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________________ इतिहास और परम्परा] त्रिपिटकों में निगण्ठ व निगण्ठ नातपुत्त 4०७ हुए निकल पड़े-'तू इस धर्म-विनय को नहीं जानता, में इस धर्म-विनय को जानता हूँ।' 'तू इस धर्म-विनय को क्या जानेगा ?' 'तू मिथ्यारूढ़ है, मैं सम्यग प्रतिपन्न हूँ।' 'मेरा कथन सार्थक है, तेरा निरर्थक है।' 'तू ने पूर्व कथनीय बात को पीछे कहा और पश्चात् कथनीय बात को पहले कहा।' 'अविचीर्ण को तू ने उलट दिया।' तेरा वाद निग्रह में आ गया।' 'बाद छुड़ाने के लिए यत्न कर।' 'यदि सामर्थ्य है तो इसे खोज ले।' इस प्रकार पूरण कस्सप श्रावकों द्वारा न सत्कृत हैं, न गुरुकृत है, न पूजित हैं, न मानित हैं बल्कि परिषद् के द्वारा वे तो धिक्कृत हैं। "किसी ने वहाँ उपरोक्त प्रकार से मक्खलि गोशाल की चर्चा की तो किसी ने अजित केसकम्बली की और किसी ने पकुध कच्चायन, संजय वेलठ्ठिपुत्त व निगंठ नागपुत्त की चर्चा की। सभी आचार्यों को उन्होंने असत्कृत, अगुरुकृत- अपूजित और अमानित ही ठहराया। "एक अन्य व्यक्ति ने कहा-'श्रमण गौतम संघी, गणी, गणाचार्य, प्रसिद्ध, यशस्वी, बहुजन-सम्मानित व तीर्थङ्कर हैं। वे श्रावकों द्वारा सत्कृत, गुरुकृत, मानित और पूजित हैं तथा उन्हें गौरव प्रदान कर, उनका आलम्बन ले विचरते हैं। एक समय की घटना है कि श्रमण गौतम सहस्रों की सभा को धर्मोपदेश कर रहे थे। श्रमण गौतम के एक शिष्य ने वहाँ खाँसा। दूसरे सब्रह्मचारी ने उसका पैर दबाते हुए कहा-'आयुष्मन् ! चुप रहें, शब्द न करें। शास्ता हमें धर्मोपदेश कर रहे हैं।' जिस समय श्रमण गौतम सहस्रों की परिषद् को धर्मोपदेश करते हैं, उस समय श्रावकों के थूकने व खाँसने का भी शब्द नहीं होता। जनता उनकी प्रशंसा करती है और प्रत्युत्थान करती हुई कहती है—'भगवान् हमें जो धर्मोपदेश करेंगे, उसे सुनेंगे।' श्रमण गौतम के जो श्रावक सब्रह्मचारियों के साथ विवाद कर, भिक्षु-नियमों को छोड़ गृहस्थआश्रम को लौट आते हैं ; वे भी शास्ता के प्रशंसक होते हैं, धर्म के प्रशंसक होते हैं, संघ के प्रशंसक होते हैं। वे दूसरों की नहीं, अपनी ही निन्दा करते हुए कहते है-'हम भाग्यहीन हैं, जो ऐसे स्वाख्यात धर्म में प्रवजित हो, परिपूर्ण व परिशुद्ध ब्रह्मचर्य का जीवन-पर्यन्त पालन नहीं कर सके।' इसके अतिरिक्त आराम-सेवक हो या गृहस्थ (उपासक) हो, पाँच शिक्षापदों को ग्रहण कर विचरते हैं। इस प्रकार श्रमण गौतम श्रावकों द्वारा सत्कृत, गुरुकृत, मानित और पूजित हैं और श्रावक उन्हें गौरव प्रदान कर, उनका आलम्बन ले विचरते हैं।" -मझिम निकाय, महासकुलदायि सुत्तन्त, २-३-७ के आधार से । समीक्षा इस उदन्त में उल्लेखनीय अभिव्यक्ति यही है कि सातों धर्म-नायकों का एक साथ राजगृह में वर्षावास बताया गया। २७ निगण्ठ उपोसथ एक बार भगवान् बुद्ध श्रावस्ती में विशाखा मृगार-माता के पूर्वाराम-प्रासाद में विहार कर रहे थे। विशाखा मृगार-माता उपोसथ के दिन भगवान् के पास आई। अभिवादन कर एक ओर बैठ गई। विशाखा से भगवान् ने पूछा- "दिन चढ़ते ही आज कैसे आई ?" Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002621
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1987
Total Pages744
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & History
File Size15 MB
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