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इतिहास और परम्परा] त्रिपिटकों में निगण्ठ व निगण्ठ नातपुत्त
३९५ तो राजा हम से बुद्ध के बारे में नाना प्रश्न पूछेगा। यदि हम उनका समुचित उत्तर नहीं दे सकेंगे, तो राजा यह कहकर कि 'बुद्ध न होते हुए भी तुम अपने को बुद्ध कह कर जनता को ठगते फिरते हो, ; क्रुद्ध होकर हमारी जिह्वा भी कटवा सकता है तथा अन्य भी अनर्थ कर सकता है।" सभी ने उत्तर दिया-"हम बुद्ध नहीं हैं।" राजा ने रुष्ट होकर उन्हें राज-प्रासाद से निकलवा दिया।
बाहर खड़े भक्त उत्सुकता से उनकी प्रतीक्षा कर रहे थे। ज्यों ही वे राज-प्रासाद से बाहर आये, भक्तों ने घेर लिया और पूछा----"राजा ने आप से प्रश्न पूछ कर आप को सत्कृत किया ? राजा ने आप से क्या प्रश्न किया ?"
छहों आचार्यों ने वास्तविकता पर आवरण डालते हुए उत्तर दिया-'राजा ने हम से पूछा- 'तुम बुद्ध हो या नहीं ?' हमने निषेध में उत्तर दिया। उसकी पृष्ठभूमि में हमारा तात्पर्य था, राजा बुद्ध के बारे में अनभिज्ञ है । यदि हम स्वीकृति-सूचक उत्तर देते, तो हमारे प्रति राजा का मन दूषित होता। हमने राजा पर अनुग्रह कर ऐसा उत्तर दिया। वैसे तो हम बुद्ध ही हैं । हमारा बुद्धत्व पानी से धोने पर भी नहीं जा सकता।"
-संयुत्त निकाय-अट्ठकथा, ३-१-१ के आधार से।
समीक्षा एक अतिरंजित कथा के अतिरिक्त इस अट्ठकथा का कोई महत्त्व नहीं लगता।
२०. मृगार श्रेष्ठी
श्रावस्ती में मृगार श्रेष्ठी रहता था। उसके पुत्र पूर्णवर्धन का विवाह साकेत के धनञ्जय श्रेष्ठी की पुत्री विशाखा के साथ हुआ। मृगार सेठ ने एक सप्ताह तक विवाहोत्सव मनाया । वह निम्रन्थों का अनुयायी था ; अतः उसने इस उपलक्ष्य पर सातवें दिन बहुत सारे निम्रन्थों को आमंत्रित किया, किन्तु, गौतम बुद्ध को आमंत्रित नहीं किया। निम्रन्थों से उसका सारा घर भर गया। श्रेष्ठी ने विशाखा को शासन भेजा, अपने घर अर्हत् आये हैं ; अतः तुम आकर उन्हें वन्दना करो। विशाखा स्रोतापन्न आर्य श्राविका थी। अर्हत् का नाम सुनकर वह बहुत हृष्ट-तुष्ट हुई। वह तत्काल तैयार हुई और वन्दना करने के लिए चली आई। उसने जब नग्न निर्ग्रन्थों को देखा तो वह सहसा सिहर उठी। उसके मुंह से कुछ शब्द निकल ही पड़े- क्या अर्हत् ऐसे ही होते हैं ? मेरे श्वसुर ने इन लज्जाहीन श्रमणों के पास मुझे क्यों बुलाया ? धिक्, धिक् ।" वह उसी क्षण अपने महल में लौट आई।
__ नग्न श्रमण विशाखा के उस व्यवहार से बहुत खिन्न हुए। उन्होंने मृगार श्रेष्ठी को कड़ा उल्हाना देते हुए कहा-“श्रेष्ठिन् ! क्या तुझे दूसरी कन्या नहीं मिली ? श्रमण गौतम की इस महाकुलक्षणा श्राविका को अपने घर क्यों लाया? यह तो जलती हुई गाडर है। शीघ्र ही इसे घर से निकालो।"
मृगार श्रेष्ठी असमंजस में पड़ गया। उसने सोचा, विशाखा महाकुल कन्या है । इनके कथन-मात्र से इसे निकाला नहीं जा सकता। न निकालने पर श्रमणों का कोप भी उससे अपरिचित नहीं था। उसने अत्यधिक विनम्रता के साथ उनसे क्षमा माँगी और उन्हें ससम्मान विदा किया।
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