सन्तान मानते हैं। हो सकता है, महावीर और बुद्ध दोनों की मातृभाषा एक मागधी ही रही हो। जैन-शास्त्रकारों ने इसे अर्धमागधी कहा है। १. Studies in the Origins of Buddhism, p. 10. २. Edward J. Thomas, History of Buddhist Thought, p. 10. ३. Studies in the Origins of Buddhism, p. 16. ४. (क) भगवं च णं अद्धमागहीए भासाय धम्ममाइखइ। --समवायांग सूत्र, पृ०६० । (ख) तए णं समणे भगवं महावीरे कूणिअस्स रण्णो भिभिसारपुत्तस्स.. अद्धमागहए मासाय मासइ..सावि य णं अद्धमागहा मासा तेसिं सव्वेसिं आरियमणारियाणं अप्पणे सभासाए परिणामेणं परिणामइ...। -उववाई सुत्त । ____ 2010_05 Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा ] आचार-ग्रन्थ और आचार-संहिता अर्धमागधी कहलाने के अनेक कारण माने जाते हैं; प्रदेश विशेष में बोला जाना, अन्य भाषाओं से मिश्रित होना, ' आगमधरों का विभिन्न भाषा-भाषी होना, आदि । जैन और बौद्ध दोनों ही परम्पराओं के आगम शताब्दियों तक मौखिक परम्परा से चलते रहे । बौद्धागम २४ और जैनागम २६ पीढ़ियाँ बीत जाने के पश्चात् लिखे गये हैं । तब तक आगमधरों की मातृभाषा का प्रभाव उन पर पड़ता ही रहा है । आगमों की लेखबद्धता से भाषाओं से जो निश्चित रूप बने हैं, वे एक-दूसरे से कुछ भिन्न हैं । एक रूप का नाम पालि है और दूसरे रूप का नाम अर्धमागधी । दोनों विभिन्न कालों में लिखे गये; इसलिए भी भाषा सम्बन्धी अन्तर पड़ जाना सम्भव था । बुद्ध के वचनों को 'पालि' कहा गया है, इसलिए जिस भाषा में वे लिखे गये, उस भाषा का नाम भी पालि हो गया । समग्र आगम- साहित्य के साथ मिसीह और विनय पिटक का भी यही भाषा विचार है। निम्न दो उदाहरणों से दोनों शास्त्रों की भाषा तथा शैलो और अधिक समझी जा सकती है कि वे परस्पर कितनी निकट हैं : १. "जे भिक्खु णवे इमे परिग्गहं लद्वेतिकट्ट, तेलेण वा, धरण वा, णवणीएण वा, बसाएज वा, मक्खेज्ज वा, भिलिंगेज्ज वा, मक्वंतं वा, भिलिगंतं वा साइज्जइ । भिक्खु णवे इमे पडिग्गहं लद्धेतिकट्टु. लोद्वेण वा, कक्केण वा, चुण्णेण वा नहाणेण वा, जाव साइज्जइ । जे भिक्खु णवे इमे पडिग्गहं लद्धेत्तिकट्ट, सीउदग वियडेण वा, उसिणोदग विथडेण वा, उच्छोलेज्ज वा, पषोवेज्ज वा, उच्छोलंतं वा, पधोवंतं वा साइज्जइ । ३ ४५.७ — जो साधु, मुझे नया पात्र मिला है, ऐसा विचार कर उस पर तेल, घृत, मक्खन, चरवी एक बार लगाये, बार-बार लगाये, लगाते को अच्छा जाने ; उसे लघु चातुर्मासिक प्रायश्चित्त । जो साधु मुझे नया पात्र मिला है, ऐसा विचार कर, उसे लोद्रक, कोष्टक पद्म पूर्ण आदि द्रव्यों से रंगे, रंगते को अच्छा जाने, इसे लघु चातुर्मासिक प्रायश्चित्त । जो साधु मुझे नया पात्र मिला है, ऐसा विचार कर, उसे अचित्त (धोवन) ठंडे पानी से, अचित्त गरम पानी से धोये, बार-बार धोये, धोते को अच्छा जाने, उसे लघु चातुर्मासिक प्रायश्चित्त । २. यो पन भिक्खु जातरूपरजतं उग्गण्हेय्य दा उग्गण्हापेय्य वा उपनिखित्त वा सादियेय्य, निस्सग्गियं पाचित्तियं ति । यो पन भिक्खु नानप्पकारकं रूपिसंयवोहारं समापज्जेय्य, निस्सग्गियं पाचित्तियं ति । ४ कुँ — जो भिक्षु सोना या रजत (चाँदी आदि के सिक्के) को ग्रहण करे या ग्रहण करवाये या रखे हुए का उपयोग करे, उसे 'निस्सग्गिय पाचित्तिय' है । १. मगदद्धविसयभासाणिबद्ध अद्धमागहं, अट्ठारसदेसी भासाणिमयं वा अद्धमाग | - निशीथ चूर्णि । २. Studies in the Origins of Buddhism, p. 573. ३. निशीथ सूत्र, उ० १४, बोल १२, १३, १४ । ४. विनय पिटक, पाराजिका पालि, ४-१८, १२५, १३० । 2010_05 Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५८ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन । खण्ड : १ जो भिक्षु नाना प्रकार के रुपयों (सिक्कों) का व्यवहार करे, उसको 'निस्सग्गिय पाचित्तिय' है। विषय-समीक्षा णिसीह के विषय में आगमिक-विधान है-कम-से-कम तीन वर्ष की दीक्षा-पर्याय वाला भिक्षु इसका अध्ययन कर सकता है। णिसीह व अन्य छेद-सूत्र गोप्य हैं; अतः उनका परिषद् में वाचन नहीं होता और न कोई गृहस्थ विशेष सूत्रागम रूप से उसे पढ़ने का अधिकारी होता है । बौद्ध परम्परा के अनुसार विनय पिटक के विषय में भी यह मान्यता है कि वह संघ में दीक्षित भिक्षु को ही पढ़ाया जाना चाहिए।' साधारणतया इस प्रतिबन्धक-विधान को अनावश्यक और संकीर्णता का द्योतक माना जा सकता है, किन्तु वास्तव में इसके पीछे एक अर्थपूर्ण उद्देश्य सन्निहित है। इन ग्रन्थों में मुख्यतया भिक्षु-भिक्षुणियों के प्रायश्चित्त-विधान की चर्चा है । संघ है, वहाँ नाना व्यक्ति हैं। नाना व्यक्ति हैं, वहाँ नाना स्थितियाँ भी होती हैं । भगवान श्री महावीर ने कहा- "आचार दृष्टि से एक साधु पूर्णिमा का चाँद है तो एक प्रतिपदा का ।"२ तात्पर्य, भिक्षु-संघ का अभियान साधना की उच्चतम मंजिल की ओर बढ़ने वाला है। पर, उस अभियान के सभी सदस्य अपनी गति में कुछ भी न्यूनाधिक न हों, यह स्वाभाविक नहीं है। एक साथ चलने वालों में कोई पीछे भी रह सकता है, कोई लड़खड़ा भी सकता है और कोई गिर भी सकता है; गिरा हुआ पुनः उठ कर चल भी सकता है। इन सारी स्थितियों को ध्यान में रखते हुए संघ-प्रवर्तकों और संघ-नायकों को अनुभूत और आशंकित विधि-विधान सभी गढ़ देने पड़ते हैं। अप्रौढ़ व्यक्ति के लिए उन सबका अध्ययन विचिकित्साएँ पैदा करने वाला बन सकता है। वह उसे संघ के नैतिक पतन का ऐतिहासिक ब्यौरा मान सकता है। ऐसे अनेक कारणों से शास्त्रप्रणेताओं ने यदि इस प्रकार के शास्त्रों को पढ़ने की आज्ञा सर्वधारण को नहीं, दी, तो वह किसी असंगति का प्रभाव नहीं है। इनका ध्येय पाप को छिपाने का नहीं.पाप के विस्तार को रोकने का है। णिसीह और विनय पिटक दोनों ही शास्त्रों में अब्रह्मचर्य के नियमन पर खुल कर लिखा गया है। साधारण दृष्टि में वह असामाजिक जैसा भले ही लगता हो, पर, शोध के क्षेत्र में गवेषक विद्वानों के लिए विधि-विधान व चिन्तन के नाना द्वार खोलने वाला है। निशीथ के अब्रह्मचर्य-सम्बन्धी प्रायश्चित्त-विधान १. जो साधु हस्तकर्म करता है, करते को अच्छा समझता है, उसे गुरु मासिक प्रायश्चित्त । १. विनय पिटक, पाराजिका पालि, आमुख, ले० भिक्षु जगदीश काश्यप, पृ०६। २. ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र, अ० १०। ३. जे भिक्खू हत्थकम्म सुत्त करेति, करंतं वा साइज्जइ। -निशीथ सूत्र, उ० १, बोल १। 2010_05 Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा ] आचार-ग्रन्थ और आचार संहिता ४५ε २. जो साधु अंगुलि आदि से शिश्न को संचालित करे, करते को अच्छा समझे; उसे गुरु मासिक प्रायश्चित्त । ३. जो साधु शिश्न का मर्दन करे, बार-बार मर्दन करे, मर्दन करते को अच्छा जाने; उसे 'गुरु मासिक प्रायश्चित्त । ४. जो साधु शिश्न को तेल आदि से मर्दन करे, करते को अच्छा समझे ; उसे गुरु मासिक प्रायश्चित्त ५. जो साधु शिश्न पर पीठी करे, करते को अच्छा समझे; उसे गुरु मासिक प्रायश्चित्त । * ६. जो साधु शिश्न का शीत या उष्ण पानी से प्रक्षालन करे, करते को अच्छा समझे; उसे गुरु मासिक प्रायश्चित्त । ७. जो साधु शिश्न के अग्रभाग को उद्घाटित करे, करते को अच्छा समझे ; उसे गुरु मासिक प्रायश्चित्त । ६ ८. जो साधु शिश्न को सूंघता है, सूंघते को अच्छा समझता है ; उसे गुरु मासिक प्रायश्चित्त । ७ ६. जो साधु शिश्न को अचित्त छिद्र विशेष में प्रक्षिप्त कर शुक्रपात करे, करते को अच्छा समझे, उसे गुरु मासिक प्रायश्चित्त १. जे भिक्खू अंगादाणं कट्ठ ेणं वा, अंगुलियाए वा, सिलागए वा संचालेइ संचालतं वा, साइज्जइ । - वही, उ० १, बोल २ । २. जे भिक्खू अंगादाणं संवाहेज्ज वा, पलिमदेज्जवा, संवाहंतं वा, पलिमदेतं वा साइज्जइ । वही, उ० १, बोल ३ | ३. जे भिक्खू अंगादाणं तेलेण वा, घएण वा, वासाएण वा, णवणीए वा, अभंगेज्ज वा, मंक्खेज्ज वा, अभ्भंगंतं वा, मक्खतं वा साइज्जइ । - णिसीह उ० १, बोल ४ । ४. जे भिक्खू अंगादाणं कक्केण वा, लोद्देण वा, पउमचुण्णेण वा, पहाणेण वा सिणाणेण वा, चुण्णेहि वा, वण्णेहि वा, उवट्टे इ वा, उवट्टतं वा परिवट्टतं वा साइज्जइ । -वही, उ० १, बोल ५ । ५. जे भिक्खू अंगादाणं सीउदग वियडेण वा, उसिणोदगवियडेण वा, उच्छोलेज्ज वा, पघोइज्ज वा, उच्छोलंतं वा, पघोयंतं वा साइज्जइ । - वही, उ० १, बोल ६ । वही, उ० १, बोल ७ । - वही, उ० १, वोल ८ । ८. जे भिक्खू श्रंगादाणं अण्णयरंसि अचित्तंसि सोयगंसि अणुष्पविसित्तए सुक्कपोल्ले णिग्धाएइ, णिग्घायंतं वा साइज्जइ । — वही, उ० १, बोल ६ । ६. जे भिक्खू अंगादाणं णिच्छलेइ, णिच्छलंतं वा साइज्जइ । ७. जे भिक्खू अंगादाणं जिग्घइ, जिग्घंतं वा साइज्जइ । 2010_05 Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड :१ स्त्रियों के सम्बन्ध से कुछ एक प्रायश्चित्त-विधान इस प्रकार किये गये हैं : १. जो साधु माता-समान इन्द्रियों वाली स्त्री से सम्भोग की प्रार्थना करे, करते को ___ अच्छा समझे; उसे गुरु चातुर्मासिक प्रायश्चित्त ।' २. जो साधु माता-समान इन्द्रियों वाली स्त्री के जननेन्द्रिय में अंगुलि आदि डाले, डालने को अच्छा समझे; उसे गुरु चातुर्मासिक प्रायश्चित्त । ३. जो साधु माता-समान इन्द्रियों वाली स्त्री से शिश्न का मर्दन कराये, करते को अच्छा समझे ; उसे गुरु चातुर्मासिक प्रायश्चित्त । ४. जो साधु माता-समान इन्द्रियों वाली स्त्री से सम्भोग की इच्छा कर, लेख लिखे या लिखने को अच्छा जाने ; उसे गुरु चातुर्मासिक प्रायश्चित्त ।। ५. जो साध माता-समान इन्द्रियों वाली स्त्री से सम्भोग की इच्छा कर अठारहसरा, नौसरा, मुक्तावली, कनकावली आदि हार व कुण्डल आदि आभूषण धारण करे, करते को अच्छा समझे ; उसे गुरु चातुर्मासिक प्रायश्चित्त ।५ ६. जो साधु माता-समान इन्द्रियों वाली स्त्री को सम्भोग की इच्छा से शास्त्र पढ़ाये तथा पढ़ाते को अच्छा समझे ; उसे गुरु चातुर्मासिक प्रायश्चित्त । ७. जो साधु अपने गच्छ की साध्वी तथा अन्य गच्छ की साध्वी के साथ विहार करता हुआ कभी आगे-पीछे रहे, तब साध्वी के वियोग से दुःखित हो कर हथेली पर मुंह रख कर आ ध्यान करे, करते को अच्छा समझे ; उसे गुरु चातुर्मासिक प्रायश्चित्त। १. जे भिक्खू माउग्गमस्स मेहुणवडियाए विणवेइ, विणवंतं वा साइज्जइ । -वही, उ०६, बोल १ । २. जे भिक्खू माउग्गमस्स मेहुणं वडियाए हत्थकम्मं करेइ, करंतं वा साइज्जइ । -वही, उ० ६, बोल २। ३. जे भिक्खू माउग्गमस्स मेहुण वडियाए अंगादाणं संवाहेज्ज वा, पलिमद्देज्ज वा, ___संवाहंतं वा, पलिमइंतं वा साइज्जइ । -णिसीह, उ०६, बो ४ । ४. जे भिक्खू माउग्गमस्स मेहुण वडियाए लेहं लिहइ, लेहं लिहावेइ, लेह वडियाए बहियाए गच्छइ, गच्छंतं वा, साइज्जइ। -~-वही, उ० ६, बो० १३ । ५. जे भिक्खू माउग्गमस्स मेहुण वडियाए हाराणि वा, अद्धहाराणि वा, एकावली वा, मुत्तावली वा, कणगावली वा, रयणावली वा, तुडियाणी वा, केउराणी वा, कुंडलाणी वा,पंजलाणी वा, मउडाणी वा, पलंबससुत्ताणी वा, सुवण्णसुत्ताणी वा करेइ करतं साइज्जइ । एवं धरेइ, धरंतं वा साइज्जइ । -वही, उ०७, बो० ८,६ । ६. जे भिक्खू माउग्गमस्स मेहुण वडियाए वाएइ, वायवायंतं वा साइज्जइ। -वही, उ० ७, बो० ८८ । ७. जे भिक्खू समणिज्जियाए वा, परिगणिज्जियाए वा, निग्गंथीए सद्धि गामाणुमाम दूइज्जमाणे पुरओ गच्छमाणे पिटुओ रोयमाणे, उहत्तमाण संकप्पचिंतासोगसागरं ____ 2010_05 Page #515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६१ इतिहास और परम्परा] आचार-ग्रन्थ और आचार-संहिता इस प्रकार णिसीह उद्देशक छः, सात व आठ में अनेकानेक प्रायश्चित्त-विधान अब्रह्मचर्य के सम्बन्ध से लिखे गए हैं। विनय पिटक के अब्रह्मचर्य-सम्बन्धी प्रायश्चित्त-विधान णिसीह सूत्र की शैली से ही विनय पिटक में अब्रह्मचर्य-सम्बन्धी मुक्त चर्चाएं मिलती हैं : १. जो भिक्षु भिक्षु-नियमों से युक्त होते हुए भी अन्ततः पशु से भी मैथुन-धर्म का सेवन - करे, वह पाराजिक' होता है तथा भिक्षुओं के साथ रहने योग्य नहीं होता।' २. स्वप्न के अतिरिक्त जान-बूझ कर शुक्र-(वीर्य) मोचन करना ‘संघादिसेस' है। ३. किसी भिक्षु का विकारयुक्त चित्त से किसी स्त्री के हाथ या वेणी को पकड़कर या किसी अंग को छूकर शरीर का स्पर्श करना 'संघादिसेस' है। ४. किसी भिक्षु का विकारयुक्त चित्त से किसी स्त्री से ऐसे अनुचित वाक्यों का कहना, __जिनको कि कोई युवती से मैथुन के सम्बन्ध से कहता है, 'संघादिसेस' है। ५. किसी भिक्षु का वैकारिक चित्त से यह कहना कि सभी सेवाओं में सर्वश्रेष्ठ सेवा यह है कि तू मेरे जैसे सदाचारी, ब्रह्मचारी को संभोगिक सेवा दे ; ‘संघादिसेस'५ के संपवि? करतल पहत्थमुहे अद्दझाणोवगए विहारं वा करेइ जाव कहं कहेइ, कहेतं वा साइज्जइ। -वही, उ० ८, बो० ११ । १. यो पन भिक्खु भिक्खूनं सिक्खासाजीवसमापन्नो सिक्खं अपच्चक्खाय दुब्बल्यं अना विकत्वा मेथुनं धम्म पटिसेवेय्य अन्तमसो तिरच्छाजगताय पि, पाराजिको होति असंवासोति । -विनय पिटक, भिक्खु पात्तिमोक्ख, पारांजिक, १-१-२१ । २. स चेतनिका सुक्कविस्सट्ठि अत्र सुपिनन्ता स दिसेसो ति । --विनय पिटक, भिक्खु पात्तिमोक्ख, संघादिसेस, २-१-३ । ३. यो पन भिक्खु ओतिण्णो विपरिणतेन चित्तेन मातुगामेन सद्धि कायसंसगां समापज्जेय्य हत्थग्गाहं वा वेणिग्गाहं वा अ तरस्स वा अतरस्स वा असस्स परामसनं, स दिसेसो ति। __-विनय पिटक, पाराजिक पाली, २-२-३७ । ४. यो पन भिक्खु ओतिण्णो विपरिणतेन चित्तेन मातुगामं दुठ्ठल्लाहि वाचाहि ओभासेय्य यथा तं युवा युवति मेथुनुपसंहिताहि, स दिसेसो ति। -वही, २-३-५१। ५. संघादिसेस का तात्पर्य है, कुछ दिनों के लिए संघ द्वारा संघ से बहिष्कृत कर देना। ६. यो पन भिक्खु ओतिण्णो विपरिणतेन चित्तेन मातुगामस्स सन्तिके अत्तकायपारि चरियाय वण्णं भासेय्य-"एतदग्गं, भगिनि, पारिचरियानं या मादिसं सीलवन्तं कल्याणधम्मं ब्रह्मचारिं एतेन धम्मेन परिचरेय्या ति मेथुनुपसंहितेन', स दिसेसो ति । -वही, २-४-५८ । 2010_05 Page #516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६२ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [ खण्ड : १ साधु संघ की सम्मति के बिना भिक्षुणियों को उपदेश दे; उसे 'पाचित्तिय' ६. जो है । ' ; ७. सम्मति होने पर भी जो भिक्षु सूर्यास्त के बाद भिक्षुणियों को उपदेश दे 'पाचित्तिय' है । " ८. जो भिक्षु अतिरिक्त विशेष अवस्था ( भिक्षुणी का रुग्ण होना) के भिक्षुणीआश्रम में जाकर भिक्षुणियों को उपदेश करे, तो उसे 'पाचित्तिय' है । ६. जो कोई भिक्षु भिक्षुणी के साथ अकेले एकान्त में बैठे ; उसे 'पाचित्तिय' है । " निशीथ सूत्र में भिक्षु और भिक्षुणियों के लिए ब्रह्मचर्य - सम्बन्धी पृथक्-पृथक् प्रकरण नहीं हैं । भिक्षुओं के लिए जो विधान हैं, वे ही उलट कर भिक्षुणियों के लिए भी समझ लिए जाते हैं । विनय पिटक में सभी प्रकार के दोषों के लिए मिक्षु पाति मोक्ख और भिक्खुणी पातिमोक्ख' नाम से दो पृथक्-पृथक् प्रकरण हैं। भिक्खुणी पातिमोक्ख के कुछ विधान इस प्रकार हैं : १. जो भिक्षुणी कामासक्त हो अन्ततः पशु से भी यौन-धर्म का सेवन कर लेती है, वह 'पाराजिका' होती है अर्थात् संघ से निकाल देने योग्य होती है । २. जो भिक्षुणी किसी पाराजिक दोषवाली भिक्षुणी को जानती हुई भी संघ को नहीं बताती, वह 'पाराजिका' है । ३. जो भिक्षुणी आसक्ति भाव से कामातुर पुरुष के हाथ पकड़ने व चद्दर का कोना पकड़ने का आनन्द ले; उसके साथ खड़ी रहे, भाषण करे या अपने शरीर को उस पर छोड़ तो वह 'पाराजिका' होती है । ७ भिक्षुणियाँ यदि दुराचारिणी, बदनाम, निन्दित बन भिक्षुणी संघ के प्रति द्रोह करती हों और एक-दूसरे के दोषों को ढाँकती हुई बुरे संसर्ग में रहती हों, तो दूसरी भिक्षुणियाँ उन भिक्षुणिओं को ऐसा कहें - " भगिनिओ ! तुम सब दुराचारिणी, बदनाम, निन्दित बन, भिक्षुणी संघ के प्रति द्रोह करती हो और एक दूसरे के दोषों को छिपाती हुई बुरे संसर्ग में रहती हो । भगिनियों का संघ तो एक एकान्त शील और विवेक का प्रशंसक है।" यदि उनके ऐसे कहने पर वे भिक्षुणियाँ अपने दोषों को छोड़ देने के लिए तैयार न हों, तो वे तीन बार तक उनसे उन्हें छोड़ देने के लिए कहें। यदि तीन बार तक कहने पर वे उन्हें छोड़े दें, तो यह उनके लिए अच्छा है नहीं तो वे भिक्षुणियाँ भी 'संघादिसेस' हैं । 5 १. विनय पिटक, पाचित्तिय २१ । २. वही, २२ । ३. विनय पिटक, पाचित्तिय २३ । वही, ४. वही, ३० । ५. वही, भिक्खुणी पातिमोक्ख, पाराजिक १ । ६. वही, ६ । ७. वही, ८ । ८. वही, भिक्खुणी पातिमोक्ख, संघादिसेस १२ । उसे 2010_05 Page #517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा आचार-ग्रन्थ और आचार-संहिता १. जो भिक्षुणी प्रदीप-रहित रात्रि के अंधकार में अकेले पुरुष के साथ अकेली खड़ी रहे या बातचीत करे ; उसे 'पाचित्तिय' है। २. जो भिक्षुणी गुह्य-स्थान के रोम बनवाये ; उसे 'पाचित्तिय' है। ३. जो भिक्षुणी अप्राकृतिक कर्म करे, उसे 'पाचित्तिय' है। ४. जो भिक्षुणी यौन-शुद्धि में दो अंगुलियों के दो पोर से अधिक काम में ले, तो उसे __'पाचित्तिय' है। प्रश्न हो सकता है, शास्त्र-निर्माताओं ने यह असामाजिक-सी आचार-संहिता इस स्पष्ट भाव-भाषा में क्यों लिख दी ? यह निर्विवाद है कि लिखने वाले संकोच-मुक्त थे। इस विषय में संकोच-मुक्त दो ही प्रकार के व्यक्ति होते हैं-जो अधम होते हैं या जो परम उत्तम होते हैं, जिनकी वृत्तियाँ इस विषय के आकर्षण-विकर्षण से रहित हो चुकी हैं । शास्त्र-निर्माता दूसरी कोटि के लोगों में से हैं। संकोच भी कभी-कभी अपूर्णता का द्योतक होता है । समवृत्ति वाले लोगों में मुक्तता स्वाभाविक होती है। पौराणिक आख्यान है-तीन ऋषि एक बार किसी प्रयोजन से देव-सभा में पहुंचे हुए थे । वे इन्द्र के दाहिनी ओर ससम्मान बैठे हुए थे और सभा का सारा दृश्य उनके सामने था। देखते-देखते अप्सराओं का नृत्य आरम्भ हुआ। अप्सराओं की रूप-राशि को देखते ही कनिष्ठ ऋषि ने अपनी आंखें मूंद लीं और ध्यानस्थ हो गये। नृत्य करते-करते अप्सरायें मद विह्वल हो गईं और उनके देव-दूष्य इधर-उधर बिखर गए। इस अशिष्टता को देख मध्यम ऋषि आँखें मूंद कर ध्यानस्थ हो गए। अप्सराओं का नृत्य चालू था। देखते-देखते वे सर्वथा वस्त्र-विहीन होकर नाचने लगीं । ज्येष्ठ ऋषि ज्यों-के-त्यों बैठे रहे। इन्द्र ने पूछा- "इस नत्य को देखने में आपको तनिक भी संकोच नहीं हुआ, क्या कारण है ?" ऋषि ने कहा"मुझे तो इस नृत्य के उतार-चढ़ाव में कुछ अन्तर लगा ही नहीं। मैं तो आदि क्षण से लेकर अब तक अपनी सम स्थिति में हूँ।" इन्द्र ने कहा- "इन दो ऋषियों ने क्रमशः आँखें क्यों मंद लीं ?" ज्येष्ठ ऋषि ने कहा-"वे अभी साधना की सीढ़ियों पर हैं। मंजिल तक पहुंचने के बाद इनका भी संकोच मिट जाएगा।" ठीक यही स्थिति प्रस्तुत प्रकरण के सम्बन्ध में सोची जा सकती है। सर्व साधारण को लगता है, ज्ञानियों ने इस विषय को इतना खोल कर क्यों लिखा, परन्तु, ज्ञानियों के अपने मन में संकोच करने का कोई कारण भी तो शेष नहीं था तथा संघ-व्यवस्था के लिए यह आवश्यकता का प्रश्न भी था। देश के अधिकांश लोग भले होते हैं, पर, कुछ एक चोरसुटेरे और व्यभिचारी आदि असामाजिक तत्त्व भी रहते हैं। राजकीय आचार-संहिता में यही तो मिलेगा न-अमुक प्रचार की चोरी करने वाले को यह दण्ड, अमुक प्रकार का व्यभिचार करने वाले को यह दण्ड । साधुओं का भी एक समाज होता है। सहस्रों के समाज में अनुपात से असाधुता के उदाहरण भी घटित होते हैं। उस चरित्रशील साधु-समाज की १. विनय पिटक, भिक्खुणी पातिमोक्ख, पाचित्तिय ११ । २. वही, २। ३. वही, ३। ४. वही, ५। __ 2010_05 Page #518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६४ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड :१ संघीय आचार-संहिता में उक्त प्रकार के नियम अनावश्यक और अस्वाभाविक नहीं माने जा सकते। प्रायश्चित्त-विधि प्रायश्चित्त और प्रायश्चित्त करने के प्रकार, दोनों परम्पराओं में बहुत ही मनोवैज्ञानिक हैं। जैन परम्परा में प्रायश्चित्त के मुख्यतया दस भेद हैं : १. आलोयणा (आलोचना)-निवेदना तल्लक्षणं शुद्धि यवहत्यतिचार जातं तदा लोचना-लगे दोष का गुरु के पास यथावत् निवेदन करना। इससे मानसिक मलिनता का परिष्कार माना गया है। २. पडिक्कमण (प्रतिक्रमण)-मिथ्या दुष्कृतं । यह प्रायश्चित्त साधक स्वयं कर सकता है। इसका अभिप्राय है-मेरा पाप मिथ्या हो। ३. तदुभयं-आलोचना और प्रतिक्रमण दोनों मिलकर 'तदुभयं' प्रायश्चित्त है। ४. विवेग (विवेक)- अशुद्धभक्ता दित्यागः । आधाकर्म आदि अशुद्ध आहार का त्याग । ५. विउसग्ग (व्युत्सर्ग)-कायोत्सर्ग। यह प्रायश्चित्त ध्यानादि से सम्पन्न होता ६. तव (तपस्)-निविकृतिकादि। दूध, दही आदि विगय वस्तु का त्याग तथा अन्य प्रकार के तप । ७. छेय (छेद)-प्रव्रज्यापर्याय ह्रस्वीकरणम् । दीक्षा-पर्याय को कुछ कम कर देना। उस प्रायश्चित्त से जितना समय कम किया गया है, उस अवधि में बने हुए छोटे साधु दीक्षा-पर्याय में उस दोषी साधु से बड़े हो जाते हैं। ८. मूल (मूल)-महावतारोपणम् । पुनर्दीक्षा। ६. अणवटुप्पा (अनवस्थाप्य)-कृततपसो व्रतारोपणम् । तप विशेष के पश्चात् पुनर्दीक्षा। १०. पाराञ्चिय (पाराञ्चिक)-लिङ्गादिभेदम् । इस प्रायश्चित्त में संघ-बहिष्कृत साधु एक अवधि विशेष तक साधु-वेष परिवर्तित कर जन-जन के बीच अपनी आत्म-निन्दा करता है। उसके बाद ही उसकी पुनर्दीक्षा होती है।' व्याख्या-ग्रन्थों में इन दसों प्रायश्चित्तों के विषय में भेद-प्रभेदात्मक विस्तृत व्याख्याएं हैं। निशीथ सूत्र में मासिक और चातुर्मासिक प्रायश्चित्तों का ही विधान है। इनका सम्बन्ध ऊपर बताए गए सातवें प्रायश्चित्त 'छेद' से है। मासिक प्रायश्चित्त अर्थात् एक मास के संयमपर्याय का छेद । 'छेद' प्रायश्चित्त छठे भेद 'तप' में भी बदल जाता है। इससे दोषी साधु संयम-पर्याय को छेद न कर तप-विशेष से अपनी शुद्धि करता है । दोष की तरतमता से मासिक प्रायश्चित्तों में गुरु और लघु दो-दो भेद हो जाते हैं। विनय पिटक में समग्र दोषों को आठ भागों में बांटा गया है : १. भिक्षु के लिए ४ दोष, भिक्षुणी के लिए ८ दोष 'पाराजिक' हैं। २. भिक्षु के लिए १३ दोष, भिक्षुणी के लिए १७ दोष 'संघादिसेस' हैं। १. ठाणांग सूत्र, ठा० १० । 2010_05 Page #519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्पार ] आचार-ग्रन्थ और आचार-संहिता ४६५ ३. भिक्षु के लिए २ दोष, 'अनियत' हैं। . ४. भिक्षु के लिए ३० दोष, भिक्षुणी के लिए ३० दोष, 'निस्सग्गिय पाचि त्तिय' हैं। ५. भिक्षु के लिए ६२ दोह, भिक्षुणी के लिए १६६ दोष 'पाचित्तिय' हैं। ६. भिक्षु के लिए ४ दोष, भिक्षुणी के लिए ८ दोष, 'पाटिदेसनीय' हैं। ७. भिक्षु के लिए ७५ बातें, भिक्षुणी के लिए ७५ बातें 'सेखिय' हैं। ८. भिक्षु के लिए ७ बातें, भिक्षुणी के लिए ७ बातें अधिकरण-समथ' हैं। दोष की तरतमता के अनुसार प्रायश्चित्तों का स्वरूप मृदु और कठोर है। 'पाराजिक' में भिक्षु सदा के लिए संघ से निकाल दिया जाता है। 'संघादिसेस' में कुछ अवधि के लिए दोषी भिक्षु-संघ से पृथक् कर दिया जाता है। 'अनियत' में संघ विश्वस्त प्रमाण से दोष निर्णय करता है और दोषी को प्रायश्चित्त कराता है। निस्सगिय पाचित्तिय' में दोषी भिक्षु-संघ या भिक्षु-विशेष के समक्ष दोष स्वीकार करता है और उसे छोड़ने को तत्पर होता है। 'पाचित्तिय' में भिक्षु आत्मालोचनपूर्वक प्रायश्चित्त करता है। 'पाटिदेसनीय' में दोषी भिक्षु-संघ के समक्ष दोष स्वीकार करता है और क्षमा-याचना भी करता है। 'सेखिय' में शिक्षा-पद हैं । उन व्यावहारिक शिक्षा-पदों का लंघन भी दोष है। "अधिकरण समथ' में उत्पन्न कलह की शान्ति के आचार बतलाए गए हैं। उनका लंघन करना भी दोष है। दोषी साधु प्रायश्चित्त कैसे करे, इस विषय में दोनों परम्पराओं के अपने-अपने प्रकार हैं। जैन परम्परा के अनुसार प्रायश्चित्त कराने के अधिकारी आचार्य व गुरु हैं । वे बहुश्रुत व गाम्भीर्यादि अनेक गुणों के धारक होने चाहिए। एक साधु का प्रायश्चित्त वे दूसरे साधु को बताने के अधिकारी नहीं होते। व्यवहार सुत्त में बताया गया है-दोषी साधु अपने आचार्य व उपाध्याय के पास शल्य-रहित होकर आलोचना करे । आचार्य या उपाध्याय निकट न हों तो अपने गण के प्रायश्चित्त-वेत्ता साधु के पास वह आलोचना करे। यदि ऐसा भी सम्भव न हो तो अन्य गण के शास्त्रज्ञ साधु के पास वह आलोचना करे। ऐसा भी सम्भव न हो तो किसी बहुश्रुत पार्श्वस्थ के पास वह आलोचना करे। पार्श्वस्थ साधु का तात्पर्य है-जोसाघु का वेष धारण किये रहता है, पर, आचार का यथावत् पालन नहीं करता। ऐसा भी संयोग न हो तो ऐसे श्रावक के पास आलोचना करनी चाहिए, जो पहले साधु-जीवन में रह चुका हो और प्रायश्चित्त विधि का ज्ञाता हो। ऐसा भी संयोग न हो तो किसी समभावी देवता के पास आलोचना करे। यह भी सम्भव न हो वह साधु शून्य अरण्य में चला जाये और पूर्वाभिमुख या उत्तराभिमुख होकर अरिहन्त व सिद्धों को नमस्कार करे, उनकी साक्षी ग्रहण कर तीन बार अपने दोष का उच्चारण और आत्म-निन्दा करता हुआ अपनी धारणा के अनुसार प्रायश्चित्त ग्रहण करे।' १. व्यवहार सुत्त उ० १, बो० ३४ से ३६ । ____ 2010_05 Page #520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड:१ जैन विधि में व्यक्तिपरता और योग्यता को जहाँ प्रधानता दी है, वहाँ बौद्ध, परम्परा में साधु-समुदाय के सामने प्रायश्चित्त ग्रहण का विधान किया गया है। वहाँ प्रायश्चित्त-विधि का व्यवस्थित रूप है : प्रत्येक मास की कृष्ण चतुर्दशी और पूर्णमासी को तत्रस्थ सभी भिक्षु उपोसथागार में एकत्रित होते हैं । बुद्ध ने अपना उत्तराधिकारी संघ को बनाया ; अतः कोई निश्चित आचार्य नहीं होता। किसी प्राज्ञ भिक्षु को सभा के प्रमुख पद पर नियुक्त किया जाता है । तदनन्तर पातिमोक्ख का वाचन होता है। प्रत्येक प्रकरण की पूर्ति में पूछा जाता है-'उपस्थित सभी भिक्षु उक्त बातों में शुद्ध हैं ?' कोई भिक्षु खड़ा होकर तत्सम्बन्धी अपने किसी दोष की आलो. चना करना चाहता है तो संघ उस पर विचार करता है और उसकी शुद्धि कराता है। दूसरी बार फिर पूछा जाता है, 'उपस्थित सभी भिक्षु इन सब बातों में शुद्ध हैं ?' इस प्रकार तीन बार पूछ कर मान लिया जाता है, सब शुद्ध हैं। तदन्तर इसी क्रम से एक-एक कर आगे के प्रकरण पढ़े जाते हैं। इसी प्रकार भिक्षुणियाँ भिक्खुणी पातिमोक्ख का वाचन करती जैन और बौद्ध दोनों परम्पराओं की प्रायश्चित्त-विधियाँ पृथक्-पृथक् प्रकार की हैं, पर, दोनों में ही मनोवैज्ञानिकता अवश्य है। प्रायश्चित्त करने वालों के लिए हृदय की पवित्रता और सरलता दोनों ही विधियों में अपेक्षित मानी गई हैं। आचार-पक्ष जिसीह और विनय पिटक के संविधानों से दोनों ही परम्पराओं की आचार-संहिता भलीभाँति स्पष्ट हो जाती है। दोनों के संयुक्त अध्ययन से ऐसा लगता है, आचार की ये दोनों सरिताएँ कहीं-कहीं एक-दूसरे के बहुत निकट हो जाती हैं तो कहीं एक-दूसरे से बहुत दूर । हिंसा, असत्य, चोरी, मैथुन और परिग्रह ; दोनों ही शास्त्रों में कठोरता से वजित किये गये हैं। इनके न्यूनाधिक सेवन पर प्रायश्चित्त भी न्यूनाधिक रूप से बताया गया है। कुल मिलाकर जिसीह के विधान अहिंसा, सत्य आदि के पालन की सूक्ष्मता तक पहुंचते हैं, विनय पिटक के विधान कुछ अर्थों में बहुत ही स्थूल और व्यावहारिक ही रह जाते हैं। दोनों परम्पराओं की आचार-संहिता में यह मौलिक अन्तर है ही। जैन भिक्षु की अहिंसा पृथ्वी, पानी, वनस्पति, वायु और अग्नि तक भी अनिवार्य होकर पहुँचती है। णिसीह में पृथ्वी, पानी आदि की हिंसा के सम्बन्ध से अनेक मासिक तथा चातुर्मासिक प्रायश्चित्त के विधान मिलते हैं। णिसोह के विधि-विधानों में व्यावहारिक पक्ष गौण और अहिंसा, सत्य आदि सैद्धान्तिक पक्ष प्रमुख हैं। विनय पिटक में सैद्धान्तिक पक्ष में भी अधिक संघ-व्यवस्था-रूप व्यावहारिक-पक्ष प्रमुख है। जैन परम्परा के अनुसार पानी-मात्र जीव है साधु नदी, तालाब, वर्षा, कुएं आदि के पानी का उपयोग नहीं करता। पानी-मात्र शस्त्रोपहत अर्थात् अचित्त (अजीव) होकर ही साधु के लिए व्यवहार्य बनता है । विनय पिटक में अहिंसा की दृष्टि केवल अनछाने पानी तक पहुँची है । वहां जान-बूझ कर प्राणि-युक्त (अनछाने) पानी पीने वाले भिक्षु को 'पाचित्तिय' १. विनय पिटक, निदान। ____ 2010_05 Page #521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा ] आचार-ग्रन्थ और आचार-संहिता दोष बताया गया है । जैन-भिक्षु के लिए स्नान-मात्र वजित है। वह अचित्त पानी से भी सर्व-स्नान और देश-स्नान नहीं करता। विनय पिटक में पन्द्रह दिनों से पूर्व स्नान करने को 'पाचित्तिय' कहा है। उसमें भी ग्रीष्म ऋतु आदि अपवाद रूप हैं। बौद्ध-भिक्षु और भिक्षुणियों के लिए नदी आदि में स्नान करने की भी व्यवस्थित आचार-संहिता है। तात्पर्य, पथ्वी. पानी. वनस्पति आदि के सम्बन्ध से जैनाचार और बौद्धाचार एक दूसरे से अत्यन्त भिन्न रह जाते हैं। वस्त्र के सम्बन्ध से णि । में अपने लिए बनाये गये या खरीदे गये वस्त्र को कोई ग्रहण करे तो उसे 'लघु चतुर्मासिक' प्रायश्चित्त बताया गया है। विनय पिटक की व्यवस्था है-कोई राजा, राजकर्मचारी या गृहस्थ धन देकर अपने दूत को भिक्षु के पास भेजे, वह दूत भिक्षु से आ कर कहे-'भन्ते ! आपके लिए यह चीवर का धन है, आप इसे ग्रहण करें।' तब उस भिक्षु को दूत से कहना चाहिए-'आवुस ! हम चीवर के घन को नहीं लेते, समयानुसार चीवर ही लेते हैं।' वह दूत किसी उपासक को चीवर ला कर देने के लिए वह धन दे दे तो भिक्षु को अधिक-से-अधिक तीन बार उसे चीवर की बात याद दिलानी चाहिए और कहना चाहिए-'उपासक ! मुझे चीवर की आवश्यकता है।' इतने पर भी वह चोवर प्रदान न करे तो अधिक-से-अधिक पुनः तीन बार और उसके पास जा कर उसे याद दिलाने की दृष्टि से खड़ा रहना चाहिए। इतने तक वह उपासक चीवर प्रदान करे तो ठीक; इससे अधिक प्रयत्न कर यदि भिक्षु चीवर को प्राप्त करे तो उसे 'निस्सग्गिय पाचित्तिय' । भिक्षु का कर्त्तव्य है, वह उस अर्थदाता के पास जा कर कहे-'आयुष्यमन् ! तुम्हारा धन मेरे काम का नहीं हुआ। अपने धन को देखो, वह नष्ट न हो जाये।'५ णिसीह का विधान है-कोई साधु आहार, पानी, औषधि आदि रात भर भी संगृहीत रखता है, तो उसे 'गुरु चातुर्मासिक' प्रायश्चित्त । विनय पिटक का विधान हैभिक्षुओं ! घी, मक्खन, तेल, मधु, खांड आदि रोगी भिक्षुओ को सेवन करने योग्य पथ्यभेषज्य को ग्रहण कर अधिक-से-अधिक सप्ताह भर रख कर, भोग कर लेना चाहिए। इसका अतिक्रमण करने पर उसे निस्सग्गिय पाचित्तिय' है। जैन परम्परा में भिक्षु के लिए रात्रि-भोजन वजित है ।८ विनय पिटक के अनुसार जो कोई भिक्षु विकाल (मध्याह्न के बाद) में खाद्यभोजन खाये, उसे 'पाचित्तिय' है।६ विशेष भोज्य पदार्थों को माँग कर लेना जैन परम्परा में निषिद्ध है। विनय पिटक में १. विनय पिटक, भिक्खु पातिमोक्ख, पाचित्तिय ६२ । २. दसवेयालिय, अ० ६, गा० ६१ से ६४ । ३. विनय पिटक, भिक्खु पातिमोक्ख, पाचितिय, ५७ । ४. णिसीह सुत्त, उ०१८, बो० ३५ । ५. विनय पिटक, भिक्खु पातिमोक्ख, निस्सग्गिय पाचित्तिय १० । ६. णिसीह सूत्र, उ० ११, बो० १७६-१८३ । ७. विनय पिटक, भिक्खु पातिमोक्ख, निस्सग्गिय पाचित्तिय २३ । ८. दसवेयालिय, अ०४। ६. विनय पिटक, भिक्खु पातिमोक्ख, पाचित्तिय ३७ । ___ 2010_05 Page #522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६८ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [ खण्ड : १ घी, मक्खन, तेल, दूध, दही आदि विशेष पदार्थों को भिक्षु माँग कर ले तो उसे 'पाचित्तिय' बताया है ।" जैन परम्परा के अनुसार साधु भोजन को भिक्षा-रूप से अपने पात्र में ग्रहण करता है और अपने उपाश्रय में आकर या किसी उपयुक्त एकान्त स्थान में भोजन करता है । बौद्धपरम्परा के अनुसार बौद्ध भिक्षु आमन्त्रण पाकर गृहस्थ के घर भोजन के लिए जाता है । विनय पिटक के 'सेखिय' प्रकरण में भिक्षु भिक्षुणी को गृहस्थ के घर में किस संयत गतिविधि से जाना व बैठना चाहिए, इस विषय में बहुत ही व्यवस्थित शिक्षा विधान है। भोजन करने सम्बन्धी शिक्षा-पद रोचक और सभ्यता सूचक हैं। इस सम्बन्ध में भिक्षुणी की प्रतिज्ञाएं हैं : १. ग्रास को बिना मुँह तक लाये मुख के द्वार को न खोलूंगी । २. भोजन करते समय सारे हाथ को मुँह में न डालूँगी । ३. ग्रास पड़े हुए मुख से बात नहीं करूंगी। ४. ग्रास उछाल-उछाल कर नहीं खाऊँगी । ५. ग्रास को काट-काट कर नहीं खाऊँगी । ६. गाल फुला-फुला कर नहीं खाऊँगी । ७. हाथ झाड़-झाड़ कर नहीं खाऊँगी । ८. जूठन बिखेर- बिखेर कर नहीं खाऊंगी । ६. जीभ चटकार चटकार कर नहीं खाऊँगी । १०. चप-चप कर नहीं खाऊँगी । २ ये प्रतिज्ञाएं भिक्खु पातिमोक्ख में भिक्षुओ के लिए भी हैं । भिक्षुणियों के लिए लहसुन की वर्जना की गई है । 3 दीक्षा-प्रसंग दीक्षा किस वयोमान में दी जा सकती है, इस विषय से दोनों परम्पाओं के विधान बहुत ही भिन्न हैं । जैन परम्परा में जन्म से आठ वर्ष से कुछ अधिक उम्र वाले की दीक्षा का विधान किया गया है ।" इससे पूर्व दीक्षा देने वाले को प्रायश्चित्त कहा है । विनय पिटक का कथन है-- यदि भिक्षु जानते हुए बीस वर्ष से कम उम्र वाले व्यक्ति को उपसम्पन्न ( दीक्षित) करे, तो वह दीक्षित अदीक्षित है ।" महावीर और बुद्ध लगभग एक ही युग व एक ही क्षेत्र में थे। दोनों ही श्रमण संस्कृति की दो धाराओं के नायक थे । दीक्षा वयोमान का यह मौलिक भेद अवश्य ही आश्चर्योत्पादक है । वयस्क दीक्षा और अवयस्क दीक्षा का प्रश्न उस समय भी समाज में रहा होगा । यदि ऐसा ही था तो एक संघ ने उसे मान्यता दी और एक संघ ने उसे मान्यता नहीं दी, इसका क्या कारण ? १. विनय पिटक, भिक्खुणी पातिमोक्ख, पाचित्तिय, ३६ । २. वही, सेखिय ४१-५० । ३. वही, भिक्खुणी पातिमोक्ख, पाचित्तिय १ । ४. व्यवहार सूत्र, उ० १०, बो० २४ । ५. विनय-पिटक भिक्ख पातिमोक्ख, पाचित्तिय ६५ । 2010_05 Page #523 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा आचार-ग्रन्थ और आचार-संहिता ४६६ अल्प वयस्क की दीक्षा का विधान ही महावीर ने किया, यही नहीं, उन्होंने अतिमुक्तक कुमार को अल्पावस्था में दीक्षित भी किया। गणधर गौतम गोचरी करते हुए पोलासपुर नगर में घूम रहे थे। अकस्मात् अतिमुक्तक ने आ कर उनकी अंगुली पकड़ी और कहा--'मेरे यहाँ भिक्षा के लिए चलिए।' बाल-हठ कैसे टलता । गणधर गौतम ने उसके घर जा कर भिक्षा ली। भिक्षा ले कर मुड़े, तो बालक भी उनके साथ-साथ चल पड़ा। मार्ग में अतिमुक्तक ने पूछा-'भन्ते ! आप कहाँ जा रहे हैं ?' गणधर गौतम ने कहा-'परम शान्ति के उद्भावक भगवान् श्री महावीर के पास ।' अतिमुक्तक ने कहा - 'मुझे भी शान्ति चाहिए; मैं भी वहीं जाऊंगा। इस प्रकार वह उद्यान में आया और यथाविधि महावीर के पास दीक्षित हा। उसी अतिमुक्तक भिक्षु ने एक बार प्रमादवश अपने पात्र से नदी में जल-क्रीड़ा की स्थविर मिक्षओं ने उसे डाँटा। महावीर ने उसे प्रायश्चित्त दे कर शुद्ध किया और कहा तक अभी अज्ञ जैसा लगता है, किन्तु, यह इसी जीवन में यथाक्रम कैवल्य व निर्वाण प्राप्त करेगा। महावीर ने यह भी निरूपण किया है कि आठ वर्ष से कुछ अधिक वयोमान बालक उसी वय में कैवल्य और मोक्ष प्राप्त कर सकता है। इससे पूर्व साधुत्व, कैवल्य और मोक्ष ; तीनों ही अप्राप्य हैं। दीक्षा-ग्रहण में माता, पिता आदि की आज्ञा भी आवश्यक होती बौद्ध परम्परा के दीक्षा-सम्बन्धी विधानों का इतिहास और अभिप्राय विनय पिटक में भी मिल जाता है। राजगृह नगर में सतरह बालक परस्पर मित्र थे। उपालि उन सबमें वया था। एक दिन उपालि के माता-पिता सोचने लगे, उपालि को किस मार्ग पर लगाना चाहिए, जिससे हमारी मृत्यु के बाद भी वह सुखी बना रहे। पहले उन्होंने सोचा, यदि लेखा व जाये तो वह सदा सुखी रह सकेगा। फिर उनके मन में आया, लेखा सीखने में तो उसकी अँगुलियाँ दुखेंगी। इस प्रकार अनेक विकल्प सोचे, पर, कोई भी विकल्प निरापद नहीं लगा। अन्त में सोचा. ये शाक्यपत्रीय श्रमण सख ही सख में रहते हैं। ये अच्छा भोजन को अच्छे निवासों में रहते हैं। क्यों न उपालि भिक्षु बन कर इनके साथ रहे ? हम मर भी जायेंगे, तो यह तो सदा सुखी ही रहेगा। उपालि भी एक ओर बैठा इस वार्तालाप को सुन रहा था। वह तत्काल अपनी मित्रमण्डली में गया और बोला-'आओ आर्यो ! हम सब शाक्यपुत्रीय श्रमणों के पास प्रवजित हो, सदा के लिए सुखी हो जायें।' सब सहमत हो गये। अन्त में माता-पिताओं ने भी सबकी समान रुचि देख कर सहर्ष उन्हें दीक्षित होने की आज्ञा दी। वे भिक्षओं के पास आये और दीक्षित हो गये। दिन में वे सुख से रहते। रात को सवेरा होने से पूर्व ही भूख से व्याकुल हो कर वे रोते व कहते-'खिचड़ी दो ! भात दो ! खाना दो !' तब भिक्षु ऐसा कहते थे—'ठहरो आवुसो ! सबेरा होते ही यवागू (पतली खिचड़ी या दलिया) हो तो पीना, भात हो तो खाना, रोटी हो तो भोजन करना। यह सब न हो, तो भिक्षा करके खाना।' इस प्रकार भिक्षु उन्हें समझाते, पर, भूख की क्या दवा ? वे तिलमिलाते और बिस्तरों पर इधर-उधर लुढ़कते। १. भगवती सूत्र, श० ५, उ०४। २. वही, शतक ८, उ० १० । ____ 2010_05 Page #524 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७० आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड १ एक दिन बुद्ध को इस बात का पता लगा। उन्होंने भिक्षुओं को एकत्रित किया और कहा-'भिक्षुओ ! बीस वर्ष से कम उम्र का पुरुष सर्दी-गर्मी, भूख-प्यास, साँप-बिच्छू आदि के कष्टों को सहने में असमर्थ होता है । कठोर दुरागत के वचनों और दुःखमय, तीव्र, खरी, कटु, प्रतिकूल, अप्रिय, प्राण हरने वाली उत्पन्न हुई शारीरिक पीड़ाओं को सहन न करने वाला होता है । भिक्षुओ ! इन्हीं सब कारणों से मैं नियम करता हूँ कि बीस वर्ष से पूर्व किसी व्यक्ति को उपसम्पदा नहीं देनी चाहिये।" तब से भिक्षु बनाने का नियम बीस वर्ष का हो गया। पर, समय-समय पर ऐसे प्रसंग आने लगे कि अन्त में बालकों को भी संघ-सम्बद्ध करने का अन्य मार्ग बुद्ध को निकालना पड़ा। वह था-श्रामणेर बनाना। एक बार घटना-विशेष पर नियम बना दिया गयापन्द्रह वर्ष से कम आयु वाले बच्चे को श्रामणेर नहीं बनाना चाहिए। जो बनाएगा, उसे दुक्कट का दोष होगा। पुन: एक प्रसंग ऐसा आया, जिससे पन्द्रह वर्ष से कम आयु वाले बच्चे को भी श्रामणेर बनाने का विधान करना पड़ा। __आयुष्मान् आनन्द का एक श्रद्धालु परिवार महामारी में मर गया। केवल दो बच्चे बच गये । आनन्द को उनकी अनाथ अवस्था पर दया आई। उसने सारी स्थिति बुद्ध के पास रखी। बुद्ध ने कहा-'आनन्द ! क्या वे बालक कौआ उड़ाने में समर्थ हैं ?' आनन्द ने कहा---'हाँ, भगवन् !' तब बुद्ध ने एकत्रित भिक्षुओं से कहा- भिक्षुओ ! कौआ उड़ाने में समर्थ पन्द्रह वर्ष से कम उम्र के बच्चे को श्रामणेर बनाने की अनुमति देता हूँ।' राहुल को श्रामणेर प्रव्रज्या देने की घटना बहुत ही रोचक है। उसी प्रसंग पर बुद्ध ने नियम बनाया-'भिक्षुओ! माता-पिता की अनुमति के बिना पुत्र को प्रव्रजित नहीं करना चाहिए । जो प्रव्रजित करेगा, उसे दुक्कट का दोष होगा।'५ उक्त प्रकरणों से जैन और बौद्ध, दोनों ही परम्पराओं के दीक्षा-सम्बन्धी अभिमत प्रकट हो जाते हैं। महावीर ने आठ वर्ष से कुछ अधिक की अवस्था वाले बालक को दीक्षित करने का विधान किया है। बुद्ध ने काक उड़ाने में समर्थ बालक को श्रामणेर बनाने का विधान किया है । 'श्रामणेरता' भिक्षत्व की ही एक पूर्वावस्था है। कुल मिला कर यह माना जा सकता है, धर्मावरण में बाल्यावस्था को दोनों ने ही सर्वथां वाधक नहीं माना है। धर्म-संघ में स्त्रियों का स्थान महावीर ने एक साथ चतुर्विध-संघ की स्थापना की। विनय पिटक के अनुसार बौद्ध धर्म-संघ में पहले-पहल भिक्षुणियों का स्थान नहीं था। वह स्थान कैसे बना, इसका विनय पिटक में रोचक वर्णन है ___ एक बार बुद्ध कपिलवस्तु के न्यग्रोधाराम में रह रहे थे। उनकी मौसी प्रजापति गौतमी, उनके पास आई और बोली-भन्ते ! अपने भिक्षु-संघ में स्त्रियों को भी स्थान दें!' १. विनय पिटक, महावग्ग, महास्कन्धक, १-३-६ । २. वही, १-३-७। ३. वही, १-३-८ । ४. विस्तार के लिए देखें; 'भिक्षु संघ और उसका विस्तार' प्रकरण । ५. विनय पिटक, महावग्ग महास्कन्धक, १-३-११ । 2010_05 Page #525 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा] आचार-ग्रन्थ और आचार-संहिता ४७१ बुद्ध ने कहा-'यह मुझे अच्छा नहीं लगता।' गौतमी ने दूसरी बार और तीसरी बार भी अपनी बात दोहराई, पर, उसका परिणाम कुछ नहीं निकला। कुछ दिनों बाद जब बुद्ध वैशाली में विहार कर रहे थे, गौतमी भिक्षुणी का वेष बना कर अनेक शाक्य-स्त्रियों के साथ आराम में पहुँची। आनन्द ने उसका यह स्वरूप देखा। दीक्षा-ग्रहण करने की आतुरता उसके प्रत्येक अवयव से टपक रही थी। आनन्द को दया आई। वह बुद्ध के पास पहुँचा और निवेदन किया- 'भन्ते ! स्त्रियों को भिक्षु-संघ में स्थान दें।' क्रमशः तीन बार कहा, पर, कोई परिणाम नहीं निकला। अन्त में कहा-'यह महाप्रजापति गौतमी है, जिसने मातृ-वियोग में भगवान् को दूध पिलाया है ; अतः इसे अवश्य प्रव्रज्या मिले।' अन्त में बुद्ध ने आनन्द के अनुरोध को माना और कुछ अधिनियमों के साथ उसे स्थान देने की आज्ञा दी। १. विनय पिटक, चुल्लवग्ग, भिक्खुणी स्कन्धक, १०-१-४ । ___ 2010_05 Page #526 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2010_05 Page #527 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2010_05 परिशिष्ट - १ Page #528 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2010_05 Page #529 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिपिटकों में निगण्ठ व निगण्ठ नातपुत्त : मल पालि सिंह सेनापति तेन खो पन समयेन अभिजाता अभिज्ञाता लिच्छवी सन्थागारे सन्निसिन्ना सन्निपतिता अनेकपरियायेन बुद्धस्स वण्णं भासन्ति, धम्मस्स वण्णं भासन्ति, सङ्घस्सं वण्णं भासन्ति ! तेन खो पन समयेन सीहो सेनापति निगण्ठसावको तस्सं परिसायं निसिन्नो होति । अय खो सीहस्स सेनापतिस्स एतदहोसि-"निस्संसयं खो सो भगवा अरहं सम्मासम्बुद्धो भविस्सति तथा हिमे अभिज्ञाता अभिजाता लिच्छवी सन्थागारे सन्निसिन्ना सन्निपतिता अनेकपरियायेन बुद्धस्स वण्णं भासन्ति, धम्मस्स वण्णं भासन्ति, सङ्घस्स वण्णं भासन्ति । यन्नूनाहं तं भगवन्तं दस्सनाय उपसङ्कमेय्यं अरहन्तं सम्मासम्बुद्ध" ति । अथ खी सीहो सेनापति येन निगण्ठो नाटपुत्तो तेनुपसङ्कमि; उपसंकिमित्वा निगण्ठं नाटपुत्तं एतदवोच-"इच्छामहं, भन्ते, समणं गोतमं दस्सनाय उपसमितुं" ति । "किं पन त्वं, सीह, क्रिरियावादो समानो अकिरियवादं समणं गोतमं दस्सनाय उपसंङ्कमिस्ससि ? समणो हि, सीह, गोतमो अकिरियवादो, अकिरियाय धम्म देसेति, तेन च सावके विनेती" ति । अथ खो सीहस्स सेनापतिस्य यो अहोसि गमियाभिसङ्खारो भगवन्तं दस्सनाय, सो पटिप्पस्सम्भि । दुतियं पि खो सम्बहुल अभिज्ञाता अभिजाता लिच्छवी सन्थागारे सन्निसिन्ना सन्निपतिता अनेकपरियायेन बद्धस्स वण्णं भासन्ति. धम्मसस्स वण्णं भासन्ति, सङ्घस्स वण्णं भासन्ति। दूतियं पि खो सीहस्स सेना-पतिस्स एतदहोसि-"निस्संसयं खो सो भगवा अरहं सम्मासम्बुद्धो भविस्सति, तथा हिमे अभिज्ञाता अभिज्ञाता लिच्छवी सन्थागारे सन्निसिन्ना सन्निपतिता अनेकपरियायेन बुद्धस्स वण्णं भासन्ति, धम्मस्स वण्णं भासन्ति, संङ्घस्स वण्णं भासन्ति । यन्नूनाहं तं भगवन्तं दस्सनाय उपसंकमेय्यं अरहन्तं सम्मासम्बुद्ध" ति । अथ खो सीहो सेनापति येन निगण्ठो नाटपत्तो तेनपसंकमि: उपसंकमित्वा निगण्ठं नाटपूत्तं एतदवोच-"इच्छामहं, भन्ते, समणं गोतमं दस्सनाय उपसंकमितुं" ति । ....... 'समणो हि, सीह, गोतमो अकिरियावादो अकिरियाय धम्म देसे ति, तेन च सावके विनेति" ति । दुतियं पि खो सीहस्स सेनापतिस्स यो अहोसि गमियाभि-सङ्खारो भगवन्तं दस्सनाय, सो पटिप्पस्सम्भि। ततियं पि खो. अभिज्ञाता अभिजाता लिच्छवी सन्थागारे सन्निसिन्ना सन्निपतिता अनेकपरियायेन बुद्धस्स वण्णं भासन्ति, धस्मम्म वण्णं भासन्ति, सङ्घस्स वण्णं भासन्ति । ततियं पि खो सीहस्स सेनापतिस्स एतदहोसि .. निस्संसयं खो सो भगवा अरहं सम्मासम्बुद्धो भविस्सति, तथा हिमे'अभिज्ञाता अभिज्ञाता लिच्छवी सन्थागारे सन्निसिन्ना सन्निपतिता अनेकपरियायेन बुद्धस्स वण्णं भासन्ति, धम्मस्स वण्णं भासन्ति. संघस्स वण्णं भासन्ति। कि हिमे 2010_05 Page #530 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७६ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड : १ करिस्सन्ति निगण्ठा अपलोकिता वा अनपलोकिता वा ? यन्नूनाहं अनपलोकेत्वा व निगण्ठे तं भगवन्तं दस्सनाय उपसंकमेय्यं अरहन्तं सम्मासम्बुद्ध" ति । अथ खो सीहो सेनापति पञ्चमत्तेहि रथसतेहि दिवादिवस्स वेसालिया निय्यासि भगवन्तं दस्सनाय । यावतिका यानस्स भूमि, यानेन गन्त्वा याना पच्चोरोहित्वा पत्ति कोव.. येन भगवा तेनुपसंकमित्वा भगवन्तं अभिवादेत्वा एकमन्तं निसीदि । एकमन्तं निसिन्नो खो सीहो सेनापति भगवन्तं एतदवोच-"सुतं मेतं, भन्ते, 'अकिरियावादो समणो गोतमो अकिरियाय धम्म देसेति, तेन च सावके विनेती' तिं । ये ते, भन्ते, एवमाहंसु 'अकिरियवादो समणो गोतमो, अकिरियाय धम्म देसेति, तेन च सावके विनेती' ति, कच्चि, ते, भन्ते, भगवतो वुत्तवादिनो, न च भगवन्तं अभूतेन अब्भाचिक्खन्ति, धम्मस्स च अनुधम्म व्याकरोन्ति, न च कोचि सहधम्मिको वादानुवादो गारय्हं ठानं आगच्छति ? अनब्भक्खातुकामा हि मयं, भन्ते भगवन्तं" ति । 'अत्थि, सीह, परियायो, येन में परियायेन सम्मा वदमानो वदेय्य–'अकिरियवादी समणो गोतमो, अकिरियाय धम्म देसेति, तेन च सावके विनेती' ति । अत्थि, सीह, परियायो, येन मं परियायेन सम्मा वदमानो वदेय्य -'किरियावादो समणो गोतमो किरियाय धम्म देसेति, तेन च सावके विनेती' ति । “अस्थि, सीह, परियायो येन में परियायेन सम्मा वदमानो वदेय्य-'उच्छेवादो समणो गोतमो, उच्छेदाय धम्म देसेति. तेन च सावके विनेती' ति। "अत्थि, सीह, परियायो, येन मं परियायेन सम्मा वदमानी वदेय्य-'जेगुच्छी समणो गोतमो, जेगुच्छिताय धम्म देसेति, तेन च सावके विनेती'ति । "अत्थि, सीह, परियायो, येन मं परियायेन सम्मा वदमानो वदेय्य -'वेनयिको समणो गोतमो, विनियाय धम्म देसेति, तेन च सावके विनेती' ति । "अस्थि, सीह, परियायो, येन म परियायेन सम्मा वदमानो वदेय्य–'तपस्सी समणो गोतमो, तपस्सिताय धम्म देसेति, तेन च सावके विनेती' ति। "अत्थि, सीह, परियायो येन च परियायेन सम्मा वदमानो वदेय्य-'अपगब्भो समणो गोतमो, अपगब्यताय धम्म देसेति, तेन च सावके विनेती' ति। "अत्थि, सीह, परियायो, येन मं परियायेन सम्मा वदमानो वदेय्य-'अस्सत्थो समणो गोतमो, अस्सासाय धम्म देसेति, तेन च सावके विनेती' ति। "कतमो च, सीह, परियायो, येन मं परियायेन सम्मा वदमानो वदेय्य-अकिरियवादो समणो गोतमो, अकिरियाय धम्म देसेति, तेन च सावके विनेती' ति ? अहं हि, सीह, अकिरियं वदामि। कायदुच्चरितस्स वचीदुच्चरितस्स मनोदुच्चरितस्स; अनेकविहितानं... सम्मा वदमानो वदेय्य -- 'अकिरियवादो समणो गोतमो, अकिरियाय धम्म देसेति, तेन च सावके विनेती' ति । ____ "कतमो च, सीह, परियायो, येन मं परियायेन सम्मा वदमानो वदेय्य --'किरियवादो समणो गोतमो,......। ___ कतमो च, सीह, परियायो येन मं परियायेन सम्मा वदमानो वदेय्य - 'उच्छेदवादो, समणो गोतमो,.......। “कतमो च, सीह, परियायो, येन में परियायेन सम्म वदमानो वदेय्य-'जेगुच्छी समणो गोतमो,.......। "कतमो च, सीह, परियायो, येन में परियायेन सम्मा वदमानो वदेय्य-वेनयिको समणो गोतमो,......। ____ 2010_05 www.jainelibrar Page #531 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७७ आचार-ग्रन्थ और आचार-संहिता "कतमो च, सीह, परियायो, येन मं परियायेन सम्मा वदमानो वदेय्य- - तपस्सी समणो इतिहास और परम्परा ] गोतमो, । "कतमो च, सीह, परियायो, येन मं परियायेन सम्मा वदमानो वदेय्य – अपगब्भो समणी गोतमो, 1 "कतमो च, सीह, परियायो, येन मं परियायेन सम्मा वदमानो वदेय्य -- 'अस्सात्सको समणो गोतमो, ।" एवं वृत्त सीहो सेनापति भगवन्तं एतदवोच - "अभिक्कन्तं, भन्ते, पे० उपासकं मं, भगवा धारेतु अज्जतग्गे पाणुपेतं सरणं गतं " ति । "अनुविच्चकारं खो, सीह, करोहि ; अनुविच्चकारो तुम्हादिसानं भातमतुस्सान साधु होती” ति । "इमिनापाहं, भन्ते, भगवतो भिग्योसोमत्ताय अत्तमन्नो अभिरद्धो, यं मं भगवा एवमाह - अनुविच्चकारं खो, सीह, करोहि । अनुविच्चकारो तुम्हा दिसानं जातमनुस्सानं साधु होती' ति । मं हि भन्ते, अञ्ञ्ञतित्थिया सावकं लभित्वा केवलप्पं वेसालि पटाकं परिहरेय्युं – 'सीहो खो अम्हाकं सेनापति सावकत्तं उपगतो' ति । अथ च पन मं भगवा एवमाह - 'अनुविच्चकारं खो, सीह, करोहि । अनुविच्चकारो तुम्हादिसानं जातमनुस्सानं साधु होती' ति । एमाहं, भन्ते, दुतिमं पि भगवन्तं सरणं गच्छामि धम्मं च भिक्खुसङ्घ च । उपासकं मं भगवा धारेतु अज्जतग्गे पाणुपेनं सरणं गतं " ति । "दीघरत्तं खोते, सीह, निगण्ठानं ओपानभूतं कुलं येन नेसं उपगतानं पिण्डकं दातब्ब मय्यासी” ति । "इमिनाहं, भन्ते, भगवतो वचनेन भिय्योसोमत्ताय अत्तमानो अभिरद्धो, यं मं भगवा एवमाह — "दीघरतं खो ते, सीह, निगण्ठानं ओपानभूतं कुलं येन नेसं उपगतानं पिण्डकं दातब्बं मञ्ञेय्यासी' ति । सुतं मेतं, भन्ते, 'समणो गोतमो एवमाह - मय्हमेव दानं दातब्बं, मय्हमेव सावकानं दानं दातब्वं, मरहमेव दिन्नं महष्फलं, न असं दिन्नं महत्फलं ; मरहमेव सावकानं दिन्नं महत्फलं न अङजेसं सावकानं दिन्नं महत्फलं ' ति । अथ च पन मं भगवा नगण्ठेपि दाने समादपेति । अपि च, भन्ते, मयमेत्थ कालं जा निस्साम । एसाहं, भन्ते, ततियं पि भगवन्तं सरणं गच्छामि धम्मं च भिक्खुसङ्घ च । उपासकं मं, भन्ते, भगवा धारेतु अज्जतग्गे पाणुपेतं सरणं गतं " ति । अथ खो भगवा सीहस्स सेनापतिस्स अनुपुब्बि कथं कथेसि सेय्यथीद - दानकथं ...अपरप्पच्चयो सत्युसासने भगवन्तं एतदवोच - " अधिवासेतु मे, भन्ते, भगवा स्वातनाय भत्तं सद्धि भिक्खुसङ्घ ेना" ति । अधिवासेसि भगवा तुम्हीभावेन । अथ खो सीहो सेनापति भगवतो अधिवासनं विदित्वा उट्ठायासना भगवन्तं अभिवादेत्वा पदक्खिणं करवा पक्कामि । अथ खो सीहो सेनापति अत्तरं पुरिसं आणापेसि - "गच्छ, भणे, पवत्तमंसं जानाही" ति । अथ खो सीहो सेनापति तस्सा रतिया अच्चयेन वणीत्तं खादनीयं भोजनीयं पटियादापेत्वा भगवतो कालं आरोचापेसि – “कालो, भन्ते, निट्टितं भत्तं" ति । अथ खो भगवा पुब्बण्हसमयं निवासेत्वा पत्तचीवरमादाय येन सीहस्स सेनापतिस्स निवेसनं तेनुपसङ्कमि, उपसकमित्वा पञ्ञत्ते आसने निसीदि सद्धि भिक्खुसङ्घेन । ... तेन खो पन समयेन सम्बहुला निगण्ठा वेसालियं रथिकाय रथिकं सिङ्घाटकेन सिङ्घाटकं बाहा पर यह कन्दन्ति - "अज्ज सीहेन सेनापतिना थूलं पसु वधित्वा समणस्स गोतमस्स भत्तं तं । तं समणो गोतमो जानं उद्दिस्तकतं मंसं परिभुञ्जति पटिकम्मं " ति । अथ खो अञ्जतरो पुरिसो येन सीहो सेनापति तेनुपसङ्कमि, उपसङ्कमित्वा सीहस्स सेनापतिस्स उपकण्णके आरोचेसि - यग्धे भन्ते, जानेय्पासि ! एते सम्बहुला निगण्ठा वेसालियं रथिकाय 2010_05 Page #532 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७८ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड : १ रथिक सिङ्घाटकेन सिङ्घाटकं बाहा पग्गय्ह कन्दन्ति-'अज्ज साहेन सेनापतिना थूलं पसुं वधित्वा समणस्स गोतमस्स भत्तं कतं। तं समणो गोतमो जानं उद्दिस्स कतं मंसं परिभुञ्जति पटिच्चकम्म" ति । अलं अय्यो, दोघरत्तं पि ते आयस्मन्तो अवण्ण कामा बुद्धस्स, अवण्णकामा धम्मस्स, अवण्णकामा संघस्स । न च पन ते आयस्मन्तने जिरिदन्ति तं भगवन्तं असता तुच्छा मुसा अभूतेन अब्भाचिविखन्तं ; न च भयं जीवितहेतु पि सञ्चिच्च पाणं जीविता वोरोपेथ्यामा" ति । अथ खो सीहो सेनापति नुद्धप्पमुखं भिक्खुसचं पणीतेन खादनीयेन भोजनीयेन सहत्था..'सन्तप्पेत्वा सम्पवारेत्वा-भगवन्तं भुत्तावि ओनीतपत्तपाणि एकमन्तं निसीदि । एकमन्तं निसिन्नं खो सीहं सेनापति भगवा धम्मिया कथाय सन्दस्सेत्वा समानपेत्वा समुत्तेजेत्वा सम्पहंसेत्वा उट्ठायासना पक्कामि ति। अथ खो भगवा एतस्मि निदाने एतस्मि पकरणे धम्मि कथं कत्वा भिक्खू आमन्तेसि-"न, भिक्खवे, जानं उदिस्सकतं मंसं परिभूञ्जितब्बं । यो परिभुजेय्य आपत्ति दुक्कटस्स । अनुजानामि, भिक्खवे, तिकोटिपरिसुद्धं मच्छमसं-अदिट्ठ असुत्तं अपरिसंकितं" ति ।' एक समयं भगवा वेसालियं विहरति महावने कूटागारसालायं। तेन खो पन समयेन सम्बहुला अभिज्ञाता अभिजाता लिच्छवी०........ । एकमन्त निसिन्नं खो सीहं सेनापति भगवा धम्मिया कथाय सन्दरसेत्वा समादपेत्वा सम्पहंसेत्वा समुत्तेजेत्वा उट्ठायासना पक्कामी ति । गृहपति उपालि एवं मे सुतं । एक समयं भगवा नालन्दाय विहरति पावारिकम्बवने । तेन खोपन समयेन निगण्ठो नातपुत्तो नालन्दायं पटिवसति महतिया निगण्ठपरिसाय सद्धि । अथ खो दीघतपस्सी निगण्ठो नालन्दाय पिण्डाय चरित्वा पच्छाभत्तं पिण्डपातपटिक्कन्तो येन पावा रिकम्बवनं येन भगवा तेनुपसङ्कति ; उपसङ्कमित्वा भगवता सद्धि सम्मोदि । सम्मोदनीयं कथं सारणीयं वीतिसारेत्वा एकमन्तं अट्टासि । एकमन्तं ठितं खो दीघतपस्सि निगण्ठं भगवा एतदवोच – “संविज्जन्ति खो, तपस्सी, आसनानि; सचे आकसि निसीदा" ति। एवं वुत्त दीघतपस्सी निगण्ठो अञ्जतरं नीचं आसनं गहेत्वा एकमन्तं निसीदि। एकमन्तं निसिन्नं खो दीघतपस्सि निगण्ठं भगवा एतदवोच-"कति पन, तपस्सि, निगण्ठो नातपुत्तो कम्मानि पभ्ञापेति पापस्स कम्मस्स किरियाय पापस्स कम्मस्स पवत्तिया" ति ? "न खो, आवसो गोतम, आचिण्णं निगण्ठस्स नातपुत्तस्स 'कम्म, कम्म' ति पचपेतुं; 'दण्डं, दन्डं' ति खो, आवुसो गोतम, आचिण्णं निगण्ठस्स नातपुत्तस्स पापेतुं" ति । १. विनय पिटक, महावग्ग पालि, ६-१६ ; ३१-३५, पृ० २४८ से २५२ । २. सुत्तपिटके, अंगुत्तरनिकाय पालि, अट्ठकनिपात, महावग्गो, सीहसुत्तं, ८-२-२, पृ० २६३ से ३००। ____ 2010_05 Page #533 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा ] त्रिपिटकों में निगण्ठ व निगण्ठ नातपुत्त : मूल पालि ४७९ "कति पन, तपस्सि, निगण्ठो नातपुत्तो दण्डानि पञआपेति पापस्स कम्मस्स किरियाय पापस्स कम्मस्स पवत्तिया" ति ? "तीणि खो, मावसो गोतम, निगण्ठो नातपुत्तो दण्डानि पञआपेति पापस्स कम्मस्स किरियाय पापस्स कम्मस्स पवत्तिया ति, सेय्यथीदं-कायदण्ड, वचीदण्डं, मनोदण्डं" ति। "कि पन, तपस्सि, अझदेव कायदण्डं, अशं वचीदण्डं, अझं मनोदण्ड" ति ? ''अञदेव, आवुसो गोतम, कायदण्डं, अञ्झं वचीदण्डं, अनं मनोदण्डं" ति । "इमेसं पन, तपस्सि, तिण्णं दण्डानं एवं पटिविभत्तानं एवं पटिविसिट्टानं कतमं दण्डं निगण्ठो नातपुत्तो महासावज्जतरं पञआपेति पापस्स... पवत्तिया, यदि वा कायदण्ड,यदि वा वचीदण्डं, यदि वा मनीदण्डं" ति? "इमेसं खो, आवुसो गोतम, तिण्णं दण्डानं एवं पटिविभत्तानं एवं पटिविसिट्टानं कायदण्डं निगण्ठो..."पवत्तिया, नो तथा वचीदण्डं, नो तथा मनोदण्ड" ति। "कायदण्डं ति, तपस्सि, वदेसि" ? "कायदण्डं ति, आवुसो गोतम, वदामि। "कायदण्डं ति, तपस्सि, वदेसि" ? "कायदण्डं ति, आवुसो गोतम, वदामि"। "कायदण्डं ति, तपस्सि, वदेसि" ? "कायदण्डं ति, आवुसो गोतम, वदामी" ति। इतिह भगवा दीघतपस्सि निगण्ठं इमस्मि कथावत्थुस्मि यावततियकं पतिट्टापेसि । एवं वुत्त, दीघतपस्सी निगण्ठो भगवन्तं एतदवोच-त्वं पनावुसो गोतम, कति दण्डानि पञापेसि पापस्स... पवत्तिया" ति ? "न खो, तपस्सि, आचिण्णं तथागतस्स 'दण्डं, दण्डं' ति पञापेतुं ; कम्म, कम्म' ति खो, तपस्सि, आचिण्णं तथागतस्स पञ्झातेतुं' ति? "त्वं पनासो गोतम, कति कम्मानि पञपेसि पापस्स... पवत्तिया" ति ? "तीणि खो अहं, तपस्सि, कम्मानि पञपेमि पापस्स..."पवत्तिया, सेय्यथीदकायकम्मं वचीकस्म, मनोकम्म" ति । "किं पनावुसो गोतम, अझदेव कायकम्मं, अञ्ज वचीकम्म, अखं मनोकम्म" ति? * "अञदेव, तपस्सि, कायकम्म, अञ वचीकम्मं, अञ मनोकम्म" ति। "इमेसं पनावुसो गोतम, तिण्णं कम्मान एवं पटिविभत्तानं एवं पटिविसिट्टानं कतमं कम्मं महासावज्जतरं पञपेसि पावस्स... पवत्तिया, यदि वा कायकम्म, यदि वा वचीकम्म, यदि वा मनोकम्म" ति ? "इमेसं खो यहं, तपस्सि तिण्णं कम्मानं एवं पटिविभत्तानं एवं पटिविसिट्टानं मनोकम्मं महासावज्जतरं पञपेमि पापस्स... पवत्तिया, नो तथा कायकम्म, नो तथा वची कम्म" ति। "मनोकम्मं ति, आवुसो गोतम, वदेसि" ? "मनोकम्मं ति, तपस्सि वदामि"। "मनोकम्मं ति, आवुसो गोतम, वदेसि" ? ____ 2010_05 Page #534 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८० आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [ खण्ड : १ "मनोकम्मं ति, तपस्सि, वदामि।" "मनोकम्म ति, आवुसो गोतम, वदेसि" ? "मनोकम्मं ति, तपस्सि, वदामो" ति। इतिह दीघतपस्सी निगण्ठी भगवन्तं इमस्मि कथावत्थुस्मि यावततियकं पतिद्वापेत्वा उठायासना येन निगण्ठो नातपुत्तो तेनुपसङ्कमि । तेन खो पन समयेन निगण्ठो नातपुत्तो महतिया गिहिपरिसाय सद्धि निसिन्नो होति बालकिनिया परिसाय उपालिपमुखाय । अद्दसा खो निगण्ठो नातपुत्तो दीघतपस्सि निगण्ठं दूरतो व आगच्छन्तं ; दिस्वान दीघतपस्सि निगण्ठं एतदवोच-"हन्द, कुतो नु त्वं, तपस्सि, बागच्छसि दिवा दिवस्सा" ति? "इतो हि खो अहं, भन्ते, आगच्छामि समणस्स गोतमस्स सन्तिका" ति । "अहु पन ते, तपस्सि, समणेन गोतमेन सद्धि कोचिदेव कथासल्लापो'' ति ? 'अहु खो मे, भन्ते, समणेन गोतमेन सद्धि कोचिदेव कथासल्लापो' ति। “यथा कथं पन ते, तपस्सि, अहु समणेन गोतमेन सद्धि कोचिदेव कथासल्लापो" ति ? अथ खो दीघतपस्सी निगण्ठो यावतका अहोसि भगवता सद्धि कथासल्लापो तं सब्ब निगण्ठस्स नातपुत्तस्स आरोचेसि। ऐवं वुत्ते, निगण्ठो नातपुत्तो दीघतपस्सि निगण्ठं एतदवोच-“साधु साधु, तपस्सि ! यथा तं सुतवता सावकेन सम्मदेव सत्थुसासनं आजानन्तेन एवमेवं दीघतपस्सिना निगण्ठेन समणरस गोतमस्स व्याकतं । किं हि सोमति छवो मनोदण्डो इमस्स एवं ओलारिकस्स कायदण्डस्स उपनिधाय ! अथ खो कायदण्डो व महासावज्जतरो पापस्स कम्मस्स किरियाय पापस्स कम्मस्स पवत्तिया, नो तथा वचीदण्डो, नो तथा मनोदण्डो" ति। ____ एवं वुत्ते, उपालि गहपति निगण्ठं नातपुत्तं एतदवोच-साधु, साधु, भन्ते दीघतपस्सि ! यथा० . . 'तथा मनोदण्डो। हन्द चाहं, भन्ते, गच्छामि समणस्स गोतमस्स इमं पि कथावत्थुस्मि वादं आरोपेस्सामि। सचे मे समणो गोतमो तथा पतिट्टहिस्सति यथा भदन्तेन तपस्सिनां पतिट्ठापितं ; सेय्यथापि नाम बलवा पुरिसो दीघलोमिक एलकालोमेसु गहेत्वा आकड्ढेय्य परिकड्ढेय सम्परिकड्ढय्य, ऐवमेव्राहं समणं गोतमं वादेन वादं आकढिस्सामि परिकड्ढस्सामि सम्परिकड्ढिस्सामि । सेय्यथापि नाम बलवा सोण्डिकाकम्मकारो महन्तं सोण्डिकाकिलज गम्भीरे उदकरदहे पक्खिपित्वा कण्णे गहेत्वा आकड्ढेय्य परिकड्ढेय्य सम्परिकड्ढेय्य, एवमेवाहं समणं गोतमं वादेन वादं आकडिढ्स्सामि परिकढिस्सामि सम्मरिकड्ढिस्सामि । सेय्यथापि नाम बलवा सोण्डिकाधुत्तो वालं कण्णे गहेत्वा ओधुनेय्य निद्धनेय्य निप्फोटेय्य, एवमेवाह समणं गोतमं वादेन वादं ओधुनिस्सामि निद्धनिस्सामि निप्फोटेस्सामि। सेय्यथापि नाम कुञ्जरो सट्ठिहायनो गम्भीरं पोक्खरणिं ओगाहेत्वा साणधीविकं नाम कीलितजातं कीलति, एवमेवाहं समणं गोतमं साणधोविक मजे कीलितजातं कीलिस्सामि । हन्द चाह, भन्ते, गच्छामि समणस्स गोतमस्स इमस्मि कथावत्थुस्मि वादं आरोपेस्सामी" ति। "गच्छ त्वं गहपति, समणस्स गोतमस्स इमस्मि कथावत्थुस्मि वादं आरोपेहि । अहं वा हि, गहपति, समणस्स, गोतमस्स वादं आरोपेय्य, दीघतपस्सी वा निगण्ठो, त्वं वा" ति । एवं वुत्ते, दीघतपस्सी निगण्ठो निगण्ठं नातपुत्तं एतदवोच-"न खो मेतं, भन्ते, 2010_05 Page #535 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा] त्रिपिटकों में निगण्ठ व निगण्ठ नातपुत्त : मूल पालि ४८१ रुच्चत्ति यं उपालि गहपति समणस्स गोतमस्स वादं आरोपेय्य। समणो हि, भन्ते, गोतमो मायावी आवट्टनि मायं जानाति याय अझ तिथियानं सावके आवटेती" ति। "अट्ठानं खो एतं, तपस्सि, अनवकासो यं उपालि गहपति समणस्स गोतमस्स सावकत्तं उपगच्छेय्य। ठानं च खो एतं विज्जति यं समणो गोतमो उपालिस्स गहपतिस्स सावकत्तं उपगच्छेय्य । गच्छ, त्वं, गहपति, समणस्स गोतमस्स इमस्मि कथावत्थुस्मि वादं आरोपेहि । अहं वा हि, गहपति, समणस्स गोतमस्स वादं आरोपेय्यं, दीघतपस्सी वा निगण्ठो, त्वं वा" ति। दुतियं पि खो दीघतपस्सी...पे... ततियं पि खो दीघतपस्सी निगण्ठो निगण्ठं नातपुत्तं एतदवोच-'न खो मेतं, भन्ते, रुच्चति यं उपालि गहपति समणस्स गोतमस्स वादं आरोपेय्य । समणो हि, भन्ते, गोतमो मायावी आवट्ठनिं मायं जानाति अतिथियानं सावके आवटेती" ति। "अठानं खो एतं, तपस्सि , ..."त्वं, वा” ति । "एवं, भन्ते'' ति खो उपालि गहपति निगण्ठस्स नातपुत्तस्स पटिस्सुत्वा उट्ठायासना निगण्ठं नातपुतं अभिवादेत्वा पदविखणं कत्वा येन पावारिकम्बवनं येन भगवा तेनुपसङ्कमि ; उपसंकमित्वा भगवन्तं अभिवादेत्वा एकमन्तं निसीदि । एकमन्तं निसिन्नो खो उपालि गहपति भगवन्तं एतदवोच-'आगमा नु रिव्वध, भन्ते, दीघतपस्सी निगण्ठो' ति ? “आगमा रिव्वध, गहपति, दीघतपस्सी निगण्ठो” ति । "अहु खो पन ते, भन्ते दीघतपस्सिना निगण्ठेन सद्धि कोचिदेव कथासल्लापो" ति। "अहु खो मे, पहपति, दीघतपस्सिना०.""कथासल्लापो" ति । "यथा कथं पन ते, भन्ते, अहु, दीघतपस्सिना... कथासल्लापो" ति । अथ खो भगवा यावतको अहोसि दीघतपस्सिना निगण्ठेन सद्धि कथासल्लापो तं सब्बं उपालिस्स गहपतिस्स आरोचेसि । एवं वुत्ते, उपालि गहपति भगवन्तं एतदवोच-."साधु, साधु, भन्ते तपस्सी ! यथा... मनोदण्डो" ति । "सचे खो त्वं, गहपति, सच्चे पतिद्वाय मन्तेय्यासि सिया नो एत्थ कथासल्लापो" ति। "सच्चे अहं, भन्ते, पतिट्ठाय मन्तेस्सामि; होतु नो एत्थ कथासल्लापो" ति। "तं किं मनसि, गहपति, इधस्स निगण्ठ आबोधिको दुक्खितो बाल्ह गिलानो सीतोदकपाटक्खित्तो उण्होदकपटिसेवी । सो सीतोदकं अलभमानो कालकरेय्य । इमस्स पन, गहपति, निगण्ठो नातपुत्तो कत्थुपपत्ति पञआपेती" ति ? अत्थि, भन्ते, मदोसत्ता नाम देवा तत्थ सो उपपज्जति । "तं किस्स हेतु' ? असु हि, भन्ते, मनोपटिबद्धो कालङ्करोति" ति। __ "मनसि करोहि, गहपति, मनसि करित्वा खो, गहपति, ब्याकरोहि। न खो ते सन्धियति पुरिमेन वा पच्छिमं, पच्छिमेन वा पुरिमं । भासिता खो पन ते, गहपति, ऐसा वाचा"सच्चे अहं, भन्ते, पतिट्ठाय मन्तेस्सामि, होतु नो एत्थ कथासल्लापो" ति। ___“किञ्चापि, भन्ते, भगवा एवमाह, अथ खो कायदण्डो व महासावज्जतरो पापस्स कम्मस्स किरियाय पापस्स कम्मस्स पवत्तिया नो तथा वचोदण्डो, नो तथा मनोदण्डो" ति। ____ 2010_05 Page #536 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८२ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड : १ "तं किं मासि, गहपति, इधस्स निगण्ठ नातपुत्तो चातुयामसंवरसंवुतो सब्बवारिवारितो सब्बतारियुतो सब्बवारिधुतो सब्बवारिफुटो। सो अभिक्कमन्तो पटिक्कमन्तो बहु खुद्दके पाणे सङ्घातं आपादेति । इमस्स पन, गहपति, निगण्ठो नातपुत्तो कं विपाकं पञपेति" ति ? "असञ्चेतनिक, भन्ते, निगण्ठ नातपुत्तो नो महासावज्जं पापेती" ति । "सचे पन, गहपति, चेतेती" ति ? "महासावज्ज, भन्ते, होती" ति। "चेतनं पन, गहपति निगण्ठो नातपुत्तो किस्मि पञआपेती" ति ? "मनोदण्डस्मि, भन्ते" ति । "मनसि करोहि, गहपति,........ कथासल्लापो" ति । "किञ्चापि. भन्ते,.......मनोदण्डो" ति । "तं कि मसि , गहपति, अयं नालन्दा इद्धा चेव फीता च बहुजना आकिण्णमनुस्सा " ति ? "एवं भन्ते, अयं नालन्दा इद्धा चेव फीता च बहुजना आकिण्णमनुस्सा" ति। "तं कि मञ्जसि, गहपति, इध पुरिसो आगच्छेय्य उक्खित्तासिको। सो एवं वदेय्य'अहं यावतिका इमिस्सा नालन्दाय पाणा ते एकेन खणेन एकेन मुहुत्तेन एक मंसखवलं एक मंसपुजं करिस्समी' ति। तं किं मञ सि, गहपति पहोसि नु खो सो पुरिसो यावतिका इमिस्सा नालन्दाय पाणा ते एकेन खणेन एकेन मुहुत्तेन एक मंसखलं एक मंसपुजं कातुं" ति ? 