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________________ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड : बुद्ध ने उत्तर दिया- "सभिय ! कोई अन्य तीथिक इस धर्म-विनय में प्रव्रज्या और उपसम्पदा की आकांक्षा करता है, तो उसके लिए सामान्य नियम यह है कि उसे पहले चातुर्मासिक परिवास करना होता है। परिवास में सफल होने पर भिक्षु-जन प्रव्रज्या और उपसम्पदा प्रदान करते हैं। कुछेक व्यक्तियों के लिए इसमें अपवाद भी किया जा सकता है।" सभिय ने विनम्रता से उत्तर दिया-"भन्ते ! मैं इसके लिए भी प्रस्तुत हूँ। भिक्षु मुझे प्रवजित करें, उपसम्पदा प्रदान करें।" सभिय परिव्राजक ने भगवान् के पास प्रव्रज्या व उपसम्पदा प्राप्त की। कुछ समय पश्चात् सभि य एकान्त में अप्रमत्त, उद्योगी तथा तत्पर हो, जिस प्रयोजन के लिए कुलपुत्र सम्यक् प्रकार से घर से बेघर हो विहार करता है, उस अनुत्तर ब्रह्मचर्य के अन्त को इसी जीवन में स्वयं जानकर और साक्षात्कार कर विहार करने लगे। उन्होंने जान लिया-"जन्म क्षीण हुआ, ब्रह्मचर्य पूर्ण हुआ, कृतकृत्य हो गया और पुनर्जन्म समाप्त हो गया।" आयुष्मान् सभि य अर्हतों में से एक हुए। -सुत्त निपात, महावग्ग, सभिय सुत्त के आधार से। समीक्षा उक्त प्रसंग महावीर की ज्येष्ठता का अनन्य प्रमाण है। यहां बुद्ध की अपेक्षा सभी धर्म-नायकों को जिण्ण, बुड्ढा, महल्लका, अद्धगता, वयो अनुपत्ता, थेरा, रत्त, चिर पम्वजिता अर्थात् जीर्ण, वृद्ध, वयस्क, चिरजीवी, अवस्था-प्राप्त, स्थविर, अनुभवी, चिरप्रव्रजित कहा गया है। यह समुल्लेख सुत्त निपात का है, इस दृष्टि से भी अधिक प्राचीन और अधिक प्रामाणिक है।२ सभिय परिव्राजक के विषय में थेरगाथा-अट्ठकथा आदि ग्रन्थ विस्तृत ब्यौरा देते हैं। एक सुभट-कन्या अपने अभिभावकों के आदेश से किसी एक परिव्राजक के पास शास्त्रादि का अध्ययन करती थी। उसी संसर्ग में उसके गर्भाधान हुआ। वह घर से निकाली गई। चौराहों पर फिरते उसने एक शिशु को जन्म दिया। सभा अर्थात् लोक-समूह के बीच जन्म होने के कारण उस बालक का नाम सभिय पड़ा और वह बड़ा होकर परिव्राजक बना। इन्हीं अट्ठकथाओं में इसके पूर्वजन्म-सम्बन्धी विस्तृत चर्चा भी है। 25. सुभद्र परिव्राजक __ कुसिनारा में सुभद्र परिव्राजक रहता था। उसने सुना, आज रात के अन्तिम प्रहर में श्रमण गौतम का परिनिर्वाण होगा। उसने सोचा, मैंने वृद्ध आचार्य-प्राचार्य परिव्राजकों से यह सुना है कि तथागत सम्यक् सम्बुद्ध कभी-कभी ही उत्पन्न हुआ करते हैं। आज रात १. विशेष समीक्षा के लिए देखें, 'काल निर्णय' प्रकरण के अन्तर्गत पृ० ८६ । २. Fausbolls. B.E., vol.X. part II introduction. ३. थेरगाथा अट्ठकथा, १,३८१; सुत्त निपात अट्ठकथा, २,४१६ । ____Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002621
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1987
Total Pages744
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & History
File Size15 MB
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