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इतिहास और परम्परा] त्रिपिटकों में निगण्ठ व निगण्ठ नातपुत्त
४०५ को गौतम का परिनिर्वाण होगा। मेरे मन में कुछ संशय है। मैं श्रमण गौतम के प्रति श्रद्धाशील हैं । वे मुझे ऐसा धर्मोपदेश कर सकते हैं, जिससे मेरे संशयों का निवारण हो जाएगा। - सभद्र परिव्राजक मल्लों के शाल-वन उपवत्तन में आया। आयुष्मान् आनन्द के समीप पहुँचा। श्रमण गौतम के दर्शन करने के अपने अभिप्राय से उन्हें सूचित किया। आयुष्मान् आनन्द ने उससे कहा- "आवुस ! सुभद्र ! तथागत को कष्ट न दो । भगवान् थके हुए हैं।" सुभद्र ने अपनी बात को दो-तीन बार दुहराया। भगवान् ने उस कथा-संलाप को सुन लिया । आनन्द से उन्होंने कहा--'सुभद्र को मत रोको। सुभद्र को तथागत के दर्शन पाने दो। यह जो कुछ भी पूछेगा, वह परम ज्ञान की इच्छा से ही पूछेगा; कष्ट देने के अभिप्राय से नहीं प्रश्न के उत्तर में इसे जो कुछ भी बताऊँगा, वह शीघ्र ही ग्रहण कर लेगा।"
आनन्द से अनुज्ञा पा कर सुभद्र तथागत के पास आया। उन्हें संमोदन कर एक ओर बैठ गया। वार्तालाप का आरम्भ करते हुए बोला- “गौतम ! जो श्रमण-ब्राह्मण संघी, गणी गणाचार्य, प्रसिद्ध, यशस्वी, तीर्थकर, बहुत लोगों द्वारा उत्तम माने जाने वाले हैं ; जैसे कि पूरण कस्सप, मक्खलि गोशाल, अजित केसकम्बली, पकुध कच्चायन, संजय वेलट्टिपुत्त, निगण्ठ नातपुत्त ; क्या वे सभी अपने पक्ष को तद्वत् ही जानते हैं या तद्वत् नहीं जानते हैं, या कोई-कोई तद्वत् जानते हैं या कोई-कोई तद्वत् नहीं जानते हैं ?"
बुद्ध ने उस प्रश्न को बीच ही में काटते हुए कहा-“उन सभी पक्षों को तू जाने दे। मैं तुझे धर्मोपदेश करता हूँ। उसे तू अच्छी तरह सुन और उस पर मनन कर।"
सुभद्र तन्मय हो कर बैठ गया। बुद्ध ने कहा-"सुभद्र ! जिस धर्म-विनय में अष्टांगिक मार्ग उपलब्ध नहीं होता, उसमें प्रथम श्रमण (स्रोत आपन्न), द्वितीय श्रमण (सकृदागामी), तृतीय श्रमण (अनागामी), चतुर्थ श्रमण (अर्हत्) भी उपलब्ध नहीं होता। सभद्र ! इस धर्मविनय में ऐसा होता है ; अतः यहाँ चारों प्रकार के श्रमण हैं। दूसरे मत श्रमणों से दूर हैं। यदि यहाँ भिक्षु ठीक से विहार कर, तो लोक अर्हतों से शून्य न हो। .
"सभद्र ! उनतीस वर्ष की अवस्था में कुशल का गवेषक होकर मैं प्रव्रजित हा था। अब मुझे इसमें इक्यावन वर्ष हो चुके हैं। न्याय-धर्म के एक देश को देखने वाला भी यहाँ से बाहर नहीं है।"
आश्चर्याभिभूत होकर सुभद्र परिव्राजक ने कहा- "आश्चर्य भन्ते ! आश्चर्य भन्ते ! मैं भगवान् की शरण जाता हूँ, धर्म और भिक्षु-संघ की भी शरण जाता हूँ। मुझे भगवान से प्रव्रज्या मिले, उपसम्पदा मिले।"
-दीघ निकाय, महापरिनिव्वाण सुत्त, २-३ के आधार से।
समीक्षा यहाँ बुद्ध की अन्तिम अवस्था तक महावीर के वर्तमान होने की बात मिलती है, पर, यह यथार्थ नहीं है।'
१. विशेष समीक्षा के लिए देखें, 'काल-निर्णय' प्रकरण के अन्तर्गत पृ० ७०-१।
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