'दस पि, भन्ते, पुरिसा, वीसं पि, भन्ते, पुरिसा, तिसं पि' भन्ते, पुरिसा, चत्तारीसं पि, भन्ते, पुरिसा, पञ्जासं पि, भन्ते, पुरिसा, नप्पहोन्ति यावतिका इमिस्सा नालन्दाय पाणा ते एकेन खणेन एकेन मुहुत्तेन एक मंसखलं एक मंसपुजं कातुं । किं हि सोमति एको छवो पुरिसो" ति ? "तं कि मञ सि, गहपति, इध आगच्छेय्य समणो वा ब्राह्मणो वा इद्धिमा चेतोवसिप्पत्तो। सो एवं वदेय्य- 'अहं इमं नालन्दं एकेन मनोषदेसेन भस्मं करिस्सामी' ति । तं कि मसि, गहपति, पहोति नु खो सो समणो वा ब्राह्मणो वा इद्धिमा चेतोवेसिप्पत्तो इमं नालन्दं एकेन मनीपदोसेन भस्म कातुं" ति ? "दस पि, भन्ते, नालन्दा, वीसं पि नालन्दा, तिसं पि नालन्दा,, चत्तारीसं पि नालन्दा, पासं पि नालन्दा पहोति सो समणो वा ब्राह्मणो वा इद्धिमा चेतोवसिप्पत्तो एकेन मनोपदोसेन भस्म कातुं । किं हि सोभति एकाछवा नालन्दा" ति। "मनसि करोहि, गहपति,... कथासल्लापो'' ति। "किञ्चापि, भन्ते,... मनोदण्डो' ति । "तं कि मञ सि. गहपति, सुतं ते दण्डकारनं कालिङ्गरडं मेज्झारखं मातङ्गरञ्ज अरझं अरशंभूतं' ति ? "एवं, भन्ते, सुदं मे दण्डकारनं... अरञ्जभूतं" ति। "तं कि मसि , गहपति, किन्ति ते सुतं केन तं दण्डकारनं... अरअंभूतं" ति ? "सुतं मेतं, भन्ते, इसीनं मनोपदोसेन तं दण्डकारखं... अरञभूतं" ति। "मनसि करोहि, गहपति,... कथासल्लापो" ति । 2010_05 Page #537 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा] त्रिपिटकों में निगण्ठ व निगण्ठ नातपुत्त : मूल पालि ४८३ "पुरिमेनेवाह, भन्ते, ओपम्मेन भगवतो अत्तमनो अभिरद्धो। अपि चाहं इमानि भगवतो विचित्रानि पहपटिमानानि सोतुकामो एवाहं भगवन्तं पच्चनीकं कातब्बं अमडिस्सं । अभिक्कन्तं, भन्ते, अभिक्कन्तं, मन्ते ! सेय्यथापि, भन्ते, निक्कुज्जितं वा उक्कुज्जेय्य, पटिच्छन्नं वा विवरेय्य, मूल्हस्स वा मग्गं आचिक्खेय्य, अन्धकारे या तेलपल्जोतं धारेय्यचलमुन्तो रूपानि दक्खन्ती ति एवमेवं भगवता अनेकपरियायेन धम्मो पकासितों। एसाहं भन्ते, भगवन्तं सरणं गच्छामि धम्म चभिक्खुसङ्घ च। उपासकं मं भगवा धारेतु अज्जतग्गे पाणुपेतं सरणं गत" ति । __“अनुविच्चकारं खो, गहपति, करोहि, अनुविच्चकारो तुम्हादिसानं जातमनुस्सानं साधु होति" ति। " इमिनापाहं, भन्ते, भगवतो भिय्योसो मत्ताय अत्तमनो अमिरद्धो यं मं भगवा एवमाह-'अनुविच्चकारं खो, गहपति, करोहि, अनुविच्च कारो तुम्हादिसानं जातमनुस्सानं साधु होति' ति। मं हि, भन्ते, अन तित्थिया सावकं लभित्वा केवलकप्पं नालन्दं पटाकं परिहरेय्यु –'उपालि अम्हाकं गहपति सावकत्तं उपगतो' ति । अथ च पन में भगवा एवमाह-'अनुविच्चकारं खो,..."होती' ति। एसाह, भन्ते, दुतियं पि भगवन्तं सरणं गच्छामि धम्मं च भिक्खुसङ्घ च । उपासकं मं भगवा धारेतु अञ्जतग्गे पाणुपेतं सरणं गतं" ति । "दीघरत्तं खो ते, गहपति, निगण्ठानं ओपानभूतं कुलं येन नेसं उपगतानं पिण्डकं दातब्बं मञय्यास्सी" ति । "इमिनापाहं, भन्ते०,.. एसाह, भन्ते, ततियं पि..."सरणं गतं' ति। अथ खो भगवा उपालिस्स गहपतिस्स अनुपुब्बि कथं कथेसि, सेय्यथीद-दानकथं सीलकथं सग्गकथं कामानं आदीनवं ओकारं सङ्किलेसं, नेक्खम्मे आनिसंसं पकासेसि । यदा भगवा अञआसि उपालि गहपति कल्लचितं मुद्रचित्तं विनीवरणचित्तं. उदग्गचित्तं. पसन्नचित्तं. अथ या बुद्धानं सामुक्कंसिका धम्मदेसना तं पकासेसि--दुक्खं, समुदयं, निरोधं, मग्गं । सेय्यथापि नाम सुद्धं वत्थं अपगतकालकं सम्मदेव रजनं पटिग्गण्हेय्य एवमेव, उपालिस्स गहपतिस्स तस्मि एव आसने विरजं वीतमलं धम्मचक्खं उदपादि-यं किञ्चि समुदयधम्म सब्बं तं निरोधधम्म' ति । अथ खो उपालि गहपति दिदुधम्मो पत्तधम्मो विदितधम्मो परियोगाल्हधम्मो तिण्णविचिकिच्छो विगतकथऋथो वेसारज्जप्पत्तो अपरप्पच्चयो सत्थुसासने भगवन्तं एतदवोच- "हन्द च दानि मयं, भन्ते, गच्छाम, बहुकिच्चा मयं बहुकरणीया" ति। "यस्सदानि त्वं, गहपति, कालं मजसी" ति । अथ खो उपालि गहपति भगवतो भासितं अभिनन्दित्वा अनुमोदित्वा उट्ठायासना भगवन्तं अभिवादेत्वा पदक्खिणं कत्वा येन सकं निवेसनं तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा दोवारिक आमन्तेसि-"अज्जतग्गे, सम्म, दोवारिक, आवरामि द्वारं निगण्ठानं निगण्ठीनं, अनावटं द्वारं भगवतो भिक्खून भिक्खूनीनं उपासकानं उपासिकानं । सचे कोचि निगण्ठो आगच्छति तमेनं त्वं एवं वदेय्यासि–'तिट्ठ, भन्ते, मा पाविसि । अज्जतग्गे उपालि गहपति समणस्स गोतमस्स सावकत्तं उपगतो। आवटं द्वारं निगण्ठानं निगण्ठीनं, अनावटं द्वारं भगवतो भिक्खूनं भिक्खूनीनं उपासकानं उपासिकानं । सचे ते, भन्ते, पिण्डकेन अत्थो, एत्थेव तिठ्ठ, एत्येव ते आहरिस्सन्ती", ति । ____ 2010_05 Page #538 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [ खण्ड : १ "एवं, भन्ते" ति खो दोवारिको उपालिस्स गहपतिस्स पच्चस्सोसि । अस्सोसि खो दीघतपस्सी निगण्ठो- "उपालि किर गहपति समणस्स गोतमस्स सावकत्तं उपगतो" ति । अथ खो दीघतपस्सी निगण्ठो येन निगष्ठो नातपुत्तो तेनुपसङ्कमि ; उपसङ्कमित्वा निगण्ठं नातपुत्तं एतदवोच - सुतं मेतं, भन्ते, उपालि किर गहपति समणस्स गोतमस्स सावकत्तं उपगतो" ति । ४८४ "अट्ठानं खो एवं तपस्सि, अनवकासो यं उपालि गहपति समणस्स गोतमस्सुसावकत्तं उपगच्छेय्य । ठानं च खो एतं विज्जति यं समणो गोतमो उपालिस गहपतिस्स सावकत्तं उपगच्छेय्या" ति । दुतियं पि खो दीघतपस्सी निगण्ठो निगण्ठं नातपुत्तं एतदवोच --- सुत्तं मेतं, भन्ते, ति । पे० ततीयं पि खो दीघतपस्सी निगण्ठो उपालिस गहपतिस्स सावऋत्तं उपगच्छेय्या .. "हन्दाहं, भन्ते, गच्छामि याव जानामि यदि वा उपालि गहपति समणस्स गोतमस्स सावकत्तं उपगतो यदि वा नो" ति । " गच्छ त्वं, तपस्सि, जानाहि यदि वा० नो” ति । rr at दीघतपस्सी निगण्ठो येन उपास्सि गहपतिस्स निवेसनं तेनुपसङ्कमि । असा खो दोवारिको दीघतपस्सि निगण्ठं दूरतो व आगच्छन्तं । दिस्वान दीघतपस्सि निगण्ठं एतदवोच - "ति, भन्ते मा पाविसि । अज्जतग्गे उपालि० आहारिस्सन्ती” ति । "न मे आवुसो, पिण्डकेन अत्थो" ति वत्वा ततो पटिनिवत्तित्वा येन निगण्ठो नातपुत्तो तेनुपसङ्कमि ; उपसङ्कमित्वा निगण्ठं नातपुत्तं एतदवोच - "सच्चं एव खो, भन्ते, यं उपालि गहपति समणस्स गोतमस्स सावकत्तं उपगतो। एतं खो ते अहं, भन्ते, नालत्थं न खो मे, भन्ते रुच्चति यं उपालि गहपति समणस्स गोतमस्स वादं आरोपेय्य । समणो हि, भन्ते, गोतमो मायावी आवट्टनि मायं जानाति याय अञ्ञतित्थियानं सावके आवट्टेतीति । आवट्टो खोते, भन्ते, उपालि गहपति समणेन गोतमेन आवट्टनिया मायाया" ति । "अट्टानं खो एतं, तपस्सि०, उपगच्छेय्या ति । हन्द चाहं, तपस्सि, गच्छामि याव चाहं सामं येव जानामि यदि वा उपालि गहपति समणस्य गोतमस्स सावकत्तं उपगतो यदि वा नोति । अथ खो निगण्ठो नातपुत्तो महतिया निगण्ठपरिसाय सद्धि येन उपालिस गहपतिस्स निवेसनं तेनुपमङ्कमि । असा खो दोवारिको निगण्ठं नातपुत्तं दूरतो व आगच्छन्तं । दिस्वान निगण्ठं नातपुत्तं एतदवोच— "तिट्ट, भन्ते, मा पाविसि । अज्जतग्गे उपालि०... आहरिस्सन्ती" ति । " तेन हि सम्म दोवारिक येन उपालि गहपति तेनुपसङ्कम; उपसङ्कमित्वा उपालि गहपति एवं वदेहि — निगण्ठो, भन्ते, नातपुत्तो महतिया निगण्ठपरिसाय सद्धि बहिद्वारकोट्ठके ठितो; सो ते दस्सनकामो", ति । 2010_05 "एवं, भन्ते" ति खो दोवारिको निगण्ठस्स नातपुत्तस्स पटिस्सुत्वा येन उपालि गहपति तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा उपालि गहपति एतदवोच – “निगण्ठो, भन्तें, नातपुत्ती ० "दस्सनकामो" ति । तेन हि सम्म दोवारिक, मज्झिमाय द्वारसालाय आसनानि पञ्ञापेही" ति । Page #539 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा] त्रिपिटकों में निगण्ठ व निगण्ठ नातपुत्त : मल पालि ४८५ - “एवं, भन्ते" ति खो दोवारिको उपालिस्स गहपतिस्स पटिस्सुत्वा मज्झिमाय द्वारसालाय आसनानि पञापेत्वा येन उपालि गहपति तेनुपसङ्कमि ; उपसङ्कमित्वा उपालि गहपति एतदवोच-"पअत्तनि खो, भन्ते, मज्झिमाय द्वारसालाय आसनानि । यस्सदानि कालं मसी" ति। अथ खो उपालि गहपति येन मज्झिमा द्वारसाला तेनुपसङ्कमि ; उपसङ्कमित्वा यं तत्थ आसनं अग्गं च सेट्ठच उत्तमं च पणीतं च तत्थ सामं निसीदित्वा दोवारिकं आमन्तेसि"तेन हि, सम्म दोवारिक, येन निगण्ठो नातपुत्तो तेनुपसङ्कमि ; उपसङ्कमित्वा निगण्ठं नातपुत्तं एवं वदेहि-'उपालि, भन्ते, गहपति एवमाह-पविस किर, भन्ते, सचे आकङ्खसी," ति। "एवं, भन्ते" ति खो दोवारिको उपालिस्स गहपतिस्स पटिस्सुत्वा येन निगण्ठो नातपुत्तो... आकलसी" ति । अथ खो निगण्ठो नातपुत्तो महतिया निगण्ठपरिसाय सद्धि येन मज्झिमा द्वारसाला तेनुपसङ्कमि । अथ खो उपालि गहपति-यं सुदं पुब्बे यतो पस्सति निगण्ठं नातपुत्तं दूरतो व आगच्छन्तं दिस्वान ततो पूच्चग्गन्त्वा यं तत्थ आसनं अग्गं च सेटठं च उत्तमं च पणीत च तं उत्सरासलेन सम्मज्जित्वा परिग्गहेत्वा निसीदापेति सो-दानि यं तत्थ आसनं अग्गं च सेठें च उत्तमं च पणीतं च तत्थ सामं निसीदित्वा निगण्ठं नातपुत्त एतदवोच-"संविज्जति खो, भन्ते, आसनानि ; सचे आकलसि, निसीदा'' ति। एवं वृत्ते, निगण्ठो नातपुत्तो उपालि गहपति एतदवोच-"उम्मत्तोसि त्वं, गहपति दत्तोसि त्वं, गहपति ! 'गच्छामह, भन्ते, समणस्स गोतमस्स वादं आरोपेस्सामी' ति गन्त्वा महतासि वादसङ्घाटेन पटिमुक्को आगतो सेय्तथापि, गहपति, पुरिसो अण्डहारको गन्त्वा उन्मतेहि अण्डे हि आगच्छेय्य, सेय्यथा वा पन गहपति पुरिसो, अक्खिकहारको गन्त्वा उब्मतेहि अक्खीहि आगच्छेय्य, एवमेव खो त्वं, गहपति, 'गच्छामहं, भन्ते,... आगतो। आवट्टोसि खो त्वं, गहपति, समणेन गोतमेन आवट्टनिया माथाया" ति। "भद्दिका, भन्ते आवट्टनी माया; कल्याणि, भन्ते आवट्टनी माया; पिया मे, भन्ते, जातिसालोहिता इमाय आवानिया आवटटेय्य : पियानं पि मे अस्स जाति दीघर हिताय सुखाय: सब्बे चे पि भन्ते खत्तिया इमाय आवडनिया आवटटेय्यं सब्बेसानं पिस्स खत्तियानं दीघरत्तं हिताय सुखाय ; सब्बे चे पि भन्ते ब्राह्मणा.. पे० . . 'वेस्सा...०... सहा इमाय आवडनिया आवटेय्यं सब्बेसानं पिस्स सहानं दीघरत्तं हिताय सुखाय: सदेवको ने पि. भन्ते लोको समारको सब्रहाको सस्समणब्राह्माणी पजा सदेवमनस्सा इमाय आवदनिया आवट्टेय्युं सदेवकस्स पिस्स लोकस्स समारकस्स सब्रह्मकस्स सस्समणब्राह्मणिया पजाय सदेवमनुस्साय दीघरत्तं हिताय सुखाया ति । तेन हि, भन्ते, उपमं ते करिस्सामि । उपमाय पिधेकच्चे विजू पुरिसा भासि तस्स अत्थं आजानन्ति । भूतपुब्ब ब्ब, भन्ते,अञ्जतरस्स ब्राह्मणस्स जिण्णस्स बूडढस्स महल्लकस्स दहरा माणविका पजापती अहोसि गब्भिनी उपविज्ञा। अथ खो, भन्ते, सा माणविका तं ब्राह्मणं एतदवोच"गच्छ त्वं, ब्राह्मण, आपणा मक्कटच्छापकं किणित्वा आनेहि, यो मे कुमारकस्स कीलापनको मविस्सती' ति । एवं वुत्ते, भन्ते, सो ब्राह्मणो तं माणविक एतदवोच-'आगमेहि ताव, भोति, याव विजायति । सचे त्वं, भोति कुमारकं विजायिस्सासि, तस्सा ते अहं आपणा मक्कटच्छापक किणित्वा आनेस्सामि, यो ते कुमारकस्स कीलापनको भविस्सति । सचे पन त्वं, भोति,.... 2010_05 Page #540 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૪૬૬ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड:१ भविस्सती' ति । दुतियं पि खो, भन्ते, सा माणविका...पे... ततियं पि खो, भन्ते, सा माणविका तं ब्राह्मणं एतदवोच-'गच्छ त्वं, ब्राह्मण, आपणा मक्कटच्छापक किणित्वा आनेहि, यो मे कुमारकस्स कीलापनको भविस्सती' ति । अथ खो, भन्ते, सो ब्राह्मणो तस्सा माणविकाय सारत्तो पटिबद्धचित्तो आपणा मक्कटच्छापक किणित्वा आनेत्वा तं माणविक एतदवोच'अयं ते, भोति, आपणा मक्कटच्छापको किणित्वा आनीतो, यो ते कुमारकस्सं कीलापनको भविस्सती' ति । एवं वृत्ते, भन्ते, सा माणविका तं ब्राह्मणं एतदवोच-"गच्छ त्वं, ब्राह्मण, इम मक्कटच्छापकं आदाय येन रत्तपाणि रजतपुत्तो तेनुपसङ्कम ; उपसङ्कमित्वा रत्तपाणि रजतपुत्तं एवं वदेहि-इच्छामहं सम्म, रत्तपाणि, इमं मक्कटच्छापकं पीतावलेपनं नाम रङ्गजातं रजितं आकोटितपच्चाकोटितं उभतोभागविमट्ठ' ति। ____ "अथ खो, भन्ते, सो ब्राह्मणो तस्सा माणविकाय सारत्तो पटिबद्धचित्तो तं मक्कटच्छापकं आदाय येन रत्तपाणि रजकपुत्तो तेनुपसङ्कमि ; उपसंकमित्वा रत्तपाणि रजकपुत्तं एतदवोच-"इच्छामहं, रत्तपाणि, इमं०...उभतोभागविम' ति। एवं वत्ते. मन्ते रत्तपाणि रजकपुत्तो तं ब्राह्मणं एतदवोच–'अयं खो ते, भन्ते, मक्कटच्छापको रङ्गक्खमो हि खो, नो आकोटनक्खमो, नो विमज्जनक्खमो' ति । एवमेव खो, भन्ते, बालानं निगण्ठानं वादो रङ्गक्खमो हि खो बालानं नो पण्डितानं, नो अनुयोगक्खमो, नो विमज्जनक्खमो। अथ खो, भन्ते, सो ब्राह्मणो अपरेन समयेन नवं दुस्सयुगं आदाय येन रत्तपाणि रजकपुत्तो तेनुपसंकमि ; उपसंकमित्वा रत्तपाणि रजकपुत्तं एतदवोच-'इच्छामहं सम्म, रत्तपाणि, इमं नवं दुस्युगं पीतावलेपनं० ... उमतोमागविमट्ठ" ति । एवं वुत्ते, भन्ते, रत्तपाणि रजकपुत्तो तं ब्राह्मणं एतदवोच-'इदं खो ते, भन्ते, नवं दुस्सयुगं रङ्गक्खमं चेव आकोटनक्खमं च विमज्जनक्खमं चा' ति। एवमेव खो, भन्ते, तस्स भगवतो वादो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स रङ्गक्खमो चेव पण्डितानं नो बालानं, अनुयोगक्खमो च विमज्जनक्खमो चा ति। “सराजिका खो, गहपति, परिसा एवं जानाति–'उपालि गहपति निगण्ठस्स नातपुत्तस्स सावको' ति । कस्स तं, गहपति, सावकं धारेमा" ति ? एवं वृत्ते उपालि गहपति उट्ठायासना एकसं उत्तरासङ्ग करित्वा येन भगवा तेनञ्जलि पणामेत्वा निगट्ठनातपुत्तं एतदवोच- "तेन हि, भन्ते, सुणोहि यस्साहं सावको ति 'धीरस्स विगतमोहस्स, पभिन्नखीलस्स विजितविजयरस । अनीघस्स सुसमचित्तस्स, बुद्धमीलस्स साधुपञस्स। वेसमन्तरस्स विमलस्स, भगवतो तस्स सावकोहमस्मि ।।.... "कदा सन्चूल्हा पन ते, गहपति, इमे, समणस्स गोतमस्स वण्णा" ति ? "सेय्यथापि, भन्ते, नानापुप्फानं महापुप्फरासि, तमेनं दक्खो मालाकारो वा मालाकारन्तेवासी वा विचित्तं मालं गन्थेय्य; एवमेव खो, भन्ते सो भगवा अनेकवण्णो अनेकसतवण्णो अनेकसतवण्णो । को हि, भन्ते, वण्णारहस्स वण्णं न करिस्सती" ति ? अथ खो निगण्ठस्स नातपुत्तस्स भगवतो सक्कारं असहमानस्स तत्थेव उण्हं लोहितं मुखतो उग्गच्छी” ति। १. सुत्तपिटके, मज्झिमनिकाय पालि, मज्झिमपण्णासकं, उपालिसुत्तं, ६.१ से २१; पृ० ४३ से ६०। 2010_05 | Page #541 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा] त्रिपिटकों में निगण्ठ व निगण्ठ नातपुत्त : मूल पालि ४८७ अभय राजकुमार एवं मे सुतं । एक समयं भगवा राजगहे विहरति वेलुवने कलन्दकनिवापे। अथ खो अभयो राजकुमारो येन निगण्ठो नातपुत्तो तेनुपसङ्कमि, उपसङ्कमित्वा निगण्ठ नातपुत्त अभिवादेत्वा एकमन्तं निसीदि। एकमन्तं निसीन्नं खो अभयं राजकुमारो निगण्ठो नातपुत्तो एतदवोच--"एहि त्वं, राजकुमार, समणस्स गोतमस्स वादं आरोपेहि। एवं ते कल्याणो कित्तिसद्दो अब्भुग्गच्छिस्सत्ति – 'अभयेन राजकुमारेन समणस्स गोतमस्स एवं महिद्धिकस्स एवं महानुभावस्स वादो आरोपितो" ति । ___ "यथा कथं पनाह, भन्ते, समणस्य गोतमस्स एवं महिद्धिकस्स एवं महानुभावस्स वादं आरोपेस्सामि" ति? "एहि त्वं, राजकुमार, येन समणो गोतमो तेनुपसङ्कम; उपसङ्कमित्वा समणं गोतमं एवं वदेहि ‘भासेय्य नु खो, भन्ते, तथा गतो तं वाचं या सा वाचा परेसं अप्पिया अपनापा' ति? सचे ते समणो गोतमो एवं पुट्ठो एवं ब्याकरोति-'भासेय्य, राजकुमार, तथागतो तं वाचं या सा वाचा परेसं अप्पिया अमनापा' ति, तमेनं त्वं एवं वदेय्यासि—'अथ किचरहि ते, भन्ते, पुथुज्जनेन नानाकरणं? पुथुज्जनो हि तं वाचं भासेय्य या सा वाचा परेसअप्पिया अपनापा" ति । सचे पन ते समणो गोतमो एवं पुट्ठो एवं व्याकरोति'न, राजकुमार, तथागतो तं वाचं भासेय्य या सा वाचा परेसं अप्पिया अपनामा' ति, तमेनं त्वं एवं बदेय्यासि--'अथ किं चरहि ते, भन्ते, देवदत्तो ब्याकतो- आपायिको देवदत्तो, नेरयिको देवदत्तो, कप्पट्ठो देवदत्तो, अतेकिच्छो देवदत्तो ति ? ताय च पन त वाचाय देवदत्तो कुपितो बहोसि अनत्तमनो' ति । इमं खो ते, राजकुमार, समणो गोतमो उभतोककोटिकं पन्हं पुट्ठो समानो नेव सक्खिति उग्गिलितुं न सक्खिति ओगिलितुं । सेय्यथापि नाम पुरिसस्स अयोसिंघाटकं कण्ठे विलग्गं, सो नेव सक्कुणेय्य उग्गिलितुं न सक्कुणेय्य मोगिलितुं; एवमेव खो ते, राजकुमार, समणो गोतमो इमं उभतोकोटिकं पन्हं पुट्ठो समानो नेव सक्खिति उग्गिलितं न सक्खिति ओगिलितुं" ति। "एवं, भन्ते" ति खो अभयो राजकुमारो निगण्ठस्स नातपुत्तस्य पटिस्सुत्वा उट्ठायासना निगण्ठं नातपुत्तं अभिवादेत्वा पदक्खिणं कत्वा येन भगवा तेनुपसङ्कमि; उपसकमित्वा भगवन्तं अभिवादेत्वा एकमन्तं निसीदि। एकमन्तं निसिन्नस्स खो अभयस्स राजकुमारस्स सुरियं उल्लोकेत्वा एतदहोसि"कालो खो अज्ज भगवतो वादं आरोपेतुं। स्वे दानाहं सके निवेसने भगवतो वादं आरोपेस्सामि" ति भगवन्तं एतदवोच--"अधिवासेतु मे, भन्ते, भगवा स्वातनाय अत्तचतुत्थो भत्तं" ति अधिवासेसि भगवा तुण्हीभावेन । अथ खो अभयो राजकुमारो भगवतो अधिवासनं विदित्वा उट्ठायासना भगवन्तं अभिवादेत्वा पदक्खिणं कत्वा पक्कामि । अथ खो भगवा तस्या रत्तिया अच्चयेन पुब्बण्हसमयं निवासेत्वा पत्तचीवरमादाय येन अभयस्स राजकुमारस्स निवेसनं तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा पनते आसने निसीदि । अथ खो अभयो राजकुमारो भगवन्तं पणीतेन खादनीयेन भोजनीयेन सहत्था सन्तप्पेसि सम्पवारेसि । अथ खो अभयो 2010_05 Page #542 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८८ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड : राजकुमारो भगवन्तं भुत्ताविं ओनीतपत्तपाणि अन्यतरं नीचं आसनं गहेत्वा एकमन्तं निसीदि । एकमन्तं निसिन्नो खो अभयो राजकुमार भगवन्तं एतदवोच-''भासेय्य नु खो, भन्ते, तथागतो तं वाचं या सा वाचा परेसं अप्पिया अमनापा" ति ? "न ख्वेत्थ, राजकुमार, एकंसेना" ति। एत्थ, भन्ते, अनस्सुं निगण्ठा" ति। "किं पन त्वं, राजकुमार, एवं वदेसि-'एत्थ, भन्ते, अनस्सु निगण्ठा" ति ? "इधाहं, भन्ते, येन निगण्ठो नातपुत्तो तेनुपसंकमि, उपसङ्कमित्वा निगण्ठं नातपुतं अभिवादेत्वा एकमन्तं निसीदि। एकमन्तं निसिन्नं खो मं, भन्ते, निगण्ठो नातपुत्तो एतदवोच-"एहि त्वं, राजकुमार, समणस्स गोतमस्स वादं आरोपेहि। एवं ते कल्याणो कित्तिसहो अल्भग्गाच्छस्सति-अभयेन राजकुमारेन समणस्स गोतमस्स एवं महिद्धिकस्स एवं महानुभावस्स वादो आरोपितो' ति । एवं वुत्ते, अहं, भन्ते, निगण्ठं नात पुत्तं एतदवोचं'यथा कथं पनाहं. भन्ते, समणस्स गोतमस्स एवं महिद्धिकस्स एवं महानुभावस्स वादं आरोपेस्सामी' ति? एहि त्वं, राजकमार, येन समणो गोतमो तेनुपसङकम' उपसङकमित्वा समणं गोतमं एवं वदेहि-भासेय्य नु खो, भन्ते, तथागतो तं वाचं या सा वाचा परेसं अप्पिया अमनापा ति ? सचे ते समणो गोतमो एवं पुट्ठो एवं ब्याकरोति-- मासेय्य, राजकुमार, तथागतो तं वाचं या सा वाचा परेसं अप्पिया अमनापा ति, तमेनं त्वं एवं वदेय्यासि-अथ किं चरहि ते, भन्ते, पुथुज्जनेन नानाकरणं ? पुथुज्जनो पि हि तं वाचं भासेय्या या सा वाचा परेसं अप्पिया अपनामा ति । सचे पन ते समणो गोतमो एवं पुट्ठो एवं ब्याकरोति-न, राजकुमार, तथागतो तं वाचं भासेय्य या सा वाचा परेसं अप्पिया अपनापा ति, तमेनं त्वं एवं वदेय्यासि-अथ किं चरहि ते, भन्ते, देवदत्तो ब्याकतो-आपायिको देवदत्तो, नेरयिको देवदत्तो, कप्पट्ठो देवदत्तो, अतेकिच्छो देवदत्तो ति ? ताय च पन ते वाचाय देवदत्तो, कुपितो अहोसि अनत्तमनो ति। इमं खो ते, राजकुमार, समणो गोतमो उभतोकोटिकं पन्हं पुट्ठो समानो नेव सक्खिति उग्गिलितुं न सक्खिति ओगिलितुं । सेय्यथापि नाम पुरिसस्स अयोसिङ्घाटकं कण्ठे विलग्गं, सो नेव सक्कुणेय्य उग्निलितुं न सक्कुणेय्य ओगिलितुं; एवमेव खो ते, राजकुमार, समणो गोतमो इमं उभतोकोटिकं पन्हं पुट्ठों समानो नेव सविखति उग्गिलितुं न सक्खि ति ओगिलितुं" ति। अनुकम्पाय अप्पियं पि भासेय्य - तेन खो पन समयेन दहरो कुमारो मन्दो उत्तानसेटको अभयस्स राजकुमारस्स अके निसिन्नो होति । अथ खो भगवा अभयं राजकुमारं एतदवोच-"तं किं मनसि राजकुमार, सचायं कुमारो तुम्हं वा पमादमन्वाय धातिया वा पमादमन्वाय वा कळं वा कठलं वा मुखे आहरेय्य, किन्ति नं करेय्यासी' ति ? "आहरेय्यस्साह, भन्ते । सचे, मन्ते, न सक्कुणेय्यं आदिकेनेव आहतु, वामेन हत्थेन सीसं परिग्गहेत्वा दक्खिणेन हत्थेन वङ्कगुलिं करित्वा सलोहितं पि आहरेय्यं । तं किस्स हेतु ? अत्थि मे, भन्ते, कुमारे अनुकम्पा" ति ।। "एवमेव खो, राजकुमार, यं तथागतो वाचं जानाति अभूतं अतच्छं अनत्थसंहितं सा 2010_05 Page #543 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा ] त्रिपिटकों में निगण्ठ व निगण्ठ नातपुत्त : मूल पालि ४८६ च परे अप्पिया अमनापा, न तं तथागतो वाचं भासति । यं पि तथागतो वाचं जानाति भूतं तच्छं अनत्थसंहितं सा च परेसं अप्पिया अमनापा, तं पि तथागतो वाचं न भासति । यं च खो तथागतो वाचं जानाति भूतं तच्छं अत्थसंहितं सा च परेसं अप्पिया अमनापा, तत्र काल तथागतो होति तस्सा वाचाय वेय्याकरणाय । यं तथागतो वाचं जानाति अभूतं अतच्छं अनत्थसंहितं सा च परे पिया मनापा, न तं तथागतो वाचं भासति । यं पि तथागतो वाचं जानाति भूतं तच्छं अनत्यसंहितं सा च परेसं पिया मनापा तं पि तथागतो वाचं न भासति । यं च तथागतो वाचं जानाति भूतं तच्छं अत्थसंहितं सा च परेसं पिया मनापा, तत्र कालञ्नू तथातो होति तस्सा वाचाय वैय्याकरणाय । तं किस्स हेतु ? अत्थि, राजकुमार, तथागतस्स सत्तेसु अनुजम्पा" ति । मनु ठानसोवेतं तथागतं पटिभाति "ये मे, भन्ते, खत्तियपण्डितापि ब्राह्मणपण्डिता पि गहपति पण्डिता पि समणपण्डिता पि पञ्हं अभिसङ्खरित्वा तथागतं उपसङ्कमित्वा पुच्छन्ति पुब्बेत्र नु खो, भन्ते, भगवतो चेतसो परिवितक्कितं होति 'ये मं उपसङ्कमित्वा एवं पुच्छिस्सन्ति तेसाहं एवं पुट्ठो एवं व्याकरिस्सामी' ति, उदाहु ठानसोवेतं तथागतं पटिभाती" ति । "तेन हि राजकुमार, तज्ञेवेत्थ पटिपुच्छिस्सामि, यथा ते खमेय्य तथा नं ब्याकरेयसि । तं किं मञ्जसि, राजकुमार, कुसलो त्वं रथस्स अङ्गपच्चङ्गानं" ति ? "एवं, भन्ते, कुसलो अहं रथस्स अङ्गपच्चङ्गानं" ति । "तं किं मञ्ञसि, राजकुमार, ये तं उपसङ्कमित्वा एवं पुच्छेय्युं - 'कि नामिदं रथस्स अङ्गपच्चङ्ग" ति ? पुब्बेव नु खो ते एतं चेतसो परिवितक्कितं अस्स 'ये मं उपसङ्कमित्वा एवं पुच्छिन्ति ते साहं एवं पुट्ठो एवं व्याकरिस्सामी' ति, उदाहु ठानसोवेतं पटिभासेय्या " ति ? "अहं हि भन्ते, रथिको सञ्जातो कुसलो रथस्स अङ्गपच्चङ्गानं । सब्बानि मे रथस्स अङ्गपच्चङ्गानि सुविदितानि । ठानसोवेतं मं पटिभासेय्या" ति । "एवमेव खो, राजकुमार, ये ते खत्तियपण्डितापि ब्रह्मणपण्डिता पि गहपतिपण्डिता पि समणपण्डितापि पञ्हं अभिसङ्खरित्वा तथागतं उपसङ्क्रमित्वा पुच्छन्ति, ठानसोवेतं तथातं परिभाति तं किस्स हेतु ? साहि, राजकुमार, तथागतस्स धम्मधातु सुप्पटिविद्धा यस्सा धम्मधातुया सुप्पटिविद्वत्ता ठानसोवेतं तथागतं पटिभाती" ति । * एवं वृत्ते, अभयो राजकुमारो भगवन्तं एतदवोच - अभिक्कन्तं, भन्ते, अमिक्कन्तं, भन्ते...पे....अज्जतग्गे पाणुपेतं सरणं गतं ति । ' " पच्छिमे च भवे दानि गिरिब्बजपुरुत्तमे । रञोहं बिम्बिसारस्स पुत्तो नामेन चाभयो । "पापमित्तवसं गन्त्वा, निगण्ठेन विमोहितो । पेसितो पुन बुद्धमुपेच्चहं ॥ १. सुत्तपिटके, मज्झिमनिकाय पालि, मज्झिमपण्णासकं, अभयराजकुमार सुत्त २-६-१ से ३, पृ० ६७ से ७१ । 2010_05 Page #544 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६० आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड : १ "पुच्छित्वा निपुणं पुहं, सुत्वा व्याकरणुत्तमं । पब्बजित्वान नचिरं, अरहत्तमपाणि ॥ "कित्तयित्वा जिनवरं, कित्तितो होमि सब्बदा । सुगन्धदेहववनो, आसि मुखसमपितो।! "तिक्खहासलहुपओ, महापञो तयेवहं । विचित्तपटिमानो च, तस्स कम्मस्स वाहसा ॥ "अमित्यवित्वा पदुमूलराह, पसन्नचित्तो असमं सयम्भू । न गच्छि कप्पानि अपायभूमि, सतं सहस्सानि वलेन तस्स ॥"' :४: कर्म-चर्चा निगण्ठाणं दुक्खनिज्जरावादो - एवं मे सुतं। एक समयं भगवा सक्के सु विहरति देवदहं नाम सक्यानं निगमो। तत्र खो भगवा भिक्खू आमन्तसि-"भिक्खवो" ति । “भदन्ते" ति ते भिक्खू भगवतो पच्चस्सोसुं। भगवा एतदवोच-“सन्ति, भिक्खवे, एके समणब्राह्मणो एवंवादिनो एवंदिठ्ठिनो- 'यं किञ्चायं पुरिसपुग्गलो पटिसंवेदेति सुखं वा दुक्खं वा अदुक्खमसुखं वा, सब्बं तं पुब्बेकतहेतु। इति पुराणानं कम्मानं तपसा ब्यन्तीभावा, नवानं कम्मान अकरणा, आयति अनवस्सवो; आयति अनस्सवा कम्मखयो; कम्मक्खया दुक्खक्खयो; दुक्खक्खया वेदनाक्खयो; वेदनाक्खया सब्बं दुक्खं निज्जिण्णं भविस्सती' ति । एवंवादिनो, भिक्खवे, निगण्ठा । एवंवादह, भिक्खवे, निगण्ठे उपसङ्कमित्वा एवं वदामि--- 'सच्चं किर तुम्हे, आवुसो निगण्ठा, एवंवादिनो पत्रंदिनो-यं किञ्चायं परसपग्गलो पटिसंवेदेति सख वा. दयख वा अदक्खमसखं वा. सब्बं तं पब्बेक-तहेत...पे... वेदनाक्खया सब्बं दवखं निज्जिरणं भविस्सती' ति? ते च मे. भिक्खवे, निगण्ठा एवं पुठ्ठा 'आमा' ति पटिजानन्ति । त्याहं एवं वदामि- किं पन तुम्हें, आवसो निगण्ठा, जानाथ-अहुवम्हे व मयं पुब्बे, न नाहुवम्हा' ति ? _ 'नो हिदं आवुसो'। 'कि पन तुम्हे, आवुसो निगण्ठा, जानाथ-अकरम्हे व मयं पुब्बे पापकम्म, न नाकरम्हा' ति ? नो हिदं आवुसो'। ___ किं पन तुम्हे, आवुसो निगण्ठा, जानाथ-एवरूपं वा एकरूपं वा पापकम्म अकरम्हा' ति ? 'नो हिदं, आवुसो'। कि पन तुम्हे, आवुसो निगण्ठा, जानाथ–एत्तकं वा दुक्खं निज्जिण्णं, एत्तकं वा दुक्खं निज्जीरेतब्बं, एत्तकम्हि वा दुक्खे निज्जिण्णे सब्बं दुक्खं निज्जिण्णं भविस्सती' ति ? . १. सुत्तपिटके, खुद्दक निकाये थेरापदान पालि (२) भद्दियवग्गो, अभयत्थेरअपदानं ५५-७-२१६ से २२१ ; पृ० १५५ । 2010_05 Page #545 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा] त्रिपिटकों में निगण्ठ व निगण्ठ नातपुत्त : मूल पालि ४६१ 'नो हिदं, आवुसो'। किं पन तुम्हे, आवुसो निगण्ठा, जानाथ-दिठेव धम्मे अकुसलानं धम्मानं पहानं कुसलानं धम्मानं उपसम्पदं' ति ? 'नो हिदं, आवुसो'। ‘इति किर तुम्हे, आवुसो निगण्ठा, न जानाथ-अहुवम्हे व मयं पुब्बे न नाहुवम्हा ति,... कुसलानं धम्मानं उपसम्पदं। एवं सन्ते आयस्मन्तानं निगण्ठानं न कल्लमस्स वेय्याकरणाय-यं किञ्चायं पुरिसयुग्गलो पटिसंवेदेति सुखं वा दुक्खं वा अदुक्खमसुखं बा, सब्बं तं पुबेकतहेतु । इति पुराणानं कम्मानं तपसा ब्यन्तीभावा, नवानं कम्मानं अकरणा, आयति अनवस्सवो, आयति अनवस्सया कम्मक्खयो; कम्मक्खया दुक्खक्खयो; दुक्खक्खया वेदनाक्खयो ; वेदनाक्खया सब्बं दुक्खं निज्जिण्णं भविस्सती' ति ।। _ 'सेय्यथापि, आवुसो निगण्ठा, पुरिसो सल्लेन विद्धो अस्स सविसेन गाल्हूपलेपनेन ; सो सल्लस्स पि वेधदहेतु दुक्खा तिब्बा कटुका वेदना वेदियेय्य । तस्स मित्तामच्चा जातिसालो हिता भिसक्कं सल्लकत्त उपट्ठापेय्यं । तस्स सो भिसक्को सल्लकत्तो सत्थेन वणमुखं परिकन्तेय्य; सो सत्थेन पि वणमुखस्स परिकन्तनहेतु दुक्खा तिब्बा कटुका वेदना वेदियेय्य । तस्स सो भिसक्को सल्लकत्तो एसनिया सल्लं एसेय्य ; सो एसनिया पि सल्लस्स एसनाहेनु दुक्खा तिब्बा कटुका वेदना वेदियेय्य । तस्स सि भिसक्को सल्लकत्तो सल्लं अब्बुहेय्य ; सो सल्लस्स पि अब्बुहनहेतु दुक्खा तिब्बा कटुका बेदना वेदियेय्य । तस्स सो भिसकको सल्लकत्तो अगदङ्गारं वणमुखे ओदहेय्य ; सो अगदङ्गारस्स पि वणमुखे ओदहनहेतु दुक्खा तिब्बा कटुका वेदना वेदियेय्य । सो अपरेन समयेन रूल्हेन वणेन सञ्छविना अरोगो अस्स सुखी सेरी सयंवसी येनकामनमो। तस्स एवमस्स-अहं खो पुब्बे सल्लेन विद्धो अहोसिं सविसेन गाल्हूपलेपनेन। सोहं सल्लस्स पि वेधनहेतु दुक्खा तिब्बा कटुका वेदना वेदियि । ० ...। सोम्हि एतरहि रूल्हेन वणेन सञ्छविना अरोगो सुखी सेरी सयंवसी येनकामङ्गमो ति । एवमेव खो, आवुसो निगण्ठा, सचे तुम्हे जानेय्याथ-अहुवम्हे व मयं पुब्बे न नाहुवम्हा ति,...। यस्मा च खो तुम्हे, आवुसो निगण्ठा, न जानाथ-अहुवम्हे व मयं पुब्बे न नाहुवम्हा ति ।०... ___ "एवं वृत्त, भिक्खवे, ते निगण्ठा मं एतदवोचुं--'निगण्ठो, आवुसो, नाटपुत्तो सब्बन सब्बदस्सावी, अपरिसेसं आणदस्सनं पटिजानाति, चरतो च मे तिट्ठतो च सुत्तस्स च जागरस्स च सततं समितं जाणदस्सनं पच्चुपठितं ति। सो एवमाह-अस्थि खो वो आवुसो निमण्ठा, पुब्बे व पापकम्म कतं, तं इमाय कटुकाय दुक्करकारिकाय निज्जीरेथ, यं पनेत्थ एत रहि कायेन संवुता वाचाय संवुता मनसा संवुता तं आतिं पापकम्मस्स अकरणं। इति पुराणानं कम्मानं तपसा ब्यन्तीभावा, नवानं कम्मानं अकरणा, आयति अनवस्तवो; आयति अनवस्सवा कम्मखयो ; कम्मक्खया दुक्खक्खयो; दुक्खक्खया वेदनाक्खयो; वेदनाक्खया सब्बं दक्खं निज्जिण्णं भविस्सती ति । तं च पनम्हाकं रुच्चति चेव खमति च, तेन चम्हा अत्तमना' ति । अफलो उपक्कमो अफलं पधानं "एवं वुत्ते अहं, भिक्खवे ते निगण्ठे एतदवोचं-'पञ्च खो इमे, आवुसो निगण्ठा, 2010_05 Page #546 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૪૬૨ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड : १ धम्मा दिठेव धम्मे द्विधाविपाका। कतमे पञ्च ? सद्धा, रुचि, अनुस्सवो, आकारपरिवितक्को, दिट्ठिनिज्झानक्खन्ति- इमे खो, आवसो निगण्ठा, पञ्च धम्मा दिद्वैव धम्मे द्विधाविपाका। तत्रायस्मन्तानं निगण्ठानं का अतीतंसे सत्थरि सद्धा का रुचि को अनुस्सवो को आकारपरिवितक्को का दिट्ठिनिज्झानक्खन्ती' ति । एवंवादी खो अहं, भिक्खवे, निगण्ठेसु न कञ्चि सहधम्मिकं वादपटिहारं समनुपस्सामि।। __"पून च पराह, भिक्खवे, ते निगण्ठे एवं वदामि-तं कि मञथ, आवसो निगण्या, यस्मि वो समये तिब्बो उपक्कमो होति तिब्बं पधानं तिब्ब तस्मि समये ओपक्कमिका दुक्खा तिब्बा कटुका वेदना वेदियेथ; यस्मि पन वो समये न तिब्बा उपक्कमो होति न तिब्बं पधानं, न तिब्बा तस्मि समये ओपक्कमिका दुक्खा तिब्बा कटुका वेदना वेदियेथा' ति ? ___'यस्मि नो आवुसो गोतम, समये तिब्बो उपक्कमो होति तिब्बं पधानं, तिब्बा तस्मि समये ओपक्कमिका दुक्खा तिब्बा कटुका वेदना वेदियाम ; यस्मि पन नो समये न तिब्बो उपक्कमो होति न तिब्बं पधानं, न तिब्बा तस्मि समये ओपक्कमिका दुक्खा तिब्बा कटुका वेदना वेदियामा' ति । 'इति किर, आवुसो निगण्ठा, यस्मि वो समये तिब्बो उपक्क मो..... वेदना वेदियेथ । एवं सन्ते आयस्मन्तानं निगण्ठानं न कल्लमस्स वेय्याकरणाय-यं किञ्चायं पुरिसपुग्गली पटिसंवेदेति सुखं वा दुक्खं वा अदुक्खमसुखं वा, सब्बं तं पुब्बेकतहेतु पे०.. वेदनाक्खया सब्बं दुक्खं निज्जिणं भविस्सती ति । सचे, आवुसो निगण्ठा, यस्मि वो समये तिब्बो उपक्कमो.... ...भविस्सती ति । यस्मा च खो, आवुसो निगण्ठा, यस्मि वो समये तब्बो उपक्कमो०...... वेदना वेदयभाना अविज्जा अाणा सम्मोहा विपच्चेथ-यं किञ्चायं पुरिसपुग्गलो पटिसंबेदेति सुखं वा दुक्खं वा अदुक्खमसुखं वा सब्बं तं पुब्बेकतहेतु पे०. वेदनावखया सब्बं दुक्खं निज्जिण्णं भविस्सती' ति । एवंवादी पि खो अह, भिक्खवे, निगण्ठेसु न कञ्चि सहधम्मिकं वादपटिहारं समनुपस्सामि। "पुन च पराहं, भिक्खवे, ते निगण्ठे एवं वदामि– 'तं किं मचथावुसो निगण्ठा, यमिदं कम्मं दिठ्ठधम्मवेदनीयं तं उपक्कमेन वा पधानेन वा सम्परायवेदनीयं होतु ति लब्भमेतं' ति ? 'नो हिदं, आवुसो'। 'यं पनि कम्म सम्पराय वेदनीयं तं उपक्कमेन वा पधानेन वा दिट्ठधम्मवेदनीयं होत ति लब्भमेतं' ति ? 'नो हिदं, आवुसो'। 'तं किं मअथावुसो निगण्ठा, यमिदं कम्मं सुखवेदनीयं तं उपक्कमेन वा पधानेन वा दुक्खवेदनीयं होतू ति लब्भमेतं' ति ? 'नो हिदं, आवुसो'। 'यं पनि कम्मं दुक्खवेदनीयं तं उपक्कमेन वा पधानेन वा सुखवेदनीयं होतू ति लब्ममेतं' ति ? 'नो हिदं, आवुसो'। 'तं कि मञथावुसो निगण्ठा, यमिदं कम्मं परिपक्कवेदनीयं तं उपक्कमेन वा पघानेन वा अपरिपक्कवेदनीयं होतू ति लब्भमेतं' ति । ____ 2010_05 Page #547 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा] त्रिपिटकों में निगण्ठ व निगण्ठ नातपुत्त : मूल पालि ४६३ 'नो हिदं, आवुसो'। 'यं पनि कम्मं अपरिपक्कवेदनीयं तं उपक्कमेन वा पधानेन वा परिपक्कवेदनीयं होत ति लब्भमेतं' ति ? 'नो हिदं, आवुसो'। 'तं कि मञ्चथावुसो निगण्ठा, यमिदं कम्म बहुवेदनीयं तं उपक्कमेन वा पधानेन वा अप्पवेदनीयं होतू ति लब्भमेत' ति ? 'नो हिदं, आवुसो'। 'यं पनि कम्मं अप्पवेदनीयं तं उपक्कमेन वा पधानेन वा बहुवेदनीयं होतू ति लब्भमेतं' ति ? 'नो हिदं, आवुसो'। 'तं कि मञयावसो निगण्ठा, यमिदं कम्मं सवेदनीयं तं उपक्कमेन वा पघानेन वा अवेदनीयं होतू ति लब्भमेतं' ति। 'नो हिदं, आवुसो' । 'यं पनिदं कम्मं अवेदनीयं तं उपक्कमेन वा पधानेन वा सवेदनीयं होतू ति लब्भमेतं' ति ? 'नो हिदं, आवुसो'। 'इति किर, आवुसो निगण्ठा, यमिदं कम्मं दिधम्मवेदनीयं तं उपक्कमेन वा पधानेन वा सम्परायवेदनीयं होतू ति अलब्भमेतं, यं पनिदं० ... ... एवं सन्ते आयस्मन्तानं निगण्ठानं अफलो उपक्कमो होति, अफलं पधानं' । "एवंवादी, भिक्खवे, निगण्ठा । एवंवादीनं, भिक्खवे, निगण्ठानं दस सहधम्मिका वादानुवादा गारय्हं ठानं आगच्छन्ति । "सचे, भिक्खवे, सत्ता पुब्बेकतहेतु सुख दुक्खं पटिसंवेदेन्ति ; अद्धा, भिक्खवे, निगण्ठा पुब्बे दुक्कटकम्मकारिनो यं एतरहि एवरूपा दुक्खा तिब्बा कटुका वेदना वेदियन्ति। सचे, भिक्खवे, सत्ता इस्सरनिम्मानहेतु सुखदुक्खं पटिसंवेदेन्ति ; अद्धा, भिक्खवे, निगण्ठा पापकेन इस्सरेन निम्मिता यं एतरहि एवरूपा दुक्खा तिब्बा कटुका वेदना वेदियन्ति । सचे, भिक्खवे, सत्ता सङ्गतिभावहेतु सुखदुक्खं पटिसंवेदेन्ति ; अद्धा, भिक्खवे, निगण्ठा पापसङ्गतिका यं एतरहि एवरूपा दुक्खा तिब्बा कटुका वेदना वेदियन्ति । सचे, मिक्खवे, सत्ता अभिजातिहेतु सुखदुक्खं पटिसंवेदेन्ति ; अद्धा, भिक्खवे, निगण्ठा पापाभिजातिका यं एतरहि एवरूपा दुक्खा तिब्बा कटुका वेदना वेदियन्ति । सचे, भिक्खवे, सत्ता दिधम्मूपक्कमहेतु सुखदुक्खं पटिसंवेदेन्ति ; अद्धा, भिक्खवे, निगण्ठा एवरूपा दिट्ठधम्मूपक्कमा यं एतरहि एवरूपा हुक्खा तिब्बा कटका वेदना वेदियन्ति । "सचे, भिक्खवे, सत्ता पुब्बेकतहेतु सुखदुक्खं पटिसंवेदेन्ति, गारव्हा निगण्ठा ; नो चे सत्ता पुब्बेकतहेतु सुखदुक्खं पटिसंवेदेन्ति, गारव्हा निगण्ठा। सचे, भिक्खवे, सत्ता इस्सरनिम्मानहेतु... "एवंवादी, भिक्खवे, निगण्ठा। एवंवादनि भिक्खवे, निगण्ठानं इमे दस सहधम्मिका वादानुवादा गारय्हं ठानं आगच्छन्ति । एवं खो, भिक्खवे, अफलो उपक्कमो होति, अफलं पधानं। 2010_05 Page #548 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६४ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड : १ सफलो उपक्कमो सफलं पधानं "कथं च, भिक्खवे, सफलो उपक्कमो होति, सफलं पधान ? इघ, भिक्खवे, भिक्खु न हेव अनद्धभूतं अत्तानं दुक्खेन अद्धभावेति, धम्मिकं च सुखं न परिच्चजति, तस्मि च सुखे अनधि छतो होति। सो एवं पजानाति–इमस्स खो मे दुक्खनं निदानस्स सङ्खारं पदहतो सङ्कारप्पधाना विरागो होति, इम्मस्स पन मे दुक्खनिदानस्स अज्झपेक्खतो उपेक्खं भावयतो विरागो होती' ति ।.... . “सेय्यथापि, भिक्खवे, पुरिसो इत्थिया सारत्तो पटिबद्धचित्तो तिब्बच्छन्दो तिब्बापेक्खो। सो तं इत्थि पस्सेय्य अञ्जन पुरिसेन सद्धि सन्तिट्ठन्ति सल्लपन्ति सजग्घन्ति संहसन्ति । तं कि मञथ, भिक्खवे, अपि नु तस्स पुरिसस्स अमुं इत्थि दिस्वा अञ्जन पुरिसेन सद्धि सन्तिट्ठन्ति सल्लपन्ति सजग्धन्ति संहसन्ति उप्पज्जेय्युं सोकपरिदेवदुक्खदोमनस्सूपायासा" ति ? "एवं भन्ते"। "तं किस्स हेतु" ? "अमु हि, भन्ते, पुरिसो अमुस्सा इत्थिया सारत्तो० ...। "अथ खो, भिक्खवे, तस्स पुरिसस्स एवमस्स--- 'अहं खो अमुस्सा इत्थिया सारत्तो.... यन्नूनाहं यो मे अमुस्सा इत्थिया छन्दरागो तं पजहेय्यं' ति । सो यो अमुस्सा इत्थिया छन्दरागो तं पजहेय्य । सो तं इत्थि पस्सेय्य अपरेन समयेन अओन पुरिसेन सद्धि सा तट्टन्ति सल्लपन्ति सजग्घन्ति । तं किं मथ, भिक्खवे, अपि नु तस्स पुरिसस्स अमुं इस्थि दिस्वा अनेन .. 'संहसन्ति उप्पज्जेय्युं सोकपरिदेवदुक्खदोमनस्सूपायासा" ति ? 'नो हेतं, भन्ते"। "तं किस्स हेतु" ? "अम हि.भन्ते परिसोअमस्सा इत्थिया वीतरागो। तस्मातं इत्थि दिस्वा०...। "एवमेव खो, भिक्खवे, भिक्खु न हेव अदद्धभूतं अत्तानं दुक्खेन अद्ध भावेति ।... "पुन च पर, मिक्खवे, भिक्खु इति पटिसञ्चिक्खति-'यथासुखं खो मे विहरतो असला धम्मा अभिवड्ढन्ति, कुसला धम्मा परिहायन्ति ; दुक्खाय पन में अत्तानं अकुसला धम्मा परिहायन्ति, कुसला धम्मा अभिवड्ढन्ति । यन्नूनाहं दुक्खाय अत्तानं पदहेय्यं" ति । सो दुक्खाय अत्तानं पदहति । तस्स दुक्खाय अत्तानं पदहतो अकुसला धम्मा परिहायन्ति कुसला धम्मा अभिवड्ढन्ति। सो न अपरेन समयेन दुक्खाय अत्तानं पदहति । तं किस्स हेतु ? यस्स हि सो, भिक्खवे, भिक्खु अत्थाय दुक्खाय अत्तानं पदहेय्य स्वास्स अत्थो अमिनिप्फन्नो होति । तस्मा न अपरेन समयेन दुक्खाय अत्तानं पदहति । सेय्यथापि, भिक्खवे, उसुकारो तेजन द्वीसु अलातेसु आतापेति परितापेति उजु करोति कम्मनियं। यतो खो, भिक्खवे, उसुकारस्स तेजन द्वीसु अलातेसु आतापितं होति...'न सो तं अपरेन समयेन उसुकारो तेजनं द्वीसु अलातेसु आतापेति...'तं किस्स हेतु ? यस्स हि सो, भिक्खवे, अत्थाय उसुकारो तेजनं द्वीसु अलातेसु आतापेय्य... स्वास्स अत्थो अभिनिप्फन्नो होति । तस्मा न अपरेन समयेन उसुकारोते जनं द्वीसु अलातेसु आतापेति....एवमेव खो, भिक्खवे, भिक्खु इति पटिसञ्चिखति-'यथासुखं खो मे विहरतो अकुसला धम्मा अभिवड्ढन्ति... स्वास्स अत्थो ____ 201005 Page #549 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा] त्रिपिटकों में निगण्ठ व निगण्ठ नातपुत्त : मूल पालि ४६५ अभिनिप्फन्नो होति । तस्मा न अपरेन समयेन दुक्खाय अत्तानं पदहति। एवं पि, भिक्खवे, सफलो उपक्कमो होति, सफलं पधानं । ० ... __ "सचे, भिक्खवे, सत्ता पुब्बेकतहेतु सुखदुक्खं पटिसंवेदेति ; अद्धा, भिक्खवे, तथागतो पुब्बे सुकतमम्मकारी यं एतरहि एवरूपा अनासवा सुखा वेदना वेदेति। सचे, भिक्खवे, सत्ता इस्सरनिम्मानहेतु सुखदुक्खं पटिसंवेदेन्ति ; अद्धा, भिक्खवे, तथागतो भद्द केन इस्सरेन निम्मितो यं एतरहि एवरूपा अनासवा सुखा वेदना वेदेति । सचे, भिक्खवे, सत्ता सङ्गतिभावहेतु सुखदुक्खं पटिसंवेदेति ; अद्धा, भिक्खवे, तथागतो कल्याणसङ्गतिको यं एवरूपा अनासदा सुखा वेदना वेदेति । सचे भिक्खवे, सत्ता अभिजातिहेतु सुखदुक्खं पटिसंवेदेन्ति ; अद्धा, भिक्खवे, तथागतो कल्याणभिजातिको यं एतरहि एवरूपा अनासवा सुखा वेदना वेदेति । सचे, भिक्खवे, सत्ता दिधम्मूपक्कमहेतु मुखदुक्खं पटिसंवेदेन्ति; अद्धा, भिक्खवे, तथागतो कल्याणदिधम्मूपक्कमो यं एतरहि एवरूपा अनासवा सुखा वेदना वेदेति। “सचे, भिक्खवे, सत्ता पुब्बेकतहेतु सुखदुक्खं पटिसंवेदेन्ति, पासंसो तथागतो; नो चे सत्ता पुब्बेकतहेतु सुखदुक्खं पटिसंवेदेन्ति, पासंसो तथागतो। सचे, भिक्खवे, सत्ता इस्सरनिम्मानहेतु सुखदुक्खं पटिसंवेदेन्ति, पासंसो तथागतो ; नो चे सत्ता इस्सरनिम्मानहेतु सुखदुक्खं पटिसंवेदेन्ति, पासंसो तथागतो। सचे, भिक्खवे, सत्ता सङ्गतिभावहेतु सुखदुक्खं पटिसंवेदेन्ति, पासंसो तथागतो; नो चे सत्ता सङ्कतिभावहेतु सुखदुक्खं पटिसंवेदेन्ति, पासंसो तथागतो। सचे, निक्खवे, सत्ता अभिजातिहेतु सुखदुक्खं पटिसंवेदेन्ति, पासंसो तथागतो; नो चे सत्ता अभिजातिहेतु सुखदुक्खं पटिसंवेदेन्ति, पासंसो तथागते। सचे, भिक्खवे, सत्ता दिट्ठधम्मूपक्कमहेतु सुखदुक्खं पटिसंवेदेन्ति, पासंसो तथागतो; नो चे सत्ता दिधम्मूपक्कमहेतु सुखदुक्खं पटिसंवेदेन्ति, पासंसो तथागतो। एवंवादी, भिक्खवे, तथागता। एवंवादीनं; भिक्खवे, तथागतानं इमे दस सहधम्मिका पासंसट्ठाना मागच्छन्ती' ति । इदमवोच भगवा। अत्तमना ते भिक्खू भगवतो भासितं अभिनन्, ति ।' :5: निर्ग्रन्थों का तप अप्पस्सावा कामा बहुदुक्खा एवं मे सुतं । एक समयं भगबा सक्केसु विहरति कपिलवत्थुस्मि निग्रोधारामे। अथ खो महानामो सक्को येन भगवा तेनुपसङ्कमि ; उपसङ्कमित्वा भगवन्तं अभिवादेत्वा एकमन्तं निसीदि ।.... १. सुत्तपिटके, मज्झिमनिकाय पालि, उपरिपण्णासक, देवदह सुत्तं, ३-१-१ से ४, पृ० १ से २०। ___ 2010_05 Page #550 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड :१ -- "एकमिदाहं, महानाम, समयं राजगहे विहरामि गिज्झकूटे पब्बते। तेन लो पन समयेन सम्बहुला निगाठा इसिगिलिपस्से कालसिलायं उब्भट्ठका होन्ति आसनपटिक्खित्ता, ओपक्कमिका दक्खा तिचा खरा कटका वेदना वेदयन्ति । अथ रुवाह, महा समयं पटिसल्लाना वुट्टितो येन इसिगिलिपस्से कालसिला येन ते निगण्ठा तेनुपसङ्कमि ; उपसमित्वा ते निगण्ठे एतदवोचं-'किन्न तम्हे, आवसो, निगण्ठा उब्भटठका आसनपटिक्वित्ता, ओपक्कमिका दुक्खा तिब्बा खराकटका वेदना वेदयथा' ति? एवं वत्ते. महानाम ते निगण्ठा में एतदवोचुं-निगण्ठो, आवुसो, नातपुत्तो सब्बञ्जू सब्बदस्साबी अपरिसैसं आणदस्सनं पटि जानाति-चरतो च मे तिट्ठतो च सुत्तस्स च जागरस्स च सततं समितं बाणदस्सनं पच्चुपट्टितं ति । सो एवमाह-अस्थि खो वो, निगण्ठा, पुब्बे पापकम्म कतं, तं इमाय कटुकाय दुक्करकारिकाय निज्जीरेथ ; यं पनेत्थ एतरहि कायेन संवुतां वाचाय संवुप्ता मनसा संवुता तं आयति पापस्स कम्मस्स अकरणं ; इति पुराणानं कम्मानं तपसा न्यन्तिभावा, नवानं कम्मानं अकरणा, आयर्ति अनवस्सवो, आयति अनवस्सवा कम्मक्खयो, कम्मक्खया दुक्खक्खयो, दुक्खक्खयो वेदनाक्खयो, वेदनाक्खया सब्बं दुक्खं निज्जण्णं भविस्सती ति । तं च पनम्हाकं रुच्चति चेव खमति च, चम्हं अत्तमना' ति । "एवं वुत्ते, अहं, महानाम, ते निगण्ठे एतदवोचं-किं पन तुम्हे, आवुसो निगण्ठा, जानाथ-बहुवम्हे व मयं पुऽबे न नाहुवम्हा' ति ? 'नो हिद, आवुसो'। 'किं पन तुम्हे, आवुसो निगण्ठा, जानाथ-अकरम्हे व मयं पुब्बे पापकम्म न नाकरम्हा' ति ? 'नो हिदं, आवसो'। 'किं पन तुम्हे, आवसो निगण्ठा, जानाथ-एवरूपं वा एवरूपं वा पाप कम्म अकरम्हा' ति? 'नो हिद, आवुसो'। 'किं पन तुम्हे, आवुसो निगण्ठा, जानाथ-एत्तकं वा दुक्खं निज्जणं, एत्तकं वा दुक्खं निज्जीरेतब्ब, एत्तकम्हि वा दुक्खे निज्जिणे सब्बं दुक्खं निज्जिणं भविस्सती' ति ? 'नो हिदं, आवुसो'। किं पन तुम्हे, आवुसो निगण्ठा, जानाथ— 'दह्रव धम्मे अकुसलानं धम्मानं पहानं, कुसलानं धम्मानं उपसम्पदं' ति ? 'नो हिदं आवुसो'। “इति किर तुम्हे, आवुसो निगण्ठा, न जानाथ-अहुवम्हे व मयं पुब्बे न नाहु वम्हा ति, न जानाथ-अकरम्हे व मयं पुब्बे पापकम्म न नाकरम्हा ति, न जानाथ-एवरूपं वा एवरूपं वा पापकम्म अकरम्हा ति, न जानाथ_एत्तकं वा दक्खं निज्जिण्णं. एत्तकं वा दक्खं निज्जिरेतब्बं एतकम्हि वा दुक्खे निज्जिण्णे सब्बं दुक्खं निज्जिणं भविस्सती ति, न जानाथदिठेव धम्मे अकुसलानं धम्मानं पहानं, कुसलानं धम्मानं उपसम्पदं । एवं सन्ते, आवुसो निगण्ठा, ये लोके लुद्दा लोहितपाणिनो कुरूरकम्मन्ता मनुस्सेसु पच्चाजाता ते निगण्ठेसु पन्बजन्ती' ति। 2010_05 Page #551 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा ] त्रिपिटकों में निगष्ठ व निगण्ठ नातपुत्त : मूल पालि 'न खो, आवुसो गोतम, सुखेन सुखं अधिगन्तब्बं, दुक्खन खो सुखं अधिगन्तब्बं ; सुखेन चावुसो गोतम, सुखं अधिगन्तब्बं अभविस्स, राजा मागधो सेनियो बिम्बिसारो सुखं अधिगच्छेय्य, राजा मागधो सेनियो बिम्बिसारो सुखविहारितरो आयस्मता गोतमेना' ति । 'अद्धा मन्ते हि निगण्ठेहि सहसा अप्पटिसङ्खा वाचा मासिता - न खो, आवुसो गोतम, सुखेन सुखं अधिगन्तब्बं, दुवखेन खो सुखं अधिगन्तब्बं ; सुखेन चावुसो गोतम, सुखं अधिगन्तब्बं अभविस्स, राजा मागधों सेनियो बिम्बिसारो सुखं अधिगच्छेय्य, राजा मागधो सेनियो बिम्बिसारो सुखविहारितरो आयस्मता गोतमेनाति । अदि च अहमेव तत्थ पटिपुच्छित ब्बो को नु खो आयस्मन्तानं सुखविहारितरो राजा वा मागधो सेनियो बिम्बिसारो आयस्मा वा गोतमो' ति ? 'अद्धावसो गोतमो, अम्हेहि सहसा अप्पटिसङ्खा वाचा भासिता न खो, आवुसो गोतम, सुखेन सुखं अधिगन्तब्बं, दुवखेन खो सुखं अधिगन्तब्बं ; सुखेन चावसो गोतम, सुख अधिगन्तब्बं, अभविस्स, राजा मागधो सेनियो बिम्बिसारो सुखं अधिगच्छेय्य, राजा मागधो सेनियो बिम्बिसारो सुखविह रितरो आयस्मता गोतमेना ति । अपि च तिट्ठतेतं, इदानि पि मयं आयस्मन्तं गोतमं पुच्छाय - को नु खो आयस्मन्तानं सुखविहारितरो राजा वा मागधो सेनियो बिम्बिसारो आयस्मा वा गोतमो' ति ? 'तेन हावुसो निगण्ठा, तुम्हे व तथ्य पटिपुच्छिस्सामी, यथा वो खमेय्य तथा नं व्याकरेय्याथ । तं किं मञ्ञथावुसो निगण्ठा, पहोति राजा मागधो सेनियो बिम्बिसारो, अनिञ्जमानो कायेन, अभासमानो वाचं, सत्त रत्तिन्दिवानि एकन्तसुखं पटिसंवेदी विहरितुं' ति ? ४६७ 'नो हिदं, आवुसो' । 'तं कि मञ्ञथावुसो निगण्ठा, पहोति राजा मागधो सेनियो बिम्बिसारो, अनिञ्जमानो कायेन, अभासमानो वाचं, छ रत्तिन्दिवानि पे०पञ्च रत्तिन्दिवानि चत्तारि रत्तिन्दिवानि... तीणि रत्तिन्दिवानि द्वे रत्तिन्दिवानि एकं रत्तिन्दिवं एकन्तसुखं पटिसंवेदी विहरितुं' ति ? 'नो हिदं, आवुसो' । ति । .. 'अहं खो, आवुसो निगण्ठा, पहोमि अनिञ्जमानो कायेन, अभासमानो वाचं, एकं रत्तिन्दिवं एकन्तसुखं पटिसंवेदी विहरितुं । अहं खो, आवुसो निगण्ठा, पहोमि अनिञ्जमानो कायेन, अभासमानो वाचं, द्वे रत्तिन्दिवानितीणि रत्तिन्दिवानि चत्तारि रत्तिन्दिवानि... पञ्च रत्तिन्दिवानि छ रत्तिन्दिवानि सत्त रत्तिन्दिवानि एकन्तसुखं पटिसंवेदी विहरितुं । तं किं मञ्ञथावुसो निगण्ठा, एवं सन्ते को सुखविहारितरो राजा वा मागधो सेनियो बिम्बिसारो अहं वा' ति ? ' एवं सन्ते आयस्मा व गोतमो सुखविहारितरो रज्ञा मागधेन सेनियेन बिम्बिसारेना' इदमवोच भगवा | अत्तमनो महानामो सक्को भगवतो भासितं अभिनन्दी ति ? १ १. सुत्तपिटके, मज्झिमनिकाय पालि, मूलपण्णासकं, चूलदुक्खक्खन्धसुत्तं १४-२, २ पृ० १२६-१३१ । 2010_05 Page #552 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१८ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड : १ असिबन्धकपुत्र ग्रामणी एक समयं भगवा नालन्दायं विहरति पावारिवम्बवने । अथ सो असिबन्धक पुत्तो गामणि निगण्ठसावको येन भगवा तेनुपसङ्कमि ; उ{सङ्कमित्वा एकमन्त निसीदि । एकमन्तं नितिन्नं खो असिबन्धकपुत्तं गामणि भगवा एतदवोच-"कथं नु खो, गामणि, निगाठो नाटपुतो सावकानं धम्म देसेती" ति ? ___"एवं खो, भन्ते, निगण्ठो नाटपुत्तो सावकानं धम्म देसेति--'यो कोचि पाणं अतिपातेति सब्बो सो आपायिको ने रयिको, यो कोचि अदिन्नं आदियति सब्बो सो आपायिको नेरयिको, यो कोचि कामेसु मिच्छा चरति सब्बो सो आपायको नेरयिको, यो कोचि मुसा भणति सब्बो सो आपायिको नेरयिको। यंबहुलं-यंबहुलं विहरति तेन तेन नीयति' ति । एवं खो, भन्ते, निगण्ठो नाटपुत्तो सावकानं धम्म देसेती" ति । "यंबहुलं यंबहुलं च, गामणि, विहरति तेन तेन नीयति', एवं सन्ते न कोचि आपायको नेरयिको भविस्सति, यथा निगण्ठस्स नाटपुत्तस्स वचनं । "तं किं मसि, गामणि, यो सो पुरिसो पाणातिपाती रत्तिया वा दिवसस्स वा समयासमयं उपादाय, कतमो बहुतरो समयो यं वा सो पाणमतिपातेति यं वा सो पाणं नातिपातेति" ति ? 'यो सो, भन्ते, पुरिसो पाणातिपाती रत्तिया वा दिवसस्स वा समयासमयं उपादाय, अप्पतरो सो समयो यं सो पाणमतिपातेति, अथ खो स्वेव बहुत रो समयो यं सो पाणं नातिपातेती" ति । __ "यंबहुलं यंबहुलं च, गामणि,०...। यो सो पुरिसो अदिन्नादायी रत्तिया वा दिवसस्स वा समयासमयं उपादाय,....। “यंबहुलं यंबहुलं च,... गामणि,-यो सो पुरिसो कामेसुमिच्छाचारी रत्तिया वा दिवसस्स वा समयासमयं उपादाय,....। "यंबहुलं यंबहुलं च, गामणि,... यो सो पुरिसो मुसावादो रत्तिया वा दिवसस्स वा समयासमयं उपादाय,...। "इध, गामणि, एकच्चो सत्था एवंवादी होति एवंदिट्ठि-'यो कोचि पाणमतिपातेति सब्बो सो आपायिको नेरयिको, यो कोचि अदिन्नं आदियति सब्बो सो आपायिको नेरयिको, यो कोचि कामेसु मिच्छा चरित्र सब्बो सो आपायिको नेरयिको, यो कोचि मुसा भणति सब्बो सो आपायिको नेरयिको' ति। तस्मि खो पन, गामणि, सत्थरि सावको अभिप्पसन्नो होति । तस्स एवं होति—'महं खो सत्था एवंवादी एवंदिट्ठि-यो कोचि पाणमतिपातेति सब्बो सो आपायिको नेरयिको ति। अत्थि खो पन मया पाणो अतिपातितो अहम्पम्हि आपायिको नेरयिको ति दिछि पटिल भति। तं, गामणि, वाचं अप्पहाय तं चित्तं अप्पहाय तं दिट्ठि अप्पटिनिस्सज्जित्वा यथाभतं निविखत्तो एवं निरये। मय्हं खो सत्था एवंवादी एवंदिट्ठि--- यो कोचि अदिन्नं अदियति....। मय्हं खो सत्था एवंवादी एवंदिट्ठि-यो कोचि कामेस 2010_05 Page #553 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा] त्रिपिटकों में निगण्ठ व निगन्ठ नातपुत्त : मूल पालि ४६६ मिच्छा चरति सब्बो....। मय्हं खो सत्था एवंवादी एवंदिट्ठि-यो कोचि मुसा भणति....। "इध पन, गामणि, तथागतो लोके उपपज्जति अरहं सम्मासम्बुद्धो विज्जाचरणसम्पन्नो सुगतो लोकविदू अनुत्त रो पुरिसदम्मसारथि सत्था देवमनुस्सानं बुद्धो भगवा । सो अनेकपरियायेन पाणातिपातं गरहति विगरहति' 'पाणातिपाता विरमथा' ति चाह । अदिन्नादान गरहति विगरहती 'अदिन्नादाना विरमथा' ति चाह । कामेसुमिच्छाचारं गरहति विगरहति 'कामेसुमिच्छाचारा विरमथा' ति चाह । मुसावाद गरहति विगरहति 'मुसावादा विरमथा' ति चाह । तस्मि खो पन गामणि, सत्थरि सावको अभिप्पसन्नो होति । सो इति पटिसञ्चिक्खति-'भगवा खो अनेकपरियायेन पाणातिपात गरहति विगरहति, पाणातिपाता विरमथा ति चाह । अस्थि खो पन मया पाणो अतिपातितो यावतको वा तावतको वा..', तं न सुठ्ठ, तं न साधु । अहं चेव खो पन तप्पच्चया विप्पटिसारी अस्सं । न मेतं पापं कम अकतं भविस्सती' ति । सो इति पटिसङ्घाय तं चेव पाणातिपातं पजहति । आयति च पाणातिपाता पटिविरतो होति । एवमेतस्स पापस्स कम्मस्स पहानं होति । एवमेतस्स पापस्स कम्मस्स समतिक्कमो होति । भगवा खो अनेक परियायेन अदिन्नादान'...." 'भगवा खो पन अनेकपरियायेन कामेसुमिच्छाचारं....। 'भगवा खो पन अनेकपरियायेन मुसावादं०... । “सो पाणातिपातं पहाय पाणातिपाता पटिविरतो होति । अदिन्नादानं पहाय अदिन्नादाना पटिविरतो होति । कामेसुमिच्छाचारं पहाय कामेसुमिच्छाचारा पटिविरतो होति । मुसावादं पहाय मुसावादा पटिविरतो होति। पिसुणं वाचं पहाय पिसुणाय वाचाय पटि विरतो होति । फरुसं वाचं पहाय फरुसाय वाचाय पटिविरतो होति । सम्फप्पलापं पहाय सम्फप्पलापा पटिविरतो होति । अभिज्झं पहाय अनभिज्झालु होति । व्यापादप्पदोसं पहाय अब्यापन्नचित्तो होति । मिच्छादिट्ठि पहाय सम्मादिठ्ठिको होति । 'स खो सो, गामणि, अरियसावको एवं विगताभिज्झो विगतव्यापादो असम्भूल्हो सम्पजानो पटिस्सतो मेत्तासहगतेन चेतसा एकं दिसं फरित्वा विहरति, तथा दुतियं, तथा ततियं, तथा चतुत्थं । इति उद्धमधो तिरियं सब्बधि सब्बत्तताय सब्बावन्तं लोकं मेत्तासहगतेन चेतसा विपुलेन महग्गतेन अप्पमाणेन अवेरेन अब्यापज्जेन फरित्वा विहरति । सेय्यथापि, गामणि, बलवा सङ्खधमो अप्पकसिरेनेव चतुद्दिसा विज्ञापेय्य; एवमेव खो, गामाणि, एवं भाविताय मेत्ताय चेतोविमुत्तिया एवं बहुलीकताय यं पमाणकतं कम्म, न तं तत्रावसिस्सति न तं तत्रावतिट्ठति । . “स खो सो, गामणि, अरियसावको एवं विगताभिज्झो विगतब्यापादो असम्मल्हो सम्पजानो पटिस्सतो करुणासहगतेन चेतसा...पे... मुदितासहगतेन चेतसा...पे०... उपेक्खासहगतेन चेतसा एकं दिसं फरित्वा विहरति, तथा दुतियं, तथा ततियं, तथा चतुत्थं ।... एवं वुत्ते, असि बन्धकपुत्तो गामणि भगवन्तं एतदवोच-"अभिक्कन्तं, भन्ते, अभि ____ 2010_05 2010_05 Page #554 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०० आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड : १ किन्तं, भन्ते...पे..."उपासकं में भगवा धारेतु अज्जतग्गे पाणुपेतं सरणं गतं" ति ।' नालन्दा में दुभिक्ष एक समयं भगवा कोसलेसु चारिकं चरमानो महता भिक्खुसधेन सद्धि येन नालन्दा तदवसरि । तत्र सुदं भगवा नालन्दाय विहरति पावारिकम्बवने । तेन खो पन समयेन नालन्दा दुब्भिक्खा होति द्वीहिति का सेतट्ठिका सलाकावुत्ता। तेन खो पन समयेन निगण्ठो नाटपुत्तो नालन्दायं पटिवसति महतिया निगण्ठपरिसाय सद्धि । अथ खो असिबन्धकपुत्तो गामणि निगण्ठसावको येन निगण्ठो नाटपुत्तो तेनुपसङ्कमि ; उपसङ्कमित्वा निगण्ठं नाटपुत्तं अभिवादेत्वा एकमन्तं निसीदि । एकमन्तं निसिन्नं खो असिबन्धकपुत्तं गामणि निगण्ठो नातपुत्तो एतदवोच-"एहि त्वं, गामणि, समणस्स गोतमस्स वादं आरोपेहि। एवं ते कल्याणो कित्तिसद्दो अब्भुग्गच्छिस्सति- 'असिबन्धकपुत्तेन गामणिना समणस्स गोतमस्स एवंमहिद्धिकस्स एवंमहानुभावस्स वादो आरोपितो" ति। "कथं पनाह, भन्ते' समणस्स गोतमस्स एवंमहिद्धिकस्स एवंमहानुभावस्स वादं आरोपे. स्सामी" ति? __ "एहि त्वं, गामणि, येन समणो गोतमो तेनुपसङ्कम ; उपसङ्कमित्वा समणं गोतमं एवं वदेहि-'ननु, भन्ते भगवा अनेक परियायेन कुलानं अनुद्दयं वण्णेति, अनुरक्खं वण्णेति, अनुकम्प वण्णेती' ति? सचे खो, गामणि, समणो गोतमो एवं पुट्ठो एवं व्याकरोति-'एवं गामणि, तथागतो अनेकपरियायेन कुलानं अनुद्दयं वण्णेति, अनुरक्खं वण्णेति, अनुकम्प वण्णेती' ति, तमेनं त्वं एवं वदेय्यासि-'अथ किञ्चरहि, भन्ते, भगवा दुभिक्खे द्वीहितिके सेतढिके सलाकावुत्ते महता भिक्खुसङ्घन न सद्धि चारिकं चरति ? उच्छेदाय भगवा कुलानं पटिपन्नो, अनयाय भगवा कुलानं पटिपन्नो, उपधाताय भगवा कुलानं पटिपन्नो' ति ! इमं खो ते, गामणि, समणो गोतमो उभतोकोटिकं पञ्हं पुट्ठो नेव सक्खति उग्गिलितं नेव सक्खति ओगिलितं" ति। "एवं, भन्ते" ति खो असिबन्धक पुत्तो गामणि निगण्ठस्स नाटपुत्तस्य पटिस्सुत्वा उट्टायासना निगण्ठं नाटपुत्तं अभिवादेत्वा पदक्खिणं कत्वा येन भगवा तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा भगवन्तं अभिवादेत्वा एकमन्तं निसीदि एकमन्तं निसिन्नो खो असिबन्वकपुत्तो गामणि भगवन्तं एतदवोच "ननु, भन्ते, भगवा अनेकपरियायेन कुलानं अनुद्दयं वण्णेति, अनुरक्खं वण्णेति अनुकम्पं वण्णेती" ति ? | "एवं, गामणि, तथागतो अनेकपरियायेन कुलानं अनुद्दयं वण्णेति, अनुरक्खं वण्णेति, अनुकम्पं वण्णेती" ति। १. सुत्तपिटके, संयुत्तनिकाय पालि, सलायतनवग्गो, गामणिसंयुत्तं संखधमत्त, ४२-८-८, पृ० २८१-८५। ____ 2010_05 Page #555 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा] त्रिपिटकों में निगण्ठ व निगण्ठ नातपुत्त : मूल पालि ५०१ "अथ किञ्चरहि, भन्ते भगवा दुभिक्खे द्वीहितिके सेतट्टिके सलाकावत्ते महता भिक्खुसधेन सद्धि चारिकं चरति ? उच्छेदाय भगवा कुलानं पटिपन्नो, अनयाय भगवा कुलानं पटिपन्नो, उपघाताय मगवा कुलानं पटिपन्नो" ति। 'इतो सो, गामणि, एकनवुतिकप्पे यमहं अनुस्सरामि, नाभिजानामि किञ्चि कुलं पक्कभिक्खानुप्पदानमत्तेन उपहत पुब्बं । अथ खो यानि तानि कुलानि अड्ढानि महीनानि महाभोगानि पहूतजातरूपरजतानि पहूतवित्तूपकरणानि पहूतधनघआनि, सब्बानि तानि दानसम्भूतानि चेव सच्चसम्भूतानि च सामञ्जसम्भूतानि च । अट्ठ खो, गामणि. हेतू, अट्ट पच्चया कुलानं उपघाताय। राजतो वा कुलानि उपघातं गच्छन्ति, चोरतो व कुलानि उपघातं गच्छन्ति, अग्गितो वा कुलानि उपघातं गच्छन्ति, उदकतो वा कुलानि उपघातं गच्छन्ति, निहितं वा ठाना विगच्छति, दुप्पयुत्ता वा कम्मन्ता विपज्जन्ति, कुले वा कुलङ्गारो ति उप्पज्जति यो ते भोगे विकिरति विधमति विद्धंसे ति, अनिच्चता येव अट्टमी ति । इमे खो, गामणि, अट्ट हेतू, अट्ठ, अट्ठ पच्चया कुलानं उपघाताय । इमेसु खो, गामणि, अट्ठसु हेतूसु अट्ठसु पच्चयेसु संविज्जमानेसु यो मं एवं वदेय्य-'उच्छेदाय भगवा कुलानं पटिपन्नो, अनयाय भगवा कुलानं पटिपन्नो, उपघाताय भगवा कुलानं पटिपन्नो,' ति, तं, गामणि, वाचं, अप्पहाय तं चित्त अप्पहाय तं दिट्टि अप्पटिनिस्सज्जित्वा यथाभतं निक्खित्तो एवं निरये" ति । एवं वुत्ते, असिबन्धकपुत्तो गामणि भगवन्तं एतदवोच-"अभिक्कन्तं, भन्ते, अभिक्कन्तं, भन्ते...पे... उपासक मं भगवा धारेतु अज्जतग्गे पाणुपेतं सरणं गत" ति । :८: चित्र गृहपति तेन खो पन समयेन निगण्ठो नातपुत्तो मच्छिकासण्डं अनुप्पत्तो होति महतिया निगण्ठपरिसाय सद्धि । अस्सोसि खो चित्तो गहपति-"निगण्ठो किर नातपुत्तो मच्छिकासण्ड अनुप्पत्तो महतिया निगण्ठपरिसाय सद्धि" ति। अथ खो चित्तो गहपति सम्बहुलेहि उपासकेहि सद्धि येन निगण्ठो नातपुत्तो तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा निगण्ठेन नाटपुत्तेन सद्धि सम्मोदि। सम्मोदनीयं कथं सरणीयं वीतिसारेत्वा एकमन्तं निसीदि । एकमन्तं निसिन्नं खो चित्तं गहपति निगण्ठो नाटपुत्तो एतदवोच-सद्दहसि त्वं, गहपति, समणस्स गोतमस्सअत्थि अवितको अविचारो समाधि, अत्थि वितक्कविचाराणं निरोधो" ति ? "न ख्वाहं, एत्थ, भन्ते, भगवतो सद्धाय गच्छामि । अत्थि अवितको अविचारी समाधि, अत्थि वितक्कविचारानं निरोघो" ति। १. सुत्तपिटके, संयुत्तनिकाय पालि, सलायतनवग्गो, गामणिसंयुत्तं, कुलसुत्त, ४२-६-६, पृ० २८५-८७ । ____ 2010_05 Page #556 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [ खण्ड : १ एवं वृत्ते, निगण्ठो नाटपुत्तो उल्लोकेत्वा एतदवोच - "इदं भवन्तो परसन्तु, याव उजुको चायं चित्तो गहपति, याव असठो चायं चित्तो गहपति, याव अमायावी चायं चित्तो गहपति, वातं वा सो जालेन बाघेतब्बं मञ्ञेय्य, यो वितक्कविचारे निरोघेतब्बं मज्ञेय्य, समुट्ठिना वा सो गङ्गाय सोतं आवारेतब्बं मञ्ञेय्य, यो वितक्कविचारे निरोधेतब्ब मय्या "ति । "तं कि मसि, भन्ते, कतमं नु खो पणीततरं आणं वा सद्धा वा" ति ? "सद्धाय खो, गहपति, जाणं येन पणीततरं" ति । "अहं खो, भन्ते, यावदेव आकखामि, विविच्चैव कामेहि विविच्च अंकुसले हि धम्मेहि सवितक्कं सविचारं विवेकजं पीतिसुखं पठमं भानं उपसम्पज्ज विहरामि । अहं खो, भन्ते, यावदेव आकखामि, वितक्कविचारानं वूपसमा पे० दुतिय झानं उपसम्पज्ज विहरामि । अहं खो, भन्ते, यावदेव आकखामि, पीतिया न विरागापेततियं भानं उपसम्पज्ज विहरामि । अहं खो भन्ते, यावदेव आकङ्क्षामि सुखस्स च पहानापे० चतुत्थं झानं उपसम्पज्ज विहरामि । न सो स्वाहं, भन्ते, एवं जानन्तो एवं पस्सन्तो कस्स अस्स समणस्स वा ब्राह्मणस्स वा सद्धाय गमिस्सामि । अत्थि अवितक्को अविचारो समाधि, अत्थि वितक्कविचारानं निरोधो" ति । ५०२ एवं वृत्ते, निगण्ठो नाटपुत्तो सकं परिसं अपलोकेत्वा एतदवोच— "इदं भवन्तो पस्सन्तु, याव अनुजुको चायं चित्तो गहपति, याव सठो चायं चित्तो गहपति, याव मायावी चायं चित्तो गहपती" ति । इदानेव खोते मयं, भन्ते, भासितं – एवं आजाजानाम इदं भवन्तो परसन्तु, याव उजुको चायं चित्तो गहपति, याव असठो चायं चित्तो गहपति, याव अमायावी चायं चित्तो गहपती' ति । इदानेव च पन मयं, भन्ते, भासितं - एवं आजानाम इदं भवन्तो परसन्तु, याव अनुजुको चायं चित्तो गहपति, याव सठी चायं चित्तो गहपति, याव मायावी चायं गहपती'ति । सचे ते, भन्ते, पुरिमं सच्चं, पच्छिमं ते मिच्छा । सचे पन ते, भन्ते, पुरिमं मिच्छा, पच्छिमं ते सच्चं । इमे खो पन, भन्ते, दस सहधम्मिका पञ्हा आगच्छन्ति । यदा सं अत्थं आजातेय्यासि, अथ मं पटिहरेय्यासि सद्धि निगण्ठपरिसाय । एको पञ्हो एको उद्देसो एकं वेय्याकरणं । द्वे पञ्हा द्वे उद्देसा द्वे वैय्याकरणानि । तयो पञ्हा तयो उद्देसा तोणि वैय्याकरणानि । चत्तारो पञ्हा चत्तारो उद्देसा चत्तारि वैय्याकरणानि । पञ्च पञ्हा पञ्च उद्देसा पञ्च वेय्याकरणानि । छ पञ्हा छ उद्देसा छ वैय्याकरणानि । सत्त पञ्हा सत्त उद्देसा सत्त वैय्याकरणानि । अट्ठ पञ्हा भट्ठ उद्देसा अट्ठ वैय्याकरणानि । नव पञ्हा नव उद्देसा नव वैय्याकरणानि । दस पञ्हा दस उद्देसा दस वैय्याकरणानी" ति । अथ खो चित्तो गहपति निगण्ठं नाटपुत्तं इमे दस सहधम्मिके पञ्हे आपुच्छित्वा उट्ठायासना पक्कामीति । १. सुत्तपिटके, संयुत्तनिकाय पालि, सलायतनवग्गो, चित्तसंयुत्तं निगण्ठ नाटपुत्तमुत्तं, ४१-८-८, पृ० २६५-६६ । 2010_05 Page #557 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा] त्रिपिटकों में निगण्ठ व निगण्ठ नातपुत्त : मूल पालि ५०३ कुतूहलशाला सुत्त अथ खो वच्छगीतो परिब्वाजको येन भगवा तेनुपसङ्कमि ; उपसङ कमित्वा भगवता सद्धि सम्मोदि । सम्मोदनीयं कथं सारणीयं वीतिसारेत्वा एकमन्तं निसीदि । एकमन्तं निसिन्नो खो वच्छगोत्तो परिब्बाजको भगवन्तं एतदवोच “पुरमानि भो गोतम, दिवसानि पुरिमतरानि सम्बहुलानं नानातित्थियानं समणब्राह्मणानं परिब्बाजकानं कुतूहलसालायं सन्नि सिन्नानं सन्निपतितानं अयमन्तराकथा उदपादि.-'अयं खो परणो कस्सपो सङघी चेव गणी च गणाचरियो च जातो यसस्सी तित्थकरो साधसम्मतो बहजनस्स । सो पिसावकं अब्भतीतं कालङकतं उपपत्तीस ब्याकरोति'अस अमत्र उपपन्नो. असू अमुत्र उपपन्नो' ति । यो पिस्स सावको उत्तमपुरिसो परमपूरिसो परमपत्तिपत्तो तं पि सावकं अब्भतीतं कालङ्कतं उपपत्तोसु ब्याकरोति- 'असु अमुत्र उपपन्नो, असु अमुत्र उपपन्नो' ति। "अयं पि खो मक्खलि गोसालो.. पे... अयं पि खो निगण्ठो नाटपुत्तो.. अयं पि खो सञ्जयो बेलठ्ठपुत्तो. अयं पि खो पकुधो कच्चानो.. अयं पि खो अजितो केसकम्बलो सङघी चेव गणी च........। "अयं पि खो समणो गोतमो सङ्घी चेव गणी च गणाचरियो च आतो यसस्सी तित्थकरो साधुसम्मतो बहुजनस्स । सो पि सावकं अब्भतीतं कालङ्कतं उपपत्तीसु ब्याकरोति'असु अमुत्र उपपन्नो, असु अमुत्र उपपन्नों' ति । यो पिस्स सावको उत्तमपुरिसो परमपूरिसो परमपत्तिपत्तो तं च सावकं अब्मतीतं कालङ्कत उपपतीसु न ब्याकरोति--'अस अमूत्र उपपन्नो, अस अमुत्र उपपन्नो' ति । अपि च खो नं एवं ब्याकरोति-अच्छेच्छि तण्ड, विवत्तयि संयोजनं, सम्मा मानाभिसमया अन्तमकासि दुक्खस्सा' ति। तस्स मय्हं, भो गोतम, अह देव कला अहु विचिकिच्छा-'कथं नाम समणस्स गोतमस्स धम्मो अभिअय्यो'"ति ? "अलं हि ते, वच्छ, कलित, अलं विचिकिच्छितुं कखनीये च पन ते ठाने विचिकिच्छा उप्पन्ना। सउपादानस्स स्वाहं, वच्छ, उपपत्ति पञआपेमि नो अनुपादानस्स। सेय्यथापि, वच्छ, अग्नि सउपादानो जलति, नो अनुपादानो; एवमेव स्वाहं, वच्छ, सउपादानस्स उपपत्ति पञआपेमि, नो अनुपादानस्सा" ति। यस्मि, भो गोतम, समये अच्चि वातेन खित्ता दूरं पि गच्छति, इमस्स पन भवं गोसमो किं उपादानस्मि पापेती' ति ? "यस्मि खो, वच्छ, समये अच्चि वातेन खित्ता दूरं पि गच्छति, तमहं वातूपादानं पआपेमि । वातो हिस्स, वच्छ, तस्मि समये उपादानं होती" ति । “यस्मि च पन, भो गोतम, समये इमं च कायं निक्खिपति सत्तो अञ्जतरं कायं अनपपलो होति इमस्स पन भवं गोतमो कि उपादानस्मि पापेती" ति? "यस्मि खो. वच्छ, समये इमं च कायं निक्खिपति सत्तोच अञ्जतरं कायं अनपपपन्नो होति, तमहं तण्हूपादानं वदामि । तण्हा हिस्स, वच्छ, तस्मि समये उपादानं होती" ति।' १. सुत्तपिटके, संयुत्त निकाय पालि, सलायतनवग्गो, अब्याकतसंयुत्तं, कुतूहलसालासुसं ४४-६-६ : पृ० ३४१-४२ । ___ 2010_05 Page #558 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०४ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड : १ १०: अभयलिच्छवी एक समयं आयस्मा आनन्दो वेसालियं विहरति महावने कूटागारसालायं। अथ खो अभयो च लिच्छवि पण्डितकुमारको च लिच्छवि येनायस्मा आनन्दो तेनुपसङ्कमिसु ; उपसङ्कमित्वा आयस्मन्तं आनन्दं अभिवादेत्वा एकमन्तं निसीदिसु । एकमन्तं निसिन्नो खो अभनो लिच्छवि आयस्मन्तं आनन्दं एतदवोच-"निगण्ठो, भन्ते, नाटपुत्तो सब्बञ्ज सब्बदस्सावी अपरिसेसं आणदस्सनं पटिजानाति- 'चरतो च मे तिट्ठतो च सुत्तस्स च जागरस्स च सततं समितं जाणदस्सनं पच्चुपट्टितं' ति । सो पुराणानं कम्मानं तपसा ब्यन्तीमावं पापेति नवानं कम्मान अकरणा सेतुघातं। इति कम्मक्खया दुक्खक्खयो, दुक्खक्खया, वेदनाक्खयो, वेदनाक्खया सब्बं दुक्खं निज्जिण्णं भविस्सति-एवमेतिस्सा सन्दिट्ठिकाय निज्जराय विसुद्धिया समतिक्कमो होति । इध, भन्ते, भगवा किमाहा" ति? "तिस्सो खो इमा, अभय, निज्जरा विसुद्धियो तेन भगवता जानता पस्सता अरहता सम्मासम्बुद्धेन सम्मदक्खाता सत्तानं विसुद्धिया सोकपरिदेवानं समतिकमाय दुक्खदोमनस्सानं अत्थङ्गमाय जायस्स अधिगमाय निब्बानस्स सच्छिकिरियाय । कतमा तिस्सो ? इध, अभय, भिक्खु सीलवा होति...पे... समादाय सिक्खति सिक्खापदेसु । सो नवं च कम्मं न करोति, पुराणं च कम्म फुस्स फुस्स ब्यन्तीकरोति । सन्दिट्ठिका निज्जरा अकालिका एहिपस्सिका ओपनेय्यिका पच्चत्तं वेदितब्बा विळूही' ति। "स खो सो, अभय, भिक्खु एवं सीलसम्पन्नो विविच्चेव कामेहि...पे...'