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इतिहास और परम्परा
प्रमुख उपासक-उपासिकाएँ
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व्यवसाय के लिए और चार वाहन घरेलू काम के लिए, इस प्रकार आठ से अधिक वाहन नहीं रखूगा। स्नान करने के बाद शरीर पोंछने के अभिप्राय से गंधकाषायित वस्त्र के अतिरिक्त अन्य वस्त्र का त्याग करता हूँ । मधु-यष्टि के अतिरिक्त दातून का त्याग करता हूँ। क्षीरामलक के अतिरिक्त सभी फलों का त्याग करता हूँ। क्षोम युगल के अतिरिक्त समस्त वस्त्र पहनने और काणेयक (कान का आभूषण) व नामकित मुद्रिका के अतिरिक्त आभूषण पहनने का प्रत्याख्यान करता हूँ।"
भगवान् महावीर ने कहा- 'आनन्द ! जीवाजीव की विभक्ति के ज्ञाता व अपनी मर्यादा में विहरण करने वाले श्रमणोपासक को व्रतों के अतिचार भी जानना चाहिए और उनका परिहार करते हुए ही आचरण करना चाहिए।" अभिग्रह
___ आनन्द की जिज्ञासा पर भगवान् महावीर ने अतिचारों का सविस्तार विवेचन किया। आनन्द ने पांच अणुव्रत और सात शिक्षा-व्रत ग्रहण किये। आनन्द ने एक अभिग्रह ग्रहण करते हए निवेदन किया-"भन्ते ! आज से मैं इतर तंथिकों को, इतर तैथिकों के देवताओं व इतर तैथिकों द्वारा स्वीकृत अरिहन्त-चैत्यों को वन्दन-नमस्कार नहीं करूंगा। उनके द्वारा वार्ता का आरम्भ न होने पर, उनसे वार्तालाप करना, पुनः-पुनः वार्तालाप करना, गुरु-बुद्धि से उन्हें अशन, पान, खादिम, स्वादिम आदि देना मुझे नहीं कल्पता है। मन्ते ! इस अभिग्रह छः अपवाद होंगे-१. राजा, २. गण, ३. बलवान और, ४. देवताओं के अभियोग से, ५. गुरु आदि के निग्रह से तथा ६. अरण्य आदि का प्रसंग उपस्थित होने पर मुझे उन्हें दान देना कल्पता है।"
अपनी दढ धार्मिकता व्यक्त करते हए गहपति आनन्द ने कहा- मन्ते ! निर्ग्रन्थो को प्रासुक व एषणीय अशन, पान, खादिम, स्वादिम, वस्त्र, कम्बल, प्रतिग्रह (पात्र), पादप्रोञ्छन, पीठ, फलक, शय्या, संस्तारक, औषध, भैषज का प्रतिलाभ करना मुझे कल्पता
में मेरे
अभिग्रह-ग्रहण के अनन्तर गहपति आनन्द ने बहत से प्रश्न पूछ और तत्त्व को हृदयंगम किया। तीन बार आदक्षिगा-प्रदक्षिणापूर्वक वन्दना की और अपने घर आया। हर्ष-विभोर होकर शिवानन्द से कहने लगा-"श्रमण भगवान् महावीर के समीप मैंने धर्म को सुना। वह धर्म मुझे बहुत इष्ट है। वह मुझे बहुत रुचिकर प्रतीत हुआ। सुभगे ! तुम भी जाओ। भगवान् महावीर को वन्दना-नमस्कार करो, पर्युपासना करो और उनसे पाँच अणुव्रत और सात शिक्षा-व्रत रूप गृहस्थ-धर्म स्वीकार करो।"
पति का निर्देश पाकर शिवानन्दा बहत पुलकित हई। उसने स्नान किया, अल्प भार व बहमूल्य वस्त्राभरण पहने और दासियों के परिकर से घिरी शीघ्रगामी. प्रशस्त व ससज्जित श्रेष्ठ धार्मिक यान पर आरूढ़ होकर द्युतिपलाश चैत्य में भगवान् महावीर के समवसरण में पहुँची। महता परिषद् के साथ भगवान् की देशना सुनी और आत्म-विभोर हुई। भगवान् महावीर के समक्ष उसने द्वादश व्रत रूप गृहस्थ-धर्म स्वीकार किया और अपने आवास लौट आई।
गणघर गौतम ने भगवान् महावीर से पूछा-"प्रभो! श्रमणोपासक आनन्द क्या आपके समीप प्रनजित होने में समर्थ है ?"
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