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२३६ बागम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन
[खण्ड : १ सुरक्षित निधि थी, चार करोड़ हिरण्य ब्याज-व्यवसाय में और चार करोड़ हिरण्य उसके प्रविस्तार (व्यापार) में लगे हुए थे। उसके पास चार व्रज (गोकुल) थे। प्रत्येक व्रज में दस हजार गोएँ थीं। प्रचुर सामग्री व महत्तम गौ-कुलों से वह महद्धिक कहलाता था।
आनन्द अपने नगर का विश्वस्त व श्रद्धापात्र था। राजा, युवराज, नगर-रक्षक, सीमान्त प्रदेश के राजा, ग्राम-प्रधान, श्रेष्ठी, सार्थवाह आदि सभी व्यक्ति अपने बहुत सारे कार्यों में, अपनी गुप्त मंत्रणाओं, रहस्यों व व्यवहारों में उससे परामर्श लेते थे। अपने परिवार का वही आधार-स्तम्भ था।
निर्ग्रन्थ-प्रवचन में रुचि
वाणिज्य ग्राम की उत्तर-पूर्व दिशा में कोल्लाग उपनगर था। वह भी बहुत समृद्ध था। गृहपति आनन्द के वहाँ भी बहुत सारे मित्र व सम्बन्धी रहते थे। एक बार ग्रामानुग्राम विहार करते हुए भगवान्, महावीर वाणिज्य ग्राम पधारे। समवसरण लगा। राजा जितशत्रु और सहस्रों की संख्या में जनता दर्शनार्थ व उपदेश श्रवणार्थ आई। शहर में अदभुत चहलपहल थी। आनन्द ने भी भगवान् महावीर के शुभागमन का संवाद सुना। वह पुलकित व रोमाञ्चित हुआ। भगवान् के दर्शन महाफल-दायक होते हैं; इस मनोरथ के साथ उसने दशनार्थ जाने और पर्युपासना करने का निश्चय किया। उसने स्नान किया, शुद्ध वस्त्र पहने और आभूषणों से सुसज्जित हो, अनुयायी वृन्द से परिवृत्त, वाणिज्य ग्राम के मध्य से पैदल ही चला । उसके छत्र पर कोरंट की माला लगी हुई थी। वह द्युतिपलाश चैत्य पहँचा, जहां कि महावीर ठहरे हुए थे। तीन बार आदक्षिण-प्रदक्षिणापूर्वक उसने वन्दना की और परिषद् के साथ उपदेश-श्रवण में लीन हो गया। धर्मोपदेश सुन कर जनता अपने घर गई। गृहपति आनन्द भगवान महावीर के उस उपदेश से बहुत सन्तुष्ट और प्रसन्न हुआ। उसने निवेदन किया-"भन्ते ! मैं निर्ग्रन्थ-प्रवचन में श्रद्धाशील हूँ। निम्रन्थ-प्रवचन में ही मेरी प्रतीति व रुचि है । जैसे आप कहते हैं, सब वैसे ही हैं। यह सत्य है। मैं इस धर्म की चाह रखता हूँ। पुनः-पुनः चाह रखता हूँ। भन्ते ! आपके पास बहुत से राजा, युवराज, सेनापति, नगर-रक्षक माण्डलिक, कौटुम्बिक, श्रेष्ठी, सार्थवाह मुण्डित होकर आगार-धर्म से अनगार-धर्म में आते हैं। किन्तु, मैं साधु-जीवन की कठिन चर्या में निर्गमन के लिए असमर्थ हूँ; अत: गहि-धर्म के द्वादश व्रत ग्रहण करना चाहता हूँ।"
भगवान् महावीर ने कहा-“यथा सुख करो, किंतु, श्रेय में विलम्ब न करा।"
निर्ग्रन्थ-धर्म का प्रहण
गाथापति आनन्द ने द्वादश व्रत ग्रहण करते हुए निवेदन किया--"भन्ते ! मैं दो करण और तीन योग से स्थूल प्राणातिपात, स्थूल मृषावाद व स्थूल अदत्तादान का प्रत्याख्यान करता हूँ। शिवानन्दा के अतिरिक्त सभी स्त्रियों में मेरी मातृ-दृष्टि होगी। इच्छा-परिणाम व्रत के अन्तर्गत संरक्षित चार हिरण्य कोटि, व्यवसाय में प्रयोजित चार हिरण्य कोटि और धन्य-धान्य आदि के प्रविस्तार में प्रयोजित चार हिरण्य कोटि के अतिरिक्त धन-संग्रह का त्याग करता हूँ। चार व्रज से अधिक नहीं रखूगा। क्षेत्र-भूमि में पांच सौ हल से अधिक नहीं रखंगा। पांच सौ शकट प्रदेशान्तर में जाने के लिए और पांच सौ शकट घरेलू काम के लिए, इस प्रकार एक हजार से अधिक शकट नहीं रखूगा। चार वाहन (जहाज) प्रदेशान्तर में
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