चतुत्थं भानं उपसम्पज्ज विहरति। सो नवं च कम्मं न करोति, पुराणं च कम्मं फुस्स फुस्स ब्यन्तीकरोति । सन्दिट्ठिका निज्जरा अकालिका एहिपस्सिका ओपनेय्यिका पच्चत्तं वेदितब्बा वि ही" ति। “स खो सो, अभय, भिक्खु एवं समाधिसम्पन्नो आसवानं खया अनासवं घेतोविमुत्ति पज्ञाविमुत्ति दिठेव धम्मे सयं अमिञा सच्छिकत्वा उपसम्पज्ज विहरति । सो नवं च कम्म न करोति, पुराणं च कम्मं फुस्स फुस्स ब्यन्तीकरोति । सन्दिट्ठिका निज्जरा अकालिका एहिपस्सिका ओपनेय्यिका पच्चत्तं वेदितब्बा विही ति । दमा खो, अभय, तिस्सो निज्जरा विसुद्धियो तेन भगवता जानता पस्सता अरहता सम्मासम्बुद्धेन सम्मदक्खाता सत्तानं विसुद्धिया सोकपरिदेवानं समतिक्कमाय दुक्खदोमनस्सानं अत्वङ्गमाय जायस्स अधिगमाय निब्बानस्स सच्छिकिरियाया" ति। ___ एवं वुत्ते पण्डितकुमारको लिच्छवि अभयं लिच्छवि एतदवोच-"किं पन त्वं, सम्म अभय, भायस्मतो आनन्दस्स सुभासितं सुभासिततो नाब्भनुमोदसी" ति ? "क्याहं, सम्म पण्डितकुमारक आयस्मतो आनन्दस्स सुभासितं सुभासिततो नाब्भनुमोदिस्सामि ! मुद्धा पि तस्स विपतेय्य यो आयस्मतो आनन्दस्स सुभासितं सुभासिततो नाब्भनुमोदेय्या' ति।' १. सुत्तपिटके, अंगुत्तरनिकाय पालि, तिकनिपात, आनन्दवग्गो, निगण्ठसुत्तं, ३-८-४, पृ० २०५। 2010_05 Page #559 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा ] त्रिपिटकों में निगण्ठ व निगण्ठ नातपुत्त : मूल पालि ५०५ : ११ः लोकसान्त - श्रनन्त १. अथ खो लोकायतिका ब्राह्मणा येन भगवा तेनुपसङ्कमिसु ; उपसङ्कमित्वा भगवता सद्धि सम्मोदिसु । सम्मोदनीयं कथं सारणीयं वीतिसारेत्वा एकमन्तं निसीदिसु । एकमन्तं निसिन्ना खो ते ब्राह्मणा भगवन्तं एतदवोचुं - २. “पूरणो, भो गोतम, कस्सपो सब्बञ्नू सब्बदस्सावी अपरिसेसं वाणदस्सनं परिजानाति – 'चरतो च मे तिट्ठतो च सुत्तस्स च जागरस्स च सततं समितं जाणदस्सनं पच्चुपट्ठितं" ति । सो एवमाह - ' अहं अनन्तेन वाणेन अनन्तं लोकं जानं पस्सं विहरामी' ति । अयं पि, भो गोतम, निगण्ठो नाटपुत्त सब्बञ्जू सब्बदस्सावी अपरिसेसं जाणदस्सनं पटिजानाति - 'चरतो च मे तिट्ठतो च सुत्तस्स च जागरस्स च सततं समितं त्राणदस्सनं पच्चुपट्ठितं' ति । सो एवमाह – ' अहं अनन्तेन वाणेन अनन्तं लोकं जानं पस्सं विहरामी' ति । इमेसं, भो गोतम उभिन्नं आणवादनं उभिन्नं अञ्ञमञ्यं विपच्चनीकवादानं को सच्च आह को मुसा " ति ? ३. "अलं, ब्राह्मणा ! तिट्ठतेतं - 'इमेसं उभिन्नं जाणवादानं उभिन्न अञ्ञम विपच्चनीकवादानं को सच्चं आह को मुसा' ति । धम्मं वो, ब्राह्मणा, देसेस्सामि, तं सुणाथ, साधुकं मनसिकरोथ; भासिस्सामी” ति । "एवं भो” ति खो ते ब्राह्मणा भगवतो पच्चस्सोसुं । भगवा एतदवोच'.. ...] : १२ः aur - जैन श्रावक एकं समयं भगवा सक्केसु विहरति कपिलवत्थुस्मि निग्रोधारामे । अथ खो वप्पो सक्को निगण्ठसावको येनायस्मा महामोग्गल्लानो तेनुपसङ्कमि ; उपसङ्कमित्वा आयस्मन्तं महामोग्गल्लानं अभिवादेत्वा एकमन्तं निसीदि । एकमन्तं निसिन्नं खो वप्पं सक्कं निगण्ठसावकं आयस्मा महामोग्गल्लानो एतदवोच— “इघस्स, वप्प, कायेन संवृतो वाचाय संवतो मनसा संवृतो अविज्जाविरागा विज्जुप्पादा | पस्ससि नो त्वं, वप्प, तं ठानं यतोनिदानं पुरिसं दुक्खवेदनिया आसवा अस्सवेयुं अभिसम्परायं" ति ? "पस्सामहं, भन्ते, तं ठानं । इधस्स, भन्ते, पुब्बे पापकम्मं कतं अविपक्कविपाकं । ततोनिदानं पुरिसं दुक्खवेदनिया आसवा अस्सवेय्युं अभिसंपराय" ति । 2010_05 १. सुत्तपिटके, अंगुत्तरनिकाय पालि, नवक-निपातो, महावग्गो, लोकायतिकसुत्तं, ६-४-७ ; पृ० ६६-६७ । Page #560 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन खण्ड :१ अयं चेव खो पन आयस्मतो महामोग्गल्लानस्स वप्पेन सक्केन निगण्ठसावकेन सद्धि अन्तराकथा विप्पकता होति; अथ खो भगवा सायन्हसमयं पटिसल्लाना बुठ्ठितो येन उपट्ठानसाला तेनुपसङ्कमि ; उपसङ्कमित्वा पञत्ते आसने निसोदि । निसज्ज खो भगवा आयस्मन्तं महामोग्गल्लानं एतद्वोच "काय नुत्थ, मोग्गल्लान, एतरहि कथाय सन्निसिन्ना ; का च पन वो अन्तराकथा विप्पकता" ति ? इधाहं, भन्ते, वप्पं सक्कं निगण्ठसावकं एतदवोचं- 'इधस्स, वप्प, कायेन०...... अभिसंपरायं' ति ? एवं वुत्ते, भन्ते, वप्पो सक्को निगण्ठसावको मं एतदवोच–'पस्सामहं, मन्ते०,...... अभिसंपरायं' ति। अथ खो नो, भन्ते, वप्पेन सक्केन निगण्ठसावकेन सद्धि अन्तराकथा विप्पकता ; अथ भगवा अनुप्पत्तो" ति। अथ खो भगवा वप्पं सक्कं निगण्ठसावकं एतदवोच-"सचे मे त्वं, वप्प अनुज्नेय्यं चैव अनुजानेय्यासि, पटिक्कोसितब्बं च पटिक्कोसेय्यासि, यस्स च मे भासितस्स अत्थं न जानेय्यासि ममेवेत्थ उत्तरि पटिपुच्छेय्यासि-'इदं, भन्ते, कथं, इमस्स को अत्थो' ति सिया नो एत्थ कथासल्लापो" ति । ___अनुज्जेय्यं चेवाहं, भन्ते,भगवतो अनुजानिस्सामि पटिक्कोसितब्बं च पटिक्कोसिस्सामि, यस्स चाहं भगवतो भासितस्स अत्थं न जानिस्सामि भगवन्तंयेवेत्थ उत्तरि पटिपुच्छिस्सामि'इदं भन्ते, कथं, इमस्स को अत्थो' ति ? होतु नो एत्थ कथासल्लापो" ति । "तं कि मअसि, वप्प, ये कायसमारम्भपच्चया उप्पज्जन्ति आसवा विघातपरिलाहा कायसमारम्भा पटिविरतस्स एवंस ते आसवा बिघातपरिलाहा न होन्ति । सो नवं च कम्मं न करोति, पुराणं च कम्मं फुस्स फुस्स ब्यन्तीकरोति, सन्दिट्टिका निज्जरा अकालिका एहिपस्सिका ओपने य्यिका पच्चत्तं वेदितब्बा विज्यूहि। पस्स सि नो त्वं, वप्प, तं ठानं यतो-निदानं पुरिसं दुक्खवेदनिया आसवा अस्सवेय्युं अभिसम्परायं" ति ? नो हेतं भन्ते। "तं कि मञ्जसि, वप्प, ये वचीसमारम्भपच्चया उप्पज्जन्ति आसवा........... अभिसम्परायं" ति? "नो हेतं, भन्ते"। "तं कि मञसि वप्प, ये मनोसमारम्भपच्चया उप्पज्जन्ति आसवा... अभिसम्परायं" ति? "नो हेतं, भन्ते"। "तं किं मनसि, वप्प, ये अविज्जापच्चया उप्पज्जन्ति आसवा... अभिसम्परायं" ति? "नो हेतं, भन्ते"। "एवं सम्मा विमुत्तचित्तस्स खो, वप्प, भिक्खुनो छ सतत विहारा अधिगता होन्ति । सो चक्खुना रूपं दिस्वा नेव सुमनो होति न दुम्मनो; उपेक्खको विहरति सतो सम्पजानो। सोतेन सदं सुत्वा.. धानेन गन्धं घायित्वा.. पे०.. जिव्हाय रसं सायित्वा.. पे०.. कायेन फोट्टब्बं फुसित्वा.. पे०.. मनसा धम्म विज्ञाय नेव सुमनो होति न दुम्मनो ; उपेक्खको विहरति सतो सम्पजानो । सो कायपरियन्तिकं वेदनं वेदियमानो 'कायपरियन्तिकं वेदनं ____ 2010_05 Page #561 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा] त्रिपिटकों में निगण्ठ व निगण्ठ नातपुत्त : मूल पालि ५०७ वेदियामी' ति पजानाति ; जीवितपरियन्तिकं वेदनं वेदियमानो 'जीवितपरियन्तिक बेदनं वेदियामी, ति पजानाति, ‘कायस्स भेदा उद्धं जीवितपरियादाना इधेव सब्बवेदयित्मनि अनभिनन्दितानि सीती भविस्सन्ती' ति पजानाति । सेय्यथापि, वप्प, थूणं पटिच्च छाया पञ्चायति । अथ पुरिसो आगच्छेय्य कुदालपिटकं आदाय। सो तं मूले छिन्देय्य ; मूले छिन्दित्वा पलिखणेय्य ; पलिखणित्वा मूलानि उद्धरेय्य, अन्तमसो उसीरनालिमत्तानि' पि । सो तं थूणं खण्डाखण्डिकं छिन्देय्य । खण्डाखण्डिक छेत्वा फालेय्य । फालेत्वा सकलिकं सकलिकं करेय्य । सकलिकं सकलिकं कत्वा वातातपे विसोसेय्य । वाततपे विसोसेत्वा अग्गिना डहेय्य । अग्गिना डहेत्वा मसि करेय्य । मसिं करित्वा महावाते वा ओफुणेय्य नदिया वा सीधसोताय पवहेय्य। एवं हिस्स, वप्प, या थूणं पटिच्च छाया सा उच्छिन्नमूला तालावत्थुकता अनभावङ्कता आयति अनुप्पादधम्मा। "एवमेव खो, वप्प, एवं सम्मा विमुत्तचित्तस्स भिक्खुनो छ सतत विहारा०....... पजानाति"। एवं वृत्ते वप्पो सक्को निगण्ठसावको भगवन्तं एतदवोच-"सेय्यथापि, भन्ते, पुरिसो उदयत्थिको अस्सपणियं पोसेय्य । सो उदयं चेव नाधिगच्छैय्य, उत्तरं च किलमथस्स विघातस्स भागी अस्स । एवमेव खो अहं, भन्ते, उदयस्थिको बाले निगण्ठे पयिरुपासि। स्वाहं उदयं चेव नाधिगच्छि, उत्तरि च किलमथस्स विघातस्स भागी अहोसि । एसाह, भन्ते, अज्जतग्गे यो मे बालेसु निगण्ठेसु पसादो तं महावाते वा ओफुणामि नदिया वा सीधसोताय पवाहेमि । अभिक्कन्तं, भन्ते....."उपासकं म, भन्ते, भगवा धारेतु अज्जतग्गे पाणुपेतं सरणं गतं" ति। सकुल उवायी सततं समितं सब्ब ता एवं मे सुतं । एक समयं भगवा राजगहे विहरति वेलुवने कलन्दकनिवापे । तेन खो पन समयेन सकुलुदायी परिब्बाजको मोरनिवापे परिब्बाजकारामे पटिवसति महतिया परिवाजकपरिसाय सद्धि । अथ खो भगवा पुब्बण्हसमयं... पच्छा पि सवनाय । यदाह, भन्ते, इमं परिसं अनुपसङ्कन्तो होमि अथायं परिसा अनेकविहितं तिरच्छानकथं कथेन्ती निसिन्ना होति ; यदा च खो अहं, भन्ते, इमं परिसं उपसङ्कन्तो होमि अथायं परिसा ममोव मुखं उल्लोकेन्ती निसिन्ना होति–'यं नो समणो उदायी धम्म कासिस्सति तं सोस्सामा' ति ; यदा पन, भन्ते भगवा इमं परिसं उपसङ्कन्तो होति अथाहं चेव अयं च १. सुत्तपिटके, अंगुत्तरनिकाय पालि, चतुक्कमिपात, महावग्गो, वप्पसुत्तं, ४-२०-५; पृ० २१०-२१३॥ 2010_05 Page #562 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०८ परिसा भगवतो मुखं सोस्सामा " ति । आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड : १ उल्लोकेन्ता निसिन्ना होम-यं नो भगवा धम्मं भासिस्सति तं नहुदायि, तं एवेत्थ पटिभातु यथा मं पटिभासेय्यासि " । "पुरिमानि, भन्ते, दिवसानि पुरिमतरानि सब्बञ्जू सब्बदस्सावी अपरिसेसं वाणदस्सनं पटिजानमानी चरतो च मे तिट्टतो च सुत्तस्स च जागरस्स च सततं समितं त्राणदस्सनं पच्चुपट्टितं ति । सो मया पुब्वन्तं आरम्भ पञ्हं पुट्ठो समानो अज्ञेन परिचरि, बहिद्धा कथं अपना मेसि, कोप च दोमं च अप्पच्चयं च पात्वाकासि । तस्म मय्हं, भन्ते, भगवन्तान्येव आरम्भ सति उदपादि - 'अहो नून भगवा, अहो नून सुगतो ! यो इमेसं घम्मानं सुकुसली" ति । “को पन सो, उदायि सब्बज्जू सब्बदस्सावी ० ' निगण्ठो, भन्ते, नातपुत्तो" ति । ०पात्वाकासी" ति ? पुब्बन्तापरन्तपञ्हविस्सज्जने समत्यो यो खो, उदायि, अनेकविहितं पुब्बे निवासं अनुसरेय्य, सेय्यथीदं– एकं पि जाति द्वे पि जातियोपे० इति साकारं सउद्देसं अनेकविहितं पुब्बेनिवास अनुस्सरेय्य, सो वा मं पुब्बतं आरम्भ पन्हं पुच्छेय्यं ; सो वा मे पुब्बन्तं आरम्भ पञ्हस्स वेय्याकरणेन चित्तं आराधेय्य, तस्स वाहं पुब्बन्तं आरम्भ पञ्हस्स वेय्याकरणेन चित्तं आराधेय्यं । "यो खो, उदायि, दिब्बेन चक्खुना विसुद्धेनं अतिक्कन्त मानुसकेन सत्ते परसेय्य चवमाने उपपज्जमाने हीने पणीते सुवण्णे दुब्बण्णे, सुगते दुग्गते यथा कम्मूपगे सत्ते पजानेय्य, सो वा मं अपरन्तं आरब्भ०वाहं अपरन्तं आरम्भ मे अपरन्तं आरब्भवाहं अपरन्तं आरब्भ० आराधेय्यं । "अपि च, उदायि, तिट्ठतु पुब्बन्तो, तिट्ठतु अपरन्तो । धम्मं ते देसेस्सामि - इमस्मि सति इदं होति इमस्सुप्पादा इदं उप्पज्जति ; इमस्मि असति इदं न होति, इमस्स निरोधा इदं निरुज्झती" ति । १०...... 2010_05 : १४ : निर्वाण - संवाद (१) नातपुत्त कालङ्कते भिन्ना निगष्ठा एवं मे सुतं । एकं समयं भगवा सक्केसु विहरति सामगामे । तेन खो पन समयेन निगण्ठो नातपुत्तो पावायं अधुनाकालङ्कृतो होति । तस्स कालङ्किरियाय भिन्ना निगष्ठा द्वेषिकजाता भण्डनजाता कलहजाता विवादापन्ना | अञ्ञमञ्ञ मुखसत्तीहि वितुदन्ता १. सुत्तपिटके, मज्झिमनिकाय पालि, मज्झिमपष्णासक, चूलसकुलुदायिसुत्तं, २६-१-२; पृ० २५५-५७ । Page #563 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा] त्रिपिटकों में निगण्ठ व निगण्ठ नातपुत्त : मूल पालि ५० विहरन्ति -"न त्वं इमं धम्म विनयं आजानासि, अहं इमं धम्मविनयं आजानामि । किं त्वं इमं धम्मविनयं आजानिस्ससि ! मिच्छापटिपन्नो त्वमसि, अहमस्मि सम्मापटिपन्नो। सहितं मे, असहितं ते । पुरेवचनीयं पच्छा अवच, पच्छावचनीयं पुरे अवच । अधिचिण्णं ते विपरावत्तं। आरोपितो ते वादो । निग्गहितोसि, चर वादप्पमोक्खाय ; निब्बेठेहि वा सचे पहोसी" ति । वधो येव खो मझे निगण्ठेसु नात्तपुत्तियेसु वत्तति । ये पि निगण्ठस्स नातपुत्तस्रा सावका गिही ओदातवसना ते पि निगण्ठेमु नातपुत्तिगुमु निcिबन्नरूपा विरत्तरूपा पटिवानरूपा यथा तं दुरक्खाते धम्मविनये दुप्पवेदिते अनिय्यानिके अनुपसमसंवत्तनिके असम्मासम्बुद्धप्पवेदिते भिन्नरूपे अप्पटिसरणे। ____अथ खो चुन्दो समणुद्देसो पावायं वस्सं वुत्थो येन सामगामो येनायस्मा आनन्दो तेनुपसङ्कमि ; उपसङ्कमित्वा आयस्मन्तं आनन्दं अभिवादेत्वा एकमन्तं निसीदि। एकमन्तं निसिन्नो खो चुन्दो समणुद्देसो आयस्मन्तं आनन्दं एतदवोच---“निगण्ठो, भन्ते, नातपुत्तो पावायं अधुनाकालङ्कतो। तस्स कालंङ्किरियाय भिन्ना निगण्ठा द्वेधिकजाता...पे०... भिन्नथूपे अप्पटिसरणे" ति । एवं वृत्त, आयस्मा आनन्दो चुन्दं समणुद्देसं एतदवोच"अत्थि खो इदं, आवुसो चुन्दं, कथापाभतं भगवन्तं दस्सनाय । आयाम, आवुसो चुन्द, येन भगवा तेनुपसङ्कमिस्साम ; उपसङ्कमित्वा एतमत्थं भगवतो आरोचेस्सामा।" ति । “एवं, भन्ते" ति खो चुन्दो समणुद्दसो आयस्मतो आनन्दस्स पच्चस्सोसि । ___अथ खो आयस्मा च आनन्दो चुन्दो च समणुद्देसो येन भगवा तेनुपसङ्कर्मिसु ; उपसङ्कमित्वा भगवन्तं अभिवादेत्वा एकमन्तं निसिदिसु । एकमन्तं निसिन्नो खो आयस्मा आनन्दो भगवन्तं एतदवोच-"अयं, भन्ते चुन्दो समणुद्देसो एवमाह--'निगण्ठो, भन्ते, नातपुत्तो पावायं अधुनाकालङ्कतो। तस्स कालङ्किरियाय भिन्ना निगण्ठा द्वैधिकजाता... पे... भिन्नथूपे अप्पटिसरणे" ति । तस्स मय्हं, भन्ते, एवं होति—'माहेव भगवतो अच्चयेन सङ्घ विवादो उप्पज्जि; स्वास्स विवादो बहुजनाहिताय बहुजनासुखाय बहुनो जनस्स अनत्थाय अहिताय दुक्खाय देवमनुस्सान" ति ।' :१५: निर्वाण-संवाद (२) निगण्ठो नाटपुत्तो कालङ्कतो एवं मे सुतं । एक समयं भगवा सक्केसु विहरती वेधञा नाम सक्या तेसं अम्बवने पासादे। तेन खो पन समयेन निगण्ठो नाटपुत्तो पावायं अधुनाकालङ्कतो होति । तस्स कालकिरियायभिन्ना निगण्ठा द्वेधिकजाता भण्डनजाता कलहजाता विवादापन्ना अजमलं मुखसत्तीहि वितुदन्ता विहरन्ति - "न त्वं इम घम्मविनयं आजानासि, अहं इमं धम्मविनयं आजा १. सुत्तपिटके, मज्झिमनिकाय पालि, उपरिपण्णासक, सामागामसुत्तं ३-४-१; पृ० ३७-३८ । ___JainEducation International 2010_05 Page #564 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन खण्ड : १ नामि । कि त्वं इम धम्मविनयं आजानिस्ससि ? मिच्छापटिपन्नो त्वमसि, अहमस्मि सम्मापटिपन्नो। सहितं मे, असहितं ते। पुरेवचनीयं पच्छा अवच, पच्छावचनीयं पुरे अवच। अधिचिण्णं ते विपरावत्तं। आरोपितो ते वादो। निग्गहितो त्वमसि। चर वादप्पमोक्खाय । निब्बेटेहि ना सचे पहोसी'' ति । वधो एव खो मजे निगण्ठेसु नाटपुत्तियेसु वत्तति । ये पि निगण्ठस्स नाटपुत्तस्स सावका गिही ओदातवसना ते पि निगण्ठेसु नाटपुत्तियेसु निबिन्नरूपा विरत्तरूपा पटिवानरूपा-यथा तं दुरक्खाते धम्मविनये दुप्पवेदिते अनिय्यानि के अनुपसमसंवत्तनिके असम्मासम्बुद्धाप्पवेदिते भिन्नथुपे अप्पटिस रणे। ___ अथ खो चुन्दो समणुद्देसो पावायं वस्सुवुट्ठो येन सामगामो येनायस्मा आनन्दो तेनुपसङकमि: उपसङकमित्वा आयमन्तं आनन्दं अभिवादेवा एकमन्तं निसीदि । एकमन्तं निसिन्नो खो चन्दो समणसो आयस्मन्तं आनन्दं एतदवोच-"निगण्ठो, भन्ते, नाटपत्तो पावायं अधुनाकालङ्कतो। तस्स कालङ्किरियाय भिन्ना निगण्ठा द्वेधिकजाता.. पे०... भिन्नथूपे अप्पटिसरणे" ति। एवं वुत्ते, आयस्मा आनन्दो चुन्दं समणुद्देसं एतदवोच-"अत्थि खो इदं, आवुसो चुन्द, कथापाभतं भगवन्तं दस्सनाय । आयामात्सो चुन्द येन भगवा तेनुपसङ्कविस्साम; उपसङ्कमित्वा एतमत्थं भगवतो आरोचेस्सामा" ति । “एवं, भन्ते" ति मो चुन्दो समणुद्दे सो आयस्मतो आनन्दस्स पच्चस्सोसि । अथ खो आयस्मा च आनन्दो चुन्दो च समणुद्देसो येन भगवा तेनुपसकर्मिसु; उपसङ्कमित्वा भगवन्तं अभिवादेत्वा एकमन्तं निसीदिसु । एकमन्तं खो निसिन्नो आयस्मा आनन्दो भगवन्तं एतदवोच-"अयं, भन्ते, चुन्दो समणुद्देसो एवमाह-निगण्ठो, भन्ते, नाटपुत्तो पावायं अधुनाकालङ्कतो। तस्स काल किरियाय भिन्ना निगण्ठा...पे... भिन्नथूपे अप्पटिसरणे" ति। : १६ निर्वाण-चर्चा सारिपुत्तो अनुजातो धम्मिया कथाय एवं मे सुतं । एक समयं भगवा मल्लेसु चारिकं चरमानो महता भिक्खुसङ्घन सद्धि पञ्चमत्तेहि भिक्खुसतेहि येन पावा नाम मल्लानं नगरं तदवसरि। तत्र सुदं भगवा पावायं विहरति चुन्दस्स कम्मारपुत्तस्स अम्बवने । तेन खो पन समयेन पावेय्यकानं उन्भतकं नाम नवं सन्थागारं अचिरकारितं होति अनझावुप्थं समणेन वा ब्राह्मणेन वा केनचि वा मनुस्सभूतेन । अस्सोसुं खो पावेय्यका मल्ला..."भगवा किर मल्लेसु चारिकं चरमानो महता भिक्खुसङ्घन सद्धि पञ्चमत्तेहि १. सुत्तपिटके, दीघनिकाय पालि, पाथिकवग्गो सुत्रा, ३-६-१, पृ० ६१-६२ । 2010_05 Page #565 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा] त्रिपिटकों में निगण्ठ व निगण्ठ नातपुत्त : मूल पालि ५११ भिक्खुसते हि पावं अनुप्पत्तो पावायं विहरति चुन्दस्य कम्मारपुत्तस्स अम्बबने" ति । अथ खो पावेय्यका मल्ला येन भगवा तेनुपसङ्कमिंसु, उपसङ्कमित्वा भगवन्तं अभिवादेत्वा एकमन्तं निसीदिसु । एकमन्तं निसिन्ना खो पावेय्यका मल्ला भगवन्तं एतदवोच - " इध, भन्ते, पावेय्यकानं मल्लानं उब्भतकं नाम नतं सन्थागारं अचिरकारितं होति अनज्भावुत्थं समणेन वा ब्राह्मणेन वा केनचि वा मनुस्सभूतेन । तं च, खो, भन्ते, भगवा पठमं परिभुञ्जतु । भगवता पठमं परिभुत्तं पच्छा पावेय्यका मल्ला परिभुञ्जस्सन्ति । तदस्य पावेय्यकानं मल्लानं दीघरत्तं हिताय सुखाया" ति । अधिवासेसि खो भगवा तुम्हीभावेन । I अथ खो पावेय्यका मल्ला भगवतो अधिवासनं विदित्वा उट्ठायासना भगवन्तं अभिवोदत्वा पदक्खिणं त्वा येन सन्थागारं तेनुपसङ्कमिंसु, उपसंकमित्वा सब्बसन्थरि सन्थागारं सन्थरित्वा भगवतो आसनानि पञ्ञात्वा उदकमणिकं पतिट्टपेत्वा तेलप्पदीपं आरोपेत्वा येन भगवा तेनुपसङ्कमिंसु; उपसङ्कमित्वा भगवन्तं अभिवादेत्वा एकमन्तं अट्ठसु । एकमन्तं ठिता खो ते पावेका मलया भगवन्तं एतदवोचु - "सब्बसन्यरिसन्थतं, भन्ते, सन्थागारं I भगवतो आसनानि पञ्ञत्तानि, उदकमणिको पतिट्ठापितो, तेलपदीपो आरोपितो । यस्स दानि, भन्ते, भगवा कालं मञ्ञती" ति । अथ खो भगवा निवासेत्वा पत्तचीवरमादाय सद्धि भिक्खुसङ्घेन येन सन्थागारं तेनुपसङ्कमि ; उपसङ्कमित्वा पादे पक्खालेत्वा सन्थागारं पविसित्वा मज्झिमं थम्भं निस्साय पुरत्थाभिमुखो निसीदि० ।। अथ खो भगवा पावेय्यके मल्ले बहुदेव रति धम्मिया कथाय सन्दस्सेत्वा समादपेत्वा समुत्तेजेत्वा सम्पहंसेत्वा उय्योजेसि - "अभिक्कन्ता खो, वासेट्ठा, रत्ति । यस्स दानि तुम्हे कालं मञ्ञथा" ति । "एवं, भन्ते" ति खो पावेय्यका मल्ला भगवतो पटस्त्वा उट्ठापासना भगवन्तं अभिवादेत्वा पदक्खिणं करवा पक्कमिंसु । अथ खो भगवा अचिरपक्कन्ते सु. पावेय्य केसु मल्लेसु तुम्हीभूतं भिक्खुसङ्घ अनुविलोकेत्वा आयस्मन्तं सारिपुत्त' आमन्तेसि - “विगतथिनमिद्धो खो, सारिपुत्त, भिक्खुसङ्घो । पटिभातु तं सारिपुत्त, भिक्खुनं धम्मी कथा । पिट्टि मे आगिलापति । तमहं आयमिस्सामी" ति । "एवं, भन्ते" ति खो आयस्मा सारिपुत्तो भगवतो पच्चस्सोसि । अथ खो भगवा चतुग्गुणं सङ्घाटि पञ्ञात्वा दक्खिणेन परसेन सीहसेय्यं कप्पेसि, पाढे पादं अच्चाधाय, सतो सम्पजानो, उट्ठानसं मनसि करित्वा । निगण्ठा भिन्ना भण्डनजाता तेन खो पन समयेन निगण्ठो नाटपुतो पावायं अधुनाकालङ्कतो होति । तस्स कालङ्किरियाय भिन्ना निगण्ठा द्वेधिकजाता भण्डनजाता कलहजाता विवादापन्ना अञ्ञमञ्ञ मुखसत्तीहि वितुदन्ता विहरन्ति - "न त्वं इमं धम्मविनयं आजानासि, अहं इमं धम्मविनयं आजानामि । किं त्वं इमं धम्मविनयं आजानिस्ससि ! मिच्छापटिपन्नो त्वमसि, अहमसि सम्मापटिपन्नो | सहितं मे, असिहतं ते । पुरेवचनीयं पच्छा अवच, पच्छावचनीयं पुरे अवच । अधिचिणं ते विपरवत्तं । आरोपितो ते वादो । निग्गहितो त्वमसि । चर वादप्पमोक्खाय । निब्ठेहि वा सचे पहोसि" ति । वधो येव खो मजे निगण्ठेसु नाटपुत्तियेसु वत्तति । येपि निण्ठस्स नाटपुत्तस्स सावका गिही ओदातवसना ते पि निगण्ठेसु नाटपुत्तियेसु निब्बिन्नरूपा 2010_05 Page #566 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१२ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड : १ विरत्तरूपा पटिवानरूपा~यथा तं दुरक्खाते धम्मविनये दुप्पवेदिते अनिय्यानिके अनुपसमसंवत्तनिके असम्मासम्बुद्धप्पवेदिते भिन्नथूपे अप्पटिसरणे। अथ खो आयस्मा सारिपत्तो भिक्खू आमन्तेसि-“निगण्ठो, आवुसो, नाटपुत्तो पावायं अधुनाकालङ्कतो। तस्स काल किरियाय भिन्ना निगण्ठा द्वेधिकजाता-...पे०-...भिन्नथपे अप्पटिसरणे"। तत्थ सब्बेहेव सङ्गायितब्बं "एवम्हेतं, आवुसो, होति दुरक्खाते धम्मविनये दुप्पवेदिते अनिय्यानिके अनुपसमसंवत्तनिके असम्मासम्बुद्धप्पवेदिते। अयं खो पनावुसो, अम्हाकं भगवता धम्मो स्वाक्खातो सुप्पवेदितो निय्यानिको उपसमसंवत्तनिको सम्मासम्बुद्धप्पवेदितो, तत्थ सब्बेहेव सङ्गायितब्ब, न विवदितब्बं, ययिंदं ब्रह्मचरियं अद्ध नियं अस्स चिरट्ठितिक, तदस्स बहुजन हिताय बहुजनसुखाय लोकानुकम्पाय अत्थाय हिताय सुखाय देवमनुस्सानं । कतमो चासो, अम्हाकं भगवता धम्मो स्वाक्खातो सप्पवेदितो निय्यानिको उपसमसंवत्तनिको सम्मानबुद्धप्पवेदितो. यत्थ सब्बेहेव समायितब्बं, न विवदितब्ब, यथयिदं ब्रह्मचरियं अद्धनियं अस्स चिरट्ठितिक, तदस्स बहुजनहिताय बहुजनसुखाय लोकानुकम्पाय हिताय सुखाय देवमनुस्सानं ? ......" १७: निगण्ठ नातपुत्त की मृत्यु का कारण नन अयं नातपुत्तो नालन्दावासिको । सो कस्मा पावायां कालकतो ? ति । सो किर उपालिना गाहापतिना पटिबिद्धसच्चेन दसहि गाथाहि भाषिते बुद्ध गुणे सुत्वा उण्हं लोहितं छड्डे सि । अथ नं अफासुकं गहेत्वा पावां अगमंसु। सो तत्थ कालं अकासि ।। १८: दिव्यशक्ति प्रदर्शन तेन खो पन समयेन राजगहकस्त्र से ट्ठिस्स महग्घस्स चन्दनस्स चन्दनगण्ठि उप्पन्ना होति । अथ खो राजगहकस्स सेट्ठिस्स एतदहोसि-“यन्नूनाहं इमाय चन्दनगण्ठिया १. सुत्तपिटके, दीघनिकाय पालि, पाथिकवग्गो, संगीतिसुत्तं ३-३०-१, २, ३, पृ० १६६-१६८ । २. मज्झिमनिकाय अट्ठकथा, सामगामसुत्त वण्णना (आई० बी० होर्नर द्वारा सम्पा दित), खण्ड ४, पृ० ३४ । ____ 2010_05 Page #567 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा] त्रिपिटकों में निगण्ठ व निगण्ठ नातपुत्त : मूल पालि ५१३ पत्तं लेखापेय्यं । लेखं च मे परिभोगं भविस्सति, पत्तौं च दानं दस्सामी" ति । अथ खो राज. गहको सेट्टि ताय चन्दनगण्ठिया पत्त लिखापेत्वा सिक्काय उड्डित्वा वेलग्गे आलगत्वा वेलुपरम्पराय बन्धित्वा एवमाह-“यो समणो वा ब्राह्मणो वा अरहा चेव इद्धिमा च दिन्न व पत्त ओहरतू" ति । अथ खो पूरणो कस्सपो येन राजगहको सेट्ठि तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा राजगहकं से ठिठ एतदवोच-"अहं हि, गहपति, अरहा चेव इद्धिमा च, देहि मे पत्तं" ति । “सचे, भन्ते, आयस्मा अरहा चेव इद्धिमा च दिन्न व पत्तं ओहरतू" ति। अथ खो मक्खलि गोसालो.. अजितो केसकम्बलो.. पकुधो कच्चायनो.. सञ्जयो वेलट्ठपुत्तो. निगण्ठो नातपुत्तो येन राजगहको सेट्ठि तेनुपसङ्कमि, उपसङ्कमित्वा राजगहक सेट्ठि एतदवोच-"अहं हि, गहपति, अरहा चेव इद्धिमा च, देहि मे पत्तं" ति। "सचे, भन्ते, आयस्मा अरहा चेव इद्धिमा च, दिन्न व पत्तं ओहरतू' ति। तेन खो पन समयेन आयस्मा च महामोग्गल्लानी आयस्मा च पिण्डोलमारद्वाजो पुब्बण्हसमयं निवासेत्वा पत्तचीवरमादाय राजगृहं पिण्डाय पविसिसु । अथ खो आयस्मा पिण्डोलभारद्वाजो आयस्मन्तं महामोग्गल्लानं एतदवोच- "आयस्मा खो महामोग्गल्लानो अरहा चेव इद्धिमा च । गच्छावुसो, मोगल्लान, एतं पत्तं ओहर । तुम्हेसो पत्तो" ति । यस्मा पि खो पिण्डोलभारद्वाजो अरहा चेव इद्धिमा च । गच्छावुसो, भारद्वाज, एतं पत्तं ओहर । तुय्हेसो पत्तो" ति । अथ खो आयस्मा पिण्डोलभारद्वाजो वेहासं अब्भूग्गन्त्वा तं पत्तं गहेत्वा तिक्खत्तं राजगहं अनुपरियायि । तेन खो पन समयेन राजगहको सेट्ठि सपुत्तदारी सके निवेसने ठितो होति पञ्जलिको नमस्समानो-इघेव, भन्ते, अय्यो भारद्वाजो अम्हाकं निवेसने पतिट्ठातू ति। अथ खो आयस्मा पिण्डोलभारद्वाजो राजगहकस्स सेस्सि निवेसने पतिट्टासि । अथ खो राजगहको सेठ्ठि आयस्मतो पिण्डोलभारद्वाजस्स हत्थतो पत्तं गहेत्वा महग्घस्स खादनीयस्स पूरेत्वा आयस्मतो पिण्डोलभारद्वाजस्स अदासि । अथ खो आयस्मा पिण्डोलभारद्वाजो तं पत्तं गहेत्वा आरामं अगमासि । अस्सोसुं खो मनुस्सा--अय्येन किर पिण्डोलभारद्वाजेन राजगहकस्स सेट्ठिस्स पत्तो ओहारितो ति । ते च मनुस्सा उच्चासद्दा महासद्दा आयस्मन्तं पिण्डोलभारद्वाज पिट्ठितो पिट्ठितो अनुबन्धिसु । अस्सेसि खो भगवा उच्चासदं, महासइं; सुत्वान आयस्मन्तं आनन्दं आमन्तेसि-"कि नु खो सो, आनन्द, उच्चासदो महासद्यो" ति ? "आयस्मता, भन्ते, पिण्डोलभारद्वालेन राजुगहकस्स सेट्ठिस्स पत्तो ओहारितो । अस्सोसँ खो, भन्ते, मनुस्सा-अय्येन किर पिण्डोलभारद्वाजेन राजगहमस्स सेट्ठिस्स पत्तो ओहारितो ति। ते च, भन्ते, मनुस्सा उच्चासद्दा महासहा आयस्मन्तं पिण्डोलभारद्वाज पिट्ठितो पिट्टितो अनुबन्धा। सो एसो, भन्ते, भगवा उच्चासदो महासदो" ति । अथ खो भगवा एतस्मि निदाने एतस्मि पकरणे भिक्खुसङ्घ सन्निपातापेत्वा आयस्मन्तं पिण्डोलमारद्वाजं पटिपुच्छि-"सच्चं किर तया, भारद्वाज, राजगहकस्स सेविस पत्तो ओहारितो" ति ? “सच्चं भगवा" ति । विगरहि बुद्धो भगवा"अननुच्छविकं, भारद्वाज, अननुलोमिकं अप्पतिरूपं अस्सामणकं अकप्पियं अकरणीयं । कथं हि नाम त्वं, भारद्वाज, छवस्स दारुपतस्स कारणा गिहीनं उत्तरिमनुस्सधम्म इद्धिपाटिहारियं दस्सेस्ससि । सेय्यथापि, भारद्वाज, मातुगामो छवस्स मासकरूपस्स कारणा कोपिनं दस्सेति, एवमेव खो तया, भारद्वाज, छवस्स दारुपत्तस्स कारणा गिहीनं उत्तरिमनुस्सधम्म इद्धि ___ 2010_05 Page #568 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१४ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड : १ पाटिहारियं दस्सितं । नेतं, भारद्वाज, अप्पसन्नानं वा पसादाय, पसन्नानं वा मिय्योभावाय । अथ ख्वेतं, भारद्वाज, अप्पसन्नानं चेव अप्पसादाय पसन्नान च एकच्चानं अज्ञथत्ताया" ति । अथ खो भगवा पिण्डोलभारद्वाजं अनेकपरियायेन विगरहित्वा, दुब्भरताय दुप्पोसताय महिच्छताय असन्तुतिाय सङ्गणिकाय कोसज्जस्स अवण्णं भासित्वा अनेकपरियायेन सुभरताय सुपोसताय अप्पिच्छस्स सन्तुट्ठस्स सल्लेखस्स धुतस्स पासादिकस्स अपचयस्स विरियारम्भस्स वण्णं भासित्वा, भिक्खूनं तदनुच्छविकं तदनुलोमिकं धम्मि कथं कत्वा भिनखू आमन्तेसि "न भिक्खवे, गिहीनं उत्तरिमनुस्सधम्म इद्धिपाटिहारियं दस्सेतब्बं । यो दस्सेय्य, आपत्ति दुक्कटस्स । भिन्दथेतं भिक्खवे, दारुपत्तं, सकलिकं स कलिक कत्वा, भिक्खूनं अञ्जनुपपिसनं देथ । न च, भिक्खवे, दारुपत्तो धारेतब्बो । यो धारेय्य, आपत्ति दुक्कटस्सा" ति। ..."न, भिक्खवे, सोवण्णमयो पत्तो धारेतब्बो...पे... न रूपियमयो पत्तो धारेतब्बो ...न मणिमयो पत्तो धारेतब्बो...... 'न वेलुरियमयो पत्तो धारेतब्बो...... न फलिकमयो पत्तो धारेतब्बो..त कंसमयो पत्तो धारेतब्बो,' “न काचमयो पत्तो धारेतब्बोन तिपुमयो पत्तो धारेतब्बो...न सीसमयो पत्तो धारेतब्बो..न तम्बलोहमयो पत्तो धारेब्बो। यो घारेय्य, आपत्ति दुक्कटस्स । अनुजानामि, भिक्खवे, द्वे पत्ते-अयोपत्तं, मत्तिकापत्तं" ति ।' : २२ श्रामण्य फल अअतिथिया एवं मे सुतं । एक समयं भगवा राजगहे विहरति जीवकस्स कोमारभच्चस्स अम्बवने से महता भिक्खुसङ्घन सद्धि अड्ढतेलसे हि भिक्खुसतेहि। तेन खो पन समयेन राजा मागधो अजातसत्तु वेदेहिपुत्तो तदहुपोसथे पन्नरसे कोमुदिया चातुमासिनिया पुण्णाय पुण्णमाय रतिया राजामच्चपरिवुतो उपरिपासादवरगतो निसिन्नो होति । अथ खो राजा मागधो अजातसतु वेदेहिपुत्तो तदहुपोसथे उदानं उदानेसि -"रमणीया वत भो दोसिना रत्ति, अभिरूपा वत भो दोसिना रत्ति, दस्सनीया वत भो दोसिना रत्ति, पासादिका वत भो दोसिना रत्ति. लक्खा वत भो दोसिना रत्ति ! कं नु ख्वज्ज, समणं वा ब्राह्मणं वा पयिरुपासेय्याम, यं नो पयिरुपासतो चित्तं पसीदेय्या" ति ? १. विनयपिटके, चुल्लवग्ग पालि, खुद्दकवत्थुक्खन्धकं, पिण्डोलभारद्वाजपत्तंवत्थु, ५-५-१०, पृ० १९९-२०१ । ____ 2010_05 Page #569 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा] त्रिपिटकों में निगण्ठ व निगण्ठ नातपुत्त : मूल पालि एवं वृत्ते, अञ्जतरो राजामच्चो राजानं मागधं अजातसत्तु वेदेहिपुत्तं एतदवोच"अयं, देव, पूरणो कस्सपो सङ्घी चेव गणी च गणाचरियो च, जातो, यसस्सी, तित्थकरो, साधुसम्मतो बहुजनस्स, रत्त, चिरपब्बजितो, अद्धगतो, वयोअनुप्पत्तो। तं देवो पूरणं कस्सपं पयिरुपासतु । अप्पेव नाम देवस्स पूरणं कस्सपं पयिरुपासतो चित्तं पसीदेय्या" ति । एवं वुत्ते, राजा मागधो अजातसत्तु वेदेहिपुत्तो तुण्ही अहोसि । ____ अञ्जतरो पि खो राजामच्चो राजानं मागधं अजातसप्त्तुं वेदेहिपुत्तं एतदवोच-"अयं, देव, मक्खलि गोसालो सङ्घी०... । अञ्चतरो पि खो राजामच्चो राजानं मागधं अजातसत्तुं वेदेहिपुत्तं एतदवोच-"अयं देव, अजितो केसकम्बलो सङ्घी०......। अअतरो पि खो राजामच्चो राजानं मागधं अजातसत्तुं वेदेहिपुत्तं एतदवोच-'अयं, देव, पकुधो कच्चायनो सङ्घी०....। अञ्जतरो पि खो राजामच्चो राजानं मागधं अजातसत्त वेदेहिपुत्तं एतदवोच - "अयं, देव, सञ्जयो बेलठ्ठपुत्तो सङ्घी०.....। अञतरो पि खो राजामच्चो राजानं मागचं अजातसत्तुं वेदेहि पुत्तं एतदवोच- "अयं, देव, निगण्ठो नाटपुत्तो सङ्घी चेव गणी च गणाचरियो च, मातो, यसस्सी, तित्थकरो, साधु सम्मतो वहुजनस्स, रत्तजू, चिरपब्बजितो, अद्धगतो वयोअनुप्पत्तो। तं देवो निगण्ठं नातपुत्तं पयिरुपासतु । अप्पेव नाम देवस्स निगण्ठं नाटपुत्तं पयिरुपासतो चित्तं पसीदेय्या" ति । एवं वुत्ते, राजा मागधो अजातसत्तु वेदेहिपुत्तो तुण्ही अहोसि। राजा जीवकम्बवने भगवन्तं उपसङ्कमि तेन खो पन समयेन जीवको कोमारभच्चो रञो मागधस्स अजातसत्तुस्स वेदेहिपुत्तस्स अविदूरे तुण्हीभूतो निसिन्नो होति । अथ खो राजा मागधो अजातसत्तु वेदेहिपुत्तो जीवक कोमारभच्चं एतदवोच-"त्वं पन, सम्म जीवक, किं तुम्ही" ति ? "अयं, देव, भगवा अरहं सम्मासम्बुद्धो अम्हाकं अम्बवने विहरति महता भिक्खूसङ्घन सद्धि अड्ढतेलंसेहि भिक्खुसतेहि । तं खो पन भगवन्तं एव कल्याणो कित्तिसद्धो अब्भुग्गतो'इति पि सो भगवा, अरहं, सम्मासम्बुद्धो, विज्जाचरणसम्पन्नो, सुगतो, लोकविदू, अनुत्तरो, पुस्सिदम्मसारथि, सत्था देवमनुस्सानं, बुद्धो, भगवा' ति। तं देवो भगवन्तं पयिरूपासतु। अप्पेव नाम देवस्स भगवन्तं पयिरुपासतो चित्तं पसीदेय्या' ति। "ते न हि, सम्म जीवक, हथियानानि कप्पापेही ति। "एवं, देवा" ति खो जीवको कोमारभच्चो रो मागधस्स अजातसत्तुस्स वेदेहिपुत्तस्स पटिस्सुणित्वा पञ्चमत्तानि हत्थिनिकासतानि कप्पापेत्वा रो च आरोहणीय नागं, रञो मागधस्स अजातसत्तुस्स वेदेहिपुत्तस्स पटिवेदेसि—“कप्पितानि खो ते, देव, हथियानानि यस्सदानि कालं मसी" ति । ____ 2010_05 Page #570 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड : १ अथ खो राजा मागधो अजातसत्तु वेदेहिपुत्तो पञ्चसु हत्थिनिकासतेसु पच्चेका इत्थिोयो आरोपेत्वा, आरोहणीयं नागं अभिरुहित्वा, उक्कासु धारियमानासु, राजगहम्हा निय्यासि महच्चा राजानुभावेन येन जीवकस्स कोमारभच्चस्स अम्बवनं तेन पाय्यासि | ५१६ अथ खो रज्ञो मागधस्स अजातसत्तुस्स वेदेहिपुत्तस्स अविदूरे अम्बवनस्स अहुदेव भयं, अहु छम्मितत्तं, अहु लोमहंसो । अथ खो राजा मागधो अजातसत्तु वेदेहिपुत्तो भीतो संविग्गो लोमहट्टजातो जीवकं कोमारभच्चं एतदवोच - " कच्चि मं सम्म जीवकं न वञ्चेसि ? कुच्चि मं, सम्म जीवक, न पलम्भेसि ? कच्चि मं, सम्म जीवक, न पच्चत्थिकानं देसि ? कथं हि नाम ताव महतो भिक्खुसङ्घस्स अद्धतेलसानं भिक्खुसतानं नेव खिपितसद्दो भविस्सति न उक्कासितसद्दो निग्घोसो" ति ! "मा भायि, महाराज ; मा भायि, महाराज । न ते, देव, वञ्चेति । न तं देव, पलम्भाभि । न तं देव, पच्चत्थिकानं देमि । अभिक्कम, महाराज, अभिक्कम, महाराज । एते मण्डलमाले दीपा झायन्ती" ति । अथ खो राजा मगधो अजातसत्तु वेदेहिपुत्तो यावतिका नामस्स भूमि नागेन गन्त्वा, नागा पच्चोरोहित्वा, पत्तिको व येन मण्डलमालस्स द्वारं तेनुपसङ्कमि, उपसङ्क्रमित्वा जीवकं कोमारभच्चं एतदवोच - " कहं पन, सम्म जीवक, भगवा" ति ? “एसो, महाराज, भगवा ; एसो, महाराज, भगवा मज्झिमं थम्भं निस्साय पुरत्या भिमुख निसिन्नो, पुरक्खतो भिक्खुसङ्घस्सा" ति । अथ खो राजा मागघो अजातसत्तु वेदेहिपुत्तो येन भगवा तेनुपसङ्कमि ; उपसङ्कमित्वा एकमन्तं अट्ठासि । एकमन्तं ठितो खो राजा मागधो अजातसत्तु वेदेहिपुत्तो तुम्हीभूतं भिक्खुसङ्घ अनुविलोकेत्वा रहदमिव विप्पसन्नं, उदानं उदानेसि - "इमिना मे उपसमेन उदयभद्दो कुमारो समन्नागत होतु येनेतरहि उपसमेन भिक्खुसङ्घो समन्नागतो" ति । "आगमा खो त्वं, महाराज, यथापेमं" ति । “पियो मे, भन्ते, उदयभद्दो कुमारो । इमिना मे, उपसमेन उदयभद्दो कुमारो समन्नागतो होतु येनेतरहि उपसमेन भिक्खुसङ्घो समन्नागतो" ति । अथ खो राजा मागधो अजातसत्तु वेदेहिपुत्तो भगवन्तं अभिवादेत्वा, भिक्खुसङ्घस्स अञ्जलि पणामेत्वा, एकमन्तं निसीदि । एकमन्त निसिन्नो खो राजा मागधो अजातसत्तु वेदेहिपुत्त भगवन्तं एतदवोच - "पुच्छेय्या महं, भन्ते, भगवन्तं किञ्चिदेव देसं, सचे मे भगवा ओकासं करोति पञ्हस्स वेय्याकरणाया " ति । "पुच्छ, महाराज, यदाकङ्खसी" ति । सामञ्जफलपुच्छा "यथा नु खो हमानि भन्ते, पुथुसिप्पायतनानि, सेय्यथिदं - हत्थारोहा अस्सारोहा रथिका धनुग्गहा चेलका पिण्डदायका उग्गा राजपुत्ता पक्खन्दिनो महानागा सूरा चम्मयोधिनो दासिकपुत्ता आलारिका कप्पका न्हापका सूदा मालाकारा रजका पेसकार, नलकारा कुम्भकारा गणका मुद्दिका, यानि वा पनञ्जानि पि एवंगतानि पुथुसिप्पायतनानि, ते दिट्ठेव धम्मे सन्दिट्ठकं सिप्पफलं उपजीवन्ति; ते तेन अत्तानं सुखेन्ति पीणेन्ति, मातापितरो सुखेन्ति पीणेन्ति, 2010_05 Page #571 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१७ इतिहास और परम्परा] त्रिपिटकों में निगण्ठ व निगण्ठ नातपुत्त : मूल पालि पुत्तदारं सुखेन्ति पीणे न्त, मित्तामच्चे सुखेन्ति पीणेन्ति, समणब्राह्मणेसु उद्धग्गिक दक्खिणं पतिट्रपेन्ति सोवग्गिक सुखविपाकं सग्गसंवत्तनिकं । सक्का नु खो, भन्ते, एवमेव दिठेव धम्मे सन्दिट्टिकं सामञफलं पञपेतुं" ति ? छ तित्थियवादा "अभिजानासि नो त्वं, महाराज, इमं पन्हं अञ्ज समणब्राह्मणे पुच्छिता" ति ? "अभिजानामह, भन्ते, इम पञ्ज समणब्राह्मणे पच्छिता" ति। "यथा कथं पन ते, महाराज, ब्याकरिंसु, सचे ते अगरु भासस्सू" ति । "न खो मे, भन्ते, गरु' यत्थस्स भगवा निसिन्नो, भगवन्तरूपोवा" ति । "तेन हि, महाराज, भासस्सू” ति। पूरणकस्सपवादो "एकमिदाह, भन्ते, समयं येन पूरणो कस्सपो तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा पूरणेनो कस्सपेन सद्धि सम्मोदि । सम्मोदनीयं कथं सारणीयं वीतिसारेत्वा एकमन्तं निसीदि । एकमन्तं निसिन्नो खो अहं, भन्ते, पूरणं कस्सपं एतदवोचं-'यथा नु खो इमानि, मो कस्सप, पुथुसिप्पायतनानि,....। “एवं वुत्ते, भन्ते, पूरणो कस्सपो में एतदवोच-'करोतो खो, महाराज, कारयतो छिन्दतो छेदापयती पचतो पाचापयतो०.......। ___इत्थं खो मे, भन्ते, पूरणो कस्सपो सन्दिट्टिकं सामअफलं पुट्ठो समानो अकिरियं ब्याकासि। सेय्यथापि भन्ते, अम्बं वा पुट्ठो लबुजं ब्याकरेय्य, लबुजं वा पुट्ठो अम्बं ब्याकरेय्य; एवमेव खो मे, भन्ते, पूरणो कस्सपो सन्दिट्टिकं सामञफलं पुट्ठो समानो अकिरियं ब्याकासि । तस्स मय्हं, भन्ते, एतदहोसि- 'कथं हि नाम मादिसो समणं वा ब्राह्मणं वा विजिते वसन्तं अपसादेतब्बं मझेय्या' ति : सो खो अहं, भन्ते, पूरणस्स कस्सपस्स भासितं नेव अभिनन्दि नप्पटिक्कोसि । अनभिनन्दित्वा अप्पटिकोसित्वा अनत्तमनो, अनत्तमनवाचं अनिच्छारेत्वा, तमेव वाचं अनुग्गण्हन्तो अनिकुज्जन्तो उट्ठायासना पक्कमि।" मक्खलिगोसालवादो "एकामदाह, भन्ते, समयं येन मक्खलि गोसालो.......। अजितकेसकम्बलवादो "एकमिदाहं, भन्ते, समयं येन अजितो केसकम्बलो.......। पकुषकच्चायनवादो "एकमिदाह, भन्ते, समयं येन पकुधो कच्चायनो०......। ____ 2010_05 Page #572 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१८ [खण्ड : १ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन निगण्ठनाटपुत्तवादो “एकमिदाहं, मन्ते, समयं येन निगण्ठो नाटपुत्तो तेनुपसङ्कमि ; उपसङ्कमित्वा निगण्ठेन नाटपुत्तेन सद्धि सम्मोदि। सम्मोदनीयं कथं सारणीयं वीतिसारेत्वा एकमन्तं निसीदि। एकमन्तं निसिन्नो खो अहं, भन्ते, निगण्ठं नाटपुत्तं एतदवोचं- 'यथा नु खो इमानि, भो अग्गिवेस्सन, पृथुसिप्पायतनानि . पे. 'सक्का नु खो, मो अग्गिवेस्सन, एवमेव दिढेधम्मे सन्दिट्टिकं सामञफलं पञपेतुं' ति ? "एवं वुत्ते, भन्ते, निगण्ठो नाटपुत्तो मं एतदवोच-'इध, महाराज, निगण्ठो चातुयामसंवरसंवुतो होति । कथं च, महाराज, निगण्ठों चातुयामसंवरसंवुतो होति ? इध, महाराज, निगण्ठो सब्बवारिवारितो च होति, सब्बवारियुत्तो च, सब्बवारिधुतो च, सब्बवारिफुटो च । एवं खो, महाराज, निगण्टो चातुयामसंवरसंवुतो होति । यतो खो, महाराज, निगण्ठो एवं चातुयामसंवरसंवतो होति; अयं वुच्चति, महाराज, निगण्ठो गतत्तो च यतत्तो च ठितत्तो चा' ति। इत्थं खो मे, भन्ते, निगण्ठो नाटपुत्तो सन्दिट्टिकं सामञफलं पुट्टो समानो चातुयामसंवरं ब्याकासि । सेय्यथापि, भन्ते, अम्बं वा पुट्ठो लबुजं ब्याक रेय्य, लबुजं वा पुट्ठो अम्बं ब्याकरेय्य; एवमेव खो मे, भन्ते, निगण्ठो नाटपुत्तो सन्दिट्टिकं समाफलं पुट्ठो समानो चातुयामसंवरं ब्याकासि । तस्स महं, मन्ते, एतदहोसि---'कथं हि नाम मादिसी समणं वा ब्राह्मणं वा विजिते वसन्तं अहसादेतब्बं मजेय्या' ति । सो खो अहं, भन्ते, निगण्ठस्स नाटपुत्तस्स भासितं नेव अभिनन्दि नप्पटिक्कोसि । अनभिनन्दित्वा अप्पटिक्कोसित्वा अनत्तमनो, अनत्तमनवाचं अनिच्छारेत्वा, तमेव वाचं अनुग्गाहन्तो अनिक्कुज्जन्तो, उठायासना पक्कमि। सञ्जयबेलट्टपुत्तवादो "एकमिदाहं, भन्ते, समयं येन सञ्जयो बेलट्ठपुत्तो. बुद्धवादो पठमसन्दिट्ठिकसामञफलं "सोहं, भन्ते, भगवन्तं पि पुच्छामि- 'यथा नु खो इमानि, भन्ते, पुथुसिप्पायतनानि....। ____ 2010_05 Page #573 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा] त्रिपिटकों में निगण्ठ व निगण्ठ नातपुत्त : मूल पालि ५१६ अजातसत्त उपासकत्तपटिवेदना एवं वुत्ते, राजा मागधो अजातसत्तु वेदेहिपुत्तो भगवन्तं एतदवोच-"अभिक्कन्तं, भन्ते, अभिक्कन्तं, भन्ते । सेय्यथापि, भन्ते, निक्कुज्जितं वा उक्कुज्जेय्य, पटिच्छन्नं वा विवरेय्य, मूल्हस्स वा मग्गं आचिवखेय्य, अन्धकारे वा तेलपज्जोतं धारेय्य चक्खुमन्तो रूपानि दक्खन्ती ति; एवमेवं, भन्ते, भगवता अनेकपरियायेन धम्मो पकासितो। एसाहं, भन्ते, भगवन्तं सरणं गच्छामि धम्मं च भिक्खुसङ्घ च । उपासकं मं भगवा धारतु अज्जतग्गे पाणुपेतं सरणं गतं । अच्चयो म, भन्ते. अच्चगमा यथाबालं यथामूल्हं यथाअकुसलं, योहं पितर धम्मिक धम्मराजानं इस्सरियकारणा जीविता वोरोपेसि । तस्स मे, भन्ते, भगवा अच्चयं अच्चयतो पटिग्गण्हातु आयति संवराया" ति । "तग्घ त्वं, महाराज. अच्चयो अच्चगमा यथाबालं यथामल्हं यथाअकूसलं, यं त्वं पितरं घम्मिकं धम्मराजानं जीविता वोरोपेसि । यती च खो त्वं, महाराज, अच्चयं अच्चयतो दिस्वा यथाधम्म पटिकरोसि, तं ते मयं पटिग्गण्हाम । वुद्धिहेसा, महाराज, अरियस्स विनये यो अच्चयं अच्चयतो दिस्वा यथाधम्म पटिकरोति, आयति संवरं आपज्जती' ति। एवं वुत्त, राजा मागधो अजातसत्तु वेदेहिपुत्तो भगवन्तं एतदवोच-"हन्द च दानि मयं, भन्ते, गच्छाम । बहुकिच्चा मयं बहुकिरणीया" ति । “यस्सदानि, त्वं, महाराज, कालं मजसी' ति । अथ खो राजा मागधो अजातसत्तु वेदेहिपुत्तों भगवतो भासितं अभिनन्दित्वा अनुमोदित्वा उट्ठायासना भगवन्तं अभिवादेत्वा पदक्खिणं कत्वा पक्कामि । __ अथ खो भगवा अचिरपक्कन्तस्य रो मागधस्स अजातसत्तुस्य वेदेहिपुत्तस्स भिक्खू आमन्तेसि-.. "खतायं, भिक्खवे, राजा। उपहतायं, भिक्खवे, राजा । सचार्य, भिक्खवे, राजा पितरं धम्मिकं धम्मराजानं जीविता न वोरोपेस्सथ, इमस्मि येव आसने विरजं वीतमलं धम्मचक्खं उप्पज्जिस्सथा' ति । इदमवोच भगवा। अत्तमना ते भिक्खू भगवतो भासितं अभिनन्दुति ।' बुद्ध : धर्माचार्यों में कनिष्ठ __ एवं मे सुतं । एक समयं भगवा सावत्थियं विहरति जेतवने अनाथपिण्डिकस्स आरामे। अथ खो राजा पसेनदि कोसलो येन भगवा तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा भगवता सद्धि सम्मोदि । सम्मोदनीयं कथं सारणीयं वीतिसारेत्वा एकमन्तं निसीदि। एकमन्तं निसिन्नो खो राजा पसेनदि कोसलो भगवन्तं एतदवोच-"भवं पि नो गोतम अनत्तरं सम्मासम्बोधि अभिसम्बुद्धो ति पटिजानाती" ति ? १. सुत्तपिटके, दीघनिकाय पालि, सीलक्खन्धवग्गो, सामञ्च फलसुत्तं, १-२-१ से ६ । पृ०४१-७५। ____ 2010_05 Page #574 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [ खण्ड : १ यं हि तं महाराज, सम्मा वदमानो वदेय्य 'अनुत्तरं सम्मासम्बोधि अभिसम्बुद्धी' ति, ममेव तं सम्मा वदमानो वदेय्य ! अहं हि महाराज, अनुत्तरं सम्मासम्बोधि अभिसम्बुद्धो " ति । ५२० "ये पिते, भी गोतम, समणब्राह्मणा सङ्घिनो गणिनी गणाचरिया जाता यसस्सिनो तित्थकरा साधुसम्मता बहुजनस्स, सेय्यथीदं- पूरणो कस्यपो, मक्खलि गोसालो, निगण्ठो नाटपुत्तो, सञ्जयो वेलट्ठपुत्तो, पकुधो कच्चायनो, अजितो केसम्बली; ते पि मया 'अनुत्त सम्मासम्बोधि अभिसम्बुद्धो ति पटिजानाथा' ति पुट्ठा समाना अनुत्तरं सम्मासम्बोधि अभिसम्बुद्धोति न पटिजानन्ति; किं पर भवं गोतमो दहरो चेव जातिया नवो च पब्बज्जाया” ति ? "चत्तारो खो मे, महाराज, दहरा ति न उञातब्बा, दहरा ति न परिभोतब्बा । कतमे चत्तारो ? खत्तियो खो, महाराज, दहरो ति न उज्ञातब्बो, दहरो तिन परिभतब्बो । उरगो खो महाराज, दहरो तिन उञ्जातब्बी, दहरो ति न परिभतब्बो । अग्नि खो, महाराज, दहरो तिन उञ्ञातब्बो । दहरोति न परिभोतब्बो । भिक्खु, खो, महाराज, दहरो तिन उतब्बो, दहरोति न परिभोतब्बो । इमे खो, महाराज, चत्तरो दहरा ति न उज्ञातब्बा, दहरा ति न परिभोतब्बा" नि । इदमवोच भगवा । इदं वत्वान सुगतो अथापरं एतदवोच सत्था - 2010_05 "खत्तियं जातिसम्पन्नं, अभिजातं यसस्सिनं । दहरो ति नावजानेय्य, न नं परिभवे नरो ॥ "ठानं हि सो मनुजिन्दो, रज्जं लद्धान खत्तियो । सो कुद्धो राजदण्डेन तस्मि पक्कमते भुसं । तस्मा तं परिवजेय्य, रक्खं जीवितमत्तनो ॥ "गामे वा यदि वा रज्ञ, यत्थ पस्से भुजङ्गमं । दहरो ति नावजानेय्य, न नं परिभवे नरो ॥ "उच्चावचेहि वष्णेहि, उरगो चरति तेजसी । सो आसज्ज डंसे बाल, नरं नारि च एकदा । तस्मा तं परिवज्जेय्य, रक्खं जीवितमत्तनो 11 "पहूतभक्खं जालिनं, पावकं कण्हवर्त्तानि । बहरो ति नावजानेय्य, न नं परिभवे नरो ॥ " लद्धा हि सो उपादानं महा हुत्वान पावको । सो आसज्ज हे बालं, नरं नारि च एकदा । तस्मा तं परिवज्जेय, रक्खं जीवितमत्तनो ॥ Page #575 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा) त्रिपिटकों में निगण्ठ व निगण्ठ नातपुत्त : मूल पालि ५२१ "वनं यदग्गि डहति, पावको कन्हवत्तनी। जायन्ति तस्थ पारोहा, अहोरत्तानमल्चये ॥ "यञ्च खो सीलसम्पन्नो, भिक्खु डहति तेजसा। न तस्स पुत्ता पसवो, दायादा विन्दरे धनं । अनपच्चा अदायादा, तालावत्थू भवन्ति ते ॥ "तस्मा हि पण्डितोपोसो, सम्पस्सं अस्थमत्तनो। भुजङ्गमं पावकं च, खत्तियं च यसस्सिनं । भिक्खु चसीलसम्पन्न, सम्मदेव समाचरे" ति ॥ एवं वृत्ते, राजा पसेनदि कोसलो भगवन्तं एतदवोच-"अभिक्कन्तं, भन्ते, अभिक्कन्तं, भन्ते ! सेय्यथापि भन्ते, निक्कुज्जितं वा उक्कुज्जेय्य पटिच्छन्नं वा विवरेय्य मूल्हस्स वा मग्गं आचिक्खेय्य अन्धकारे वा तेलपज्जोतं धारेय्य--चवखुमन्तो रूपानि दक्खन्ती ति; एवमेवं भगवता अनेकपरियायेन धम्मो पकासितो। एसाहं, भन्ते, भगवन्तं सरणं गच्छामि धम्मं च भिवखुसङ्घ च। उपासकं मं, भन्ते, भगवा धारेतु अज्जतग्गे पाणुपेतं संरणं गत" ति । :२४: सभिय परिव्राजक एवं मे सुतं । एक समयं भगवा राजगहे विहरति वेलुवने कलन्दक निवापे। तेन खो पन समयेन सभियस्स परिब्बाजकस्स पुराणसालोहिताय देवताय पहा उहिट्ठा होन्ति'यो ते, सभिय, समणो ब्राह्मणो वा इमे पञ्हे पुट्ठो व्याकरोति तस्स सन्तिके ब्रह्मचरियं चरेय्यासी" ति। अथ खो समियो परिब्बाजको तस्सा देवताय सन्तिके ते पञ्हे उग्गहेत्वा ये ते समणब्राह्मणा सङिधनो गणिनो गणाचरिया आता यसस्सिनो तित्थकरा साधुसम्मता बहुजनस्स, सेय्यथीदं-पूरणो कस्सपो मक्खलिगोसालो अजितो केसकम्बलो पकुधो कच्चानो सञ्जयो बेलट्ठपुत्तो निगण्ठो नाटपुत्तो, ते उपसङ्कमित्वा ते पञ्हे पुच्छति । ते समियेन परिब्बाजकेन पञ्हेपट्ठा न सम्पायन्ति; असम्पायन्ता कोपं च दोसं च अप्पच्चयं च पातुकरोन्ति । अपि च सभियेव परिब्बाजकं पटिपुच्छन्ति । ___ अथ खो सभियस्स परिब्बाजकस्स एतदहोसि-“ये खो ते मोन्तो समणब्राह्मणा सङ्गिनो गणिनो गणाचरिया जाता यसस्सिनो तित्थकरा साधुसम्मता बहुजनस्य, सेय्यथीदं-पूरणो १. सुत्तपिटके, संयुत्तनिकाय पालि, सगाथवग्गो, कोसलसंयुत्तं, दहरसुत्त, ३-१-१ से ४ पृ० ६७-६६। ____ 2010_05 Page #576 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२२ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड : १ कस्सपो...पे... निगण्ठो नाटपुत्तो, ते मया पञ्हे पुट्ठा न सम्पायन्ति, असम्पायन्ता कोपं च दोसं च अप्पच्चयं च पातुकरोन्ति; अपि च म वेत्थ पटिपुच्छन्ति। यन्नन्नाहं हीनायावत्तित्वा कामे परिभुजेय्यं ' ति। ___ अथ खो सभियस्स परिब्बाजकस्स एतदहोसि--"अयं पि खो समणो गोतमो सङ्घी चेव गणी च गणाचरियो च जातो यसस्सी तित्थकरो साघुसम्मतो बहुजनस्स; यन्नून्नाह समणं गोतमं उपसङ्कमित्वा इमे पञ्हे पुच्छेय्यं' ति । अथ खो सभियस्स परिब्बाजकस्य एतदहोसि-“ये पि खो ते भोन्तो समणब्राह्मणा जिण्णा वुड्ढा महल्लका अद्धगता वयोअनुप्पत्ता थेरा रत्त चिरपब्बचिता सङ्घिनो गणिनो गणाचरिया जाता यसस्सिनों तित्थकरा साधुसम्मता बहुजनस्स सेय्यथीदं--पूरणो कस्सपो... पे०.. निगण्ठो नाटपुत्तो, ते नि मया पञ्हे पुट्ठा न सम्पायन्ति, असम्पायन्ता कोपं च दोसं च अप्पच्चयं च पातुकरोन्ति, अपि च म वेत्थ पटिपुच्छन्ति ; कि पन मे समणो गोतमो इमे पञ्हे पुट्ठो व्याकरिस्सति ! समणो हि गोतमो दहरो चेव जातिया नवो च पब्बजाया'' ति। अथ खो सभियस्स परिब्बाजकस्स एतदहोसि- "समणो खो दहरो ति न उसातब्बो न परिभोतब्बो । दहरो पि चेस समणो गोतमो महिद्धिको होति महानुभावो, यन्ननाहं समणं गोतमं उपसङ्कमित्वा इमे पन्हे पुच्छेय्यं” ति। अथ खो सभियो परिब्बाजको येन राजगहं तेन चारिक पक्कामि । अनुपुब्बेन चारिक चरमानो येन राजगहं वेलुवनं कलन्दकनिवापो, येन भगवा तेनुपस कमि; उपसङ्कमित्वा भगवता सद्धि सम्मादि । सम्मोदनीयं कथं साराणीयं वीतिसारेत्वा एकमन्तं निसीदि। एक मन्तं निसिन्नो खो सभियो परिब्बाजको भगवन्तं गाथाय अज्झभासि "कङ्की वेचिकिच्छी मागम, (इति सभियो) पन्हे पुच्छितुं अभिकङ्घमानो। तेसन्तकरो भवाहि पञ्हे मे पुट्ठो, अनुपुब्बं अनुधम्मं ब्याकरोहि में" ॥ "दूरतो आगतोसि सभिय, (इति भगवा) पञ्हे पुच्छितुं अभिकलमानो। तेसन्तकरो भवामि पन्हे ते पुट्ठो, अनुपुब्बं अनुधम्मं ब्याकरोमि ते ॥ "पुच्छ मं सभिय पन्हं, यं किञ्चि मनसिच्छसि । तस्सतस्सेव पञ्हस्स, अहं अन्तं करोमि ते" ति ।। 2010_05 Page #577 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा] त्रिपिटकों में निगण्ठ व निगण्ठ नातपुत्त : मूल पालि ५२३ अथ खो सभियस्स परिब्बाजकस्स एतदहोसि—"अच्छरियं वत, भो, अब्भुतं वत भो ! यं वताहं अञ्जसु समणब्राह्मणेसु, ओकासकम्ममत्तं पि नालत्थं तं मे इदं समणेन गोतमेन ओकासकम्मं कतं" ति। अत्तमनो पमुदितो उदग्गो पीतिसोमनस्सजातो भगवन्तं पञ्हं अपुच्छि"कि पत्तिनमाहु भिक्खुनं, (इति सभियो)....... ११२ अथ खो सभियो परिब्बाजको भगवतो भासितं अभिनन्दित्वा अनुमोदित्वा अत्तमनो पमुदितो उदग्गो पीतिसोमनस्सजातो उट्टायासना एकसं उत्तरासङ्ग करित्वा येन भगवा तेनञ्जलिं पणामेत्वा भगवन्तं सम्मुखा सारुप्पाहि गाथाहि अभित्थवि“यानि च तीणि यानि च सट्टि,.......... १३७ अथ खो सभियो परिब्बाजको भगवतो पादेसु सिरमा निपतित्वा भगवन्तं एतदवोच"अभिक्कन्तं, भन्ते...पे... एसाहं भगवन्तं सरणं गच्छामि धम्म च भिक्खुसङ्घ च; लभेय्याहं, भन्ते, भगवतो सन्तिके पब्बज्ज, लभेय्यं उपसम्पदं" ति । ___ “यो खो, सभिय, अतित्थियपुब्बो इमस्मि धम्मविनये आकङ्घति पब्बज्ज आकङ्क्षति उपसम्पदं, सो चत्तारो मासे परिवसति; चतुन्नं मासानं अच्चयेन आरद्धचित्ता भिक्खू पब्बाजेन्ति उपसम्पादेन्ति भिक्खुभावाय । अपि च मेत्थ पुग्गलमत्तता विदिता" ति ।। "सचे, भन्ते, अतिस्थिय पुब्बा इमस्मि धम्मविनये आङ्खन्ता पब्बज्ज आकवन्ता उपसम्पद चत्तारो मासे परिवसन्ति, चतुन्नं मासानं अच्चयेन आरद्धचित्ता । पब्बाजेन्ति उपसम्पादेन्ति भिक्खुभावाय, अहं चत्तारि वस्सानि परिवसिस्सामि; चतुन्नं वस्सानं अच्चयेन आरद्धचित्ता भिक्खू पब्बाजेन्तु . उपसम्पादेन्तु भिवखुभावाया।" ति। अलत्थ खो सभियो परिब्बाजको भगवतो सन्तिके पब्बज्ज अलत्थ उपसम्पदं' 'पे० . . अब्रतरो खो पनायस्मा सभियो अरहतं अहोसी ति ।' :२५ सुभद्रपरिव्राजक तेन खो पन समयेन सुभद्दो नाम परिब्बाजको कुसिनारायं पटिवसति । अस्सोसि खो *सुभद्दो परिब्बाजको - "अज्ज किर रत्तिया पच्छिमे यामे समणस्स गोतमस्स परिनिब्बानं भविस्सती" ति। अथ खो सुभद्दस्स परिब्बाज कस्स एतदहोसि- “सुतं खो पन मेतं परिब्बाजकानं बुड्ढानं महल्लकानं आचरियपाचरियानं भासमानानं-'कदाचि करहचि तथागता लोके उप्पज्जन्ति अरहन्तो सम्मासम्बुद्धा' ति । अज्जेंव रत्तिया पच्छिमे यामे समणस्स गोतमस्स परिनिब्बानं भविस्सति । अत्थि च मे अयं काधम्मो उप्पन्नो-'एवं पसन्नो अहं समणे गोतमे। पहोति मे समणो गोतमो तथा धम्म देसेतुं यथाहं इमं काधम्म पजहेय्यं" ति । अथ खो १. सुत्तपिटके, खुद्दकनिकाये, सुत्तनिपात पालि, महावग्गो, सभियसुत्त, ३-६, पृ० ३४४-५३ । 2010_05 Page #578 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३४ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [ खण्ड : १ सुभद्दो परिब्बाजको येन उपवत्तनं मल्लानं सालवनं येनायस्मा आनन्दो तेनुपसङ्कमि; उपसङ्क्रमित्वा आयस्मन्तं आनन्दं एतदवोच - सुतं मेतं ० | साधाहं भो आनन्द, लभेय्यं समणं गोतमं दस्सनाया।" ति । एवं वुत्ते, आयस्मा आनन्दो, सुभद्दो परिब्बाजकं एतदवोच"अलं आवुसो सुभद्द, मां तथागतं विहेठेसि । किलन्ती भगवा" ति । दुतियं पि खो सुभद्दो परिब्बाजको ततियं पि खो सुभद्दो परिब्बाजको आयस्मन्तं आनन्दं एतदवोच....... । ..पे... अस्सोसि खो भगवा आयस्मतो आनन्दस्स सुभद्देन परिब्बाजकेन सद्धि इमं कथासल्लापं । अथ खो भगवा आयस्मन्तं आनन्दं आमन्तेसि - "अलं, आनन्द, मा सुभद्दं वारेसि | लभतं, आनन्द, सुभद्दो तथागतं दस्सनाय । यं किञ्चि मं सुभद्दो पुच्छिसति सब्बं तं अपेक्खो व पुच्छस्सति, नो विहेस्सापेक्खो । यं चस्साहं पुट्ठो व्याकरिस्सामि, तं खिप्पमेव न आजानिस्सती” ति । अथ खो आयस्मा आनन्दो सुभद्दं परिब्बाजकं एतदवोच – “गच्छावुसो सुभद्द, करोति ते भगवा ओकासं " ति । अथ खो सुभद्दो परिब्बाजको येन भगवा तेनुपसङ्कमि ; उपसङ्कमित्वा भगवता सद्धि-सम्मोदि । सम्मोदनीयं कथं सारणीयं वीतिसारेत्व एकमन्तं निसीदि । एकमन्तं निसिन्नो खो सुभद्दो परिब्बाजको भगवन्तं एतदवोच— "येमे, भो गोतम समणब्राह्मणा सङ्घिनो गणिनो गणाचरिया जाता यसस्सिनो तित्यंकरा साधुसम्मता बहुजनस्स, सेय्यथिदं — पूरणो कस्सपो, मक्खलि गोसालो, अजितो केसकम्बलो, पकुधो कच्चायनो, सञ्जयो बेलट्ठपुत्तो, निगण्ठो नाटपुत्तो सब्बेते सकाय पटिञ्ञाय अब्भञ्ञिसु, सब्बेव न अब्भञ्ञिसु उदाहु एकच्चे अब्भञ्ञिसु एकच्चे न अब्भञ्ञिसु" ति ? "अलं, सुभद्द, तितं - सब्बेते सकाय पटिञ्ञाय अब्मञ्ञिसु, सब्बंव न अन्भञ्ञिसु, उदाहु एकच्चे अन्मञ्जिसु एकच्चेत अन्मञ्जसू ति । धम्मं ते, सुभद्द, देसेस्सामि, तं सुणाहि, साधुकं मनसिकरोहि, भासिस्सामी " ति । " एवं, भन्ते" ति खो सुभद्दो परिब्बाजको भगवती पच्चस्सोसि । भगवा एतदवोच " यस्मि खो, सुभद्द धम्मविनये अरियो अट्ठङ्गिको, मग्गो न उपलब्भति, समणो पि तत्थ न उपलब्भति । दुतियो पि तत्थ समणो न उपलब्भति । ततियो पि तत्थ समणो न उपलब्भति । चतुत्थोपि तत्थ समणो न उपलब्भति । यस्मि च खो, सुभद्द, धम्मविनये अरियो अट्ठङ्गिको मग्गो उपलब्भति समणो पि तत्थ उपलब्भति । दुतियो पि तत्थ समणो उपलब्भति । ततियोपि तत्थ समणो उपलब्भति । चतुत्थी पि तत्थ समणो उपलब्मति । इमस्मि खो, सुमद्द, धम्मविनये अरियो अट्ठङ्गिको मग्गो उपलब्भति । इघेव, सुभद्द, समणो, इध दुतियो समणो, ततिय समणो । सुञा परप्पवादा समणेमि अहि । इमे च सुभद्द, भिक्खू सम्मा इंध चतुत्यो समणो विहरेय्युं असुञ्ञो लोको अरहन्तेहि अस्सा" ति । 2010_05 Page #579 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा] त्रिपिटकों में निगण्ठ व निगण्ठ नातपुत्त : मूल पालि ५२५ एकूनतिसो वयसा सुभद्द, यं पबजि किंकुसालानुएसी । बस्सानि पचास समाधिकानि, यतो अहं पब्बजितो सुभद्द । आयस्स धम्मस्स पदेसवत्ती, इतो बहिद्वा समणो पि नत्थि ।। .. एवं वुत्ते, सुभद्दो परिब्बाजको भगवन्तं एतदवोच-"अभिवन्तं, भन्ते, अभिक्कन्तं, भन्ते ! सेय्यथापि, भन्ते, निक्कुज्जितं वा उक्कुज्जेय्य, पटिच्छन्नं वा विवरेय्य, मूल्हस्स वा मग्गं आचिक्खेय्य, अन्धकारे वा तेलपज्जोतं धारेय्य, चक्खुमन्तो रूपाणि दक्खन्ती ति; एवमेवं भगवता अनेकपरियायेन धम्मो पकासितो। एसाह, भन्ते, भगवन्तं सरणं गच्छामि धम्मं च भिक्खु सङ्घ च । लभेय्याहं, भन्ते, भगवती सन्तिके पब्बज्जं लभेय्यं उपसम्पदं" ति।... राजगृह में सातों धर्मनायक गणाचरियेसु को सावकसक्कतो एवं मे सतं । एक समयं भगवा राजगहे विहरति वेलुवने कलन्दकनिवापे । तेन खो पन समयेन सम्बहुला अभिज्ञाता अभिआता परिब्बाजका मोरनिवापे परिब्बाजकारामे पटिवसन्ति, सेय्यथीदं अन्नभारो वरधरो सकुलुदायी च परिब्बाजको अछे च अभिआता अभि आता परिब्बाजका । अथ खो भगवा पुब्बण्हसमयं निवासेत्वा पत्तचीवरमादाय राजगहं पिण्डाय पाविसि । अथ खो भगवतो एतदहोसि-''अतिप्पगो खो ताव राजगहे पिण्डाय चरितुं । यन्ननाहं येन मोरनिवापो परिब्बाजकारामो येन सकुलुदायी परिब्बाजको तेनुप-सङ्कमेय्यं ति अथ खो भगवा येन मोरनिवापो परिब्बाजकारामोतेनुपसङ्कमि। तेन खो पन समयेन सकुलुदायी परिब्बाजको महतिया परिब्बाजकपरिसाय सद्धि निसिन्नो होति उन्नादिनिया उच्चासहमहास अनेक TEळानकथं कथेन्तिया सेय्यथीदं राजकथं... इतिभवाभवकथं इति वा । अहसा खो सकुलुदायी परिब्बाजको भगवन्तं दूरतो व आगच्छन्तं। दिस्वान सकं परिसं सण्ठपेसि'अप्पसद्दा भोन्तो होन्तु; मा भोन्तो सद्दमकत्थ । अयं समणो गोतमो आगच्छति; अप्पसहकामो खो पन सो आयस्मा अप्पसहस्स वण्णवादी । अप्पेव नाम अप्पसई परिसं विदित्वा उपसङ्कमितब्बं मझेय्या" ति । अथ खो ते परिब्बाजका तुण्ही अहेसुं । अथ खो भगवा येन सकलू पता वा १. सुत्तपिटके दीघनिकाय पालि, महावग्गो, महापरिनिब्बान सुत्त, सुभद्दपरिब्बाजकवत्थु, ३-२३-८५-८८; पृ० ११५-१७ । ___ 2010_05 Page #580 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२६ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड : १ दायी परिब्बाजको तेनुपसङ्कमि । अथ खो सकुलुदायी परिब्बाजको भगवन्तं एतदवोच"एतु खो, भन्ते, भगवा । स्वागतं, भन्ते, भगवतो। चिरस्सं खो, भन्ते, भगवा इमं परि. यायमकासि यदिदं इधागमनाय । निसीदतु, भन्ते, भगवा; इदमासनं पञ्जत्तं" ति । निसीदि भगवा पञ्जते आसने । सकुलुदायी पि खो परिब्बाजको अञ्जतरं नीचं आसनं गहेत्वा एकमन्तं निसीदि । एक मन्तं खो सकुलुदायि परिबाजकं भगवा ऐतदवोच "कायनुत्थ, उदायि, एतरहि कथाय सन्नि सिन्ना, का च पन वो अन्तराकथा विप्पकता" ति ? "तिद्वतेसा, भन्ते, कथा याय मयं एतरहि कथाय सन्निसिन्ना । नेसा, मन्ते, कथा भगवतो दुल्लभा भविस्सति पच्छा पि सवनाय । पुरिमानि, भन्ते, दिवसानि पुरिमतरानि नानातित्थियानं समणब्राह्मणानं कुतूहलसालायं सन्निसिन्नानं सन्निपतितानं अयमन्तराकथा उदपादि-'लाभा वत, भो, अङ्गमगधानं, सुलद्धलाभा वत, भो, अङ्गमगधानं ! तत्रिमे समणब्राह्मणा सविनों गणिनो गणाचरिया जाता यसस्सिनो तित्थकरा साधुसम्मता बहुजनस्स राजगहं वस्सावासं ओसटा । अयं पि खो पूरणो कस्सपो सङ्घी चेव गणी च गणाचरियो च जाती यसस्सी तित्थकरो साधुसम्मती बहुजनस्स; सो पि राजगहं वस्सावासं ओस खो मक्खलि गोसाली...पे० . अजितो केसकम्बलो.. पकूधो कच्चायनो..... सञ्जयो वेलट. पुत्तो.. निगण्ठो नातपुत्तो सङ्घी चेव... बस्सावासं ओसटो। अयं पि खो समणो गोतमो सङ्घीचेव... वस्सावासं प्रोसटो। को नु खो इमेसं भगवतं समणब्राह्मणानं सङ्घीनं गणीनं गणाचरियानं आजान यसस्सीनं तित्थकरानं साधुसम्मतानं बहुजनस्स सावकानं सक्कतो गरुकतो मानितो पूजितो, कंच पन सावका सक्कत्वा गरुं कत्वा उपनिस्साय विहरन्ती' ति ? "तत्रेकच्चे एवमाहंसु-'अयं खो पूरणो कस्सपो सङ्घी चेव...'बहुजनस्स; सो च खो सावकानं न सक्कतो न गरुकतो न मानितो न पूजितो, न च पन पूरणं कस्सपं सावका सक्कत्वा गरुकत्वा उपनिस्साय विहरन्ति । भूतपुब्बं पूरणो कस्सपो अनेकसताय परिसाय धम्म देसेति । तत्रज्ञतरो पूरणस्स कस्सपस्स सावको सद्दमकासि-मा भोन्तो पूरणं कस्सपं एतमत्थं पुच्छित्थ, नेसो एतं जानाति ; मयमेतं जानाम, अम्हे एतमत्थं पुच्छथ; मयमेतं भवन्तानं ब्याकरिस्सामा ति । भूतपुब्बं पूरणो कस्सपो बाहा पग्गय्ह कन्दन्तो न ल भतिअप्पसदा भोन्तो होन्तु, मा भोन्तो सद्दम कत्थ । नेते, भवन्ते, पुच्छन्सि, अम्हे एते पुच्छन्ति; मयनेतेसं व्याकरिस्सामा ति । बहु खो पन पूरणस्स कस्सपस्स सावका वादं आरोपेत्वा अपक्कन्ता-न त्वं इमं धम्मविनयं आजानासि, अहं इमं धम्मविनयं आजानामि, किं त्वं इमं धम्मविनयं आजानिस्ससि, मिच्छा पटिपन्नो त्वमसि, अहमस्मि सम्मापटिपन्नो, सहितं मे, असहितं ते, पुरेवचनीयं पच्छा अवच, पच्छावचनीयं पुरे अवच, अधिचिण्णं ते विपरावत्तं आरोपितो ते वादो, निग्नहितोसि, चर वादप्पमोक्खाय निब्बेठेहि वा सचे पहोसी ति । इति पूरणो कस्सपो सावकानं च सक्कतो... उपनिस्साय विहरन्ति । अक्कुट्ठो च पन पूरणो कस्सपो धम्मक्कोसेना' ति। "एकच्चे एवमाहंसु-'अयं पि खो मक्खलि गोसालो...पे... अजितो केसकम्बलो... पकुधो कच्चायनो सञ्जयो बेलट्ठपुत्तो निगण्ठो नातपुत्तो सङ्घी चेव..... धम्मक्कोसेना' ति। ____ 2010_05 Page #581 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा ] त्रिपिटकों में निगण्ठ व निगण्ठ नातपुत्त : मूल पालि ५२७ " एकच्चे एवमाहंसु - ' अयं पि खो समणो गोतमो सङ्घी चेव.' 'सावकानं सत्कतो गरुकतो मानितो पूजितो, समणं च पन गोतनं सावका सक्कत्वा गरु कत्वा उपनिस्सया विहरन्ति । भूत पुब्बं समणो गोतमो अनेकसताय परिसाय धम्मं देसेति । तत्रतरो समणोस्स गीतमस्स सावको उक्कासि । तमेनाञ्जतरो ब्रह्मचारी जन्नुकेन घट्टेसि - अप्पसद्दो आयस्म होतु, मायस्मा सद्दमकासि, सत्या तो भगवा धम्मं देसेती' ति । यस्मिं समये समणो गोतमो अनेक सताय परिसाय धम्मं देसेति, नेव तस्मि समये समणस्स गोतमस्स सावकानं खिपितसो वा होति उक्कासितसद्दो वा । तमेनं महाजन कायो पच्चासीसमानरूपो पच्चुपुट्ठितो होति - यं नो भगवा धम्मं भासिस्सति तं नो सोस्सामा ति । सेय्यथापि नाम पुरिसो चातुम्महापथे खुद्द मधुं अलकं पीलेय्य । तमेनं महाजनकायो पच्चासीसमानरूपो पच्चुपट्टितो अस्स । एवमेव यस्मिं समये समणो गोतमो अनेकसताय परिसाय धम्मं देसेति, नेव तस्मि समये समणस्स गोतमस्स सावकानं खिपितसद्दो वा होति उक्कासितसद्दो वा । तमेनं महाजनकायो पच्चासीसमानरूपो पच्चुपट्टितो होति -यं नो भगवा धम्मं भासिस्सति तं नो सोस्सामा ति । येपि समणस्स गोतमस्स सावका सब्रह्मचारीहि सम्पयोजेत्वा सिक्खं पच्चक्खाय हीनायातन्ति तेपि सत्थु चैव वण्णवादिनो होन्ति, धम्मस्स च वण्णवादिनो होन्ति, सङ्घस्स च वण्णवादिनो होन्ति, अत्तगरहिनो ये होन्ति अनञ्चगरहिनो, मयमेवम्हा अलक्खिका मयं अप्पपुञ्ञा ते मयं एवं स्वाक्खाते धम्मविनये पब्बजित्वा नासक्खिम्हा यावजीवं परिपुष्णं परिसुद्धं ब्रह्मचरियं चरितुं ति । ते आरामिकभूता वा उपासकभूता वा पञ्चसिक्खापदे समादाय वत्तन्ति । इति समणो गोतमो सावकानं सक्कतो० विहरन्ती" ति ।" : २७ : निगण्ठ उपोसथ एवं मे सुतं । एकं समयं भगवा सावत्थियं विहरति पुब्वारामे मिगार मातुपासादे । अथ खो विसाखा मिगारमाता तदहुपोसथे येन भगवा तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा भगवन्तं अभिवादेत्वा एकमन्तं निसीदि । एकमन्तं निसिन्नं खो विसाखं भिगारमातरं भगवा एतदवोच - "हन्द कुतो नु त्वं, विसाखे, आगच्छसि दिवा दिवस्सा" ति ? "उपोसथाहं, भन्ते, अज्ज उपवसामी" ति । “तयो खोमे, विसाखे, उपोसथा । कतमे तयो ? गोपालकुपोसथो, निगण्ठपोसथो, अरियुपोसथो । कथं च विसाखे, गोपालकुपोसथो होति ? सेय्यथापि, विसाखे, गोपालको सायन्हसमये सामिकानं गावो निय्यातेत्वा इति पटिसञ्चिक्खति - 'अज्ज खो गावो अमुकस्मि च अमुकस्मि च पदे से चरिंसु, अमुकस्मि च अमुकस्मि च पदेसे पानीयानि पिविसु; स्वे दानि गावो अमुकस्मि च अमुकस्मि च पदेसे चरिस्सन्ति, अमुकस्मि च अमुकस्मि च पदेसे पानी १. सुत्तपिटके, मज्झिमनिकाय पालि, भज्झिमपण्णासक, महासकुलुदायिसुत्तं २७-१ ; पृ० २२४ से २८ । 2010_05 Page #582 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२८ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [ खण्ड : १ यानि पिविस्सन्ती' ति; एवमेव खो, विसाखे, इधेकच्चो उपोसथिको इति पाटिसञ्चिक्खति'अहं वज्ज इदं चिदं च खादनीय खादि इदं चिदं च भोजनीयं भुञ्जि; स्वे दानाहं इदं चिदं च खादनीयं खादिस्सामि इदं चिदं च भोजनीयं भुजिस्सामी' ति । सो तेन अभिज्झासहगतेन चेतसा दिवस अतिनामेति । एवं विसाखे, गोपालकुपोसथो होति एवं उपवत्थो खो; विसाखे, गोपालकुपोसथो न महम्फलो होति न महानिसंसो न महाजुतिको न महाविष्फारो | "कथं च विसाखे, निगण्ठपोसथो होति ? अस्थि विसाखे, निगण्ठा नाम समणजातिका । ते सावकं एवं समादपेति – एहि त्वं' अम्भो पुरिस, ये पुरत्थिमाय दिसाय पाणा परं योजनसतं तेसु दण्डं निक्खिपाहि; ये पच्छिमाय दिसाय पाणा परं योजनसतं तेसु दण्डं निक्खिपाहि; ये उत्तराय दिसाय पाणा परं योजनसतं तेसु दण्डं निक्खिपाहि; ये दक्खिणाय दिसाय पाणा परं योजनसतं तेसु दण्डं निक्खिपाही' ति । इति एकच्चानं पाणानं अनुयाय अनुकम्पाय समादपेन्ति, एकच्चानं पाणानं नानुद्दयाय नानुकम्पाय समादन्ति । ने तदहुपोसथे सावकं एवं समादपेन्ति— 'एहि त्वं, अम्भो, पुरिस, सब्बचेलानि निक्खिपित्वा एवं वदेहि— नाहं क्वचनि कस्सचि किञ्चनतस्मि, न च मम क्वचनि कत्थचि किञ्चनतत्थी ति । जानन्ति खो पनस्स मातापितरो — 'अयं अम्हाकं पुत्तो' ति ; सोपि जानाति -' इमे मय्हं मातापितरो' ति । जानाति खो पनस्स पुत्तदारो – 'अयं मय्हं भत्ता' ति ; सो पि जानाति - 'अयं मय्हं पुत्तदारो' ति । जानन्ति खो पनस्स दासकम्मकरपोरिसा - 'अयं अम्हाकं अय्यो' ति; सो पि जानाति — 'इमे मय्हं दासकम्मकरपोरिसा' ति । इति यस्मि समये सच्चे समादपेतब्बा मुसावादे तस्मि समये समादपेन्ति । इदं तस्स मुसावादस्मि वदामि । सो तस्सा रत्तिया अच्चयेन भोगे अदिन्नं येव परिभुञ्जति । इदं तस्स अदिन्ना - दानस्मि वदामि । एवं खो, विसाखे, निगण्ठुपोसथो होति । एवं उपवुत्थो खो, विसाखे, निगण्ठुपोसथो न महफ्फलो होति न महानिसंसो न महाजुतिको न महाविष्फारो । " कथं च विसाखे, अरियुपोसथो होति ? उपक्किलिट्ठस्स, विसाखे, चित्तस्स उपक्कमेन परियोदपना होति । कथं च विसाखे, उपक्किलिट्टस्स चित्तस्स उपक्कमेन परियोदपना होति ? इध, विसाखे, अरियसावको तथागतं अनुसरति — ' इति पि सो भगवा अरहं सम्मासम्बुद्धो विज्जाचरणसम्पन्नो सुगतो लोकविदू अनुत्तरो पुरिसदम्मसारथि सत्या देवमनुस्सानं बुद्धो भगवा' ति । तस्स तथागतं अनुस्सरतो चित्तं पसीदति, पामोज्जं उप्पज्जति । ये चित्तस्स उपक्किलेसा ते पहीयन्ति, सेय्यथापि, विसाखे, उपक्कि लिट्ठस्स सीसस्स उपक्कमेन परियोदपना होति । १०...... : २८ : छ अभिजातियों में निर्ग्रन्थ एकं समयं भगवा राजगहे विहरति गिज्झकूटे पब्बते । अथ खो आयस्मा आनन्दो येन भगवा तेनुपसङ्कमि ; उपसङ्कमित्वा भगवन्तं अभिवादेत्वा एकमन्तं निसीदि । एकमन्तं १. सुत्तपिटके, अंगुत्तरनिकाय पालि, तिकनिपात, महावग्गो, उपोसथसुत्तं, ३-७-१०; पृ० १६०-६१ । 