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आगम और त्रिपिटक:
[खण्ड : १ ५. अर्हत् जीवन-पर्यन्त सुरा आदि प्रमाद-कारक वस्तुओं का परित्याग कर उनसे विरत होकर रहते हैं। मैं भी आज अहोरात्र तक सुरा आदि प्रमाद-कारक वस्तुओं से विरत हो कर रहूँ। इस अंश में भी मैं अर्हतों का अनुकरण करूँगा तथा मेरा उपोसथ पूर्ण होगा। .....६. अर्हत् जीवन-पर्यन्त एकाहारी, रात्रि-भोजन-त्यागी, विकाल भोजन से विरत हो कर रहते हैं। मैं भी आज का अहोरात्र एकाहारी, रात्रि-भोजन-त्यागी, विकाल भोगन से विरत होकर बिताऊँ। इस अंश में भी मैं अर्हतों का अनुकरण करूँगा तथा मेरा उपोसथ पूर्ण होगा।
७. अर्हत् जीवन-पर्यन्त नृत्य संगीत, वाद्य, मनोरंजक दृश्य देखने, माला, गन्ध, विलेपन, शृङ्गारिक परिधान आदि से विरत रहते हैं। मैं भी आज का अहोरात्र नृत्य, संगीत, वाद्य, मनोरंजक दृश्य देखने, माला, गन्ध, शृङ्गारिक परिधान आदि से विरत हो कर बिताऊँ। इस अंश में भी मैं अर्हतों का अनुसरण कर पाऊँगा तथा मेरा उपोसथ पूर्ण
होगा।
८. अर्हत् जीवन-पर्यन्त ऊँची व महान् शय्या का त्याग कर, उससे विरत होकर चारपाई या चटाई का नीचा आसन ही काम में लेते हैं। मैं भी आज अहोरात्र ऊँची व महान् शय्या का त्याग कर, उससे विरत हो, चटाई या नीचा आसन ही काम में लूं। इस अंश में मैं अर्हतों का अनुसरण कर पाऊँगा तथा मेरा उपोसथ पूर्ण होगा।
"विशाखे! उपरोक्त विधि से रखे गये उपोसथ का महान् फल होता है, महान परिणाम होता है, महान् प्रकाश होता है तथा महान् विस्तार होता है।"
"भन्ते ! उस उपोसथ से कितना महान् फल, कितना महान् परिणाम, कितना महान् प्रकाश तथा कितना महान् विस्तार होता है ?"
"विशाखे ! महान् सप्त रत्न-बहुल अंग, मगध, काशी, कोशल, वज्जी, मल्ल, चेदी, बंग, कुरु, पंचाल, मत्स्य, शौरसेन, अश्मक, अवन्ती, गन्धार तथा कम्बोज आदि महाजनपदों का ऐश्वर्य भी अष्टांग उपोसथ-व्रत के सोलहवें अंश के बराबर भी नहीं होता; क्योंकि दिव्य सुख के समक्ष मानुषी राज्य का कोई मूल्य नहीं है। अष्टांगिक उपोसथ का पालन करने वाले स्त्री या पुरुष शरीर छूटने के अनन्तर चातुर्महाराजिक, त्रयस्त्रिश, याम, तुषित्, निर्माण-रति, परनिर्मित-वशवी देवताओं का सहवासी हो जाये।
... चन्द्रमा और सूर्य दोनों सुदर्शन हैं । जहाँ तक सम्भव होता है, वे प्रकाश फेंकते हैं और अन्धकार का नाश करते हैं । वे अन्तरिक्ष-गामी हैं ; अतः आकाश की सभी दिशाओं को आलोकित करते हैं। जहाँ जो कुछ भी मुक्ता, मणि, वैडूर्य, जात रूप व हाटक कहलाने वाला स्वर्ण, चन्द्रमा का प्रकाश तथा सभी तारागण उपोसथ के सोलहवें अंश के सदृश भी नहीं होते। सदाचारी नर-नारी उपोसथ का पालन कर, सुख-दायक पुण्य-कर्म कर, आनन्दित रह स्वर्ग स्थान को प्राप्त होते हैं।"
-अंगुत्तर निकाय, तिकनिपात, ७० के आधार से ।
समीक्षा जैन-श्रावक के बारह व्रतों में ग्यारहवाँ "पौषध व्रत" है। प्रस्तुत प्रकरण में उसका Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only
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