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________________ २४० आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड : १ व सुदृढ़ थी । वे श्रावक के व्रतों का शुद्धतापूर्वक पालन करते थे। सुलसा धर्म में अधिक दृढ़ थी। श्रावक नाग के यह भी नियम था कि अब वह दूसरा विवाह नही करेगा। दोनों ही आनन्दपूर्वक अपना जीवन बिताते हुए धर्माराधन कर रहे थे। पुत्र का अभाव __ एक बार नाग ने किसी सेठ के बालकों को घर के आंगन में खेलते हुए देखा । बच्चे बड़े सुकुमार, चंचल व मनोहारी थे। उनके खेलने से आँगन खिल उठा । श्रावक नाग के हृदय में वह दृश्य समा गया । उसके मन में बार-बार यह विचार उभरता कि वह घर सूना है, जहाँ ऐसे बच्चे न हों। किन्तु, सूने घर की पूर्ति करना किसी के वश की बात तो नहीं है । पुत्र-प्राप्ति की प्रबल इच्छा ने श्रावक नाग को इसके लिए बहुत कुछ सोचने को बाधित कर दिया। वह लौकिक देव, ज्योतिषियों व पण्डे-पुजारियों के चक्कर में घूमने लगा । सुलसा को जब यह ज्ञात हुआ तो उसने स्पष्ट शब्दों में अपने पति से कहा- "पुत्र, यश, धन आदि सभी अपने ही कृत कर्मानुसार प्राप्त होते हैं। मनुष्य के प्रयत्न या देव-कृपा केवल निमित्त मात्र ही हो सकते हैं। किसी वस्तु का प्राप्त न होना, यह तो अपने अन्तराय कर्म से ही सम्बन्धित है । इसे दूर करने के लिए ज्योतिषियों द्वारा बताये गये अनुष्ठान, लौकिक देवो की उपासना व अन्य साधन क्या कर सकेंगे? हमारे लिए यह आवश्यक है कि हम अपना अधिकसे-अधिक समय दान, शील, तपश्चर्या आदि धार्मिक अनुष्ठान में लगायें। इससे कर्म शिथिल होंगे और अपने अभिलषित की प्राप्ति भी हो सकेगी। मुझे लगता है, अब मुझसे आपको पुत्र की प्राप्ति नहीं होगी; अतः कितना सुन्दर हो, आप दूसरा विवाह कर लें।" श्रावक नाग ने उत्तर दिया-"मुझे तुम्हारे ही पुत्र की आवश्यकता है। मैं दूसरा विवाह नहीं करना चाहता।" सुलसा ने अपनी स्वाभाविक भाषा में कहा-“यह तो संयोग-वियोग की बात है। प्राप्ति और अप्राप्ति में हर्ष व शोक दोनों ही नहीं होने चाहिए। जो व्यक्ति इनसे ऊपर उठता है, वह अपने लक्ष्य पर अवश्य पहुँच जाता है।" सुलसा की इस प्रेरणा से नाग के मन में पुत्रअभाव का दुःख कुछ कम हुआ और वह अपने अन्य कार्यों के साथ धार्मिक क्रियाओं में दृढ़ता से संलग्न हो गया। परीक्षा एक बार सुलसा के घर एक साधु आया। उसने सुलसा से रुग्ण साधु के नाम पर लक्षपाक तेल की याचना की। मुलसा अपने घर साधु को देखकर पुलकित हो उठी। तेल लाने के लिए शीघ्रता से अपने कमरे में गई। देव-योग से ज्यों ही बह तेल का बर्तन उठाने लगी, उसके हाथ से वह छूट गया और तीन बार ऐसा ही हुआ। बर्तन भी फूट गया और बहुमूल्य तेल भी बिखर गया। स्वभावतः ही ऐसे अवसर पर व्यक्ति गुस्से से भर जाया करता है, पर, उसके ऐसा न हुआ। घर में तेल के तीन ही बर्तन थे और तीनों ही इस तरह फूट गये । बाहर आकर उसने शान्त भाव से मुनि से सारी घटना कह सुनाई। साधु ने उसे अच्छी तरह से देखा। वह बिल्कुल शान्त थी और इतना होने पर भी उसके मन में साधु के प्रति भक्ति ही उमड़ रही थी। साधु ने अपना स्वरूप बदला और देव के रूप में सुलसा के सम्मुख खड़ा हो गया। सुलसा उसे समझ नहीं पाई। दूसरे ही क्षण देव ने कहा- "देव-सभा में शकेन्द्र ने तेरी ___Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002621
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1987
Total Pages744
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & History
File Size15 MB
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