2010_05 Page #583 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा ] त्रिपिटकों में निगण्ठ व निगण्ठ नातपुत्त : मूल पालि निसिनो खो आयस्मा आनन्दो भगवन्तं एतदवोच – “पूरणेन, भन्ते, कस्सपेन छलमिजातियो पञ्ञत्ता - तण्हा भिजाति पञ्ञत्ता, नीलाभिजाति पञ्ञत्ता, लोहिताभिजाति पञ्ञत्ता, हलिद्दामिजाति पञ्ञत्ता, सुक्काभिजाति पञ्ञत्ता, परमसुक्काभिजाति पञ्ञत्ता । "तत्रिदं भन्ते, पूरणेन कस्सपेन तण्हाभिजाति पञ्ञत्ता, ओरब्भिका सुकरिका साकुणिका माविका लुद्दा मच्छघातका चोरा चोरघातका बन्धनागारिका ये वा पन पि केचि कुरूरकम्मन्ता । " तत्रिदं, भन्ते, पूरणेन कस्सपेन नीलाभिजाति पञ्ञत्ता, भिक्खू कण्टकवुत्तिका ये वा पन पि केचि कम्मवादा किरियवादा | "तत्रिदं भन्ते, पूरणेन कस्सपेन लोहिताभिजाति पञ्ञत्ता, निगण्ठा एकसाटका | " तत्रिदं भन्ते, पूरणेन कस्सपेन हलिद्दाभिजाति पञ्ञत्ता, गिही ओदातवसना अचेलक सावका । ५२६ "तत्रिदं भन्ते, पूरणेन कस्सपेपन सुक्काभिजाति पञ्ञत्ता, आजीवका आजीवकिनियो ।' : २६ : सच्चक निगण्ठपुत्र सच्चकस्स पञ्हो एव मे सुतं । एकं समयं भगवा वेसालियं विहरति महावने कूटागारसालायं । तेन खोपन समयेन भगवा पुब्बण्हसमयं सुनिवत्थो होति पत्तचीवरमादाय वेसालि पिण्डाय पविसितुकामो | अथ खो सच्चको निगण्ठपुत्तो जङ्घाविहारं अनुचङ्कममानो येन अनुविचरमानो महावनं कूटागारसाला तेंनुपसङ्कमि । अद्दमा खो आयस्मा आनन्दो सच्चकं निगण्ठपुत्तं दूरतो व आगच्छन्तं । दिस्वान मगवन्तं एतदवोच - " अयं, भन्ते, सच्चको निगण्ठपुत्तो आगच्छति भस्सप्पवादको पण्डितवादो साधुसम्मतो बहुजनस्स । एसो खो, भन्ते, अवण्णकामो बुद्धस्स, अवणकामो धम्मस्स, अवण्णकामो सङ्घस्स । साधु, भन्ते, भगवा मुहुत्तं निसीदतु अनुकम्पं उपादाया" ति । निसीदि भगवा पञ्ञत्ते आसने । अथ खो सच्चको निगण्ठपुत्तो येन भगवा तेन सङ्कमि; उपसङ्कमित्वा भगवता सद्धि सम्मोदि, सम्मोदनीयं कथं सारणीयं वीपिसारेत्वा एकमन्तं निसीदि । एकमन्तं निसिन्नो सच्चको निगण्ठपुत्तो भगवन्तं एतदवोच –०... सच्चकस्स भगवति सद्धा एवं वृत्ते, सच्चको निगण्ठपुत्तो भगवन्तं एतदवोच -- "अच्छरियं, भो गोतम, अब्भुतं, भो गोतम ! यावञ्चिदं मोतो गोतमस्स एवँ आसज्ज आसज्ज वुच्चमानस्स, उपनीतेहि १. सुत्तपिटके अंगुत्तरनिकाय पालि, छक्क निपाता, महावग्गो, छलभिजातिसुत्तं, ६-६-३; पृ० ६३-६४ । 2010_05 Page #584 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [ खण्ड : १ वचनपथेहि समुदाचरियमानस्स, छविवरणो चेव परियोदायति, मुखवण्णो च विप्पसीदति, यथा तं अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स । अभिजानामहं, भोगोतम, पूरणं कस्सपं वादेन वादं समारभिता । सोपि मया वादेन वादं समारद्धो अन पटिचरि, बहिद्धा कथं अपना मेसि, कोपं च दोसं च अप्पच्त्रयं च पात्वाकासि । भोतो पन गोतमस्स एवं अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स । अभिजानामा, भी गोतम, मक्खलि गोसालं पे० अजितं केसकम्बलं ... पकुधं कच्चायनं सञ्जय बेलट्ठपुत्तं निगण्ठं नाटपुत्तं वादेन वादं समारभिता । सोपि मूया वादेन ०... अप्पच्चयं च पात्वाकासि । भोतो पन गोतमस्म एवं बहुकिच्चा मयं, बहुकरणीया" ति । ५३० .. "यस्स दानि त्वं अग्गिवेस्सन, कालं कञ्जसी" ति । अथ खो सच्चको निगण्ठपुत्तो भगवतो भासितं अभिनन्दित्वा अनुमोदित्वा उदायासन पक्कामी ति । : ३० : अनाश्वासिक ब्रह्मचर्यवास चत्तारो अब्रह्मचर्यवासा एवं मे सुतं । एकं समयं भगवा कोसम्बियं विहरति घोसितारामे । तेन खो पना समयेन सन्दको परिब्बाजको पिलक्खगुहायं पटिवसति महतिया परिब्बाजकपरिसाय सद्धि पञ्चमत्तेहि परिब्बाजकसतेहि । अथ खो आयस्मा आनन्दो सायण्हसमयं पटिसल्लाना बुट्ठितो भिक्खू आमन्तेसि—‘“आयामावुसो, येन देवकत सोब्भो तेनुपसङ्कमिस्साम गृहादस्सनाया" ति । " एवमावसो " ति खोते भिक्खू आयस्मतो आनन्दस्स पच्चस्सोसुं । अथ खो आयस्मा आनन्दो सम्बहुलेहि भिक्खूहि सद्वि येन देवकतसो भो तेनुपसङ्कमि । तेन खो पन समयेन सन्दको परिब्बाजको महतिया परिब्बाजकपरिसाय सद्धि निसिन्नो होति उन्नादिनिया उच्चसद्द - महासहाय अनेक विहितं तिरच्छानकथं कथेन्तिया, सेय्यथीद - राजकथं चोरथथं महामत्तकथं सेनाकथं भयकथं युद्धकथं अन्नकथं पानकथं वत्थकथं सयनकथं मालाकथं गन्धकथं प्रातिकथं यानकथं गामकथं निगमकथं नगरकथं जनपदकथं इत्थिकथं सूरकथं विसिखाकथं कुम्भाभाट्टानकथं पुब्बपेतकथं नानत्तकथं लोकक्खायिकं समुद्दक्खायिकं इतिभवाभवकथं इति वा । अद्दसा खो सन्दको परिब्बाजको आयस्मन्तं आनन्दं दूरतो व आगच्छन्तं । दिस्वान सकं परिसं सण्ठपेसि— "अप्पसद्दा भोन्तो होन्तु, मा भोन्तो सद्दमकत्थ; अयं समणस्स गोतमस्स सावको आगच्छति समणो आनन्दो । यावता - खो पन समणस्स गोतमस्स सावका कोसम्बियं पटिवसन्ति, अयं तेसं अतरो समणो आनन्दो । अप्पसद्दकामा खो पन ते आयस्मन्तो अप्पसद्द विनीता 2010_05 १. सुत्तपिटके, मज्झिमनिकाय पालि, मूलपणासक, महासच्चकसुतं, ३६-१-१ से ३६-५-३५; पृ० २६१-३०६ । Page #585 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा ] त्रिपिटकों में निगण्ठ व निगण्ठ नातपुत्त : मूल पालि ५३१ अप्पसद्दस्स वण्णवादिनो ; अप्पेव नाम अप्पसद्दं परिसं विदित्वा उपसङ्कमितब्बं मब्बेय्या ।" ति । अथ खो ते परिब्बाजका तुम्ही अहेसं । अथ खो आयस्मा आनन्दो येन सन्दको परिब्बाजको तेनुपसङ्कमि । अथ खो सन्दको परिब्बाजको आयस्मन्तं आनन्दं एतदवोच - "एतु खो भवं आनन्दो, स्वागतं भोतो आनन्दस्स | चिरस्सं खो भवं आनन्दो इमं परियायमकासि यदिदं इघागमनाय । निसीदतु भवं आनन्दो, इदमासनं पञ्जत्तं " ति । निसीदि वो आयस्मा आनन्दो पञ्ञत्ते आसने । सन्दको पिखो परिब्बाजको अञ्ङतरं नीचं आसनं गहेत्वा एकमन्तं निसीदि । एकमन्तं निसिन्न खो सन्दकं परिब्बाजकं आयस्मा आनन्दो एतदवोच -- " कायनुत्थ, सन्दक, एतरहि कथाथं सन्नि सिन्ना, काच पन वो अन्तराकथा विप्पकथा" ति ? तिट्ठतेसा, भो आनन्द, कथा याय मयं एतरहि कथाय सन्निसिन्ना । नेता भोतो आनन्दस्स कथा दुल्लभा भविस्सति पच्छा पि सवनाय । साधु वत भवन्तं येन आनन्द पटिभातु सके आचरियके धम्मिकथा" ति । "तेन हि, सन्दक; सुणाहि, साधुकं मनसि करोहि ; भासिस्सामी" ति । एवं मो" ति खो सन्दको परिब्बाजको आयस्मतो आनन्दस्स पच्चस्सोसि | आयस्मा आनन्दो एतदवोच – " चत्तारोमे, सन्दक, तेन भगवता जानता परसता अरहता सम्मासम्बुद्धेन अब्रह्मचरियवासा अक्खाता चत्तारि च अनस्सासिकानि ब्रह्मचरियानि अक्खातानि, यत्थ विनू पुरिसो ससक्कं ब्रह्मचरियं न वसेय्य, वसन्तो च नाराधेय्य जायं धम्मं कुसलं " ति । कतमे पन ते भो आनन्द, तेन भगवता जानता पस्सता अरहता सम्मासम्बुद्धेन चत्ता अब्रह्मचरियवासा, अक्खाता, यत्थ विञ्जू०कुसलं " ति । “इष, सन्दक, एकच्चो सत्था एवंवादी होति एवं दिट्ठी – 'नत्थि दिन्नं, नत्थियिष्ट, नत्थि हुतं ० [o......| " पुन च परं सन्दक, इधेकच्चो सत्था एवंवादी होति एवंदिट्ठी – 'करोतो कारयतो ....... "पुन च परं इघेकच्चो, सत्था एवंवादी होति एवंदिट्ठी - 'नत्थि होतु, नत्थ पच्चयो ०...। "पुन च परं सन्दक, इधेकच्चो सत्था एवंवादी होति एवंदिट्ठी - सत्तिमे काया अकट्ठा अकटविधा.......... "इमे खो ते सन्दक, तेन भगवता जानता पस्सता अरहता सम्मासम्बुद्धेन चत्तारो अब्रह्मचरियवासा अक्खाता यत्थ.... ... कुसलं " ति । चत्तारि अनस्सासिकानि ब्रह्मचरियानि " अच्छरियं भो आनन्द, अब्भुतं भो आनन्द ! यावञ्चिदं तेन भगवता ० अब्रह्मचरियावासा व समाना ' अब्रह्मचरियवासा' ति अक्खाता यत्थ० कुसलं ति । कतमानि पन तानि भो आनन्द, तेन भगवता जानता पस्सता अरहता सम्मासम्बुद्धेन चत्तारि अनस्सासिकानि ब्रह्मचरियानि अक्खातानि यत्थ.... "कुसलं" ति ? 2010_05 Page #586 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३२ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड : १ "इध, सन्दक, एकच्चो सत्था सब्बन सब्बदस्सावी अपरिसेसं आणदस्सनं पटिजानाति–'चरतो च मे तिढतो च सुत्तस्स च जागरस्स च सततं समितं जाणदस्सनं पच्चुपट्टितं' ति । सो सुजेपि अगारं पविसति, पिण्डं पि न लभति, कुक्कुरो पि डसति, चण्डेन पि हत्थिना समागच्छति, चण्डेन पि अस्सेन समागच्छति, चण्डेन पि गोणेन समागच्छति, इत्थिया पि पुरिसस्स पि नाम पि गोत्तं पि पुच्छलि, गामस्स पि निगमस्स पि नाम पि मग्गं पि पुच्छति ; सो 'किमिदं' ति पुट्ठो समानो 'सुझं मे अनरं पिविसितब्बं अहोसि', तेन पाविसि ; 'पिण्डं मे अलद्धब्बं अहोसि', तेन नालत्थं ; कुक्कुरेन डंसितब्बं अहोसि, तेनम्हि दट्ठो ; चण्डन हत्थिना समागन्तब्बं अहोसि, तेन समागम ; चण्डेन अस्सेन समागन्तब्बं अहोसि तेन समामि ; चण्डेन गोणेन समागन्तब्बं अहोसि, तेन समागमि ; इत्थिया पि पुरिसस्स पि नाम पि गोत्तं पि पुच्छितब्बं अहोसि, तेन पुच्छि; गामस्स पि निगमस्स पि नामं पि मग्गं पि पुच्छितब्बं अहोसि, तेन पुच्छि ति । तत्र, सन्दक, विजू पुरिसो इति पटिसञ्चिक्खति-अयं खो भवं सत्था सब्ब सब्बदस्सावी अपरिसेसं आणदस्सनं पटिजानाति.."पे०. गामस्स पि निगमस्स पि नामं पि मग्गं पि पुच्छितब्बं अहोसि, तेन पुच्छि ति । सो 'अनस्सासिकं इदं ब्रह्मचरियं" ति-इति विदित्वा तस्मा ब्रह्मचरिया निबिज्ज पक्कमति। इदं खो, सन्दक, तेन भगवता जानता पस्सता अरहता सम्मासम्बुद्धेन पठमं अनस्सासिकं ब्रह्मचरियं अक्खातं यत्थ वि०... कुसलं ......."इमानि खो. सन्दक. तेन भगवता जानता पस्सता अरहता सम्मासम्बद्धन चत्तारि अनस्सासिकानि ब्रह्मचरियानि अक्खातानि यत्थ विझू०."कुसलं" ति।' विभिन्न मतों के देव एवं मे सुतं । एक समयं भगवा राजगहे विहरति वेलुवने कलन्दक निवापे। अथ खो सम्बहुला नानाति त्थि यसावका देवपुत्ता असमो च सहलि च नीको च आकोटको च वेगभरि च माणवगारियो च अभिक्कन्ताय रत्तिया अभिक्कन्तवण्णा केवलकप्पं वेलुवनं ओमासेत्वा येन भगवा तेनुपसङ्कर्मिसु ; उपसङ्कमित्वा भगवन्तं अभिवादेत्वा एकमन्तं अट्ठसु । एकमन्तं ठितो खो असमो देवपुत्तो पूरणं कस्सपं आरब्भ भगवतो सन्तिके इमं गाथं अभासि "इध छिन्दितमारिते, हतजानीसु कस्सपो। न पापं समनुपस्सति, पुझं वा पन अत्तनो। स वे विस्साप्तमाचिक्खि, सत्थाअरहति माननं" ति॥ १. सुत्तपिटके, मज्झिमनिकाय पालि, मज्झिपण्णासक, सन्दक सुत्तं, २६-१-२; पृ० २१७-२२० । ____ 2010_05 Page #587 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा] त्रिपिटकों में निगण्ठ व निगण्ठ नातपुत्त : मूल पालि ५३३ अथ खो सहलि देवपुत्तो मक्खलि गोसालं आरब्भ भगवतो सन्तिके इमं गाणं अमासि "तपोजिगुच्छाय . सुसंवतत्तो, बाचं पहाय कलहं जनेन । समो सवज्जा विरतो सच्चवादी, न हि नून ताविसं करोति पापं" ति ।। अथ खो नीको देवपुत्तो निगण्ठं नाटपुत्तं आरब्भ भगवतो सन्तिके इमं गाथं अभासि "जेगुच्छी निपको भिक्खु, चातुयामसुसंवतो। नि? सुतं च आचिक्खं, न हि नून किब्बिसी सिया" ति॥ ___अथ खो आकोटको देवपुत्तो नानातित्थिये आरम्भ भगवतो सन्तिके इमं गाणं अभासि "पकुधको कातियानो निगण्ठो, ये चापिमे मक्खलिपूरणासे। गणस्स सत्थारो साभञ्जप्पत्ता, न हि नून ते सप्पुरिसेहि दूरे" ति ।। अथ खो बेगभरि देवपुत्तो आकोटकं देवपुत्तं गाथाय पच्चमासि "सहाचरितेन छवो सिगालो, न कोत्थको सीहसमो कदाचि । नग्गो मुसावादी गणस्स सस्था, सङ्कस्सराचारो न सतं सरिक्खो" ति ।। अथ खो मारो पापिमा बेगरि देवपुत्तं अन्वाविसित्वा भगवतो सन्तिके इमं गाणं अभासि "तपोजिगुच्छाय आयुत्ता, पालयं पविवेकियं । रूपे च ये निविद्वासे, देवलोकाभिनन्दिनो। ते वे सम्मानुसासन्ति, परलोकाय मातिया" ति। 2010_05 Page #588 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड : १ अथ खो भगवा, 'मारो अयं पापिमा' इति विदित्वा, मारं पापिमन्तं गाथाय पच्चभासि "ये केचि रूपा इध वा हुरं वा, ये चन्त लिखस्मि पभासवण्णा । सब्बे व ते ते नमुचिप्पसत्था, आमिसं व मच्छानं वधाय खित्ता" ति॥' :३२: पिंगल कोच्छ ब्राह्मण पञ्च सारथिका पुग्गला एवं मे सुतं । एक समयं भगवा सावत्थियं विहरति जेतवने अनाथपिण्डकस्स आरामे। अथ खो पिङ्गलकोच्छो ब्राह्मणो येन भगवा तेनुपसङ्कमि ; उपसङ्कमित्वा भगवता सद्धि सम्मोदि । सम्मोदनीयं कथं सारणीयं वीतिसारेत्वा एकमन्तं निसीदि । एकमन्तं निसिन्नो खो पिङ्गलकोच्छो ब्रह्मणो भगवन्तं एतदवोच----'येमे, भो गोतम, समणब्राह्मणा सङ्घिनो गणिनो गणाचरिया जाता यसस्सिनो तित्थकरा साधुसम्मता, बहुजनस्स, सेय्यथीदंपूरणो कस्सपो, मक्खलि गोसालो, अजितो केसकम्बलो, पकुधो कच्चायनो, सञ्जयो बेलपुत्तो, निगण्ठो नाटपुत्तो, सब्बेते सकाय पटिज्ञाय अब्भनंसु सब्बे व नाब्मबंसु, उदाहु एकच्चे अब्भजेसु एकच्चे नाब् सू' ति ? __ "अलं, ब्राह्मण, तितेतं-सब्बेते सकाय पटिज्ञाय अब्भजेसु सब्बे व नाभञ्जसु, उदाहु एकच्चे अब्भजेसु एकच्चे नाब्भनंसू ति । धम्मं ते, ब्राह्मण, देसेस्सामि, तं सुणाहि, साधुकं मनसि करोहि ; भासिस्सामी' ति । "एवं, भो" ति खो पिङ्गलकोच्छो ब्राह्मणो भगवतो पच्चस्सोसि । भगवा एतदवोच-० १. सुत्तपिटके, संयुत्तनिकाय पालि, सगाथवग्गो, देवपुत्तसंयुत्तं, नानातित्थियसावकसुत्तं, २-३०-४४-४५, पृ०६४-६५ । २. सुत्तपिटके, मज्झिम निकाय पालि, मूलपण्णासकं, चूलसारोपमसुत्तं, ३०-१-१; पृ०२४८। ____ 2010_05 Page #589 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा ] त्रिपिटकों में निगण्ठ व निगण्ठ नातपुत्त : मूल पालि : ३३ : जटिल सुत्त एकं समयं भगवा सावत्थियं विहरति पुब्बारामे मिगारमातुपासादे । तेन खो पन समयेन भगवा सायन्हसमयं पटिसल्लाना वुट्ठितो बहिद्वारको के निसिन्नो होति । अथ खो राजा पसेनदि कोसलो येन भगवा तेनुपसङ्कमि ; उपसङ्कमित्वा भगवन्तं अभिवादेत्वा एकमन्तं निसीदि । तेन खो पन समयेन सत्त च जटिला सत्त च निगण्ठा सत्त च अचेलका सत्त च एकसाटका सत्तच परिव्वाजका परूल्हकच्छनखलोमा खारिविविधमादाय भगवतो अविदूरे अतिक्कमन्ति । अथ खो राजा पसेनदि कोसलो उट्टायासना एकंसं उत्तरासङ्गं करित्वा दक्खिणाणुमण्डलं पठवियं निहन्त्वा येन ते स च जटिला सत्त च निगण्ठा तेनञ्जलि पणामेत्वा तिक्खतुं नामं सावेसि - "राजाहं, भन्ते, पसेनदि कोसलो. पे राजाहं, भन्ते, पसेददि कोसली" ति । अथ खो राजा पसेनदि कोसलो अचिरपक्कन्तेसु तेसु सत्तसु च जटिलेसु सत्तसु च निगण्ठेसु.... .....। येन भगवा तेनुपसङ्कमि ; उपसङ्कमित्वा० एतदवोच -- "ये ते, भन्ते, लोके अरहतो वा अरहत्तमग्गं वा समापन्ना एते ते अञ्ञतरा" ति । दुज्जानं खोएतं महाराज, तथा गिहिना काम भोगिना पुत्तसम्बाधसयनं अज्झावसन्तेन कासिकचन्दनं पच्चनुभोन्तेन मालागन्धविलेपनं धारयन्तेन जातरूपरजतं सादियन्तेन – इमे अरहन्तो, इमे वा अरहत्तमग्गं समापन्ना' ति । "संवासेन खो, महाराज, सीलं वेदितब्बं । तं च खो दीघेन अद्धना, न इत्तरं ; मनसिकता, नो अमनसिकरोता; पञ्ञवता, नो दुप्पञ्जेन । संवोहारेन खो, ०। आपदासु खो, ० साकच्छाय खो, ० 01 "अच्छरियं, भन्ते, अब्भुतं भन्ते ! यावसुभासितमिदं भन्ते, भगवता - 'दुज्जानं खो एवं, O... "एते, भन्ते, मम पुरिसा चरा ओचरका जनपदं ओचरित्वा आगच्छन्ति । तेहि पठमं ओचिण्णं अहं पच्छा ओसापयिस्मामि । इदानि ते, भन्ते, तं रजोजल्लं पवाहेत्वा सुहाता सुविलित्ता कप्पित केसमस्सू ओदातवत्था पञ्चहि कामगुणेहि समप्पिता समङ्कीभूता पुरिचारेस्सन्ती” ति । अथ खो भगवा एतमत्थं विदित्वा तायं बेलायं इमा गाथायो अभासि 2010_05 “न न aण्णरूपेन नरो विस्ससे ५३५ सुसञ्जतान असञ्जता हि लोकमिमं सुजानो, इत्तरदरसनेन । वियञ्जनेन, चरन्ति ॥ Page #590 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३६ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन खण्ड: १ "पतिरूपको मत्तिकाकुण्डलो व, लोहड्ढमासो व सुवण्णछन्नो। चरन्ति लोके परिवारछन्ना, अन्तो अबुद्धा बहि सोभमाना" ति।' : ३४ : धम्मिक सुत्त एवं मे सुतं । एक समयं भगवा सावत्थियं विहरति जेतवने अनाथपिण्डिकस्स अरामे। अथ खो धम्मिको उपासको पञ्चहि उपासकसतेहि सद्धि येन भगना तेनुपसङ्कमि ; उपासङ्कमित्वा भगवन्तं अभिवादेत्वा एकमन्तं निसादि । एकमन्तं निसिन्नो खो धम्मिको उपासको भगवन्तं गाथाहि अज्झभासि "पुच्छामि तं गोतम भूरिपञ्ज, कथङ्करो सावको साधु होति । यो वा अगारा अनगारमेति, अगारिनो वा पनुपासकासे ॥ ....ये केचिमे तित्थिया वादसीला, आजीवका वा यदि वा निगण्ठा। पञ्जाय तं नातितरन्ति सब्बे, ठितो वजन्तं विय सीधगामि ।। महाबोधि कुमार कि नु दम्डं कि बजिनं कि छत्त कि उपाहनं कि अंकुसं च पत्त च संघाटिं चापि ब्राह्मण तरमाणरूपो गण्हासि कि नु पत्थयसे दिसं ॥१॥ १. सुत्तपिटके, संयुत्तनिकाय पालि, सगाथवग्गो, कोसलसंयुत्तं, सत्तजटिलसुत्तं, ३-११-२७ ___ से ३०; पृ० ७६-७८ ! २. सुत्तपिटके, खुद्द कनिकाये, सुत्तनिपातपालि, चूलवग्गो, धम्मिकसुत्तं, २-१४-१५६ से १६१, पृ० ३२३-३२४ । ___ 2010_05 Page #591 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा] त्रिपिटकों में निगण्ठ व निगण्ठ नातपुत्त : मूल पालि ५३७ द्वादसेतानि वस्सानि वसितानि तवन्तिके, नाभिजानामि सोनेन पिंगलेन अभिनिकूजितं ।।२।। स्वायं दित्तो व नदति सुक्कदाठं विदंसयं तव सुत्वा समरिस्स वीतसद्धस्स मम पति ।।३।। अहु एस कतो दोसो, यथा माससि ब्राह्मण, एस भिय्यो पसीदामि, वस ब्राह्मण मा गम ॥४॥ सब्बसेतो पुरे आसि, ततोपि सबलो अहु। सब्बलोहितको दानि, कालो पक्कित मम ॥५॥ अब्भन्तरं पुरे आसि ततो मज्झे ततो बहि पुरा निद्धमना होति सयं एव चजं अहं ॥६॥ वीतसद्धं न सेवेय्य उदमान व अनोदक सचे पि नं अनुखणे वारि कद्दमगन्धिकं ।।७।। पसन्न एव सेवेय्य, अपसन्नं विबज्जये पसन्न पयिरुपासेय्य, रहदं व उदत्थिको ॥८॥ मजे भजन्तं पुरिसं अभजन्तं न भाजये, असप्पुरिसधम्मोसो यो भजन्तं न भाजति ॥६॥ यो भजन्तं न भजति सेवमानं न सेवति स वे मनुस्सपापिट्टो मिगो साखस्सितो यथा ॥१०॥ अच्चाभिक्खणसंसग्गा असमोसरणेन च एतेन मित्ता जीरन्ति अकाले याचनाय च ॥११।। तस्मा नाभिक्ख णं गच्छे न च गच्छे चिराचिरं कालेन याचं याचेय्य एवं मित्ता न जीररे ॥१२॥ अतिचिरंनिवासेन पियो भवति अप्पियो आमंत खो तं गच्छाम पुरा ते होम अप्पिया ।।१३।। एवं चे याचमानानं मजलि नावबुज्झसि परिवारकानं सत्तानं वचनं न करोसि नो एवं तं अभियाचाम, पुन कयिरासि परियायं ॥१४॥ ___ 2010_05 Page #592 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [खण्ड : १ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन एवञ्चे नो विहरतं अन्तरायो न हेस्सति तुम्हं चापि महाराज मरहं च रट्टवड्ढन । अप्पेव नाम पस्सेम अहोरत्तानमच्च ये ॥१५॥ उदीरणा चे संगत्या मावायमनुवक्त्तति अकामा अकरणीयं वा करणीयं वापि कुब्बति अकामकरणीयस्मि कुविष पापेन लिप्पति ।।१६।। सो चे अत्थो च धम्मो च कल्याणो न पापको भोतो चे वचनं सच्चं सुहतो वानरो मया ॥१७॥ अत्तनो चेहि वास्स अपराधं विजानिय न म त्वं गरहेय्यासि, मोतो वादोहि तादिसो॥१८॥ इस्सरो सम्बलोकस्स सचे कप्तेति जीवितं इद्विव्यसनभावञ्च कन्म कल्याणपापक निद्देसकारी पुरिसो इस्सरो तेन लिप्पति ॥१६॥ सचे अत्थो च धम्मो च कल्याणो न च पापको भोतो चे वचनं सच्चं सुहतो वानरो मया ॥२०॥ अत्तनो चे हि वादस्स अपराधं विजानिय न मंत्वं गरहेय्यासि, भोतो वादो हि तादिसो ॥२१॥ सचे पुब्बेकतहेतु सुखदुक्खं निगच्छति, पोराणकं कतं पापं तं एसो मुच्चते इणं, पोराणकं इणमोक्खो, विवध पापेन लिप्पति ॥२२॥ सोचे अत्थो च धम्मो च कल्याणो न च पापको भोतो च वचनं सच्चं सुहतो वानरो मया ॥२३॥ अत्तनो चे हि वावस्स अपराषं विजानिय न मं त्वं गरहेथ्यासि, भोतो वादो हि तादिसो ॥२४॥ चतुन्नं एव उपादाय रूपं सम्मोति पाणिनं यतो च रूपं सम्मोति तत्थेव अनुपगच्छति ॥२५॥ इधेव जीवति जीवो पेच्च पेच्च विनस्सति, उच्छिज्जमाने अयं लोको ये बाला येच पण्डिता उच्छिम्जमाने लोकस्मि पिवध पापेन लिप्पति ॥२६॥ ____ 2010_05 Page #593 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३६ इतिहास और परम्परा] त्रिपिटकों में निगण्ठ व निगण्ठ नातपुत्त : मूल पालि सोचे अत्यो च धम्मो च कल्याणो न च पापको भोतो चे वचनं सच्चं सुहतो वानरो मया ॥२७॥ अत्तनो चे हि वादस्स अपराध विजानिय न मं त्वं गरहेय्यासि, भोतो वादो हि तादिसो ॥२८॥ आहु खत्तविधा लोके बाला पण्डितमानिनो मातरं हो अथो जेटु पि भातरं हनेय्य पुत्ते च वारे च अथो चे तादिसो सिया ॥२६॥ यस्स रुक्खस्स छायाय निसीदेय्य सयेय्य वा न तस्स सारखं भजेय्य, मित्तदूभी हि पापको ॥३०॥ अथ अत्थे समुप्पन्ने समूलं अपि अब्बहे अत्थो मे सम्बलेनति सुहतो वानरो मया ॥३१॥ सोचे अत्यो च धम्मो च कल्याणो न च पापको मोतो चे वचनं सच्चं सुहतो वानरो मया ॥३२॥ अत्तनो चे हि वादस्स अपराध विजानिय न मं त्वं गरहेय्यासि, भोतो वादो हि तादिसो॥३३।। अहेतुधादो पुरिसो यो च इस्सरकुत्तिको पुम्बेकती च उच्छेदी यो च खत्तविषो नरो, एते असप्पुरिसा लोके बाला पण्डितमानिनो, फरेय्य तादिसो पापं अथो अनं पि कारये, असप्परिससंसग्गो दुक्खन्तो कतुकुद्रयो॥३४-३५॥ उरभरूपेन वाफासु पुब्बे आसंकितो अजयूथं उपेति, हन्त्वा उराणि अजियं अजं च चित्रासयित्वा येन कामं पलेति ॥३६॥ ___ 2010_05 Page #594 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४० आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन समणब्राह्मणा से मनुस्से च तथाविधेके छवनं अनासका रजोजल्लं परियायभत्त पापाचरा कत्वा वञ्चयन्ती थण्डिलसेय्यका च अरहन्तो उक्कुटिकप्पधानं अपनाकत्तं वदाना ॥३७॥ एते असप्पुरिसा लोके बाला पण्डितमानिनो, करेय्य तादिसो पापं अथो अपि कारये, असप्पुरिससंसग्गो दुक्खन्तो कटुकुद्रयो ||३८|| याहु नत्थि विरियं ति हेतुञ्च अपवदन्ति [ ये ] परकारं अतकारञ्च ये तुच्छ समवण्णयुं, एते असप्पुरिसा लोके बाला पण्डितमानिनो, करेय्य तादिसो पापं अथो अञ्ञपि कारये असप्पुरिससंसग्गो दुक्खन्तो कटुकुद्रयो ॥ ३६-४०॥ सचे हि विरियं नास्स कम्मं कल्याणपापकं न भरे वडढकि राजा नपि यन्तानि कारये ॥४१॥ यस्मा च विरियं अस्थि कम्मं कल्याणपापक तस्मा यन्तानि कारेन्ति राजा भरति वडढकि ॥४२॥ यदि वस्ससतं देवो न वस्से न हिमं पते उच्छ्रिजेय्य अयं लोको विनस्सेय्य अयं पजा ॥ ४३ ॥ 2010_05 यस्मा च वस्सती देवो हिमं चानुफुसीयति तस्मा सस्सानि पच्चन्ति रट्ठ च पहलते चिरं ॥४४॥ गवं चे तरमानानं जिम्हं गच्छति पुंगवो सम्बा ता जिम्हं गच्छन्ति नेत्त जिम्हगते सति ॥ ४५ ॥ एवमेवं मनुस्सेसु यो होति सेट्ठसम्मतो सो चे अधम्मं चरति पगेव इतरा पजा सम्बं रट्ठ दुक्खं सेति राजा चे होति अधम्मको ॥ ४६ ॥ गव चे तरमानानं उजुं गच्छति पुंगवो सब्बा ता उजुं गच्छन्ति नेत्ते उजुगते सति ॥४७॥ [खण्ड : १ Page #595 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा] त्रिपिटकों में निगण्ठ व निगण्ठ नातपुत्त : मूल पालि ५४१ एवमेव मनुस्से यो होति सेटसम्मतो सो चेपि धम्मं चरति पगेव इतरा पजा, सब्बं रठं सुखं सति राजा चे होति धम्मिको ॥४८।। महारुक्खस्स फलिनो आम छिदन्ति यो फलं रसं चस्स न जानाति बीजं एस्स विनस्सति ॥४६।। महारुक्खूपमं रठें अधम्मेन यो पसासति रसं चस्स न जानाति रट्ठ चस्स विनस्सति ॥५०॥ महारुक्खस्स फलिनो पक्कं छिन्दति यो फलं रसं चस्स विजानाति बीजं चस्स न नस्सति ॥५१॥ महारुक्खपमं रहें धम्मेन यो पसासति रस चस्स विजानाति रहें चस्स न नस्सति ॥५२।। यो च राजा जनपवं अधम्मेन पसासति सब्बोसधीहि सो राजा विरुखो होति खत्तियो ।।५३।। तत्येव नेगमे हिसं ये युत्ता कयविक्कये ओजदानबलीकरे स कोसेन विरुज्झति ॥५४।। पहारवरखेतञ्ज संगामे कतनिस्समे उस्सिते हिंसयं राजा स बलेन विरुज्झति ॥५५॥ तत्थेव इसयो हिसं सञते ब्रह्मचारयो अधम्मचारी खत्तियो सो सग्गेन विरुज्झति ॥५६॥ यो च राजा अधम्मो भरियं हन्ति अदूसिकं लूइं पसवते ठानं पुत्तेहि च विरुज्झति ॥५७।। धम्मं चरे जनपदे नेगमेसु बलेस च इसयो च न हिंसेय्य पुत्तदारे समं चरे ॥५८।। स तादिसो भूमिपति रट्ठपालो अकोधनो सामन्ते सम्पकम्पेति इन्दो व असुराधिपो ।।५६॥' १. जातक, पंचम खण्ड, महाबोधि जातक, पृ० ३१७-३२७ । ____ 2010_05 Page #596 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४२ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन खण्ड: १ मयूर और काक अदस्सनेन मोरस्स, सिखिनो मजुमाणिनो। काकं तत्थ अपूजेसुं, मंसेन च फलेन च ।। यदा च सरसम्पन्नो, मोरो बावेरुमागमा । अथ लामो च सक्कारो, वायसस्स अहायथ ।। याव नुप्पज्जती बुद्धो, धम्मराजा पभङ्करो। ताव अझे अपूजेस, पृथू समणब्राह्मणे ॥ यदा च सरसम्पग्नो, बुद्धो धम्मं अदेसयि । अथ लाभो चसक्कारो, तिथियानं अहायथा ति ॥' :३७: मांसाहार चर्चा हन्त्वा छेत्वा वधित्वा च, देति दानं असञतो। एदिस भत्तं भुञ्जमानो, स पापमुपलिम्पति॥ पुत्तदारं पि चे हन्त्वा, देति वानं असञ्जतो। भुञ्जमाना पि सप्पो , न पापमुपलिम्पती ति ॥ चार प्रकार के लोग "चत्तारोमे, भिक्खवे, पुग्गला सन्तो संविज्जमाना लोकस्मि । कतमे चत्तारो ? इध भिक्खवे, एकच्चो पुग्गलो अत्तन्तपो होति अत्तपरितापरितापनानुयोगमनुयुत्तो। इध, पन, १. सुत्तपिटके, खुद्दकनिकाये, जातकपालि, 'पठमो भागो', चतुक्कनिपातो, बावेरु जातक, ४.३३६-१५३ से १५६, पृ० १०४ । २. सुत्तपिटके, खुद्दकनिकाये, जातकपालि 'पठमो भागो', दुकनिपातो, तेलोवाद जातक, २-२४६, १६२-१९३, पृ० ६४। ____ 2010_05 Page #597 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा] त्रिपिटकों में निगण्ठ व निगण्ठ नातपुत्त : मूल पालि ५४३ भिक्खवे, एकच्चो पुग्गलो परन्तपो होति अत्तपरितापनानुयोगमनुयुत्तो, परन्तपो च परपरितापनानुयोगमनुयुत्तो न परन्तपो न पर सरितापनानुयोगमनुयुत्तो। सो नेव अत्तन्तपो न परन्तपो च परपरितापनानयोगमनयुत्तो। इध पन, भिक्खवे, एकेच्चो पुग्गलो नेवत्तन्तपो होति नात्तपरितापनानुयोगमनुयुत्तो न परन्तपो न परपरितापनानुयोगमनुयुत्तो। सो नेव अत्तन्तपो न परन्तपो दिट्ठव धम्मे निच्छातो निब्बुतो सीतीभूतो सुखप्पटिसंवेदी ब्रह्मभूतेन अत्तना विहरति । "कथं च, भिक्खवे, पुग्गलो अत्तन्तपो होति अत्तपरितापनानुयोगमनुयुत्तो? इध, भिक्खवे, एकच्चो अचेलको होति मुत्ताचारो हत्थापलेखनो नएहिभद्दन्तिको नतिट्ठभद्दन्तिको नाभिहटं न उद्दिस्सकतं न निमन्तनं सादियति। सो न कुम्भिमुखा पटिग्गण्हाति, न कलोपिमुखा पटिग्गणहांति, न एल कमन्तरं न दण्डमन्तरं न मुसलमन्तरं न द्विन्नं भुजमानानं न गब्भिनिया न पायमानाय न पुरिसन्तरगताय न सङ्कितीसु न यत्थ सा उपट्टितो होति न यत्थ मक्खिका सण्डसण्डचारिनी न मच्छंन मंसं न सुरं न मेरयं न थुसोदकं पिबति । सो एकागारिको वा होति एकालोपिको द्वागारिको वा होति द्वालोपिको...पे... सत्तागारिको वा होति सत्तालोपिको; एकिस्सा पि दत्तिया यापेति द्वीहि पि दत्तीहि यापेति...पे... सत्तहि पि दत्तीहि यापेति; एकाहिकं पि आहारं आहारेति द्वाहिक पि आहारं आहारेति...पे.... सत्ताहिकं पि आहायं आहारेति । इति एवरूपं अड्ढमासिकं पि परियायभत्तभोजनानुयोगमनयुत्तो विहरति । सो साकभक्को पि होति सामाकभक्खो पि होति नीवारभक्खो पि होति दददलभक्खो पि होति हटभक्खो पि होति कणभक्खो पि होति आचामभक्खो पिहोति पिआकभक्को पि होति तिणभक्खा पि होति गोमयभक्खो पि होति; वनमूलफलाहारो पि यापेति पवत्तफलभीजी। सो साणानि पि घारेति मसाणानि पि धारेति छवदस्सानि पिधारेति पंसूकूलानि पि धारेति तिरीटानि पि धारेति अजिनं पि धारेति अजिनक्लियं पि धारेति कूसचीरं पि धारेति वाकचीरं पि धारेति फलकची पि धारेति केसकम्बलं पिधारेति बालकम्बलं पि धारेति उलू कपक्खं पि धारेति ; केसमस्सुलोचको पि होति केसमस्सलोचनानयत्तो. उब्भट्ठको पि होति आसनप्पटिक्खित्तो; उक्कुटिको पि होति उक्कुटिकप्पधानमनयतो कण्टकापस्सयिको पि होति कण्टकापस्सये सेय्यं कप्पेति ; सायततियक पि उदकोरोहनानयोगमनयुत्तो विहरति । इति एवरूपं अनेक विहितं कायस्स आतापनपरितापनानुयोगमनयुत्तो विहरति । एवं खो, भिक्खवे, पुग्गलो अत्तन्तपो होति अत्तपरितापनानुयोगमनयुत्तो।' :३६ : निर्ग्रन्थों के पांच दोष "पञ्चहि, भिक्खवे, धम्मेहि समन्नागतो आजीवको यथाभतं निक्खित्तो एवं निरये। कतमेहि पञ्चहि ? पाणातिपाती होति, अदिन्नादायी होति, अब्रह्मचारी होति, मुसावादी १. सुत्तपिटके, अंगुत्तरनिकाय पालि, चतुक्कनिपातो, महावग्गो, अत्तन्तपसुत्तं, ४२०-८; पृ० २१६-२० । 2010_05 Page #598 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४४ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड : १ होति, सुरामेरयमज्जपमादट्ठायी होति । इमेहि खो, भिक्खवे, पञ्चहि धम्मेहि समन्नागतो आजीवको यथाभतं निक्खितो एवं निरये" ति । "पञ्चहि, भिक्खवे, धम्मेहि समन्नागतो निगन्ठो.. मुण्डसावको..'जटिलको... परिब्बाजको... मागण्डिको.. तेदण्डिको.. आरुद्धको गोतमको.. देवधम्मिको यथाभतं निक्खित्तो एवं निरये। कतमेहि पञ्चहि ? पाणातिपाती होति, अदिन्नादायी होति. पे.... सुरामेरयमज्जपमादायी होति । इमेहि खो, भिक्खवे, पञ्चेहि धम्मेहि समन्नागतो देवधम्मिको यथाभतं निक्खितो एवं निरये" ति ।' :४२ : मिलिन्द प्रश्न अतीते किर कस्सपस्स भगवतो सासने वत्तमाने गङ्गाय समीपे एकस्मि आवासे महाभक्खुसङ्घो पटिवसति। तत्थ वत्तसीलसम्पन्ना भिक्खू पातो व उट्ठाय यट्ठिसमज्जनियो आदाय बुद्ध-गुणे आवज्जन्ता अङ्गणं सम्मज्जित्वा कचवरब्यूहं करोन्ति । अथे' को भिक्खु एक सामणेरं, 'एहि सामणेर, इमं कचवरं छड्डही'-ति आह । सो असुणन्तो विय गच्छति । सो दुतियम्पि तीतयम्पि आमन्तियमानो असुणन्तो विय गच्छते'व। ततो सो भिक्खु दुबचो वता' यं सामणेरो ति कुद्धो सम्मज्जनिदण्डेन पहारं अदासि । ततो सों रोदन्तो भयेन कचयरं छड्डन्तो इमिना' हं कचवरछडुनपुञकम्मेन यवाह निब्बानं पापुणामि एत्थ'न्तरे निब्बतट्ठाने मज्झन्तिकसुरियो विय महेसक्खो महातेजो भय्यं' ति पठमपत्थनं पट्ठपेसि ॥ कचवरं छड्डत्वा नहान'त्थाय गङ्गातित्थं गतो गङ्गाय ऊमिवेगं गग्गरायमानं दिस्वा,-'यावा' हं निम्बानं पापुणामि एत्थ'न्तरे निब्बत्तट्टाने अयं ऊमि वेगो विय ठानुप्पत्तिकपटिभानो भवेय्यं अक्खयपटिभानो'ति दुतियम्पि पत्थनं पट्ठपेसी। सो पि भिक्खु सम्मज्जनिसालाय सम्मज्जनि ठपेत्वा नहान'त्थाय गङ्गातित्थं गच्छन्तो सामणेरस्स पत्थनं सुत्वा-एस मया पयाजितो ति ताव एवं पत्थेसि। मय्ह किं न समिज्झिस्सती' ति चिन्तेवा-यावा'हं निब्बाणं पापुणाभि एत्थन्तरे निब्बत्तनिब्बत्तट्ठाने अयं गङ्गाऊमिबेगो विय अक्खयपटिभानो भवेय्यं, इमिना पुच्छितपुच्छितं सब्बं पञ्हपटिभानं विजटेतुं निब्बेठेतुं समत्थो भवेय्यं' ति पत्थनं पट्टपेसि ।। ते उभो पि देवेसु च मनुस्सेसु च संसरन्ता एक बुद्धन्तरं खेनेसुं। अथ अम्हाक भगवता पि यथा मोग्गलिपुत्ततिस्सत्थेरो दिस्सति, एवमे'ते पि दिस्सन्ति, मम परिनिब्बानतो पञ्चवस्ससते अतिक्कन्ते एते उप्पज्जिस्सन्ति । यं मया सुखुमं कत्वा देसितं धम्मविनयं, तं एते पञ्हपुच्छनं ओपम्मयुत्तिवसेन निज्जलं निग्गुम्बं कत्वा विभजिस्सन्ती' ति निद्दिट्ठा॥ १. सुत्तपिटके, अंगुत्तरनिकाय पालि, पंचकनिपातो, सिक्खापदपेय्यालं, आजीवकसुत्तं, ५-२८-८-१७; पृ० ____ 2010_05 Page #599 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा] त्रिपिटकों में निगण्ठ व निगण्ठ नातपुत्त : मूल पालि ५४५ तेसु सामणेरो जम्बुदीपे सागलनगरे मिलिन्दो नाम राजा अहोसि, पण्डितो व्यत्तो मेधावी पटिबलो अतीता'नागतपच्चुप्पन्नानं समन्तयोगविधानक्रियानं करणकाले निसम्मकारी होति। बहूनि चस्स सस्थानि उग्गहितानि होन्ति; सेय्यथी'दं, सुति सम्मुति संख्या योगो नीति विसेसिका गणिका गन्थब्बा तिकिच्छा धनुब्बेदा पुराणा इतिहासा जोतिसा माया हेतु मन्तना युद्धा छन्दसा मुद्दा वचनेन एक्नवीसति । वितण्डवादी दुरासदो दुप्पसहो पुथुतित्थकरानं अग्गम'क्खायति। सकल-जम्बुदीपे मिलिन्देन रञा समो कोचि ना' होसि, यदि' दं थामेन जवेन सूरेन पाय अड्ढो महीनो महाभोगो अनन्त बलवाहनो। अथे'कदिवसं मलिन्दो राजा अनन्तबलवाहनं चतुरङ्गिनि बलग्गसेनाब्यूहं । दस्सनकम्यताय नगरा निक्खमित्वा बहिनगरे सेनागणनं कारेत्वा सो राजा भस्सप्पवादको लोकायत वितण्डजनसल्लापप्पवत्तकोतूहलो सुरियं ओलोकेत्वा अमच्चे आमन्तेसि, बहु ताव दिवसा' वसेसो; कि करिस्साम इदाने व नगरं पविसित्वा ? अत्थि को पि पण्डितो समणो वा ब्राह्मणो वा सङ्घी गणी गणाचरियो, अपि अरहन्त सम्मासम्बुद्धं पटिजानमानो, यो मया सद्धि सल्लपितुं सक्कोति कङ्ख पटिविनोदेतुं' ति ॥ ___ एवं वुत्ते पञ्चसता योनका राजानं मिलिन्दं एतदवोचुं-अस्थि महाराज छ सत्थारोपूरणो कस्सपो, मक्खलि गोसालो, निगन्थो नानपुत्तो, सञ्जयो बेलट्ठपुत्तो, अजितो केसकम्बली पकुषो कच्चायनो। ते सचिनो गणिनो गणाचरियका नाता यस स्सिनो तिप्थकरा, साधुसम्मता बहुजनस्स, गच्छ त्वं महाराज ते पहं पुच्छस्सु, कंङ्ख पटिविनोदयिस्सूति ॥' १. मिलिन्दप हो, बाहिर कथा, पृ० २-५। ___ 2010_05 Page #600 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2010_05 Page #601 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट-२ जैन पारिभाषिक शब्द-कोश ___ 2010_05 Page #602 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2010_05 Page #603 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंग - देखें, द्वादशांगी । अकल्पनीय - सदोष अकेवली – केवलज्ञान प्राप्ति से पूर्व की अवस्था । अक्षीण महानसिक लब्धि- तपस्या - विशेष से प्राप्त होने वाली एक दिव्य शक्ति । प्राप्त अन्न को जब तक तपस्वी स्वयं न खा ले, तब तक उस अन्न से शतशः व सहस्रशः व्यक्तियों को भी तृप्त किया जा सकता है । अगुरुलघु – न बड़ापन और न छोटापन | अघाती - कर्म - आत्मा के ज्ञान आदि स्वाभाविक गुणों का घात न करने वाले कर्म अघाती कहलाते हैं । वे चार हैं- १. वेदनीय, २. आयुष्य, ३. नाम और ४. गोत्र । देखें, घातकर्म | I अति— निर्जीव पदार्थ । अचेलक वस्त्र - रहित । अल्प वस्त्र । अच्युत — बारहवाँ स्वर्ग । देखें, देव । अट्टम तप-तीन दिन का उपवास, तेला । अणुव्रत - हिंसा, असत्य, स्तेय, अब्रह्मचर्य और परिग्रह का यथाशक्ति एकदेशीय परित्याग । यह शील गृहस्थ श्रावकों का है । अतिचार - व्रत भंग के लिए सामग्री संयोजित करना अथवा एक देश से व्रत खण्डित करना । अतिशय - सामान्यतया मनुष्य में होने वाली असाधारण विशेषताओं से भी अत्यधिक विशिष्टता । अमारधर्म – अपवाद रहित स्वीकृत व्रत-चर्या । अध्यवसाय - विचार । अनशन — यावज्जीवन के लिए चारों प्रकार के आहारों का त्याग करना । अनिर्धारिम - देखें, पादोपगमन । मनीक – सेना और सेनापति । युद्ध-प्रसंग पर इन्हें गन्धर्व - नर्तक आदि बन कर लड़ना पड़ता है । अन्तराय कर्म- जो कर्म उदय में आने पर प्राप्त होने वाले लाभ आदि में बाधा डालते हैं । अपवन -कर्मों की स्थिति एवं अनुभाग — फलनिमित्तक शक्ति में हानि । 2010_05 Page #604 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड : १ अपश्चिम मारणान्तिक संलेखना-मृत्यु के समय कषायों का उपशमन कर शरीर-मूर्छा से दूर हो कर किया जाने वाला अनशन । अप्रतिकर्म-अनशन में उठना, बैठना, सोना, चलना आदि शारीरिक क्रियाओं का अभाव। यह पादोपगमन अनशन में होता है। अभीक्ष्ण ज्ञाणोपयोग-पृ० १३४ अभिगम-साधु के स्थान में प्रविष्ट होते ही श्रावक द्वारा आचरण करने योग्य पाँच विषय। वे हैं- १. सचित्त द्रव्यों का त्याग, २. अचित द्रव्यों को मर्यादित करना, ३. उत्तरासंग करना, ४. साधु दृष्टिगोचर होते ही करबद्ध होना और ५. मन को एकाग्र करना। अभिग्रह-विशेष प्रतिज्ञा। अभिजाति-परिणाम । अरिहन्त-राग-द्वेष रूप शत्रुओं के विजेता व विशिष्ट महिमा-सम्पन्न पुरुष। अर्थागम-शास्त्रों का अर्थरूप । अर्हत्- देखें, अरिहन्त । अवधिज्ञान-इन्द्रिय और मन की सहायता के बिना, केवल आत्मा के द्वारा रूपी द्रव्यों को जानना। अवसपिणी काल-कालचक्र का वह विभाग, जिसमें प्राणियों के संहनन और संस्थान क्रमशः हीन होते जाते हैं, आयु और अवगाहना घटती है तथा उत्थान, कर्म, बल, वीर्य, पुरुषाकार तथा पराक्रम का ह्रास होता जाता है । इस समय में पुदगलों के वर्ण, कन्ध, रस और स्पर्श भी हीन होते जाते हैं। शुभ भाव घटते हैं और अशुभ भाव बढ़ते जाते हैं । इसके छः आरा-विभाग हैं : १. सुषम-सुषम, २. सुषम, ३. सुषम-दुःषम, ४. दुःषम-सुषम, ५. दुःषम और ६. दुःषम-दुःषम। अव स्वापिनी-गहरी नींद । असंख्य प्रदेशी-वस्तु के अविभाज्य अंश को प्रदेश कहते हैं । जिसमें ऐसे प्रदेशी की संख्या असंख्य हो, वह असंख्यप्रदेशी कहलाता है। प्रत्येक जीव असंख्य- प्रदेशी होता है। आकाशातिपाती-विद्या या पाद-लेप से आकाश-गमन करने की शक्ति अथवा आकाश से रजत आदि इष्ट या अनिष्ट पदार्थ-वर्षा की दिव्य शक्ति । आगारधर्म-अपवाद-सहित स्वीकृत व्रत-चर्या । आचार-धर्म-प्रणिषि-बाह्म वेष-भूषा की प्रधान रूप से व्यवस्था। आतापना-ग्रीष्म, शीत आदि से शरीर को तापित करना। आत्म-रक्षक-इन्द्र के अंग-रक्षक । इन्हें प्रतिक्षण सन्नद्ध होकर इन्द्र की रक्षा के लिए प्रस्तुत रहना होता है। आमवर्षोष लब्धि-तपस्या-विशेष से प्राप्त होने वाली एक दिव्य शक्ति । अमृत-स्नान से जैसे रोग समाप्त हो जाते हैं, उसी प्रकार तपस्वी के संस्पर्श मात्रा से रोग समाप्त हो जाते हैं। ___ 2010_05 Page #605 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा ] परिशिष्ट जैन परिभाषिक शब्द कोशेनचा. त्रि-32000 ५५१ आयंबिल वर्द्धमान तप-जिस तप में रंधा हुआ या भुना हुआ अन्न पानी में भिगो कर केवल एक बार ही खाया जाता है, उसे आयंबिल कहते हैं । इस तप को क्रमशः बढ़ाते जाना । एक आयंबिल के बाद एक उपवास, दो आयं बिल के बाद उपवास, तीन आयंबिल के बाद उपवास, इस प्रकार क्रमशः सौ आयंबिल तक बढ़ाना और बीचबीच में इस तप में २४ वर्ष, ३ महीने और २० दिन का समय लगता है । आरा - विभाग । आरोप्य - बौद्धों का स्वर्ग । आर्त ध्यान -- प्रिय के वियोग एवं अप्रिय के संयोग में चिन्तित रहना । आशातना- - गुरुजनों पर मिथ्या आक्षेप करना, उनकी अवज्ञा करना या उनसे अपने आप को को बड़ा मानना । आश्रव - कर्म को आकर्षित करने वाले आत्म-परिणाम । कर्मागमन का द्वार । इच्छा परिमाण व्रत - आवक का पाँचवाँ व्रत, जिसमें वह परिग्रह का परिमाण करता है । ईर्ष्या - देखें, समिति | उत्तर गुण - मूल गुण की रक्षा के लिए की जाने वाली प्रवृत्तियाँ । साधु के लिए पिण्डविशुद्धि, समिति, भावना, तप, प्रतिमा, अभिग्रह आदि । श्रावक के लिए दिशाव्रत आदि । उत्तरासंग - उत्तरीय | उत्सर्पिणी - कालचक्र का वह विभाग, जिसमें प्राणियों के संहनन और संस्थान क्रमशः अधिकाधिक शुभ होते जाते हैं, आयु और अवगाहना बढ़ती जाती है तथा उत्थान, कर्म, बल, वीर्य, पुरुषाकार और पराक्रम की वृद्धि होती जाती है । इस समय में प्राणियों की तरह पुद्गलों के वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श भी क्रमशः शुभ होते जाते हैं। अशुभतम भाव अशुभतर, अशुभ, शुभ, शुभतर होते हुए शुभतम होते जाते हैं । अवसर्पिणी काल में क्रमशः ह्रास होते हुए न हीनतम अवस्था आ जाती है और इसमें उत्तरोत्तर वृद्धि होते हुए क्रमशः उच्चतम अवस्था आ जाती है । उत्सूत्र प्ररूपणा - यथार्थता के विरुद्ध कथन करना । उदीरण --- निश्चित समय से पूर्व ही कर्मों का उदय । उवर्तन - कर्मों की स्थिति एवं अनुभाग – फलनिमित्तक शक्ति में वृद्धि । उपयोग - चेतना का व्यापार - ज्ञान और दर्शन । ज्ञान पाँच हैं - १. मति, २. श्रुत, ३. अवधि, ४. मनः पर्यव और ५. केवल । उपांग-अंगों के विषयों को स्पष्ट करने के लिए श्रुतकेवली या पूर्वधर आचार्यों द्वारा रचे गये आगम । इनकी संख्या बारह है-- १. उववाई, २. रायपसेंविय ३. जीवाभिगम, ४. पत्रवणा ५ सरियपणची, ६. जम्बूद्वीप पणत्ती ७. चन्द प्रणिती ८. निरावलिया, (१) कल्पावतंसिका, (१०) पुक्तियों, (११) पुष्पबूलिया और (१२) वहिदा । 2010_05 Page #606 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५२ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड : १ ऋजुजड़-सरल, किन्तु तात्पर्य नहीं समझने वाला। ऋजुप्राज्ञ-सरल और बुद्धिमान् । संकेत मात्र से हार्द तक पहुँचने वाला। एक अहोरात्र प्रतिमा-साधु द्वारा चौविहार षष्ठोपवास में ग्राम के बाहर प्रलम्बभुज होकर कायोत्सर्ग करना। एक रात्रि प्रतिमा-साधु द्वारा एक चौविहार अष्टम भक्त में जिनमुद्रा (दोनों पैरों के बीच चार अँगुल का अन्तर रखते हुए सम अवस्था में खड़े रहना), प्रलम्ब बाह. अनिमिष नयन, एक पुद्गल निरुद्ध दृष्टि और झुके हुए बदन से एक रात तक प्रामादि के बाहर कायोत्सर्ग करना। विशिष्ट संहनन, धृति, महासत्त्व से युक्त भावितात्मा गुरु द्वारा अनुज्ञात होकर ही इस प्रतिमा को स्वीकार कर सकता है । एक साटिका-बीच से बिना सिला हुआ पट (साटिका), जो बोलते समय यतना के लिए जैन-श्रावकों द्वारा प्रयुक्त होता था। एकादशांगी-देखें, द्वादशांगी। एकादशांगी में दृष्टिवाद सम्मिलित नहीं है। एकावली तप-विशेष आकार की कल्पना से किया जाने वाला एक प्रकार का तप । इसका क्रम यंत्र के अनुसार चलता है। एक परिपाटी (क्रम) में १ वर्ष २ महीने और २ दिन का समय लगता है। चार परिपाटी होती हैं । कुल समय ४ वर्ष ८ महीने और ८ दिन का लगता है। पहली परिपाटी के पारणे में विकृति का वर्जन आवश्यक नहीं होता। दूसरी में विकृति-वर्जन, तीसरी में लेप-त्याग और चौथी में आयंबिल आवश्यक होता है। (चित्र परिशिष्ट-२ के अन्त में देखें) औद्देशिक-परिव्राजक, श्रमण, निर्ग्रन्थ आदि सभी को दान देने के उद्देश्य से बनाया गया भोजन, वस्त्र अथवा मकान । औत्पातिकी बुद्धि-अदृष्ट, अश्रुत व अनालोचित ही पदार्थों को सहसा ग्रहण कर कार्यरूप में परिणत करने वाली बुद्धि । कनकावली तप-स्वर्ण-मणियों के भूषण विशेष के आकार की कल्पना से किया जाने वाला तप। इसका क्रम यंत्र के अनुसार चलता है। एक परिपाटी (क्रम) में १ वर्ष ५ महीने और १२ दिन लगते हैं। पहली परिपाटी में पारणे में विकृति-वर्जन आवश्यक नहीं है। दूसरी में विकृति का त्याग, तीसरी में लेप का त्याग और चौथे में आयंबिल किया जाता है। (चित्र परिशिष्ट-२ के अन्त में देखें) करण-कृत, कारित और अनुमोदनरूप योग-व्यापार। कर्म-आत्मा की सत् एवं असत् प्रवृत्तियों के द्वारा आकृष्ट एवं कर्म रूप में परिणत होने __ वाले पुद्गल विशेष । कल्प-विधि, आचार । कल्प वृक्ष-वे वृक्ष, जिनके द्वारा भूख-प्यास का शमन, मकान व पात्र की पूर्ति, प्रकाश व अग्नि के अभाव की पूर्ति, मनोरंजन व आमोद-प्रमोद के साधनों की उपलब्धि सहज होती है। ____ 2010_05 Page #607 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा] परिशिष्ट २ : जैन पारिभाषिक शब्द-कोश कामिकी बुद्धि-सतत अभ्यास और विचार से विस्तार प्राप्त होने वाली बुद्धि । किल्विषिक-वे देव जो अन्त्यज समान हैं। कुत्रिकापण-तीनों लोकों में मिलने वाले जीव-अजीव सभी पदार्थ जहाँ मिलते हों, उसे कुत्रिकापण कहते हैं। इस दुकान पर साधारण व्यक्ति से जिसका मूल्य पाँच रुपया लिया जाता था, इन्भ-श्रेष्ठी आदि से उसी का मूल्य सहस्र रुपया और चक्रवर्ती आदि से लाख रुपया लिया जाता था। दुकान का मालिक किसी व्यन्तर को सिद्ध कर लेता था। वही व्यन्तर वस्तुओं की व्यवस्था कर देता था। पर अन्य लोगों का कहना है कि ये दुकानें वणिक्-रहित रहती थीं। व्यन्तर ही उन्हें चलाते थे और द्रव्य का मूल्य भी वे ही स्वीकार करते थे। भीर समुद्र-जम्बूद्वीप को आवेष्टित करने वाला पांचवां समुद्र, जिसमें दीक्षा-ग्रहण के __ समय तीर्थङ्करों के लुंचित-केश इन्द्र द्वारा विसर्जित किये जाते हैं। खादिम–मेवा आदि खाद्य पदार्थ । गच्छ-साधुओं का समुदाय । गण-कुल का समुदाय—दो आचार्यों के शिष्य-समूह । गणघर-लोकोत्तर ज्ञान-दर्शन आदि गुणों के गण (समूह) को धारण करने वाले तीर्थङ्करों के प्रधान शिष्य, जो उनकी वाणी का सूत्र रूप में संकलन करते हैं। गणिपिटक–द्वादशांगी आचार्य के श्रुत की मञ्जू होती है। अत: उसे गणिपिटक भी कहा जाता है। गाथापति-गृहपति-विशाल ऋद्धि-सम्पन्न परिवार का स्वामी । वह व्यक्ति जिसके यहाँ कृषि और व्यवसाय-दोनों कार्य होते हैं। गुणरत्न (रयण) संवत्सर तप-जिस तप में विशेष निर्जरा (गुण) की रचना (उत्पत्ति) होती है या जिस तप में निर्जरा रूप विशेष रत्नों से वार्षिक समय बीतता है। इस क्रम में तपो दिन एक वर्ष से कुछ अधिक होते हैं; अतः संवत्सर कहलाता है। इसके क्रम में प्रथम मास में एकान्तर उपवास ; द्वितीय मास में षष्ठ भक्त ; इस प्रकार क्रमशः बढ़ते हुए सोलहवें महीने में सोलह-सोलह का तप किया जाता है। तपः-काल में दिन में उरकुटुकासन से सूर्याभिमुख होकर आतापना ली जाती है और रात में वीरासन से वस्त्र-रहित रहा जाता है । तप में १३ मास ७ दिन लगते हैं और इस अवधि में ७६ दिन पारणे के होते हैं। (चित्र परिशिष्ट-२ के अन्त में देखें) गुणवत-श्रावक के बारह व्रतों में से छट्ठा, सातवां और आठवां गुणव्रत कहलाता है। देखें, बारह व्रत। गुरु चातुर्मासिक प्रायश्चित्त-प्रायश्चित्त का एक प्रकार, जिसमें चार महीने की साधु पर्याय का छेद-अल्पीकरण होता है। गुरु मासिक प्रायश्चित्त-प्रायश्चित का एक प्रकार, जिसमें एक महीने की साधु-पर्याय का छेद-अल्पीकरण होता है। ___ 2010_05 Page #608 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन खण्ड:१ गुरुलघु-छोटापन और बड़ापन । प्रेवेयक देखें, देव। गोचरी-जैन मुनियों का विधिवत् आहार-याचन । भिक्षाटन । माधुकरी। गोत्र कर्म-जिस कर्म के उदय से जीव उच्च-नीच शब्दों से अभिहित किया जाये । जाति, कुल, .. बल, रूप, तपस्या, श्रुत, लाभ, ऐश्वर्य आदि का अहं न करना उच्च गोत्र कर्म-बन्ध के . निमित्त बनता है और इनका अहं नीच गोत्र कर्म-बन्ध का निमित्त बनता है। ग्यारह प्रतिमा-उपासकों के अभिग्रह विशेष ग्यारह प्रतिमाएँ कहलाते हैं । उनके माध्यम से उपासक क्रमश: आत्माभिमुख होता है । ये क्रमश: इस प्रकार हैं : १. दर्शन प्रतिमा-समय १ मास । धर्म में पूर्णतः रुचि होना । सम्यक्त्व को विशुद्ध रखते हुए उसके दोषों का वर्जन करना। २. व्रत महिमा-समय २ मास । पाँच अणुव्रत और तीन गुणव्रत को स्वीकार करना तथा पौषधोपवास करना। ३. सामायक प्रतिमा-समय ३ मास । सामायक और देशावकाशिक व्रत स्वीकार करना। ४. पौषध प्रतिमा-समय ४ मास । अष्टमी, चतुर्दशी, अमावस्या और पूर्णिमा को प्रतिपूर्ण पौषध करना। ५. कायोत्सर्ग प्रतिमा-समय ५ मास । रात्रि को कायोत्सर्ग करना । नसन न करना, रात्रि-भोजन न करना, धोती की लांग न लगाना, दिन में ब्रह्मचारी रहना और रात में अब्रह्मचर्य का परिमाण करना । ६. ब्रह्मचर्य प्रतिमा-समय ६ मास । पूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन । ७. सचित्त प्रतिमा-समय ७ मास । सिचित्त आहार का परित्याग । ८. आरम्भ प्रतिमा-समय ८ मास । स्वयं आरम्भ-समारम्भ न करना। ६. प्रेष्य प्रतिमा-समय ६ मास । नौकर आदि अन्य जनों से भी आरम्भ-समारम्भ न करवाना। १०. उद्दिष्ट वर्जन प्रतिमा-समय १० मास । उद्दिष्ट भोजन का परित्याग । इस अवधि में उपासक केशों का क्षुर से मुण्डन करता है या शिखा धारण करता है। घर से सम्बन्धित प्रश्न किये जाने पर "मैं जानता हूँ या नहीं' इन्हीं दो वाक्यों से अधिक नहीं बोलता। ११. श्रमण भूत प्रतिमो-समय ११ मास । इस अवधि में उपासक क्षुर से मुण्डन या लोच करता है । साधु का आचार, वेष एवं भण्डोपकरण धारण करता है। केवल ज्ञातिवर्ग से उसका प्रेम-बन्धन नहीं टूटता ; अतः वह भिक्षा के लिए ज्ञातिजनों में ही जाता है। अगली प्रतिमाओं में पूर्व प्रतिमाओं का प्रत्याख्यान तद्वत् आवश्यक है। पातीकर्म-जैन धर्म के अनुसार संसार परिभ्रमण के हेतु कर्म हैं। मिथ्यात्व, अविरत प्रमाद, कषाय और योग के निमित्त से जब आत्म-प्रदेशों में कम्पन होता है तब जिस क्षेत्र में ____ 2010_05 Page #609 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा] परिशिष्ट : २ जैन पारिभाषिक शब्द-कोश आत्म-प्रदेश होते हैं, उसी प्रदेश में रहे हुए अनन्तानन्त कर्म योग्य पद्गल आत्मा के साथ क्षीर नीरवत् सम्बन्धित होते हैं। उन पुद्गलों को कर्म कहा जाता है। कर्म घाती और अघाती मुख्यतः दो भागों में विभक्त होते हैं। आत्मा के ज्ञान आदि स्वाभाविक गुणों का घात कहलाते हैं । वे चार हैं : १. ज्ञानावरणीय, २. दर्शनावरणीय, ३. मोहनीय और ४. अन्तराय। चक्ररत्न --चक्रवर्ती के चौदह रत्नों में पहला रत्न । इसकी धार स्वर्णमय होती है, मारे लोहिताक्ष रत्ल के होते हैं और नाभि वज्ररत्नमय होती है । सर्वाकार परिपूर्ण और दिव्य होता है । जिस दिशा में यह चल पड़ता है, चक्रवर्ती की सेना उसकी अनुगामिनी होती है। एक दिन में जहाँ जाकर वह रुकता है, योजन का वही मान होता है । चक्र के प्रभाव से बहुत सारे राजा बिना युद्ध किये ही और कुछ राजा युद्ध कर चक्रवर्ती के अनुगामी हो जाते हैं। चक्रवर्ती-चक्ररत्न का धारक व अपने युग का सर्वोत्तम इलाध्य पुरुष। प्रत्येक अवसर्पिणी उत्सपिणी काल में तिरसठ शलाका पुरुष होते हैं-चौबीस तीर्थकर, बारह चक्रवर्ती, नौ-नौ वासुदेव, बलदेव और नौ प्रतिवासदेव । चक्रवर्ती भरत क्षेत्र के छह खण्ड का एक मात्र अधिपति-प्रशासक होता है । चक्रवर्ती के चौदह रत्न होते हैं-१. चक्र, २. छत्र, ३. दण्ड, ४. असि, ५. मणि, ६. काकिणी, ७. चर्म, ८. सेनापति, ६. गाथापति, १०. वर्षकी, ११. पुरोहित, १२. स्त्री, १३. अश्व और १४. गज । नव निधियां भी होती चच्चर-जहाँ चार से अधिक मार्ग मिलते हैं। चतुर्गति-नरक, तिर्यञ्च, मनुष्य और देव आदि भवों में आत्म की संसृति । चतुर्दशपूर्व-उत्पाद, अग्रायणीय, वीर्यप्रवाद, अस्तिनास्ति प्रवाद, ज्ञान प्रवाद, सत्य प्रवाद, आत्म प्रवाद, कर्म प्रवाद, प्रत्याख्यान प्रवाद, विद्या प्रवाद, कल्याण, प्राणावाय, क्रिया विशाल, लोकबिन्दुसार। ये चौदह पूर्व दृष्टिवाद नामक बारहवें अंग के अन्तर्गत हैं । चरम-अन्तिम। चातुर्याम-चार महाव्रत । प्रथम तीर्थङ्कर और अन्तिम तीर्थङ्कर के अतिरिक्त मध्यवर्ती बाईस तीर्थङ्करों के समय पाँच महाव्रतों का समावेश चार महाव्रतों में होता है। चरण ऋद्धिधर-देखें, जंघाचारण, विद्याचारण । चारित्र-आत्म-विशुद्धि के लिए किया जाने वाला प्रकृष्ट उपष्टम्भ । चौवह रत्न-देखें, चक्रवर्ती। चौदह विद्या-षडंग (१. शिक्षा, २. कल्प, ३. व्याकरण, ४. छन्द, ५. ज्योतिष और ६.' निरुक्त), चार वेद (१. ऋग्, २. यजु, ३. साम और ४. अथर्व), ११. मीमांसा १२." आन्वीक्षिकी, १३. धर्मशास्त्र और १४. पुराण । चौबीसी-अवसर्पिणी या उत्सर्पिणी में होने वाले चौबीस तीर्थङ्कर। छ? (षष्ठ) (म) तप-दो दिन का उपवास, बेला। 2010_05 Page #610 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५६ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड : १ छपस्थ-घातीकर्म के उदय को छद्म कहते हैं । इस अवस्था में स्थित आत्मा छमस्थ कहलाती है। जब तक आत्मा को केवलज्ञान की प्राप्ति नहीं होती, तब तक वह छद्मस्थ ही कहलाती जंघाचरण लब्धि- अष्टम (तेला) तप करने वाले भिक्षु को यह दिव्य शक्ति प्राप्त हो सकती है । जंघा से सम्बन्धित किसी एक व्यापार से तिर्यक् दिशा की एक ही उड़ान में वह तेरहवें रुचकवर द्वीप तक पहुँच सकता है। पुनः लौटता हुआ वह एक कदम आठवें नन्दीश्वर द्वीप पर रख कर दूसरे द्वीप में जम्बूद्वीप के उसी स्थान पर पहुँच सकता है; जहाँ से कि वह चला था। यदि वह उड़ान ऊर्ध्व दिशा की हो तो एक ही छलांग में वह मेरुपर्वत के पाण्डुक उद्यान तक पहुँच सकता है और लौटते समय एक कदम नन्दनवन में रख कर दूसरे कदम में जहां से चला था, वहीं पहुँच सकता है। जम्बूद्वीप--असंख्य द्वीप और असंख्य समुद्र हैं। प्रत्येक द्वीप को समुद्र और समुद्र को द्वीप घेरे हुए है। जम्बूद्वीप उन सबके मध्य में है । यह पूर्व से पश्चिम और उत्तर से दक्षिण एकएक लाख योजन है। इसमें सात वर्षक्षेत्र हैं-१. भरत, २. हैमवत, ३. हरि, ४. विदेह, ५. रम्यक् ६. हैरण्यवत और ७. ऐरावत । भरत दक्षिण में, ऐरावत उत्तर में और विदेह (महाविदेह) पूर्व व पश्चिम में है। जल्लोषष लब्धि-तपस्या विशेष से प्राप्त होने वाली एक दिव्य शक्ति । तपस्वी के कानों, आँखों और शरीर के मैल से समस्त रोग नष्ट हो जाते हैं। जातिस्मरण ज्ञान-पूर्व-जन्म की स्मति कराने वाला ज्ञान । इस ज्ञान के बल पर व्यक्ति एक से नो पूर्व-जन्मों को जान सकता है । एक मान्यता के अनुसार नौ सौ भब तक भी जान सकता है। जिन-राग-द्वेष-रूप शत्रुओं को जीतने वाली आत्मा। अर्हत्, तीर्थङ्कर आदि इसके पर्याय वाची हैं। जिनकल्पिक-गच्छ से असम्बद्ध होकर उत्कृष्ट चारित्र-साधना के लिए प्रयत्नशील होना। यह आचार जिन तीर्थङ्करों के आचार के सदृश कठोर होता है। अतः जिनकल्प कहा जाता है। इसमें साधक अरण्य आदि एकान्त स्थान में एकाकी रहता है। रोग आदि के उपाशमन के लिए प्रयत्न नहीं करता। शीत, ग्रीष्म आदि प्राकृतिक कष्टों से विचलित नहीं होता। देव, मनुष्य, तिर्यञ्च आदि के उपसर्गों से भीत हो कर अपना मार्ग नहीं बदलता । अभिग्रहपूर्वक भिक्षा लेता है और अहर्निश ध्यान व कायोत्सर्ग में लीन रहता है। यह साधना संहननयुक्त साधक के द्वारा विशिष्ट ज्ञान-सम्पन्न होने के अनन्तर ही की जा सकती है। जिन-मार्ग-जिन द्वारा प्ररूपित धर्म । बीताचार-पारम्परिक आचार । जीव-पंचेन्द्रिय प्राणी। सम्भक-ये देव स्वेच्छाचारी होते हैं । सदैव प्रमोद-युक्त, अत्यन्त क्रीड़ाशील, रति-युक्त और कुशीलरत रहते हैं। जिस व्यक्ति पर क्रुद्ध हो जाते हैं, उसका अपयश करते हैं और जो 2010_05 Page #611 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा] परिशिष्ट २ : जैन पारिभाषिक शब्द-कोश इनको तुष्ट रखता है, उसको यश प्रदान करते हैं। ये दस प्रकार के होते हैं-१. अन्न जम्मक, २. पान जृम्भक, ३. वस्त्र जृम्भक ४. गृह जम्भक, ५. शयन जृम्भक, ६. पुष्प जृम्भक ७. फल जृम्भक, ८. पुष्प-फल जम्मक, ६. विद्याजृम्भक और १०. अव्यक्त जम्भक । भोजन आदि में अभाव और सद्भाव करना, अल्पता और अधिकता करना, सरसता और नीरसता करना; जृम्भक देवों का कार्य होता है । दीर्घ वैताढ्य, चित्र, विचित्र, यमक, समक और काञ्चन पर्वतों में इनका निवास रहता है और एक पल्योपम की स्थिति है। लोकपालों की आज्ञानुसार ये त्रिकाल (प्रातः मध्याह्न, सायं) जम्बूद्वीप में फेरी लगाते हैं और अन्न, पानी, वस्त्र, सुवर्णादि धातु, मकान, पुष्प, फल, विद्या व सर्वसाधारण वस्तुओं की रक्षा करते हैं । ये व्यन्तर हैं। ज्योतिष्क—देखें, देव। ज्ञान-सामान्य-विशेषात्मक पदार्थ के सामान्य धर्मों को गौण कर केवल विशेष धर्मों को ग्रहण करना। ज्ञानावरणीय कर्म-आत्मा के ज्ञान गुण (वस्तु के विशेष अवबोध) को आच्छादित करने वाला कर्म। तस्व-हार्द । तमःप्रमा-देखें, नरक । तालपुट विष-ताली बजाने में जितना समय लगता है, उतने ही समय में प्राणनाश करने वाला विष । तिर्यक् गति-तिर्यञ्च गति । तीर्थङ्कर-तीर्थ का प्रवर्तन करने वाले आप्त पुरुष। तीर्थङ्कर गोत्र नामकर्म-जिस नाम कर्म के उदय से जीव तीर्थङ्कर रूप में उत्पन्न होता है। तीर्थ-जिससे संसार समुद्र तैरा जा सके। तीर्थङ्करों का उपदेश, उसको धारण करने वाले गणधर व ज्ञान, दर्शन, चारित्र को धारण करने वाले साधु, साध्वी, श्रावक तथा श्राविका रूप चतुर्विध संघ को भी तीर्थ कहा जाता है। तीर्थङ्कर केवलज्ञान प्राप्त करने के अनन्तर ही उपदेश करते हैं और उससे प्रेरित हो कर भव्य जन साधु, साध्वी, श्रावक और भाविकाएं बनते हैं। तृतीय सप्त अहोरात्र प्रतिमा-साघु द्वारा सात दिन तक चौविहार एकान्तर उपवास; गोदुहासन, वीरासन या आम्रकुब्जासन (आम्र-फल की तरह वक्राकार स्थिति में बैठना) से प्रामादि से बाहर कोयोत्सर्ग करना। तेजोलेश्या-उष्णता-प्रधान एक संहारक शक्ति (लब्धि) विशेष । यह शक्ति विशेष तप से ही प्राप्त की जा सकती है । छह महीने तक निरन्तर छठ-छठ तप करे। पारणे में नाखूनसहित मुट्ठी भर उड़द के बाकुले और केवल चुल्लू भर पानी ग्रहण करे । आतापना भूमि में सूर्य के सम्मुख ऊर्ध्वमुखी हो कर आतापना ले। इस अनुष्ठान के अनन्तर तेजोलेश्या प्राप्त होती है। जब वह अप्रयोगकाल में होती है, 'संक्षिप्त' कहलाती है और प्रयोग-काल में विपुल' (विस्तीर्ण) कहलाती है। इस शक्ति के बल पर व्यक्ति १. अंग, २. बंग, ____ 2010_05 Page #612 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [ खण्ड : १ ३. मगध, ४. मलय, ५. मालव, ६. अच्छ, ७. वत्स, ८ कौत्स, ६. पाठ, १०. लाट, ११. वष्त्र, १२. मौलि, १३. काशी, १४. कौशल, १५. अवाध, १६. संभुत्तर आदि सोलह देशों की घात, वध, उच्छेद तथा भस्म करने में समर्थ हो सकता है । तेजोलेश्या के प्रतिघात के लिए जिस शक्ति का प्रयोग किया जाता है, उसे शीत तेजोलेश्या कहा जाता है । ५५८ मास्त्र - गुरु- स्थानीय देव | त्रिदण्डी तापस मन, वचन और काय रूप तीनों दण्डों से दण्डित होने वाला तापस । दर्शन - सामान्य विशेषात्मक पदार्थ के सामान्य धर्मों को गौण कर केवल विशेष धर्मों को ग्रहण करना । दश म तप-चार दिन का उपवास, चोला । दिक्कुमारियाँ -- तीर्थंकरों का प्रसूति कर्म करने वाली देवियाँ। इनकी संख्या ५६ होती है । इनके आवास भी भिन्न-भिन्न होते हैं । आठ अधोलोक में, आठ ऊर्ध्वलोक- - मेरुपर्वत पर, आठ पूर्व रुचकाद्रि पर आठ दक्षिण रुचकाद्रि पर आठ पश्चिम रुचकाद्रि पर, आठ उत्तर रुचकाद्रि पर, चार विदिशा के रुचक पर्वत पर और चार रुचक द्वीप पर रहती हैं । दिग्विरति व्रत - यह जैन श्रावक का छट्टा व्रत है । इसमें श्रावक दस दिशाओं में मर्यादा उपरान्त गमनागमन करने का त्याग करता है । दिशाचर - पथ भ्रष्ट ( पतित ) शिष्य । दुः षम- सुषम - अवसर्पिणी काल का चौथा आरा, जिसमें दुःख की अधिकता और सुख की अल्पता होती है । बेव - औपपातिक प्राणी । ये चार प्रकार के होते हैं - १. भुवनपति, २. व्यन्तर, ३. ज्योतिष्क और ४. वैमानिक । १. भुवनपति – रत्नप्रभा की मोटाई में बारह अन्तर हैं। पहले दो खाली हैं। शेष दस में रहने वाले १. असुरकुमार, २. नागकुमार, ३. सुपर्णकुमार, ४. विद्यत्कुमार, ५. अग्निकुमार, ६. द्वीपकुमार, ७. उदधिकुमार, ८ दिक्कुमार, ६. वायुकुमार और १०. स्तनितकुमार देव । ये बालक की तरह मनोरम क्रान्ति से युक्त हैं; अतः इनके नाम के साथ कुमार शब्द संयुक्त है। इनके आवास भुवन कहलाते हैं; अतः ये देव भुवनपति हैं । २. व्यन्तर - पिशाच, भूत, यक्ष, राक्षस, किन्नर, किंपुरुष, महोरग, गन्धर्व आदि । ३. ज्योतिष्क —— चन्द्रमा, सूर्य, ग्रह, नक्षत्र, तारा । ४. वैमानिक — वैमानिक देव दो प्रकार के होते हैं-- १. कल्पोपपन्न और २. कल्पातीत । कल्प का तात्पर्य है - समुदान, सन्निवेश, विमान जितनी फैली हुई पृथ्वी, आचार; इन्द्र सामानिक आदि के रूप में बन्धी हुई व्यवस्थित मर्यादा । वे बारह हैं - १. सौधर्म, २. ईशान, ३. सनत्कुमार, ४. माहेन्द्र, ५. ब्रह्म, ६. लांतक, शुक्र, ८. सहस्रार है, आनत १०. प्राणत, ११. आरण और १२. अच्युत । 2010_05 Page #613 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा] परिशिष्ट-२ : जैन पारिभाषिक शब्द-कोश ५५६ सौधर्म और ईशान मेरुपर्वत से डेढ़ रज्जू ऊपर क्रमश: दक्षिण और उत्तर में समानान्तर हैं। सनत्कुमार और माहेन्द्र भी सौधर्म और ईशान के ऊर्ध्व भाग में समानान्तर हैं । ब्रह्म, लातंक, शुक्र और सहस्रार उनके ऊपर क्रमशः एक-एक हैं । आनत और प्राणत दोनों समानान्तर हैं । आरण व अच्युत भी उनके ऊपर समानान्तर हैं। कल्पोपपन्न देवों का आयु-परिमाण इस प्रकार है : १. जघन्य एक पल्योपम व उत्कृष्ट दो सागरोपम, २. जघन्य साधिक एक पल्योपम व उत्कृष्ट साधिक दो सागर, ३. जघन्य दो सागर व उत्कृष्ट सात सागर, ४. जघन्य साधिक दो सागर व उत्कृष्ट साधिक सात सागर, ५. जघन्य सात सागर व उत्कृष्ट दस सागर, ६. जघन्य दस सागर व उत्कृष्ट चौदह सागर, ७. जघन्य चौदह सागर व उत्कृष्ट सतरह सागर, ८. जघन्य सतरह सागर व उत्कृष्ट अठारह सागर, ६. जघन्य अठारह सागर व उत्कृष्ट उन्नीस सागर, १०. जघन्य उन्नीस सागर व उत्कृष्ट बीस सागर, ११. जघन्य बीस सागर व उत्कृष्ट इक्कीस सागर, १२. जघन्य इक्कीस सागर व उत्कृष्ट बाईस सागर । कल्पातीत का तात्पर्य है-जहाँ छोटे-बड़े का भेद-भाव नहीं है। सभी अहमिन्द्र हैं। वे दो भागों में विभक्त हैं : १. वेयक और २. अनुत्तर । आगमों के अनुसार लोक का पैर फैलाये स्थित मनुष्य की तरह है। वेयक का स्थान ग्रीवा-गर्दन के पास है; अतः उन्हें नैवेयक कहा जाता है । वे नौ हैं : १. भद्र, २. सुभद्र, ३. सुजात, ४. सौमनस, ५. प्रियदर्शन, ६. सुदर्शन, ७. अमोघ, ८. सुप्रतिबुद्ध और ६. यशोधर । इनके तीन त्रिक हैं और प्रत्येक त्रिक में तीन स्वर्ग हैं। २. अनुत्तर-स्वर्ग के सब विमानों में ये श्रष्ठ हैं; अतः इन्हें अनुत्तर कहा जाता है। इनकी संख्या पांच है : १. विजय, २. वैजयन्त, ३. जयन्त, ४. अपराजित और ५. सर्वार्थसिद्ध । चार चारों दिशाओं में हैं और सर्वार्थसिद्ध उन सब के बीच में है। १२ स्वर्ग कल्पोपपन्न के और १४ स्वर्ग कल्पातीत के हैं। इनकी कुल संख्या २६ है । , सब में ही उत्तरोत्तर सात बातों की वृद्धि और चार बातों की हीनता है। सात बातें इस प्रकार हैं : १. स्थिति–आयुष्य। २. प्रभाव-रुष्ट हो कर दुःख देना, अनुग्रहशील हो कर सुख पहुँचाना अणिमामहिमा आदि सिद्धियाँ और बलपूर्वक दूसरों से काम करवाना-चारों ही प्रकार का यह प्रभाव उत्तरोत्तर अधिक है, किन्तु कषाय मन्दता के कारण वे उसका उपयोग नहीं करते हैं। ३. सुख-इन्द्रियों द्वारा इष्ट विषयों का अनुभव रूप सुख । ४. द्युति-शरीर और वस्त्राभूषणों की कान्ति । ५. लेश्या विशुद्धि-परिणामों की पवित्रता। 2010_05 Page #614 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६० आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड : १ ६. इन्द्रिय-विषय-इष्ट शब्द-रूप आदि इन्द्रियज-विषयों को दूर से ग्रहण करने की शक्ति । ७. अवधि-अवधि व विभंग-ज्ञान से जानने की शक्ति । चार बातें इस प्रकार हैं, जो क्रमशः हीन होती जाती हैं : १. गति-गमन करने की शक्ति एवं प्रवृत्ति। उत्तरोत्तर महानुभावता, उदासीनता ___ और गम्भीरता अधिक है। २. शरीर-अवगाहना-शरीर की ऊँचाई। ३. परिवार-विमान तथा सामानिक आदि देव-देवियों का परिवार । ४. अभिमान--स्थान, परिवार, शक्ति, विषय, विभूति एवं आयु का अहंकार। रेवाधिदेव-देखें, अरिहन्त । देशाव्रती-व्रतों का सर्वरूपेण नहीं, अपितु किसी अंश में पालन करने वाला। यलिंगी-केवल बाह्य वेष-भूषा। द्वादश प्रतिमा-देखें, भिक्षु प्रतिमा । वाशांगी-तीर्थङ्करों की वाणी का गणधरों द्वारा ग्रन्य रूप में होने वाला संकलन अंग कहलाता है। वे संख्या में बारह होते हैं, अतः उस सम्पूर्ण संकलन को द्वादशांगी कहा जाता है । पुरुष के शरीर में जिस प्रकार मुख्य रूप से दो पैर, दो जंघाएँ, दो उरु, दो गात्राई (पाव), दो बाहु, एक गर्दन और एक मस्तक होता है। उसी प्रकार श्रुत-रूप पुरुष के भी बारह अंग हैं। उनके नाम हैं : १. आभारुग, २. सुयगडांग ३. ठाणांग, ४. समवायांग, ५. विवाहपण्णत्ती (भगवती), ६. षायाधम्म कहांग ७. उवासगदसांग, १. अन्तगडदसांग ६. अणुत्तरो ववाइय, १०. पण्हावागरण, ११. विपाक और १२. दिद्विवाय। हितीव सप्त अहोरात्र प्रतिमा-साधु द्वारा सात दिन तक चौविहार एकान्तर उपवास, उत्कुटक, लगण्डशायी (केवल सिर और एड़ियों का पृथ्वी पर स्पर्श हो, इस प्रकार पीठ के बल लेटना) या दण्डायत (सीधे दण्डे की तरह लेटना) होकर ग्रामादि से बाहर कोयोत्सर्ग करना। द्विमासिकी से सप्त मासिकी प्रतिमा-साधु द्वारा दो मास, तीन मास, चार मास, पाँच मास, छह मास, सात मास तक आहार-पानी की क्रमशः दो, तीन, चार, पाँच, छह, सात दत्ति ग्रहण करने की प्रतिज्ञा । नन्दीश्वर द्वीप--जम्बूद्वीप से आठवाँ द्वीप । नसोत्युणं-अरिहन्त और सिद्ध की स्तुति। नरक-अधोलोक के वे स्थान, जहाँ घोर पापाचरण करने वाले जीव अपने पापों का फल भोगने के लिए उत्पन्न होते हैं, नरक सात हैं १. रत्न प्रभा-कृष्णवर्ण भयंकर रत्नों से पूर्ण, २. शर्करा प्रभा-भाले, बरछी आदि से भी अधिक तीक्ष्ण कंकरों से परिपूर्ण । ३. बालुका प्रभा-मड़भूजे की भाड़ की उष्ण बालू से भी अधिक उष्ण बालू। 2010_05 Page #615 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट- २ : जैन पारिभाषिक शब्द-कोश ४. पंक प्रभा — रक्त, मांस और पीव जैसे कीचड़ से व्याप्त । ५. धूम्र प्रभा - राई, मिर्च के धुएँ से भी अधिक खारे धुएँ से परिपूर्ण । ६. तमः प्रभा - घोर अन्धकार से परिपूर्ण । ७. महातमः प्रभा — घोरातिघोर अन्धकार से पूरिपूर्ण । इतिहास और परम्परा ] नागेन्द्र - भुवनपति देवों की एक निकाय का स्वामी । देखें, देव । निकाचित - जिन कर्मों का फल बन्ध के अनुसार निश्चित ही भोगा जाता है । यह सब करणों के अयोग्य की अवस्था है । नित्यपिण्ड - प्रतिदिन एक घर से आहार लेना । निदान — देखें, शल्य के अन्तर्गत निदान शल्य | निर्ग्रन्थ प्रवचन - तीर्थङ्कर प्रणीत जैन आगम । निर्जरा - तपस्या के द्वारा कर्म-मल के उच्छेद से होने वाली आत्म-उज्ज्वलता । निर्धारिम- देखें, पादोपगमन । निह्नव - तीर्थङ्करों द्वारा प्रणीत सिद्धान्तों का अपलापक । नैरयिक भाव — नरक की पर्याय । पंचमुष्टिक लं. चन - मस्तक को पाँच भागों में विभक्त कर बालों का लुंचन करना । पाँच दिव्य – केवलियों के आहार ग्रहण करने के समय प्रकट होने वाली पाँच विभूतियाँ । १. नाना रत्न, २. वस्त्र, ३. गन्धोदक, ४. फूलों की वर्षा और ५. देवताओं द्वारा दिव्य घोष । पण्डित मरण - सर्वव्रत दशा में समाधि मरण । - ५६१ पदानुसारी लब्धि - तपस्या - विशेष से प्राप्त होने वाली एक दिव्य शक्ति। इसके अनुसार आदि, मध्य या अन्त के किसी एक पद्य की श्रुति या ज्ञप्ति मात्र से समग्र ग्रन्थ का अवबोध हो जाता है । परीषह -- साधु - जीवन में विविध प्रकार से होने वाले शारीरिक कष्ट । पर्याय- पदार्थों का बदलता हुआ स्वरूप । पल्पम - एक दिन से सात दिन की आयु वाले उत्तर कुरु में पैदा हुए यौगलिकों के केशों के असंख्य खण्ड कर एक योजन प्रमाण गहरा, लम्बा व चौड़ा कुआ ठसाठस भरा जाये । वह इतना दबा कर भरा जाये, जिससे अग्नि उसे जला न सके, पानी भीतर घुस न सके और चक्रवर्ती की सारी सेना भी उस पर से गुजर जाये तो भी वह अंश मात्र लचक न खाये। हर सौ वर्ष पश्चात् उस कुए में एक केश खण्ड निकाला जाये । जितने समय में वह कुआ खाली होगा, उतने समय को पल्योपम कहा जायेंगा | पादोपगमन - अनशन का वह प्रकार, जिसमें साधु द्वारा दूसरों की सेवाओं का और स्वयं की चेष्टाओं का त्याग कर पादप वृक्ष की तरह निश्चेष्ट हो कर रहना । इसमें चारों आहारों का त्याग आवश्यक है । यह दो प्रकार का है -- १. निर्धारिम और २. अनिहरिम | 2010_05 Page #616 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६२ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड : १ १. नियरिम-जो साधु उपाश्रय में पादोपगमन अनशन करते हैं, मृत्युपरान्त उनका शव संस्कार के लिए उपाश्रय से बाहर लाया जाता है। अतः वह देह-त्याग निर्झरिम कहलाता है। निर्हार का तात्पर्य है-बाहर निकालना। २. अनिर्हारिम-जो साधु अरण्य में ही पादोपगमन पूर्वक देह-त्याग करते हैं, उनका शव संस्कार के लिए कहीं बाहर नहीं ले जाया जाता; अत: वह देह-त्याग अनिर्हारिम कहलाता है । पाप-अशुभ कर्म-पुद्गल । उपचार से पाप के हेतु भी पाप कहलाते हैं। पारिणामिकी बुद्धि--दीर्घकालीन अनुभवों के आधार पर प्राप्त होने वाली बुद्धि । पार्श्वस्थ-केवल साधु का वेष धारण किये रहना, पर आचार का यथावत् पालन नहीं करना। पार्श्वनाथ-संतानीय-भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा के । पुण्य-शुभ कर्म-पुद्गल । उपचार से जिस निमित्त से पुण्य-बन्ध होता है, वह भी पुण्य कहा जाता है। पौषष (पोवास)-एक अहोरात्र के लिए चारों प्रकार के आहार और पाप पूर्ण प्रवृत्तियों का त्याग। प्रज्ञप्ति आदि विद्या-१. प्रज्ञप्ति, २. रोहिणी, ३. वज्रश्रृंखला, ४. कुलिशाङ्कशा, ५. चक्रेश्वरी, ६. नरदत्ता, ७. काली, ८. महाकाली, ६. गौरी, १०. गान्धारी, ११. सर्वास्त्रमहाज्वाला, १२. मानवी, १३. वैरोय्या, १४. अच्छुप्ता, १५. मानसी और १६. महामानसिका-ये सोलह विद्या देवियाँ हैं। प्रतिचोदना-मत से प्रतिकूल वचन। प्रतिसारणा-मत से प्रतिकूल सिद्धान्त का स्मरण । प्रत्याख्यान-त्याग करना । प्रत्युपवार-तिरस्कार । प्रथम सप्त अहोरात्र प्रतिमा-साधु द्वारा सात दिन तक चौविहार एकान्तर उपवास; उत्तानक या किसी पाश्र्व से शयन या पालथी लगाकर नामादि से बाहर कायोत्सर्ग करना। प्रवचन-प्रभावना-नाना प्रयत्नों से धर्म-शासन की प्रभावना करना। प्रवतिनी-आचार्य द्वारा निर्दिष्ट वयावृत्त्व आदि धार्मिक कार्यों में साध्वी-समाज को प्रवृत्त करने वाली साध्वी -प्रभुत्वा । प्रवृत्त परिहार (पारिवृत्य परिहार). शरीरान्तर प्रवेश । प्रवृत्ति वादुक-समाचारों को प्राप्त करने वाला विशेष कर्मकर पुरुष । प्राण-द्वीन्द्रिय (लट, अलसिया आदि), त्रीन्द्रिय (जू, चींटी आदि) और चतुरिन्द्रिय (टीड, पतंग, भ्रमर आदि) प्राणी । जीव का पर्यायवाची शब्द । प्राणत-दसवां स्वर्ग । देखें, देव । ____ 2010_05 Page #617 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा] परिशिष्ट-२ : जैन पारिभाषिक शब्द-कोश प्रायश्चित्त-साधना में लगे दूषण की विशुद्धि के लिए हृदय से पश्चात्ताप करना। यह दस प्रकार से किया जाता है। १. आलोचना-लगे दोष को गुरु या रत्नाधिक के समक्ष यथावत् निवेदन करना। २. प्रतिक्रमण-सहसा लगे दोषी के लिए साधक द्वारा स्वतः प्रायश्चित करते हुए ___ कहना-मेरा पाप मिथ्या हो। ३. तदुभय-आलोचना और प्रतिक्रमण । ४. विवेक-अनजान में आधाकर्म दोष से युक्त आहार आदि आ जाये तो ज्ञात होते __ ही उसे उपभोग में न लेकर उसका त्याग कर देना। ५. कायोत्सर्ग-एकाग्र होकर शरीर की ममता का त्याग। ६. तप.. अनशन आदि बाह्य तप। ७. छेद-दीक्षा-पर्याय को कम करना। इस प्रायश्चित्त के अनुसार जितना समय कम किया जाता है, उस अवधि में दीक्षित छोटे साधु दीक्षा पर्याय में उस दोषी साथ से बड़े हो जाते हैं। ८. मूल-पुनर्दीक्षा। ६. अनवस्थाप्य-तप विशेष के पश्चात् पुनर्दीक्षा। १०, पारञ्चिक-संघ-बहिष्कृत साधु द्वारा एक अवधि विशेषातक साधु-वेष परिवर्तित कर जन-जन के बीच अपनी आत्म-निन्दा करना। प्रीतिवान-शुम संवाद लाने वाले कर्मकर को दिया जाने वाला दान । बन्ध-आत्मा के साथ कर्म-पुद्गलों का घनिष्ठ सम्बन्ध । बलदेव-वासुदेव के ज्येष्ठ विमातृ बन्धु । प्रत्येक अवसर्पिणी-उत्सर्पिणी काल में नौ-नौ होते हैं। इनकी माता चार स्वप्न देखती है। वासुदेव की मृत्यु के बाद दीक्षा लेकर घोर तपस्या आदि के द्वारा आत्म-साधना करते हैं। कुछ मोक्ष जाते हैं और कुछ स्वर्गगामी होते हैं। बावर काय योग-स्थूल कायिक प्रवृत्ति । बादर मन योग-स्थूल मानसिक प्रवृत्ति । बावर वचन योग-स्थूल वाचिल प्रवृत्ति । बाल तपस्वी-अज्ञान पूर्वक तप का अनुष्ठान करने वाला। बालमरण-अज्ञान दशा-अविरत दशा में मृत्यु । बेला-दो दिन का उपवास । ब्रह्मलोक-पांचवां स्वर्ग । देखें, देव । भक्त-प्रत्याख्यान-उपद्रव होने पर या न होने पर भी जीवन-पर्यन्त तीन या चार आहार का त्याग। भत्र प्रतिमा-ध्यानपूर्वक तप करने का एक प्रकार । पूर्व, दक्षिण, पश्चिम और उत्तर दिशा की ओर मुख कर क्रमश: प्रत्येक दिशा में चार-चार प्रहर तक ध्यान करना । यह प्रतिमा दो दिन की होती है। भवसिद्धिक-मोक्ष-प्राप्ति की योग्यता वाले जीव । 2010_05 Page #618 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६४ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड : १ भव्य-देखें, भवसिद्धिक। माव-मौलिक स्वरूप। विचार । भावितात्मा-~-संयम में लीन शुद्ध आत्मा। भिक्ष प्रतिमा-साधुओं द्वारा अभिग्रह विशेष से तप का आचरण। ये प्रतिमाएँ बारह होती हैं। पहली प्रतिमा का समय एक मास का है। दूसरी का समय दो का, तीसरी का तीन मास, चौथी का चार मास, पांचवीं का पांच मास, छठी का छह मास, सातवीं का सात मास, आठवीं, नवीं, दसवीं का एक-एक सप्ताह, ग्यारहवीं का एक अहोरात्र और बारहवीं का समय एक रात्रि का है। पहली प्रतिमा में आहार-पानी की एक-एक दत्ति, दूसरी में दो-दो दत्ति, तीसरी में तीन-तीन दत्ति, चौथी में चार-चार दत्ति, पाँचवीं में पांच-पाँच दत्ति, छठी में छह-छह दत्ति, सातवीं में सात-सात दत्ति, आठवीं, नवीं और दसवीं में चौविहार एकान्तर और पारणे में आयंबिल, ग्यारहवीं में चौविहार छठ्ठतप और बारहवीं में अट्ठमतम आवश्यक है। आठवीं, नवीं, दसवीं, ग्यारहवीं और बारहवीं प्रतिमा का विस्तृत विवेचन देखें, क्रमश: प्रथम सप्त अहोरात्र प्रतिमा, द्वितीय सप्त अहोरात्र प्रतिमा, तृतीय सप्त अहोरात्र प्रतिमा, एक अहोरात्र प्रतिमा, एक रात्रि प्रतिमा में । इन प्रतिमाओं के अवलम्बन में साधु अपने शरीर के ममत्व को सर्वथा छोड़ देता है और केवल आत्मिक अलख की ओर ही अग्रसर रहता है। दैन्य भाव का परिहार करते हुए देव, मनुष्य और तियेच सम्बन्धी उपसर्गों को समभाव से सहता है। भवनपति-देखें, देव। भूत-वृक्ष आदि प्राणी । जीव का पर्यायवाची शब्द । मंख-चित्र-फलक हाथ में रख कर आजीविका चलाने वाले भिक्षाचर । मतिज्ञान-इन्द्रिय और मन की सहायता से होने वाला ज्ञान । मन:पर्यव-मनोवर्गणा के अनुसार मानसिक अवस्थाओं का ज्ञान । मन्थ-बेर आदि फल का चूर्ण । महाकल्प-काल विशेष । महाकल्प का परिमाण भगवती सूत्र में इस प्रकार है-गंगा नदी पांच सौ योजन लम्बी, आधा योजन विस्तृत तथा गहराई में भी पाँच सौ धनुष हैं। ऐसी सात गंगाओं की एक महागंगा, सात महागंगाओं की एक सादीन गंगा, सात सादीन गंगाओं की एक मृत्यु गंगा, सात मृत्यु गंगाओं की एक लोहित गंगा, सात लोहित गंगाओं की एक अवंती गंगा, सात अवंती गंगाओं की एक परमावंती गंगा; इस प्रकार पूर्वापर सब मिला कर एक लाख सतरह हजार छह सौ उन्चास गंगा नदियाँ होती हैं । इन गंगा नदियों के बालू-कण दो प्रकार के होते हैं-१. सूक्ष्म और २. बादर । सूक्ष्म का यहाँ प्रयोजन नहीं है। बादर कणों में से सौ-सौ वर्ष के बाद एकएक कण निकाला जाये। इस क्रम से उपयुक्त गंगा-समुदय जितने समय में रिक्त होता है, उस समय को मानस-सर प्रमाण कहा जाता है । इस प्रकार के तीन लाख मानस-सर प्रमाणों का एक महाकल्प होता है। चौरासी लाख महाकल्पों का एक महामानस होता है। मानस-सर के उत्तम, मध्यम और कनिष्ठ तीन भेद हैं। मज्झिमनिकाय, सन्दक सुत्तन्त, २-३-६ में चौरासी हजार महाकल्प का परिमाण अन्य प्रकार से दिया गया है। ____ 2010_05 Page #619 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा] परिशिष्ट-२ : जैन पारिभाषिक शब्द-कोश ५६५ महानिर्ग्रन्थ-तीर्थङ्कर । महाभद्र प्रतिमा-ध्यानपूर्वक तप करने का एक प्रकार। चारों ही दिशाओं में क्रमशः एक-एक अहोरात्र तक कायोत्सर्ग करना । महाप्रतिमा तप-देखें, एक रात्रि प्रतिमा। महा विवेह क्षेत्र-देखें, जम्बूद्वीप । महाव्रत-हिंसा, असत्य, स्तेय, अब्रह्मचर्य और परिग्रह का मनसा, वाचा, कर्मणा जीवन पर्यन्त परित्याग । हिंसा आदि को पूर्ण त्याग किये जाने से इन्हें महाव्रत कहा जाता है। गृहस्थवास का त्याग कर साधना में प्रवृत्त होने वालों का यह शील है। महासिंह निष्क्रीडित तप-तप करने का एक प्रकार। सिंह गमन करता हुआ जैसे पीछे मुड़ कर देखता है; उसी प्रकार तप करते हुए आगे बढ़ना और साथ ही पीछे किया हुआ तप भी करना। यह महा और लघु दो प्रकार का होता है। प्रस्तुत क्रम में अधिकाधिक सोलह दिन का तप होता है और फिर उसी क्रम से उतार होता है। समग्र तप में १ वर्ष ६ महीने और १८ दिन लगते हैं। इस तप की भी चार परिपाटी होती हैं। इसका क्रम यंत्र के अनुसार चलता है। (-चित्र परिशिष्ट-२ के अन्त में देखें।) माण्डलिक राजा-एक मण्डल का अधिपति राजा। मानुषोत्तर पर्वत–जम्बूद्वीप को घेरे हुए लवण समुद्र है, लवण समुद्र को घेरे हुए घातकी खण्ड है, घातकीखण्ड द्वीप को घेरे हुए कालोदधि है और कालोदधि को घेरे हुए पुष्कर द्वीप है। पुष्कर द्वीप के मध्वोमध्य मानुषोत्तर पर्वत है, जो द्वीप को दो भागों में विभक्त करता है। मनुष्य-लोक एवं समय-क्षेत्र की सीमारेखा भी यही पर्वत बनता है। इस पर्वत के बाहर जंघाचारण, विद्याचारण साधुओं के अतिरिक्त कोई भी मनुष्य देव-शक्ति के आवलम्बन बिना नहीं जा सकता। मार्ग-ज्ञानादिरूप मोक्ष-मार्ग । मासिकी मिक्ष-प्रतिमा-साधु द्वारा एक महीने तक एक दत्ति (आहार-पानी के ग्रहण से सम्बन्धित विधि विशेष) आहार और एक दत्ति पानी ग्रहण करने की प्रतिज्ञा। मिथ्यात्व-तत्त्व के प्रति विपरीत श्रद्धा । मिथ्यादर्शन शल्य-देखें, शल्य । मल गुण-वे व्रत, जो चारित्ररूप वृक्ष के मूल (जड़) के समान होते हैं । साधु के लिए पांच __ महात्रत और श्रावक के लिए पाँच अणुव्रत मूल गुण हैं। मेरुपर्वत की चूलिका-जम्बूद्वीप के मध्य भाग में एक लाख योजन समुन्नत व स्वर्ण-कान्ति मय पर्वत है। इसी पर्वत के ऊपर चालीस योजन की चूलिका-चोटी है। इसी पर्वत पर भद्रशाल, नन्दन, सौमनस और पाण्डुक नामक चार वन हैं। भद्रशाल वन धरती के बराबर पर्वत को घेरे हुए है । पाँच सौ योजना ऊपर नन्दन वन है, जहाँ क्रीड़ा करने के लिए देवता भी आया करते हैं । बासठ हजार पाँच सौ योजन ऊपर सौमनस वन है। चूलिका के चारों ओर फैला हुआ पाण्डुक वन है। उसी वन में स्वर्णमय चार शिलायें हैं, जिन पर तीर्थङ्करों के जन्म-महोत्सव होत हैं । ____ 2010_05 Page #620 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६६ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन मोक्ष - सर्वथा कर्म-क्षय के अनन्तर आत्मा का अपने स्वरूप में अधिष्ठान । यवमध्यचन्द्र प्रतिमा - शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से प्रारम्भ होकर, चन्द्रकला की वृद्धि-हानि के अनुसार दत्ति की वृद्धि - हानि से यवाकृति में सम्पन्न होने वाली एक मास की प्रतिज्ञा । उदाहरणार्थ- शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा को एक दत्ति, द्वितीया को दो दत्ति और इस प्रकार क्रमशः एक-एक दत्ति बढ़ाते हुए पूर्णिमा को पन्द्रह दत्ति । कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा को चौदह दत्ति और इस प्रकार क्रमशः एक-एक दत्ति घटाते हुए चतुर्दशी को केवल एक दत्त ही खाना । अमावस्या को उपवास रखना । योग – मन, वचन और शरीर की प्रवृत्ति । योजन- चार कोश परिमित भू-भाग । चक्रवर्ती भरत ने दिग्विजय के लिए जब प्रस्थान किया तो चक्ररत्न सेना के आगे-आगे चल रहा था। पहले दिन जितनी भूमि का अवगान कर वह रुक गया, उतने प्रदेश को तब से योजना की संज्ञा दी गई । यौगलिक – मानव सभ्यता से पूर्व की सभ्यता जिसमें मनुष्य युगल रूप जन्म लेता है । वे 'योगलिक' कहलाते हैं । उनकी आवश्यक सामग्नियों की पूर्ति कल्प वृक्ष द्वारा होती है । रजोहरण -- जैन मुनियों का एक उपकरण, जो कि भूमि प्रमार्जन आदि कामों में आता है । राष्ट्रिय वह प्राधिकारी, जिसकी नियुक्ति प्रान्त की देख-रेख व सार-सम्भाल के लिए की जाती है । रुचकर द्वीप - जम्बूद्वीप से तेरहवां द्वीप । --- [ खण्ड : १ लघु चातुर्मासिक प्रायश्चित्त - प्रायश्चित का एक प्रकार, जिसमें तपस्या आदि के माध्यम से दोष का शोधन किया जाता है । लघुसिंह निष्क्रीड़ित तप-तप करने का एक प्रकार । सिंह गमन करता हुआ जैसे पीछे मुड़ कर देखता है, उसी प्रकार तप करते हुए आगे बढ़ना और साथ ही पीछे किया हुआ तप भी करना । यह लघु और महा दो प्रकार का होता है। प्रस्तुत क्रम में अधिकाधिक नौ दिन की तपस्या होती है और फिर उसी क्रम से तप का उतार होता है । समग्र तप में ६ महीने और ७ दिन का समय लगता है । इस तप की भी चार परिपाटी होती है । इसका क्रम यंत्र के अनुसार चलता है । (= चित्र परिशिष्ट - २ के अन्त में देखें ।) लब्धि - आत्मा की विशुद्धि से प्राप्त होने वाली विशिष्ट शक्ति । लब्धिधर -1 - विशिष्ट शक्ति - सम्पन्न | लांतक - छठा स्वर्ग । देखें, देव । लेश्या - योगवर्गणा के अन्तर्गत पुद्गलों की सहायता से होने वाला आत्म-परिणाम | लोक धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, काल, पुद्गल और जीव की अबस्थिति | लोकपाल सीमा के संरक्षक । प्रत्येक इन्द्र के चार-चार होते हैं। ये महद्धिक होते हैं और अनेक देव देवियों का प्रभुत्व करते हैं । लोकान्तिक - पाँचवें ब्रह्मस्वर्ग में छह प्रतर हैं। मकानों में जैसे मंजिल होती है, वैसे ही स्वर्गों में प्रतर होते हैं। तीसरे अरिष्ट प्रतर के पास दक्षिण दिशा में त्रसनाड़ी के भीतर चार 2010_05 Page #621 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा] परिशिष्ट-२ : जैन पारिभाषिक शब्द-कोश दिशाओं में और चार ही विदिशाओं में आठ कृष्ण राजियां हैं । लोकान्तिक देवों के यहीं नौ विमान हैं । आठ विमान आठ कृष्ण राजियों में हैं और एक उनके मध्य भाग में है। उनके नाम हैं : १. अर्वी, २. अचिमाल, ६. वैरोचन, ४. प्रभंकर, ५. चन्द्राभ, सूर्याभ, ७. शुक्रा भ, ८. सुप्रतिष्ठ, ६. रिष्टाभ (मध्यवर्ती) । लोक के अन्त में रहने के कारण ये लोकान्तिक कहलाते हैं। विषय-वासना से ये प्रायः मुक्त रहते हैं : अतः देवर्षि भी कहे जाते हैं । अपनी प्राचीन-परम्परा के अनुसार तीर्थङ्करों की दीक्षा के अवसर पर ये प्रेरित करते हैं। वक्रजड़-शिक्षित किये जाने पर भी अनेक कुतर्कों द्वारा परमार्थ की अवहेलना करने वाला तथा वक्रता के कारण छलपूर्वक व्यवहार करते हुए अपनी मूर्खता को चतुरता के रूप में प्रदर्शित करने वाला। वज्रमध्य चन्द्र प्रतिमा-कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा से प्रारम्भ होकर, चन्द्रकला की हानि-वृद्धि के अनुपार, दत्ति की हानि-वद्धि से वज्राकृति में सम्पन्न होने वाली एक मास की प्रतिज्ञा। इसके प्रारम्भ में १५ दत्ति और फिर क्रमशः घटाते हुए अमावस्था को एक दत्ति । शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा को दो और फिर क्रमशः एक-एक बढ़ाते हुए चतुर्दशी को १५ दत्ति और पूर्णिमा को उपवास । वर्षादान-तीर्थङ्करों द्वारा एक वर्ष तक प्रतिदिन दिया जाने वाला दान । बासदेव-पूर्वभव में किये गये निश्चित निदान के अनुसार नरक या स्वर्ग से आकर वासुदेव के रूप में अवतरित होते हैं। प्रत्येक अवसर्पिणी-उत्सर्पिणी काल में ये नौ-नौ होते हैं। उनके गर्भ में आने पर माता सात स्वप्न देखती है। शरीर का कर्ण कृष्ण होता है भरत क्षेत्र के तीन खण्डों के एकमात्र अधिपति -प्रशासक होते हैं। प्रति वासुदेव को मार कर ही त्रिखण्डाधिपति होते हैं । इनके सात रत्न होते हैं : १. सुदर्शन-चक्र, २. अमोघ खड्ग, ३. कौमोदकी गदा, ४. धनुष्य अमोघ बाण, ५. गरुड़ध्वज रथ, ६. पुष्प-माला और ७. कौस्तुभमणि ।। विकर्वण लब्धि-तपस्या-विशेष से प्राप्त होने वाली एक दिव्य शक्ति । इसके अनुसार नाना रूप बनाये जा सकते हैं। शरीर को धागे की तरह इतना सूक्ष्म बनाया जा सकता है कि वह सई के छेद में से भी निकल सके। शरीर को इतना ऊँचा बनाया जा सकता है कि मेरुपर्वत भी उसके घटनों तक रह जाये। शरीर को वायु से भी अधिक हल्का और वज्र से भी भारी बनाया जा सकता है। जल पर स्थल की तरह और स्थल पर जल की तरह उन्मज्जन किया जा सकता है। छिद्र की तरह पर्वत के बीच से बिना रुकावट निकला जा सकता है और पवन की तरह सर्वत्र अदृश्य बना जा सकता है। एक ही समय में अनेक प्रकार के रूपों से लोक को भरा जा सकता है। स्वतन्त्र व अतिक्रूर प्राणियों को वश में किया जा सकता है । विजय अनुत्तर विमान-देखें, देव । विद्याचरण लब्धि-षष्ठ (वेला) तप करने वाले भिक्षु को यह दिव्य शक्ति प्राप्त हो सकती है। श्रुति-विहित ईषत् उपष्टम्भ से दो उड़ान में आठवें नन्दीश्वर द्वीप तक पहुँचा जा 2010_05 Page #622 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६८ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड : १ सकता है। पहली उड़ान में मानुषोत्तर पर्वत तक जाया जा सकता है। वापस लौटते र एक ही उडान में मूल स्थान पर पहुंचा जा सकता है। इसी प्रकार ऊर्ध्व दिशा की दो उड़ान में मेरु तक और लौटते समय एक ही उड़ान में प्रस्थान-स्थान तक पहुंचा जा सकता। विषौषध लब्धि --तपस्या-विशेष से प्राप्त होने वाली एक दिव्य शक्ति। तपस्वी के मल मूत्र भी दिव्य औषधि का काम करते हैं। विभंग ज्ञान-इन्द्रिय और मन की सहायता के बिना, केवल आत्मा के द्वारा रूपी द्रव्यों को जानना अवधि ज्ञान है । मिथ्यात्वी का यही ज्ञान विभंग कहलाता है। वीतरागता विराषक-गृहीत व्रतों का पूर्ण रूप से आराधन नहीं करने वाला। अपने दुष्कृत्यों का प्रायश्चित्त करने से पूर्व ही मृत्यु को प्राप्त हो जाने वाला। वैनयिको बुद्धि-गुरुओं की सेवा-शुश्रूषा व विनय से प्राप्त होने वाली बुद्धि । वैमानिक-देखें, देव। वैयावृत्ति--आचार्य, उपाध्याय, शैक्ष, ग्लान, तपस्वी, स्थविर, सार्मिक, कुल, गण और संघ की आहार आदि से सेवा करना। वैश्रवण-कुबेर। ज्यन्तर-देखें, देव। शतपाक तेल-विविध ओषधियों से भावित शत बार पकाया गया अथवा जिसको पकाने में शत स्वर्ण-मुद्राओं का व्यय हुआ हो । शय्यातर-साधु जिस व्यक्ति के मकान में सोते हैं, वह शय्यातर कहलाता है । शल्य-जिससे पीड़ा हो। वह तीन प्रकार का है : १. माया शल्य-कपट-भाव रखना। अतिचार की माया पूर्वक आलोचना करना या गरु के समक्ष अन्य रूप से निवेदन करना, दूसरे पर झठा आरोप लगाना। 2. निदान शल्य-राजा, देवता आदि की ऋद्धि को देख कर या सुन कर मन में यह अध्यवसाय करना कि मेरे द्वारा आचीर्ण ब्रह्मचर्य, तप आदि अनुष्ठानों के फलस्वरूप मुझे भी ये ऋद्धियाँ प्राप्त हों। ३. मिथ्यादर्शन शल्य-विपरीत श्रद्धा का होना। शिक्षावत-बार-बार सेवन करने योग्य अभ्यास प्रधान व्रतों को शिक्षाव्रत कहते है। ये चार हैं : १. सामायिक व्रत, २. देशावकाशिक व्रत, ३. पौषधोपवास व्रत और ४. अतिथि संविभाग व्रत । शुक्ल ध्यान-निर्मल प्रणिधान-समाधि-अवस्था । इसके चार प्रकार हैं : १. पृथक्त्व वितर्क सविचार, २. एकत्व वितर्क सविचार. ३. सूक्ष्म क्रिया प्रतिपाती और ४. समुच्छिन्न क्रिया निवृत्ति । । शेषकाल-चातुर्मास के अतिरिक्त का समय। शैलेशी अवस्था-चौदहवें गुणस्थान में जब मन, वचन और काय योग का निरोध हो जाता है, तब उसे शैलेशी अवस्था कहते हैं। इस में ध्यान की पराकष्ठा के कारण मेरू सदृश निष्प्रकम्पता व निश्चलता आती है। 2010_05 Page #623 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा] परिशिष्ट-२ : जैन पारिभाषिक शब्द-कोश ५६६ श्रीदेवी-चक्रवर्ती की अग्रमहिषी । कद में चक्रवर्ती से केवल चार अंगुल छोटी होती है। एवं सदा नवयौवना रहती है । इसके स्पर्शमात्र से रोगोपशान्ति हो जाती है। इसके सन्तान नहीं होती। श्रुत ज्ञान--शब्द, संकेत आदि द्रव्य श्रुत के अनुसार दूसरों को समझाने में सक्षम मति ज्ञान । भूत भक्ति---श्रद्धावनत श्रुत ज्ञान का अनवद्य प्रसार व उसके प्रति होने वाली जन-अरुचि __ को दूर करना। श्लेष्मौषष लग्धि-तपस्या-विशेष से प्राप्त होने वाली एक दिव्य शक्ति । इसके अनुसार तपस्वी का श्लेष्म यदि कोढ़ी के शरीर पर भी मला जाये तो उसका कोढ़ समाप्त हो जाता है और शरीर स्वर्ण-वर्ण हो जाता है। षट् मावश्यक-सम्यग ज्ञान, दर्शन और चारित्र की आराधना के लिए आत्मा द्वारा करने योग्य क्रिया को आवश्यक कहा जाता है। वे छह हैं : १. सामायक-समभाव से रहना, सब के साथ आत्मतुल्य व्यवहार करना। २. चतुर्विशस्तव-चौबीस तीर्थङ्करों के गुणों का भक्तिपूर्वक उत्कीर्तन करना। ३. वन्दना-मन, वचन और शरीर का वह प्रशस्त व्यापार, जिसके द्वारा पूज्यजनों __ के प्रति भक्ति और बहुमान प्रकट किया जाता है। ४. प्रतिक्रमण-प्रमादवश शुभ योग से अशुभ योग की ओर प्रवृत्त हो जाने पर पुनः शुभ योग की ओर अग्रसर होना। इसी प्रकार अशुभ योग से निवृत्त होकर उत्तरोत्तर शुभ योग की ओर प्रवृत्त होना । संक्षेप में.---अपने दोषों की आलोचना । ५. कायोत्सर्ग-एकाग्र होकर शरीर की ममता का त्याग करना। ६. प्रत्याख्यान-किसी एक अवधि के लिए पदार्थ-विशेष का त्याग । संक्रमण--सजातीय प्रकृतियों का परस्पर में परिवर्तन । संघ-~~गण का समुदय-दो से अधिक आचार्यों के शिष्य-समूह । संजी गर्भ-मनुष्य-गर्भावास । आजीविकों का एक पारिभाषिक शब्द । संथारा-अन्तिम समय में आहार आदि का परिहार। संभिन्नश्रोत लग्धि-तपस्या-विशेष से प्राप्त होने वाली एक दिव्य शक्ति । इसके अनुसार किसी एक ही इन्द्रिय से पाँचों ही इन्द्रियों के विषयों को युगपत् ग्रहण किया जा सकता है । चक्रवर्ती की सेना के कोलाहल में शंख, मेरी आदि विभिन्न वाधों के शोर-गुल में * भी सभी ध्वनियों को पृथक्-पृथक पहचाना जा सकता है। संयूय निकाय-अनन्त जीवों का समुदाय । आजीविकों का एक पारिभाषिक शब्द । संलेखना-शारीरिक तथा मानसिक एकाग्रता से कषायादि का शमन करते हुए तपस्या __ करना। संवर–कर्म ग्रहण करने वाले आत्म-परिणामों का निरोध । संस्थान-आकार विशेष। संहनन–शरीर की अस्थियों का दृढ़ बन्धन, शारीरिक बल । सचेलक-वस्त्र-सहित । बहुमूल्य वस्त्र-सहित । 2010_05 Page #624 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड : १ संस्व-पृथ्वी, जल, अग्नि व वायु के प्राणी । जीव का पर्यायवाची शब्द । सन्निवेश-उपनगर। सप्त सप्तमिक प्रतिमा-यह प्रतिमा उन्चास दिन तक होती है। इसमें सात-सात दिन के सप्तक होते हैं। पहले सप्तक में प्रतिदिन एक-एक दत्ति अन्न-पानी एवं क्रमश: सातवें सप्तक में प्रतिदिन सात-सात दत्ति अन्न-पानी के ग्रहण के साथ कायोत्सर्ग किमा जाता है । सप्रतिक-अनशन में उठना, बैठना, सोना, चलना आदि शारीरिक क्रियाओं का होना। यह क्रिया भक्त-प्रत्याख्यान अनशन में होती है। समय काल का सूक्ष्मतम अविभाज्य अंश । समवसरण -तीर्थङ्कर-परिषद अथवा वह स्थान जहाँ तीर्थङ्कर का उपदेश होता है . समाचारी–साधुओं की अवश्य करणीय क्रियाएँ व व्यवहार । समाधि वान-आचार्य, उपाध्याय, स्थविर, शैक्ष, ग्लान, तपस्वी, मुनियों का आवश्यक कार्य सम्पादन कर उन्हें चैतसिक स्वास्थ्य का लाभ पहुँचाना । समाधि-मरण - श्रुत-चारित्र-धर्म में स्थित रहते हुए निर्मोह भाव में मृत्यु । समिति संयम के अनुकूल प्रवृत्ति को समिति कहते हैं, वे पाँच हैं -- १. ईर्या, २. भाषा, ३. एषणा, ४. आदान-निक्षेप और ५. उत्सर्ग । १. ईर्या-ज्ञान, दर्शन एवं चारित्र की अभिवृद्धि के निमित्त युग परिमाण भूमि को । देखते हुए तथा स्वाध्याय व इन्द्रियों के विषयों का वर्जन करते हुए चलना। २. भाषा-भाषा-दोषों का परिहार करते हुए, पाप-रहित एवं सत्य, हित, मित और असंदिग्ध बोलना। ३. एषणा गवेषणा, ग्रहण और ग्रास-सम्बन्धी एषणा के दोषों का वर्जन करते हुए आहार-पानी आदि औधिक उपधि और शय्या, पाट आदि औफ्नहिक उपधि का अन्वेषण । ४. आदान-निक्षेप-वस्त्र, पात्र आदि उपकरणों को सावधानी पूर्वक लेना व रखना। ५. उत्सर्ग-मल, मूत्र, खेल, \ क कफ आदि का विधिपूर्वक पूर्वदृष्ट एवं प्रमाणित निर्जीव भूमि पर विसर्जन करना। समुज्छिन्नक्रियानिवृत्ति-शुक्ल ध्यान का चतुर्थ चरण, जिसमें समस्त क्रियाओं का निरोध ___होता है। देखें,शुक्ल ध्यान । सम्यक्त्व-यथार्थ तत्त्व-श्रद्धा। सम्यक्त्वी-यथार्थ तत्त्व श्रद्धा से सम्पन्न । सम्यक् दृष्टि-पारमार्थिक पदार्थों पर यथार्थ श्रद्धा रखने वाला। सम्यग् वर्शन-सम्यक्त्व-यथार्थ तत्त्व-श्रद्धा। सर्वतोभद्र प्रतिमा-सर्वतोभद्र प्रतिमा की दो विधियों का उल्लेख मिलता है। एक विधि के अनुसार क्रमशः दशों दिशाओं की ओर अभिमुख होकर एक-एक अहोरात्र का 2010_05 Page #625 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा ] परिशिष्ट-२ : जैन पारिभाषिक शब्द-कोश ५७१ कायोत्सर्ग किया जाता है । भगवान् महावीर ने इसे ही किया था, ऐसा उल्लेख मिलता है । दूसरी विधि के अनुसार लघु और महा दो भेद होते हैं । १ - लघु सर्वतोभद्र प्रतिमा — अंकों की स्थापना का वह प्रकार जिसमें सब ओर से समान योग आता है, उसे सर्वतोभद्र कहा जाता है। इस तप का उपवास से आरम्भ होता है और क्रमशः बढ़ते हुए द्वादश भक्त तक पहुँच जाता है । दूसरे क्रम में मध्य के अंक को आदि अंक मान कर चला जाता है और पाँच खण्डों में एक परिपाटी का कालमान इसका क्रम यन्त्र के अनुसार उसे पूरा किया जाता है । आगे यही क्रम चलता है। ३ महीने १० दिन है । चार परिपाटियाँ होती हैं चलता है । । १ 2010_05 ३ ५ २ ४ लघु सर्वतोभद्र प्रतिमा २ ४ १ ३ ५ ३ ५ २ ४ १ ४ १ ३ ५ २ ५ २ ४ १ ३ २. महा सर्वतोभद्र प्रतिमा- इस तप का आरम्भ उपवास से होता है और क्रमशः बढ़ते हुए षोडश भक्त तक पहुँच जाता है। बढ़ने का इसका क्रम भी सर्वतोभद्र की तरह ही है । अन्तर केवल इतना ही है कि लघु में उत्कृष्ट तप द्वादश भक्त है और इसमें षोडश भक्त । एक परिपाटी का कालमान १ वर्ष १ महीना और १० दिन है । चार परिपाटियां होती हैं। इसका क्रम यन्त्र के अनुसार चलता है । Page #626 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७२ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन महासर्वतोभद्र प्रतिमा ३ २ | ३ | ४ / ५ ६ ७ १ सर्वार्थसिद्ध—देखें, देव । सवाषष लब्धि-तपस्या-विशेष से प्राप्त होने वाली एक दिव्य शक्ति । वर्षा का बरसता हआ व नदी का बहता हआ पानी और पवन तपस्वी के शरीर से संस्पष्ट होकर रोगनाशक व विष-संहारक हो जाते हैं। विष-मिश्रित पदार्थ यदि उनके पात्र या मंह में आता है, तो वह भी निर्विष हो जाता है। उनकी वाणी की स्मृति भी महाविष के शमन की हेतु बनती है। उनके नख, केश, दाँत आदि शरीरज वस्तुएं भी दिव्य औषधि का काम करती हैं। सहस्रपाक तेल-नाना औषधियों से भावित सहस्र बार पकाया गया अथवा जिसको पकाने __ में सहस्र स्वर्ण-मुद्राओं का व्यय हुआ हो। सहस्रराकल्प-आठवाँ स्वर्ग। देखें, देव। सागरोपम (सागर)-पल्योपम की दस कोटि-कोटि से एक सागरोपम (सागर) होता है । देखें, पल्योपम । सार्मिक-समान धर्मी । सामानिक-सामानिक देव आयु आदि से इन्द्र के समान होते हैं । केवल इनमें इन्द्रत्व नहीं होता। इन्द्र के लिए सामानिक देव अमात्य, माता-पिता व गुरु आदि की तरह पूज्य होते हैं। सामायिक चारित्र.. सर्वथा सावद्य-योगों की विरति । सावद्य-पाप-संहित । सिद्ध-कर्मों का निर्मल नाश कर जन्म-मरण से मुक्त होने वाली आत्मा । सिद्धि-सर्व कर्मों की क्षय से प्राप्त होने वाली अवस्था। सुषम-दुःषम-अवसर्पिणी काल का तीसरा आरा, जिसमें सुख के साथ कुछ दुःख भी होता है। ____ 2010_05 Page #627 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा] परिशिष्ट-२ : जैन पारिभाषिक शब्द-कोश ५७३ सुषम-अवसर्पिणी काल का दूसरा आरा, जिसमें पहले आरे से सुख में कुछ न्यूनता आरम्भ होती है। सुषम-सुषम-अवसर्पिणी काल का पहला आरा, जिसमें सब प्रकार के सुख ही सुख होते हैं। सूक्ष्म क्रियाप्रतिपाति-शुक्ल ध्यान का तृतीय चरण, जिसमें सूक्ष्म शरीर योग का आश्रय देकर दूसरे बाकी के योगों का निरोध होता है । देखें, शुक्ल ध्यान । सूत्र-आगम-शास्त्र । सूत्रागम-मूल आगम-शास्त्र । सौधर्म-पहला स्वर्ग । देखें, देव । स्नातक-बोधिसत्त्व । स्थविर–साधना से स्खलित होते हुए साधुओं को पुनः उसमें स्थिर करने वाले । स्थविर तीन प्रकार के होते हैं : १. प्रव्रज्या स्थविर, २. जाति स्थविर और ३. श्रुत स्थविर । १. प्रव्रज्या स्थविर—जिन्हें प्रव्रजित हुए बीस वर्ष हो गये हों। २. जाति स्थविर-जिनका वय साठ वर्ष का हो गया हो। ३. श्रुत स्थविर-जिन्होंने स्थानांग, समवायांग आदि का विधिवत् ज्ञान प्राप्त कर लिया हो। स्थविर कल्पिक–गच्छ में रहते हुए साधना करना। तप और प्रवचन की प्रभावना करना। शिष्यों में ज्ञान, दर्शन और चारित्र आदि गुणों की वृद्धि करना । वृद्धावस्था में जंघाबल क्षीण हो जाने पर आहार और उपधि के दोषों का परिहार करते हुए एक ही स्थान में रहना। स्थावर-हित की प्रवृत्ति और अहित की निवृत्ति के लिए गमन करने में असमर्थ प्राणी। स्थितिपतित-पुत्र-जन्म के अवसर पर कुल क्रम के अनुसार मनाया जाने वाला दस दिन का महोत्सव । स्वादिम-सुपारी, इलायची आदि मुखवास पदार्थ । हल्ला-गोवालिका लता के तृण की समानाकृति का कीट विशेष । ___ 2010_05 Page #628 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७४ आगम और त्रिपिटक : एक अमुशीलम चित्र १ पृ० ६२० . एकावली तप को परिभाषा से सम्बन्धित एकावली तप anjan -1& MI-MIT PRICIPENDER ८ + १० १४ १५ १ । १६ । १ । १ 2010_05 Page #629 -------------------------------------------------------------------------- ________________ {f {{] fxfE-၃ : 1 Grf;wrf$ ချt-fa चिन्न २ पृ० ६२० कनकावली तर को परिभाषा से सम्बन्धित कनकावली तप -ကတ်--တာယာ၀မမှ က ဩကာ-အ၀ယy မှထmmmm ၂ ဆိုကာ [ Ta Ta TT T3 [ 3 ] 31T 3 | 4 | 5 | 3 | i3 3 133 ) | 11 2010_05 Page #630 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७६ [खण्ड : १ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन चित्र पृ० ६२१ गुणरत्न (रयण) संवत्सर तप को परिभाषा से सम्बन्धित BERCE 180110110 विवादावा 00000000 ESR32RRBOR. KONDOOOOO33333 ____ 2010_05 Page #631 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा] परिशिष्ट-२ : जैन पारिभाषिक शब्द-कोश चित्र ४ प० ६३५ महासिंह निष्क्रीड़ित तप की परिभाषा से सम्बन्धित महासिंह 00 १३. १३. १४ 2010_05 १.५. चिन ५ प० ६३७ लघुसिंह निष्क्रीड़ित तप की परिभाषा से सम्बन्धित तप लघुसिंह नि ५७७ तप Page #632 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2010_05 Page #633 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट-३ बौद्ध पारिभाषिक शब्द-कोश ____ 2010_05 Page #634 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2010_05 Page #635 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अकुशल धर्म-सदेव बुरा फल उत्पन्न करने वाले धर्म, पाप कर्म। अग्निशाला-पानी गर्म करने का घर । अधिकरण समय-उत्पन्न कलह की शान्ति के लिए बतलाये गए आचार का लंघन भी दोष है। अधिष्ठान पारमिता—जिस प्रकार पर्वत सब दिशाओं से प्रचण्ड हवा के झोके लगने पर पर भी न कांपता है, न हिलता है और अपने स्थान पर स्थिर रहता है, उसी प्रकार अपने अधिष्ठान (दृढ़ निश्चय) में सर्वतोमावेन सुस्थिर रहमा। अध्वनिक-चिरस्थायी। अनवनव-विपाक-रहित । अनगामी-फिर जन्म न लेने वाला। काम-राग (इन्द्रिय-लिप्सा) और प्रतिघ (दूसरे के प्रति अनिष्ट करने की भावना) को सर्वथा समाप्त कर योगावचर भिक्षु अनागामी हो जाता है। यहाँ से मरकर ब्रह्मलोक में पैदा होता है और वहीं से अहंत हो जाता है। अनाश्वासिक-मन को सन्तोष न देने वाला। अनियत--भिक्षु किसी श्रद्धालु उपासिका के साथ एकान्त में पाराजिक, संधादिसेस और पाचित्तिय–तीन दोषों में से किसी एक दोष के लिए उसके समक्ष प्रस्ताव रखता है। संघ के समक्ष सारा घटना-वृत प्रकट होने पर दोषी भिक्षु का, श्रद्धालु उपासिका के कथन पर, दोष का निर्णय किया जाता है और उसे प्रायश्चित करवाया जाता है। वह अपराध तोनों नियत न होने पर अनियत कहा जाता है। अनुप्रज्ञप्ति-सम्बोधन। अनुशासनीयप्रातिहार्य—भिक्षु ऐसा अनुशासन करता है-ऐसा विचारो, ऐसा मत विचारो; मन में ऐसा करो, ऐसा मत करो; इसे छोड़ दो, इसे स्वीकार कर लो। अनुश्रव-श्रुति । अनुश्रावण-ज्ञप्ति करने के अनन्तर संघ से कहना-जिसे स्वीकार हो, वह मौन रहे ; जिसे स्वीकार न हो, वह अपनी भावना व्यक्त करें। मपायिक-दुर्गति में जाने वाला। आमिजाति-जन्म। अभिशा-दिव्य शक्ति । अभिज्ञा मूलतः दो प्रकार की है—१. लौकिक और २. लोकोत्तर । लौकिक अभिज्ञाएँ पाँच और लोकोत्तरअभिज्ञा एक है : १. ऋद्धिविध-अधिष्ठान ऋद्धि (एक होकर, बहुत होना बहुत होकर एक होना), विकुर्वण ऋद्धि (साधारण रूप को छोड़ कर कुमार का रूप या नाग का रूप दिखलाना, नाना प्रकार के सेना व्यूहों को दिखलाना आदि), मनोमय ऋद्धि (मनोमय शरीर 2010_05 Page #636 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८२ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन खण्ड : १ बनाना), ज्ञान-विस्फार ऋद्धि, समाधि-विस्फार ऋद्धि (ज्ञान और समाधि की उत्पत्ति से पहले, पीछे उसी णक्ष या, ज्ञान के या समाधि के अनुभव से उत्पन्न हई विशेष शक्ति), आर्य कर्म ऋद्धि (प्रतिकूल आदि संज्ञी होकर विहार करना), विपाकज ऋद्धि (पक्षी आदि का आकाश में जाना आदि), पुण्यवान् की ऋद्धि (चक्रवर्ती आदि का आकाश से जाना), विद्यामय ऋद्धि (विद्याधर आदि का आकाश से जाना), सिद्ध होने के अर्थ में ऋद्धि (उस उस काम में सम्यक्-प्रयोग से उस-उस काम का सिद्ध होना)-ये दस ऋद्धियाँ हैं, इसको प्राप्त करके भिक्ष एक होकर बहुत होता है, बहुत होकर एक होता है, प्रकट होता है, अन्तर्धान होता है। तिरःकुड्यअन्तर्धान ही दीवार के आर-पार जाता है, तिरःप्रकार-अन्तर्धान हो प्राकार के पार जाता है, तिर:पर्वत-पांशु या पत्थर के पर्व के पार जाता है, आकाश में होने के समान बिना टकराये जाता है. जल की भांति पथ्वी में गोता लगाता है. पथ्वी की मांति जल पर चलता है, पाँखों वाले पक्षी की तरह आकाश में पालथी मारे जाता है, महातेजस्वी सूर्य और चन्द्र को भी हाथ से छूता है और मलता है, ब्रह्मलोकों को भी अपने शरीर के बल से वश में करता है, दूर को पास करता है, पास को दूर करता है, थोड़े को बहुत करता है, बहुत को थोड़ा करता है, मधुर को अमधुर करता है अमधुर को मधुर आदि भी, जो-जो चाहता है, ऋद्धिमान् को सब सिद्ध होता है । यही स्थिति अवलोक को बढ़ा कर उस ब्रह्मा के रूप को देखता है और यही स्थिति उनके शब्द को सुनता है तथा चित्त को भली प्रकार जनता है। शरीर के तौर पर चित्त को परिणाम करता है और चित्त के तौर पर शरीर को परिणत करता है। २. दिव्य-श्रोत्र-धातु-विशुद्ध अमानुष दिव्य श्रोत्र धातु अर्थात् देवताओं के समान कर्णेन्द्रिय से दूर व समीप के देवों और मनुष्यों के शब्दों सुन सकता है। इस अभिज्ञ __को प्राप्त करने वाला भिक्षु यदि ब्रह्मलोक तक भी शंख, मेरी, नगाड़ी आदि के शब्द में एक शोर होता है, तो भी अलग करके व्यवस्थापन की इच्छा होने पर यह शंख का शब्द है ; 'मेरी का शब्द है,' ऐसा व्यवस्थापन कर सकता है । ३. चेतोपर्य-ज्ञान-दूसरे प्राणियों के चित्त को अपने चित्त द्वारा जानता है। सराग चित्त होने पर सराग-चित्त है, ऐसा जानता हैं । वीताराग चित्त, सद्वेष-चित्त, वीतद्वेष चित्त, समोह-चित्त, वीतमोह-चित्त, विक्षिप्त-चित्तसंक्षिप्त-चित्त महद्गत-चित्त, अहमद्गत-चित्त, स-उत्तर-चित्त, अनुत्तर-चित्त, समाहित (एकाग्र चित्त, असमाहित-चित्त, विमुक्त-चित्त और अमुक्त-चित्त होने पर वैसा जानता है। ४. पूर्वेनिवासानुस्मृति-ज्ञान-अनेक प्रकार के पूर्व-जन्मों का अनुस्मरण करता है। एक जन्म को भी, दो जन्म को भी यावत् सौ, हजार, सौ हजार.......अनेक संवतं-कल्पों को भी अनेक विवर्त-कल्पों को भी, अनेक संवर्त-विवर्त-कल्पों को भी स्मरण करता है। तब मैं अमुक स्थान अर्थात् भव, योनि, गति, विज्ञान की स्थिति, सत्वों के रहने के स्थान ' चा सत्वसमूह में था। इस नाम का, इस गोत्र का, इस प्रायु का, इस माहार का, अमुक प्रकार के सुख-दुःख का अनुभव करने वाला व इतनी आयु वाला था। वहां सेच्युत होकर अमुक्तस्थान में उत्पन्न हुआ। वहां नाम आदि..... था। वहाँ से च्युत हो अब यहाँ अमुक क्षत्रिय या ब्राह्मण कुल में उत्पन्न हुआ हूँ । तैर्थिक (दूसरे मतावलम्बी) 2010_05 Page #637 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा) परिशिष्ट-२ : बौद्ध पारिभाषिक शब्द-कोश ५८३ चालीस कल्पों तक, प्रकृति-श्रावक (अग्र-श्रावक और महाश्रावक को छोड़ कर), सौ या हजार कल्पों तक, महाश्रावक (अस्सी)लाख कल्पों तक, अग्र श्रावक(दो) एक असंख्य लाख कल्पों को, प्रत्येक बुद्ध दो असंख्य लाख कल्पों को और बुद्ध बिना परिच्छेद ही पूर्व जन्मों का अनुस्मरण करते हैं। ५. च्युतोत्पादन-ज्ञान-विशुद्ध अमानुष दिव्य चक्षु से मरते, उत्पन्न होते, हीन अवस्था में आये, अच्छी अवस्था में आये, अच्छे वर्ण वाले, बुरे वर्ण वाले, अच्छी गति को प्राप्त बुरी गति को प्राप्त, अपने-अपने कर्मों के अनुसार अवस्था को प्राप्त, प्राणियों को जान लेता है। वे प्राणी शरीर से दुराचरण, वचन से दुराचरण और मन से दुराचरण करते हुए, साधु पुरुषों की निन्दा करते थे, मिथ्यादृष्टि रखते थे, मिथ्यादृष्टि वाले काम करते थे। (अब) वह मरने के बाद नरक और दुर्गति को प्राप्त हुए हैं और वह (दूसरे) प्राणी शरीर, वचन और मनसे सदाचारु करते, साधुजनों की प्रशंसा करते, सम्यक्-दृष्टि वाले सम्यग्-दृष्टि के अनुकूल आचरण करते थे, अब अच्छी गति और स्वर्ग को प्राप्त हुए हैं-इस तरह शुद्ध अलौकिक दिव्य चक्षु से...... जान लेता है। ६. आश्रव-क्षय-आश्रव-क्षय से आश्रव-रहित चित्त-विमुक्ति, प्रज्ञा-विमुक्ति को इसी जन्म में स्वयं जान कर साक्षात्कार कर प्राप्त कर विहरता है। महत्-भिक्षु रूपराग, अरूपराग, मान, औद्धत्य और अविद्या के बन्धन को काट गिराता है और अर्हत् हो जाता है। उसके सभी क्लेश दूर हो जाते हैं और सभी आश्रव क्षीण हो जाते हैं। शरीर-पात के अनन्तर उसका आवागमन सदा के लिए समाप्त हो जाता है, जीवनस्रोत सदा के लिए सूख जाता है और दुःख का मन्त हो जाता है । वह जीवन-मुक्त व परम-पद की अवस्था होती है। अविचीर्ण-न किया हुआ। भवितर्क-विचार-समाधि-जो वितर्क मात्र में ही दोष को देख, विचार में (दोष को) न देख केवल वितर्क का प्रहाण मात्र चाहता हुआ प्रथम ध्यान को लांघता है, वह अवितर्कविचार-मात्र समाधि को पाता है। चार ध्यानों में द्वितीय, तृतीय व चतुर्थ ध्यानों की एकाग्रता अवितर्क-विचार-समाधि है। मवीचि नरक-आठ महान् नरकों में से सबसे नीचे का नरक; जहाँ सो योजन के घेरे में प्रचण्ड आग धधकती रहती है। अन्याकृत-अनिर्वचनीय। अष्टाङ्गिक मार्ग-१. सम्यक् दृष्टि, २. सम्यक् संकल्प, ३. सम्यक् वचन, ४. सम्यक् कर्मान्त, ५. सम्यक् आजीव, ६. सम्यक् व्यायाम, ७. सम्यक स्मृति और ८. सम्यक् समाधि। माकाशानन्त्यायतन-चार अरूप ब्रह्मलोक में से तीसरा ? माकिंचन्यायतन-चार अरूप ब्रह्मलोक में से तीसरा ? आचार्यक-धर्म । आजानीय-उत्तम जाति का। आदेशना प्रातिहार्य-व्याख्या-चमत्कार । इसके अनुसार दूसरे के मानसिक संकल्पों को अपने चित्त से जान कर प्रकट किया जा सकता है। ___ 2010_05 Page #638 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८४ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड : १ आनन्तर्य कर्म-१. मातृ-हत्या, २. पितृ-हत्या, ३. अर्हत्-हत्या, ४. बुद्ध के सरीर से लहू बहा देना और ५. संघ में विग्रह उत्पन्न करना; ये पाँच पाप आनन्तर्य कर्म कहलाते हैं। इनके अनुष्ठान से मनुष्य उस जन्म में कदापि क्षीणाश्रव होकर मुक्त नहीं हो सकता। आनुपूर्वी कथा-क्रमानुसार कही जाने वाली कथा। इसके अनुसार दान, शील व स्वर्ग की कथा कही जाती है। भोगों के दुष्परिणाम बतलाये जाते हैं तथा क्लेश-त्याग और निष्कामता का माहात्य प्रकाशित किया जाता है। आपत्ति-दोष-दण्ड । आर्यसत्य--१. दुःख, २. दुःख-समुदाय,-दुःख का कारण, ३. दुःख निरोध-दुःख का नाश ४. दुःख निरोध गामिनी प्रतिपदा-दुःख-नाश का उपाय । मानव-चित्त-मल । ये चार हैं-काम, भव, दृष्टि और अविद्या। आस्ससन्त-आश्वासन प्रद । इन्द्रकील-शत्रु के आक्रमण को रोकने के लिए नगरद्वार के समीप दृढ़ व विशाल प्रस्तर या लौह-स्तम्भ । ईत्झाना-बर्मी संवत्। उत्तर कुरु-चार द्वीपों में एक द्वीप । उत्तर-मनुष्य-धर्म-दिव्य शक्ति । उवान—आनन्दोल्लास से सन्तों के मुंह से निकली हुई वाक्यावलि । उन्नीस विद्याएँ-१. श्रुति, २. स्मृति, ३. सांख्य,४. योग, ५. न्याय, ६. वैशेषिक ७. गणित, ८. संगीत, ६. वैद्यक, १०. चारों वेद, ११. सभी पुराण, १२. इतिहास, १३. ज्योतिष, १४. मंत्र-विद्या, १५. तर्क, १६. तंत्र, १७. युद्ध-विद्या, १८. छन्द और १६. सामुद्रिक । उपपारमिता–साधन में दृढ़ संकल्प होकर बाह्य वस्तुओं का परित्याग करना । उपपारमिता - दस होती हैं। उपशम संवर्तनिक-शान्ति प्रापक । उपसम्पदा--श्रामणेर द्वारा धर्म को अच्छी तरह समझ लिये जाने पर उपसम्पदा-संस्कार किया जाता है। संघ के एकत्रित होने पर उपसम्पदा-प्रार्थी श्रामणेर वहाँ उपस्थित होता है। संघ के बीच उसकी परीक्षा होती है। उत्तीर्ण होने पर उसे संघ में सम्मिलित कर लिया जाता है । तब से वह भिक्षु कहलाता है और उसे प्रातिमोक्ष के अन्तर्गत दो सौ सत्ताईस नियमों का पालन करना होता है। बीस वर्ष की आयु के बाद ही किसी की उपसम्पदा हो सकती है। उपस्थान-शाला-सभा-गृह । उपस्थाक-सहचर सेवक । उपेक्षा-संसार के प्रति अनासक्त-भाव । ____ 2010_05 Page #639 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा] परिशिष्ट-२ : बौद्ध पारिभाषिक शब्द-कोश ५८५ उपेक्षा पारमिता-जिस प्रकार पृथ्वी प्रसन्नता और अप्रसन्नता से विरहित होकर अपने पर फेंके जाने वाले शुचि-अशुचि पदार्थों की उपेक्षा करती है, उसी प्रकार सदैव सुख-दु:ख के प्रति तुल्यता की भावना रखते हुए उपेक्षा की चरम सीमा के अन्त तक पहुँचना। उपोसथ-उपासक किसी विशेष दिन स्वच्छ कपड़े पहिन किसी बौद्ध विहार में जाता है। घुटने टेक कर भिक्षु से प्रार्थना करता है—भन्ते ! मैं तीन शरण के साथ आठ उपोसथ शील की याचना करता हूँ। अनुग्रह कर आप मुझे प्रदान करें। वह उपासक क्रमशः तीन बार अपनी प्रार्थना को दुहराता है । भिक्षु एक-एक शील कहता हुआ रुकता जाता है और उपासक उसे दुहराता जाता है । उपासक समग्र दिन को विहार में रह कर, शीलों का पालन करता हुआ, पवित्र विचारों के चिन्तन में ही व्यतीत करता है। कितने ही उपासक जीवन-पर्यन्त आठ शीलों का पालन करते हैं । वे आठ शील इस प्रकार हैं : १. प्राणातिपात से विरत होकर रहूँगा, २. अदत्तादान से विरत होकर रहूँगा, ३. काम-भावना से विरत होकर रहूँगा, ४. मृषावाद से विरत होकर रहूँगा, ५. मादक द्रव्यों के सेवन से विरत होकर रहूँगा, ६. विकाल भोजन से विरत होकर रहूँगा, ७. नृत्य, गीत, वाद्य, अश्लील हाव-भाव तथा माला, गंध, उबटन के प्रयोग से, शरीर विभूषा से विरत होकर रहूंगा और ८. उच्चासन और सजी-धजी शय्या से विरत होकर रहूँगा। उपोसथागार-उपोसथ करने की शाला। ऋद्धिपाद (चार)-सिद्धियों के प्राप्त करने के चार उपाय-छन्द (छन्द से प्राप्त समाधि), विरिय (वीर्य से प्राप्त समाथि), चित्त (चित्त से प्राप्त समाधि), वीमंसा (विमर्ष से प्राप्त समाधि)। ऋद्धि प्रातिहार्य-योग-बल से नाना चामत्कारिक प्रयोग करना। इसके अनुसार भिक्ष एक होता हुआ भी अनेक रूप बना सकता है। और अनेक होकर एक रूप भी बना सकता है। चाहे जहाँ आविर्भूत हो सकता है और तिरोहित भी हो सकता है। बिना टकराए दीवाल, प्रकार और पर्वत के आर-पार भी जा सकता है, जैसे कि कोई आकाश में जा रहा हो । थल में जल की तरह गोते लगा सकता है। जल-तल पर थल की तरह पल सकता है । आकाश में भी पक्षी की तरह पलथी मारे ही उड़ सकता है। तेजस्वी सूर्य व चन्द्र को हाथ से छू सकता है तथा उन्हें मल सकता है और ब्रह्मलोक तक सशरीर पहुँच सकता है। औपपातिक–देवता और नरक के जीव । कथावस्तु-विवाद । करुणा-संसार के सभी जीवों के प्रति करुणा-भाव । कल्प-असंख्य वर्षों का एक काल-मान। ये चार प्रकार के हैं-१. संवर्त कल्प, २. संवर्त स्थायी कल्प, ३. विवर्त कल्प और ४. विवर्त स्थायी कल्प। संवर्त कल्प में प्रलय और 2010_05 Page #640 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८६ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड : १ विवर्त कल्प में स.ष्टि का क्रम उत्तरोत्तर चलता है। देवों के आयुष्य आदि कल्प के द्वारा मापे जाते हैं। एक योजन लम्बा, चौड़ा और गहरा गड्ढा सरसों के दानों से भरने के पश्चात् प्रति सौ वर्ष में एक दाना निकालने पर जब सारा गड्ढा खाली होता है, तब जितना काल व्यतीत होता है, उससे भी कल्प का काल-मान बड़ा है। कल्पिक कुटिया-भण्डार। काय स्मृति-भिक्षु अरण्य, वृक्षमूल या शून्यागार में बैठता है । आसन मार काया को सीधा रखता है। स्मृतिपूर्वक श्वास लेता है और स्मृतिपूर्वक ही श्वास छोड़ता है । दीर्घ श्वास लेते समय और छोड़ते समय उसे पूर्ण अनुभूति होती है । हृस्व श्वास लेते समय और छोड़ते समय भी उसे पूर्ण अनुभूति रहती है। सारी काया की स्थिति को अनुभव करते हुए श्वास लेते और छोड़ने की प्रक्रिया का अभ्यास करता है। कायिकी संस्कारों (क्रियाओं) को रोक कर श्वास लेने और छोड़ने का अभ्यास करता है। इस प्रकार प्रमाद-रहित, तत्पर और संयम युक्त हो विहार करते समय उसके लोभपूर्ण स्वर नष्ट हो जाते हैं। चित्त अभ्यन्तर में ही स्थित होता है, एकाग्र होता है और समाहित होता है। कार्षापण-उस समय का सिक्का । कुतूहलशाला–वह स्थान, जहाँ विभिन्न मतावलम्बी एकत्र होकर धर्म-चर्चा करते हैं और जिसे सभी उपस्थित मनुष्य कौतूहल पूर्वक सुनते हैं। कुशल धर्म-दस शोभन नैतिक संस्कार, जौ भले कार्यों के अनुष्ठान के प्रत्येक क्षण में विद्य____ मान रहते हैं । पुण्य कर्म। क्लेश-चित्त-मल। क्रियावादी-जो क्रिया का ही उपदेश करता है। शान्ति पारमिता-जिस प्रकार पृथ्वी अपने पर फैकी जाने वाली शुद्ध, अशुद्ध, सभी वस्तुओं को सहती है, क्रोध नहीं करती; प्रसन्नमना ही रहती है; उसी प्रकार मान-अपमान सहते हुए शान्ति की सीमा के अन्त तक पहुंचना । कोणाश्रव-जिनमें वासनाएँ क्षीण हों। यह अर्हत् की अवस्था है। गनिक-प्रस्थान करने वाले भिक्षु । घंटिकार-महाब्रह्मा। चक्ररत्न–चक्रवर्ती के सात रत्नों में पहला रत्न, जो सहस्त्र अरों का, नाभि नेमि से युक्त, सर्वाकार परिपूर्ण और दिव्य होता है । जिस दिशा में वह चल पड़ता है, चक्रवर्ती की सेना उसकी अनुगामिनी हो जाती है। जहाँ वह रुकता है, वहीं सेना का पड़ाव होता है। चक्र प्रभाव से बिना युद्ध किये ही राजा अनुयायी बनते जाते हैं और चक्रवर्ती उन्हें पंचशील का उपदेश देता है। चतुमधुर स्नान-चार मधुर चीज हैं-घी, मक्खन, मधु और चीनी-इसमें स्नान । 2010_05 Page #641 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा] परिशिष्ट-३ : बौद्ध पारिभाषिक शब्द-कोश ५८७ चक्रवर्ती–१. चक्र रत्न, २. हस्ति रत्न, ३. अश्व रत्न ४. मणि रत्न, ५. स्त्री रत्न, ६. गृह पति रत्न, ७. परिणायक' रत्न; इन सात रत्नों और १. परम सौन्दर्य, २. दीर्घायुता, ३. नीरातकता, ४. ब्राह्मण, गृहपतियों की प्रियता इन चार ऋद्धियों से युक्त महागुभाव। चक्रवाल-समस्त ब्रह्माण्ड में असंख्य चक्रवाल होते हैं। एक चक्रवाल एक जगत के रूप में होता है, जिसकी लम्बाई-चौड़ाई १२,०३, ४५० योजन तथा परिमण्डल (घेरा) ३६,१०,३५० योजन होता है । प्रत्येक चक्रवाल की मोटाई २,४०,००० योजन होती है तथा चारों ओर से ४,८०,००० योजन मोटाई वाले पानी के घेरे से आधारित है। पानीके चारों ओर ६,६०,००० योजन मोटाई वाले वायु का घेरा है। प्रत्येक चक्रवाल के मध्य में सिनेरू नामक पर्वत है, जिसकी ऊँचाई १,६८,००० योजन है । इसका आधा भाग समुद्र के अन्दर होता है और आधा ऊपर । सिनेरू के चारों ओर ७ पर्वत मालाएँ हैं -१. युगन्धर, २., ईसघर. ३. करविका, ४. सुदस्सन, ५. नेमिधर, ६. विनतक और ७. अस्सकण्ण । इन पर्वतों पर महाराज देव और उनके अनुचर यक्षों का निवास है। चक्रवाल के अन्दर हिमवान पर्वत है, जी १०० योजन ऊँचा है तथा ८४,००० शिखरों वाला है। चक्रवाल-शिला चक्रवाल को घेरे हुए है। प्रत्येक चक्रवाल में एक चन्द्र और एक सूर्य होता है । जिनका विस्तार क्रमशः ४६ तथा ५० योजन है। प्रत्येक चक्रवाल में त्रयस्त्रिश भवन, असुर भवन तथा अवीचिमहानिरय हैं। जम्बूद्वीप, अपरगोयान, पूर्व विदेह तथा उत्तर कुरु-चार महाद्वीप हैं तथा प्रत्येक महाद्वीप ५०० छोटे द्वीपों के द्वारा घेरा हुआ है। चक्रवालों के बीच लोकान्तरिक निरय हैं। सूर्य का प्रकाश केवल एक चक्रवाल को प्रकाशित करता है; बुद्ध के तेज से समस्त चक्रवाल प्रकाशित हो सकते हैं। चातुर्दीपिक-चार द्वीपों वाली सारी पृथ्वी पर एक ही समय बरसने वाला मेघ । चातुमहाराजिक देवता-१. धृतराष्ट्र, २. विरूढ़, ३. विरूपाक्ष और ४. वैश्रवण चातुर्महाराजिक देव कहलाते हैं। मनुष्यों के पचास वर्ष के तुल्य चातुर्महाराजिक देवों का एक अहोरात्र होता है। उस अहोरात्र से तीस अहोरात्र का एक मास, बारह मास का एक वर्ष और पांच सौ वर्ष का उनका आयुध्य होता है। ये देवेन्द्र शक्र के अधीन होते हैं। चातुर्याम-महावीर का चार प्रकार का सिद्धान्त । इसके अनुसार : १. निर्ग्रन्थ जल के व्यवहार का वारण करता है। २. निर्ग्रन्थ सभी पापों का वारण करता है । ३. निर्ग्रन्थ सभी पापों के वारण से धुतपाप हो जाता है। १. मज्झिमनिकाय २-५-१ तथा ३-३-६ और सुत्तनिपात, महावग्ग, सेलसुत्त के अनुसार चक्रवर्ती का सातवाँ रत्न परिणायकरत्न है और दीघनिकाय, महापदान तथा चक्कवति सीहनाद सुत्त के अनुसार सातवां रत्न पुत्ररत्न है । 2010_05 Page #642 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन खण्ड : १ ४. निर्ग्रन्थ सभी पापों के वारण में लगा रहता है। -बीघनिकाय, सामञफल सुत्त, १-२ दीघनिकाय, उदुम्बरिक सीहनाद सुत्त के अनुसार चातुर्याम इस प्रकार है : १. जीव-हिंसा न करना, न करवाना और न उसमें सहमत होना। २. चोरी न करना, न करवाना और न उसमें सहमत होना। ३. झूठ न बोलना, न बुलवाना और न उसमें सहमत होना। ४. पाँच प्रकार के काम-भोगों में प्रवृत्त न होना, न प्रवृत्त करना और न उसमें सहमत होना। चार द्वीप-सुमेर पर्वत के चारों ओर के चार द्वीप । पूर्व में पूर्व विदेह, पश्चिम में अपर गोयान उत्तर में उत्तर कुरु और दक्षिण में जम्बूद्वीप। वारिका-धर्मोपदेश के लिए गमन करना। चारिका दो प्रकार की होती है...१. त्वरित चारिका और २. अत्वरित चारिका। दूर बोधनीय मनुष्य को लक्ष्य कर उसके बोध के लिए सहसा गमन 'त्वरित चारिका' है और ग्राम, निगम के क्रम से प्रतिदिन योजन अर्घ योजन मार्ग का अवगाहन करते हुए, पिण्ड चार करते हुए लोकानुग्रह से गमन करन 'अत्वरित नारिका' है। चीवर-भिक्षु का काषाय-वस्त्र जो कई टुकड़ों को एक साथ जोड़ कर तैयार किया जाता है। विनय के अनुसार भिक्षु के लिए तीन चीवर धारण करने का विधान है : १. अन्तरवासक-कटि से नीचे पहिनने का वस्त्र, जो लुगी की तरह लपेटा जाता है। २. उत्तरासंग—पाँच हाथ लम्बा और चार हाथ चौड़ी वस्त्र जो शरीर के ऊपरी भाग में चद्दर की तरह लपेटा जाता है । ३. संधाटी-इसकी लम्बाई-चौड़ाई उत्तरासंग की तरह होती है, किन्तु यह दुहरी सिली रहती है। यह कन्धे पर तह लगा कर रखी जाती है। ठण्ड लगने पर या अन्य किसी विशेष प्रसंग पर इसका उपयोग किया जाता है। चैत्यगर्भ-देव-स्थान का मुख्य भाग । छन्द-राग। जंघा-विहार-टहलना। जन्साघर-स्नानागार । जम्बद्वीप-दस हजार योजन विस्तीर्ण भू-भाग, जिसमें चार हजार योजन प्रदेश जल से भरा है; अत: समुद्र कहलाता है। तीन हजार योजन में मनुष्य बसते हैं। शेष तीन हजार योजन में चौरासी हजार कूटों से शोभित चारों ओर बहती हुई पांच सौ नदियों से विचित्र पांच सौ योजन समुन्नत हिमवान् (हिमालय) है। जाति-संग्रह-अपने परिजनों को प्रतिबुद्ध करने का उपक्रम । 2010_05 Page #643 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा] परिशिष्ट-३ : बौद्ध पारिभाषिक शब्द-कोश ५८६ ज्ञानदर्शन-तत्त्व-साक्षात्कार। सप्ति-सूचना। किसी कार्य के पूर्व संघ को विधिवत् सूचित करना–यदि संघ उचित समझे तो ऐसा करे। तातिस (त्रयस्त्रिश) देवता---इनका अधिपति देवेन्द्र शक्र होता है। मनुष्यों के पचास वर्ष के बराबर एक अहोरात्र होता है। ऐसे तीस अहोरात्र का एक मास, बारह मास का एक वर्ष होता है ऐसे वर्ष से हजार दिव्य वर्षों का उनका आयुष्य होता है । तुषिल देवता-तुषित् देव-भवन में बोधिसत्त्व रहते हैं। यहाँ से च्युत होकर वे संसार में उत्पन्न होते हैं और बुद्धत्व की प्राप्ति कर परिनिर्वाण प्राप्त करते है। मनुष्यों के चार सौ वर्षों के समान इनका एक अहोरात्र होता है । तीस अहोरात्र का एक मास और बारह मास का एक वर्ष । ऐसे चार हजार दिव्य वर्षों का उनका आयुष्य होता है। थल्लच्चय-बड़ा अपराध । पाक्षिणेय-परलोक में विश्वास कर के देने योग्य दान दक्षिणा कहा जाता है । जो उस दक्षिणा को पाने योग्य हैं, वह दाक्षिणय है । बशबल-१. उचित को उचित और अनुचित को अनुचित के तौर पर ठीक से जानना, २. भूत, वर्तमान, भविष्यत के किये हुए कर्मों के विपाक को स्थान और कारण के साथ ठीक से जानना, ३. सर्वत्र गामिनी प्रतिपदा को ठीक से जानना, ४. अनेक धात (ब्रह्माण्ड), नाना घातु वाले लोकों को ठीक से जानना, ५. नाना विचार वाले प्राणियों को ठीक से जानना, ६. दूसरे प्राणियों की इन्द्रियों की प्रबलता और दुर्बलता को ठीक से जानना, ७. ध्यान, विमोक्ष, समाधि, समापत्ति के संक्लेश (मल), व्यवधान (निर्मलकरण) और उत्थान को ठीक से जानना, ८. पूर्व-जन्मों की बातों को ठीक से जानना, ६. अलौकिक विशुद्ध, दिव्य चक्षु से प्राणियों को उत्पन्न होते, मरते, स्वर्ग लोक में जाते हए देखना, १०. आश्रकों के क्षय से आश्रव रहित चित्त की विमुक्ति और प्रज्ञा की विमुक्ति साक्षात्कार। दशसहस्त्रब्रह्माण्ड-वे दस हजार चक्रवाल जो जातिक्षेत्र रूप बुद्धक्षेत्र हैं। वान पारमिता-पानी के घड़े को उलट दिये जाने पर जिस प्रकार वह बिल्कुल खाली हो आ जाता है। उसी प्रकार घन, यश, पुत्र, पत्नी व शरीर आदि का भी कुछ चिन्तन न करते - हुए आने वाले याचक को इच्छित वस्तुएँ प्रदान करना। विव्य चक्षु-एकाग्र, शुद्ध, निर्मल, निष्पाप, क्लेश-रहित, मृदु, मनोरम और निश्चल चित्त __ को पाकर प्राणियों के जन्म-मृत्यु के विषय में जानने के लिए अपने चित्त को लगाना। दीर्घ भाणक-दीघनिकाय कण्ठस्थ करने वाले प्राचीन आचार्य । टुक्कट का दोष-दुष्कृत का दोष । वेशना-अपराध स्वीकार। ____ 2010_05 . Page #644 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन द्रोण-आनाज नापने के लिए प्राचीन काल में प्रयुक्त माप । यह नाली से बड़ा होता है। ४ प्रस्थ-१ कुडवा और ४ कुडवा=१ द्रोण होता है। एक प्रस्थ गरीब पाव भर माना गया है ; अतः एक द्रोण करीब ४ सेर के बराबर होना चाहिए। धर्म-धर्म और दर्शन के बारे में भिन्न-भिन्न स्थानों पर, भिन्न-भिन्न लोगों को भिन्न-भिन्न __ परिस्थितियों में बुद्ध द्वारा दिये गए उपदेश । इन्हें सूत्र भी कहा जाता है।। धर्म कथिक-धर्मोपदेशक । धर्मचक्र प्रवर्तन - भगवान बुद्ध ने पंचवर्गोभ भिक्षुओं को जो सर्वप्रथम उपदेश दिया था, वह ___धर्मचक्र प्रवर्तन सूत्र कहा जाता है। धर्म चक्षु-धर्म ज्ञान। धर्मता-विशेषता। धर्मपातु-मन का विषय । घर्म पर्याय उपदेश । घर्म-विनय-मत। धारणा-अनुश्रावण के अनन्तर संघ को मौन देख कर कहना-"संघ को स्वीकार है। अतः मौन है, मैं ऐसा अवधारण करता हैं।" पतवादी-त्यागमय रहन-सहन वाला। धुत होता है, धोये क्लेश वाला व्यक्ति अथवा क्लेशों को धुनने वाला धर्म । जो धुतांग से अपने क्लेशों को धुन डालता है और दूसरों को धुतांग के लिए उपदेश करता है, वह धुत और धुतवादी कहलाता है । धुतांग १३ है : १ पांशुकलिकाङ्गसड़क, श्मशान कूडा, करकट के ढेरों और जहां कहीं भी धूल (पांशु) के ऊपर पड़े हुए चिथड़ों से बने चीवरों को पहिनने की प्रतिज्ञा। २. त्रैचोवरिकाङ्ग-केवल तीन चीवर-संघाटी, उत्तरासंग और अन्तरवासक को धारण करने की प्रतिज्ञा। ३. पिण्डपातिकाङ्ग-भिक्षा से ही जीविका करने की प्रतिज्ञा। ४. सापदान चारिकाङ्ग-बीच में घर छोड़े बिना एक सिरे से लेकर दूसरे सिरे तक भिक्षा करने की प्रतिज्ञा। ५. एकासनिकाङ्ग--एक ही बार भोजन करने की प्रतिज्ञा। ६. पात्रपिण्डकाङ्ग-दूसरे पात्र का इन्कार कर केवल एक ही पात्र में पड़ा पिण्ड ग्रहण करने की प्रतिज्ञा। १. आचार्य हेमचन्द्र, अभिधान चिन्तामणि कोश, ३१५५० । २. A. P. Budphadatt Mahathera, Concise, Pali-English Dictionary. pp. 154-170. ____ 2010_05 Page #645 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा] परिशिष्ट-३ : बौद्ध पारिभाषिक शब्द-कोश ५६५ ७. खलुपच्छाभत्तिकाङ्ग--एक बार भोजन समाप्त करने के बाद खलु नामक पक्षी की ___ तरह पश्चात्-प्राप्त भोजन ग्रहण न करने की प्रतिज्ञा। ८. आरण्यकाङ्ग–अरण्य में वास करने की प्रतिज्ञा। ६. वृक्ष मूलिकाङ्ग-वृक्ष के नीचे रहने की प्रतिज्ञा। १०, अन्यवकाशिकाङ्ग- खुले मैदान में रहने की प्रतिज्ञा। ११. श्मशानिकाङ्ग-श्मशान में रहने की प्रतिज्ञा। १२. यथासंस्थिकाङग-जो भी बिछाया गया हो, वह यथासंस्थित है। "यह तेरे लिए है" इस प्रकार पहले उद्देश्य करके बिछाये गये शयनासन को ग्रहण करने की प्रतिज्ञा। १३. नसाधाकाङ्ग-बिना लेटे, सोने और आराम करने की प्रतिज्ञा। ध्यान (चार)-प्रथम ध्यान में विर्तक, विचार, प्रीति, सुख और एकाग्रता, ये पाँच अंग हैं। ध्येय (वस्तु) में चित्त का दृढ़ प्रबेश वितर्क कहलाता है । यह मन को ध्येय से बाहर नही जाने देने वाली मनोवृत्ति है । प्रीति का अर्थ है-मानसिक आनन्द । काम, व्यापाद सत्यानमद्ध, औद्धत्य, विचिकित्सा; इन पाँच नीवरणों को अपने में नष्ट हुए देख प्रमोद उत्पन्न होता है और प्रमोद से प्रीति उत्पन्न होती है । सुख का तात्पर्य है-कायिक सौख्य; प्रीति से शरीर शान्त हो जाता है और इससे सुख उत्पन्न होता है। एकाग्रता का अर्थ है-समाधि । इस प्रकार काम रहितता, अकुशल धर्मों से विरहितता, सवितक सविचार और विवेक से उत्पन्न प्रीति-सुख से प्रथम प्राप्त होता है। द्वितीय ध्यान में वितर्क और विचार ; इन दो अंगों का अभाव होता है। इनके अभाव से आभ्यन्त रिक प्रसाद व चिस की एकाग्रता प्राप्त होती है। द्वितीय ध्यान में श्रद्धा की प्रबलता तथा प्रीति, सुख और एकाग्रता की प्रधानता बनी रहती है ततीय ध्यान में तीसरे अंग प्रीति का भी अभाव होता है। इसमें । प्रमुख तथा एकाग्रता की प्रधानता कहती है। सुख की भावना साधक के चित्त में विशेष उत्पन्न नहीं करती है । चित में विशेष क्षान्ति तथा समाधान का उदय होता है। चतर्थ ध्यान में चतुर्थ अंग का भी अभाव होता है । एकाग्रता के साथ उपेक्षा और स्मतिः ये दो मनोवृत्तियाँ होती हैं। इसमें शारीरिक सुख-दुःख का सर्वथा त्याग तथा राग-देख से विरहितता होती है । इस सर्वोत्तम ध्यान में सुख-दुःख के त्याग से व सौमनस्य-दौर्म नस्य के अस्त हो जाने पर चित्त सर्वथा निर्मल तथा विशुद्ध बन जाता है। नालि-अनाज नापने के लिए प्राचीन काल में प्रयुक्त माप, जो कि वर्तमान के डेढ सेर के बराबर होता था।' निदान-कारण। १. बुद्ध कालीन भारतीय भूगोल, पृ० ५५२ । ____ 2010_05 Page #646 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६२ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड : १ है निर्माणरति देवता-ये देवता अपनी इच्छा से अपने भिन्न-भिन्न रूप बदलते रहते हैं। इसी में उन्हें आनन्द मिलता है। मनुष्यों के आठ सौ वर्ष के समान इनका एक अहोरात्र होता है। तीस अहोरात्र का एक मास और बारह मास का एक वर्ष । ऐसे आठ हजार दिव्य वर्षों का उनका आयुष्य होता है । निस्सग्गिय पाचित्तय-अपराध का प्रतिकार संघ, बहुत से भिक्षु या एक भिक्षु के समक्ष स्वीकार कर उसे छोड़ देने पर हो जाता है।। नेगम-नगर-सेठ की तरह का एक अवैतनिक राजकीय पद, जो सम्भवतः श्रेष्ठी से उच्च होता है। नर्याणिक-दुःख से पार करने वाला। नवसंज्ञानासंज्ञायतन-चार अरूप ब्रह्मलोक में से चौथा। मैष्कर्म पारमिता-कारागार में चिरकाल तक रहने वाला व्यक्ति कारागार के प्रति स्नेह नहीं रखता और न वहाँ रहने के लिए ही उत्कण्ठित रहता है। उसी प्रकार सब योनियां (भवों) को कारागार समझना, उनसे ऊब कर उन्हें छोड़ने की इच्छा करना। पंचशील-१. प्राणातिपात से विरत रहूंगा, २. अदत्तादान से विरत रहूँगा, ३. अब्रह्मचर्य से विरत रहूँगा, ४. मृषावाद से विरत रहूँगा और ५. मादक द्रव्यों के सेवन से विरत रहूंगा। पटिभान-विचित्र प्रश्नों का व्याख्यान । परनिर्मित वशवी देवता- इनके निवास स्थान पर मार का आधिपत्य है। मनुष्यों के सोलह सौ वर्ष के समान इनका एक अहोरात्र होता है। तीस अहोरात्र का एक मास और बारह मास का एक वर्ष । ऐसे सोलह हजार दिव्य वर्षों का उनका आयुष्य होता है। परमार्थ पारमिता-साधना में पूर्ण रूपेण दृढ़ संकल्प होना। प्राणोत्सर्ग भले ही हो जाये, किन्तु संकल्प से विचलित न होना । परामर्थ पारमिता दस होती हैं। परिवेण-वह स्थान, जहाँ भिक्षु एकत्रित होकर पठन-पाठन करते हैं। यह स्थान चारों ओर से घिरा हुआ होता है और बीच में एक आँगन होता है। पांच महात्याग-धन, अंग, जीवन, सन्तान व भार्या का त्याग । पांच महाविलोकन-तुषित् लोक में रहते हुए बोधिसत्त्व द्वारा अपने जन्म सम्बन्धी समय, द्वीप, देश, कुल, माता तथा उसके आयु-परिणाम के बारे में सोचना। पांसुकूलिक-चीथड़ों से बने चीवरों को पहनने की प्रतिज्ञा वाला। .