SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 293
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ इतिहास और परम्परा] प्रमुख उपासक-उपासिकाएँ २३६ होकर, भक्त-पान का प्रत्याख्यान करूँ। ऐसा करना ही अब मेरे लिए श्रेयस्कर है।" उसने वैसा ही किया। एक बार शुभ अध्यवसाय, शुभ परिणाम व विशुद्ध होती हुई लेश्याओं से आनन्द के ज्ञानावरणीय कर्म का क्षयोपशप हुआ। उससे उसे सुविस्तृत अवधिज्ञान की प्राप्ति हुई। उस ज्ञान के बल पर वह उत्तर में चूल हेमवन्त पर्वत तक, दक्षिण, पश्चिम और पूर्व में पांच सौ योजन लवण समुद्र तक, ऊपर सौधर्म देवलोक तक और अधो प्रथम नरक के लोलुप नरका. वास तक देखने और जानने जगा। गौतम और अवधिज्ञान उन्हीं दिनों भगवान महावीर वाणिज्य ग्राम आए। गौतम स्वामी बेले की तपस्या पूर्ण कर भगवान महावीर से आज्ञा लेकर भिक्षा के लिए नगर में आए । नगर में आनन्द श्रावक आवरण अनशन की जब चर्चा सुनी तो उनके मन में देखने का भाव उत्पन्न हआ। वे आनन्द की पौषधशाला में आए। आनन्द ने शारीरिक असामर्थ्य के कारण लेटे-लेटे ही वन्दना की और चरण स्पर्श किया। आनन्द ने कहा-"भगवन् गौतम ! क्या आमरण अनशन में गृहस्थ को अवधि ज्ञान उत्पन्न हो सकता है ?" गौतम-"हाँ, हो सकता है।" मानन्द-"मुझे अवधि ज्ञान प्राप्त हुआ है और वह पूर्व और पश्चिम आदि दिशाओं में इतना विशाल है।" गौतम-"आनन्द ! गृहस्थ को इतना विशाल अवधि ज्ञान नहीं मिल सकता । अनशन में तुझ से यह मिथ्या सम्भाषण हुआ है; अतः तू इसकी आलोचना व प्रायश्चित्त कर।" आनन्द-"प्रभो ! महावीर के शासन में सत्याचरण का प्रायश्चित्त होता है या असत्याचरण का?" गौतम-"असत्याचरण का।" आनन्द-'प्रभो ! आप ही प्रायश्चित्त करें। आप ही से असत्याचरण हुआ है।" आनन्द की इस दृढ़तापूर्ण वार्ता को सुनकर गौतम स्वामी ससंभ्रम हुए। वहां से चल कर वे भगवान् महावीर के पास आये और वह सारा वार्तालाप उन्हें सुनाया। भगवान् महावीर ने कहा-“गौतम ! तुझ से ही असत्याचरण हुआ है। तू आनन्द के पास जा और उससे क्षमा-याचना कर।" - गौतम स्वामी तत्काल आनन्द के पास आए और बोले- आनन्द ! भगवान महावीर ने मुझे ही सत्य कहा है। मैं वृथा विवाद के लिए तुझ से क्षमा चाहता हूँ।" गृहपति आनन्द ने बीस वर्ष तक श्रमणोपासक पर्याय का पालन किया। अंतिम समय अनशन, आलोचना आदि कर सौधर्म कल्प के अरुणाभ विमान में उत्पन्न हुआ।' सुलसा राजगृह में नाग रथिक रहता था। उसकी धर्मपत्नी का नाम सुलसा था। दोनों ही निर्ग्रन्थ-श्रावक थे। वे दृढ़धर्मी व प्रियधर्मी के नाम से पुकारे जाते थे। उनकी सम्यक्त्व निर्मल १. उवासगदसाओ, अ० १ के आधार पर । ____Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002621
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1987
Total Pages744
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & History
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy