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________________ ३६६ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड : १ __ स्वयं बड़े आसन पर बैठा। सोने की कलछी से सोने की थाली में परोसा गया निर्जल मधुर क्षीर भोजन करने लगा। उसी समय एक स्थविर (बौद्ध) भिक्षु पिण्डचार करता हुआ श्रेष्ठी के गृह-द्वार पर आया। विशाखा ने उसे देखा। श्वसुर को सूचित करना उसे उचित नहीं लगा, अतः वह वहाँ से उठकर एक ओर इस प्रकार खड़ी हो गई, जिससे मृगार श्रेष्ठी भिक्षु को अच्छी तरह देख सके । मूर्ख श्रेष्ठी स्थविर को देखता हुआ भी न देखते हुए की तरह नीचा मुंह कर पायस खाता रहा । विशाखा ने जब यह सारा दृश्य देखा तो उससे नहीं रहा गया। स्थविर को लक्ष्य कर वह बोली-“भन्ते ! आग जायें। मेरा श्वसुर बासी खा रहा है।" निर्ग्रन्थों के प्रति विशाखा द्वारा हुए असभ्य व्यवहार से ही मृगार श्रेष्ठी बहुत रुष्ट था और जब उसने अपने प्रति 'बासी खा रहा है'; यह सुना तो उसके कोप का ठिकाना नहीं रहा। उसने भोजन से हाथ खींच लिया और अपने अनुचरों को निर्देश दिया-"इस पायस को ले जाओ और इसे (विशाखा को) भी घर से निकालो। यह मुझे ऐसे मंगल घर में भी अशुचि-भोजी बना रही है।" सभी अनुचर विशाखा के अधिकार में थे और उसके प्रति उनकी गहरी निष्ठा थी। उसे पकड़ने की बात तो दूर रही, उसके प्रति असभ्य शब्द का व्यवहार भी कोई नहीं कर सकता था। विशाखा श्वसुर को सम्बोधित करती हुई बोली- 'तात ! मैं ऐसे नहीं निकल सकती। आप मुझे किसी पनिहारिन की तरह नहीं लाये हैं। माता-पिता की वर्तमानता में कन्याओं के साथ ऐसा व्यवहार नहीं किया जा सकता। मेरे पिता ने जिस दिन मुझे अपने घर से विदा किया था ; आठ कौटुम्बिकों को मेरे अपराध के शोधन का दायित्व सौंपा था। उन्हें बुला कर आप मेरे दोष का परिशोधन करें।" विशाखा ने क्षमा प्रदान करते हुए अपनी एक शर्त प्रस्तुत की। उसने कहा- मैं बुद्ध-धर्म में अत्यन्त अनुरक्त कुल की कन्या हूँ। मैं भिक्षु की सेवा के बिना नहीं रह सकती। यदि मुझे भिक्षु-संघ की सेवा का यथेच्छ अवसर दिया जाये तो मैं रहँगी; अन्यथा इस घर में रहने के लिए कतई प्रस्तुत नहीं हूँ।" मृगार श्रेष्ठी विशाखा की शर्त स्वीकार की और एक अपवाद संयोजित किया- "बुद्ध का स्वागत तुझे ही करना होगा। मैं उसमें उपस्थित होना नहीं चाहता।" विशाखा ने दूसरे ही दिन बुद्ध को ससंघ निमंत्रित किया । बुद्ध जब उसके घर आये तो सारा घर भिक्षुओं से भर गया। विशाखा ने उनका हार्दिक स्वागत किया। नग्न श्रमणों (निर्ग्रन्थों) ने जब यह वृतान्त सुना तो वे भी दौड़े आये और उन्होंने मृगार श्रेष्ठी के घर को चारों ओर से घेर लिया। विशाखा ने बुद्ध प्रभृति संघ को दक्षिणोदक दिया और श्वसुर के पास शासन भेजा, सत्कार-विधि सम्पन्न हो गई है, आप आकर भोजन परोसें। श्रेष्ठी निर्ग्रन्थों के प्रभाव में था ; अतः नहीं आया। भोजन समाप्त हो चुकने पर विशाखा ने फिर शासन भेजा. श्वसुर बुद्ध का धर्मोपदेश सुनें । अब न जाना अनुचित होगा, यह सोच कर मगार श्रेष्ठी अपने कक्ष से चला । नग्न श्रमणों (निर्ग्रन्थों) ने आकर रोका और कहा- 'श्रमण गौतम का धर्मोपदेश कनात के बाहर रह कर सुनना।" मृगार श्रेष्ठी ने उसे छूट सम्बोधित करते हुए कहा १. विस्तृत कथा-वृत्त देख, 'प्रमुख उपासक-उपासिकाएं' प्रकरण के अन्तर्गत, पृ०२७६-८६। ___Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002621
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1987
Total Pages744
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & History
File Size15 MB
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