पाचित्तिय-आत्मालोचन पूर्वक प्रायश्चित्त करना । पाटिवेसनीय-दोषी भिक्षु संघ से निवेदन करता है-'मैंने निन्दनीय व अयुक्त कार्य किया है। मैं उसके लिए क्षमा याचना करता हूँ।" 2010_05 Page #647 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा ] परिशिष्ट-३ : बौद्ध पारिभाषित शब्दकोश पारमिता - साधना के लिए दृढ़ संकल्प होकर बैठना, जिसमें अपने शरीर की सार-सम्भाल का सर्वथा परित्याग कर दिया जाता है । पारमिता दस होती हैं । पाराजिक-मारी अपराध किये जाने पर भिक्षु को सदा के लिए संघ से निकाल दिया जाना । पिण्डपात — भिक्षु अपना पात्र लेकर गृहस्थ के द्वार पर खड़ा हो जाता है । उस समय वह दृष्टि नीचे किये और शान्त भाव से रहता है । घर का कोई व्यक्ति भिक्षा लाकर पात्र में रख देता है और वह झुक कर भिक्षु को प्रणाम करता है। मिक्षु आशीर्वाद देकर आगे बढ़ जाता है । पात्र जब पूर्ण हो जाता है तो भिक्षु अपने स्थान पर लौट आता है । निमंत्रण देकर परोसा गया भोजन मी पिण्डपात के अन्तर्गत है । पिण्डपातिक - माधुकरी वृत्ति वाला । ५६३ पुद्गल - व्यक्ति । पूर्व लक्षण - गृहत्याग के पूर्व उद्यान यात्रा को जाते हुए बोधिसत्त्व को प्रव्रज्यार्थ प्रेरित करने के लिए सम्पति ब्रह्मा द्वारा वृद्ध, रोगी, मृत और प्रव्रजित को उपस्थित करना । पृथग्जन - साधारण जन, जो कि आर्य अवस्था को प्राप्त न हुआ हो । मुक्ति-मार्ग की वे आठ आर्य अवस्थाएँ हैं— श्रोतापन्न मार्ग तथा फल, सकृदागामी मार्ग तथा फल, अनागामि मार्ग तथा फल, अर्हत् मार्ग तथा फल । प्रज्ञाप्ति-विधान । प्रज्ञा - शून्यता का पूर्ण ज्ञान । अविद्या का नाश । प्रज्ञा पारमिता - जिस प्रकार भिक्षु उत्तम, मध्यम तथा अधम कुलों में से किसी कुल को बिना छोड़े, भिक्षा माँगते हुए अपना निर्वाह करता है, उसी प्रकार पण्डित-जनों से सर्वदा प्रश्न पूछते हुए प्रज्ञा की सीमा के अन्त तक पहुँचना । प्रतीत्यसमुत्पाद - सापेक्ष कारणतावाद । प्रतीत्य - किसी वस्तु की प्राप्ति होने पर समुत्पाद, — अन्य वस्तु की उत्पत्ति । किसी वस्तु के उत्पन्न होने पर दूसरी वस्तु की उत्पत्ति । १. रूप, २. वेदना, ३. संज्ञा, ४. संस्कार और ५. विज्ञान - ये पाँच उपादन स्कन्ध हैं । प्रतिपाद - मार्ग, ज्ञान । प्रतिसंवित् प्राप्त - प्रतिसम्भिदा प्राप्त प्रभेदगत ज्ञान प्रतिसम्भिदा है । ये चार हैं : १. अर्थ- प्रतिसम्भिदा - हेतुफल अथवा जो कुछ प्रत्यय से उत्पन्न है, निर्वाण, कहे गये का अर्थ, विपाक और क्रिया - ये पाँच धर्म 'अर्थ' कहलाते हैं । उस अर्थ का प्रत्यवेक्षण करने वाले का उस अर्थ में प्रभेदगत ज्ञान अर्थ- प्रतिसम्भिदा है । २. धर्म - प्रतिसम्भिदा - जो कोई फल को उत्पन्न करने वाला हेतु, आर्य-मार्ग भाषित, कुशल, अकुशल - इन पाँचों को 'धर्म' कहा जाता है। उस धर्म का प्रत्यवेक्षण करने वाले का उस धर्म का प्रभेदगत ज्ञान धर्मप्रतिसम्भिदा है । 2010_05 Page #648 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५९४ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड : १ ३. निरुक्ति-प्रतिसम्मिदा-उस अर्थ और उस धर्म में जो स्वभाव निरुक्ति हैं, अव्यभिचारी व्यवहार है, उसके अभिलाप में, उसके कहने में बोलने में, उस कहे गये, बोले गये को सुन कर ही, यह स्वभाव निरुवित है, यह स्वभाव निरुक्ति नहीं है-ऐसे उस धर्म-निरुक्ति के नाम से कही जाने वाली स्वभाव निरुक्ति मागधी सब सत्त्वों की मूल भाषा में प्रभेदगत ज्ञान निरुक्ति-प्रतिसम्भिदा है । निरुक्तिप्रतिसम्भिदा प्राप्त स्पर्श, वेदना आदि ऐसे वचन को सुन कर ही वह स्वभाव निरुक्ति है, जानता है । स्पर्श, वेदना-ऐसे आदि को, वह स्वभाव निरुक्ति नहीं ४. प्रतिभान-प्रतिसम्भिदा-सब (विषयों) में ज्ञान को आलम्बन करके प्रत्यवेक्षण करने वाले के ज्ञान का आलम्बन ज्ञान है या यथोक्त उन ज्ञानों में गोचर और कृत्य आदि के अनुसार विस्तार से ज्ञान, प्रतिभान-प्रतिसम्भिदा है। प्रत्यन-सीमान्त। प्रत्यय-भिक्षुओं के लिए ग्राह्य वस्तुएँ । १. चीवर, २. पिण्डपात, ३. शयनासन और ५. ग्लान प्रत्यय ; भिक्षुओं को इन्हीं चार प्रत्ययों की आवश्यकता होती है। प्रत्येक बुद्ध-जिसे सब तत्त्व स्वतः परिस्फुटित होते हैं। जिसे तत्त्व-शिक्षा पाने के लिए किसी गुरु की परतंत्रता आवश्यक नहीं होती। प्रतिमोक्ष-विनयपिटक के अन्तर्गत भिक्खुपातिमोक्ख और भिक्खुनी पातिमोक्ख शीर्षक से दो स्वतन्त्र प्रकरण हैं । इनमें क्रमशः दो सौ सत्ताईस और तीन सौ ग्यारह नियम हैं । मास की प्रत्येक ऋष्ण चतुर्दशी तथा पूर्णिमा को वहाँ रहने वाले सभी भिक्षु-संघ के उपोसथा गार में एकत्रित होते हैं और प्रातिमोक्ष के नियमों की आवृत्ति करते हैं। प्रातिहार्य-चमत्कार। बल (पांच)-श्रद्धा, वीर्य, स्मृति, समाधि और प्रज्ञा । बुद्ध-कोलाहल-सर्वज्ञ बुद्ध के उत्पन्न होने के सहस्र वर्ष पूर्व लोकपाल देवताओं द्वारा लोक में यह उद्घोष करते हुए घूमना-... 'आज से सहस्र वर्ष बीतने पर लोक में बुद्ध उत्पन्न होंगे।' बुद्ध बीज-भविष्य में बुद्ध होने वाला। बुद्धश्री-बुद्धातिशय। बुद्धान्तर-एक बुद्ध के परिनिर्वाण के बाद से दूसरे बुद्ध के होने तक का बीच का समय। बोधिवृक्ष -- बोध-गया का प्रसिद्ध पोपल-वृक्ष, जिसके नीचे गौतम बुद्ध ने परम सम्बोधि प्राप्त की थी। बोधिमण्ड-बोध-गया के बुद्ध-मन्दिर का अहाता । बोधिसत्त्व-अनेक जन्मों के परिश्रम से पुण्य और ज्ञान का इतना संचय करने वाला, जिसका बुद्ध होना निश्चय होता है। ____ 2010_05 Page #649 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा] परिशिष्ट-३ : बौद्ध पारिभाषिक शब्द-कोश ५६५ बोध्यंग्ग (सात)-स्मृति, धर्मविचय, वीर्य, प्रीति, प्रक्षब्धि, समाधि आर उपेक्षा। ब्रह्मचर्य फल-बुद्ध-धर्म। ब्रह्मदण्ड-जिस भिक्ष को ब्रह्मदण्ड दिया जाता है, वह अन्य भिक्षुओं के साथ अपनी इच्छा नुसार बोल सकता है, पर अन्य भिक्ष न उसके साथ बोल सकते हैं, न उसे उपदेश कर सकते हैं और न उसका अनुशासन कर सकते हैं। ब्रह्मचर्य वास–प्रव्रज्या । ब्रह्मविहार-मैत्री, करुणा, मुदिता और उपेक्षा भावना। ब्रह्मलोक-सभी देव लोकों में श्रेष्ठ । इसमें निवास करने वाले ब्रह्मा होते हैं। भक्तच्छेद --- भोजन न मिलना। भवान--ध्यान-योग का साधक अपने ध्यान के बल पर स्थूल जगत् से सूक्ष्म जगत् में प्रवेश करता है। ऐसी गति से वह ऐसे एक बिन्दु पर पहुँचता है, जहां जगत् की समाप्ति हो जाती है। यही बिन्दु भवाग्र कहलाता है। भिन्नस्तूप--नींव-रहित। मध्यम प्रतिपदा-दो अन्तों-काम्य वस्तुओं में अत्यधिक लीनता और अत्यधिक वैराग्य से शरीर को कष्ट देना-के बीच का मार्ग । मनोमय लोक—देव लोक। महा अभिज्ञ धारिका-देखें, अभिज्ञा। महागोचर-आराम के निकट सघन बस्ती वाला। महाब्रह्मा-ब्रह्मालोक वासी देवों में एक असंख्य कल के आयुष्य वाले देव । देखें, ब्रह्मलोक । महाभिनिष्क्रमण-बोधिसत्त्व का प्रव्रज्या के लिए घर से प्रस्थान करना। माणवक-ब्राह्मण-पुत्र मार-अनेक अर्थों में प्रयुक्त । सामान्यतया मार का अर्थ मृत्यु है। मार का अर्थ क्लेश भी है. जिसके वश में होने से मनुष्य मृत्युमय संसार को प्राप्त होता है। वशवर्ती लोक के देवपुत्र का नाम भी मार है, जो अपने आपको कामावचर लोक का अधिपति मानता था। जो है कोई भी काम-भोगों को छोड़ कर साधना करता, उसको वह अपना शत्रु समझता और साधना-पथ से उसे विचलित करने का प्रयत्न करता। मुदिता-सन्तोष। मैत्री-सभी के प्रति मित्र-भाव । मैत्री चेतो विमुक्ति-'सारे प्राणी वैर-रहित, व्यापाद रहित, सुखपूर्वक अपना परिहण करें।' इस प्रकार मैत्री चित्त की विमुक्ति होती है। मैत्री पारमिता—जिस प्रकार पानी पापी और पुण्यात्मा, दोनों को ही समान रूप से शीतलता पहुंचाता है और दोनों के ही मैल को धो डालता है, उसी प्रकार हितैषी और अहितैषी, दोनों के प्रति समान भाव से मैत्री-भावना का विस्तार करना। ____ 2010_05 Page #650 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६६ __ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड : १ मैत्री सहगत चित्त-मैत्री से समन्नागत (युक्त) चित्त । यष्टि-लम्बाई का माप। २० यष्टि =१ वृषभ, ८० वृषभ --१ गावुत, ४ गावुत=१ योजन। याम देवता-मनुष्यों के दो सौ वर्षों के बराबर एक अहोरात्र है। ऐसे तीस अहोरात्र का एक मास और बारह मास का एक वर्ष। ऐसे दो हजार दिव्य वर्षों का उनका आयुष्य होता है। योजन--दो मील। लोकषातु--ब्रह्माण्ड । वशवर्ती-परनिर्मित वशवर्ता देव-मवन के देव-पुत्र । वार्षिक शाटिका-वर्षा में वस्त्र समय पर न सूखने के कारण वर्षा तक के लिए लंगो के तौर पर लिया जाने वाला वस्त्र । विज्ञानन्त्यायन-चार अरूप ब्रह्मलोक में से दूसरा। विवर्शना या विपश्यना-प्रज्ञा या सत्य का ज्ञान जो कि संस्कृत वस्तुओं की अनित्यता, दुःखता या अनात्मता के बोध से होता है। विद्या (तीन)-पुवेनुवासानिस्सति त्राण (पूर्व जन्मों को जानने का ज्ञान), चुतूपपात आण (मृत्यु तथा जन्म को जानने का ज्ञान), आसवक्खय बाण (चित्त मलों के क्षय का ज्ञान)-ये तीन त्रिविद्या कहलाती हैं। विनय-वह शास्त्र, जिसमें भिक्षु-भिक्षुणियों के नियम का विशद रूप से संकलन किया गया है। विमुक्ति-मुक्ति। विश्वकर्मा-तातिश निवासी वह देव, जो देवों में निर्माण कार्य करने वाला होता है और समय-समय पर शक के आदेशानुसार वह बुद्ध की सेवा में निर्माण-कार्यार्थ उपस्थित __ होता है। विहार-भिक्षुओं का विश्राम-स्थान । वीर्य पारमिता-जिस प्रकार मृगराज सिंह बैठते, खड़े होते, चलते सदैव निरालस, उद्योगी तथा दृढ़मनस्क होता है, उसी प्रकार सब योनियों में दृढ़ उद्योगी होकर वीर्य की सीमा के अन्त ध्याकरण-भविष्य वाणी। व्यापाद-द्रोह। शिक्षापद-भिक्षु-नियम । शील-हिंसा आदि समग्र गहित कर्मों से पूर्णत: विरति । काय-शुद्धि। शील पारमिता-चमरी जिस प्रकार अपने जीवन की परवाह न करते हुए अपनी पूंछ की ही सुरक्षा करती है। उसी प्रकार जीवन की भी परवाह न करते हुए शील की सुरक्षा के लिए ही प्रणबद्ध होना। ____ 2010_05 Page #651 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा ] परिशिष्ट - ३ : बौद्ध पारिभाषिक शब्द कोश ५६७ शैक्ष्य - अर्हत् फल को छोड़ शेष चार मार्गों तथा तीन फलों को प्राप्त व्यक्ति शैक्ष्य कहे जाते हैं; क्योंकि अभी उन्हें सांखना बाकी है। जो अर्हत् फल को प्राप्त हैं, वे ही अशैक्ष्य हैं । शौण्डिक कर्मकर- शराब बनाने वाला । श्रमण परिष्कार - भिक्षु द्वारा ग्राह्य चार प्रकार के पदार्थ : १. चीवर वस्त्र, २. पिण्डपात. भिक्षान्न, ३. शयनासन - घर और ४. ग्लान- प्रत्यय - भैषज्य — रोगी के लिए पथ्य व औषधि । श्रामणेर - प्रव्रजित हो, कपाय वस्त्रधारण करना । इस अवस्था में बौद्ध साहित्य का अध्ययन करवाया जाता है । साधक को गुरु के उपपात में रह कर, १. प्राणातिपात विरति, २ . अदत्त-विरति, ३. अब्रह्मचर्य विरति, ४. मृषावाद - विरति, ५. मादक द्रव्य - विरित ६. विकाल भोजन - विरति, ७. नृत्य-संगीत वाद्य व अश्लील हाव-भाव-विरति, ८ मालागन्ध - विलेपन आदि की विरति, ६. उच्चासन- विरति और १० स्वर्ण रजत-विरति; इन दस शीलों का व्रत लेना होता है । संगति-भवितव्यता | संघाट - जाल । संघादिसेस - अपराध की परिशुद्धि के लिए दोषी भिक्षु का संघ द्वारा कुछ समय के लिए संघ से बहिष्कृत किया जाना । संज्ञा - इन्द्रिय और विषय के एक साथ मिलने पर अनुकूल-प्रतिकूल वेदना के बाद 'यह अमुक विषय है' इस प्रकार का जो ज्ञान होता है, उसे संज्ञा कहते हैं । संज्ञा - वेदयित-निरोध- - इस समाधि में संज्ञा और वेदना का अभाव होता है । संज्ञा वेदयितनिरोध को समापन्न हुए भिक्षु को यह नहीं होता - " मैं संज्ञा वेदयित-निरोध को समापन्न होऊँगा", " मैं संज्ञा वेदयित-निरोध को समापन्न हो रहा हू", या "मैं, संज्ञावेदयित-निरोध को समापन्न हुआ ।" उसका चित्त पहले से ही इस प्रकार अभ्यस्त होता है कि वह उस स्थिति को पहुँच जाता है । इस समाधि में पहले वचन संस्कार निरुद्ध होता है, फिर काय संस्कार और फिर बाद में चित्त-संस्कार । संतुषित —– तुषित देव भवन के देव-पुत्र । संस्थागार - सभा भवन । सकृदागामी- - एक बार आने वाला । स्रोतापन्न भिक्षु उत्साहित होकर काम-राग (इन्द्रियलिप्सा) और प्रतिघ ( दूसरे के प्रति अनिष्ट करने की भावना) - इन दो बन्धनों पर विजय पा कर मुक्ति मार्ग में आरूढ़ हो जाता है। इस भूमि में आस्रव क्षय ( क्लेशों का नाश) करना प्रधान कार्य रहता है। यदि वह इस जन्म में अर्हत नहीं होता तो अधिकसे अधिक एक बार और जन्म लेता है । 2010_05 Page #652 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशोलन [खण्ड : १ सत्य पारमिता-जिस प्रकार शुक्र तारा किसी भी ऋतु में अपने मार्ग का अतिक्रमण नहीं करता, उसी प्रकार सौ-सौ संकट आने पर व धन आदि का प्रलोभन होने पर भी सत्य से विचलित न होना। सन्निपात-गोष्ठी। सब्रह्मचारी-गुरु-भाई। एक शासन में प्रवजित श्रमण। समाधि-एक ही आलम्बन पर मन और मानसिक व्यापारों को समान रूप से तथा सम्यक् __ रूप से नियोजित करना । चित्त-शुद्धि । समाधि-भावना-जिसे भावित करने पर इसी जन्म में बोधि प्राप्त होती है। सम्बोषि-बुद्धत्व। सम्यक् सम्बुद्ध-प्रवेदित-बुद्ध द्वारा जाना गया । सर्थिक महामात्य-निजी सचिव । सल्लेख वृत्ति--त्याग वृत्ति । भगवान् द्वारा बताये हुए भी निमित्त, अवभास, परिकथा की विज्ञाप्तियों को नहीं करते हुए अल्पेच्छता आदि गुणों के ही सहारे जान जाने का समय आने पर भी अवमास आदि के बिना मिले हुए प्रत्ययों का प्रतिसेवन करता है, यह परम सल्लेख वृत्ति है। ___ निमित्त कहते हैं-शयनासन के लिए भूमि ठीक-ठाक आदि करने वाले को-"भन्ते, क्या किया जा रहा है ? कौन करवा रहा है?" गृहस्थों द्वारा कहने पर "कोई नहीं" उत्तर देना अथवा जो कुछ दूसरा भी इस प्रकार का निमित्त करना। अवमास कहते हैं "उपासको, तुम लोग कहाँ रहते हो ?" "प्रासाद में भन्ते !" "किन्तु उपासको ? भिक्षु लोगों को प्रासाद नहीं चाहिए ?" इस प्रकार कहना अथवा जो कुछ दूसरा भी ऐसा अवभास करना। - परिकथा कहते हैं "भिक्षु संघ के लिए शयनासन की दिक्कत है।" कहना, या जो दूसरी भी इस तरह की पर्याय-कथा है । सहम्पति ब्रह्मा-एक महाब्रह्मा जिसके निवेदन पर बुद्ध ने धर्म का प्रवर्तन किया। अनेको प्रसंगों पर सहम्पति ब्रह्मा ने बुद्ध के दर्शन किये थे। काश्यप बुद्ध के समय में वह सहक नाम का भिक्ष था और श्रद्धा आदि पाँच इन्द्रियों की साधना से ब्रह्मलोक में महाब्रह्मा के रूप में उत्पन्न हुआ। सांवृष्टिक–दृष्ट (संदृष्ट) अर्थात् दर्शन, संदृष्ट के योग्य सांदृष्टिक है । लोकात्तर धर्म दिखाई देते हुए ही संसार-चक्र के भव को रोकता है। इसलिए वह सांदृष्टिक कहलाता सु-आल्यात-अच्छी तरह से कहा गया। सुनिर्मित–निर्माणरति देव-भवन के देव-पुत्र । सु-प्रवेदित-अच्छी तरह से साक्षात्कार किया गया। 2010_05 Page #653 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा] परिशिष्ट-३ : बौद्ध पारिभाषिक शब्द-कोश सुयाम–याम देव-भवन के देव-पुत्र। सेखिय-शिक्षापद, जिनका लघन भी दोष है। स्त्यान मद्ध-शरीर और मन का आलस्य। स्थविर-भिक्षु होने के दस वर्ष बाद स्थविर और बीस वर्ष बाद महास्थविर होता है। स्मृति सम्प्रजन्य-चेतना व अनुभव । स्रोतापत्ति-धारा में आ जाना। निर्वाण के मार्ग में आरूढ़ हो जाना, जहाँ से गिरने की कोई सम्भावना नहीं रहती है। योग-साधना करने वाला भिक्ष जब सत्काय दृष्टि, विचिकित्सा और शीलवत परामर्शक, इन तीन बन्धनों को तोड़ देता है, तब वह स्रोतापन्न कहा जाता है। स्रोतापन्न व्यक्ति अधिक-से-अधिक सात बार जन्म लेकर निर्वाण प्राप्त कर लेता है। 2010_05 Page #654 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2010_05 Page #655 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट-४ प्रयुक्त-ग्रन्थ ____ 2010_05 Page #656 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2010_05 Page #657 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम-साहित्य १. अणुत्तरोववाइयवसांग सूत्र : (जैन आगम) : सं० एम० सी० मोदी, प्र० गुर्जर ग्रन्थ रत्न कार्यालय, अहमदाबाद, १६३२ २. अणुत्तरोववाइयवसांग सूत्र : अमयदेवसूरि की वृत्ति सहित, प्र० आत्मानन्द जैन सभा, भावनगर १६२१ ३. अन्तगडदसाग सूत्र (जैन आगम) : सं० एम० सी० मोदी, प्र० गुर्जर ग्रन्थ-रत्न कार्यालय, अहमदाबाद, १६३२ ।। ४. अन्तगडदसांग सूत्र : अभयदेव सूरि कृत वृत्ति, प्र० जनधर्म प्रसारक सभा, माव नगर, १६३३ ५. आचारांग सूत्र (जैन आगम) : शीलांकाचार्य कृत वृत्ति सहित, प्र० आगमोदय समिति, सूरत, १९३५ ।। ६. आचारांग सूत्र (हिन्दी अनुवाद) : अनु० मुनि सौभाग्यमल, सं० वसन्तीलाल __नलवाया, प्र. जैन साहित्य समिति, उज्जैन, १९५० ७. आदि पुराण : आचार्य जिनसेन, सं० पण्डित पन्नालाल जैन, प्र. भारतीय ज्ञान पीठ, काशी, १६६३ ८. मावश्यक चूणि (२ माग) : रचयिता जिनदास गणि, प्र. ऋषभदेव केशरीमल ___ संस्था, रतलाम, १९२८ ६. आवश्यक नियुक्ति : आचार्य भद्रबाहु, मलयगिरि वृत्ति सहित, प्र. आगमोदय समिति, बम्बई, १९२८ १०. आवश्यक नियुक्ति : आचार्य भद्रबाहु, हारिभद्रीय वृत्ति सहित, प्र आगमोदय समिति, बम्बई १९१६ ११. मावश्यक नियुक्ति दीपिका (३ भाग) : माणिक्यशेखर, सूरत, १९३९ १२. उत्तर पुराण : आचार्य गुणमद्र, प्र० भारतीय ज्ञानपीठ, वाराणसी, १९५४ १३. उत्तरज्झयणाणि जैन आगम (हिन्दी अनुवाद सहित, वाचना प्रमुख आचार्य तुलसी, श्री जैन श्वेताम्बर तेरापंथी महासभा, कलकत्ता १, १९६८ १४. उत्तराध्ययन सूत्र : नेमिचन्द्र कृत वृत्ति सहित, बम्बई, १६३७ १५. उत्तराभ्ययन सूत्र : भावविजयजी कृत टीका, प्र० आत्मानन्द जैन समा, भावनगर ____ 2010_05 Page #658 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०४ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड : १ १६. उत्तराध्ययन सूत्र : (४ भाग) : लक्ष्मीवल्लभ कृत टीका, अनु० पं० हीरालाल हंसराज, प्र० मणिवाई राजकरण, अहमदाबाद, १६३५ १७. उपदेश प्रासाद (चार खण्ड) : लक्ष्मीविजय सूरि, प्र० जैन धर्म प्रसारक सभा, भावनगर, १६१४-१६२३ १८. उपदेश माला (सटीक) : धर्मदास गणि, टीकाकार रामविजय गणि, प्र० हीरालाल हंसराज; जामनगर, १९३४ १६. उपासकवसांग सूत्र (जैन आगम) : सं० व अनु० (अंग्रेजी) एन० ए० गोरे, प्र० ओरियन्टल बुक एजेन्सी, पूना. १६५३ २०. उववाई सुत्त (हिन्दी अनुवाद) : अनु० मुनि उमेशचन्द्रजी 'अणु,' प्र० अखिल भारतीय साधुमार्गी जैन संस्कृति रक्षक संघ, सैलाना (म० प्र०), १९६३ २१. ऋषि मण्डल वृत्ति : धर्मघोष सूरि (शुभवर्द्धन गणि संस्कृत टीका व शास्त्री हरि शंकर कालीदास कृत गुजराती अनुवाद सहित), प्र० श्री जैन विद्याशाला, डोशी वाडानी पोल, अहमदाबाद, १६०१ २२. औपपातिक (उववाई) सूत्र (जैन आगम) : अभयदेव सूरि वृत्ति सहित, प्र० देवचन्द लाल भाई पुस्तकोद्धार फण्ड, सूरत, १६३७ २३. कल्प सूत्र (जैन आगम):प्र० साराभाई मणिलाल नवाब, अहमदाबाद, १९४१ २४. कल्प सूत्र (बंगला अनुवाद) : अनु० डा० बसन्तकुमार चट्टोपाध्याय, प्र० कलकत्ता विश्वविद्यालय, कलकत्ता २५. कल्प सूत्र--कल्पपद्म कलिका वृत्ति सहित (हिन्दी अनुवाद) : प्र० कोटा छबड़ा का जैन श्वे० संघ, १६३३ २६. कल्प सूत्र कल्पलता व्याख्या :प्र० बेलजी शिवजी कुंपनी, दाणा बन्दर, बम्बई, १९१८ .. २७. कल्प सूत्र कस्पार्थ बोधिनी व्याख्या सहित : सं० बुद्धिसागर गणि, प्र० जिनदत्त सूरि ज्ञान भण्डार, बम्बई, १६४२ , २८. कल्प सूत्रार्थ प्रबोधिनी : राजेन्द्र सूरि, प्र० राजेन्द्रप्रवचन कार्यालय, खुडाला, १६३३ ::२६. कल्प सूत्र-बालावबोष : बुद्धविजय ३०. कहावली : भद्रेश्वर, सं० डॉ० यू० पी० शाह, प्र० गायकवाड ओरियन्टल सिरीज बड़ौदा ३१. गोम्मट सार : नेमिचन्द्राचार्य सिद्धान्तचक्रवर्ती, पाढम निवासी पं० मनोहरलाल __कृत वृत्ति, प्र० श्री परमश्रुतप्रभावक मण्डल, बम्बई, १९१३ ३२. चउपन्न महापुरिस चरियं : शीलाचार्य ३३. चित्र कल्प सूत्र : सं० साराभाई मणिलाल नवाब, अहमदाबाद, १९४१ ३४. जम्बूद्वीप पण्णत्ति सूत्र (जैन आगम) : शान्तिचन्द्र गणि विहित वृत्ति सहित, (भगि १, २), प्र. देवचन्द लालभाई पुस्तकोद्धार फण्ड, सूरत, १९२० ____ 2010_05 Page #659 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा] परिशिष्ट-४ : प्रयुक्त-ग्रन्थ ६०५ ३५. जयघवला वृत्ति (कषायपाहुड) : वीरसेनाचार्य, सं० पं० मूलचन्द सिद्धान्तशास्त्री पं० कैलाशचन्द्र सिद्धान्त शास्त्री, प्र० भा० दि० जैन संघ, मथुरा, १९६१ ३६. ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र (जैन आगम) : अभयदेव सूरि वृत्ति सहित, सं० आचार्य चन्द्र सागर सूरि, प्र० सिद्ध चक्र साहित्य प्रचारक समिति सूरत, १६५१ ३७. ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र (हिन्दी अनुवाद सहित) : सं० पं० शोभाचन्द्र भारिल्ल, प्र० श्री तिलोक रत्न स्था० जैन धार्मिक परीक्षा बोर्ड, पाथड़ी, अहमदाबाद, १६६४ ३८. तत्त्वार्थ भाष्य : उमास्वाति, प्र० रायचन्द जैन शास्त्रमाला, हीराबाग, बम्बई, १९०६ ३६. तपागच्छ पट्टावली : धर्मसागर गणि, सं० पं० कल्याणविजयजी, भावनगर, १६४० ४०. तित्त्थोगाली पइन्नय (जैन ग्रन्थ) : अप्रकाशित ४१. तिलोयपण्णत्ति : आचार्य यतिवृषभ, सं० हीरालाल जैन व ए० एन० उपाध्ये, प्र० जैन संस्कृति संरक्षक संघ, शोलापुर, १९५१ ४२. त्रिलोकसार : आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती, अनु० पं० टोडरमलजी, प्र० हिन्दा जैन साहित्य प्रसारक कार्यालय, बम्बई, १६११ ४३. त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्रम् : आचार्य हेमचन्द्र, प्र. जैनधर्म प्रसारक सभा, भावनगर, १६०६-१३ ४४. त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र (गुजराती अनुवाद) (४ भाग) : आचार्य हेमचन्द्र, प्र० जैन धर्म प्रसारक सभा, भावनगर ४५. दर्शन सार : देवसेनाचार्य, सं० पं० नाथूराम 'प्रेमी', प्र० जैन ग्रन्थ-रत्नाकर कार्यालय, बम्बई, १९२० ४६. दशवकालिक सूत्र (जैन आगम) : वाचना प्रमुख आचार्य श्री तुलसी, प्र० जन श्वे० तेरापंथी महासभा, कलकत्ता, १९६३ ४७. दशवकालिक चूणि : अगस्त्य सिंह, प्र० प्राकृत टेक्स्ट सोसाइटी, अहमदाबाद ४८. दशवकालिक चूणि : श्री जिनदास गणि महत्तर, प्र० देवचन्द लालभाई जवेरी, सूरत, १६३३ ४६. दशाश्रुतस्कन्ध (जैन आगम) : सं व अनु, आत्मारामजी महाराज, प्र० जैन शास्त्रमाला, लाहौर, १६३६ ५०. धर्मरत्न प्रकरण : श्री शान्ति सूरि, प्र० आत्मानन्द जैन सभा, भावनगर, १९२५ ५१. निरयावलियाओ (जैन आगम) : सं० ए० एस० गोपाणी, बी० जे० चोकशी, प्र० शम्भूभाई जमसी साह, प्र० गुर्जर ग्रन्थ-रत्न कार्यालय, अहमदाबाद, १९२७ ५२. निरयावलियाओ (जैन आगम) : चन्द्रसूरि, संस्कृत टीका सहित, प्र० आगमोदय समिति, सूरत, १६२१ ____ 2010_05 Page #660 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०६ आगम और त्रिपिटक:। [खण्ड : १ ५३. निरयावलिका (सुन्दर बोधि व्याख्या तथा हिन्दी-गुर्जर भाषानुवाद सहित) : घासीलालजी महाराज, प्र० अ० भा० श्वे० स्था० जैन शास्त्रोदार समिति, राजकोट, सौराष्ट्र, १९६० ५४. निशीथ सत्र (जैन आगम) : सभाष्य चूणि सहित : सं० उपाध्याय कवि श्री अमर मुनि, मुनि श्री कन्हैयालाल 'कमल', प्र० सन्मति ज्ञानपीठ, आगरा, १९६० ५५. पंचकल्प-भाष्य : सङ्घदास गणि ५६. पंच वस्तुक : आचार्य हरिभद्र सूरि, प्र० देवचन्द लालभाई जैन पुस्तकोद्धार फण्ड, सूरत, १९२७ ५७. परिशिष्ट पर्व ; आचार्य हेमचन्द्र, सं० सेठ हरगोविन्ददास, प्र. जैन धर्म प्रचारक सभा, भावनगर, १६५७ ५८. परिशिष्ट पर्व : आचार्य हेमचन्द्र, सं० डॉ० हर्मन जेकोबी, प्र० एशियाटिक सोसाइटी ऑफ बंगाल, कलकत्ता, १९३२ ५६. भगवती सूत्र (जैन आगम) : अभयदेव सूरि वृत्ति सहित, प्र० ऋषभदेवजी केशरीमलजी जैन श्वेताम्बर संस्था, रतलाम, १६३७ ६०. भगवती सूत्र (गुजराती अनुवाद सहित) : सं० और अनु० ५० बेचरदास दोशी, भगवानदास हरखचन्द दोशी, जिनागम प्रकाशक सभा, अहमदाबाद, १९२२-३१ ६१. भरतेश्वर बाहुबली वृत्ति (२ भाग) : शुभशील गणि, प्र. देवचन्द लालभाई जैन पुस्तकोद्धार फण्ड, सूरत, १६३२ ६२. भाव संग्रह : आचार्य देवसेन, सं० पन्नालाल सोनी, प्र. माणिक्यचन्द्र दिगम्बर जैन ग्रन्थमाला समिति, हिन्दी ग्रन्थ-रत्नाकर कार्यालय, बम्बई, १९२१ १३. महावीर चरियं : गुणचन्द्र, प्र० देवचन्द्र लालभाई जैन पुस्तकोद्धार फण्ड, सूरत ६४. महावीर चरियं : नेमिचन्द्र, प्र० आत्माराम सभा, भावनगर, १९२६ १५. महावीर स्वामी नो संयम धर्म (सूत्रकृतांग नो छायानुवाद) : अनु गोपालदास जीवाभाई पटेल, प्र० नवजीवन कार्यालय, अहमदाबाद, १९३५ ६६.बंगचूलिया (जैन पइन्ना ग्रन्थ) : यशोभद्र, प्र० मड़यता, फलौदि, मारवाड़ १९२३ ७. विचार श्रेणी : आचार्य मेरुतुंग, प्र० जैन साहित्य संशोधक (पत्रिका), पूना, मई १६२५ ६८. विविध तीर्थकल्प : आचार्य जिनप्रभ सूरि, सं० जिनविजय मुनि, प्र० भारतीय विद्यापीठ, सिंघी जैन ग्रन्थमाला, ग्रन्थांक १०, शन्तिनिकेतन, बंगाल, १९३४ E६. विशेषावश्यक भाष्य (सटीक) जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण, वृत्तिकार-कोटयाचार्य, प्र० ऋषभदेव केशरीमल श्वे० संस्था, रतलाम, १६३६-३७ ७०.विशेष आवश्यक भाष्य (सटीक गुजराती अनुवाद) : अनु० चुन्नीलाल हुकुमचन्द, प्र० आगमोदय समिति, बम्बई, १९२३ ____ 2010_05 Page #661 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा] परिशिष्ट-४ : प्रयुक्त-ग्रन्थ ६०७ ७१. व्यवहार सूत्र सभाष्य (जैन आगम) : मलयगिरि वृत्ति सहित, सं० मुनि माणोक, प्र० वकील त्रिकमलाल अगरचन्द, अहमदाबाद, १९२८ । ७२. षत्खण्डागम (धवला टीका) : आचार्य वीरसेन, सं० हीरालाल जैन, प्र० सेठ सितावराय लखमीचन्द, अमरावती (बरार), १९४१-५७ ७३. समवायांग सूत्र (जैन आगम) : अभयदेव सूरि वृत्ति सहित, सं० मास्टर नगीन दास नेमचन्द, प्र० सेठ माणेकलाल चुन्नीलाल, कान्तीलाल चुन्नीलाल, अहमदा बाद, १९३८ ७४. सूत्रकृतांग सूत्र (जैन आगम) : शीलांकाचार्य वृत्ति सहित, सं० पन्यासप्रवर श्रीचन्दसागर गणि, प्र० श्री गौडीजी पार्श्वनाथ जैन देरासर पेडी, बम्बई, १९४६ ७५. सूत्रकृतांग सूत्र (सटीक हिन्दी अनुवाद सहित) : अनु० पं० अम्बिकादत्त ओझा, ___व्याकरणाचार्य, प्र० श्री महावीर जैन ज्ञानोदय सोसाइटी, राजकोट, १९३८ ७६. सूत्रकृतांग सूत्र (हिन्दी अनुवाद) : अनु० राहुल सांकृत्यायन, प्र० सूत्रागम प्रकाशन समिति, गुडगांव (केण्ट), पंजाब, १९६१ ७७. सेन प्रश्न (प्रश्न रत्नाकराभिध : श्री सेन प्रश्न) : संग्रहकर्ता-श्रीशुभविजय गणि, प्र० देवचन्द लालभाई जैन पुस्तकोद्धार फण्ड, बम्बई, १६१८ ७८. सौभाग्यपंचम्यादि पर्वकथा संग्रह : क्षमाकल्याण कोपाध्याय, प्र. हिन्दी जैनागम प्रकाशक सुमति कार्यालय, कोटा, १६३३ ७६. स्थानांग सूत्र (जैन आगम) : अभयदेव सूरि वृत्ति सहित, प्र. आगमोदय समिति, सूरत, १९२० ८०. स्थानांग समवायांग (गुजराती अनुवाद) अनु० दलसुख मालवणिया, प्र. गुजरात विद्यापीठ, अहमदाबाद, १९५५ ८१. हरिवंश पुराण : जिनसेन सूरि, सं० पं० पन्नालाल जैन, प्र० भारतीय ज्ञानपीठ, काशी, १९६३ ८२. Antagaddosao Tr. by L. D. Barnett, London, 1907 ८३. Avasyaka Erzeulang(German Translation of Avasyaka katha): Tr. by Ernst Leumann, Leipzig, 1897 .. ८४.Gaina Sutras, part I (Acharanga Sutra & Kulpa Sutra): Tr. by Dr. Hermann Jacobi, Pub. Sacred Books of the East series, vol. XXII, Orford, 1884 ८५. Gaina Sutras, Part II (Sutrahritang Sutra & Uttradhyana Sutra): Tr. by Dr. Hermann Jacobi, Sacred Books of the East series, vol. XLV, Oxford, 1899 2010_05 Page #662 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०८ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड : १ ८६. Trisastisalakapurusacarira (4vol.) : Tr. by H. M. Johnson, Pub. by Gaekvad Oriental Series, Baroda. 1930 ८७. Uvasagdasao (2 Parts): Tr. 4. Ed. by A. F. Rudolf Hoernle, Pub. Bibliotheca Indica, Calcutta, 1888-1890 त्रिपिटक-साहित्य ८८. अंगुत्तर निकाय (हिन्दी अनुवाद) (भाग, १, २) : अनु० भदन्त आनन्द कोस . ल्याययन, प्र० महाबोधि सभा कलकत्ता, १९५७-१९६३ ८६. अंगुत्तर निकाय अटुकथा (मनोरथपूरणी) : आचार्य बुद्धघोश, सं० हर्मन कोप, प्र. . पालि टेक्स्ट सोसायटी के लिए ल्युझाक एण्ड कम्पनी, लन्दन, १६२४-१९५६ १०. मंगुत्तर निकाय पालि (त्रिपिटक) (४ खण्ड): सं० भिक्षु जगदीश कास्यप, प्र० ____पालि प्रकाशन मण्डल, नवनालन्दा महाविहार, नालन्दा, बिहार राज्य, १९६० ६१. अनागत-वंश : सं० मेनयेफ, प्र० जर्नल ऑलि टेक्स्ट सोसायटी, १८८६ ६२. अपदान पालि (खुद्दक निकाय खण्ड ६, ७ के अन्तर्गत) (त्रिपिटक) (२ खण्ड): सं० भिक्षु जगदीश कास्यप, प्र० पालि प्रकाशन मण्डल, नवनालन्दा महाविहार, नालन्दा, बिहार राज्य, १९५६ ६३. अवदान कल्पलता (बौद्ध संस्कृत ग्रन्थ) (२ खण्ड) : क्षेन्मेन्द्र सं० शरत्चन्द्रदास और पं० हरिमोहन विद्याभूषण, प्र० बिब्लिओथेका इण्डिका, कलकत्ता, १८८८ १४. अवदान-शतकम् (बौद्ध संस्कृत ग्रन्थावली-१६) : सं० डॉ० पी० एल० वैद्य, प्र. मिथिला विद्यापीठ, दरभंगा, १९५८ ६५. इतिवुक्तक पालि : सं० भिक्षु जगदीश कास्यप, प्र. पालि प्रकाशन मण्डल, नवनालन्दा महाविहार, नालन्दा, बिहार राज्य, १९५६ ६६. इतिवुत्तक (हिन्दी अनुवाद) : अनु० भिक्षु धर्मरक्षित, प्र. महाबोधि समा, सार नाथ, १९५५ ६७. उदान अट्टकथा (परमत्थदीपनी) : आचार्य धम्मपाल, प्र० पालि टेक्स्ट सोसायटी लन्दन, १९२६ १८. उदान पालि : सं० भिक्षु जगदीश कास्यप, प्र. पालि प्रकाशन मण्डल, नवनालन्दा महाविहार, नालन्दा, बिहार राज्य, १९५६ ६६. उदान (हिन्दी अनुवाद) : अनु० भिक्ष जगदीश कास्यप, प्र. महाबोधि सभा, सारनाथ, १६३८ । १००.गिलिंगट मैनस्किप्ट्स (विनयवस्तु) (बौद्ध संस्कृत ग्रन्थ) (३ खण्ड' : सं०डॉ. नलिनाक्ष दत्त, प्रो. डी० एम० भट्टाचार्य तथा विद्यावारिधि पं० शिवनाथ शर्मा, श्रीनगर, कश्मीर १६४२ ____ 2010_05 Page #663 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा] परिशिष्ट-४ : प्रयुक्त-ग्रन्थ ६०६ १०१. जातकट्टकथा पालि (प्रथम भाग) : आचार्य बुद्धघोष, सं० भिक्षु धर्मरक्षित, प्र. मारती ज्ञानपीठ, बनारस, १९५१ १०२. जातकट्ठकथा (७ खण्ड) : आचार्य बुद्धघोष, सं० वी० फाउसबोल, लन्दन १८७७ १८९७ १०३. जातक (अट्ठकथा सहित हिन्दी अनुवाद) (खण्ड १ से ६) : अनु० भदन्त आनन्द कौसल्यायन, प्र० हिन्दी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग १६५६ १०४. जातक पालि (त्रिपिटक) : सं० भिक्षु जगदीश कास्यप, प्र० पालि प्रकाशन मण्डल, नवनालन्दा महाविहार, नालन्दा, बिहार राज्य, १६५६ १०५. थेरगाथा पालि (परमत्थदीपना) (२ खण्ड) : आचार्य धम्मपाल, सं० एफ० एल० वुडवार्ड,प्र० पालि टेक्स्ट सोसायटी के लिए ल्युझाक एण्ड कम्पनी, लन्दन १९४० १६५६ १०६. थेरगाथा पालि (त्रिपिटक) (खुद्दक निकाय खण्ड २ के अन्तर्गत) : भिक्षु जगदीश कास्यप, प्र० पालि प्रकाशन मण्डल, नवनालन्दा, महाविहार नालन्दा, बिहार राज्य, १९५६ १०७. येरगाथा (हिन्दी अनुवाद) : अनु० भिक्षु धर्मरत्न, एम० ए०, प्र. महाबोधि सभा, सारनाथ, बनारस, १९५५ १०८. थेरीमाथा अट्ठकथा (परमत्थदीपनी) : आचार्य धम्मपाल, सं० ई० मूलर, प्र. पालि टेक्स्ट सोसायटी, लन्दन, १८६३ १०६, थेरीगाथा पालि (त्रिपिटक) (खुद्दक निकाय खण्ड २ के अन्तर्गत) : सं० भिक्ष जगदीश कास्यप, प्र० पालि प्रकाशन, नवनालन्दा महाविहार, नालन्दा, बिहार राज्य, १९५६ ११० थेरीगाथा (हिन्दी अनुवाद) : अनु० भरतसिंह उपाध्याय, प्र० सस्ता साहित्य मण्डल प्रकाशन, दिल्ली, १९५० १११. दिव्यवादान (बौद्ध संस्कृत ग्रन्थावली-२०) : सं० डॉ० पी० एल० वैद्य, प्र० मिथिला विद्यापीठ, दरभंगा, १९६० ११२. दीघनिकाय अटकथा (सुमंगलविलासिनी) (३ खण्ड) : आचार्य बुद्धघोष, प्र० पालि टेक्स्ट सोसायटी, लन्दन १८८६-१९३२ ११३. बीघनिकाय पालि (त्रिपिटक) (३ खण्ड) : सं० भिक्षु जगदीश कास्या, प्र० पालि प्रकाशन मण्डल, नवनालन्दा महाविहार, नालन्दा, बिहार राज्य, १६५८ ११४. दीघनिकाय (हिन्दी अनुवाद) : अनु. राहुल सांकृत्यायन, प्र० महाबोधि सभा, सारनाथ, बनारस, १६३६ ११५. दीपवंश (सिलोनी पालि ग्रन्थ) : सं० और अनु० ओल्डनबर्ग, प्र० विलियम्स एण्ड नोर्गेट, लन्दन, १८७६ 2010_05 Page #664 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१० आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड : १ ११६. धम्मपद अट्ठकथा (५ खण्ड) : आचार्य बुद्धघोष, सं० एच० सी नॉरमन, प्र० पालि टेक्स्ट सोसायटी, लन्दन, १९०६-१६१५ ११७. धम्मपद पालि : सं० भिक्ष जगदीश कास्यप, प्र० पालि प्रकाशन मण्डल, नव नालन्दा महाविहार, नालन्दा, बिहार राज्य, १६५६ ११८. धम्मपद (कथाओं सहित हिन्दी अनुवाद) : अनु० त्रिपिटकाचार्य भिक्षु धर्मरक्षित, एम० ए०, मास्टर खेलाडीलाल एण्ड सन्स. संस्कृत बुक डिपो, कचौड़ी गैली, वाराणसी-१, (द्वितीय संस्करण), १९५६ ११६. पेटावत्थु अट्ठकथा : सं० ई० हाडी,' प्र० पालि टेक्स्ट सोसायटी, लन्दन, १६०१ १२०. बुद्धचरित (हिन्दी अनुवाद सहित) (२ भाग) : अश्वघोष, सं० और अनु सूर्य नारायण चौधरी, प्र. संस्कृत भवन, कठौतिया, जिला-पुणिया, बिहार १९४३ १९५३ १२१. भगवान बुद्ध ना पचास धर्म संवादो (मज्झिम निकाय का गुजराती अनुवाद) : अनु० धर्मानन्द कोसम्बी, प्र० गुजरात विद्यापीठ, अहमदाबाद, १९५१ १२२. मंजुश्री मूलकल्प (बौद्ध संस्कृत ग्रन्थ) : सं० टी० गणपति शास्त्री, प्र. त्रिवेन्द्रम् संस्कृत सिरीज, १६२७ १२३. मज्झिम निकाय अट्ठकथा (पपञ्चसदनी) (५ खण्ड) : आचार्य बुद्धघोष, सं० आई० बी० हॉरनर, प्र० पालि टेक्स्ट सोसायटी के लिए आक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस, १६२२-१६३८ १२४. मझिम निकाय पालि (त्रिपिटक) (३ खण्ड) : सं० भिक्ष जगदीश कास्यप, प्र० पालि प्रकाशन मण्डल, नवनालन्दा महाविहार, नालन्दा, बिहार राज्य, १९५८ १२५. मज्झिम निकाय (हिन्दी अनुवाद) : अनु० राहुल सांकृत्यायन' प्र० महाबोधि सभा, सारनाथ, बनारस, १६३३ १२६. महायान सूत्र संग्रह (ौद्ध संस्कृत ग्रन्थावली-१७) सं० डॉ० पी० एल० वैद्य, प्र० मिथिला विद्यापीठ, दरभंगा, १९६१ १२७. महावंश (सि नोनी पालि ग्रन्थ) : सं० गाइगर, प्र० पालि टेक्स्ट सोसायटी, लन्दन, १६१२ १२८. महावंश (हिन्दी अनुवाद): अनु० भदन्त आनन्द कौसल्यायन, प्र. हिन्दी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग, १९५६ १२६. महावस्तु (बौद्ध संस्कृत ग्रन्थ) (३ खण्ड) : सं० सेनार्ट, पेदिस, १८८२-१८९७ १३०. मिलिन्द पञ्हो (पालि) : सं० आर० डी० बडेकर, प्र० बम्बई विश्वविद्यालय, बम्बई १६४० १३१. मिलिन्द प्रश्न (हिन्दी अनुवाद) : अनु० भदन्त आनन्द कौसल्यायन, प्र. ____ 2010_05 Page #665 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा] परिशिष्ट ४:प्रयुक्त-ग्रन्थ १३२. विनयपिटक अट्ठकथा (समन्तपासादिका) (७ खण्ड) : आचार्य बुद्धघोष, सं० जे० टाकाकुसु, मकोटो नगाई, प्र० पालि टेक्स्ट सोसायटी, लन्दन, १९४७ १३३. विनयपिटक अटुकथा (समन्तपासादिका) (२ भाग) : प्र० सं० डॉ० नथमल टांटिया, सं० वीरबल शर्मा, प्र. नवनालन्दा महाविहार, नालन्दा, १९६५ १३४. विनयपिटक पालि (त्रिपिटक) (५ खण्ड) : सं० भिक्षु जगदीश काश्यप, प्र० पालि प्रकाशन मण्ड न. नवनालन्दा महाविहार, नालन्दा, बिहार राज्य, १९५६ १३५. विनयपिटक (हिन्दी अनुवाद) : अनु० राहुल सांकृत्यायन, प्र० महाबोधि सभा, सारनाथ, बन रस, १६३५ १३६. ललित-विस्तर (बौद्ध संस्कृत ग्रन्थावली-१) : सं० डॉ० पी० एल० वैद्य, प्र० मिथिला विद्यापीठ, दरभंगा, १९५८ १३७. संयुत्तनिकाय अट्ठकथा (सारत्थपकासिनी) : आचार्य बुद्धघोष, सं० एफ. एल. वुडवार्ड, प्र. पालि टेक्स्ट सोसायटी, लन्दन, १९२६-१९३७ १३८. संयुत्तनिकाय पालि (त्रिपिटक) (४ खण्ड) : सं० भिक्ष जगदीश काश्यप, प्र० पालि प्रकाशन मण्डल, नवनालन्दा महाविहार, नालन्दा, बिहार राज्य, १९५६ १३६. संयुत्तनिकाय (हिन्दी अनुवाद) (भाग १, २) : अनु० भिक्ष जगदीश काश्यप, त्रिपिटकाचार्य भिक्ष धर्मरक्षित, प्र० महाबोधि सभा, सारनाथ, बनारस, १९५४ १४०. सद्धर्मपुण्डरीक सूत्रम् (बौद्ध संस्कृत ग्रन्थावली-६) : सं० डॉ० पी० एल० वैद्य, प्र० मिथिला विद्यापीठ, दरभंगा, १९६१ १४१. सुत्तनिपात अट्ठकथा (परमत्थजोतिका) (२ खण्ड) : आचार्य बुद्धघोष, प्र० पालि टेक्स्ट सोसायटी, लन्दन, १६१६-१६१८ १४२. सृत्तनिपात पालि (त्रिपिटक) (खुद्दक निकाय खण्ड १ के अन्तर्गत) : सं० मिक्ष जगदीश काश्यप, प्र० पालि प्रकाशन मण्डल, नवनालन्दा महाविहार, नालन्दा, बिहार राज्य, १९५६ १४३. सुत्तनिपात (हिन्दी अनुवाद सहित): अनु० भिक्षु धर्मरत्न, एम० ए०, प्र० महा बोधि सभा, सारनाथ, वाराणसी, (द्वितीय संस्करण), १९६० १४४. The Book of Discipline (Eng. Tr. of Vinava Pitaka(5 vols.): T by I. B. Horner, Pub. for Pali Text Society by Luzac & Co. London, (Second edition), 1949-1952 १४५. The Book of Gradual Sayings (Eng. Tr. of Anguttara Nikaya) Vols. I, II & V) : Tr. by F.L. Woodward; (vols. III & IV): Tr. by E.M. Hare, Pub. for Pali Text Society by Luzac & Co., London (Second edition), 1951-55 १४६. The Book of Kindred Sayings (Eng. Tr. of Samyutta Nikaya) (Vols. I & II) Tr. by Mrs. Rhys Davids; (Vols. III, IV & V): Tr, by F.L. Woodward, Pub. for Pali Text Society by Luzac & Co., London, (Second edition), 1950-56 ___ 2010_05 Page #666 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन (203: 984. Buddhism in Translation (Eng. Tr. of selected chapters of Bnddhist scriptures) : Tr. by Henry Clarke Warren, Ed. by Charles Rockwel Leumann, Pub. Harward Oriental Series, Cambridge Mass. Harward University, 1953 985. Buddhist Legends (Eng. Tr. of Dhammapada-Atthukatha) (3 Vols.), Tr. by E. W. Burlinghame, Pub. Hardward Oriental Series, Cambridge Massachusetts Hardward University, 1921 PXE. Buddhist Mahayana Texts (Eng. Tr. of Amitayrudhyana Sutra & other Mahayana S r. by F. Max Muller & J. Takakusu, 840. Buddhist Sutras (Eng. Tr. of seven important Buddhist suttas): Tr. by T.W. Rhys Davids, Pub. Sacred Books of the East Series, Vol. XI, Oxford, 1900 PX?. Dhammapada (Eng. Tr.) Tr. by F. Max Muller. Sacred Books of the East Series, Vol. X, part 1, Oxford, 1881 888. Dhammapada( With Accompanying Narratives) Tran. from the Chinese): Tr. by Samual Beal, Pub. Susil Gupta (India) Ltd., Calcutta-12, (Second edition), 1952 $43. Dialogues of the Buddha (Eng. Tr. of Digha Nikaya (3 vols.) : Tr. by T.W. Rhys & C.A.F. Rhys Davids &C.A.F. Rhys Davids Pub. Sacred Books of the Buddhists Series, Vol. II to IV, Oxford, London, 1899-1921 848. Dipavamsa (Eng. Tr. with Pali Text): Ed. & Tr. by H. Olden berg, London & Edinburgh, 1879 $44. Further Dialogues of the Buddha (Eng. Tr. of Majjhimanikaya) (2 vols.) : Tr. by Lord Chalmers, Pub. Sacred Books of the Buddhists Series, Vol V, VI, London, 1926-27 848. Jataka (Eng. Trans.) 7 vols.): Tr. under the Editorship of E.B. Cowell, Cambridge, 1895-1913 849. Mahavamsa (Eng. Trans.): Tr. by W. Geiger, assisted by Mabel Haynes Bode, Pub. Pali Text Sociсty, London, 1912 945. Mahavamsa (Eng. Trans.) (3 Vols.): Tr. by J. J. Jones, Pub. Sacred Books of the Buddhists Series, Vol. XXVII, Luxac & Co., London, 1952-1956 XE. Psalms of Brethern (Eng. Trans. of Therigatha): Tr. by Mrs. Rhys Davids, London, 1913 2010_05 Page #667 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा ] परिशिष्ट ४: प्रयुक्त-ग्रन्थ ६१३ १६०. Psalms of Sisters (Eng. Trans, of Therigatha): Tr. by Mrs. Rhys Davids, London, 1909 १६१. The Questions of King Milinda (Eng. Tr. of Milindapanho) : Tr. by T. W. Rhys Davids, Pub. Sacred Books of the East Series, Vol. XXXV, XXXVI, Oxford, 1890-94 १६२. Sutta Nipata (Eng. Trans ) : Tr. by V. Fausboll, Pub. Sacred Books of the East Series, Vol. X, Part II, Oxford, 1890 १६३. Verses of Uplift (Eng. Tr. of Udana ): Tr. by F. L. Woodward, Pub. Sacred Books of the Buddhists Series, London, 1935 १६४. Vinaya Texts (Eng. Tr. of Vinaya Pitaka ) (3 Vols ) : Tr. by T. W. Rhys Davids and H. Oldenberg, Pub, Sacred Books of the East Series, Vols. XIII, XVII & XX, Oxford, 1881-1885. इतर - साहित्य १६५. अजातशत्रु : जयशंकर प्रसाद, प्र० भारती भण्डार, लीडर प्रेस, इलाहाबाद (२१ वां संस्करण), १९६५ १६६. अनुत्तरोपपातिक दशा: एक अध्ययन : पं० बेचरदास दोशी, सं० विजयमुनि शास्त्री, प्र० सन्मति ज्ञानपीठ, आगरा १६७. अभिधान चिन्तामणि नाममाला, स्वोपज्ञवृत्ति सहित : आचार्य हेमचन्द्र, सं० विजय- धर्म सूरि, प्र० यशोविजय जैन ग्रन्थमाला, बनारस और भावनगर, १९१५ १६८. अभिधान राजेन्द्र ( ७ भाग) : आचार्य विजय राजेन्द्र सूरि, रतलाम, १६१३-३४ १६६. अशोक : यदुनन्दन कपूर, आगरा, १९६२ १७०. अशोक के धर्म लेख (मूल व अनुवाद) : जनार्दन भट्ट, इलाहाबाद १७१. अशोक के धर्म लेख : सं० जनार्दन भट्ट, प्र० पब्लिकेशन्स डिविजन, सूचना एवं प्रसार मंत्रालय, ओल्ड सेक्रेटेरिएट, दिल्ली, १६५७ १७२. अष्टाध्यायी: पाणिनी १७३. अहिंसा पर्यवेक्षण : मुनि श्री नगराजजी, प्र० साहित्य निकेतन, दिल्ली, १६६१ १७४. आगम युग का जैन दर्शन : दलसुख मालवणिया, प्र० सन्मति ज्ञानपीठ, आगरा, १६५६ १७५, आचार्य बुद्धघोष: भिक्षु धर्मरक्षित, प्र० महाबोधि सभा, सारनाथ, वाराणसी, १६५६ १७६. आदर्श बौद्ध महिलाएँ : कुमारी विद्यावती "मालविका ', प्र० भारतीय महाबोधि सभा, सारनाथ, बनारस, १९५६ १७७. आर्य संस्कृति के मूलाधार : आचार्य बलदेव उपाध्याय, प्र० शारदा मन्दिर, बनारस, १९४७ 2010_05 Page #668 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड : १ १७८. उत्तर प्रदेश में बौद्ध धर्म का विकास : डा० नलिनाक्ष दत्त तथा कृष्णदत्त वाजपेयी, प्र० उत्तर प्रदेश सरकार प्रकाशन ब्यूरो, लखनऊ, १९५६ १७६. उत्तर हिन्दुस्तानमां जैन धर्म (गुजराती अनुवाद) : जे० व० अनु० चिमनलाल जेचन्द शाह, प्र० लॉगमैन्स ग्रीन एण्ड कं० लन्दन, १६३७ १८०. कथा सरित्सागर : सोमदेव, अनु० केदारनाथ शर्मा 'सारस्वत,' प्र० बिहार राष्ट्र भाषा परिषद्, पटना, १९६० १८१. गुप्त साम्राज्य का इतिहास : डॉ० वासुदेव उपाध्याय, प्र० इण्डिन प्रेस लिमिटेड, इलाहाबाद, १९५२ १८२. चार तीर्थङ्गर : पं० सुखलालजी, प्र. जैन संस्कृति संशोधन मण्डल, बनारस, १९५४ १८३. जैन साहित्य और इतिहास : नाथूराम प्रेमी, प्र० हिन्दी ग्रन्थ-रत्नाकर कार्यालय, बम्बई, १९५८ १८४. जैन सिद्धान्त दीपिका : आचार्य श्री तुलसी, प्र० आदर्श साहित्य संघ, चूरू, १९५२ १८५. जैनागम शब्द संग्रह (गुजराती) : शतावधानी पं० मुनि श्री रत्नचन्द्र जी, प्र० संघवी गुलाबचन्द जसराज, श्री लीमड़ी (काठियावाड़), १९२६ १८६. तत्त्वसमुच्चय : डा० हीरालाल जैन, प्र० भारत जैन महामण्डल, वर्धा, १९५२ १८७. तीर्थकर महावीर (२ भाग) : आचार्य विजयेन्द्र सूरि. प्र. काशीनाथ सराफ, __ यशोधर्म मन्दिर, बम्बई, १९६० १८८. तीर्थङ्कर वर्षमान : श्रीचन्द रामपुरिया, प्र० हमीरमल पूनमचन्द रामपुरिया, कलकत्ता, १६५३ १८६. वर्शन और चिन्तन : पं० सुखलालजी प्र० पं० सुखलानजी सन्मान समिति, अहमदाबाद, १६५७ १६०. दर्शन-दिग्दर्शन : राहुल सांकृत्यायन, प्र० किताब महल, इलाहाबाद, (तृतीय संस्करण), १९६१ १६१. धर्म और वर्शन डॉ० बलदेव उपाध्याय, एम० ए० साहित्याचार्य, प्र० शारदा मन्दिर, बनारस, १९४५ १६२. नरकेसरी : (गुजराती): जयभिक्खु, प्र. जीवनमणि सद्वाचन माला ट्रस्ट, अहमदाबाद, १९६२ १६३. पाइअसहमहण्णवो : कर्ता-पं० हरगोविन्ददास विकमचन्द शेठ, सं० डा. वासुदेव शरण अग्रवाल, पं० दलमुखभाई मालवणिया, प्र० प्राकृत ग्रन्थ परिषद्, वाराणसी ५ (द्वितीय संस्करण). १९६३ १९४. पाणिनिकालीन भारतवर्ष : डॉ. वासुदेवशरण अग्रवाल, प्र० मोतीलाल बनारसी दास, बनारस, १६५६ १६५. पातञ्जल योगदर्शन : महर्षि पतञ्जलि, प्र० गीता प्रेस, गोरखपुर, (तृतीय संस्करण), १९५६ ____ 2010_05 Page #669 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा] परिशिष्ट ४: प्रयुक्त-ग्रन्थ ६१५ १६६. पार्श्वनाथ का चातुर्याम धर्म : धर्मानन्द कोसम्बी, अनु० श्रीपाद जोशी, प्र० हेम चन्द्र मोदी पुस्तकमाला ट्रस्ट, बम्बई, १६५७ १६७. पालि साहित्य का इतिहास : भरतसिंह उपाध्याय, प्र. हिन्दी साहित्य सम्मेलन, (द्वितीय संस्करण), प्रयाग, १६६३ १६८. प्रश्नोत्तर तत्वबोध : श्रीमज्जयाचार्य, प्र० ओसवाल प्रेस, कलकत्ता १६६. प्रश्नोपनिषद् : शाङ्कर भाष्य, प्र० गीता प्रेस, गोरखपुर, (छठा संस्करण), १६५३ २००. प्राकृत भाषाओं का व्याकरण : डॉ० रीचर्ड पिशेल, अनु० डॉ० हेमचन्द्र जोशी, प्र० बिहार राष्ट्रभाषा परिषद, पटना, १६६० २०१. प्राकृत साहित्य का इतिहास : डॉ० जगदीशचन्द्र जैन, प्र० चौखम्बा विद्याभवन, वाराणसी, १९६१ २०२. प्राचीन भारत : गंगाप्रसाद मेहता २०३. प्राचीन भारत : सी० एम० श्रीनिवासचारी रामस्वामी आयंगर, इलाहाबाद, १६५० २०४. प्राचीन भारत का इतिहास : डॉ० रमाशंकर त्रिपाठी, प्र० मोतीलाल बनारसी दास, दिल्ली, (तृतीय संस्करण), १९६२ २०५. प्राचीन भारतवर्ष (गुजराती), (खण्ड १-२) : डॉ० त्रिभुवनदास लेहरचन्द शाह, प्र० शशिकान्त एण्ड कं०, बड़ोदा, १९३५-३६ २०६. बुद्ध और बौद्ध साधक : भरतसिंह उपाध्याय, प्र० सस्ता साहित्य मण्डल प्रकाशन दिल्ली, १९५० २०७. बुद्ध कालीन भारतीय भूगोल : डा० भरतसिंह उपाध्याय, प्र० हिन्दी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग, १९६१ २०८. बुद्ध चरित : धर्मानन्द कोसम्बो, प्र० नवजीवन कार्यालय, अहमदाबाद, १६३७ २०६. बुद्धचर्या : राहुल सांकृत्यायन, प्र० शिवप्रसाद गुप्त, सेवा उपवन, काशी, १९३२ २१०. बुद्ध पूर्व भारत का इतिहास : डा० श्यामबिहारी मिश्र और शुकराजबिहारी मिश्र, प्र० हिन्दी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग , २११. बुद्ध लीला : धर्मानन्द कोसम्बी, प्र. गुजरात विद्यापीठ, अहमदाबाद, (चतुर्थ आवृत्ति, १९५६ २१२. बृपत्कथाकोष : आचार्य हरिषेण, सं० ए० एन० उपाध्ये, प्र. सिंघी जन ग्रन्थ माला, बम्बई, १६४३ २१३. बृहत्कथाम बजरी : क्षेमेन्द्र २१४. बौद्धकालीन भारत : जनार्दन भट्ठ, प्र० साहित्य रत्नमाला कार्यालय, काशी, १६२६ २१५. बौद्ध धर्म के २५०० वर्ष ('आजकल' का वार्षिक अङ्क) : प्र० पब्लिकेशन्स डिविजन, ओल्ड सेक्रेटेरिएट, दिल्ली, १९६० 2010_05 Page #670 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१६ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन २१६. बौद्ध धर्म के विकास का इतिहास : डा. गोविन्दचन्द्र पाण्डेय, प्र० हिन्दी समिति, सूचना विभाग, उत्तर प्रदेश, लखनऊ, १९६३ २१७. बौद्ध धर्म दर्शन : आचार्य नरेन्द्रदेव, प्र० बिहार राष्ट्रभाषा परिषद्, पटना, १६१५ २१८. बौद्ध पर्व (मराठी ग्रन्थ) २१६. बौद्ध संघनो परिचय : धर्मानन्द कोसम्बी, प्र० गुजरात पुरातत्त्व मन्दिर, अहमदा बाद, १६२५ २२०. बौद्ध साहित्य की सांस्कृतिक झलक : परशुराम चतुर्वेदी, प्र० साहित्य भवन (प्राइवेट) लिमिटेड, इलाहाबाद, १६५८ २२१. ब्रह्माण्ड पुराण : प्र० नन्दलाल मोर, ५ क्लाइव रो, कलकत्ता २२२. भगवान् बुद्ध : धर्मानन्द कोसम्बी, प्र० साहित्य अकादमी, राजकमल पब्लिकेशन्स, बम्बई, १९५६ २२३. भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास (खण्ड २) : मुनि श्री ज्ञान सुन्दरजी, प्र० रत्न प्रभाकर ज्ञान पुष्पमाला, १९४३ २२४. भगवान महावीर और महात्मा बुद्ध : कामता प्रसाद जैन. प्र० मूलचन्द किशन दास कापड़िया, जैन विजय प्रिंटिंग प्रेस, सूरत, १९२६ २२५. भरत-मुक्ति (हिन्दी काव्य) कवयिता आचार्य श्री तुलसी, सं० मुनि श्री सागर मलजी 'श्रमण', मुनि श्री महेन्द्रकुमारजी 'प्रथम' प्र० आत्माराम एण्ड सन्स, दिल्ली, १९६३ २२६. भागवत पुराण : प्र० गीता प्रेस, गोरखपुर २२७. भारत का बृहत् इतिहास : श्रीनेत्र पाण्डे, (चतुर्थ संस्करण) २२८. भारत के प्राचीन राजवंश : महामहोपाध्याय पं० विश्वेश्वरनाथ रेउ, पं० नाथू राम 'प्रेमी', हिन्दी ग्रन्थ रत्नाकर कार्यालय, बम्बई १९२७ २३६. भारतीय इतिहास एक दृष्टि : डा. ज्योतिप्रसाद जैन, प्र० भारतीय ज्ञानपीठ, बनारस, १६५७ २३०. भारतीय इतिहास की भूमिका : डा० राजबली पाण्डे, प्र० मलहोत्रा ब्रदर्स, दिल्ली, १६४६ २३१. भारतीय प्राचीन लिपिमाला : रायबहादुर पंडित गौरीशंकर हीराचन्द ओझा, प्र० राजपूताना म्यूजियम, अजमेर, १६१८ २३२.मारतीय संस्कृति और उसका इतिहास : डा० सत्यकेतु विद्यालंकार २३३. भाव भास्कर काव्यम् : मुनि श्री धनराजजी, प्र० आत्माराम एण्ड सन्स, दिल्ली, १६६१ २३४. भ्रमविध्वंसनम् : जयाचार्य,प्र० ओसवाल प्रेस, कलकत्ता, १९३३ २३५. मत्स्य पुराण : प्र० नन्दलाल मोर, ५ क्लाइव रो, कलकत्ता, १९५८ २३६. महाभाष्य : महर्षि पतञ्जलि, सं० भार्गव शास्त्री, प्र० निर्णय सागर प्रेस. बम्बई, १६५१ २३७. महावीर कथा (गुजरात): गोपालदास जीवाभाई पटेल, प्र० गुजरात विद्यापीठ, अहमदाबाद, १६४१ ___ 2010_05 Page #671 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा] परिशिष्ट ४ : प्रयुक्त-ग्रन्थ ६१७ ३३८. मृच्छकटिक : शूद्रक, सं० गोडबोले, प्र० बम्बई संस्कृत सिरीज, नं० ५२, बम्बई, १८६६ २३६. वायु पुराण: प्र० मनसुखराम मोर, ५ क्लाइव रो, कलकत्ता, १६५६ २४०. विष्णु पुराण: प्र० गीता प्रेस, गोरखपुर २४१. वोर - निर्वाण सम्वत् और जैन काल-गणना : मुनि कल्याणविजयजी, प्र० क० वि० शास्त्र समिति, जालौर ( मारवाड़), १६२० २४२. वैजयन्ती कोष : सं० गुस्ताफ ओपेर्ट, मद्रास, १८६३ २४३. वंशाली : विजयेन्द्र सूरि, प्र० यशोधर्म मन्दिर, बम्बई, १६५८ २४४. शान्तसुधारस भावना : आचार्य विनयविजयजी, प्र० जैन धर्म प्रसारक सभा, भावनगर, १६३७ २४५. श्रमण भगवान् महावीर : मुनि कल्याणविजयजी, प्र० क० वि० शास्त्र संग्राहक समिति, जालोर, १९४१ २४६. स्वप्नवासवदत्ता (संस्कृत नाटक ) : भास, सं० गणपति शास्त्री, त्रिवेन्द्रम्, १९१३ २४७. हिन्दू सभ्यता : डॉ० राधाकुमुद मुकर्जी, अनु० डा० वासुदेवशरण अग्रवाल, प्र० राजकमल पब्लिकेशन्स, बम्बई, १९५५ २४८. Ancient Coins & Measures of Ceylon : Rhys Davids २४६. Age of Nandas and Mauryas Ed. KA. Nikantha Shastri Pub. Motilal Banarsidass, Benaras, 1952 २५०. The Age of Imperial Unity / The History and Culture of Indian People, Vol. II) : Ed. Radhakumud Mukherjee, Pub. Bharatiya Vidya Bhavan, Bombay, 1960 २५१. An Advanced History of India : R. C. Majumdar, H. C. Ray chaudhuri, K. K. Dutta, Pub. Macmillan & Co., London, 2nd Edition, 1950 २५२. Ancient India : E. J. Rapson, 1922 २५३. Ancient Indian Historical Tradition: E.J. Pargiter, Pnb. Motilal Banarsidass, Delhi (New Edition), 1962 २५४. Archaeological Survey of Western India: Buhler २५५. Asoka : D. R. Bhandarkat, Pub. S. Chand & Co., Delhi, 1923 २५६. Asoka : Vincent A. Smith, Ed. Sir William Wilson Hunter, Pub. S. Chand & Co., Delhi, ( Indian reprint of Scond Edition), 1959 २५७. Buddha : His Life, His Teachings, His order : Manmath Nath Shastri, Pub. Society for the Resucitation of Indian Literature, Calcutta (Second edition), 1910 २५८. Buddhism : T. W. Rhys Davids, Pub. Home University Library, London, 1912 2010_05 Page #672 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१८ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [QUE: 3 348. Buddhist India : T. W. Rhys Davids, Pub. T. Fisher Unwin, London, 1903. 780. The Cambridge History of India : Ed. E J. Rapson, Pub. Cambridge University Press, 1921, Indian Reprint, Pub. S. Chand & Co., Delhi, 1955. 889. Chandragupta Maurya and His Times : Dr. Radha Kumud Mukharjee, Pub. Rajkamal Publications, Bombay, 1952. R&R. Chronological Problems : Dr. Shantilal Shah, Pub. The author, Bonn, Germany, 1934. 783. Chronology of Ancient India : Dr. Sita Nath Pradhan, Calcutta, 1927. REX. Corporate Life in Ancient India : Dr. R. C. Majumdar, Calcutta. 1918. REX. Corpus Inscriptionum Indicarum (Vol. III) : J. F. Fleet, Calcutta, 1888. 788. Der Budhismus : Prof. Kern, Pub. O. Schulge, Leipzig, 1883. REV. Dictionary of Pali Proper Names (2 Vols.) : Dr. G. P. Malala Sekera, Pub. Pali Text Society, London, 1960. R$5. Early Buddhist Monachism : S.K. Dutta 388. Early History of India : Dr. Vincent A. Smith, Oxford, 4th Edition, 1924 poo, Encyclopaedia of Buddhism : Dr. G. P. Malala Sekera, Pub, Govt. of Ceylon, 1963. 269. Encyclopaedia of Religion and Ethics : Ed. Hasting, Edinburgh, 1908-1926 POR. Epitome of Jainism : Purana Chandra Nabar and Krishna Chandra Ghosh, Pub. Gulab Kumari Library, Calcutta. 1919 POR. Gautam the Man : Mrs. Rhys Davids, Pub. Luzac & Co., London 398. Grammatik Der Prakrit Sprachan : Richard Pischel, Strassburg 1900 Rox. Hindu Polity: Dr. K. P. Jayaswal, Pub. Banglore Printing and Publishing Co, Banglore, 1955 25€. Hindus : Ward Pey. The History and Doctrines of the Ajivakas : Dr. A. L. Basham, Pub. Luzac & Co., London, 1957 995. llistory of Buddhism in India : Tarnath, Tr. into German by A. Scbiefner. St. Petersburg, 1869 pos. History of Buddhist Thought : Edward J. Thomas, London, 1933 750. Indiche Paeleographic : Buhler 754. Indological Studies : BC. Law, Vol. I & II, Pub, Indian Research Institute, Calcutta, 1950-52 ; Vol. III, Pub. Ganga Nath Jha Research Institute, Allahabad, 1954 25R. Inscriptions of Asoka : Hultsch 2010_05 Page #673 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा] परिशिष्ट ४ : प्रयुक्त-ग्रन्थ R53. The Jinist Studies : Dr. Otto Stein, Ed, Jina Vijaya Muni with the Co-operation of Dr. A S. Gopani, Pub. Jain Sahitya Samsodhaka Pratisthana, Ahmedabad, 1948 258. Life and Work of Buddhaghosha : B. C. Law, Pub. Thacker Spink & Co., Calcutta & Simla, 1923 R54. Life of Buddha & Early History of His Order (Described from Tibetan Works) : Tr. W. Woodvillae Rockill, Pub. Trubner's Oriental Series, London, 1907 75€. Life of Buddha : E. J. Thomas. Pub. Routledge & Kegen Paul Private Ltd., London, 1956 850. Life or Legend of Gautama : P. Bigandet, 4th Edition, 1911 255. Miscellaneous Essays : C. T. 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Studies in the Origins of Buddhism : G. C. Pande oo, Studies in Manjushrimulakalpa : Dr. K. P. Jayaswal 309. Synchronismes Chinois : Tchang पत्र-पत्रिकाएं, अभिनन्दन ग्रन्थ आदि ३०२. अनेकान्त (द्विमासिक) :प्र० वीर सेवा मण्डल, दिल्ली ३०३. आचार्य श्री तुलसी अभिनन्दन ग्रन्थ : प्र० आचार्य श्री तुलसी धवल समारोह समिति, दिल्ला, १६६२ ३०४. मैन भारती (साप्ताहिक पत्रिका), प्र० जैन श्वे० तेरापन्थी महासभा, कलकत्ता 3o4. KATTFIN (9f**T) 2010_05 Page #674 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२० आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन ३०६. प्रबुद्ध कर्णाटक (कन्नड़ त्रैमासिक पत्रिका) ३०७. भारतीय विद्या (शोध पत्रिका), प्र० भारतीय विद्या भवन, बम्बई . ३०८. भिक्ष स्मृति ग्रन्थ : प्र. जैन श्वे० तेरापन्थी महासभा, कलकत्ता, १९६२ ३०९. वीर (पाक्षिक पत्रिका) : प्र० अखिल भारतीय दिगम्बर जैन परिषद्, दिल्ली ३१०. श्रमण (मासिक पत्रिका): प्र० पार्श्वनाथ विद्याश्रम, वाराणसी - - ३११. हिन्दुस्तान (दैनिक), दिल्ली ३१२. B. C. Law Commemoration Volume, Calcutta, 1945 • ३१३. Indian Antiquary, Bombay ३१४. Indian Epheminis ३१५. Indian Historical Quarterly Calcutta ३१६. Journal of Asiatic Society, Baptist Mission, Calcutta 899. Journal of Bihar & Orissa Research Society, Patna, Bihar ३१८. Journal of Pali Text Society, London ३१९. Journal of Royal Asiatic Society, Bengal ३२०. Journal of Royal Asiatic Society, Great Britain : Pub. Trubner & Co., London 329. Mahavira Commomeration Volume (Vol. I) : Pub. Mahavira Jaina ___ Society, Agra, 1948-49 ३२२. Leitschrift der Dantschen Morgenlaudischan Gesellscnafi ____ 2010_05 Page #675 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दानुक्रम ४०० २८ अकृततावाद अक्रियवाद ४, ७, अंक-धाय १२६ अक्रियावाद ७, ३५६ अंग २५, २०६, २२५ टि०, २४६, २८३, अक्रियावादी ३५६, ३५७, ३६० ३२५, ३४६, ४१०, ४४७, ४४६, ४५० अक्षि-हारक ३६६ अंग-मंदिर चैत्य २३ अक्षीण महानस-लब्धि १९६,२२१ अंग मागध ४०६ अगति ४५३ अंगुत्तरनिकाय ३२ टि०, ३३ टि०, अगार धर्म २६० ३७ टि०, १५६ टि०, २२० टि०, अगस्त्यसिंह चूणि २१२ टि० २२४ टि०, २३२ टि०, २३४ टि०, अग्नि ४६६ २६३ टि०, ३०७ टि०, ३३८ टि०, ३५६, अग्निकुमार देवता ३२८, ३३६ ३७८ टि०, ३८१ टि०, ३८३ टि०, ३८५, अग्निभूति १७६ ४१०, ४१२, ४३५, ४३७, ४४७ टि० अग्निमित्रा मंगुत्तरनिकाय (पालि) ३८४, ३८८ अग्निमेघ ३३१ टि. बंगुत्तरनिकाय अट्ठकथा ३३ टि० १०७, अग्निवेश्य २११ टि०, २१४ टि०, २१६ टि०, अग्निवश्यायन १७, ४१६ २२२ टि०, २३५, २३५ टि०, ३४६, अग्निवैश्यायन गोत्री १७६ ३८८ टि० अग्नि-शाला २४५ अंगुलिमाल डाकू __ ३२१ अग्निहोत्र २०५, २०७ अंगुलिमाल भिक्षु ३२१ अग्रगण्य भिक्षुणियों में २२७प्र० बंगुलिमाल सुत्तन्त ३२२ टि० अग्रवाल, डॉ. वासुदेवशरण ३ टि०, अंगेतर मागम ४५० ३५ टि०, ५७ टि०, ७८ टि०,१०६ टि. अंग्रेजी ३६,४१४ अग्र श्रावक १३७, २१३, ४४७ बंजन, बुद्ध के नाना ११७ अघाती-कर्म ३३३ अंतगडदशांग सत्र १८७ टि०, २७६ टि० अचक्षु दर्शन १७२ टि. २८६, ३१४ टि० अचल भ्राता १७६, १७७ बकम्पित १७६ अचिकित्स्य २६६, ३११ अकुशल धर्म ३७०,३७३,३७५ अचित्त ४६७ 2010_05 Page #676 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२२ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन ४१५ अचिरवती नदी २५६,३२३ ६४, ६८, ६८, ६३, ६३ टि०, ६५, अचेलक ३७, ३८, ७३, १५१, १६० १०१, १०७, १६१ टि०,४१२, ४१५, ४३६ अजीव २३८,२६०, अचेलक अनगार १५२ अज्ञानवाद ७, ३५६ अचेलक अनुयायी ४१५ अट्ट ३०७ टि०, अचेलक भिक्षु ४३८ अट्टकथा १०७ टि०, २७६, २६२ टि०, अचेलक श्रावक २६६, २६८, ३००, ३०६, ३१२, अचेलक सावका ४१५ ३१५, ३५६, ३६२, ३६५, ४०४, अचेल काश्यप ४२४, ४३६, अच्छ २५ अट्टकथाकार २६३, ३०७ टि०, ४३५, अच्यूत कल्प २७, ३६, ३६१३४ अट्टिस्सर २६१,२६६, २३१, २६१ अठारह काशी कोशल के गणराजा ४८, अछिद्र ३२८, ३३५, अजक ९७ टि० अठारहसरा देवप्रदत्त हार ३००, ३०० टि०, अजितकेशकम्बल ४,५,७,१५ प्र० ३०३,३०५ ७५, ७६, ७६, ३८१, ३६३, ३६४ अणुव्रत ८, २८ ३६६, ४००, ४०३, ४०५, ४०७, अणुव्रती २८२ ४०८, ४१३, ४१८,४२१, अणवट्टप्पा ४६४ ४२२, ४०२, ४४१, ४४२, अणुत्तरोववाई बसांग सूत्र २२८ टि०, २७८ अजितजय ८२ टि० २७८ टि०, २७६ टि०, २८७, अजातशत्रु (कोणिक) ६,७,४६, ४७ टि० २८७ टि०, ३०० टि०,३०८ टि०, ५१ टि०, ५४, ५४, ६०, ६१. ६२, ३१५ टि०, ३१४ टि०, ६४ टि०, ६५,६८,७६, ७७, ८३, अण्डकोश-हारक ८८ टि०, ८६ टि०, ६०, ६३ टि० अतिचार २३७, २३७, २३८ ६३, ६५ टि०, १०२ टि०, १०३, अतिमुक्तककुमार टि०, १०७, १०८, १०६, २२३, अतिवृष्टि २३५, २६१, २६२ प्र०, २८४ प्र० अतिशय १२७ टि०, १२८, २९० २६५, २७१, २८२, २८३, २८५, . अतीत अंशवादी ३७१ २८७, २८७ प्र०, ३०६, ३०६ टि. अथर्ववेद १२८ ३१६, ३१७, ३१८, ३१६ टि०, अदत्तादान १८५, २३६, ४०१, ४५४ ३२२, ३२३, ३२६, ३२६ टि०, अदत्तादान-विरमण २६० ....... ३४४, ३६८, ३६६, ४००, ४०१, अदृष्टवाद ४४० अधर्म अजातशत्रु का जन्म २६४ अधर्मवादी ४५३ अजातशत्रु का पूर्व भव ३०७ अधिक रण-समथ अजातशत्रु की मृत्यु ३०६ अधिवास ४४२ अजातशत्रु का राज्यारोहण ५३, ५३ टि०, अधिसीमकृष्ण ८६ टि. ४५३ ४६५ ____ 2010_05 Page #677 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा] सब्दानुक्रम ६२३ अध्ययन, महावीर का १३४ अनुत्तर ३७७ अध्यवसाय २३६ अनुत्तर विमान ३१४ अध्वगत ३३७ अनुत्तर सम्यग् सम्बोधि ४०१,४०२ अध्वनिक ३६२ अनुप्रज्ञप्ति ४५४,४५५ अनगार २२, २७०, २७०, २७४, २७४ अनुयायी राजा । ३५६, टि. अनगार धर्म १५८, १८४, २३६, २७२, ३६७ टि०, ३६६ टि०, ४४० टि० अनवतप्त सरोवर २०६ अनुरुद्ध ५१ टि०, ६३ टि०, ६५ टि. अनवद्या ६५, ६६ टि० १०२ टि० २१५, अनशन २२६, २३०, २३१, २३५, २१६, २२३, २२४, २३५ टि०, २३७, २३६, २४०, २७०, ३०३ ३४३, ३४४ अनागतवंश २८३ टि०, ३६६ टि०, अनुशासनीय-प्रातिहार्य २६८ अनागामी ४२४ अनुश्रव २३४, ३७१ अनाच्छादित चित्त ३५२ अनुश्रावण २६४ अनाथपिण्डिक ८२,२६५, २६०, अनूपिया १५५, २१५, २२६ टि०, ३२३, ४५० टि०,४५५, ८४१ २६२, ३५२, अनाथपिण्डिक देवपुत्र २४६ अनेकान्तवादी ३६० अनाथपिण्डिक बग्ग २२० टि०, अनाणिक ३६०, ३६२ अनाथपिण्डिक सुदत्त गृहपति २३३ अनैषणीय २७३ २४३ प्र० अनोमा नदी अनाथपिण्डिकोवाद २४६ टि०, अन-उपशम-संवर्तनिक ३६०, ३६२ अनाथी मुनि २७२, २७४ अन्तरिक्ष-गामी अनापत्ति ४५४,४५५ अन्धकविंद २५६ अनार्य ४१६ अन्न-कथा अनार्य गांव ३४८ अन्योन्यवाद अनार्य देश ३४८ अपगर्भ ४०५ अनार्य भूमि ३४८ अपतगंधा अनार्य वचन ३६८ अपदान ३७० अनावस्थाप्य ४६४ अपरगोयान १३७ अनावृष्टि ४४३ अपवर्तन ३७४ अनाश्रव ३४२ अपश्चिम मारणान्तिक संलेखना अनाश्वासिक ब्रह्मचर्य-वास ४२० प्र०, अपापा ३३०, ३४६ अनासक्ति २४६ अपापाबृहत्कल्प ८० टि०, अनियत ४६५ अपाय ३७७ अनिरुद्ध का राज्याभिषेक १०२ अपायिक २६६ अनि रिम १८६ अपुष्ट व्याकरण ३३२ अनिश्चिततावाद ४०० अपोह ३०९ अनुकम्पा अप्रमाद ३४३ अनुगार-वरचर ४०६ अप्सरा ४१० ४०६ x . in to or ___ 2010_05 Page #678 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२४ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड : १ अबाध २६ अमितायुनि सुत्त २७६, २८६. २६७ अब्रह्मचर्य ४०६,४५८, ४६१ २६८ अब्रह्मचर्यवास ४०, ४२०, ४२१ अमृत मेघ अब्रह्मचारी ४३८ अमृतोदन-पुत्र २२६ अभय का राज्याभिषेक ६२ टि० अमृतौदन शाक्य २२४, टि. अभयकुमार ८, ६३, ६३ टि०, १६५ अम्बड़ श्रावक २४२,२४३ २३४ टि०, २३५, २३५ टि०, अम्बाली २८७, ३०८ टि. २४२, २७१, २७६, २८१ २८७, अयंपुल (आजीविकोपासक) २५ २६४, ३०८ प्र०, ३०६, ३०८ प्र०, अयुतायुस् ८८ टि. ३०६, ३०६ टि०, ३१६, ३५४ अयोध्या प्र०, ३६६ टि०, ३८३, ४०१ अरसमेघ ३३१. टि० अभयकुमार का जन्म ३०८ अरिहन्त २२, ३७, १२३, १२५, १८८ अभयकुमार कथा ३१३ टि. २३७, २४२, २७८, ४६५ अभयकुमार भिक्षु ३१४ अरुणाभ विमान २३७, २३६ प्रमयत्थर अपदान ३१५ अरूप भव टि. अभयदेव सूरि २८४ अरूप-लोक १४० अभयराजकुमार देखें, अभयकुमार अरोग-चित्त ३५८ अभयराजकुमार सुत्त ३०६ टि०,३१० अर्च ३६६ अर्थ ४२५ अभय लिच्छवी ३७२ अर्थशास्त्र ३०६ अभय सुत्त ३१२ अर्थागम ४५० अभिग्रह १८, १७८, २३७ अर्धमागधी ४५२, ४५६ अभिग्रह, महावीर का १३६ अर्ली हिस्ट्री आफ इण्डिया ६६ टि., अभिजाति ३७२, ३७४ अर्हत् ७७, ७८, १४१, २०२, अभियान चिन्तामणि कोश (नाममाला) २०४, २०६, २०८, २०६, २११, २८४ टि०, २८५ टि०, २५१ टि०, २१२, २१८, २२१, २२२, २२६, अभिधान राजेन्द्र ३७ टि०, ३१३ टि०, २४३, २५१, २७०, २७५, २८०, अभिनिष्क्रमण १८१, १६८ ३०३, ३१५, ३२८,३२६, ३५६, अभिनिष्क्रमण बुद्ध का १४७, १४८, १५० २६६, ३७७, ३८२, ३८३, ३६३, अभिनिष्क्रमण, महावीर का ३६५, ३६६, ४०४, ४०५, ४०८, अभिनिष्क्रमण महोत्सव ४०६, ४१०, ४११, ४१६ अभिनीहार १२२ ४४७, ४५३, ४५४ अभिमन्यु ८६ टि० अर्हत् पद ३१२, ३८६ अभिसम्बोधि १५५, २११ अर्हत्फल २१२ अभीचकमार १६७, ३१५, ३१६, अर्हत्-मार्ग अभ्याख्यान १८५ अर्हत्व २११, २५६ अमरवती नगर १२१ अलबेरुनी ५२, १०० टि०, अमात्यगेह २२६ टि०, अलोक २६०, ३८४ ४२३ ____ 2010_05 Page #679 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा] शब्दानुक्रम ६२५ अल्प-वयस्क दीक्षा ४६६ अशोक के धर्म लेख १७ टि०, ११३ टि., अल्लकप्प ३४४ अशोक के शिला लेख १७, ११० प्र० अवदातवसन गृही ४१५ अशोक चन्द्र २६६, ३०२ अवदान ३१५टि०, ३१६ अशोक वाटिका २८, १९७ अवदानकल्पता ३१६, ३२३ टि० अशोक वृक्ष अवदान शतक २६३.