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परिनिर्वाण
४. "आनन्द ! मेरे पश्चात् छन्न नामक भिक्ष ु को ब्रह्म-दण्ड करना चाहिए।"
तब भगवान् ने उपस्थित भिक्षुओं से कहा - "बुद्ध, धर्म और संघ में किसी को आशंका हो, तो पूछ ले। नहीं तो फिर अनुताप होगा कि मैं पूछ न सका ।" भगवान् के एक दो बार और तीन बार कहने पर भी सभी भिक्षु चुप रहे ।
बार,
आनन्द ने कहा- "भगवन् ! इन पांच सौ भिक्षुओं में कोई सन्देहशील नहीं है । सब बुद्ध, धर्म और संघ में आश्वस्त हैं ।'
भगवान् ने कहा- “हन्त ! भिक्षुओ ! अब तुम्हें कहता हूँ । संस्कार (कृत वस्तु ) व्ययधर्मा हैं । अप्रमाद से जीवन के लक्ष्य का संपादन करो। यह सथागत का अन्तिम वचन है ।'
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निर्वाण-गमन
इतिहास और परम्परा ]
भगवान् तब प्रथम ध्यान को प्राप्त हुए । प्रथम ध्यान से उठ कर द्वितीय ध्यान को प्राप्त हुए। इसी प्रकार क्रमश: तृतीय व चतुर्थ ध्यान को । तब भगवान् आकाशान्त्याय तन को प्राप्त हुए, तदनन्तर विज्ञानान्त्यायतन को, आकिंचन्यायातन को, नैवसंज्ञानासंज्ञायतन को, संज्ञा वेदयित-निरोध को प्राप्त हुए । आयुष्यमान् आनन्द ने आयुष्यमान् अनुरुद्ध से कहा—“क्या भगवान् परिनिर्वृत्त हो गये ?" अनुरुद्ध ने कहा - "नहीं, आनन्द ! भगवान् संज्ञा वेदयित-निरोध को प्राप्त हुए हैं।" तब भगवान् संज्ञावेदयित-निरोध- समापत्ति (चारों ध्यानों के ऊपर की समाधि) से उठ कर नैवसंज्ञानासंज्ञायतन नासंक्षाय को प्राप्त हुए । तब क्रमश: प्रतिलोम से पुनः सब श्रेणियों को पार कर प्रथम ध्यान को प्राप्त हुए । तदनन्तर क्रमश: चतुर्थ ध्यान में आये और उसे पार कर भगवान् परिनिर्वाण को प्राप्त हुए। उस समय भयंकर भूचाल आया, देवदुन्दुभियाँ बज्रीं ।
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निर्वाण के अनन्तर सहम्पति ब्रह्मा ने, देवेन्द्र शक्र ने, आयुष्मान् अनुरुद्ध तथा ने आयुष्मान् आनन्द ने स्तुति - गाथाएं कहीं ।
अवीतराग भिक्षु उस समय क्रन्दन करने लगे, रोने लगे, कटे वृक्ष की तरह भूमि पर गिरने लगे । अनुरुद्ध ने उनका मोह-निवारण किया ।
आयुष्मान् आनन्द कुशीनारा में गए । संस्थागार में एकत्रित मल्लों को उन्होंने कहा - "भगवान् परिनिर्वृत्त हो गये हैं । अब जिसका तुम काल समझो।" इस दु:खद संवाद से सारा कुशीनारा शोक सन्तप्त हुआ ।
कुशीनारा के मल्लों ने ६ दिन तक निर्वाणोत्सव मनाया । अन्त्येष्टि की तैयारियाँ कीं। सातवें दिन आठ मल्ल प्रमुखों ने भगवान् के शरीर को उठाया । देवता और मनुष्य नृत्य करते साथ चले । मल्लों का जहाँ मुकुट-बन्धन नामक चैत्य था, वहाँ सब आये । आनन्द से मार्ग-दर्शन पाकर चक्रवर्ती की तरह भगवान् का अंत्येष्टि- कार्य सम्पन्न करने लगे । उसी क्रम से भगवान् के शरीर को चिता पर रखा ।
१. हन्द यानि, भिक्खवे आमन्तयामि वो - वयषम्मा सङ्घारा, अप्पमादेन सम्पादेया ति ।
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