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इतिहास और परम्परा] त्रिपिटकों में निगण्ठ व निगण्ठ नातपुत्त
४०१ साक्षात् कर सकता है। इस प्रकार आर्य-श्रावक धर्म-उपोसथ-व्रत रखता है और धर्म के साथ रहता है। धर्म के सम्बन्ध से उसका चित्त प्रसन्न होता है, मोद बढ़ता है और चित्त के मल का.प्रहाण होता है।
"आर्य-श्रावक संघ का अनुस्मरण करता है-भगवान् का श्रावक-संघ सुन्दर, सरल, न्याय व समीचीन मार्ग पर चलने वाला है। इस संघ में आठ प्रकार के सत्पुरुषों का समावेश होता है । यह संघ आदरणीय है, आतिथ्य के योग्य है, दान-दक्षिणा के योग्य है और करवद्ध नमस्कार के योग्य है। यह लोगों के लिए सर्वश्रेष्ठ पुण्य क्षेत्र है। इस प्रकार संघ का अनुस्मरण करने वाले का चित्त प्रसन्न होता है, मोद बढ़ता है और चित्त के मल का प्रहाण होता है।
"आर्य-श्रावक अपने शील का स्मरण करता है-यह अखण्डित, अछिद्र, मालिन्यरहित, पवित्र, शुद्ध, विज्ञपुरुषों द्वारा प्रशंमित, अकलंकित व समाधि की ओर ले जाने वाला है। इस प्रकार सील के अनुस्मरण से चित्त प्रसन्न होता है, मोद बढ़ता है और चित्त के मैल का प्रहाण होता है।
कार्य-श्रावक चातुर्महासज़िक, त्रयस्त्रिश, याम, तुषित्, निर्माण-रति, परनिर्मितसमवर्ती, बझकायिक देवता और इससे आगे के देवताओं का अनुस्मरण करता है जिस प्रकार की श्रद्धा, शील, श्रुत (मान), त्याग और प्रजा से युक्त वे देवता यहाँ से मर कर वहां उत्पन्न हुए हैं, मेरे में भी उसी प्रकार की श्रद्धा, शील, श्रुत, त्याय और अजय है। उन देवताओं की श्रद्धा, शील, श्रुत, त्याग और प्रज्ञा का अनुस्मरण करने वाले का चित्त प्रसन्न होता है, मोद बढ़ता है और चित्त के मैल का प्रहाण होता है।
''उपोसाथ के दिन वह आर्य-श्रावक चिन्तन करता है
१. अर्हत जीवन-पर्यन्त प्राण-वियोजन से विरत हो, दण्ड-त्यागी, शस्त्र-व्यापी, पर भीर, दयावान होकर सभी प्राणियों का हित और उन पर अनुकम्पा करते हुए विचरते है। मैं भी आज बहोरात्र तक प्राण-वियोजन से विरत हो, दण्ड-त्यागी, शस्त्र-त्यागी, पापश्रीज व दयावान् होकर सभी प्राणियों का हित और उन पर अनुकम्पा करते हुए विहार करूं। इस अंश में भी मैं बहतों का अनुकरण करूँगा तथा मेरा उपोसथ (व्रत) पूर्ण होगा।
२. 'अर्हत् जीवन-पर्यन्त अदत्त से विरत रह, केवल दत्त के ही ग्राहक, दत्त.के ही आकांक्षी होकर पवित्र जीवन व्यतीत करते हैं। मैं भी आज अहोरात्र तक अदत्त से विरत जो केवल दत्त का ही ग्राहक, दत्त का ही आकांक्षी होकर पवित्र जीवन बिताऊँ। इस अंश में श्री में अर्हतों का अनुकरण करूँगा तथा मेरा उपोसथ पूर्ण होगा।
३. अर्हत् जीवन-पर्यन्त अब्रह्मचर्य का त्याग कर, ब्रह्मचारी, अनाचार-रहित, मैथुन साबधर्म से विरत रहते हैं। मैं भी आज अहोरात्र तक अब्रह्मचर्य का त्याग कर, ब्रह्मचारी, समाचार-रहित, मैथुन ग्राम्य-धर्म से विरत हो कर रहँ। इस अंश में भी मैं अहंतों का अनकरण करूँगा तथा मेरा उपोसथ पूर्ण होगा।
४. अर्हत जीवन-पर्यन्त मषावाद का त्याग कर, सत्यवादी, विश्वसनीय, स्थिर, निर्भर तथा लोक में असत्य न बोलने वाले होकर रहते हैं। मैं भी आज अहोरात्र तक मषावाद का त्याग कर, सत्यवादी, विश्वसनीय, स्थिर, निर्भर तथा लोक में असत्य न बोलने वाला हो कर रहूँ। इस अंश में भी मैं महंतों का अनुकरण करूँगा तथा मेरा उपोसय म होगा।
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