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इतिहास और परम्परा]
त्रिपिटकों में निगण्ठ व निगण्ठ नातपुत्त
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विकृत ही चित्रण हुआ है और विकृत ही समीक्षा हुई है। पूर्व-पश्चिम आदि दिशाओं में १०० योजन उपरान्त पाप न करना, 'छ? दिग्वि रति व्रत' का सूचक है। इसमें कुछ की हिंसा और कछ की दया का दोष बताना अयथार्थ है। यथाशक्य विरमण का अर्थ कुछ जीवों की हिंसा व कुछ जीवों की दया नहीं होता।
पौषध-व्रत में असत्य और चौर्य का दोष भी बताया गया, पर, यह वाग् विरोध मात्र है। यथार्थ में पौषध का अभिप्राय है - एक अहोरात्र के लिए निर्ग्रन्थ-जीवन जीना। उसमें भी इतना विशेष कि वह अहोरात्र श्रावक निर्जल और निराहार बिताये । बुद्ध ने स्वयं जिस तीसरी कोटि के उपोसय का प्ररूपण किया है, उसकी भावना में और निर्ग्रन्थ-उपोसथ की भावना में मुख्यतः कोई अन्तर प्रतीत नहीं होता। उन्होंने आर्य-उपोसथ में एकाहारी रहने की बात कही है और निग्रन्थ-उपोसथ में निराहारी रहने की बात है। बुद्ध ने भी तो उपोसथ
ना यही मानी है कि उपासक एक अहोरात्र के लिए अर्हत-जीवन जीएँ। उसमें हिंसा असत्य, अदत्त आदि के अहोरात्रिक त्याग बतलाये हैं। यदि जैन-उपोसथ में हिंसा, असत्य, अदत्त आदि के दोष आयेंगे तो फिर बौद्ध-उपोसथ में क्यों नहीं आयेंगे? बौद्ध-उपासक भी तो अहोरात्र के पश्चात् माता को माता और पिता को पिता मानता है तथा अपने धन आदि का उपभोग-परिभोग आदि करता है ; जबकि अहोरात्र के लिए अर्हत्-जीवन जीते समय उस सब व्यवहार का वर्जन हो गया था।
लगता है, उस युग की यह भी एक मुख्य चर्चा रही है। जैन-आगम भगवती-सूत्र' के अनुसार आजीवकों ने निगण्ठ स्थविरों को ऐसे ही अनेक प्रश्न पूछे। गौतम ने उन्हीं प्रश्नों को महावीर के सम्मुख प्रस्तुत किया। महावीर ने सविस्तार उन प्रश्नों का उत्तर दिया। वे प्रश्नोत्तर इस प्रकार है :
"भन्ते ! उपाश्रय में कोई श्रावक सामायिक-व्रत लेकर बैठा हो। कोई अन्य पुरुष उसके भण्डोपकरण ले जाए । सामायिक पूर्ण कर वह श्रावक अपने भण्डोपकरणों की खोज करता है या दूसरों के भण्डोपकरणों की ?"
___ "गौतम ! वह अपने भण्डोपकरणों की गवेषणा करता है, अन्य के भण्डोपकरणों की नहीं।"
"भन्ते ! शीलवत, गुणवत, विरमणव्रत, प्रत्याख्यान और पौषधोपवास में क्या श्रावक के भण्ड अभण्ड नहीं होते हैं ?"
"गौतम! वे अभण्ड होते हैं।" "भन्ते ! ऐसा फिर किसलिए कहा गया कि वह अपने भण्ड की गवेषणा करता
"गौतम ! सामायिक करने वाले श्रावक के मन में आता है, 'यह हिरण्य मेरा नहीं है, यह स्वर्ण मेरा नहीं है। इसी प्रकार यह कांस्य, वस्त्र, धन, कनक, रत्न, मणि, मुक्ता, शंख, शील, प्रबाल, विद्रुम, स्फटिक आदि द्रव्य मेरे नहीं हैं।' सामायिक-व्रत पूर्ण होने पर ममत्व भाव के कारण वह अपरिज्ञात बनता है। इसलिए हे गौतम ! यह कहा गया कि वह अपने भण्ड की गवेषणा करता है, पर-भण्ड की नहीं।"
१. ८।५।६७७ ।
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