SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 292
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २३८ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड : १ भगवान् महावीर ने उत्तर दिया-“गौतम ! ऐसा नहीं है । श्रमणोपासक आनन्द बहुत वर्षों तक श्रावक-पर्याय का पालन करेगा और अनशन पूर्वक शरीर-त्याग कर सौधर्म कल्प के अरुणाम विमान में चार पल्योपम की स्थिति से उत्पन्न होगा।" गृह-भार से मुक्ति आनन्द और शिवानन्दा; दोनों ही जीव-अजीब की पर्यायों पर अनुचिन्तन करते हुए सुखपूर्वक रहे । शील व्रत, गुण व्रत, प्रत्याख्यान और पौषधोपवास आदि के माध्यम से अपनी आत्मा को भावित करते हुए उनके चौदह वर्ष बीत गये। पन्द्रहवां वर्ष चल रहा था। एक बार रात्रि के उत्तरार्ध में धर्म-जागरणा करते हुए उसके मन में संकल्प उत्पन्न हआ"वाणिज्य ग्राम नगर के राजा, युवराज, नगर-रक्षक, नगर-प्रधान आदि आत्मीय जनों का मैं आधार हैं। अधिकांश कार्यों में वे सभी मुझसे मन्त्रणा करते रहते हैं। इसी व्यस्तता और व्यग्रता के कारण भगवान् महावीर के समीप स्वीकृत धर्म-प्रज्ञप्ति को पूर्णतया क्रियान्वित करने में मैं अब तक असमर्थ रहा हूँ। कितना सुन्दर हो, कल प्रातःकाल होते ही मित्र, ज्ञाति-स्वजनों को अपने घर निमन्त्रित कर, उन्हें अशन, पान, खादिम, स्वादिम आदि से संतर्पित कर, उनकी उपस्थिति में ज्येष्ठ पुत्र को घर का सारा दायित्व सौंप दं और उन सबकी अनुमति लेकर कोल्लाक सन्निवेशस्थ ज्ञातकुल की पौषधशाला में महावीर की धर्मप्रज्ञप्ति को स्वीकार कर विचरण करूँ।" सूर्योदय होते ही श्रमणोपासक आनन्द ने अपने दढ़ निश्चय को क्रियान्वित किया। अपने प्रांगण में मित्र व ज्ञाति-स्वजनों का सम्मान किया और उनके बीच अपने ज्येष्ठ पुत्र को कुटुम्ब का दायित्व सौंपा और सबसे कहा- भविष्य में मझ से किसी सम्बन्ध में विचार-विमर्षण न करें। मैं एकान्त में धर्म-जागरणा ही करना चाहता हूँ।" अपने स्वजनों से अनुज्ञा ले गहपति आनन्द कोल्लाग सन्निवेशस्थ पोषधशाला में आया। पौषधशाला को पूंजा, उच्चार-प्रसवण की भूमि का प्रतिलेखन किया। दर्म का संस्तारक बिछाया, उस पर बैठा और भगवान् महावीर की धर्म प्रज्ञप्ति को स्वीकार कर विचरने लगा। प्रतिमा-ग्रहण गृहपति आनन्द ने श्रावक की ग्यारह प्रतिमा स्वीकार की। सूत्र के अनुसार, कल्प के अनसार. मार्ग के अनुसार व तत्त्व के अनुसार उसने प्रत्येक प्रतिमा को काया द्वारा ग्रहण किया और उपयोग पूर्वक उनका रक्षण किया। अतिचारों का त्याग करते हुए वह विशुद्ध हआ। प्रत्याख्यान का समय समाप्त होने पर भी वह कुछ समय तक उनमें और भी स्थिर रहा। प्रतिमाओं का स्वीकरण और उनमें होने वाले घोर तपश्चरण से श्रमणोपासक आनन्द का शरीर अत्यन्त कृश हो गया। नसें दिखलाई पड़ने लगीं। धर्म-जागरणा करते हुए एक दिन उसके मन में फिर विचार उत्पन्न हुआ-"इस अनुष्ठान से मैं अस्थियों का पिंजर मात्र रह गया हँ; फिर भी मुझमें अब तक उत्थान, कर्म, वीर्य, पुरुषाकार, पराक्रम, श्रद्धा, धति और संवेग हैं । क्यों न मैं इनकी अवस्थिति में ही अपश्चिम मारणान्तिक संलेखना से युक्त ____Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002621
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1987
Total Pages744
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & History
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy