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४०६ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन
[खण्ड : १ २६. राजगृह में सातों धर्म-नायक
एक बार भगवान् बुद्ध राजगृह में वेलुवन कलन्दक निवाप में विहार कर रहे थे। उस समय अनुगार-वरचर और सकुल-उदायी आदि बहुत सारे प्रसिद्ध परिव्राजक मोरनिवाप परिव्राजकाराम में वास करते थे। पूर्वाह्न समय भगवान् पहिनने का वस्त्र पहिन कर, पात्र-चीवर ले राजगृह में पिण्डचार के लिए प्रविष्ट हुए। उन्हें अनुभव हुआ, पिण्डचार के लिए अभी बहुत सबेरा है। वे वहाँ से सकुल-उदायी से मिलने के अभिप्राय से मोर-निवाफ परिव्राजकाराम की ओर आगे बढ़े। सकुल-उदायी उस समय राज-कथा, चोर-कथा, माहात्म्य-कथा, सेना-कथा, भय-कथा, युद्ध-कथा, अन्न-कथा, पान-कथा, वस्त्र-कथा, आदि कथाओं व निरर्थक कथाओं के माध्यम से कोलाहल करने वाली बड़ी परिषद् से घिरा बैठा था। सकुल-उदायी ने दूर ही से गौतम बुद्ध को अपनी ओर आते हुए देखा। परिषद् को सावधान करते हुए कहा-"आप सब चुप हो जायें। शब्द न हो। श्रमण गौतम आ रहे हैं। ये आयुष्मान् निःशब्द-प्रेमी व अल्प शब्द-प्रशंसक हैं । परिषद् को शान्त देख कर सम्भवतः इधर भी आयें।"
सभी परिव्राजक शान्त हो गये । भगवान् सकुल-उदायी के पास गए। सकुल-उदायी ने भगवान् का स्वागत करते हुए कहा-"आइए भन्ते ! स्वागत भन्ते ! बहुत समय बाद आप यहाँ आये। बैठिये, यह आसन बिछा है।"
भगवान् बुद्ध बिछे आसन पर बैठे। सकुल-उदायी एक नीचा आसन लेकर एक ओर बैठ गया। वार्ता का आरम्भ करते हुए भगवान् ने कहा-"उदायी ! किस कथा में संलग्न थे ? क्या वह कथा अधूरी ही रह गई है ?"
सकुल-उदायी ने उस प्रसंग को बीच ही में काटते हुए कहा-"भन्ते ! इन कथाओं को आप यहीं छोड़ दें। आपके लिए इन कथाओं का श्रवण अन्यत्र भी दुर्लभ नहीं होगा। विगत दिनों की ही घटना है। कुतूहलशाला में एकत्रित नाना तीर्थों के श्रमण-ब्राह्मणों के बीच यह कथा चली-आज कल अङ्ग-मागधों का अच्छा लाभ मिल रहा है। क्योंकि यहाँ राजगह में संघपति, गणी, गणाचार्य, प्रसिद्ध, यशस्वी, बहुजन-सम्मानित और तीर्थङ्कर वर्षावास के लिए आये हैं । पूरणकस्सप, मक्खलि गोशाल, अजित केसकम्बली, पकुध कच्चायन, संजयवेलट्ठिीपुत्त और निगंठ नातपुत्त उनमें प्रमुख हैं। श्रमण गौतम भी वर्षावास के लिए यहाँ आये हुए हैं। इन सब श्रमण-ब्राह्मणों में श्रावकों (शिष्यों) द्वारा कौन अधिक सत्कृत व पूजित है ? श्रावक किसे अधिक सत्कार, गौरव, मान व पूजा प्रदान करते हैं ?
“उपस्थित सभी व्यक्तियों में मुक्त चर्चा होने लगी। किसी ने कहा- 'पूरण कस्सप संघी, गणी, गणाचार्य, प्रसिद्ध, यशस्वी, बहुजन-सम्मत व तीर्थकर कहे जाते हैं, किन्तु, वे न तो श्रावकों द्वारा सत्कृत हैं और न पूजित ही। इन्हें श्रावक सत्कार, गौरव, मान व पूजा प्रदान नहीं करते। एक बार की घटना है। पूरण कस्सप सहस्रों की सभा को धर्मोपदेश कर रहे थे। उनके एक श्रावक ने जोर से वहाँ कहा- 'आप लोग ये बात पूरण कस्सप से न पूछे। ये इसे नहीं जानते । इसे हम जानते हैं। यह बात हमें पूछे। हम आप लोगों को बतायेंगे।" पूरण कस्सप उस समय बाँह पकड़ कर चिल्लाते थे-'आप सब चुप रहें, शब्द न करें। ये लोग आप सब से नहीं पूछ रहे हैं। हमारे से पूछते हैं। इन्हें हम ही बतलायेंगे।' किन्तु, वे उस परिषद् को शान्त न कर सके। पूरण कस्सप के बहुत सारे श्रावक वहाँ से विवाद करते
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