________________
४०८
आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन
"भन्ते ! आज मैंने उपोसथ (व्रत) रखा है।" “विशाखे ! उपोसथ तीन प्रकार का होता है :
( १ ) गोपाल - उपोसथ, (२) निर्ग्रन्थ-उपोसथ तथा (३) आर्य - उपोसथ ।"
“भन्ते ! गोपाल- उपोसथ किसे कहते हैं ?"
[खण्ड : १
"विशाखे ! कोई ग्वाला सन्ध्या होने पर गौओं को अपने-अपने स्वामियों को सौंपने के बाद सोचता है, इन गौओं ने आज अमुक-अमुक स्थान पर चराई की और अमुक-अमुक्क स्थान पर पानी पीया । ये गौएं कल अमुक-अमुक स्थान पर चरेंगी तथा अमुक-अमुक स्थान पर पानी पीयेंगी । इसी प्रकार उपोसथ त्रती सोचता है - आज मैंने अमुक पदार्थ खाया है और कल अमुक पदार्थ खाऊँगा । वह अपना सारा दिन लोभ-युक्त चित्त से व्यतीत कर देता है । यह गोपाल - उपोसथ होता है। इसका न महान् फल होता है, न महान् परिणाम होता है, न महान् प्रकाश होता है और न महान् विस्तार होता है।"
"भन्ते ! निर्ग्रन्थ- उपोसथ किसे कहते हैं ?"
"विशाखे ! निर्ग्रन्थ नामक श्रमणों की एक जाति है । वे अपने अनुयायिओं को व्रत दिलाते हैं - हे पुरुष ! तू यहाँ है । पूर्व दिशा में सौ योजन तक जितने प्राणी हैं, उन्हें तू दण्ड- मुक्त कर । इसी प्रकार पश्चिम दिशा, उत्तर दिशा और दक्षिण दिशा में सौ-सौ योजन तक जितने भी प्राणी हैं उन्हें भी तू दण्ड- मुक्त कर । इस प्रकार कुछ प्राणियों के प्रति दया व्यक्त करते हैं और कुछ प्राणियों के प्रति दया व्यक्त नहीं करते हैं । उपोसथ के दिन वे अपने श्रावकों को व्रत दिलाते हैं- पुरुष ! तू इधर आ । सभी वस्त्रों का परित्याग कर तू व्रत ग्रहण कर — न मैं कहीं, किसी का, कुछ हूँ और न मेरा कहीं कोई, कुछ है । किन्तु उसके माता-पिता जानते हैं, यह मेरा पुत्र है और पुत्र मी जानता है, ये मेरे माता-पिता हैं । पुत्र- स्त्री आदि उसके पारिवारिक भी जानते हैं, यह हमारा स्वामी है और वह भी जानता है, पुत्र स्त्री आदि ये मेरे पारिवारिक हैं। उसके दास, नौकर, कर्मकर भी जानते हैं, यह हमारा स्वामी है और वह भी जानता है, ये मेरे दास, नौकर, कर्मकर आदि हैं । जिस समय वे व्रत लेते हैं, झूठ का अवलम्बन लेते हैं । मैं कहता हूँ, इस प्रकार वे मृषा वादी हैं । रात्रि व्यतीत हो जाने पर वे उन व्यक्त वस्तुओं को बिना किसी के दिये ही उपभोग में लाते हैं । इस प्रकार वे चोरी करने वाले भी होते हैं । यही निर्ग्रन्थ-उपोसथ होता है । इस प्रकार के उपोसथ व्रत का न महान् फल होता है, न महान् परिणाम होता है, न महान प्रकाश होता है तथा न महान् विस्तार होता है ।"
1
भन्ते ! आर्य-उपोसथ किसे कहते हैं ?"
Jain Education International 2010_05
“विशाखे ! आर्य-श्रावक चित्त की निर्मलता के लिए तथागत का अनुस्मरण करता है - भगवान् अर्हत् हैं, सम्यक् सम्बुद्ध हैं, विद्या-आचरण से युक्त हैं, सुगत हैं, लोक के ज्ञाता हैं, सर्वश्रेष्ठ हैं, कुमार्गगामी पुरुषों का दमन करने वाले उत्तम सारथी हैं, तथा देवताओं और मनुष्यों के शास्ता हैं । वे भगवान् बुद्ध हैं । इस प्रकार आर्य श्रावक ब्रह्म-उपोसथ व्रत रखता है और ब्रह्म के साथ रहता है । ब्रह्म के सम्बन्ध से उसका चित्त प्रसन्न होता है, मोद बढ़ता है और चित्त के मैल का प्रहाण होता है ।
“आर्य-श्रावक धर्म का अनुस्मरण करता है - यह धर्म भगवान् द्वारा सुप्रवेदित है, यह धर्म इहलोक-सम्बन्धी है, इस धर्म का पालन सभी देशों तथा सभी कालों में किया जा सकता है । यह धर्म निर्वाण तक ले जाने में समर्थ है तथा प्रत्येक बुद्धिमान् इस धर्म का
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org