________________
इतिहास और परम्परा] त्रिपिटकों में निगण्ठ व निगण्ठ नातपुत्त
३९७ "तू चाहे कनात के बाहर, दीवाल या पर्वत की आड़ में व चक्रवाल के अन्तिम छोर पर भी क्यों न बैठे, मैं बुद्ध हूँ; अतः तुझे उपदेश सुना सकता हूँ।"
बुद्ध ने उपदेश प्रारम्भ किया। सुनहले, पके फलों से लदी हुई आम्र-वृक्ष की शाखा को झकझोरने पर जैसे फल गिरने लगते हैं, उसी प्रकार श्रेष्ठी के पाप विनष्ट होने लगे और उपदेश समाप्त होते-होते वह स्रोतापत्ति-फल में प्रविष्ट हो गया।'
-धम्मपद-अट्ठकथा, ४-४ के आधार से।
समीक्षा
यह सारा प्रसंग धम्मपद अट्ठकथा का है; अत: अतिरंजित होना तो सहज है ही। आगमों में किसी भी मृगार नामक गृहपति के निगण्ठ-श्रावक होने का उल्लेख नहीं मिलता। मूल त्रिपिटकों में भी उक्त घटना-प्रसंग का कोई विवरण नहीं है।
(२१) गरहदिन्न और सिरिगुत्त
श्रावस्ती में दो मित्र रहते थे। एक का नाम सिरिगुत्त था और दूसरे का गरहदिन्न था। सिरिगुत्त बुद्ध का उपासक था, गरहदिन्न निगण्ठों का। दोनों में धार्मिक चर्चाएं होती। गरहदिन्न चाहता था, सिरिगुत निगण्ठों का उपासक बने। वह कहता, निगण्ठ सर्वज्ञ. सर्वदर्शी होते हैं। वे चलते, उटा, सोते सब कुछ जानते हैं, देखते हैं। सिरिगृत्त ने एक दिन अपने यहां 500 निगण्ठ साधुओं को आमन्त्रित किया। उनकी सर्वज्ञता की परीक्षा के लिए उसने अपने घर में एक गर्त खुदवाया। गर्त में उसने विष्ठा भरवाया। उस गड्ढे पर एक जाल बांधा। उस पर आसनादि बिछा दिये। निगण्ठ आये, बिछे आसन पर ज्यों ही बैठे, गर्त में घस गये।
गरहदिन्न इस घटना से बहुत असन्तुष्ट हुआ। उसके मन में प्रतिशोध की भावना जगी। कालान्तर से उसने अपने यहाँ भिक्षु-संघ-सहित बुद्ध को आमंत्रित किया। उसने भी उसी तरह एक गर्त बनवाया और उसमें अंगारे भरवाये। उसी तरह जाल बिछाया और आसन लगाये । बुद्ध ने आते ही अपने ज्ञान-बल से सब कुछ समझ लिया। अपने ऋद्धि-बल से अंगारों के स्थान में कमल उत्पन्न कर दिए। कमल तत्काल ऊपर उठ आये। तब कमलों पर ५०० भिक्षुओं के साथ बैठकर बुद्ध ने धर्मोपदेश किया। गरह दिन्न, सिरिगुत्त तथा अन्य अनेक लोग स्रोतापत्ति-फल को प्राप्त हुए।
-धम्मपद - अट्ठकथा, ४-१२ के आधार से ।
समीक्षा लगता है, साम्प्रदायिक मनोभावों से अनेक कथाएं गढ़ी जाती रही हैं। उनमें से
१. प्रस्तुत कथा-वस्तु अनाथपिण्डिक की कन्या चूल सुभद्दा के सम्बन्ध से भी ज्यों की
त्यों मिलती है । (देखें धम्मपद अट्ठकथा, २१-८)।
____Jain Education International 2010_05
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org