२९३ टि० अशोकावदान ११३, ११४ टि. अवधिज्ञान १२८, १२६ टि०, १३१, अश्मक १३२, १७३, १७३ टि०, १८०, अश्वघोष २३६, ३८२ अश्वजित् भिक्षु २०१ टि०, ३०७, २०८ अवधिदर्शन १७३ टि० अश्वसेन ८७ टि०, अवन्ती ७६, ७६ टि०, ८७ टि०, ८८ अष्टांग उपोसथ-व्रत ४१० टि०, ६२, ६३ टि०, ६६, ६७ टि०, अष्टांग निमित्त १८, १२६ १०१ टि०, १०२, २२५ टि०, अष्टांगिक मार्ग १५८, ४०५ २३४ टि०, ४१० अष्टापद १२७, १३३, १६६, १९९ अवन्तीवर्धन ८७ टि०, ६६ टि० असत्य ४११, ४६६ अवन्ती-विजय ६७ असंयमी ४३५ अवयस्क दीक्षा ४६८ असम देवपुत्र ४२१ अवव ३०७ टि० अ-सम्यक्-सम्बुद्ध-प्रवेदित ३६०,३६२ अवसर्पिणी २५, १२१, १८५, ३२१, असितंजन नगर २३३ टि., ३३२, असित ऋषि ४४५ अवस्वापिनी निद्रा १३१ असिबन्धक पुत्र ग्रामणी ३५४, ३७६ प्र. अवितर्क-अविचार समाधि ३८०, २८१ ३७८, ३७६ अविद्या ४२४ असुरेन्द्र १५५, ३०५ अविनयवादी ४५३ अस्थिक ग्राम ३४८ अविरत ४१६ अस्थि गर्भ अवीचि नरक १४, १७१,२६१,२६६ अस्थि ग्रोम अवीतद्वेष ४१६ अस्ससंत ३५७ अवीतमोह ४१६ अस्सी महाश्रावक अवीतराग ४१६,४५३ अहह ३०७टि. अवेदनीय-कर्म ३७२, ३७४ अहिंसा ३७८,४६६ अन्वुद ३०७ अहिंसा पर्यवेक्षण ३६८ टि० अशनिमेघ ३३१ अहेतुवाद अशोक सम्राट ४६ टि० अहेतुवादी ४२५, ४२०,४३१ १०४, १११, १११ टि०, ११२, ११३, ११५, ११६ टि०, ११६, आ .. २२३, ४४२,४५६ अशोक १२५ टि. आकार-परिवितर्क अशोक का राज्यारोहण ६५, ६०,११७ आकाशगामिनी विद्या २२३ २२६ ____ 2010_05 Page #680 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६.२६ आकाश-गामी आकाश मार्ग आकाशवाणी आकाशातिपाती लब्धि आकाशान्त्यायतन आकिंचन्त्यायतन आकोटक देवपुत्र आक्षेप निवारक आखेटक आगम-ग्रन्थ भागमघरों - आगम-प्रणेता आगम युग का जैन दर्शन आगम ७, १२, १६, १७, २६, ३१, ३४, ३५, ३७, ३७ टि०, ३६, ४२, ४८, ६६, ७८, १०६, १२५, १२७ १३४, २१८, २३०, २३२, २३५, २७१, २७८, २८७, २८८, २६६, ३१८, ३२४, ३२५, ३३२ ३५४ ३६७, ३६७, ४२२, ४४४, ४५० ४५२ ३४६ ४५७ ४५० २६६, टि० ३१५, टि० ३२४ २२७, २२८, २७७, ३२० ३५६, ३६७, ३७८, ३८० ४५७ ४२०, आगम- रचयिता आगम साहित्य आगमिक आगमिक उल्लेख आगमिक विधान आचार-पक्ष आचार-प्रकल्प आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन ४२२ आगमों की लेखबद्धता आगार धर्म आचार-ग्रन्थ और आचार-संहिता आचार वस्तु आचार शास्त्र आचारांग 2010_05 १८१, ३०२, ३०५ ४५० आचारांग नियुक्ति आचारांग चूर्णि २२१ ४५०, ४५० टि० ३४३ आचार्य ३४३ ४२२ १५६, ४६५, ४६५. आचार्य बुद्धघोष २६६ टि० ३०६ टि०, ४१३, ४१४, ४१५, C ४१२ आचार्य श्री तुलसी अभिनन्दन ग्रन्थ १६ टि० ३३७ आजकल ४५ टि० आजन्य घोड़ी आजीवक ३०६ ३०८ ४५.८ ४५७ २३६ ४४६ प्र० ४६६ प्र० ४५० ४५० १८७ ४२, १२५, १२८ दि०, [ खण्ड : १ १५१ टि०, १५२, १५४ टि०, १७० टि०, ४५० २५२ ३६, ३७, ३८, ३६, १०६ टि० २५७, ४११, ४१२, ४१४, ४१५, ४१७, ४२४, ४३७, ४४२, ४५३ ६२ टि० ३६ ४१५ २७ ४१४ ४१५, ४१७ ४१६ ३८ ८, २५, ३३ टि०, ३४, ३६ ३, २१६, २२३, २२४ २५, २६, ५२ १७१ १७० ३३६, ३५३ आजीवक आजीवक उपासक आजीवक गृहस्थ आजीवक देव आजीवक प्रवर्तक आजीवक भिक्षु आजीवक भिक्षुणियां आजीवकों का इतिहास और सिद्धान्त आजीविक आज्ञाकौण्डिन्य आठ चरम आठ सहस्रलोकान्तर आतापना आतुमा आत्म-रक्षक देव आत्मा आत्माद्वैतवादी आदि पुराण आदेशना - प्रातिहार्य आधाकर्म आधारभूत ग्रन्थ आनन्तर्य कर्म ३५६ ११ प्र० १२० टि० २६८ ૪૬૪ ३१८ २६६ Page #681 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा) शब्दानुक्रम १२७ ४६ आनन्द ७०,७१,७३, २२०, २२२ प्र०,२२६ आर्य-धर्म ४५४ २४६, २५५, २५६, २६१, २६६ आर्य-श्रावक ४०८,४०८ २६७, २७७,३१६, ३२८, ३२६ आर्य-श्राविका ३६५ ३३७, ३३८, ३३६, ३४०, ३४१ आर्य संस्कृति के मूलाधार ८४ टि. ३४२, ३५५, ३८२, ३८३, ३६०, ३६१. आलम्भिया (आलंभिका) २३, २३३, ३२४, ३६३, ४०५, ४१२, ४१७, ४१८, ४२०, ३४८, ३४६ ४२०,४२१, ४३२, ४५३, ४५४, ४७०, आलवी ३५३ ४७१ आलार-कालाम १५६, १७२, १७२, ३३६, आनन्द (महावीर के स्थविर शिष्य) २१ प्र०, ३४०, ४४५, ४४५ ११४ टि०, ११५, २१६ आलोचना २३६, २३६, २७०, ४६४, ४६५ आनन्द उपासक देखें, आनन्द गृहपति आवत्ता ३४८ आनन्द गृहपति १६, २३४ टि० । आवर्तनी माया ३६२, ३६५, ३६६ २३५ प्र० आवश्यक कथा आनन्द-चैत्य ३३८ आवश्यक चूणि २६ टि०, ३० टि०, ३१ टि० आनन्द श्रावक देखे, आनन्द गृहपति ३४ टि०, १६४ टि०, १७८ टि०, आनुपूर्वी कथा २४४, ३५८, ३६४ १८० टि०, २३३ टि०, २४३ टि०. आपण (अंगुत्तराप) ३५३ २८४ टि०, २६८ टि०, २६६, २६६ टि०, आपत्ति ४५४,४५४ ३०६ टि०, ३१० टि०, ३१५ टि०, आभियोगिक आमषौषध लब्धि २२१ आवश्यक टीका आम्र उद्यान ३९६ आवश्यक नियुक्ति २६ टि०,३० टि०, आम्र-वन ३६८ ३१ टि०, १२० टि०. १२१ टि०, माम्र-वन प्रासाद ३६१ १५५ टि०, १५८ टि०, १६१ टि., आयंविल वर्द्धमान तप २२७ १६४ टि०,१६५ टि०, १६८ टि०, आयतन २७७ १७८ टि.,३४६ आरा ३३१ आवश्यक नियुक्ति दीपिका १५५ टि०, आराम-सेवक ४०७ आवश्यक नियुक्ति हारिभद्रिय १५५ टि० आरुद्धक ४३८ आवश्यक भाष्य ३४६ आरोप्य आवश्यक सूत्र ३६७ टि. आर्जव १७० आशातना १६१ आर्त ध्यान ४६० आश्रम ४४२ आर्द्रककुमार मुनि ७,८ प्र०, ८ टि०, ३६, आश्रव ८, २०४, २६०, ३५६ १५१, ३१३ टि०, ३१६, ३१६ टि०, ३७३, ३७५,३८३, ३८६ ३६०, ३६७ टि. ३८८ माईकपुर ८ आसुरी आर्य-उपोसथ ४०८, ४०८, ४११ ३२५ टि०, १२० 2010_05 Page #682 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२८ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड:१ ३५३ ४५५ उच्चार-प्रसवण २३८ उच्छेदवाद ४०० इंडियन एण्टिक्वेरी उच्छेदवादी ५७,३५७,४३१ इक्ष्वाकु वंश १२८, १४१ टि० उज्जयिनी ८० टि०, २०६, २११ इच्छानंगल (कोशल) २२५ टि०, २८६, ३०८, ३०६, इच्छा-परिमाण व्रत २३६ ३१० टि०, ३१८, ३२५ इतिहास १२८ उत्कटक आसन इत्सिग ११२ उत्तरकालिक ३१६, ३२५ इन्दोग्रीक ४४० टि० उत्तरकुरु १३७, १३७ टि०, २०६ इन्द्र १३, १२५, १२७, १३१, १३३ उत्तर क्षत्रिय कुण्डपुर १२५, ४५६ १३४, १३५, १६२१६५, १६८, उत्तर पुराण ८२, २८५, २८५ टि. १७०, २००, २२०, २२६, २३५, उत्तर प्रदेश में बौद्ध धर्म का प्रचार ३१६ टि० २८०,३०२, ३२८,३३०,३३४, उत्तर भारत ६५ __ ३३६, ४०२ उत्तर मनुष्य-धर्म इन्द्रभूति (देखें, गौतम स्वामी) ७३, ७४, उत्तरवर्ती टीका १७४, १७६, १७७, १७८ उत्तरवर्ती साहित्य २६३ इन्द्रीय-जयी २२८ - उत्तर-वाचाला ३४८ इन्द्रिय-भावना २५६ उत्तर हिन्दुस्तान मां जैन धर्म १७ टि०, इन्द्रिय-संयम २४६ ३६ टि. इन्द्रियां ३६७ उत्तराध्यय ३३२ टि० इन्द्रियाणी १३१ उत्तराध्ययन सूत्र १५, १५ टि०, ४२, इसिला १११ १६३ टि०, १६६ टि०, २०० टि०,२७२टि०, २७२, ३०२ टि०३०२ टि०, ३१६, ३१७ टि०, ३३३, ३३२ टि०, ४०१ टि०, ४१६ टि० ईत्झाना ११७, ११८ उत्तरा नन्दमाता २३४ ईति ४४३ उत्तरापथ ६६ टि० ईरान ८ टि० उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र १२६, १३५ ईर्या २३० उत्तराषाढा नक्षत्र १३८, १४६ ईशानेन्द्र ३३६ उत्तरासंग १६, १८३,२६३,२८६,३६६ ईश्वर कर्तृत्ववादी ४२५, ४३१ उत्थान २३८ इहा ३०६ उत्थान-संज्ञा ३६२ उत्पल नैमित्तिक उत्पलवर्णा २२४ उत्सपिणी-काल १८५,३३१,३३२, ३३४ उग्र (उग्गा) गृहपति २३४, ३३८ टि० उदक शालाएं २७७ उग्रवंशी २०१ उदग्र-चित्त उच्चकुलीन २२५ उदन्त नैगम २४४ ____ 2010_05 Page #683 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा] शब्दानुक्रम ६२४ ४१३ ar ४७० २२६ उदय १०२ टि० उपयवर्ग उदयन वत्सराज २३४, ३१६, ३१८ प्र० उपराजा ३२५ उदयमद्द ५१ टि० उपवत्तन ३४०,४०५ उदयाश्व ६५ टि० उपवान ३४० उदायी स्थविर २१२ उपवास १६८ टि० उदान १४७, २६८,३५७ उपशम २२१, ३३३ उदान अट्ठकथा २१४ टि०, २८४ टि० उपशम-संवर्तनिक उदायन भिक्षु ३१५ उपश्रेणिक उदायन राजा (राजर्षि) १६७ प्र०, १६७टि. उपसम्पदा २०१ टि०, २०२, २०४, २०५, २६८, ३१३, ३१५, ३१६, ३१७, ३२५ २०७, २०६, २६६, ४०३,४०५, उदायी (उदायन कोण्डिन्यायन) २२, २३, ८८ टि०, ६३ टि०, ६५ टि० उपसम्पदा वर्ग ४३८ १०२ टि०,१८५ उपसर्ग १५२,१६०, १६८,१६६, २३२ उदायीभद्र (उदायी) ६५ टि०, १०२ टि० उपसेन वंगन्त-पुत्र ३०६, ४१३ उपस्थाक २२२, २२६ उदायी का राज्याभिषेक १०१ उपस्थान-शाला २४५, २७७, ३८६ उदीच्च ४२४ उपस्थापक ३२६ उदीरणा ३७४ उपांग २८८, ४४६ उद्गत गृहपति २३४ उपादान ३८२ उद्दक-रामपुत्र १५६, १७२ उपाध्याय १८६, ४४६, ४६५ उद्दण्डपुर नगर २३ उपाध्याय, डॉ. बलदेव ७८ टि०, ८४ टि० उद्यमशील २२५ उपाध्याय, भरतसिंह ३४६ टि०, उद्यमशीला २२७ ३५३ टि० उद्रक उपाध्याय, डॉ० वासुदेव । उद्रायण १६७ टि०, ३१५ प्र० उपालि २१५ प्र०, २१६, २२३ प्र०, २२६ ३७४ उपालि गृहपति ३५४, ३६० प्र०, ३६२ उन्नाग ३४८ ३६२,४५४,४६६ उपक १०६ टि० उपालि सुत्तन्त ३६७, ३६३ उपगुप्त ११३ टि० उपाश्रय ४११ उपतिष्य २०६, २२४ टि० उपासक २०४, २११, २३२, २६५ उपदेश प्रासाद २४३ टि० २८०,२८२, २८७,२६१, ३०१,३१२ उपदेशमाला सटीक २८४ टि० ३१२, ३१६, ३२०, ३२४, ३३७, ३५७ उपधान ३६४, ३६७, ३६६, ३७८, ३७६, ३८८ उपनन्द ३६७,४००,४०२,४०७, ४१५,४२४ उपनन्दपाटक २६ ४६७ उपनिषद २६८ उपासक-उपासिकाएँ ३८१ टि० उप-पारमिताएं १६७ उपाप्तकदशांक सूत्र २८ टि०, २८,२६ टि०, उपप्रदान ३०६ ३४, ३८, २५० टि०, २३२, २३३, उदवर्तन . ४१६ २६ ____ 2010_05 Page #684 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३० उपासक श्रावक उपासक संघ उपासना उपासिका उपासिका-संघ २३६ टि०, २६० टि०, ३२४ टि०, ऋषभदत्त ३२५ ऋषभदेव २३२ ऋषि - गिरि २८० ऋषिपत्तन २७६ २११, २३२, ३६४ २८० ३७७ ७६, १३७, २६७, २७५, २७६, ३६८ ४६६ ३०७ टि० १७४ उपेक्षा सहगत चित्त उपोसथ उपोसथागार उप्पल उरुवेल उरुवेला उरुबेल काश्यप उल्लेख- प्रसंग उवयाली वाई सूत्र उशीरध्वज पर्वत ऊर्ध्वलोक ऋग्वेद ऋजुबालिका नदी आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन १५६, १७५, २०५ २०७, २३४ टि०, ३५२ १६१, १६१, २०६ २०७, २२६, २७५ ३५६, ३६८ प्र० २८७ २२१ टि०, २२८ टि०, २८३ टि०, २६० टि० १३७ ऊ 2010_05 E १२८ १७०, ३४६ २२०, २२१, २६३, २७८, ३३१ ऋद्धि ऋद्धिपाद २४८ टि०, २६८, ३६४ ऋद्धि प्रातिहार्य ऋद्धि-बल २५६, २६५, २७६, ३९७ ऋद्धिमान २२०, २२४, २५६, २७२, ३७६, ऋद्धिशालिनी ऋषि-प्रव्रज्या ऋषि मण्डल प्रकरण एक अहोरात्र प्रतिमा एककनिपात ३७४ ११४ टि० ११४, १७२, २०१, २०३, २१२, ३५२ ४३५ २८४ टिक एकराट् एक रात्रि प्रतिमा एक वस्त्र पहनने वाले ३७ ४१४ ४२३ २२६ २२७ ४१० ३६७ एतदग्ग वग्ग २२४, २२७, २३३, ३८१ टि०, ३२८ एनसाइक्लोपीडिया आफ बुद्धिज्म २६८ एषणीय २३७ एक शाटिका एकादशांगी एकावली तप एकाहारी एकेन्द्रिय प्राणी ऐक्ष्वाकुवंश ऐणेयक [खण्ड : १ ५३, १२८, १८३ प्र० ११६, १२० टि० एक शाटक (एक वस्त्रधारी ) निर्ग्रन्थ २२८ २२४ टि०, २३२ टि०, २३४ टि०, ४४७ टि० १०६ टि० ऐतिहासिक क्षेत्र ऐतिहासिक गवेषणा ऐतिहासिक घटना-प्रसंग ऐतिहासिक तथ्य २२८ देखें, एक शाटक निर्ग्रन्थ ८७ टि० २२, २३ ६५ ४५० २६६ ५६, ६२, ६५, ६०, ३६३ ६३ टि० २२७ ऐतिहासिक दृष्टि ५४, ६१, ८६, ४५५ प्र० Page #685 -------------------------------------------------------------------------- ________________ xxx ३६१ ओ इतिहास और परम्परा शब्दानुक्रम ६३१ ऐतिहासिक दृष्टिपात ४५१ कजंगला ३१, १३७, १८७, ३२४, ऐतिहासिक धारणा ५५, ६६, ७६, ८१, ३४८, ३५३ ६१ कण्टकवृत्तिक भिक्षुक ऐतिहासिक पद्धति ६६ कण्हकुमार ऐतिहासिक परम्परा ८४ कण्णकुज्ज ऐतिहासिक पुरुष १०८ कथा ऐतिहासिक प्रमाण १०६ कथा-प्रसंग ४४८ ऐतिहासिक संवत्सर ७६ कथा-वस्तु ऐन्द्रजालिक १६४, १७७ कथासरित्सागर १०० टि०, ३१७ टि० ऐन्द्र व्याकरण १३४ कथा-साहित्य ३१६, ३१८,४२० ऐरावण ४२४ कनकखल आश्रमपद ३४८ ऐरावण देव २०० कनकावली तप २२७ कनिष्क कनिष्ठता, बुद्ध की ४०२ कन्थक १२७, १४०, १४८, ओझा, महामहोपाध्याय रायबहादुर गौरीशंकर ७८ टि. कन्थक-निवर्तक-चत्य मोपसाद ३५३ कपिल ओबर मिलर ४५५ कपिल, आचार्य ओल्डनबर्ग ४५५ कपिल दर्शन १२० कपिलवस्तु ४३,४३ टि०, ११४ टि०, ११४, औ १२५, १३७, १३६, १४०, १७४, औत्पातिकी ३०६ २१२, २१४, २१५, २२४ टि०, औद्देशिक २७३ २२५ टि०, २२६ टि०, २२७ टि. औषपातिक प्रकरण २३४ टि०, ३२८, ३४४, ३५२ ३५३, औपपातिक सूत्र १२७ टि०, १७४ टि. ३७४, ३८८, ४७० २०१ टि०, २२७, २८८, कपिला ब्राह्मणी २७६, २८० २८८ टि०, २८६ टि०, २६० टि०, कपिशीर्ष ३४१ २९१ टि०, २६२ टि०, ३०६ टि०, कपूर, यदुनन्दन ११६ टि. ४५६ टि० कबन्धी कात्यायन कम्पिलपुर कम्बोज कम्मासदम्म (कुरु) कंखाखेत २२५ कयंगला नगरी देखें, कजंगला ककुत्था नदी ३४० कयली समागम ३४८ ककुद कात्यायन ४४२ करण ककुद्ध वृक्ष २०६ करीसभूमि ककुध २६२ करुणा ३७८ २६१ ३५३ ____ 2010_05 Page #686 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३२ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड : १ करुण सहगत चित्त ३७७ कल्पार्थबोधिनी ३३३ टि०, ३३५ टि० कर्णिकार १७ कल्पिक कुटियां कर्न, प्रो० १०५ कल्याणविजयजी, मुनि ५६, ६२, ६३, कर्म ८, ३३, १७६, १८१, १८४ टि०, ६५ टि०,७४, ८० टि०, ८४ टि०, २२२, २३८, ३६०, ३६७, ३७५, १४ टि०, ६५ टि०, ३६२ ३८२,३८३,३८६,३८७, ४२५, कवि २२५ ४३०,४३२,४३६ कषाय १२०, १६२ कर्म-चर्चा ३६६ प्र०,३६० कसाई कर्मवादी ३७ कहावली ४६, ५० कर्मावस्था ३७४, ३७४ टि० कांदर्पित कर्मारग्राम ३४८ कांपिल्यपुर २३३, ३४६, ३५० कलंकबका सन्निवेश ३४८ काकबलिय २४६ कलंद (कलंदकनिवाप) १७, ७५ काकंदी ३४६, ३६० कलन्दक निवाप २६२, ३१०, ३६८, काकवर्ण ८६, ८६ टि०, ८७ टि०, ८६ टि०, ३८६,४०२, ४०६, ४२१ ६४ टि०,१०३ टि०, कलह १८५ काकवर्ण का राज्याभिषेक १०१ कलिंग ९७,६७ टि०, १६ टि०, 88 टि० काजंगल ग्राम ४४१ कलिग राजा ३४५ कात्यायन गोत्रीय १८७, १८८, २५६ कलिगारण्य ३६३ कात्यायनी २३४ कलियुग ८६ टि०, कापिलीय शास्त्र १२८, १८७ कल्किराज ८२, ८२ टि० कापोत लेश्या ४१६ कल्प ११६, १३७, १४०, २६१, २६७, कामदेव २३३ २६६, ३२६, ३३७, ३३८, काम भव & टि०, ३६८, ३७६, ४४३ । ३८१ कल्पद्रुम कलिका १७० टि० काम महावन ३४६ कल्पलता व्याख्या १३२ टि०, १३५ टि० कामेसु मिच्छाचार ४०१ कल्पवृक्ष २२०,३३२ काय-कर्म कल्प सूत्र ३३ टि०, ४२ टि०, ४४, ४४टि०, काय-दण्ड ३६०,३६१, ३६६, ४८ टि०, ८३ टि०, १२८ टि०, . १२६ टि०, १३१, १३२ टि०, १३५ टि० काय-दुश्चरित ३५७ १६४ टि०, १७० टि०, १७४ टि०, काय-सुचरित ३५७ २१६ टि०, २२७, २६७ टि०, ३२६, काय-स्मृति ४५४ ३३० टि०, ३३२ टि०, ३३४ टि०, कायिक ३३५ टि०,३४६ कायिक पाप ३६७ कस्पसूत्र (बंगला अनुवाद) ३४० टि० कायोत्सर्ग १५३, १६२, १६५, १८२, कल्पसूत्र बालावबोध १६१ टि० १६८ टि०, ४६४ कल्पसूत्रार्थ प्रबोधिनी १२६ टि०, १७८ टि०, कारागृहिक ४१२ १६६ टि० कार्मिकी ३०६ ४२० ____ 2010_05 Page #687 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा] शब्दानुक्रम कार्षापण . .२१०, ३२१, ४३३, ४३६ काश्यप गोत्री १७६ काल ३८४ काश्यप बुद्ध १५० काल उदायी २११,२२६ किपाक-फल २०१ काल कुमार २८७, २८७, ३०० किंवदन्ति ..... ४२० काल-क्रम ५८, ६५ टि०, ६५, ६६, किम्बिल २१७ .८७ टि०, ८६ टि०, १०१, किल्विषिक ३६,२२० १०६, १०८, ११८, २८१ कीटागिरि ३५२ कालक्रम (राजाओ का) ४६ कुंडियायन चैत्य २३ काल-गणना ६४, ६५, ८२, ८३, १०१ कुक्कुट । ३१६ टि०,१०२ टि०, १०८, ११६, कुक्कुटवती २२६ टि. . ११७, २८१, २८२ ३४६, कुण्डकौलिक .. २७, २३३, ४२२ ३४७, ३५३ कुण्डग्राम ३४८ काल-चक्र ३३२ कुण्डधान २२५ काल देवल तपस्वी १२६, १४० कुण्डलकेशा २२४, २२७ काल-धर्म ३१४ कुण्डला यक्षिणी ४४२ काल-निर्णय ४१ प्र०, ९८ टि०, ३२० कुण्डाल सन्निवेश ३४८ टि०, ३३० टि, ३४३ टि०, कुण्डिया २२५ टि०, २३४ टि०, ३६१ टि०, ३६२ टि०, ३६३ कुतूहलशाला टि०, ४०१ ४०३ टि०, ४०४ कुतूहलशाला सुत्त ३८२ टि०, ४०६ टि०, कुत्रिकापणं १८१ काल शिला . ३७४-३७५, ४३६ कुबेर राजा ३३० काल शिला-प्रदेश ४३६ कुमार कालशोरिक महाकसाई २७६, ३१३ कुमार उदयभद्र कालसुत्त ३०८ टि. कुमार काश्यप २६६ कालाय सन्निवेश ३०, ३४८ कुमार ग्राम १३६ कालाशोक ८६, ८६ टि०, १०३ टि०, कुमारपाल राजा कालाशोक-पुत्र १०३ टि० कुमाराक सन्निवेश ३०, ३४८ कालासवेसियपुत्त अनगार १६३ कुमुद ३०७ टि. काली २८६, २८७, ३०१ कुम्मण्ड निगण्ठ ४४२ काली उपासिका २३४ कालूगणी, तेरापंथ के अष्टमाचार्य ४२ टि० कुररधर २२५ टि०,२३९ टि. २५, ८७ टि०, १०५, २२६ कुरु । २२५ टि०, ३५४, ४१० टि०, २३४ टि०, २८२, २६७ कुरुवंशी २०१ ३२५, ३४६, ३५३, ४१० कुरुष, सम्राट ८ टि. ४२३, ४२४, ४४७ कुलकर ३३४ काशी-कोशल ३०१, ३०२, ३२५ कुल-गेह २२६ टि०, २२७ टि०, काश्यप २४ २३४ टि. काश्यप गृहपति १८७ कुल-धर्म २८२ REFEREEEEEEEEEEEEEEE: काशी ___ 2010_05 Page #688 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन कुत्र-प्रसादक २२६ केवलज्ञान ६४, ११६, १७०, १७२, कुल-पुत्र २२६ टि. १७२ टि०,१८० ३८० केवलज्ञानी २७० कुशल धर्म २६२, ३७०, ३७३, ३७५ केवलदर्शन १७० टि. ४२१ केवली २१, २७, ५३, ७३, १८८ कुशावती ३४२ २२७, २७०, ३१५, ३२९ कुशीनगर ४४, ४३ टि०, ११३ टि०, ११५ केश-लुचन कुशीनारा ११७ टि, २८८, ३२८ केशीकुमार श्रमण १६० प्र०, १९७, १६८ ३३८, ३३६, ३४०, ३४१ १६८ टि०,३१५, ३२४ ३४२, ३४३, ३४४, ३५३ कैवल्य ११, १७० प्र०, १७४, २१८ ४०४ २१६, २६२, २८०, २८१ कुष्ठी २७६ ३३०, ३३४, ३३५, ३८२ कुम्थाल ६४ टि. ४६९ कूटदन्त विप्र २७५, २८१ कैवल्य और बोधि प्रकरण ४२१ टि. कूटबन्त सूत्र २७५, २८१ कैवल्य-लाभ ८३, १०६ १०७, १५८ कुणि ३०० १७७, २१८, २७४ कूपनय ३० कैवल्य-साधना १५२ कपिय सन्निवेश ३१,३४८ कैवल्यावस्था ३४६, ३५०, ३५१ कूर्म ग्राम २०, ३४८ कोकालिक २६६ कूलवालय भिक्षु ४६, ३०२ ३०२ टि०, ३०५ कोकालिक कटमोर-तिस्सक २६७ कृतंगला देखें, कजंगला कोकालिय सुत्त ३०७ कृश सांकृत्य ३७, ४१२ कोडाल गोत्रीय १२८ कृशा-गौतमी १४७, २२७ कोडिन्न १७४, १९६ ६८ टि० कोणिक देखें, अजातशत्रु कृष्ण अभिजाति ३७,४१२,४१७ कोरेय्य ३५३ कृष्ण अभिजाति-कृष्ण धर्म ४१७ कोलियपुत्र २६३ कृष्ण अभिजाति–न कृष्ण, न शुक्ल (धर्म) कोलित २०६ ४१८ कोलित ग्राम २२४ टि० कृष्ण अभिजाति-शुक्ल-धर्म ४१७ कोलिय दुहिता सुप्रवासा २२५ टि०, २३४ कृष्ण लेश्या ४१६ कोलियो ३४४, ३५३ कृष्ण नदी ३०८ कोल्लाक ग्राम केतुमती विमान ४४१ कोल्लाग उपनगर २३६ केन्टन के बिन्दु संग्रह १०४ कोल्लाग सन्निवेश २६, १७६, २३८, केन्टन नगर १०४ ३४८ केन्टनीज तारीख ६८ कोशल देवी २८६, २६४, २६५, २६७ केन्टनीज परम्परा २६८ कृष्ण ____ 2010_05 Page #689 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा शब्दानुक्रम कोशल देश २९७, २६८, ३०६, ३२५ क्षतविधवादी ४२५, ४३१ ३४६, ३७८, ४१०, ४२३, क्षत्रिय ११, ७५, ११७, १२५ ४४७ १३५, १३७, १४२, १४७ कोषाध्यक्ष ४४६ १६५, १७०, १०४, २१३ कोष्ठक चैत्य १७, २४, २५, १६० २२५, टि०,२२६ टि०, २२७ २७० टि०, २३४ टि०, २८८, कोसम्बी, धर्मानन्द २ टि०, ३, ४, १६ टि० २६४, ३११, ३२२, ३४२ ५८, ७४, १०५, १०६ टि०, ३४४, ३६६, ३६६, ३८३ १७५ ३८६,४०२,४१८ कोसल ३२१, ३५३ क्षत्रिय कन्या ३२२ कोसलक ३२२ क्षत्रिय कुण्डपुर ४८, १२६, १३१, १३५ कोसल गोत्रज ३२२ १८४, ३२८ कोसलवासी ३२२ क्षत्रिय वंश १२८, २०१, २१३ कोसल संयुत्त ३२० टि०, क्षमा-याचना २३६ कौटिल्य अर्थशास्त्र १३४ टि०, क्षमाश्रमण १८६ कौटुम्बिक २५२, २५२ प्र०, क्षयोपशम २३६ कौटुम्बिक पुरुष २७७, ३१८ क्षान्ति १७०, ३७१ कौण्डिन्य १४१ १५६ २०१ टि०, २०२ क्षार मेध ३३१ कौण्डिन्य गोत्री १७६ क्षीणास्रव २१२ कौतूहलशाला सुत्त ३८१ प्र. क्षीर-मेघ ३३१ कौत्स २५ क्षीर-समुद्र १२७, ३३६ कौपीन (एक वस्त्र) धारी लोक ४१४ क्षीरोदक ३३६ कौमुदी ७६ क्षुद्रनगरक ३४२ कौशल २५, ७५, ८६ टि०, ८८ टि०, क्षुद्रकवस्तुस्कन्षक २७६ १७६, २२५ टि०, क्षेत्प्रोजा २८६ २२७ टि०,२३३ टि०, क्षेत्र ३८५ कौशाम्बी ८६ टि०, १७६, १७८, १८५ क्षेत्र-महोत्सव २२६ टि०, २३४ टि०, २६२ क्षेत्रज्ञ २८६ २७२, २७४, ३१८, ३१६ क्षेत्रोजा २८६ ३४२, ३४६, ३४६, ३५० ।। ८८ टि०, ३५२, ४२० क्षेमक ८६ टि०, कोशिक १६५ क्षेमजित् ८८ टि०, ८६ टि०, ६४ टि०, क्रियावाद ७, ३७, ३५६ समजित् का राज्याभिषेक क्रियावादी ३५६, ३५७, ३५६ क्षेमवर्धन ८८ टि, ८६ टि०, ६४ टि०, क्रीतकृत २७३ क्षेमेवर्धन का राज्याभिषेक क्रूरकर्मान्तक ४१२ क्षेमेन्द्र १०१ टि. क्रोध १८५, २६०, ४१६ १४२ y० क्षेम 2010_05 Page #690 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३६ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन . ख . गयासीस २६८ गया काश्यप २०५, २०७ खट्टमेघ . . ३३१, टि०, गरहदिन्न और सिरिगुत्त ३६७ प्र० खण्डदेवी-पुत्र समुद्रदत्त २६७ गरुड़ ब्यूह ३०१ बन्धक संयुत्त ४१३ टि०, गर्दभाल परिव्राजक १८७ खन्धदग्ग ४१३ गर्भ-हरण महावीर का १२५, १२५ टि० खाणुमत्त (मगध) १२८ प्र०, १८३ खारवेल राजा ६७ टि०, ६८ टि०, गवापति २४ खारवेल का राज्यारम्भ १८ टि०, गवेषणा ३०९ खुज्जुत्तरा २३४, ३१६ गव्यूत ३२८ खुतान १०४ गावुत २५१ खुद्दक निकाय ३१४ टि०, गाइगर, डॉ० ६५ टि०, १०५ खेमा २२४, २२७, २७७, २८६ १०५ टि० खोह-लेख ८२ गिरि निगण्ठ ४४२ गिरिमेखल हाथी १६६, १६७, १६८ गिरिव्रज ८७, ६४ टि. गिलगिट मांस्कृष्ट २८५ टि०, ३०८ टि. गंगा ४, ४८, २७६, ३००, ३०३, गिही-ओदातवसना ४१५ २०१, ३०५, ३३१ टि०, गुणचन्द्र, आचार्य ३४६ ३४८, ४४८ गुणभद्र गंगेय अनगार १६३ गुणव्रत गंडकी नदी ३४८ गुणरत्न तप ३१४ गग्ग ३२१ गुणरत्नसंवत्सर-तप २२६ गणधर ४१, ७३, ७७, १७८, १८३ गुणशिल उद्यान २७७ १६०, १६६, २१६, २७० गुणशिल चैत्य १८७ ३१३, ३२६ गुप्त गणधर पद ३२ गुप्त-संवत् गणधर वाद १७८ टि०, गुप्त संवत्सर गणित शास्त्र १२८, १८७ गुप्त साम्राज्य का इतिहास ८० टि०, ८१, गणिपिटक २२८ ___८२ टि०, ८८ टि. गतात्मा. ४०० गुप्ति १७० गतिशील २२६ गुरु चातुर्मासिक प्रायश्चित्त ४५२ गहमिल्ल ७६ टि०, ८१ टि०, ४६०, ४६७ गन्ध ४१०, ४१६ गुरु मासिक प्रायश्चित्त ४५६ गन्धार ४१० गूढ़दन्त गन्धारपुर ३४५ गृध्रकट पर्वत २६६, २७६, ३०३, गन्धोदक २६५ ३७४, ४१२ गया ११८ टि०, ११४, ३५२ गृहपति ३११,३६६ २८७ 2010_05 Page #691 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा शब्दानुक्रम ६३७ गृहपत्नी नकुल-माता २३४ ग्यारह अंग ११६, १८४ टि०, १८७, गृहस्थ-आश्रम ४०७ २३३, ३१४ गृहस्थ-धर्म २३७ ग्यारह गणधर १७६, २१८ प्रैवेयक ३६ ग्यारह प्रतिमा श्रावक की २३८ गोचरी १६५ ग्रामक सन्निवेश ३४८ गोदोहिका आसन १५३, १७० ग्रामणी संयुत्त ३७८ गोतमक ४३८ प्रामणी सुत्त ४०१ गोत्र कर्म १२१ गोदत्त ३८० गोधिपुत्र २६४ गोपक मोग्गलान सुत्त ३१७टि० घटना-प्रसंग ३६० प्र० ३५६ प्र० गोपानी, डॉ० ए० एस० ३६ टि० घटिकार महाब्रह्मा १५०, १५७ गोपाल-उपोसथ ४०८ घासीलाल महाराज ३०७ टि० गोपालक ९६ टि. घृत-मेघ गोपाल कुमार २१० घोष कृष्णचन्द्र गोपाल-माता २१० घोषक श्रेष्ठी २३४ टि०, ३१६ गोबर गांव १७७ घोषिताराम २६२, ३१६, ४३० गोभद्र गृहपति १६४ गोमूमि ३४८ गोमायुपुत्र अर्जुन गोम्मटसार ४५१ चंक्रमण भूमि २४४ गोरखपुर ४८ चंक्रमण वेदिका २४५ गोशालक प्रकरण ४१७, ४१७ टि० । चउपन्न महापुरिस चरिय २८० गोशालाधिकार ३६४ टि० चक्ररत्न १२६, १४६ गोशीर्ष चन्दन ३३६ चक्रवर्ती ११६, १२१, १२६, १२७, गौतम (इन्द्र भूति) १८, २२, २६, ४१ १२८, १२६, १३३, १३५, १३६, ७३, ७६, १५६, १८३, १८७, १३७, १३८, १४२, १४६, १५२, १६०, १६१, १६२, १६३, १५२ टि०, २०१ टि०, २१४, १६६, २१८ प्र०, २२०, २२२, २६० टि०, ३०७, ३३०, ३४१, २३५, २३७, २३६, २४६, ३४२, ३४३ २५१, २७०, २७८, ३२४, चक्रवाल ३४५, ३६७ ३२६, ३३४, ३३५, ४११, चक्ष दर्शन १७२ टि. ४१२, ४६४ चक्षुष्मान् लोक ३४१ गौतम (बुद्ध) १३, ३६७, ४४५ चट्टोपाध्याय, वसन्तकुमार २९८ टि. गौतम गोत्री १७६, १७७ चण्डकौशिक १६०, १६१ गौतमपुत्र अर्जुन २२, २३ चण्डनाग १६०, १६१, २०५ टि. गौतमी प्रजापति १७५, २२२, २२३ प्र०, चण्ड प्रद्योत राजा८७ टि०, ८८टि०, ८६टि. २२६ टि०, २२७, ४७१ ६६ टि०, १३५, १६७, २०६, ___ 2010_05 Page #692 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३८ २१०, ३०६, ३१०, ३१० टि०, ३१६ प्र०, ३२५ ६ टि० चण्ड प्रद्योत का राज्याभिषेक चण्डाल चण्डाल- कुल चतुक्कनिपात चतु-मधुर स्नान चतुरंगिनी आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन चतुर्थ अनाश्वासिक ब्रह्मचर्यं वास चतुर्थ ध्यान चतुर्थ पाराजिका चतुर्दश पूर्व-धर चतुर्महाराजिक चतुर्याम घमं चतुविध तीर्थं चतुर्विध संघ चन्दनबाला ४४२ ४१६ ३८३ टि०, ३८८ चन्द्रकुमार १७८०, १८४, २१६ प्र० २२३, २३१ ४४१ चन्द्रगुप्त मौर्य ४६, ५०, ६७, ७६.७६ टि० ८४ टि०, १०० टि०, १०१ टि०, १०३ टि०, १०८ चन्द्रगुप्त मौर्य का अवन्ती राज्यारोहण, ३, १०२ चन्द्रगुप्त मौर्य का मगध- राज्यारोहण चन्द्र नामक संवसर चन्द्रपद्मा चन्द्रमा चन्द्रावतरण चन्द्रावतरण च त्य चमरेन्द्र ४२१ ३४३, ३८०, ३८३ ४५५ २१६, ३३४ १३६, १३६ ३७८ ११६, १८० १५८, ३३१, ४७० ६३, १०२ ५१, ५२ ६५, ६७, ६८, ७८, ७६ टि०, ६३, ६८ टि० चन्द्रगुप्त मौर्य का राज्यारोहण चम्पकरमणीय उद्यान चम्पानगरी २६३ ४४० चातुर्दिश संघ चातुर्वीपिक महामेघ चातुर्महाराजिक चातुर्मासिक प्रायश्चित्त चातुर्याम चातुर्याम संवर चातुर्याम संवरवाद चातुर्याम धर्म चातुर्याम संवरवादी चापाल चैत्य चार अनाश्वासिक ब्रह्मचर्य - वास चार अपानक चार अब्रह्मचर्य-वास चार आर्य सत्य चार ऋद्धिपाद चार कषाय चार घातीकर्म चारण ऋद्धिधर चार तीर्थंकर चार निषेध ३३३ २४७ चार याम ४१० २३ १८५ ३०२, ३३६ ३० २३, ६, ७२, ६५ टि० १०७, १७८, २२५ टि० २३३, २४२ 2010_05 चम्मखन्धक चरक परिव्राजक चरित्र ग्रन्थ [ खण्ड : १ २७०,२८८, २८६, २६०, २६६, ३००, ३०१, ३२४, ३४२, ३४६, ३४८, ३४६, ३५०, ३५३ २७६ टि० ३६ ३२६ ३६५ २३५ चर्चा-प्रसंग चर्चावादी चह बच्चा चांग चार पानक चार पूर्व लक्षण चार प्रकार की परिषद् चार प्रकार के लोग चार प्रत्येक बुद्ध चार भावना चार मधु २४५ १०४ टि० २४६ २५७ ४०६, ४१० ४६४ ३, १६३ ३६३ ४०० १६०, ४०१ ६ ३३७, ३३८ ४२० २५ ४२० २०१ ३३७ १६१ १७० १५ ३ ४०१ ४०१.४२१ २५ १४४ प्र० २११ ४३६ प्र० ३२७ टि० ३७८ २६५ Page #693 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा] शब्दानुक्रम तन्त ४५० चार महाद्वीप १४६ चूणि १२५, ४५०, ४५१,४५२ चार महाभूत ४३१ चर्णिकार १७ टि०, ४५१ चार यम ३७८ चूर्णि-साहित्य चार वेद १५७ चूलतण्हासंखय सुत्त २२० टि० चार शिक्षाव्रत २६० चूलदुक्खक्खन्ध सुत्त ३७४, ३७६ चारिका २४६, २५६, २५७, ३८८ २६२, २६८, ३७६, चूलमालूक्य सुत्त । ३८५ टि० ३६४, ४०३, ४२५, ४२६ चूलसकुलदायी सुत्त ३६०,४०१ चारिका-सन्देश २०५ चूलसच्चक सुत्तन्त ४१८ टि०,४१६ टि० चारित्र ११,१७०, १६१, २२८ ४२३ चारित्र-धर्म ३३१ चूल सुमद्दा ३६७ टि० चार्वाक ७ चूल हेमवन्त पर्वत २३६ चालियपर्वत ३५३ चूला चित्त-विमुक्ति ३८३ चेटक राजा ४४, १८५, १६७, २४१, चित्त-विवर्त चतुर २२५ २६७, ३००, ३०१, ३०२,३०३, चित संयुत्त ३८१ टि० ३०५, ३१८,३२४ प्र०, चित्र गृहपति २३३, २३५, २३५ टि०, ३८० ३५६,३५६ टि० चिर प्रवजित ४०१, ४०३, ४०४ चेदि ३५३,४१० चीन १०३ चेलणा रानी १६५, २४१, २७८. चीनी तुर्किस्तान १०४ २८०, २८६, २८७, २६४, २६५, चीनी धम्मपद कथा ४४८ २६८, ३००, ३०० टि०, ३०१, चीनी यात्री १०० टि०, १०३, ११२ ३०६, ३१४, ३२५, ३६८ चुन्द कर्मार-पुत्र ७१, ७३, ३३८, ३३६ चैत्य २३७, ३०४, ३०५ ३४०, ३६१ चोर-नक्षत्र ४४६ चुन्द समणुद्देश ७०, ७१, ३५५. चोरी ४३८,४६६ ३६०, ३६१ चौथा आरा ३३२ चुन्द सुत्त ३५५ टि०, चौदह रत्न ३०६ चुलिणीप्पिया २३३ चौदह विद्या १७६ चुल्लपन्थक २२५ चौबीसी १२१, २४३, २७६ चुल्ल माता ३०६ चौराक सन्निवेश ३०, ३४८ चुल्लवग्ग ३४ टि०, ४५ टि०, ६० टि०, चौलुक्य कुल २१७ टि०, २१६ टि०, २२० टि०, चौर्य २२३ टि०, २२४ टि०, २४६ टि०, २६२, २६६ टि०, २७६ टि०, २६२ टि०, ३६४,४२४, ४५३, ४५५, ४७१ टि० छः अभिजाति ५, २२, ३३, ३७, ३७ टि. चुल्लशतक ४१२ प्र० चूड़ामणि चत्य १२७, १५० छः दिशाचर १७, २१ ____ 2010_05 Page #694 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४० छः धर्मनायक छः बुद्ध छः लेश्याएं छन्द छन्द शास्त्र छन्न (छन्दक ) छ: शाक्यकुमार छट्ठ भक्त छट्ठा दिग्विरति व्रत छटा आरा छत्रपलाशक चैत्य छद्मस्थ २४, १५७, १६८, १६६, ३४६ छद्मस्थावस्था ३४८, ३४६ ४५.३ १८७ १४०, १४७, १४८ छन्न- भिक्षु छप्पन दिक् कुमारियां छम्माणि छह शास्त छेद ६, ६१, ४४१ ३६४ प्र० ३७ टि०, १३५, ४१६ प्र० छलय रोहगुत्त कौशिक गोत्री छहों आचार्य छहों तीर्थंकर छेद-सूत्र छेय आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन जटिल सूत जनपद-कल्याणी नन्दा ज जंगला जंगली नगरक जंघाचारण लब्धि जंघा - विहार जंभिय ग्राम जगदीश काश्यप, भिक्षु जटिलक जटिल तापस २१५ प्र० ३३४ 2010_05 ४११ ६६२ १८७ जटिल १७४, २०५, २०६, २०७, २४६ २७५, ४२३ ४३८ १२२ जनवसभ जनवसभ सुत्त जमाली ३४८ ३४२ २२१ ४१८ १७०, ३४६ ३१५, ४४१ ४४१, टि० ४५८ टि० २७७ ४३, ७४, १३४, १७५ १८४ २६६ प्र० द३४ जम्बू अनगार जम्बूद्वीप १२५, १२८, १३७, १३७, टि० १४४, ४४० जम्बूद्वीपपण्णत्त सूत्र जम्बूस्वामी जम्बूसंड १५० ३४३ १३१ ३४६ जयभिक्खू ४४ जयसूर्य, डॉ० ३६५ जयसेना जयाचार्य, श्रीमद् जयधवला जयन्ती १५२ टि०,२८५ २८५ टि०, ३३२ ५३ ३४८ ४५१ ३१, १८५, १८६, २३१, ३१८ ३१८ टि०, ३१६ ३२६, टि, ३५६ १ १०६ ३६४ जरनल ऑफ बिहार गण्ड ओरिस्सा रिसर्च ४४६, ४६४, सोसायटी ४५८ ४६४ [ खण्ड : १ ४२३ प्र० २१४, २२६ २७७ जरासन्ध जर्मनी जल्लोषध लब्धि जाति-स्मरण ज्ञान जापानी विद्वान् जायसवाल, डाँ० के० पी० २८६ ८३, ३६४ टि० ८७, टि० ६५ २२१ जातक ३३, १२२, १२५, १२६, १२७ १४० टि०,१४८, २१३, टि०, २१४, टि०, २२६, २२६, टि०, २५५ टि०, २८५ टि०, २८६ टि०, २६७, ३०७टि०, ४३४, ४३५, जातक अट्ठकथा १२२ टि०, १२६ टि०, १५७ टि०, १६८, १७२, २१५ टि०, टि०, २६२ टि०, ३०७ टि०, ३२५ ३५४, ४१३, ४३२, ४३४, ४३५, ४४० जातक - साहित्य २५० जातरूप ४१० ८, १६१ १०४ ५६, प्रा०, ५७ ५६ Page #695 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२६ इतिहास और परम्परा] शब्दानुक्रम ६४१ ६५ टि०, ६८ टि०, ६६ टि०, १००, टि०, २८१, २८२, २६१, ३००, ३०७ १०१ टि०, २८२ ३ १६, ३१८, ३२०, ३५४,४१४, ४१७ जालंधर गोत्रीय १२८ ४१७ टि. जाल रौरव ३०७ टि० जैन अनुश्रुति २८२ जालि २७६, २८७ जैन आख्यान जितशत्रु राजा १३४, २३६, ३२४ जैन आगम ३९, ४४,४६, ६८, ६६ ३२६ ७४,७७, ६५ टि०, १२७ टि०, जितेन्द्रिय १५८, २३५, २८३, २८५, २८७ जिन १२६, १२७, १८८, १६२ २६४, २६८, ३१६, ३२१, ३२६, ३५५ २२८, २३६, २७०, ४४३ ४११, ४१३, ४४६, ४५२, ४५६, ४५७ जिनकल्पी साधु ४१५ ४५८,४६६, जिन-धर्मी ३३० जैन आचार ४४६,४६६ जिन-पुत्र १२२ जैन आचार्य ४२ जिन विजयजी, मुनि ५८, ३२६ टि० जैन-उपोसथ ४११ जिन-श्रावकों के साथ ४४५ जैन-कथा जिनसेन, आचार्य ८१ टि०, ८२ जैन कथा-वस्तु ३१०, ३९२ जिनानन्द भिक्षु ४५ टि० जैन कथा साहित्य ३१८, ४४८ जीर्ण ३३७, ३६६ जैन-कर्मवाद ३७४ २३८, २६० जैन-काल-गणना ७६, ८३, ८४, ८७ टि०, जीवक कौमार भृत्य ७७,७७, २३४, २३५ ६२, ६३ टि०, ६५ टि० २७६, २८६,२८८ टि०, ३१४, ३६८ ६६ टि, १०० टि०, ३६६, ४०१ जैन-ग्रन्थ जीवाजीव की विभक्ति २३७ जैन ग्रन्थकार ८२ जुगुप्सु ३५७ जैन-गणना ५६,६६ जम्भक १३१ जैन-जन श्रुतियां जेकोबी, डॉ० हरमन ११ टि०, ३८, जैन, डॉ० कामता प्रसाद १५, १६ ४२ प्र० ३६ टि०, ५७ ६२, ६३, ६५ टि०, ६८, ६६, ७४, १०५ जैन, डॉ० ज्योति प्रसाद ८टि, ३२६ ३५५, ४०२, ४१७, ४१६,४५५ जैन, डॉ० हीरालाल __ ७८ टि. जेत राजकुमार २४५ जैन दर्शन ३८१ जेतवन ३२, ७५, ११३ टि०, ११४, जैन दीक्षा २४५, २४६, २५६, २५७, जैन धर्म ४२, ४७, ६५,७७,१२४ २५८,२६६ २८३, २६२, ३१८ २८३, ३२०, ४०१, ४२४, ४३८ जैन धर्म-संघ जोन्स, जे. जे. २६ टि०, ४४३, ४४५ जैन तीर्थ ४८ ४४६,४४६ टि. जैन धारणा ३१२, ३१७, ३८२, ३८३ जैन ३६, ३७, ४७, ६१, ८३, ८५ जन-पद्धति १२४, १७२, १७३, १७५, २७१, २७८ जन-परम्परा ३३, ३८, ३६,४२, १७, ४६ जीव ३१५ 2010_05 Page #696 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .६४२ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड : १ १२८ ५५, ६२, ६८, ६६, ७३, ७६, ८०, ८३ जैन साहित्य संशोधक ५८, ८१ टि०, ६४ टि०, ११६, १२४, १२५, १२६, ८६ टि० १२७, १३७, १४० १५२, १७६, जैन सिद्धान्त दीपिका ३८१ टि. १६४, १६७, १६६, २१२ टि०, २१६, जैन सूत्र देखें, जैन आगम २२०, २२३, २२६, २३२, २३५, २५३टि०, जैनागम शब्दसंग्रह ३८१ टि० २७१, २७२, २७८, २८३ २८५, २८७, जनेतर परम्परा ३२५ २८८ २९२.२६४,२६५,२६६,२४७ जोतिय निगण्ठ। २५६, २४८,४४२ २६८, ३०५, ३०६, ३०७, ३०८ जोशी, डॉ० हेमचन्द्र २८४ टि. ३०६, ३१५, ३१६, ३१७ ज्येष्ठा ३२६ ३१६, ३२६,३२७,३५६, ३६७, ३७८ ज्योतिर्विद निगण्ठ ४४७ प्र० ३८८, ३६४, ३६८, ४०१, ४१६, ४१६ ज्योतिष शास्त्र १२८, १८७ ४२०, ४४०, ४४३, ४४४, ४४६, ४५२ ज्योतिष्क ४५७, ४६४, ४६५, ४६६ ज्ञातकुल २३८ ४६७,४६८, ४७० । ज्ञातखण्डवन ३४८ जैन पुराण १२० ज्ञातवंश जैन-पुराण-साहित्य २३५ ज्ञातवंशी २०१ जैन प्रव्रज्या ३१३ ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र १५ टि०, १२३ टि०, जैन भारती ६३ टि०, ११८ १८१ टि०, २७८, २७६ टि०, ३८३ टि०, जैन-मत ३९८ २८६, २८६ टि०, २६१ टि०, ३०८ टि०, जन-मान्यता १०७, ३१५, ३७६ _३०६ टि०, ४५८ टि०, जैन-मूर्ति ६७, ६६ टि०, ज्ञातिपुत्र निर्ग्रन्थ ३८२ जैन राजा ३२४ ज्ञातृ-खण्ड उद्यान १३५, १३६ जैन लेखक ६८ ज्ञात्रिक जैन वर्णन ३०७ टि० ज्ञान ११, १७०, १७२, १८८,१८६ जैन विवरण ३०० १६१, २०२, २०४, २१८, २२६ जैन शास्त्र देखें, जैन आगम ३८०, ४०६, ४२४,४४५ जैन शास्त्रकार ४५६,४६३ ज्ञान-बल २७८ जैन श्रावक ४१० ज्ञान-स्थविर जन संग्रहक ४७ ज्ञानावरणीय कर्म जैन संस्कृति १२५ ज्ञाप्ति जैन सत्य प्रकाश ७८ टि० जैन सम्मुलेख १२७, २८६, ३१६ जैन-सम्प्रदाय ३५५ झूठ ४३८ जैन-साधु ३५८, ३६०, ३७७, ३६७, ३७५ झेटस्ट, एच० जी० ए० ३७७, ४३७ बैन-साहित्य २८०, २८६, ३१५, ४१५, ४४२ टीका १२५ KMm ती ४४० ____ 2010_05 Page #697 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा] शब्दानुक्रम ४२१ ३४ ७ तपश्चरण तपश्चर्या (तपस्या) ३४, ३६, ४३, १२३ ठाणांग सूत्र देखें, स्थानांग सूत्र १५१, १५४, १५६, १७०, १८२, १८४, १८७, १६६, १६८ टि०, २०२, २०५, २११, २२०, २२७, २२८, २३०, २३१, २३२, २३५, २३८, २३६, डाकोत २४०, २४२, २७८, २८६, ३३१, ३६७ डिक्शनरी ऑफ पालि प्रॉपर नेम्स ३७१, ३७४, ३७५, ३७० डेलामिने, मेजर ४१ टि०, ३८४, ४६४, ४६५, तपस् तपः साधना २७८, ३१४ टि०, तपस्वी १२३, १२६, १४०, १५२, ढंक कुमकार २७० १८६, १८८, १६२, १६६, २१६, २२०, २३०, २३१, २३५, २४२, २७८, ३०२, टि०, ३५७, ३६१, ४३५, णमोत्थुणं २८६,२६१ ४४२, ४४८ तपस्सुक २३३, २३४ टि०, तपागच्छ पट्टवली ७६ टि०, तपोबल ३६८ तमतमा प्रभा ३०७ टि., तंबाय सन्निवेश . ३४८ तमः प्रभा ३०७, ३०७ टि०, तंसुलिय १७ टि. तव ४६४ तक्षशिला ३, २३५, २७६, ४२५ तापस ३६, १४०, १५२, १७४, १६७ तस्वार्थ भाष्य ४५१ १६६ प्र०, तत्त्व-समुच्चय तापस प्रव्रज्या १२१ तथागत ६,६४, ६२ टि०, ११४, १४१ तापसीय १८८ १५८, २०२, २०६, २१५, २४३, २४५ तामली २३५ २५६, २५८, २५६, २६६, ३१० तारनाथ १०० टि०, - ३११, ३१२, ३२६, ३३८, ३४०, ३४१ तालच्छिगुलुपम सुत ३१२ टि० ३४२, ३४५, ३६१ तालपुट विष ३६६, ३६८,३६६, ३७३, ३७४ तिकनिपात ३८३, ४१० ३८५, ४०५, ४०८,४३४,४४७, तित्थोगालीपइन्नय __ ५०,४६ टि०, ७६ तदुभय प्रायश्चित्त ४६४ ८२ टि०, ८३, ८६ टि०, तन्तुवायशाला १८ तित्थोद्धार प्रकीर्ण तन्दुलमत्स्य ३८७ तिथि-क्रम ६२, १०३, १०४ तपन ३०७ टि० तिन्दुक उद्यान १६० तंत्र ७८ तापस ____ 2010_05 Page #698 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३२ तीर्थ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड :१ तिब्बती १०० टि० तीर्थङ्कर वर्षमान ४० टि. तिब्बती परम्परा २८४, २६७, २६८, तीर्थिक देखें, तैर्थिक ३२६ तुगिक १७६ तिब्बती संस्करण ४१३ तुन्नाक ३४८ तिमिस्र गुफा ३०६ तुलसी, आचार्य श्री १४१ टि. तिर्यञ्च ३७, ४१६ तुषित लोक १२२, १३६, १३७, १३८ तीन कर्म २४६, ४०६,५१० तीन काश्यप बन्धु १७५ टि० तुष्टि १७० तीन गुणव्रत २६० तृतीय अहोरात्र प्रतिमा २२७ तीन गुप्ति ४१६ तृतीय आरा तीन जटिल बन्धु २१२ तृतीय चूलिका ४५० तीन दण्ड ३६० तृतीय ध्यान ३४३,३८० तीन पिटक ४५२ तृतीय पाराजिका ४५५ १२१, १३५ तृतीय (बौद्ध) संगीति ६२ टि०, ११५ तीर्थङ्कर २४, २५, २६, ४२,४३ ४५६ ४३ टि०, ५६, ६४, ६८, ७१ तृष्णा १६२, ३८१,३८२ ७२, ७३, ७५, ७६, ८७ तेज धातु कुशल २२६ टि०,१०६ टि०, ११६,१२१ तेजोलब्धि २२३ १२१ टि०,१२५१२६, १२७ तेजोलेश्या २०, २१, २३ प्र०, ५६ १२८, १२६, १३१ १३३, १४१ ४१६, ४१७ टि०, १५५, १६१, १६२, तेलप्पनाली कस्बा २०६ १६६, १८०, १६१, १९६, तेलोवाद जातक ४३५ २४३, २७७, २७६, २७६ तैथिक ६, १२, १३, २२१, २३७ टि०, २८२, २८३, २८६, ३५८, ३६२, ३६४, ३६४ २६०, ३१३ टि०, ३३०, ४०४,४२४, ४३२, ४३६ ३३२, ३३४, ३८१, ३६१ ४४० ३६२, ३६६, ४०२, ४०३ तोसलि-क्षत्रिय १६५ ४०५, ४०६, ४०७, ४२२ तोसली ६७टि०, १६५, ३४६ ४४०, ४४१ त्याग २१४ टि०, ४०६, ४४५, ४६४ तीर्थङकर गोत्र १२१ त्रयस्त्रिश-देव १७०, ३०५, ३५२, ४०६ तीर्थङकरत्व १२४ त्रयस्त्रिश भवन १५० तीर्थकरत्व प्राप्ति के बीस निमित्त १२१ त्रयस्त्रिंश लोक १२७, १४० १२३ त्रयस्त्रिश स्वर्ग १५०, २२६ तीर्थडकर नाम-गोत्र कर्म २४३ त्रस-प्राणी ३७ तीर्थकर महावीर ३४ टि०, ६२, ६२ टि०, त्रिकालज्ञ १८८ . .. ७८ टि०, १९७ टि०, २८१ त्रिदण्डी परिव्राजक १२०, १२० टि०, २८४ टि०, ३०८ टि०, त्रिनेत्र ८८ टि० ३२५ टि०, ३४६ टि० त्रिपाठी, डा० रमाशंकर ६७ टि० ___ 2010_05 Page #699 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा शब्दानुक्रम ४४६ त्रिपिटक ४,१२,१६,३५,३६,३७ ४२, ४८, ६१, ६६, ७८, ८६ १०६, १२५, २१६, २२२, थावरचा-पुत्र २३२, २३५ टि०, २७१, २८८, थुल्लकोणित २२५ टि. ३१६, ३२४, ३२६, ३२६, थुल्लच्चय २६६ ३५४, ३५६, ३६७, ४१८, थुस जातक २६२ टि. ४३४,४४६ थूणाक सन्निवेश ३४८ देखें बौद्ध-शास्त्र थून १३७ त्रिपिटक इतर ग्रन्थ थेरगाथा ३१२ त्रिपिटक साहित्य २३२, २७४, ३२० थेरगाथा अट्टकथा २६३, २६३ टि०,३०६ टि. ३५५, ३७८, ४१३, ४१४ ३१२ टि०,३१२,३१३ टि. ३१८ टि०, ४०४, ४०४ टि०, त्रिपिटक साहित्य का प्रथम प्रणयन ४५२ थेरा अपदान ३१५, ३१५ टि०, त्रिपिटक साहित्य में महावीर ६४ टि०, थेरीगाथा २७७, २८६, २८७ टि०, ६५ टि०, ७८ टि०, ३५६, ४४७ टि०, त्रिपिटकों में निगण्ठ व निगण्ठ नातपुत थेरीगाथा अट्ठकथा २८६ टि०, २८७ टि०, ३२७ टि०, ३४३ टि०, ३५४ प्र०, २६८ टि०, ३०६ टि०, ४४७ त्रिपृष्ठ १२१ थोमस,ई० जे० ३६ टि०, ६४ टि०, त्रिलोकसार ८२ टि०, ८३ टि० १०४, १५६ टि०, २८१ त्रिशला १२५, १२६, १३०, १३१ ३२१ टि०, ३२६ टि०, १३४, १६३, १८३, २६८ ४५६ टि०, ३२५ त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्रम ३४ टि०, ५१ टि०, १२१ टि०, १२२ टि०, १२६ टि०, १२७ टि०, दक्षिण भरत क्षेत्र १२८ १५५ टि०, १६१ टि०, १६६ टि०, दक्षिण भारत १२५ १७१ टि०, १८३ टि०, दक्षिण ब्राह्मण कुण्ड १२८ १८५ टि०,१६८ टि०, २२० टि०, दक्षिण-वाचाला २७६ टि०, २८० टि०, दक्षिणी बौद्धों की परम्परा ४६, ५६ २८२ टि०, २८३ टि०, २८५ टि०, दण्ड ३०६, ३६०, ३६७, ४०८, ४०६ ३०० टि०, ३१० टि०, दण्डकारण्य ३६३ ३११ टि०, ३१७ टि०, ३१८ टि०, दण्डिक ३२५ टि०, ३३६ टि०, दत्त, डॉ० नलिनाक्ष ३१६ टि. त्रपिटक उल्लेख ३०८ दत्ता, एस० के० ५० टि०, ५७ टि०, ६६ त्रैमासिक तप २३० ददल ४३६ राशिक ७ दधिवाहन राजा १७८, ३२५ ३४८ ४३८ 2010_05 Page #700 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन खण्ड : १ दया दन्तकथा ४४४ दिगम्बर मान्यता २८० ४११ दिन्न १७४, १६९ दर्शक १५ टि. दिव्य चक्षु १७१, ३८६ दर्शक का राज्याभिषेक १०१ दिव्य चाक्ष को २२४, २२७ दर्शन ११, १७०, १७२, १८८ दिव्य बल २४७ १८६, १६१, २०२, २०४, दिव्य शक्त्ति २०६,४५५ २२८ दिव्यशक्त्ति प्रदर्शन ३५४, ३१३ दर्शन और चिन्तन ५४ टि० दिव्यावदान ६४ टि०, ३०७ टि०,३१६ दर्शन और दिग्दर्शन ४८ टि. ३१५, टि०,३२० टि. दर्शन शास्त्र १८७ दिशा-काक दर्शनसार २, २ टि० दिहदन्त २८७ दश पारमिताएँ १२२, ११३, १२३ दीक्षा ६४, ८३, १२६, १५२, १७४ १३६, १३७, १६६, १६७ १७८, १८१, १६३, १६४ १६८ १६६, १६७, १६८ टि०, दशवकालिक सूत्र ३४ टि०, १२४ टि० २००, २२८, २६६, २७५ २१२ टि०, ३३४, ३५४ टि० २७६, २८१, २८७, ३०२ ४३७ टि०,४६७ टि०, ३१४, ३१५, ३२६, ३८६ ४६७ टि०, ४४६,४५८,४६८ दश सहस्र चक्रवाल १३६, १३८, १३६ दीक्षा-पर्याय ४६४ १४६, १६७, १७१, १७२ दीक्षा-प्रसंग २०४ दीघनिकाय ४, ६ टि०,१० टि०, दश सहस्र लोकधातु १३८ १६ टि०, ३४ टि०, ४२ टि० दशार्णपुर १६६, ३५० ५५ टि०, ६० टि०, ६१ दशार्णभद्र १६६ प्र० ७३ टि०, ७७ टि०, १०७ दशाश्रत स्कन्ध १२४ टि०, २७७,२८३ टि०, १४५ टि०, १७५, २२४ टि. २८६ २७४ टि०, २७५, २७५ टि० बहरसुत ६० टि०, ७५ टि०, ४०२ २७७, ३००, ३०३ टि०, दहेज २५० ३०४ टि०, ३२४, ३२४ टि०, दाता २३३ ३२६, ३८६ टि०, ३६१ ३६२ धान २४०, २४५, ३३१, ३५६, ३७६ ४०१, ४०५, ४१३, ४१६ टि०, ३६३, ४०६, ४१६, ४३६ ४२० टि० ४४४, ४४५ दीघनिकाय अट्टकथा ३०३ टि०, दास, शरतचन्द्र १०४ टि. २२४ टि०, २६४, ३०० टि०, दिक्पाल १३७ ३०३ टि०, ३०५ टि०, ३०८ टि०, दिगम्बर ७३ टि०, ८०, ४५१ ३२८ दिगम्बर परम्परा १ टि०,२,३१, ७३ दीपंकर बुद्ध ११६, १२२, २१३ १२६ टि०, १३४ टि०, १७८ दीपमालोत्सव २८५ दीपवंश ८३, ८५ प्र० ____ 2010_05 Page #701 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा] शब्दानुक्रम २८७ दवशमा दुमसेण ४०० ३८४ दीर्घकारायण ३२३ देव-परिषह दीर्घ तपस्वी निर्ग्रन्थ ३६०, ३६१, ३६१ देवदह प्रदेश ११७ ३६२, ३६३, ३६७ देवराज २६६ दीर्घ भाणक १४६, १४७ टि० देवद्धि (क्षम ४, ४४ टि० ३२६ दीवान बहादुर स्वामी कन्नुपिल्ले १०४ देवलोक ४२२, ४३६ दीहसेण दुक्कट का दोष ४७० देव सेनाचार्य २२ टि. दुःख विपाक ३३२ देवानन्द ब्राह्मणी १२१, १२५, १२६, १२८ दुःप्रसह १८३ प्र०, २३१, ३३३ दुम २८७ देवेन्द्र शक्र ३४३ २८७ देशब्रती १८१ दुम्मुह राजा ३१७ दैववाद दुरे निदान १२३ टि० दोहद १३१ प्र०, २६४, २६६, ३०६ दुर्गति ४३६ द्युतिपलाश उद्यान २३५, २३६, २३७ दुर्मुख सेनापति २८० द्युतिपलाश यक्ष २३५ दुषम-दुषमा आरा ३३१ द्रव्य दुःषमा आरा ३३१,३३२ द्रव्य मल्ल-पुत्र २२६ दुःषम-सुषम आरा १२७ द्रव्य लिंगी २७३, २७४ दूइज्जतग-आश्रम ३४८ द्रव्य लेश्या ४१६ दूसरी संगीति, बौद्धों की ४५, ८६ टि० द्रुमक ३१२ दृढ़प्रतिज्ञ मुनि २७ द्रोण ३३, १४८, २४७, ३२१ दृढभूमि ३४६ द्रोण-वस्तु ग्राम २२४ टि०, २२५ टि० दृढ़सेन ८६ टि० द्रोण विप्र २८८, ३४४ ४२१ द्वादश प्रतिमा २२६, २३० दृष्टधर्म २०२, ३५८ द्वादश व्रत २३२, २३६, २३७ दष्टि-निध्यान ३७१ द्वादश व्रतधारी श्रावक २३३ देवकट सोब्भ ४२० द्वादशांगी ७७, ७८ टि०, १५८, देवकुरु २७७ २१८, ४५० देवकुल २७६ द्वितीय अहोरात्र प्रतिमा २२७ देवगति २८० द्वितीय चलिका ४५० देवताओं के प्रिय २२६ द्वितीय ध्यान ३४३, ३८० देवदत्त ६३, ६३ टि०, २१७, २१६, द्वितीय पराजिका ४५४ २२०, २६१, २६२ प्र०, २६२, द्विमासिक तप २३० २६३, २६५, ३११, ३६८ द्विमासिकी भिक्षु प्रतिमा २२७ देवदत्त सुत्त ६० टि०, ३०७ टि०, ३७४ द्विमुख-अवमासक मुकुट ३१७ देवदह नगर १३८, २२७ टि०, ३७० द्वेष १८५, १६१, ४५३ देव-दुदुभि २८०, ३३८, ३४३ दृष्ट 2010_05 Page #702 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४८ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन ३१२ धर्म-चक्र प्रवर्तन सूत्र २०२ धर्म-चक्षु २०३, २०४, २०८, २४४, धनुजय १२१, २४६, २४७, २४८, २६५, २६८, २७४, २७५, २४६, २५०, २५१, ३६५ २६२, २६४ धनराजजी, मुनिश्री ३६७ टि० धर्म-चर्चा २६४,३२३,३६६,४२२ बनावह सेठ १७६, ३०८ धर्म-जागरण १९८, २३८ पनिय कुम्भकार-पुत्त ४५४ धर्म-धातु धनी २२५ टि० धर्म ध्यान धनुष-प्राकार ३४४ धर्म नायक ४०१, ४०२, ४०४, ४१४ धन्ना १६४ प्र० ४२१,४४५ बन्य अनगार २७८ धर्मनेत्र ८८ टि. धन्य (काकन्दी के) २२८ धर्म-प्रज्ञप्ति २३८,४२२ धम्मदिन्ना २२७ धर्म-बोध ३१७ धम्मपद १०४ टि०, ११६, ११६ टि० धर्मरक्षित भिक्षु २९६ टि. ४४४,४४४ टि०, ४४८ धर्मरत्नप्रकरण ३१३ टि. धम्मपद अट्ठकथा १२, १४ टि०, ३५ टि०, धर्मवादी ४५३ २२० टि०, २२२ टि०, २२६ टि०, धर्म-विनय २४५, ३६०, ३६२, २४७ टि०, २४८ टि०, २५५ टि०, ४०४, ४०५, ४०७ २५७ टि०, २६६ टि०, २७६, २६२ टि० धर्म संघ ३५४, ४४६ २६३ टि०, ३१० टि०, ३१२ टि०, धर्म-संघ, बुद्ध का १७४, २२२, २२४, ३१७ टि०, ३१६ टि०, ३२० टि०, २३५, २४० ३२३ टि०, ३५४, ३६४, ३६७, ३६७ टि०, धर्म-संघ, महावीर का १७४, २२७, २३० ४३६, ४४०, ४४४, ४४७ धर्म-संघ में स्त्रियों का स्थान ४७० प्र० धम्मिक उपासक ४२४प्र०,४३८ धर्म-सभा ४३३, ४३४ पम्मिक सुत्त ४२४ धर्मसागर, उपाध्याय ७६ टि० धरणेन्द्र १६६ धर्म-सेनापति २२० ३३०, ३३८, ३४३, ३५६, ३५८ धर्मोपदेशिका २२७ ३६४,३६६, ३७६, ३८०, ३६२, धवला ८१ टि०, ४५१ ४०२, ४०३, ४०५, ४०८, ४१६, धातु-निधान ४२४, ४२५, ४३२, ४४७ ४५३, ४५४ धातु विभंग सुत्त २७६ धर्म-उपोसथ वत ४०६ धातु-विभाजन ३४४ धर्म और दर्शन ७८ टि० धारिणी १२१,१७८,१८१,२८६, २८७, धर्म-कथा २४६, ३८१, ४२२ ३००, ३०६, ३०६ धर्म-कथिक २२५, २३३, ३३७, ३८१ धुत धर्म-ग्रन्थ ४५५ धुतवादी २१४ धर्मघोष मुनि १६६ धूमकेतु धर्मचक्र ११४, १४० धूम-गृह २६५, २६८ धर्मचक्र प्रवर्तन १२६, २११ घूम-प्रभा ३०७ टि०, घर्म २२३ २६७ 2010_05 Page #703 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा] शब्दानुक्रम ६४६ धूमरौरव ३०७ टि० नन्द संवत १००टि० धूलि-धूसरित निगण्ठ ४४८ प्र० नन्दा -२२६, २७६, २८६, २८७ धृति २३८ नन्दा रानी ३०८, ३०६, ३१४ धृतिमान २२६ नन्दिग्राम ३४६ ध्यान ३१, १२३, १५१,१५३, १५४, नन्दिनी पिता २३३, ३२४ १५६, १५७, १६०, १६१, १६२, नन्दी काश्यप २०६, २०७ १६३, १६४, १६५, १६८, १६६, नन्दीवर्धन ८६ टि०, ८७ टि०, ६५ टि०, १७०, १८२, १६८ टि०, २४५, ६६, ९६ टि०, ६७, ६७ टि०, १००, २७३, २७७, २८०, ४२०, १०० टि०, १०१, १०१ टि०, ४२१,४३६, ४६४ १०२ टि०, १०३ टि०, ३२५, ३३३ ध्यानियों २२५ नन्दीवर्धन का राज्यारोहण ६६ टि. ध्यायिका २२७, २३४ नन्दीवर्धन की मृत्यु १०० टि० ध्वज १४२, २८१ नन्दी वर्धन (महावीर का भाई) १२७, १३४, १३५ नन्दीश्वर द्वीप २२२ नन्दीसेन भिक्षु १८१ प्र०, २२०, २७६, नकुल-पिता गृहपति २३४ २८२, २८७ नगर-सेठ २४४ टि० नमो बुद्धस्स, नमो अरहन्तानं ४४३ प्र० नग्न (साधु) १२, ३६, २५१, २५४, नरक १०, १४, ३३, १२१, ४१५, ४१८, ४२१, ४२३, १३८, १७१, १७७, २३६, ४३६, ४४८ २६८, २७३, २७६, २८०, नग्नत्व २८२, ३०७ टि०, ३१२ टि०, नग्न निर्ग्रन्थ ४४८, ४४६, ४५० ३१५, ३६८, ३७६, ४३७, नन्द २६, ४६ टि०,८६, १०० टि०, १०१ टि०, १७५, २११ प्र०, नरकेसरी ३२५ टि०,३५६ २१५, २२६, २२६, २३० नर-हत्या ४५४ नन्दक २२६ नरेन्द्रदेव, आचार्य नन्द 'द्वितीय' १०३ टि०, नकलपान (कोशल) ३५२ नन्दन वन ३३७ नवक-निपात ३८४ नन्न (नाई) १०३ टि० नव कारू २८५ नन्दपाटक २६ नव नन्दन ६६ टि०, १०२ टि० नन्दमती २७६ नव नारू २८५ नन्द-वंश ८६ टि०, ६३, ६३ टि०, नवम पूर्व ४५० ६३, ६५ टि०, ६५, ६६ टि०, नव मल्लकी ३२८, ३३५ ६६, ६६ टि०, १०१ टि०, १०२ नब लिच्छबी ३२८, ३३५ नन्द वत्स ३७,४१२ नवसार १२१ नन्द राजा ६७ टि०, ६६ टि०, १००, नांगनिक ४८ टि० १०० टि०, १०१, ६६ टि०,१०२ टि०, नाग ३३३ ३४ ____ 2010_05 Page #704 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५० आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड : १ नागदसक ५१ टि०,६६ टि०, १०२ टि. ३५६, ३५७, ३६०, ३६१, नागदशक का राज्याभिषेक १०१ ३६८, ३७०, ३७१, ३७५, नाग रथिक २४० ३७६, ३७८, ३८६, ३८६, नागराज ३४५ ३६१, ३६२, ३६५, ३६६, नागवंशी २०१ ३६७, ३६८, ४००, ४०८, नागसेन ४४१ ४११, ४१२, ४१७, ४१६, नागिल ४२०, ४२३, ४२४,४३४, नागेन्द्र १३३ ४३५, ४३७, ४३८, ४३६, नानाघाट शिलालेख १८ टि० ४४०, ४४२, ४४४, ४४५, नाना तित्थिय सुत्त ३४ टि०, ४२२ ४४६, ४४७, ४४८ नाना तैथिक ४२२ निगण्ठ-उपासक ३१६, ४४५ नापित २१७, २२६ टि० निगण्ठ उपोसथ ४०८,४१२ नारक ४१६ निगण्ठ-दम्पति ४१६ नारी-दीक्षा २२२ निगण्ठ-धर्म १८२, २३२, २३६, २७३, नालक ग्राम २२४ टि०, २७४, २७६, २८०, २८२, नालक परिव्राजक ४४५ प्र० २६१, ३१३, ३१५, ३५५, बालक ब्राह्मण ग्राम २२५ टि०, २२६ टि० ३८६, ४४४, ४४५, ४४७, नालक सुत्त ४४५ निगण्ठ-धर्मी ४४६ नालन्दा १८, ३१५ टि०, ३५०, ३५३, निगण्ठ नातपुत्त ४, ६, २१, ३७ टि०, ३५१, ३५४, ३६०, ३६३, ६०, ६० टि०, ६१, ७०, ७१, ३७६, ३६३ ७२, ७५, ७६, ७७,२३५, २३५ टि० नालन्दा में दुर्भिक्ष ३७८ प्र० ३१०,३११, ३५४, ३५४ टि०, नालन्दा सन्निवेश ३४८ ३५५, ३५६, ३५७, ३६०, नाला (एक नाला) ३५३ ३६१, ३६२, ३६३, ३६५, नालागिरि हाथी २६६ प्र० ३६६, ३६७, ३६८, ३७०, नालि २२१ ३७१, ३७५, ३७६, ३७७, नासिक शिलालेख १८ टि० ३७८, ३८०, ३८१, ३८४, नाहर, पूर्णचन्द्र ३८५, ३८६, ३६१, ३६२, निकदेवपुत्र ३६३, ३६४, ३६६, ४००, निकाचित १८१ ४०३, ४०५, ४०६, ४०७, निर्ग्रन्थ ४१३, ४१५, ४१८, ४१६, निगण्ठ २, ३, ६, १३, १४, २२, २४, ४२०, ४२१, ४२२, ४३२, ३०, ३६, ३७ टि०, ४०, ७० ४३४, ४३५, ४४१, ४४२, ७४, ११६, १७८, १८०, १८१, ४४५ १६०, २२७, २३५, २३७, निगण्ठ नातपुत्त को मृत्यु का कारण २३६, २४३, २५१, २५२, ३६२ प्र० २५४, २७०, २७४, २६०, निगण्ठ पर्याय ३०३ ३११, ३३४, ३५४, ३५५, निगण्ठपुत्र ४१६ 2010_05 Page #705 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा शब्दानुक्रम ६५१ ४३८ ४१८ ४५१ निगण्ठ मान्यता ४२० निर्ग्रन्थ संघ २५४,२८३३६६ निगण्ठ-शासन ४४८ निग्रंथ सम्प्रदाय ३५५ निगण्ठ श्रावक ७०,३६६, ४१५ निर्ग्रन्थों का तप ३७४ निगण्ठ-साधु ३६७,३९८,४४८ निग्रन्थों के पांच दोष निगण्ठ स्थविर ४११ निग्रन्थों को दान ४४४ निगण्ठ सुत्त ३८१ निर्जल ४११ निगण्ठा एकशाटका ४१४ निर्जरा २७८, २६०, ३६०, ३८२, निगण्ठियों ३६४,४१६ ३८३, ३८६, ३८७, ३८६ निगण्ठों में फूट ७१, ७२, ७४ निघण्टु १२८, १८७ निर्मम नित्यपिण्ड २७३ नियुक्ति १२५, ४५०, ४५२ निदान १२४, १५७ टि०, १६८ टि० नियुक्तिकार १७१ टि०, ११३ टि०, २१५ टि०, निर्वाण २५, ७८, ११४, १२१, १२२, २३५, २७८, ४५४, ४५५, १५०, १७०, १७६, ४६६ टि० १६३, २४४, २६१ २६६, निदान प्रकरण १२४ टि. ३०७, ३१५, ३५१, निन्दा २१४ टि० ३८२, ३८३ ३८६, ३८७, निद्राजयी २२८ ३६३, ४०८, ४१८, ४२१, निमित्त ३४, २७८ ४५१,४६६ नियतिवादी ५, २७, २८, २९, ३२ निर्वाण-चर्चा ३६१ प्र० निरति ३३३ निर्वाण-रति ४०८,४१० निरयावलिका सूत्र २८७, २६४ टि०, निर्वाण-संवाद-१ ३६० ३००, ३०० टि०, ३०१ टि० निर्वाण-संवाद-२ ३६१ ३०६ टि०, ३०७ टि०, निवृत्ति ८८ टि. ३०८ टि०, ३२६ निहारिम १६० निरयावलिका टीका ३०० टि० निशीथ (सूत्र) ३४ टि०,४४६ टि०, निरव्वुद ३०२ टि०, ४५० टि०, ४५१ टि०, निरामित्र ८८ टि०, ४५२ टि०, ४५७ टि०, निराहार ४११ ४५८ टि०, ४५६ टि०, निरोग २२६, ४६० टि०, निर्ग्रन्थ देखें, निगण्ठ ४६७ टि. निर्ग्रन्थ-आचार ४३७ निशीथ : एक अध्ययन निर्ग्रन्थ-गर्भ ३३ निशीथ का मल और विस्तार ४५२ निर्ग्रन्थ गृहस्थ श्रावक ४१५ निशीथ के अब्रह्मचर्य सम्बन्धी निम्रन्थ दीक्षाएँ १७६ प्रायश्चित्त-विधान ४५८ निर्ग्रन्थ-परम्परा ४४५ निशीथ चूणि २८६, ४४६ टि०, ४५१ टि. निर्ग्रन्थ परिषद् ३८५ ४५७ टि. निग्रंथ प्रवचन १८४,२३६, ३६१ निशीथ शब्द का अभिप्राय ४५१ प्र० 2010_05 Page #706 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड : १ ३५ निस्सग्गिय पाचिनिय ४५७, ४६५, ४६७, पंचाल ३३३ टि. ४६७ टि०, पंचेन्द्रिय प्राणी ३६७, ३८८ निह्नव ४३ पकूध कात्यायन देखें, प्रकुध कात्यायन नीति ३०६ पक्कुस मल्ल-पुत्र ३३६, ३४० नील अभिजाति ३७, ४१२ पक्कुसाति २७६, ३१६ नील लेश्या ४१६ पटना ४७, १० टि०, नीवार ४३७ पटाचारा २२४, २२७ नृचक्षु । ८७ टि० पटिभान नृत्य ४१० पटेल, गोपालदास ३८, ५५ नेमिचन्द्र, आचार्य ८२, २८१, ३१७, पट्टावली ३३२ टि०,३३४ टि०, ३४६ पडिक्कमण ४६४ नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती ८१ टि० पण्डितकुमार लिच्छबी ३८२, ३८३ नेपाल ४५६ पण्डित मरण १८६ नेरञ्जरा नदी १५८ पण्यशालाएँ २७७ नेगम २४४ पतंजलि नैमित्तिक ३०२ पतापन ३०७ टि० नैरयिक २६६, ३११ पत्त कालाय ३४८ नरयिक भाव १६० पदानुसारी लब्धि २२१ नैर्याणिक ३६२ पदुम ३०७ टि० नवसंज्ञानासंज्ञायतन ३४३ पद्मनाभ २७६, २७६ टि०, २८२ न्यूग्रोधाराम २१२, ३७४, ३८५, ४७० पद्मलेश्या ४१६, ४१७ न्याय-धर्म ४०५ पद्मामवती, गणिका २८६, ३०८, ३१३ पद्मावती, धरणेन्द्रपद्मावती रानी २७, ३००, ३०६, ३०६ ३१८, ३२५ पंकप्रभा ३०७ टि० पद्मावती, यशोदा की माता पंच अभिगमन २६० पद्मासन २४२, २४३, ३३३ पंचकल्प भाष्य चूणि ४५० पन्द्रह सौ तीन तापस १६६, १९६ पंचकनिपात ३७८ पपहर ४८ पंचभूत १७६ पयाग पतिट्टान ३५३ पंचम आरा ३३२, ३३४ परचक्रभय पंचवर्गीय भिक्षु ३, १५६, १७२, १७५ टि०, पर-परिवाद १८५ २०१ प्र०, ३८६ टि० परम प्राप्ति-प्राप्त ३८१ पंचवस्तुक ७६ टि०, परम शुक्ल अभिजाति ४१२ पंचशतिका खन्धक ४५३ परमाणु १८५ पंचशाला ३५३ परमार्थ-पारमिताएँ पंचशिक्षात्मक ४०१ परलोक पंचशील १३७, ३७७ पर-वादिता २२८ ४३१ 2010_05 Page #707 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा] शब्दानुक्रम ४०७ २५ पर-सिद्धान्त २२८ पांच शिक्षापद पराक्रम २३८ पांच समितियां २३०, ४१६ परिग्रह १८५, २६०, ४६६ पांचाल देश ३१७, ३५३, ४१० परिग्रह-विरमण २६० पाइयसद्द महण्णवो १६१,२८४ टि० परिनिर्मित-वशवर्ती १३६, ४०६, ४१० पाचित्तिय ४६२, ४६२ टि०, ४६२ परिनिर्वाण १७५, २६६, ३२८ प्र०, ४६२ टि०, ४६३, ४६३ टि०,४६५, ३५३ टि०४५६ ४६६, ४६७, ४६७ टि०, परिब्बाजक वग ४६८ टि०, परिवेण २४५ पाटलिपुत्र ७६, ६५ टि०, १०१ परिव्राजक ३५, १३८, १७४, १८८ ३०५ २०१ टि, २०६,२०७. पाटिदेसनीय २०८, २०६, २३०, पाठ २४२, ३८१, ३८९,४०४, ४०५, पाणिनी ३५, १०० टि० ४२०, ४२३, ४२६ पाणिनीकालीन भारतवर्ष ३५ टि०, ४२६, ४३८ १०६ टि. परिव्राजक शास्त्र १२८ पाणिनी व्याकरण ३५ टि०, १०६ टि., परिव्राजिकाराम ३८६ ३२५ टि०, परिशिष्ट पर्व ४६, ५०, ४६टि०, ५३ टि०, पाण्डव पर्वत १५५ २६१ टि०, पाण्डकाभय ४४१ परिषह ११६, १६०, १६४, १६४ टि०, पाण्डुकाभय का राज्याभिषेषक १६४, १६८, २०५ टि०,३१३ २७१ परिषह-जयी २२७ पाण्डु वासुदेव का राज्याभिषेक ६२ टि० पर्यङ्कासन ३३३ पाण्डे प्रो० जी० सी० ४५६, ४५७ टि०, पर्यवगाढ़ धर्म ३५८ ४५७ टि० २३७ पाण्डेय, प्रो० श्रीनेत्र ५२ टि, ७८ टि०, पव्वज्जा सुत्त २७२ टि० ७६ टि. पश्चिम महाविदेह १२१ पातंजल महाभाष्य ३५ टि. पश्चिम विदेह १३७ पातंजल योगदर्शन ३७८ पश्चिमी विद्वान् ४५१ पाताल लोक ३२८ पांच अणुव्रत २३७, २६० पातिमोक्ख पांच अभिगमन १८३ पात्र-दान ४४५ पांच आश्रव ४१६ पादोपगमन अनशन १८७, १८६ पांच इन्द्रिय १६१ पान-कथा ४०६ पांच परिव्राजक १५६ पानी ४६७ पांच महात्याग १६७ पाप १७६, १८५, २६१, ४२१, ४३१, पांच महाविलोकन, बुद्ध के १३६ ४३१, ४३५, ४४५ पांच महास्वप्न १५७,१५७ पाप-बन्ध ३६७ पांचवीं अभिजाति ४१५ पारम्परिक-कथन ४५५ ४४१ पल्योपम ४६६ 2010_05 Page #708 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५४ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन खिण्ड : १ पारम्परिक धारणा ४५२ ३५३,३५३ टि०, ३६०,३६७, ३६२, पारांजिक ४६१ टि०, ४६२ टि०, ४६५ ३६३,४५३ पाराजिका ४६१, ४६२ टि० पावापुरी मध्यम १७६, १८० पाराजिका पालि ४५८ टि० पावारिय पाराञ्चिक ४६४ पावा-वासी मल्ल ७१, ३६१ पाराञ्चिय ४६४ पासादिक सत्त ७१, ३६१,४१५ पारिणामिकी ३०६ पिंगलकोच्छ ब्राह्मण ४२२ प्र० पारिवारिक देव १७० पिंगल निग्रंथ १८७,१५ पारिपाश्विक भिक्षु-भिक्षुणियां २१८ पिटक देखें बौद्ध शास्त्र ३१४ टि. पिंडचार २५२, २६६, ३६६ ४०६ पारिलेयक ३५३ पिण्डपात ३४०, ३६० पाजिटेर, एफ० ई० ८४, ८४ टि०, ८६ टि० पिण्डपातिक २५२ पार्श्वनाथ २, ३, १७ टि०, ३०, ३४, पिण्डोल भारद्वाज २२५, ३१६, ३२०, ३६३ ४२, ८७ टि०, ६४ टि०, ३६४ १६६, १६०, १६१, १६३, २८२ पिप्पलाद ऋषि पार्श्वनाथ का चातुर्याम धर्म ३, ७४ टि० पिप्पलीवन ३४५ पार्श्वनाथ का निर्वाण १४ टि. पिप्पली कुमार पार्श्वनाथ-परम्परा ३०, ३२, २७४, पिलिन्दिवात्स्य २८२, ४०१, ४१७ पिशल, डॉ० २८४ पार्श्वसंतानीय १६० पिहिताश्रव पार्श्वस्थ-साधु ३४, ४६५, पुक्कुस-कुल ४१७ पाश्र्वानुग साधु ३० पुण्डरीक १२८, ३०७ टि० पाश्र्वापत्यिक १३४, २७४ पुण्णक २४६ पालक राजा ४६, ७६ टि०, ७६ टि० पुण्णसेण २८७ ८१ टि०, ६६ टि०, ३४६ पुण्य २६०, ४१०, ४१६, ४२१ पालक का राज्याभिषेक ६६ टि. पुण्सपाल, राजा ३३४ पालक-वंश ६३, ६७ टि. पुद्गल १८५, २३४, ४५४, ४५५ पालि ३६, ६१, ८५,४४६, ४५६ पुनर्जन्म ११,४०४, ४०४ पालि-गाथा ___ ८५ पुनर्दीक्षा ४६४ पालि-ग्रन्थ २८१ पुराण ८४, ८६ टि०, ८७ टि०. पालि पाठ ३५६ ८८ टि०, ६० टि०, ६४, ६३ टि०, पालि वाङ्मय में भगवान् महावीर ३५५ टि० ६४ टि०, ६६ टि०, ६६ टि०,१०१, पालि-साहित्य ३०८ टि०, ३५५ २७१, २८१, २६६,४१४ टि० पावा ४३, ४३ टि०, ४७ प्र०, ५५, पुराण-साहित्य ३१७ ५६ टि०, ७०, ७१, ७२, ७३, ७४ पुरातत्त्वीय दृष्टि १८ टि. ३२८, ३३०, ३३२, ३३८, ३३६, ३४८ ३४४, ३४६, ३४६, ३५१, पुरिमसेण २८७ ____ 2010_05 Page #709 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा ] पुरुष-दम्य सारथी पुरुषाकार पुलिक पुष्करिणी पुष्कल - संवर्त महामेघ पुष्पपुर पुष्पवृष्टि पुष्यमित्र पूरणकाश्यप पूरण तापस पूरण दास पूर्णकलश पूर्ण जित् पूर्णभद्र चैत्य पूर्णभद्र देव पूर्ण मैत्रायणो पुत्र पूर्णवर्द्धन पूर्णसिंह पूर्ण दासी पूर्वधर पूर्व नद पूर्व विदेह पूर्वाराम-प्रासाद पृथक् जन पृथ्वी पृष्ठ चम्पा शब्दानुक्रम ३७७ पेटवत्थु अट्ठकथा पेढ़ाल उद्यान पेढ़ाल गांव 2010_05 २३८ ८७टि, ६६ टि० ७६ टि०, ८१ टि०, ४, ७, १२, १४, ३७ टि०, ७५, ७६, ७६, १०६ टि०, ३१२ टि०, ३८१, ३६४, ३८४, ३६३, ३६४, ३६६, ४००, ४०२, ४०३, ४०५, ४०६, ४१२, ४१३, ४१४, ४१७, ४१८, ४२०, ४२२, ४३२, ४३८, ४४१, ४४३, ४४५ १२ २४७ ३४८ ३०५ २८६, २६० १५८ २५, ३३२ १०० टि० ३३६ ६६ टि० पेढ़ाल पुत्त उदक पे, एम० गोविन्द पैशुन्य पोखली पोट्ट - परिहार पोट्टपाद सुत्त पोत्तनपुर पोलास चत्य २५ २२५ २४८, २४६, ३६५ २३४ टि०, १५७ ४२५, ४३१, ४३१ पूर्वकतृत्ववादी पूर्व - जन्म ३८६, ३८६, ४३५, ४३५ पूर्व जन्म का स्मरण करने वाला १७१ २२६, २२७ ७७ टि०, ४५० १०१, १०३ टि०, १३७, १३७ टि०, २२०, २३२, २५५ प्र० २८३, ३२०, ४०७, ४२३ प्रज्ञा प्रज्ञा- विमुक्ति ३६८ प्रज्ञा सम्पन्न प्रज्ञोत-दायिका ४६७ प्रत्तिक्रमण ३४८, ३५० प्रतिभाशाली पोलासपुर पौरवचन्द्र वंश पौरव वंश पौराणिक पौराणिक आख्यान पौराणिक काल-गणना १२१, २८० १६२, १६३, ३४६ २८, २३३, ३४६, ४७६ ८७ टि०, ८६ टि० ६२, ८३ ४६३ ८३, ८४, ८५, ८६ ८७, ८८ टि०, ६३ टि० ६६ टि०, ६६ टि० १६८, ३३८, ४११ १६८, २३७, २३६ २३८, ४११, ४१२ ४, ५, ७, १४ प्र०, ७५, ७६, ७६, ३८१, ३६३, ३६४, ३६६, ४००, ४०२ ४०३, ४०५, ४०६ ४०७, ४१३ ४१८, ४२०, ४२२, ४२२, ४३२, ४४१ ४४७ पौषध पौषधशाला पौषधोपवास प्रक्रुध कात्यायन प्रखर प्रतिभा में अग्रगण्या प्रखर प्रतिभाशालिनी प्रज्ञप्ति प्रज्ञप्ति आदि विद्या ६५५ २७६ १६२ १६२ १६३ ११८ १८५ २३३ २१, २२, ४१३ ३८५ टि० २२७ ૪૪ २२८ २१४ टि, ३८३ ३८३ ३८३ २३४ १३४, २७०, ४६४ २२६ Page #710 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५६ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड : १ २३८ ४११ १४ प्रतिमा २३८ प्रव्रज्या ६४, ७६, ७७, ११५, ११६, प्रतिलेखन १४१, १४६, १४७, १५१, प्रतिसंवित् २०६ १५५, १७७, १८२, १८६, प्रतिसंवितप्राप्त २२६ २०१ २०१ टि०, २०२, प्रतीत्य समुत्पाद १७१ २०४, २०५, २०७, २०६, प्रत्यन्त-ग्राम ४२६,४३० २११, २१४, २१६, २२४, प्रत्याख्यान २३७, २३८, २३६, ४११ २२८, २६८, २७१, ७३, प्रत्येक बुद्ध १३७, २६६, ३०७ २८०, ३०८, ३१२, ३१४, प्रथम अहोरात्र प्रतिमा २२७ ३२५, ३३६, ३४०, ३४२ प्रथम चूलिका ४५० ४०३, ४०४, ४०५, ४०७, प्रथम ध्यान ३४३, ३८० ४१८, ४३५, ४४५, ४४७, प्रथम नन्द राजा ६४ टि० ४४८,४६६, ४७० प्रथम माराजिका ४५४ प्रव्रज्या पर्याय ४६४ प्रथम बौद्ध संगीति ६१ टि०, १८७ टि०, प्रश्नोत्तर २२२, २२३, २६४, ४५२, प्रश्नोत्तर तत्त्वबोध ३६४ टि. ४५६, ४५५ प्रश्नोपनिषद् प्रथम शलाका ग्रहण करने वाला २२५ प्रसन्नचन्द्र राजर्षि २८० प्र०, ३६७ प्रदेशी राजा ३२४ प्रसन्न-चित्त ३५८ प्रद्योत देखें, चण्ड-प्रद्योत प्रसेनजित् राजा १३, ७५, ८६ टि०, प्रधान ८७ टि०, ८८ टि०, ८६ टि०, प्रधान, डॉ० सीतानाथ (५ टि० ६४ टि०, २४७, २४६, २८३, प्रपा २४६ २८५, २८६, २६१, २९७, २४६ ३०६, ३२० प्र० ३२३, प्रबुद्ध कर्नाटक - ११८ टि. ३२५, ४०१, ४०२, ४२३ प्रभव प्रसेनजित् का राज्याभिषेक १०१ प्रभावती १६७, ३२५ प्राकृत प्रभास १७६ प्राकृत-ग्रन्थ ३१७ ८८ टि० प्राकृत भाषाओं का व्याकरण २८४ टि० प्रभूतधन संचय श्रेष्ठी २७१, २७४ प्राग बुद्ध ६० टि० प्रमाद ४१०,४६६ प्राग बुद्धकालीन ८६ टि० प्रमुख उपासक उपासिकाएं २७५, ३१४ प्राचीन भारत १०० टि. टि० प्राचीन भारत का इतिहास ६६ टि. प्रमोद २६६ प्राचीन भारतवर्ष ८७ टि०, ६३ टि०, प्रतिनी २१६ ६४ टि०, ६४ टि०, ६६ टि० प्रवृत्त-परिहार (पारिवृत्त परिहार) देखें, पोट्ट प्राचीन वंश दाव ३५२ पारहार प्राणत १२१, १२८ प्रवृत्ति वादुक पुरुष २८८, २८६, २६१ प्राणातिपात १८५, २३६, २८०, ४०१ प्रपागृह ३६ प्रभु 2010_05 Page #711 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा] शब्दानुक्रम ६५७ ४८ प्राणातिपात-विरमण २६० प्राणी-हिंसा ४३८ प्रातिमोक्ष ७१, ३८३ बंग २५, ४१० प्रातिहार्य १३, १४, २०७ बंग चूलिका ८३ टि. प्राद्योतवंश ८६ टि०, ८७ टि०, ८८ बनजारे २३५ टि०, ६६, ६६ टि० बनर्जी, डॉ० आर० डी० ६७टि. प्राप्तकाल चैत्य २३ बन्ध १७४, २६० प्राप्त-धर्म ३५८ बरलिंगघम, ई० डब्ल्यू. ४१४ टि. प्रायश्चित २२६, ४४६, ४५०, ४५२, बरुआ, डॉ० बेणीमाधव १४ टि०, ३८ ४६८, ४६६ बर्मी परम्परा ११७, ११८ प्रायश्चित्त-विधि ४६४ प्र०,४६५ बर्मी भाषा ११७ टि० प्रायश्चित्त-विधान ४५२, ४५८, ४६१ बल २३८ प्रायश्चित्त-वेत्ता ४६५ बलदेव १२८, १२६, १३३, ३३४ प्रावारिक आम्रवन ३६०, ३६२, ३७६ बल-भावना २६६ ३७८ बलमित्र ७६ टि०, ८१ टि. प्राण-दण्ड ४४६ बलीन्द्र ३३६ प्रासक २३७ बसाढ़ प्रियंवदा दासी १३२ बहुशालग ३४० प्रियदर्शना १३४, १७५, १८४, १८४, बहुशाल चैत्य १८३ टि०, २६६, २७० बहुश्रुत २१४ टि०, २२६, २३४ प्रिय मित्र चक्रवर्ती १२१ बांठिया, किस्तरमलजी प्रीतिदान १६६, २००, २६० टि० बाणावरोधिनी विद्या १४४ प्रीतिवर्द्धन ३३३ बादर काय-योग प्रेमी, पं० नाथूराम २ टि०, ४६ टि० बादर मनो-योग ३३३ बादर वचन-योग बारहवां स्वर्ग ४१७ बारह व्रत ३०१, ४१० बार्हद्रथ ८७ टि०, ८८ टि०, ८६ फर्ग्युसन १०५ टि०, ६६ टि० फल्गश्री ३३१ बार्हस्पत्य फा-हियान १०३ बालक लोणकार-निवासी ३५२, ३६१ फिन्स्ट ४५६ टि० बाल मरण १८६ फीयर, डॉ० १४ बालका १६४, ३४६ फोसबोल २६७, टि०, ४०५ टि० बावरी २२७ टि० फ्रैंक ४५५ बावेरु जातक ४३४ फ्लीट, डॉ० १०५, ११५, ११७ टि० बावेरु राष्ट्र ४३३ 2010_05 | Page #712 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५८ बाशम, डॉ० बिगन्डेट बिम्बि ३६, ३८, ६२ टि०, ४१५ ४१५, ४१५ टि०, ४१७, ४१७ टि० ११७ टि०, ११७ टि० बिम्बिसार बिहार, उत्तरी बिहार, दक्षिणी बील, एस० बुद्ध आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन 2010_05 २८४ देखें, श्रेणिक ४८, ५६ ४८ ४४८ १ प्र०, ४, ६, १२, ३२, ३४, ४१, ४१ टि०, ४३, ४३ टि०, ४६, ४७, ५६, ५७, ५८, ६०, ६२, ६३, ६४६८, ६८ टि०, ६६, ७३, ७४, ७५, ७६, ७७, ७८, ८६ टि०, ८७ टि०, ६१ टि०, १०४, १०५, १०६, १०६ टि०, १०७, १०७ टि०, ११४, ११३ टि०, ११४, ११५, ११६, १२२, १२५, १२६, १२७, १२७ टि०, १३६ प्र०, १३७, १५१, १५५, १५६, १५७, १५८, १५६, १६०, १६१, १६६, १६७, १६६, १७१, १७२, १७३, १७४, १७५, २०१, २०१ टि०, २०२, २०३, २०५, २०७, २०६, २११, २१२, २१३, २१४, २१५, २१७, २१८, २१६, २२०, २२२, २२३, २२४, २२४, टि०, २२६, २२६ टि०, २३१, २३४, २३५, २४३, २४४, २४६, २४७, २५१, २५४, २५५, २५६, २५७, २५८, २४६, २६१, २६२, २६४, २६५, २६६, २६७, २६६, २७१, २७४, २७५, २७६, २८१, २८२, २८३, २८६, [खण्ड : १ २८८, २२, २३, २६४, २६६, २०३, ३०४, ३०५, ३०७, ३१०, ३११, ३१२, ३१२. टि०, ३१२, ३१५, ३१६, ३१८, ३१६, ३२०, ३२१, ३२२, ३२३, ३२४, ३२७, ३२८, ३२६, ३३०, ३३३ टि०, ३३७, ३३८, ३३८ टि०, ३४३, ३४४, ३४६, ३४७, ३५४, ३५६, ३५७, ३५८, ३५६, ३६०, ३६१, ३६२, ३६३, ३६४, ३६५, ३६६, ३६७, ३६८, ३६६, ३७०, ३७४, ३७६, ३७७, ३७८, ३७६, ३८०, ३८१, ३८२, ३८३, ३८४, ३८५, ३८५, ३८८, ३८६, ३६१, ३९२, ३६४, ३६५, ३६६, ३६७, ३६८, ३६६, ४००, ४०१, ४०२, ४०३, ४०५, ४०६, ४०७, ४११, ४१७, ४१८, ४१६, ४२०, ४२८, ४२४, ४३२, ४३४, ४३५, ४३६, ४४१, ४४३, ४४५, ४४६, ४४७, ४४८, ४५३, ४५६, ४६६, ४६८, ४७० बुद्ध- अंकुर १२२, १४१ बुद्ध और बिम्बिसार की समसामयिकता २८१ बुद्ध का गृह त्याग १०८, ११७, ११८, १४७, १४८, १५६, २०१ टि० ४५, ५७, ५८, १०६, १०८, ११३, ११७, ११८, १२२, १२५ प्र०, २६३, ४५६ ७८, ६२ बुद्ध का जन्म बुद्ध का जन्म स्थान बुद्ध का तिथि क्रम Page #713 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा ] बुद्ध का निर्वाण बुद्ध का पुत्र जन्म बुद्ध का पूर्व भव बुद्धकालीन भारतीय भूगोल बुद्ध की धातुओं बुद्ध की प्रब्रज्या बुद्ध कीर्ति बुद्ध के चाचा ४२, ४३, ४५, ४५ प्र०, ७४, ७८, ६१, ६१ टि०, १०४ प्र०, १०७, १०८, १११, ११५, ११७, ११७, टि०, ११८, ११८, २२२, २२३, २८२, २६३, २६४, ३२८, ३२, ३३०, ३३१, ४०५, ४४१, ४५२, ४५३ बुद्धचरित बुद्ध चर्या बुद्धत्व शब्दानुक्रम बुद्ध के चातुर्मास १०७ बुद्ध के पारिपाश्विक मिक्षु भिक्षुणियां २१८ Яо बुद्ध के प्रमुख उपासक उपासिकाएं २३२ प्र० बुद्ध वचन बुद्ध के स्वप्न ४५६ १५८ बुद्ध को बोधि-लाभ ६८, ६८ टि०, ७७, १०७, १०६ टि०, १०७, १०८, ११७, ११८, १२३, १२७, १५६, १५८, १६८, १७१, १७२, १७४, २०१, २३४, २७१, २७४, २८१, ३४०, ३४६, ३८६, ४४८, बुद्ध कोलाहल १२२, १३६ बुद्धघोष, आचार्य १४, १५, ३५, ३५ टि०, २६७, २६५, २६६, ३३८, टि० २७१ टि०, २७१ टि० ४५ टि०, ५५ टि०, ६० टि०, १०५ टि०, २८८ टि०, ३०३, टि०, ३४६ टि० १२३, १३६, १४२, १५१, 2010_05 १४६ ११६ प्र० ३४६ टि० ३५३ टि० २२३ १२५, १४६ प्र० २ ४४७ बुद्ध धर्म बुद्ध पुत्र बुद्ध बीज बुद्ध लीला बुद्ध वंश बुद्ध श्री बुद्ध संघ बुद्ध सूक्तों बुद्धनुस्मृति बुद्धावस्था बुद्धासन बुलियों बृहत कथाकोष बृहत्कथामजरी बृहत्कर्मा बृहद्बल बृहद्रथ राजा बृहद्रथ वंश बृहस्पति बृहस्पति मित्र बेचरदास, पं० बेठ-दीप बोधि ६५६ १५७, १५६, १६७, १७०, २७२, २८२, ३८५ देखें, बौद्ध धर्म १२२ १२२ १४० २१३ १२२ २५४, ३६६ २२३ ૪૪૪ बोधकुमार बोधगया बोधि परिव्राजक बोधि मण्ड बोधिराजकुमार बोधि राजकुमारसुत्त बोद्धि-वृक्ष बोधिसत्त्व ३५२ २१२ ३४४ २८५ १०१ टि० 55 fto ८६ टि० ६७ टि० ८५ टि० १५ ६६ टि० १२ टि० ३४४ ६४, १७० प्र०, १७४ ४२४ ३४१ ४२६, ४२८, ४३१ १५७, १६६, १७१, २१४ ३२० ३२० टि० ११४, १४०, १७०, ४४७ १, १३६, १३७, १३८, १३६ १३६, १३६ टि०, १४०, १४० टि०, १४०, १४१, १४३ टि०, १४४, १४५, १४६, १४७, १४६, १५०, १६७, १७४, १७५, २०१ Page #714 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन खण्ड : १ टि०, २११, ४२१, ४२५, बौद्ध-परम्परा ३५, ३८, ४६, ५१, ६८, ४२६, ४२७, ४२८, ४२६, ६६, ६१, १०० टि०, १०३, ४३०, ४३२, ४३३, ४३५, ११६, १८७ टि०, २१६, बोध्यंग-भावना २५६ २२०, २२१, २२२, २२३, बोन २२६, २३२, २३५, २७१, बौद्ध ४०, ४७, ५६, ६१,७३, ८३, २७४, २८४, २८५, २८७, ६६ टि०, १११ टि०, ११२, २८८, २६२, २६४, ५, ११५, १२४, १७२, १७३, २६६, २६७, २६८, ३०३, १७४, १७५, २२६ टि०, प्र०, ३०५, ३०६, ३०७, २३२, २७१, २८०, २८३, ३०८, ३०६, ३१०, ३१४, २६०,२६१३०, ३४२, ३५१ ३१६, ४०७, ४१०, ३२६, ३६१, ३१८, ३१६ टि०, ३५५, ४१५, ४३६, ४४०, ४१०, ३२८, ३५५, ४१२, ४४६, ४५८, ४४६, ४६६, ४१७,४२४,४३२ ४६८,४६६, ४७० बौद्ध अभिजातियां ४१७ प्र० बौद्ध-पर्व (मराठी) १२ टि. बौद्ध आगम देखें नौद्ध-शास्त्र बौद्ध पिटक देखें, बौद्ध-शास्त्र बौद्ध-आचार ४४६, ४६६ बौद्ध प्रव्रज्या बौद्ध उपसम्पदाएं २०१ प्र० बौद्ध-भिक्ष २८७, ३०८ टि०, ३१६, बौद्ध उपोसथ ४११,४११ ३२२, ३६० ३६८, ४०१, बौद्ध कथा-साहित्य ४४८ ४३८, ४४८, ४६७, ४६८, बौद्ध-कालागणना ६६, ८३, ८६, ८६ टि०, बौद्ध भिक्षु-संघ ३२० ८७, ६१,६३ टि०, ६६ टि०, बौद्ध-दीक्षा ३१५ १०६ बौद्ध-मत ३९८ बौद्ध कालीन भारत ८४ टि०, १०४, बौद्ध-मान्यता २३५, २८६, ३१५, ४०७, टि० ३१६ बौद्ध गुरु ३६८ बौद्ध लेखक ६४ बौद्ध-ग्रन्थ ५४, ६४ टि०, १०० टि०, बौद्ध वर्णन ३०७ टि. १०४, २८२, २६२, ३१५, बौद्ध-विवरण बौद्ध-धर्म ४२, ७७, ७८ टि०, ६१, बौद्ध-शास्त्र १५, ४४, ४५, ४६, ४७, ११३, ११५, १२४, १३६, ५६, ५६, ६१, ६२, ६७,६८ १७५, २५४, २७४, २७५, ६६, ७०, ७४, ७७, १०७, २८२, २६२, २६३, २६४, १७३, २६४, ३४६, ३६४, ३१५, ३३२, ३६६, ४१८, ४५६, ४१७, ४५८,४६६, __ तथा देखें, त्रिपिटक बौद्ध-धर्म-संघ ४७० बौद्ध-शास्त्र-निर्माता ४६३ बौद-धर्म-दर्शन ३४, टि०, १२३ टि. बौद्ध शास्त्र संग्राहक ४७, ६२,४१३ बौद्ध निकाय ३४ बौद्ध-संघ १.७८, २६४, ३१६ ४५२ 2010_05 Page #715 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा ] बौद्ध संस्कृति बौद्ध समुल्लेख बौद्ध साहित्य बौद्धों की दक्षिणी परम्परा ब्रह्म ब्रह्मा-उपोसथ-व्रत ब्रह्म कायिक देवता ब्रह्मचर्य ब्रह्मचर्यवास ब्रह्मचारी शब्दानुक्रम १२५ ५५, ५७, ५८, ६४, ७४, १२७, २८६, ३१६ ५६, ६१, ७५, २०१ टि० २८५, २६३, ३०७, टि०, ३१८. ३२६ ४१४, ४२०, ४४१ ५१, ५६ ४०८ ४०८ ४०६ ३३, ७२, १२३, १३५, २०२, २०४, २२८, ३३२, ३६२, ३६४, ४०४, ४०७, ४६२ ४०, ४२१ ४४७, ४६१ १६ टि० ब्रह्मजालसुत्त ब्रह्मदण्ड ब्रह्मदत्त ब्रह्मलोक ब्रह्मा ब्रह्माण्ड ब्रह्माण्ड पुराण ब्राह्मण ३४३ ४२४, ४३३, ४३५ ३६, ४४४, ४४५ १३६, १३६, ३६६, ४०८ १३८ ८३ ४, ५, १०, ११, १२, १४. १८, १६, २३, ७१, ७५, ७६ १०० टि०, १०० टि०, १२१ १२५, १२८, १३४, १३७, १३८, १४१, १५२, १७४, १७५, १७७, १८३, १८७, २०१ टि०, २२४ टि०, २२५, टि०, २२६ टि०, २२७ टि०, २४४, २७५, २६१, ३०३, ३११, ३४२, ३४४, ३६३, ३६६, ३६६, ३७०, ३८०, ३८१, ३८४, ३८६, ३६१, ३६३, ३६६, ४०१, ४०३, ४०५, ४०६, ४१८, ४१६, ४२२, ४२४, ४२८, ४३४, 2010_05 ब्राह्मण कुण्ड ब्राह्मण ग्राम ब्राह्मण शास्त्र ब्यूह्लर, डॉ० भंभसार भगवान बुद्ध ६६१ ४३५, ४४१, ४४२, ४४४, ४४८, ३४६, ३५० २६, ३४८ १२८ टि०, १०५, ११५, ११५ टि०, ११६, ११६ टि० भंभासार भक्त पान भक्त प्रत्याख्यान भगवती सूत्र भ २७७, २८३, २८४, २८६, २६०, २६१, ३०८, ३०६ देखें, भंभासार २३६ १८६ १२ टि०, १२, १७, २६, ३३ टि०, ३४, ३६ टि०, ३८, ५२, ५२ टि०, ५२ टि०, ५६ ७४, ७४ टि०, १२६ टि०, १५८ टि०, १७३ टि०, १८४ टि०, १८४ टि०, १८६ टि०, १६० टि०, १६३ टि०, २१८ २१८ टि०, २८० टि०, २३१ २३२, २३२ टि०, २३५, २६१, २७०, २६८ टि०, ३००, ३०० टि०, ३०२ टि०, ३०७ टि०, ३१६, ३१६ टि०, ३१५, ३२४ टि०, ३२६, ३३०, ३३१ टि०, ३३३, टि०, ३८४ टि०, ४११, ४१३, ४६६ टि० २ टि०, ४ टि०, १५. टि०, ५८ टि०, १०५ टि०, १०६, टि०, १७४ टि०, १७५ टि०, ३८ टि० १५ टि० ५८ टि० १०५ भगवान् महावीर नो संयम धर्म भगवान् महावीर और भगवान् बुद्ध भगवानलाल इन्दरजी, पं० Page #716 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६२ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन खण्ड : १ भग्ग २३४ टि०, २३४ टि० भारत का बृहत् इतिहास ५२ टि०, ७८ भट्ट, जनार्दन १७ टि०, ८४ टि०, १०४ टि०, ७६ टि०, टि०, ११३ टिं० भारतवर्ष ३३०, ३३१, ४४१ भण्डोपकरण भारतीय इतिहास : एक दृष्टि ८ टि. भद्दिय २१६, २१७, २२३, २८६ २८० टि०, २८२ टि०, ३२६ भद्दिय कालिगोधा-पुत्र २२५ टि० भद्दिय वग्गो ३१५ टि० मारतीय प्राचीन लिपिमाला भद्दिया नगर २४६, २४७, ३४८, ३५४ मारतीय विद्या ३६ टि०,४५ भद्र प्रतिमा २२७ भारतीय संस्कृति और उसका इतिहास भद्रबाहु, आचार्य ३२६, ३३४, ४५०, ४० टि० ४५१ भारद्वाज २२, २३ भद्रवती राष्ट्र २३४ टि० भारद्वाज गोत्री १७६ भद्रवर्गीय २०५ भाव ३८५ भद्रवतिका श्रेष्ठ २३४ टि० भावना ३३१ भद्रा १९४, १६५, १६६, २२३, भाव भास्कर काव्यम् ३६७ टि० २३० भावविजय गणी १६८ टि०, २०० टि. भद्रा कापिलायिनी २२४, २२७ भाव लेश्या भद्रा कात्यायनी २२७ भाव संग्रह ३७ टि. भद्रा कुण्डलकेशा ४४६ प्र० भावितात्मा भद्रिक ३, २०१ टि० भाष्य ४५०, ४५१,४५२ भद्रिका नगर २३४ टि० भास, महाकवि २६८, ३१७ भद्रेश्वर ४८, ५० भिभसार देखें, भभसार भय २१४ टि०, २५३ भिभिसार देखें, भभसार भय-कथा ___४०६ भिक्खु पातिमोक्ख ४६१ टि०, ४६२ भरत ११६, १२० ४६७ टि०,४६७ टि०,४६८ भरत-क्षेत्र १२०, १२५, १६१ ४६८ टि० भरत-मुक्ति १६ टि०, १४०टि० भिक्षाचरी १५३, १६५, २१२, २१३, भरतेश्वर बाहुबलि वृत्ति २४३ टि० २३० भल्लुक २३३, २३४ टि. भिक्षाचार ३६० भव-सिद्धिक १८५ भिक्षाटन ४२५, ४२६,४३० भबान १७१ भिक्षु, आचार्य ३०३ टि० भस्म-ग्रह ८३, ३३४ भिक्षु-प्रन्थ रत्नाकर ३०३ टि० भागवत पुराण ८३ भिक्षु-संघ, बुद्ध का १०७, ११२, २१६ भाण्डारिक ३२५ २२०, २२२, २५४ भानुमित्र ७६ टि०, ८१ टि० भिक्षु-संघ, महावीर का १८४, १६३, १६७ भारत १६७ २००, २०१, २१६ भारत का प्राचीन राजवंश ७८ टि०, ६४, भिक्षुओं के उपदेष्टा २२६ टि. भिक्षुओं में अग्रगण्य २२४ प्र० 2010_05 Page #717 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा] शब्दानुक्रम भिक्षु-जीवन ३१७ भोजपुरी भिक्षु-नियम ३४२, ४०७, ४६१ भ्रमविध्वंसनम् ८३ टि० भिक्षु परिवार ४२० भिक्षु-भिक्षुणियां ३३१ भिक्षु-श्रावक २३२ मंकुल पर्वत १०७ टि०,३५२ भिक्षु-संघ ७२, ७६, २२४, २५७, मंख ३६ २५८, २६१, २६३, २६४, मंख कर्म २६६, २६७, २७५, २७६, मंखलि २८३, २६४, ३०८, ३१२, मंखलि गोशालक ४, ५ प्र०, १५, १७ प्र०, ३१६, ३३२, ३३८, ३४०, ३७, ४३, ४३ टि० ५२, ५६ ३५७, ३५८, ३६४, ३६६, ६१, ६३, ६५, ६५ टि०,७४ ३७८, ३७६, ३६१, ३६३, ७५, ७६, १०५, १०६, १०६ ३६६, ३६७, ३९८, ३६६, टि०, १५१ २२३, २६१, ४००, ४०२, ४०४, ४०५, २६६, ३१६ टि०, ३२४, ४१६, ४५८, ४६५, ४७० ३८१, ३६३ ३६४, ३६८, भिक्षु-संघ और उसका विस्तार ३१५ टि० ४००, ४०२, ४०३, ४०५, ___३२६, ३८६ टि०, ४७०, ४०६, ४१२, ४१३, ४१४, टि. ४१४ टि०, ४१८, ४२०, भिक्षु-स्मृति प्रन्थ ३५५ टि० ४२१,४२२, ४३२, ४४१ भिक्खुणी खन्धक २२४ टि०, ४७१ टि० मंखलिपुत्र गोशालक की मृत्यु २६, ३५ भिक्खुणी पातिमोक्स ४६२, ४६२ टि० ५३, ६३, ६५, ६३, १०७ ४६३ टि०, ४६६, ४६८ टि०, भजुश्रीमूलकल्प १०० टि. भिक्षुणियों के उपदेष्टा २२६ मंडिक २२, २३, २६१ भिक्षुणी-संघ २२४, ४६२ मंडिकुक्षि २३ २७२ २७४ मिक्षणी-संघ, बौद्ध परम्परा में २८२ मंडकी ३३८ भुवनपति १३१ मंत्र ३३२ भूकम्प ३३८ मंत्री १४१, २०१ भूचाल ३४३ मक्खली गोशाल देखें 'मंखलिपुत्र गोशालक ४४८ मगध ३, २५, ७६, ८७, ८८, ६० टि०, भूव्रत ८८ टि० ६३, ६३ टि०, ६४, ६६, ९७ २१७ ६६, टिं०, १०१ टि०, १८१, ३०६ १०८, ३७६, भैषज्य सन्धक ३५८ २०६, २२४ टि०, २२५ टि, भोग नगर २२६ टि०, भोगपुर ३४६ २२७ टि०, २३३ टि०, भोगवंशी २०१ २३४ टि०, २४३, २४६, भोज १४१, २०१ २४६, २४७, २७३, २३४, भोजनशालाएं २७७ २७२, २७३, २७४, २०५, भूत मंग भेद ____ 2010_05 Page #718 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६४ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड : १ २०२ २७७, २८१, २८३, २६८, मथुरा संग्रहालय २९६ २६४, २६६, ३००, ३०५, मद्यपान २५ ३१५, ३१७, ३२५, ३४४, मद्दन सन्निवेश ३४८ ३४६, ३४७, ३४८, ३५३, मद्दकुच्छि २७४ ४१०, ४४७, मद्र २२७ टि०, २८६, २६८ मगही __४५६ मधुकरी १४५, २५३ मच्छिकासण्ड २३३ टि०,३८०,३८१ मध्य देश १२५ मछली ४३३,४३७ मध्यम अपापा ३४६ मजूमदार, आर० सी०, ५०, ५७ टि०, मध्यम प्रतिपदा २०२ ६६, ६७ टि०, २८५ मध्यम मार्ग मज्जन-धाय १२६ मन-कर्म ३६१, ३६७ मज्झिमनिकाय २ टि०, ३३ टि०, ३६, मन-दण्ड ११६, ३६०, ३६१, ३६३, ४०, ७१ टि०, १७३ टि०, मन-दुश्चरित ३५७, ३६० २२० टि०, २४६ टि०, मनःपर्यव ज्ञान १३५, १७२, २१६, ३३०, २७५, ३०६, टि०, ३१०, मनशिला १३८ ३१७, ३२० टि०, ३२२ टि० मनःसुचरित ३५७, ३६० ३२३ टि०, ३६२, ३६७, मनःसत्त्व देवालय ३६२ ३७६, ३७५, ३७६, ३८५ मनसाकट (कोसल) ३५३ ३८५, टि०, ३६०, ३६२, मनुष्य-विग्रह ४५४ ४०१ टि०, ,४०७, ४८३, मनोगत रूप निर्माता २२५ ४१५ टि०,४१८ टि०, ४१६, मनोमय ४१६ टि०, ४२१, ४२३ मनोरंजक दृश्य मज्झिमनिकाय अट्ठकथा ३५, ३५ टि०, मनोवैज्ञानिक ४६६ २७२ टि०, ३०७ टि०, मन्दार-पुष्प ४५३ ३२० टि०, ३८२, ४१६, मयालि २७४, २८७ ४१६ टि०, मयूर और काक ४३२ प्र० मझिम पण्णसक १७३ टि०, ४१३ टि०, मरीचि तापस ११६ मणि ४१० मरुदेवी माता ३३३ मणिभद्र देव २५ मलय २५, १६४, ३४८, ३४४ मण्डप २४६ मलयगिरि वृत्ति २६ टि०, ३० टि०, मण्डलक ४४२ ___३१ टि०, १२० टि०, मण्डित १७६, १७६ १२१ टि०, १५५ टि०, मतिज्ञान १२८, १७२ टि०, १६० १५८ टि०, १६१ टि०, १६८ मत्स्य ४१०,४८५ १७८, १२०, २२६ टि०, मत्स्यपुराण मलल शेखर, जी० पी० ८६, ६६, १०१ टि०, २६६ टि० ३३ टि०, ३५५, ४४० मत्स्यघातक ४१२ मल्ल (देश) ७१, २१५, २२६ मथुरा ३, ३५३ मल्ल ४८, २८८, ४०१, ३०२, ३०५, ० 2010_05 Page #719 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा ] मल्लकी मल्लराम मल्लिका रानी मस्करी मस्करी गोशालिपुत्र ३२५, ३२८, ३४०, ३४२ ३४३, ३४४, ३४६, ३५२, ३५३, ३६१, ४०५, ४१० १, ७२ २२,२३ महक महद्धिक (दिव्य शक्तिधर ) महल्लक महा अभिज्ञाधारिका महा अवीचि महाकालकुमार महाकाश्यप ४४२ ३८१ २६४, २६५ २६६, ३१०, ३६८, ४०३ ३३२, ३६६ २२७ ३०७ २८७ २२६ २२, ३३, ३६ २०६, ३०६ ३१७, ३१८ २८७ ११३ टि०, ११४, २१६ २२३, २२४, २२७, ३४३, ३४४, ४५२, ४५३, ४५४, ४५५ महाकण्हकुमार महाकप्पिन महाकल्प महाकात्यायन भिक्षु शब्दानुक्रम महाकोशल राजा महाकोष्ठित महाखन्धक ३२२ ३५ 2010_05 २६७ २२६ २७५ टि०, ३८६ टि०, ४७० टि०, महाजनपद महातम प्रभा महातीर्थ ब्राह्मण ग्राम महादुमसेण २८७ महानन्दी ८७ टि०, ६५ टि०, १०० टि०, १०१, १०० टि०, १०३ टि० महानन्दी का राज्याभिषेक १०२ ४१० ३०७ टि०, २२४ टि,० महानाद १६८ महानाम शाक्य ३, ८५, २०१टि०, २१५, २१५, ३२३, ३७४, ३७६ महानिदान सुत्त महानिर्ग्रन्थ महानिर्ग्रन्थीय अध्ययन महान् शय्या महापद्म महापद्मनन्द राजा २७२ ४१० १००ट०, २३६ १०१, १०१ टि०, १०१ टि०, १०३ टि०, महापद्म का राज्याभिषेक १०२ महापद्म के आठ पुत्रों का राज्याभिषेक १०२ महापरिनिब्वान सुत्त ४१ टि०, ५४, ५५, ५५ टि०, ७४, ६१ टि०, २२३ टि०, २७४ टि०, ३००, ३०३. टि०, ३०४ टि०, ३०५, ३२६, ३३०, ४०५, ४५६ महापरिषद् महापुण्य पुरुष महापुण्यात्मा महापृथ्वी महाप्रजापति गौतमी महाप्रज्ञा महाप्राज्ञ महाबोधिकुमार महाबोधि जातक महाब्रह्मा महाबोधि वृक्ष महाभद्र प्रतिमा महाभारत महाभिनिष्क्रमण महाभोग महाभूतिल महामाया देवी महामारी महामाहण महामौद्गल्यायन महायान महायान- परम्परा ६६५ ६ टि० २७२,२७३ २२६ २४७ २४७ १४६, १६८, १७१, देखें गौतमी २२७, २७७ २२४, ३६६ ४२४ प्र० ४३२ ४३२ १३६, १३६ १४० २२७ ८६ टि०, ८७ टि०, १२७, १४७ २२५ टि० १६४ १३७, १३८, १३६ ४४३, ४७० २५ देखें, मौद्गल्यायन १७५, २७६, ४४६ २६० टि०, ३१६ ३५२, ४०१, ४४५ Page #720 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६६ महायानी त्रिपिटक महालता आभूषण महालता प्रसाधन महालि सुत्त महाली महावंश महावंश की काल-गणना महावंश टीका महावग्ग महावस्तु महाविदेह क्षेत्र महावीर आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन २७६ ४६, ४६ टि० ५१, ५२ टि० ६४, ६४ टि०, ८३, ८५ प्र०, ८५ टि०, ६१ टिं०, ६२ टि० ६ टि० १०२ टि०, १०३, १०५ टि०, २८२, २८२ टि० ३१६ २५० २५०, २५१, २५५ ४१३ टि० ४४२ १५ टि०, १०६ टि०, १६२ टि०, १६६ टि०, १७२ टि०, २०२ टि०, २०५ टि० २०७ टि०, २०६ टि०, २१५ टि०, २२१ टि०, २४७ टि०, २६० टि०, २७२ टि०, २७५, २७५ टि०, २७६ टि०, २८६ टि०, ३०७ टि०, ३५८, ३८३ टि०, ३८४, ३८८, ३८६, ४०४, ४७० टि०, महावग्ग अट्ठकथा २१३ टि०, २१४ टि०, महावन १०७ टि० महावन १०७ टि० महावन कूटगार - शाला ३०७ टि०, ४४२ १०२ टि० 2010_05 ३५६, ३८२, ४१८ १५६ टि०, २८५, २६० टि०, ४४३, ४४५, ४४६ ४४६ टि०, २७, ३१४ १ प्र०, ४, ८, ६, १२, १२, १७, १७, टि०, १८, २१, २२, २३, २४, २४, २६, २७, २८, २९, ३०, ३१, ३२, ३३, ३३, टि०, ३८, ३६, ४०, ४१, ४३, ४३, [ खण्ड : १ टि०, ४६, ४७, ५२, ५४, ५६, ५७, ५६, ६०, ६२, ६३, ६४, ६५, टि०, ६८, ६६, ७१, ७२, ७३, ७४, ७७, ७८, ७६, ८१, टि०, ८२, टि०, ८७, टि०, १०५, १०६, १०७, १०८, १२६, १२१, १२१, १२५, १२६, fzo, १२७, १२७, प्र०, १५१, १५२, १५३, १५३, टि०, १५३, १५४, १५७, १५८, १६०, १६३, १६४, १६५, १६५, १६८, १७०, १७२, १७४, १७५, १७७, १७७, १८०, १८१, १८२, १८३, १८३, १८४, १८५, १८६, १८७, १८८, १६३, १९४, १६७, १६८, १६६, २००, २१८, २१६, २२०, २२०, २२२, २२८, २२६, २३०, २३१, २३१, २३२, २३६, २३७, २३८, २३६, २४२, २४२, २४३, २६१, २६१, २६६, २७०, २७०, २७१, २७४, २७७, २७८, २७८, २७६, २८०, २८१, २८२, २८३, २८६, २८८, २८८, २६१, २६७, २६६, ३०१, ३०२, ३०३, ३०८, ३१२, ३१४, ३१५, ३१५, ३१७, ३१८, ३१६, ३२०, ३२४, ३२५, ३२५, ३२७, ३२८, ३२६, ३३०, ३३२, ३३३, ३३२, ३३४, ३३४, टि० ३३५, ३३६, ३४६, ३५३, ३५४, ३५६, ३६०, ३६१, ३६२, ३६७, ३६८, ३७०, ३७६, ३८२, ३८४, Page #721 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा शब्दानुक्रम ६६७ ३६१, ३६१, ३६३, ४०१, महावीर का बाल्य-जीवन १३३ प्र० ४०५, ४११, ४१७, ४१८, महावीर का विवाह १३४ ४२०, ४२१, ४२२, ४४६, महावीर का विहार ३४८ प्र० ४५१, ४५६, ४५७, ४६८, महावीर का शासन २३६ ४६६,४७० महावीर की जन्म-राशि ८२ महावीर और बुद्ध की समसामयिकता ६० महावीर की ज्येष्ठता ५७, ६१, टि०, ६३, टि० ७५ प्र०, ३८६, ४०२, महावीर और बुद्ध की समसामयिकता ५४, ४०२, टि०, ४०४, टि०, ६६, ६६, ७०,७१, १०६, ४४८ प्र० १०८, ३२० टि०४६२ महावीर की प्रथम देशना २८० महावीर और बुद्ध के समसामयिक महावीर की प्रव्रज्या १२५ प्र० राजा ३२० महावीर की पारिपाश्विक भिक्षमहावीर और श्रेणिक की समसाम- भिक्षुणियां २१८ प्र० यिकता २८१ महावीर के प्रमुख उपासकमहावीर कथा ४० टि० उपासिकाएँ २३२ प्र० महावीर का उत्तराधिकारी २६१, ४४६ महावीर के स्वप्न १५८ महावीर का जन्म ४४, ४८, ५६, ६४ ७८, महावीर चरित्र ३३४ टि०, ३४६ ८३, १२५ प्र० महावीर चरियं ८१ टि०, २७६ टि०, २८१ महावीर का जन्म-स्थान टि०, ३३०, ३३२ टि. महावीर का जन्मोत्सव १३१ प्र० महावीर-वाणी ७७ महावीर का तिथि-क्रम ७८ प्र० महावीर स्वामी नो संयम धर्म १५ टि० ३६ महावीर का दीक्षा-समारोह १२७ टि०, ५५ टि. महावीर का निर्बाण ३५, ४४, ४४, टि० महाव्रत (पाँच महाव्रत) ८, २४, ११६ ७७, ७८, ७६, ८०, ८१, महाशतक २६२ ८२, ८३, ६३, ६३, टि०, महाशिला कंटक संग्राम २५, ४६, ४६, ५२, ६५, ६४, टि०, ६६, टि०, ५२, ५५, १०६, २८०, २८८, ३०० प्र० १०३, १०५, १०६, १०७, महाशुक्ल अभिजाति १०८, १७८, २२२, २६१, महाश्रमण २६६ ३२८, ३३० प्र०, ३५५, महाश्रावक ३६१, ३६१, ३६२ महासकुलउदायो सुत्सन्त ३५४, ४०७ महावीर का निर्वाण किस पावा में ? महासच्चक सुत्त ३६ टि०, ४१६, ४२० ४७ प्र० ३३० टि० । महासमुद्र १७२ महावीर का निर्वाण-प्रसंग ४२, ४७, ५६, महासम्मत ६२ टि०, २१३ ६२, ६६, ७० प्र०, २१८, महासामन्त समरवीर १३४ ३६०, टि०, ३६१, टि०, महासिंहनाद सुत्त २ टि. २६२, टि० महासिंहनिष्क्रीडित तप २२७ महावीर का पूर्व भव ११६ प्र० महासिहसेण २८७ महावीर का बल १३३ महासुदर्शन ३४२ १३७ ____ 2010_05 Page #722 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम और त्रिपिटक : [खण्ड : १ WW G2010 ४०६ १२० महासेण २८७ मार्गणा ३०६ महासेण कण्हकुमार २८७ मालव २५, ७६ महासेन ६६ टि० मालवणिया, प्रो० दलमुख भाई २८२, महासेन-उद्यान १७७ २६६ टि०, ३१५ टि०,४५१ महासेन देवपुत्र ४४१ माला ४१० महास्कन्धक १५ टि० १६२ टि०, १६६ टि०, मासिक तप १७२ टि०, २०२ टि०, २०५ मासिक प्रायश्चित्त टि:, २०५ टि०, २०७ टि०, मासिकी भिक्षु प्रतिमा २०६ टि०, २१३ टि० २१५ माहात्म्य-कथा टि० मिण्डिका-पुत्र उपक २६३ महीनेत्र ८८ टि०, ८६ टि० मिथिला १७६, १६०, ३४६. ३४६, महौषध १४० टि० ३५१ महौषध जन्म १३६, १३६ टि० मिथ्यात्व महेन्द्र ११७ टि०,४४२ मिथ्यादर्शन १८५ महेन्द्रकुमार 'प्रथम', मुनि १४० टि० मिथ्यादर्शन शल्य विवेक २६० मांस २, ६, १०, ३५८, ३५८,४३०,४३०, मिथ्यादृष्टि ४१६, ४३६, ४४३, ४४४ ४३३, ४३५, ४३७ मिनान्दर ४४० टि० मांसाहार ३६० मिलिन्द पहो देखें मिलिन्द प्रश्न मांसाहार-चर्चा ४३४ प्र० मिलिन्द प्रश्न ६४ टि०, २२२ टि०, मागध ४८, ७६, ७७, ८७ टि०, १८७ ३६८, ३६८ टि०, ४४०, मागधिका वेश्या ३०२ ४४० टि०, ४४१, ४४१ टि० ४५६ मिलिन्द राजा ६४, ४४०, ४४० टि०,४४० मागन्दिक ४३८ मुक्ता ४१० मागन्दिया रानी ३१६, ३२० मुक्ति १७० माणव गामिय ४२१ मुकुट-बन्धन चैत्य ३४३,३४४ माणविका ३६६ मुखर्जी, डॉ० राधाकुमुद ३३ टि०, ५७, ५७, माण्डलिक राजा १२६, २८६ टि० ७८ टि०,७६ टि०, ८५ टि०, मातंग जातक ३१६ टि० ८६ टि०, ६६ टि०, १०८, मातंगारण्य १११, ११३, ११७ टि०, मान १८५, २६०, ४१६ २७४, ३०२, ३०५ मानसिक ४२० मुचलिन्द नागराज १६८ मानुषोत्तर पर्वत १५८ मुजफ्फरपुर माया १८५, २६१, ४१६ मुदिता सहगत चित्त ३७७ मायादेवी १२३ मुण्ड ५१ टि०, ६५ टि०, ६५, ६६, मायामृषा १०२ टि० मार १२७, १३६, १४६, १६६, प्र०, १६८, मुण्ड का राज्याभिषेक १७१, ३३२, ३६६, ४२२ मुनिचन्द्र आचार्य ३० मार सेना १६८ मुनि सुव्रत स्वामी ३०२ मागधी ४८ १०२ ____ 2010_05 Page #723 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा] शब्दानुक्रम मूल मुहूर्त ३३३ मथुन १८५, ४५४, ४६१, ४६६ ४४६, ४६४ मैथुन-विरमण २६० मूला सेठानी १७६ मोकानगरी ३५० मृग-दाव १७२, २०३ मोक्ष १७६, १८४ टि०, १८५, १८७, १८८, मगपक्ख जातक २८५ टि० १८६, १६१, २००, २७६, मृगया-गृद्धि २७६ २६०, ३१३, ३१३, टि. मृगा-पुत्र १५ ३१४,३३२, ३३५, ३६० मृगार माता २५५ मोघराज २२७ मगार श्रेष्ठी २४८ प्र०,२५४,२५५,३६५ प्र० मोदी ३१४ टि. मृगावती १८०, १८५, २३१, २६८, ३१७ मोरनिवाप परिव्राजकाराम ४०६ ३१८, ३१६, ३२५ मोराक सन्निवेश ३४८ मृच्छकटिक ६७ टि० मोसलि मृत्यु-दण्ड २६३ मोग्गलान सुत्त २२१ टि० मृदु-चित्त ३५८ मौद्गल्यायन १५, ११३ टि०, ११४, १७४, मृपाबाद १८५, २३६, २६०, ४०१, ४०६ १७५, १७५ टि०, २०७ प्र०, मषावाद-विरमण २६० २१३, २१६, २२० प्र०, मेंढिय ग्राम ३४६, ३५० २२२, २२२ , २२४, २५६, मेघकूमार १८० प्र०, २२८ प्र०, २७६, २८१, २६३, २६३, २६८ प्र०, २८७, ३०६ २७६, २६२, ३८६, ३६३ मेघकुमार देवता ३२८, ३३६ मौद्गल्यायन का निधन २२१ मेघमाली देवता १६६ मौद्गल्यायन का वध ४३६ मेढ़ीभूत ३०६ मौर्य ६७, ७६ टि०, ८१ टि०, ६६ टि०, मेण्डक गृहपति २४६, २४७, २४८ मौर्य-पुत्र १७६, १७६ मेतार्य १७६, १७६ मौर्य राजा १८ टि० मेध्यारण्य ३६४ मौर्य-राज्य मेरुतुंग, आचार्य ५७, ६८, ७६, ८१ टि०. मौर्य-वंश १०१, १०२ ८३ मौर्य-संवत् १८ टि०, 88 टि० मेरुपर्वत १२७, १३१, १५८, १६४, १६५, मौली २२०, २२१ म्यान १७७ मेहता गंगाप्रसाद १०० टि. मेहता, मदनकुमार २७टि० मैक्समूलर, डॉ० ४२, ४५, १०४, ११६, ११६ टि० यक्ष २७७, ३२०, ४४३ मैत्री ३७८,४३५ यज्ञ-याग १७६, ३२० मैत्री चेतो विमुक्ति ३७७ यज्ञानुष्ठान-विधि १७७ मंत्री विहार प्राप्त २३४ यजुर्वेद १२८ मंत्री सहगत चित्त ३७७ यज्ञसुत्त ३२० टि० मैथिली भाषा ४५६ यतात्मा २५ ____ 2010_05 Page #724 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७० आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड : १ २५ यवमध्यचन्द्र प्रतिमा २२८ ३२६ टि०, ३४६, ३८८ यश १७५ टि०, २०३ प्र०, २०६ राइस डेविड्स, श्रीमती ३, ३, ३३ टि०, यशस्वती १३४ ६० टि०, ८५, १०, टि० १०४, यशोदा १३४, १३४ टि० १०७ टि० यशोधरा २१३ राग १८५, १६१,४५३ यशोभद्र ३३४ राज-कथा ४०६ यष्टि २५१ राजकुमार २३५ टि० याम ४०६, ४१० राज-कुल युद्ध-कथा ४०६ राजगृह १, ८, १२, १८, १६, २३, ३१, योग २३६, ४१६ ४८, ६६, ७५, ७६, ६५ टि०, योग-बल २०३, २६३ ६६ टि०, १०७, १५५, १७४, योग-विधान ४४० १७६, १८०, १८३, १८७, योगशास्त्र, हेमचन्द्र का ३१३ टि. १९४, १६७, २०७, २०८, यौगलिक-धर्म ३३२ २११, २१२, २२३, २२४ यौन-धर्म ४६२ टि०, २२५ टि०, २२६ टि०, यौन-शुद्धि ४६३ २२७ टि०, २३०, २३३, २३४ टि०, २३५, २३४, टि०, २३६, २४१, २४२, २४३, २४४, २४५, २४७, रक्तज्ञा २२७ २६२, २६२, २६३, २६४, रचना काल, तित्थोगाली पइन्नइ का ८४ २६६, २६७, २६८, २७१, रचना काल, दीपवंश का २७२, २७४, २७५, २७६, रचना काल, निशीथ का ४४६ प्र०, ४५६ २७६, २७७, २८०, २८१, रचना काल, पुराणों का २८२, २६४, २६६, ३०३, रचना काल, महावंश का ३०६, ३०६, ३१०, ३१२, रचयिता, निशीथ का ४४६ प्र० ३१७, ३२३, ३२६, ३३०, रजत पर्वत १३७ ३३२, ३४२, ३४६, ३४८, रजोहरण १८१,२२८ ३४६, ३५२, ३५०, ३५२, रज्जुक सभा ३५१, ३५३, ३५४, ३६८, रति-अरति १८५ ३७४, ३८३, ३८६, ३६३, रत्नप्रभा ३०७ टि. ३६३, ४०२, ४०६, ४०७, रथमूसलसंग्राम ४६, ४६, ५.५, १०६, ३०२ ४१२, ४२१, ४२२, ४४३, रथकार-कुल ४४४, ४४५, ४५३, ४५४, रथिक ४५४, ४६६ रम्यक नगर १२१ राजगृह में सातों धर्म-नायक ४०६ प्र० ४१६ राज-धर्म रस मेघ ३३१ राजन्य ३२५ राइस डेविड्स २८१, २६३, २६८, ३२६, राजन्य कुल १२८ ८४ ८४ ४१७ रस ____ 2010_05 Page #725 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा ] राजन्य वंशी राजपुत्री राजपुरोहित राजवंश राजवैद्य राढ़ देश राध रात्रि भोजन रात्रि भोजन त्यागी राम राम कण्हकमार राम-ग्राम रामपुरिया, श्रीचन्द्र रायपसेणिय सूत्र राष्ट्रपाल राहुल कुमार शब्दानुक्रम राहुलवस्तु रिपुंजय रुक्ष चीवरधारी रुक्ष चीवरधारिका उचकवर द्वीप रुचि २०१ २२७ टि० ३१८ २२६ टि० ४० टि०, ६३ प्र०, ३४२ टि०, ४०५ टि० रायचौधरी, एच० सी० ४५ टि०, ५० टि०, ५२ टि०, ५७ टि०, ६६, ७६ टि०, ६१, ६४ टि०, ६५ टि०, १०५, ११६ टि० ३२४, ३२४ टि० 2010_05 २३५ ३४८ २२६ ४६७ ४१० १४१, २०१ टि०, ३१६ २८७ १४६, ३४४ २२५ १४७, १४८, १७५, २११, प्र० २१४, २२५, ४७० राहुल माता देवी १४०, १४६, १४८, २१३, २१३, २१४, २२७ २१३ टि० ८७, ८ टि०, ९६ टि० २२७ २२७ २२१ ३७१ ३१६, ३१५ टि ६ टि० रुद्रायणावदान रूप भव रूप्य बालुका नदी रुम्मिनदेई स्तम्भ लेख ११३, ४५६ रेउ महामहोपाध्याय पं० विश्वेश्वरनाथ रेपसन ८८०, रेवतखदिरवनिय रेवती रोकहिल, डब्ल्यू ० डब्ल्यू ० २६७ टि०, २६८ टि०, रोह रौद्र ध्यान रौरूक लंका लंका की गाथा लंका की परम्परा लंका में निर्ग्रन्थ लंकावासी लकुण्टक भद्दिय लक्षपाक तेल लक्ष्मण लक्ष्मी वल्लभ कृत वृत्ति लवण समुद्र लहसुन ३४८ लाघव लाडनूं ल लघु चातुर्मासिक प्रायश्चित्त लघु मासिक प्रायश्चित्त लघुसिंह निष्क्रीडित तप लज्जा लाडू, तुकाराम कृष्ण ७८ टि०, ६४ टि० लाढ़ देश ६६ टि०, ६८ टि०, लान्तक देवलोक ६६ टि०, १०१ टि० लाभार्थी ६७१ ६१ टि०, ११७ टि० ६८ ६८ २२५ २३३ २८४ टि०, ३२० टि० २२, २३ ४१६ ३१५ ४५७, ४६७ ४५२ २२७ २१४ टि०, २२८ लट्ठदन्त २८७ लट्टिवन २७५ लब्धिया १८२, १६६, २१८, २१६, २२०, २६१ ललित विस्तर १५१ टि०, १७५, २७६, ३२५ ४४१ प्र० ६८ २२५ २४० १४१, २०१टि० ३०२ टि०, ३०२ टि० २३६ ४६८ १७० ४२ १०५ २५, १५४, ३४८ ३६, २७० २२५ Page #726 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७२ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड : १ ३१४ लिच्छवी १, ३६, ५४, २७६, ३०१, ३०२, वचन दुश्चरित ३५७ ३०३, ३०४, ३०४, ३०६, वजिरा २६७, ३०६, ३२२ ३२५, ३४४ वज्जिपुत्तक २६८ लिच्छबी-संघ ३०५, ३२५ वज्जी ४६, ५४, ५४, २१६, २२०, २२४, लिच्छवी-नायक टि०,२६२,३०३प्र०, ३४६, लिछूआड़ ४८ ____३५३, ४१०, ४४७ लुंचन ११६, १२७, १३५, १८३, २००, वज्जीगण ३०५, ३०५, ३२५, ३३६ ४३७,४४७, वज्जी-विजय ५४, २६६ प्र० लुण्टाक ४१२ वज्र २५ लुब्धक ४१२ वज्रगांव ३४६ लुम्बिनी ११३, ११४,११३टि०,१३६,१४०, वज्रभूमि १५४, ३४८ वज्रमध्यचन्द्र प्रतिमा २२८ लेश्या २३६, ४१६,४१७, ४१८ वणिक-कन्या लो, डॉ० बी० सी० ३०३ टि०, वत्स गोत्रीय परिव्राजक ३८१ लोक १८८, १६३, २६०, ३५६, ३६६, वत्स देश २५, ८८ टि०, १८५, २२६ टि०, ३८४, ३८५, ३६२, ४०५, २३४ टि०, ३१६, ३२५, ४२५ ३४६ लोकपाल देवता १३६, १७० वत्स-नरेश ३१७ लोकविद् ३७७, ३६६,४०८ वनस्पति ४६७ लोक सान्त-अनन्त ३८४ प्र० वप्प जैन श्रावक लोकान्तिक देव १२६, १३५, १७० वप्प पंचवर्गीय ३८८ लोकायतिक १५,३८४,३८५ वप्प शाक्य २०१ टि०, ३८६ प्र०, ३८८ लोकायतिक सुत्त ३८४ वप्प सुत्त ३८८ लोभ १८५, २६०, ४१६ वय: प्राप्त ३३२ लोलुप नारकी वास २३६ वयस्क दीक्षा लोहकुम्भीय निरय ३०७, ३०७ टि० वयोऽनुप्राप्त ४०१ लोहार्गला ३४८ वर्ण ४१६ लोहित अभिजाति ३७, ४१३, ४१४ वर्तीवर्धन ८७ टि०, ६७ टि. वर्द्धमान १३३, १६३, १६१, १९८, २६८ वर्षावास १८३, २१२, २४५, ३२६, ३३० ३३२, ३४१, ३५४, ३६०, वंगीश २२५ ३६३, ४०६, ४०७, ४५३, वंस ३५३ वल्लभी ४४ वक्कलि २२५ वशिष्ठ गोत्री ३८६ वक्कुल ११३ टि०, ११५, २२६ वसन्तपुर नगर वग्गुमुदा तीरवासी भिक्षु ४५५ वसुमति १७८ वचन-कर्म ३६१ वस्त्र-कथा ४०६ वचन-दण्ड ११६,३६०,३६१ वस्त्रधारी निर्ग्रन्थ ४३८ प्र० देखें, वप्प शाक्य ४६८ ___ 2010_05 Page #727 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा] शब्दानुक्रम ६७३ वस्सकार अमात्य ४६ ५४, ५५ टि०, २६२, विक्रम संवत् । ५६, ६८, ६८,८०, ८३ २६३, ३०३,३०४, ३०५ विक्रमादित्य ५६, ५७, ७६, ७६ वाक्-सुचरित ३५७ विक्रम का राज्यारोहण ५६,६८ वाचना ४४ विक्षेपवाद ५,७,१६ वाचाला ३४८ विटरनिट्ज ३२६ वाणिज्यग्राम २३३, २३६, २३८, २३६, विचार श्रेणी ५७ टि २, ७६, ७६ टि०, ३२४,३२४, ३४८, ३५० ८१ टि०, ८३, ८५टि०, वातोत्कालिक २४ विचिकित्सा ३८२, ४०३ वाद्य ४१० विचित्र वक्ता २२६ वायु ४६६ विजय ६२ टि. वायुकुमार देवता ३३६ विजय का राज्याभिषेक १२ टि. वायुदेव विजय गाथापति वायु पुराण ८३ टि०, ८६ टि०, ८७ टि०, विजय मुहूर्त १७० ८६ टि०, ६४ टि०, ६६ टि०, विजयेन्द्रसूरि ६३, १९७ टि०, २८४, २८४, १०१ टि०, ३४६, ३४७ वायुभूति १७६, १७६ विजितावी ३०७ वाराणसी नगरी २३, १७२,१७५, १६६टि०, विज्जुनेघ ३३१ २००, २०१, २०३, विज्ञानान्त्यायतन २०४, २१२, २२६ टि०, विडूडभ ३२२, ३२३ २३३, २३५ टि०, २५७, विदित धर्म २०२,४०६ ३२४, ३४२, ३४६, ३४६, विदित विशेष ८०७ ३५३, ४२४, ४२५, ४२६, विदेह १८३, २८३, २६८, ३४६, ३५३ ४३०, ४३३, ४३५ विदेहजच्चे २६७ वारिसेण २८८ विदेहजात्य २६८ वालुप्रभा ३०७ टि० विदेहदतात्मज वासुदेव १२१, १२८, १२६, १३३ विदेहदिन्ने वाशिष्ठ ७२, १७६, ३४२, ३४४ विदेहपुत्र वाष्प ३, २०१ विदेह राज-कन्या वासभ-खत्तिया ३२२ विद्या-चरण-सम्पन्न ३७७,४०८ वासवदता ३१८, ३२० टि० विद्याचामण लब्धि वासुदेव २६० टि०,३३०,३३४ विद्याधर वाहिय राष्ट्र २२६ टि० विद्युन्मती दासी विउसग्ग ४६४ विद्युन्माली देव विकाल ४६४ विधिसार विकाल भोजन से विरत ४१० विनय ३३८, ३४२, ४५३, ४५४ विकुवर्ण ऋषि २२१ विनयधर २२६ विक्रम-जन्म ५६, ६८, ६८ विनयधरा २२७ विक्रम-विजय ५७ विनयपिटक १५ टि० ३४ टि०, ४५ टि०, ل ل ل л MMMMM л л ل ل ل انع २८६ ____ 2010_05 Page #728 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७४ विनयवाद विनय-सूत्र विपाक विभु विमल विमल कोडञ्ञ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन विवाह पण्णत्त विविधतीर्थकल्प ६० टि०, १०५टि०, १०६टि०, १६२ टि०, १६६ टि०, १७२ टि०, २०२ टि०, २०५ टि०, २०५ टि०, २०७ टि०, २०६ टि०, २१४ टि०, २१५ टि०, २१७ टि०, २१६ टि०, २२० टि०, २२३ टि०, २२४ टि०, २३५, २४५ टि०, २४६ टि०, २४७ टि०, २६० टि० २६२, २६६ टि०, २७५, २७५ टि०, २७६ टि०, २८५, टि०, २८६, २६२ टि०, ३५८, ३८७ टि०, ३६४, ४३५, ४४६, ४५२ प्र०, ४५५ टि०, ४५६, ४५८ टि०, ४६१ टि०, ४६२ टि० ४६३ टि०, ४६६ टि०, ४६७ टि०, ४७७ टि० विनयपिटक अट्ठकथा विनयपिटक की रचना ४५३ विनयपिटक के अब्रह्मचर्य सम्बन्धित प्रायश्चित्त विधान ४६१ ३५६, ४५३ २२३ ३१८ विपुलाचल पर्वत १८७, २३१, २८०, ४२२ वीतिहोत्र वीर विप्रुषोषध लब्धि विभंग ज्ञान विभिन्न मतों के देव 2010_05 २२१ १७३. १७३ टि०, ३०२ ४२१ प्र० ८८ टि० २०४ २८७, ३०८ टि० विमलवाहन ३३१ विमल, विरज धर्म चक्षु ३५८, ३६४, ४०१ विरमण २६१ विरमणव्रत विरसमेघ विरोधी शिष्य विवेक विलेपन विशाखयूप विशाख श्रेष्ठी विशाखाचार्य विशाखा मृगार माता ४११ ३३१ टि० ६३ टि०, २६१ प्र० २३४, २३५, २४६ प्र०, २८३, ३६५, ३६६, ३६६, ४०७, ४०८, ४१०, ४२३, विशेषावश्यक भाष्य १८४ टि०, २७० टि० [ खण्ड : १ २१८ ७६ टि०, ३३४ टि० २६१, ४६२, ४६४ ४१० ६६ टि० विश्वकर्मा विश्वजित् विश्वस्त २३५ विषमेघ ३३१ विषाद कुल ४१७ विष्णु पुराण ८३, ६५ टि० विहार और वर्षावास ३४६ प्र० वीतद्वेष ४१६ वीतभयपुर १६८, १६८ टि०, ३१३, ३१५, ३२५, ३४६ २२७ टि० ४५०, ४५१ ३२, २२०, २३२. वृद्ध वीतमोह ४१६ वीतराग १५३, ३३५, ३७३, ४१७, ४१६, ४५.३ ८७ टि० ३६ टि० १४६ ६ टि० २८७ वीरकण्हकुमार वीर- निर्वाण संवत् और जैन काल गणना ५८, ५६ टि०, ६० टि०, ६१ टि०, ६२ टि०, ७४टि०, वीरासन ८४ टि०, ६३ टि०, ५४ टि०, १०५ टि० १५३ १७०, २३८ १५ टि०, वीर्य वुडवार्ड, डॉ० एफ० एल० १५, ४१ टि०, ३८३, ४१३ टि० ३३२ Page #729 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा शब्दानुक्रम ६७५ ४२२ वेद वेटम्बरी देवपुत्र २६७, ३००, ३०१, ३०२, वेणुग्राम ३३२ ३०४, ३०८ टि०, ३१८, वेणुवन ७५, ७६, २०६, २११, २६२, २६६, ३२६, ३२८, ३३२, ३३८, २७५, ३१०, ३६८, ४०२, ३४४, ३४६, ३४८, ३४३ ४०६, ४२१ ३५२, ३५२, ३५३, ३५४, १० १२८, १४२ ३५६, ३५७, ३५७, ३८२, वेदना २६० ३८४, ४१८, ४४२, ४४५, वेदनीय कर्म ३७१, ३७२, ३७४ ४५४, ४५६, ४७१ वेदवादी ब्राह्मण १० प्र० वैशाली गणतंत्र २६७, २६६,३२६,३२६ वेदान्त ७, ११ दि० वैशाली-प्राकार-भंग ४६, ५५, ३०२ प्र० वेधआ ७१, ३६१ वैशाली में महामारी ४४२ प्र० वेन-कुल ४१७ वैशाली विजय ४६७ वेन्नातटपुर ३०८, ३०८ टि० वैश्य १२५, १२५, १३७, २२५ टि०, वेबर ४५१ २२६ टि०, २२७ टि०, २३४ टि०, वेरंजा २३४ टि०,२६६ वेलुवग्राम ३३२, ३५३ वैश्यायन गौत्री १७० वेस्सन्तर जन्म १३६, १४० टि०, १६७, वैश्यायन बाल तपस्वी वेहल्ल २८७, ३००, ३०० टि०, ३०३ वैश्रवण कुबेर राजा १३१,४२४ वेहायस २८७, ३००, ३०० टि० व्यक्त १७६, १७१ वैजयन्त प्रसाद २२० व्यन्तर १३१ वैजयन्ती कोष १३४ टि० व्ययधर्मा ३४३ वैडूर्य ४१० व्यवहार भाष्य ४४६ टि० वैदिक १७४, ३१६, ३१८, ३१०,३५५ व्यवहार सूत्र ४४६ टि०, ४६५, ४६५ टि० वैदिक संस्कृति १५ व्याकरण शास्त्र १२८, १८७ वैदेह २६७ व्याख्याकार २२५ वैदेही २७६, २६७ व्यापार-नीति ३०९ वैदेही पुत्र ७६, ७७, २६७, २६८, ३६८ व्यावृत्त चत्य १७० वैदेही वासवी २८६, २६७, २६८ व्युत्पत्ति शास्त्र १८७ वैद्य, पी० एल० ३०६ टि०, ३१६ टि० व्युत्सर्ग ४६४ धनयिक ३५७ व्रजग्राम वैनयिकवाद ७ व्रत २४०,२४३ वैनयिकी ३०६ व्हीलर, डॉ० १०५ वैभार गिरि २२६,२३०, वैमानिक देव १३१,४१७, वैयावृत्ति १२३,१८६ वैशाली २, ३, २३, ३१, ४५, ५०, शंकराचार्य - ४४१ १०२ टि०, १८५, १९७, शंख २३२ २३४ टि०, २४६, २६८, २७६, शक राजा ७६,८२, ८२, ८२ टि. ____ 2010_05 Page #730 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७६ शक-काल शक- राज्य शक राज्य की समाप्ति शक संवत् शकट मुख उद्यान शकट व्यूह शकडाल पुत्र शक्ति पंजर शक्रेन्द्र शतपाक तेल शतानीक राजा शनिदेव शयनासन-व्यवस्थापक शय्यम्भव शय्यातर शरवण ग्राम शर्करा प्रभा ३४४ १३१, १३३, १३५, १३६, १३६ टि०, १५०, २००, २०६, २४१, ३०२, ३०५, ३३२, ३३४, ३३४, ३३६ १२६ १७८, १८०, १८५, ३१७ ३१८, ३१६, ३२५ ३५ २२६ ३३४ १८५ १८ ३०७ टि० ३८१ टि० शाक्य-कुल शाक्य गणतंत्र शाक्य जनपद शाक्य देश आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन शाक्य - स्त्री शाखानगरक शातकर्णी शाक्य पुत्र शाक्य पुत्रीय श्रमण शाक्य भिक्षु शाक्य मुनि शाक्य राजा शाक्यवंशीय ८२ 2010_05 ६८ शलायतन वग्ग शल्य चिकित्सक ३७० शाक्य ४८,७०, ७१, १४६, २१२, २२४, टि०, २२५ टि०, २२६ टि०, २२७ टि०, २३४ टि०, २५७, ३२२, ३२३, ३४४, ३५३, ३७०, ३६१ २०८ ३२३ ३८५ ३७४, ३६०, ३६१ २०८ २६७, ४६६ ३२. ११३ ११३ २१७, २२३, ३८८ ३८६ ५७ ८१, ८२ ३४८ ३०१ २८०, २३३, ४२२ [ खण्ड : १ ४७१ ३४२ ६८ टि० १७ ३३६ शान्त सुधारस भावना ३७८ टि० शार्पेन्टियर, डॉ० ५५ प्र०, ६६, ३०४ शालवन १३७, १३८, १७१, ३४०, ४०५ शाल वृक्ष १३७, १३६, १७०, ३४०, ३४० शालिभद्र १६४ प्र०, २३० प्र० शालीशीर्ष गांव शासन देवी ३१, ३४८ ३०४ शास्ता ७१, ७२, ७७, १७३, २०८, २०८, २०६, २१२, २४४, २४६, २४७, २५४, २५५, २५६, २६०,२६१, २६८, २६६,३३२, ३३८, ३४१, ३४२, ३५८, ३६१, शास्त्रज्ञ शास्त्रार्थ ३७१, ३७८, ३८४, ३८६, ३६४, ३६४, ३६६, ४०७, ४०८, ४२१, ४३३, ४३४, ४३५, ४३६, ४३६, ४४७, ३४८, ४५३ ४५६ ४४०, ४४७ शास्त्री, प्रो० नीलकण्ठ ८६ टि०, ६४ टि० शास्त्री, मनमथनाथ शाह, चिमनलाल ४१ टि०, १०७ टि० जयचन्दलाल १७ टि०, ३६ टि०, ६६ टि० शाह, डॉ० त्रिभुवन दास लहरचन्द ८७ टि०, ८६ टि०, ६३ टि०, ६३ टि०, ६४ टि० ६६ टि० शाह, डॉ० शान्तिलाल ६५ टि०, ६६, ६१, ६६ टि०, ६७ टि०, ६६ टि०, १०२ टि०, १०३ टि० ३८२, ४६५, ४६८ ४६८ १८७ ३१५ ८४ टि०, २६६ शान शान्त विहार शिक्षा पद शिक्षा-विधान शिक्षा शास्त्र शिक्षण्डी शिलालेख Page #731 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा ] शिलावती (सुह्य) शिल्प-प्रदर्शन, बोधिसत्त्व का ३५३ १४३ २७७ ४० ३१७, ३२५ शिवानन्दा २३६, २३७, २३८ शिशुनाग ८६ ८६ टि०, ८७ टि०, टि० ६२, ६३, ६४ टि०, शिशुनाग और भगवान् पार्श्वनाथ की समकालीनता ६४ टि०, शिल्प शालाएँ शिव शिवा १०१ शिशुनाग का राज्याभिषेक शिशुनाग वंश ८७ टि०, ६ टि०, ६२, ६३ टि०, ६३, ९३ टि०, ९४, ६५, ६६ टि०, १०१ शीतोदक- वर्जन ४०१ शील २१४ टि०, २४०, ३३१, ४०६, ४२३ ४६२ २८७, २६३ २३८, ४११, ४१२, ३८३, ४०२ ११ टि०, ४५० ६६ टि० शीलवत् भिक्षु शीलव्रत शील-सम्पन्न शीलांकाचार्य शुंग वंशीय शुक्ल अभिजात शुक्ल अभिजाति - निर्वाण शुक्ल अभिजाति - कृष्ण - धर्म शुक्ल अभिजाति - शुक्ल - धर्म शुक्ल ध्यान १५८, १७०, शूद्र ४१३, ४१६ ४१४ ४१८ ४१८ ३६५, ४१६ शुक्य लेश्या शुची शुद्ध दन्त शुभ्रभूमि शुशुनाग शुषिका २३४ शुद्धोदन राजा १२६, १३८, १३६, १४०, १४१, १४६, २११, २१२, २१३, २१४, २१४, २२७ ११५, १२५, १२८, १३७, ३६६ 2010_05 ३३३, ४१६, ४१७ 55 fao २८७ १५४ ६५ टि०, १०२ टि० शब्दानुक्रम शूर अम्बष्ट शेषवती शैक्ष्य शैलेशी अवस्था शैव शैशुनाग शोभित शौच शौण्डिक - कर्म शौण्डिका - किलंज शोरसेन ७ ६५ टि० २२६ २२८ ३६२ ३६२ ४१० श्यामाक ४३६ १७० श्यामाक गाथापति श्यामावती रानी श्रद्धा २१४ टि०, २६१, ३७१, ३८०, ४०६, ३१६ ४४३ २२७ २२५ श्रद्धा से प्रव्रजित २२५ श्रमण ४५, ४५ टि०, ४६ टि०, ४७ टि०, ४६ टि०, ५२ टि०, ५३ टि०, ५५ टि०, ७४ टि०, १०५ टि० श्रमण २, ४, ५, ८, १५, १८, १९, २१, २२, २२, २३, २४, २६, २८, ३१, ३२, ३६, ७२, ७५, ७५, ७६, ११४, ११६, १५०, १५३, १५६, १६०, १६२, १७७, १८८, १६६, २०६, २०७, २०७, २०८, २१४, २३२, २३७, २५१, २५४, २७०, २७८, २८१, २८२, २८६, २८६, २६०, २६१, ३०२, ३११, ३३४, ३६३, ३६६, ३६६, ३७०, ३७८, ३८०, ३८१, ३६१, ३६३, ३६५, ३६५, ३६६, ४०१, ४०३, ४०३, ४०५, श्रद्धा-युक्त श्रद्धाशील ६७७ २३४ १३४ ४५३, ४५४ ३३३ 55 fão, Page #732 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७८ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन खण्ड : १ १५२ २६३ ४०६, ४०६, ४०८, ४१६, २५८ , २५६, २७०, २८३, ४२०, ४३४, ४३८, ४४१, ३२०, ३२३, ३२४, ३२४, ४४२, ४४८ ३४२, ३४६, ३४८, ३४६, श्रमण-गौतम __देखें, बुद्ध ३५०, ३५३, ३५३, ३६४, थमण-धर्म १४१, २०२, २२६ ३६५, ३६७, ४०१,४०७, श्रमण-परम्परा ६३, ४१७ ४२३, ४२४, ४३८, ४४७, श्रमण भगवान् महावीर ३४६ टि० श्रमण परिष्कार १५० श्राविका १८०, ११७, २३३, २४२, २५१, श्रमणोपासक २७, २८,१३४, २३२, २३७, ३०२, ३३१, ३३६, ३६६ २३८, २३८, २३६ श्री १२८ श्रमणोपासिका १८५, १८६, ३१८ श्रीदेवी श्रमण संस्कृति श्री भरतेश्वर बाहुबलि वृत्ति २८४ टि०, श्रामणेर २०१ टि०, २१४, ४७०, ४७० ३००, ३०३ टि०, ३०८ टि०, श्रामण्य ११६,२२८, ३३६ ३०६ टि०, ३१४ टि०, श्रामण्य-पर्याय ४२२ ३१७ टि० श्रामण्य-फल ६१, १०७, १०८, २६२, ३७६ श्रीमद्भागवत पुराण २८६ ३६८ प्र०,४०० श्रीमती श्रावक २८, ३३, ३३ टि०, ३७, १८०, श्रुत ४०६, ४२१ १९७, २१२, २३२, २३३, श्रुतज्ञान १२८, १७२ टि०, १६१ २३८, २४०, २४१, २८०, श्रुतञ्जय ८८ टि. ३१७, ३२५, ३३१, ३३६, श्रुतवृद्ध चतुर्दश पूर्वधर ४५० ३५६, ३५७, ३६१, ३६२, श्रुतश्रव ८८ टि०, ३६४, ३६५, ३६५, ३६६, शृङ्गारिक परिधान ४१० ३४६, ३७७, ३७७, ३८१, शृगाल माता २२७ ३८५, ४०६, ४०७, ४१०, श्रेणिक (बिम्बिसार) ८, १८, ५३, ६१, ६२, ४११, ४१२, ४१५, ४२०, ८७ टि०,८८ टि०, ८६ टि०, ४२१, ४२४, ४३८, ४६५ ६५, ६४ टि०, ६५ टि०, श्रावक-धर्म २४२, २८१ १०५, १३५, १८०,१८०, श्रावक-संघ ४०६ १६४, १६५, १९६, २२०, श्रावक-समुदाय ४१५ २२७ टि०, २२८, २२८, श्रावस्ती १७,१८, २१, २३, २४, २६, ३२, २३०, २३०, २३५, २४२, ७४, ८६ टि० ११३ टि०, २४३, २४६, २४७, २४७, ११४, १७४, १७५, १८७, २६५, २७१ प्र०, २६० टि०, १८८,२२५ टि०, २२५टि०, २६२, २६३, २६४, २६४, २२६ टि०, २२७ टि०, २६६, २६७, २६८, २९८, २३३, २३३ टि०, २४४, ३००, ३०० टि०, ३०१, २४५, २४६, २४६, २४८, ३०६, ३०८, ३०६, ३०८ २४८, २५१, २५६, २५७, टि०, ३०६, ३१०, ३१३, ____ 2010_05 Page #733 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा ] ३१३, ३१५, ३१६, ३१६, ३१६ टि०, ३१७, ३२५, ३२६, ३६७, ३७५, ३७५, ३८३, ३६८, ४४३ श्रेणिक और बुद्ध को सममामयिकता १०७ २६४ श्रेणिक का पुत्र प्रेम श्रेणिक का राज्यारोहण श्रेणिक की मृत्यु श्रेष्ठिकुल श्रोत-लब्धि श्रोत्रिय घसियारा श्लेष्मौषध लब्धि श्वेत पर्वत श्वेतवस्त्रधारी श्वेतवस्त्रधारी गृहस्थ श्वेतवस्त्रधारी निगष्ठ श्वेतवस्त्रधारी शिष्य ६५, टि०, १०१ १०७, २६६, ३०६ २२७ टि०, २३४ टि०, २३५ षट्काय षट्खण्ड - विजय षडंग वेद षड् आवश्यक षष्टि तंत्र H ४१५ श्वेताम्बर ७३ टि०, ८० श्वेताम्बर परम्परा ३१, ७३, १२५, २८५ श्वेताम्बिका नगरी १६० श्वेताम्बी ३४८ संक् संकाश्य नगर संकिच्च जातक संक्रमण संखसुत्त संगमदेव शब्दानुक्रम संगीत संगीति संगीति पर्याव सुत्त संघ ३२५, ३४३, 2010_05 स २२१ १७१ २२१ ४२२ ३६०, ३६१, ३६२ ४१२, ४१५ ४४७, ४४७ ४१६ ३०६ १२५, २०१ टि० १२३ १२८ ४१० ४५५ ८० टि०, ३६२, ४१५ ३५६, ३५८, ४१८, ४५४, ४५८, ४६२, ४६६ २६८ ४६४ १०४ २६७ संघ- भेदक- खंधक ६० टि०, २१७ टि०, संघ कर्म संघ - बहिष्कृत संघभद्र भिक्षु संघ-भेद २१६ टि०, २२० टि०, २६२, २६६ टि०, २६२ टि० संघमित्रा ४४२ संघ राज्य ३२५ संघ व्यवस्था ४६३ संघ सभा ३२४ २३४ संघ सेवक संघात ३०७ संघादिसेस ४६१, ४६२, ४६२ टि०, ४६४ संघीय नियम बद्धता २२५ १७५ टि०, संजय परिव्राजक १५, १७५ २०७, २०८, २०६ १५ प्र०, ६०, ७५, ७६, ७६, ३८१, ३६३, ३६४. ३६६, ४००, ४०२, ४०३, ४०५, ४०६, ४०७, ४१८, ४२१, ४२२, ४३२, ४४१ ३०७ टि० संजतवेलट्ठपुत्र ४, ५, ७, संजीव संज्ञा विवर्त चतुर संज्ञा वेदयित-निरोध समापति संज्ञी गर्भ ३५.३ संतुषित् ३५२ संथारा ३०७ टि० संन्यासी ३७४ सप्रजन्त ३७८ १६२ प्र०, १६८ ६७६ संभुक्तर संभूति विजय २२५ ३४३ २२, ३३ १३६ १३४ २०१ टि०, ३१४ टि०, ३२२ २६८ ३६ ३३४ Page #734 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८० संयम संयम पर्याय १७०, २८६ ४४७ ४६४ संयुक्तस्तु ४५६ संयुक्त निकाय ३४ टि०, ३७ टि०, ६० टि०, ७५ टि०, २२० टि०, २२१ट०, २३५ टि०, २६७, २६७ टि०, ३०७ टि०, ३१२, ३१६, ३२०, ३२१ट०, ३५५ टि०, ३७८, ३८०, ३८१, ३८१ टि०, ३८२, ४०२, ४१३, ४१३, ४१३ टि०, ४२२, ४२३ संयुत्तनिकाय अट्ठकथा १४ टि०, ३३ टि०, २८६ टि०, २६७ टि०, ३६५, ४२२ टि० २२१ टि० संयुक्त प्रासाद कम्पनवग्ग संयुक्त निकाय संलेखना संवर संवेग संवेजनीय संसार शुद्धिवाद संस्कार संस्कृत संस्कृत - प्राकृत ग्रन्थ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन सत्यश्री सद्धर्म पुण्डरीक सनधोवन सन्तिके निदान सन्दक परिव्राजक सन्दक सुत्त सन्निपात ( गोष्ठी) सप्त अहोरात्र प्रतिमा सप्तपर्णी गुफा सकुल उदायी सकुला सकृदागामी - फल सङगामावचर जातक ३१६, ४४६, ४५१ २८३ सस्तारक २३८ संस्थागार ३४३, ३४४, ३५६, ३५६, ३६१ ३८६ प्र०, ४०६ २२७ २५६, ४०५ २२६ सचेलक ८१, १५.१, १६०, १६१, ४३६ सच्चक निगण्ठ ४१८ पुत्र सञ्जयिन् वेरट्टिपुत्र ४४२ सत्थुक ४४६, ४४६ सत्य १७०, १२८, ३७८, ३७६, ४६६ सत्यकेतु, डॉ० सत्यजित् 2010_05 २२ १८४ टि० ८, ३६०, ३५६, ४०० ३३८ ४० ८६ टि० सप्त मासिकी भिक्षु प्रतिमा सप्त मासिका प्रतिमा सभिय ( परिव्राजक ) समय सुत्त समन्त प्रासादिक समवसरण २००, २३०, २३३, २३७, २४२ २७०, २७६, २८०, २८०, ३१७, ३३०, ३३२ समवायांग सूत्र १२७ टि०, २१६ टि०, ३४१ २३३ टि० ३३२, ४४३ टि० ४५६ टि० ३३, ३६ ३४३, ४५३ समसामयिक धर्म-नायक ६५ टि०, ३१३ टि० समाधि समाधि पाद समाधि मरण समाधि सम्पन्न [खण्ड : १ ३३१ २६ε ४२०, ४२० १७३, ४१३, ४२१ ३०३, ४५४ F २२७ २६४ २२७ २२८ ७५, ७५, ४०२ प्र० ६० टि०, ७६ टि०, ४०४ २२६ ३२, १२०, १७४, १७८ १८२, १८३, १८४, १८७, ११८, ३६२ १२६ समुच्छिन्न क्रियाऽनिवृत्ति समुदान भिक्षा सम्बुद्धत्व सम्बोधि सम्बोधि-लाभ सम्बोधि साधना सम्यक ज्ञान ३६७ टि०, ४०० टि०, ४०१, ४२२, टि०, १५३, १५६, १६८, २५६, You ३७८ १६८ टि० ३८३ ३३३ टि० २१२ टि०, १७१ ७५, ७५, १४३, १५१, १६८ ४३१ १५४ २८ Page #735 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा] शब्दानुक्रम ६८१ सम्यक्त्व १८१ सहस्रार कल्प २६, ३६ सम्यक्त्वी १८१, २३२, २३६, २४०, सांस्कृत्यायन, पं० राहुल ४८, ५५ टि०, २४३ ६० टि०, १०५, ३२८ टि०, सम्यक् दर्शन १२१ ३४६, ३४७, सम्यक सम्बुद्ध ७७, २०१ टि०, २०२, २४३, ३५३ टि०,४७० ३५६, ३६६, ३७७, ३८२, सांख्य ३,७,१२० ३८३, ४०४, ४०८, ४१८, सांदृष्टिक ३८२, ३८३, ३८६, ३८७, ४०० ४२० साकेत २४८, २५०, ३४२, ३५०, ३६५ सम्यक् सम्बुद्ध-प्रवेदित ३६२ सागर नगर । ४४० सम्यक् सम्बोधि १७१, ३४० सागल २२७टि० सम्यग्दृष्टि २७, २४२, २८२, ४४३, ४४४ सागरोपम २७, २७, १२८, ३१४ सरयू २ सागार-धर्म १५८ सरस्वती गच्छ की पट्टावली सात अपरिहानीय नियम ३०३,३०४ सराक, काशीनाथ ६२ टि० सात धर्मनायक ५८, १०६, ३५४, ४०७ सर्वज्ञ २१, १३६, १७३, १७७, १८८, सात शिक्षाव्रत २३७ १६८, २२८, २७७, ३७०, सातवलिका गणिका २३४ टि० ३७५, ३८२, ३८४, ३८६, साधना १५१, १७०, १७२, १८२, २००, ३८६, ३६४, ३६७, ४२० २०२, २३०, २३१ सर्बज्ञता १७२,१७३, १७७, ३०३, साधनावस्था ३५२ ३७४, ३७६, ३६०,३६७. सार्मिक राजा ३२४ ४२१ साधु समाज ४६३ सर्वतोभद्र प्रतिमा २२७ साधु-संघ ४६२ सर्वदर्शी १७२, १८८, २७७, ३७०, ३७५, सानुलट्ठिय १६२, ३४६ ३८२, ३८४, ३८६, साम ३०६ ३६७, ४२०, ४२४ सामगाम ७०, ७१, ७३, ३५३, ३५३ टि० सर्वानुभूति अनगार २३, २४, २६ ३६०, सर्वार्थसिद्ध २८०, ३३४ सामगाम सुत्त ५६, ५७, ५६, ६५ टि०, सर्वास्तिवाद-परम्परा १०३, ३२६ ७१ टि०, ३६०, ४१५ सवींषध लब्धि २२१ सामगाम सुत्त वण्णना ३९२ सललवती नदी १३७ सामञफल सुत्त ४, ६, ७, ११, ३५, सल्लेख २६७ ६० टि०, ७७ टि०, १०७, १७५, सवस्त्र निर्ग्रन्थ ४१४ २८८,२६१ टि० २९२ टि., सहदेव ८७ टि० ४०१, ४१३, सहम्पति ब्रह्मा १२६, ३४३ ४१६ टि० सहली देवपुत्र ४२१ सामवेद १२८ सहस्रपाक तेल १२६ सामानिक देव १७० सहस्रबाहु १६६ साम्प्रदायिक मनोभाव सहस्रानीक १८५, ३१८ साम्प्रदायिक संकीर्णता 9 mr ३५४ 2010_05 Page #736 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८२ ४१२ सामायिक-व्रत सामावती २३४ सारनाथ १०६ टि०, ११३ टि०, २०१, ३४१ सारिपुत्र, आयुष्मान् २, १५, ५५, ५५ टि०, ६४, ७२, ७३, ७४, ११३ टि०, ११४, १७४, १७५, १७५ टि०, २०७ प्र०, २१३, २१४, २१६ प्र०, २२२, २२४, २२५ टि०, २२६ टि०, २२६, २४६, २६३, २६४, २६८ प्र०, ३२३, ३६२, ४१६, ४४७ सारिपुत्र की मृत्यु सारिपुत्र के मामा सालवती सालिहीपिता साल्ह लिच्छवी साल्ह सुत्त साहस्रिक लोकधातु साहिलीपिआ पुत्र सिंह सेनापति सिंहनाद सिंहभद्र सिंहली- कथा सिंहली गाथाएं सिंह शय्या सिंहा भिक्खुणी सिद्ध आगम और त्रिपिटक एक अनुशीलन सिद्धार्थ ग्राम सिद्धार्थ पुत्र सिद्धार्थपुर सिद्धार्थ राजा १५१ ३२४ सिंह, कालाय सन्निवेश के अधिपति का ३० सिद्ध-गति सिद्ध-शिला ५५, ६४, २२०, ३५५ ४४५ २३५ 2010_05 सिद्धार्थ कुमार १४३, १५६, २३३ ३८३ ३८३, ३८३ टि० सिन्धु नदी सिन्धुसौवीर देश सिलोन ८५, ८५ सीमान्त सीवली भिक्षु १६७, ३१५, ३१७ टि०, ६० टि०, ६१, ९२ टि० ८५, ६२ १०३ सिलोनी-काल-गणना सिलोनी गाथा सिलोनी ग्रन्थ ८३, ६० टि०, ६१ सिलोनी परम्परा ५७ टि०, ६६, ८३, ६१ सिलोनी भिक्षु सीत वन सीवली-माता सीह भिक्षु सीह, राजकुमार सीहसेण सुंसमारगिरि सुंसमारपुर सुभ गरिगेय ३२६, ३२६, ३५४, ३५६ प्र०, ४३४, ४३५, १३६, २२५ ३२६ ६१ ११२, १४८ ३६२ ३५६ सुखलालजी, पं० सुकण्हकुमार सुकरमद्दव १२६, १३२, १३४, १६५, सुकालकुमार सुकाली सुक्षत्र १८८, १८६, ३३३ सुख विपाक [ खण्ड : १ १६, २० २२५ टि० ३४८, ३४६ १३०, १३१, १३४, १६३, १६७, १६८, १७०, १४४, १४६, १४७, सुगति प्राप्त १६६, २०१ टि०, सुचल २१२ सुच्छेता ३२५ ३३१, ३३१ टि० २८७ ३२६, ३३८, ३३८ टि० २८७ २८६, २८७ ८८ टि० ३, ५४ प्र० ३३२ ३१४ सुगत २४५, ३४७, ३६६, ३६०, ३६६, ३३५ ४०८ ८५ २४३, २४४ २२६ टि० २२५ २३४ टि० २६१ २८७ २८७ २३४ टि०, ३५२, ३४६ १०७ टि० ३७७ ८६ टि० १६४, ३४६ Page #737 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६५ १६४ इतिहास और परम्परा] शब्दानुक्रम ६८३ सुजाता १५१, १५२, १५६, १५७, १६८, सुमंगल विलासिनी ३५ टि०, ३०३ टि०. २३४ __३०६ टि०, ३२८, ४१३ टि०, सुज्येष्ठा ३२५ ४१५ टि० सत्तनिपात ६० टि०, ७६ टि०, २७२ टि०, सुमक ३३१ ३०७ टि०, ४०४, सुमन श्रेष्ठी २३३ टि०, २४३ ४२४, ४४५ टि० सुमनादेवी २४६, २४७ सुत्तनिपात अट्ठकथा २२६ टि०, ४०४ टि०, सुमागध राष्ट्रीय ४२४ सुमित्र ८६ टि० सुत्तपिटक १७५, २२२, ३८४, ३८८, ४५६ मुमेध तापस ११६, १२१ प्र० सुदत्त १४१, २०१ टि० सुम्हभूमि ३४८ सुदर्शन ४१० सुयाम १३६, १३६, १४१, २०१ टि० सुदर्शन महाविहार १२१, १२२ सुयोग्य सुदर्शन माणवक ३२१ सुरभिपुर ३४८ सुदर्शना १३४, १८४, २३१, २३३ सुरा सुदिन्न कलन्द-पुत्त ४५४ सुरादेव २३३ सुधम्म भिक्षु २३५ सुलसकुमार ३१३ सुधर्मा (स्वामी) ४१ टि०, ५३, ७३, १७६, सुलसा २३३, २३५, २३६ प्र० १७८, २६१: ३१२, सुवक्ता २२५ ३३४, ४१६, ४४६ सुवर्णखल २६, ३४८ ६६ टि० सुवर्णगिरि सुनक्षत्र अनगार २४, २७ सुवर्ण पर्वत १३७, १४१ १६ सुवर्णपाली ४४१ सुनीध ३०५ सुवर्णवालुका नदी ३४८ सुनेत्र ८८ टि०, ८६ टि० सुव्रत ८८ टि. सुन्दर बोधिनी टीका ३०७ टि० सुषम आरा १२७ २२६ टि० सुषम-दुःषम आरा १२७ सुन्दरी नन्द २२६ टि० सुषम-सुषम आरा १२७ १३४, १३५ सुसिम सुत्त २२० टि० सुप्रबुद्ध शाक्य २२७ टि० सुसुनाग ५१ टि० सुप्रिया २३४ सूक्ष्म काय-योग ३३३ सुप्रिया दासी २५५ सूक्ष्मक्रियाऽप्रतिपाती ३३३ सुबाहु २०४ सूत्रकृतांग सूत्र ७, ६ टि०, ११, ३८, सुभद्र कन्या ४५६ ३८ टि०, ४२, ५५ टि०, सुभद्र परिव्राजक ६४, ६४ टि०, ३२६, ३४२, ७८ टि०, १६३ टि०, ३५६, ४०४ प्र०,४५३ ३५६ टि०, ३६७ १९४, १६७, २६०, ३०६ सूत्रकृतांग सूत्र नियुक्ति ३५६ टि० सुभोग ३४६ सूत्रकृतांग सूत्र वृत्ति ३५६ टि० सुमंगल ३४६ सूत्रागम ४५०,४५८ सुनक सुनन्द सुन्दरी सुपाव सुभद्रा 2010_05 Page #738 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन १३, ४१० ११६ ४६५, ४६८, ४६८ टि० सेचनक (गन्ध हस्ती ) २५, ३००, ३०० टि० ३०२ २८७ ६८४ सूर्य सेक्रेड बक्स ऑफ दी ईस्ट सेखिय सेककुमार सेणा सेतकणिक (सु) सेनजित् सेनप्रश्न सेना- कथा सेनानि कुटुम्बिक सेनानी - ग्राम सेनापति सेनापति देव सेनिय गोत्र सेयविया सेवाल सौगन्धिक सोणका डिवीस सोणकुटिकण सोणदन्त ब्राह्मण सोणदन्त सुत्त सोणा सोना ३१० १३७, ३५३ ८८ टि० स्टीन, डॉ० ओटो स्तूप २६२ टि 2010_05 ४०६ २३४ टि० २३४ टि० ३२६ १७० २८५ ३४६ १७४, १६ ३०७ टि० सोत्तर ब्राह्मण सोमाधि सोमिल ब्राह्मण सोलह देश सौधर्म देवलोक ३६, १३१, २३८, २३६, २३६ २३४ टि० स्त्यान- मृद्ध - रहित स्थविर १२३, १८६, २३०, १३२ सौधर्मेन्द्र सौभाग्यपंचम्यादि पर्व कथा संग्रह ७६ टि०, ३३०, ३३४ टि०, ३३६ टि० स्कन्धक परिव्राजक १८७, २३१ टि० ३१४ टि०, ३६७ ३२६ ३४४, ३४५ स्थविर (बौद्ध) भिक्ष स्थविरकल्पी मुनि स्थानांग समवायांग स्थानांग सूत्र २२५ स्नान स्पर्श स्थानांग सूत्र वृत्ति स्थावर स्थालीपाक स्थितात्मा स्थूलभद्र ३३४ ४६७ ४१६ ८४ टि०, २७५ ८६ २७५ स्मिथ, डॉ० वी० ए० ८४, टि०, १, ६५ टि०, ६६ टि०, १०१ टि०, १०२ टि०, १०३ टि०, २२७ ३१ ४४१ १०४ टि०, १०५, ११३ टि०, ८७, ८८ टि० ११६ टि०, २६१ ३६२ २०६, २१०, २११, २५२, ४३६, ४४४, ४५०, ४५३, ४५४, ४६६ ३६६ ४१५ २८२ टि० ३४ टि०, १५८ टि०, १६१ टि०, २१६, २१६ टि०, २४३ टि०, २७६ टि०, २८३ टि०, ३६७ टि०, ३७४ टि०, ४६४ टि० २८४, २६१ टि०, ३०७ टि० १७६ स्मृति २५ [ खण्ड : १ स्मृतिमान् स्मृति - संप्रजन्य स्याद्वाद स्यालकोट स्वचक्रमय २६८ २२६, ३६६, ३८७, ३८८ ७२, ३३८, ३ε२, ४५३ १६ ४४० टि० ४४३ स्वप्न ३४, १२६, १२८, १२६, १३०, १३५, १३७, १३८, १४९, १५७ प्र०, २७३, ४६१ ६५ टि०, २६८, ३१७ २६४ स्वप्नवासवदत्ता स्वप्न, सिंह का ८, १० ४१६ ४०० Page #739 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा ] स्वर्ग स्वर्ण- गुलिका दासी स्व- सिद्धांत स्वागत स्वाति नक्षत्र २२६ ३३३ स्वाध्याय १७०, १८२, १६८ टि०, ४१६ स्रोतापत्ति-फल २४७, २५०, २५६, २६५, ३६७, ३६८ स्रोतापन्न २५१, ३६५, ४०५ हट (शाक) हत्थिसीस हरिगमेपी देव हरिद्रा अभिजात हरिवंश हरिवंश पुराण हरिषेण, आचार्य हर्नले, डॉ० हलियं हल्ल हल्ला हस्तक आलवक हस्तकर्म • हस्तिनापुर शब्दानुक्रम ह हस्तिन् महाराज हस्तिपाल राजा हस्तिरत्न हस्तिराज आजानीय हस्ति शीर्ष १७६, ३४५, ४१० ३१७ २२८ 2010_05 ४३६ १३४ टि० २८५ ३६ टि०, ४० टि०, ५८, ३४६ १२५, १२८, १२६ ३७, ४१७, ४१७ टि० १२८ १ टि०, ८२ टि०, २८७, ३००, ३०० टि०, ३०२ २५ २३४ ४५८ ८६ टि०, १६०, ३५० हस्तिग्राम हस्ती तापस हस्तोत्तर नक्षत्र ३२६, ४१४ हुल्ट्स ३४८ ८२ ३२६, ३३२, ३३४ २६०, हारक हाथीगुम्फा शिलालेख हारित १७६ हालाहल कुम्हारिन १७, २१, २३, २४, २५ हिंसा ४१६, ४६६ हिन्दी हिन्दु सभ्यता हेमचन्द्र आचार्य ६ टि०, १५१ टि०, २७४ टि०, २६१ टि०, २६८ टि०, ३०३ टि०, ३०६ टि०, ३२३ टि०, ३२५ टि० हिन्दुस्तान २ टि० हिमवन्त प्रदेश १३७ हिमालय १२१, १४१, १५८, ४२२, ४२५, ४२६, ४४२ हिरण्यवती नदी ३४० हीनयान सम्प्रदाय ६१, ६२ टि०, ३१६, ४४५ ६० टि० ६८५ २३४ टि० ११ प्र० १४० १६४ ह्री २६६ ६७, ६७ टि० ३६ ३ टि०, १४ टि०, ५७, ५७ टि०, ८६ टि०, २६६, हेमजित हेमिल्टन हेर, डाँ० ३८४, ४१४, ४१५ हैस्टिण्णाका इन्साइक्लोपिडया ऑफ रिलीजन एण्ड एथिक्स होपकिन्स, ई० डब्ल्यू ० - एन-त्सांग ४६, ५०, ६७, ६८, ३३४ टि०, ३४६, ४५१ २८६ ४१ टि० ५८ १०५ टि० १०० टि०, १०३ १२८ Page #740 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८६ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड : १ Advanced History of India ५० टि०, Chandragupta Maurya and his ५७ टि०, ६६, ७६ टि०, Times ७८ टि०, ७६ टि०, ८५ टि०, ___८० टि०, ८१ टि० १०८ टि. Age of Imperial Unity : History Chronological Problems ६५, and Culture of the Indian People ६५ टि०, ६१ टि०, ६२ टि०, १११ टि० ६६ टि०,६८ टि०,१०१ टि०, Age of the Nandas and Mauryas १०३ ट्रि ८६ टि०,६४ टि० Chronology of Ancient India Ajivikas ३८ टि०, ४० टि० ६६ टि० Ajivika Sect--A New Inter- Colebrooke's Essays 8 fao pretation ३६ टि० Corporate life in Ancient India Apte's Sanskrit-English Dicti २८५ टि० onary २६६ टि. Corpus Inscriptionum Indicarum Archaeological Survey of Western १०४ टि० India ९८ टि० Der Buddhismus १०५ टि० Asoka ११३ टि० Dialogues of Buddha ३३ टि०, B. C. law Commemoration ६१ टि०, २८१ टि०, २६८ टि०, Volume १०४ टि० २६६ टि०,३२६ टि० Book of the Gradual Sayings Dictionary of Pali Proper Names १५ टि०, ३२ टि०, ३५६ टि०, १४ टि०, ३३ टि०, ३४ टि०, ३८३ टि०, ३८४, २२६ टि०, २३५ टि०, २५५ टि०, ३८८ टि०, ४१४ टि०, ४१५ टि०, २७६ टि०,२८३ टि० Book of the kindred Sayings २८५ टि०, २८६ टि०, १४ टि०, ४१३ टि०, ४१४ टि० ३०७ टि०, ३२३ टि०, Buddha : His life, His teaching, ३५५ टि०, ३८१ टि०, ४४० His order ४१ टि०, १०७ टि० Early Buddhist Monachism Buddhism १०४ टि०, १०७ टि०, ४५५ टि. ३४६ टि. Early History of India ८४ टि० Buddhism in Translation १०५ टि० ८५ टि०, ८६ टि०, ९१ टि०, Buddhist India ८५ टि०, २६१ टि०, १०४ टि०, २६४ टि०, २६८ टि०, १०५ टि० 383fco Encyclopaedia of Buddhism Buddhist Legends ३२० टि०, २६३ टि०, २६८ टि०, ३०६टि०, ४४० ४१४ टि. Encyclopaedia of Religion and Cambridge History of India Ethics ३६ टि०, ४० टि०, ४१४ टि० ८८ टि०,६६ टि०, ६७ टि०, Epitome of Jainism ५० टि० ६८ टि०, ६६ टि०, १०१ टि०, Gra metic Der Prakrit Sprachen ११७ टि० २८४ टि० 2010_05 Page #741 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास और परम्परा ] Hindu Civilization Hindus ४१ टि० History and Doctrines of Ajivikas ३६ टि०, ४१३ टि० History of Buddhism १०० टि० History of Buddhist Thought ४५६ टि० History of Indian Literature ३२६ टि० १०४ टि० Indian Ephemenis Indian Antiquary ८२ टि०, १०४ टि०, १०५ टि०, ११५ टि०, ४५१ टि०, Indian Historical Quarterly शब्दानुक्रम ४५५ टि० ६ टि० ३४ टि० Indiche palaeographie Indological Studies Inscriptions of Ashoka Jainism in North India Iatak Jinist Studies Journal of Bihar and Orissa Research Society ५६ टि०, ६६ टि०, ६७ टि०, ६६ टि०, १०१ टि०, १२६ टि० Journal of the Pali Text Society ४५५ टि० Journal of Royal Asiatic Society ६६ टि०, १०४ टि०, ११५ टि० Life of Buddha ( By Rockhill) २८१ टि०, २६७ टि०, २६८ टि०, ३२६ टि०, ३२६ टि०, ३२६ टि० 2010_05 ६६ टि० २६७ टि० ३२६ टि० Life of Buddha (By Thomes) ३६ टि०, ६४ टि०, १५६ टि०, ११८ टि० २६० टि० Life of Gaudamaf ११७ टि० Mnhavastu Mahavira Commemoration Volume ११८ टि० Oxford History of India ६५ टि०, १०२ टि०, २८३ टि०, २६१ टि० Pre-Buddhistic Indian Philosophy १४ टि० ३८ टि० Political History of Ancient India ४५ टि०, ५२ टि०, ७६ टि०, १ टि०, ६४ टि०, ६५ टि०, १०५ टि०, ११६ टि०, २८६ टि० Purana Text of the Dynasties of the Kali Age ८४ टि०, ८६ टि०, Sakya ६६ टि० ३ टि० ४१ Sacred Book of the East S. B. E. Vol. X ४५ टि०, १०४ टि०, ११६ टि०, ४०४ टि० S. B. E. Vol. XI ६१ टि० S. B. E. Vol. XXII ४१ टि०, ४३ टि०, ४४ टि०, ४५ टि०, S. B. E. Vol. XXXII ४५ टि० S. B. E. Vol. XLV ३८ टि०, ४२, ४२ टि०, ४४ टि०, ३५५ टि०, ३६७ टि०, ४१७ टि०, ४१६ टि० २७६ टि०, २६७ टि० Studies in the Origins of Buddhism ४५६ टि०, ४५७ टि० Manjushrimulkalpa S. B. E. Vol. XLIX ६८७ Studies on १०० टि० १०४ टि० Synchronismes Chinois Zeitschrift der Deutschen Morgenlandischen Gesellschaft. ४५५ टि० Page #742 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लेखक की कृतियां हिन्दी २८-सत्य मंजिल : समीक्षा राह २६-मन के द्वन्द : शब्दों की कारा १-आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन ३०- यथार्थ के परिपार्श्व में २--अहिंसा विवेक ३-नैतिक विज्ञान संस्कृत ४-अहिंसा पर्यवेक्षण ५-अणुव्रत जीवन दर्शन ३१-भिक्षु चरित्रम् ६-जैन दर्शन और आधुनिक विज्ञान ३२-माथेरान सुषमा ७-अहिंसा के अंचल में ३३---भक्तेरुक्तयः ८--आचार्य भिक्षु और महात्मा गांधी ३४-आशु काव्यानि 8-अणु से पूर्ण की ओर ३५-नीति नीलोत्पलानि १०-अणुव्रत विचार ३६-ललितांग चरित्रम् ११-आचार्य श्री तुलसी : एक अध्ययन १२-नवीन समाज-व्यवस्था में दान और अंग्रेजी दया १३-प्रेरणा दीप 1. Theory of Relativity and १४-सर्वधर्म सद्भाव Syadyad १५-तेरापंथ दिग्दर्शन 2. Jain philosophy Modern १६-अणुव्रत दिग्दर्शन Scier.ce १७-अणुव्रत क्रान्ति के बढ़ते चरण 3. Glimpscs of Anuvrat १८ -अणुव्रत-आन्दोलन और विद्यार्थी वर्ग 4. Glimpses of Terapanth १६–अणुव्रत दृष्टि 5. Strides of Anuvrat Movement २०---अणुव्रत आन्दोलन 6. The Anuvrat Ideology २१-युग प्रवर्तक भगवान् महावीर 7. Light of Inspiration २२-युगधर्म तेरापंथ 8. Pity and Charity in the New २३-बाल-दीक्षा: एक विवेचन Pattern of Society २४-मर्यादा महोत्सव : इतिहास और 9. A Pen-Sketch of Acharya परिचय Shri Tulsi २५---महावीर और बुद्ध की समसामयिकता 10. Contemporariety and Chron२६- मंजिल की ओर ology of Mahavira and Buddha २७ तेरापंथ शासन प्रणाली 2010_05 Page #743 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राष्ट्रसन्त मुनिश्री नगराज जी डी० लिट्० जन्म : सरदार शहर (राजस्थान) २४ सितम्बर १९१७ प्रवज्या : तेरापंथ के अष्टामाचार्य पूज्य कालू गणी के कर कमलों से सन् १९३४ । उपाधियां : अणुव्रत परामर्शक १९६२ । ऑनरेरी डी० लिट० कानपुर विश्व विद्यालय, १६६५ राष्ट्रसंत, सितम्बर १९८१ (कलकत्ता) सद्भावनारत्न, १९८४ (राष्ट्रपति जी द्वारा) ब्रह्माषि १९८E (सनातन सभायों द्वारा दिल्ली) योग शिरोमणि, १९८६ (अन्तराष्ट्रीय योग सम्मेलन, दिल्ली) साहित्य मनीशी, १९८७ (अन्तराष्ट्रीय ज्योतिष सम्मेलन) अभिनिष्क्रमण : सरदार शहर (राज.), ६ नवम्बर १९७६ साहित्य-साधना : आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन, खण्ड-१, २ व ३, अहिंसा विवेक, जैन दर्शन और आधुनिक विज्ञान, नया युग : नया दर्शन आदि पच्चास के लगभग छोटे-बड़े ग्रंथ, स्फुट लेख व विचार, जो देश की प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहे हैं। लोक-हिताय : सुद्र प्रान्तों में प्रलम्ब व सफल पद यात्राएं। मजदूरों और किसानों में विद्यार्थी और व्यापारियों में, सर्व साधारण और राज कर्मचारियों में, स्नातकों व प्राध्यापकों में, अधिवक्ताओं एवं न्यायाधीशों में, साहित्यकारों व पत्रकारों में, विधायकों व संसद सदस्यों में नैतिक व चारित्रिक उद्बोधन । दिल्ली आपका प्रमुख कार्य क्षेत्र रही है। शीर्षस्थ लोगों से आपका उल्लेखनीय सामीप्य TET ! 2010.05 onal use only Page #744 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Muni Shri Nagarajaji has presented a well-reasoned analysis of the problem of the contemporaneity of Mahavira and Buddha. He has critically examined the existing theories propounded by foreign and Indian scholars, and on the basis of the evidence contained in canonical literature of the Jainas and the Buddhists, has come to the conclusion that Mahavira was the senior of the two, who was born earlier, took to his mission earlier and attained the Nirvana earlier than Buddha. His dissertation is full of critical examination and interpretation of established literary evidence... The book fills a gap and will fulfill a great purpose. The learned Muni has brought to bear his erudition, critical judgement and dispassionate objectivity on the exposition of a difficult problem. It is all the more creditable that he has not allowed his religious bias to affect his conclusions and has relied on logic and concrete evidence in substantiating his point. The book is a distinct contribution to knowledge. Dr. Bisheshwar Prasad Head of the Department of History Delhi University. It is well-known that there is plenty of disparate evidence and conflicting traditional information as well as a plethora of controversy amongst scholars about the dates of the Nirvana of Buddha and Mahavira. Shri Nagarajaji has surveyed, in this respect, all the accessible material and different traditions, specifying duly the sources etc., and his conclusion that Mahavira attained Nirvana in 527 B.C. and Buddha in 502 B.C. seems to be quite consistent in itself....In fine, this work has become a veritable repository of useful information on Mahavira and Buddha, their times and doctrines. Dr. A.N. Upadhye, M.A., D. Litt. Dean of the Faculty of Arts Kolhapur University. The work is full of deep scholarship, penetrating criticism and originalities. It essays tackling problems which have not received due attention so far. and in my opinion, constitutes a most welcome contribution to the world of scholarship. _Prof. Dr. G.C. Pande, M.A., D. Phil. Head of the Deptt. of History and Indian Culture Rajasthan University. CONCEPT PUBLISHING COMPANY, NEW DELHI-110015 d onnemata 2010-05 www.laineliborg